श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(32)
*आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक बातें *
*विवेक-प्रयोग *
291 जग अनित्य हरि नित्य है , अस मति जिन्हके एक।
545 तिन्हके हिय हरि के कृपा , जानहु उदित विवेक।।
मान लो हण्डी में चावल पक रहा है। चावल पका है या नहीं , यह देखने के लिए तुम उसमें से एक ही सीथ लेकर उसे दबाकर देखते हो , और उसी पर से समझ लेते हो कि चावल पक गया है या नहीं। तुम चावल के सभी सीथों को एक-एक करके परखकर नहीं देखते, फिर भी यह समझ लेते हो !
यहाँ जिस प्रकार पूरा चावल पक चुका है या कच्चा है, यह एक सीथ को देखकर तुम समझ लेते हो, उसी प्रकार यह संसार सत है या असत, नित्य है या अनित्य ? --यह भी तुम संसार की दो-चार वस्तुओं को ही परखकर जान सकते हो !
मनुष्य जन्मता है ,कुछ दिन जीता है , फिर मर जाता है। पशु का भी यही हाल होता है , और वृक्ष का भी। विवेक-प्रयोग करके देखने पर तुम्हारी समझ में आ जाता है कि जो भी वस्तु 'नाम' और 'रूप ' से युक्त है --उसकी यही गति है। पृथ्वी, सूर्यलोक, चन्द्रलोक - सभी के नाम और रूप हैं , अतएव उनकी भी यही गति है।
इस प्रकार जब तुम जान लेते हो कि सारे संसार का यही स्वभाव है , तब तुम्हें संसार की सभी वस्तुओं का स्वभाव ज्ञात हो जाता है या नहीं ? इसी तरह जब तुम संसार को सचमुच ही अनित्य , असत अनुभव करोगे , तब तुम उस पर प्यार नहीं कर सकोगे। तब तुम उसे मन से त्याग कर वासनारहित बन जाओगे।
और जब तुम इस प्रकार पूर्ण त्याग करने में समर्थ होओगे तभी तुम जगत्कारण परमेश्वर के दर्शन पाओगे। इस तरह से जिसने ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर लिया है , वह व्यक्ति यदि सर्वज्ञ नहीं हुआ फिर वह क्या हुआ ?
292 मिथ्या है यह जग सकल , सत्य केवल भगवान।
543 बिनु हरि कृपा दरस बिनु, पाहि न नर अस जान।।
प्रश्न - क्या संसार मिथ्या है ?
उत्तर - जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्या है। तब तक मनुष्य उन्हें भूलकर 'मैं, मेरा ' करते हुए माया में बद्ध होकर , कामिनी-कांचन के मोह में मुग्ध होकर संसार में और भी डूबता जाता है। माया के कारण मनुष्य इतना अन्धा हो जाता है कि जाल में से ही भागने का रास्ता रहने पर भी भाग नहीं पाता।
तुम लोग तो स्वयं ही देखते हो कि संसार कैसा अनित्य है ? देखो न , यहाँ कितने लोग आये और चले गए। कितने पैदा हुए और कितने मर मिटे ? संसार इस क्षण है तो दूसरे क्षण नहीं ! यह अनित्य है ! जिन्हें तू 'मेरा, मेरा ' कह रहे हो , तुम्हारे ऑंखें बन्द करते ही वे कोई नहीं रहेंगे।
संसार में 'मेरा' कहके 'कुछ' नहीं है , 'कोई' नहीं है ; फिर भी इतनी आसक्ति है कि नाती-पोते के लिए काशीयात्रा नहीं हो पाती। कहते हैं कि - 'मेरे पोते हरि का क्या होगा ? जाल में से निकलने की राह खुली है , फिर भी मछली भाग नहीं सकती। रेशम का कीड़ा अपनी ही लार से बने कोष बनाकर उसमें फंसकर जान गँवा देता है। इस प्रकार संसार मिथ्या है , अनित्य है।
290 ईश्वर ही बस नित्य है, शाश्वत सत्य अनन्त।
541 बाकी जग अनित्य है , पावत इक दिन अन्त।।
इस प्रकार विवेक-विचार किया करो -कामिनी और कांचन अनित्य हैं , एकमात्र ईश्वर ही नित्य हैं। रूपये से क्या मिलता है ? दाल-रोटी , कपड़े और रहने के लिए जगह -बस इतना ही , और कुछ नहीं। रूपये से निश्चित ही ईश्वर नहीं मिलते। रुपया हरगिज जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। इसीको विवेक-विचार कहा जाता है।
रुपये में क्या रखा है , सुन्दर स्त्री की देह में भी क्या है ? विचार करके देखो, सुन्दरी की देह में सिर्फ हाड़ , मांस , चमड़ी, चर्बी ,खून , मल , मूत्र -यही सब है। पर आश्चर्य है कि मनुष्य ईश्वर को छोड़ इन्हीं चीजों में मन लगाता है !
सत्यनिष्ठा
286 सत्य वचन कलिलाल तप , तप ले तज चतुराई।
530 सत्य स्वरुप हरि प्रगटहहिं, जिनके सत्य दृढ़ाई।।
ह्रदय के भीतर भक्तिभाव रखो , कपट चतुराई छोड़ दो। जो सांसारिक कर्म करते हैं , सरकारी -दफ्तर में काम या बिजनेस -व्यापार करते हैं , उन्हें भी सत्यनिष्ठ होना चाहिये। सच बोलना ही कलियुग की तपस्या है।
287 झूठ वचन नहीं नहि बोलिये , धरिये न झूठा वेष।
533 जो बोले पाखण्डी बने, पावे अनरथ क्लेश।।
मिथ्या का कोई भी रूप अच्छा नहीं। मिथ्या वेष धारण करना भी अच्छा नहीं। यदि तुम्हारा मन तुम्हारे वेष के अनुकूल गठित नहीं नहीं हुआ हो तो उस मिथ्या वेष से महान अनर्थ हो जाता है। झूठ बोलते बोलते या बुरे काम करते करते धीरे -धीरे मनुष्य का भय चला जाता है और वह पाखण्डी बन बैठता है।
ब्रह्मचर्य
289 जो पालहि ब्रह्मचर्य व्रत , बारह बरष अखण्ड।
538 मेधानाड़ी खुलहि अरु, बाढ़-हि 'विवेक'- प्रचण्ड।।
बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करने पर मनुष्य की मेधानाड़ी खुल जाती है। तब उसकी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण , कुशाग्र तथा अतिसूक्ष्म तत्वों को भी धारण करने में समर्थ हो जाती है। इस प्रकार की सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही ईश्वर के दर्शन होते हैं। शुकदेव आदि ऊर्ध्वरेता थे , उनका रेतः पात कभी नहीं हुआ।
कुछ लोग धैर्यरेता भी होते हैं। इनका पहले रेतःपात हुआ है परन्तु बाद में इन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन कर वीर्यधारण किया है। यदि कोई बारह वर्ष तक धैर्यरेता रहे , तो उसमें एक विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। भीतर एक नयी नाड़ी पैदा होती है -उसे मेधानाड़ी कहते हैं। वह नाड़ी पैदा होने से मनुष्य सब बातें स्मरण में रख सकता है, सब कुछ जान सकता है।
288 जो चाहत हरि पद दरस , जो चाहत ब्रह्मज्ञान।
536 बिना वीर्य धारण किये , नहिं संभव सत जान।।
जैसे काँच में यदि पारा लगा हुआ हो तो उसमें चेहरा दिखाई देता है। वैसे ही ब्रह्मचर्यपालन के द्वारा वीर्यधारण करने से ब्रह्मदर्शन हो सकता है।
========================:O:================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें