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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (27-A) *सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है ~एक राम उनके हजार नाम* (27-B) *विभिन्न धर्म ईश्वरप्राप्ति के विभिन्न पथ हैं *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
 
(27-A) 
 सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है > " जैसे एकवा, वाटर, वारि ~वैसे अल्ला, गॉड, मुरारि"  

256 जस जल के बहु नाम हैं , एकवा वाटर वारि। 
457 तस सतचित आनन्द के , अल्ला गॉड मुरारि।।

जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारि ' कहता है और कोई 'पानी ' , कोई 'वाटर ' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देशभेद के अनुसार कोई 'हरि ' - या मुरारी भी कहता है, तो कोई 'अल्लाह ' , कोई 'गॉड ' कहता है तो कोई 'ब्रह्म'। 
श्रीरामकृष्ण वचनामृत 
( 5 अप्रैल, 1884)   
“ ब्राह्मसमाजी निराकार-निराकार कहा करते हैं । ख़ैर, कहें । उन्हें अन्दर से पुकारने ही से हुआ । अगर अन्तर की बात हो तो वे तो अन्तर्यामी हैं, वे अवश्य समझा देंगे, उनका स्वरूप क्या है ।
      “परन्तु यह कहना अच्छा नहीं – कि हम लोगों ने जो कुछ समझा है, वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ करते हैं, सब गलत । हम लोग निराकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार नहीं, निराकार हैं; हम लोग साकार कह रहे हैं, अतएव वे साकार हैं, निराकार नहीं ! मनुष्य क्या कभी उनकी इति कर सकता है ?  
        “इसी तरह वैष्णवों और शाक्तों में भी विरोध है । वैष्णव कहता है ‘हमारे केशव ही एकमात्र उद्धारकर्ता हैं’ और शाक्त कहता है, ‘बस हमारी भगवती एकमात्र उद्धार करनेवाली है ।’
       “मैं वैष्णवचरण को सेजो बाबू* के पास ले गया था । वैष्णवचरण वैरागी है, बड़ा पण्डित है, परन्तु कट्टर वैष्णव है । इधर सेजो बाबू भगवती के भक्त हैं । अच्छी बातें हो रही थीं, इसी समय वैष्णवचरण ने कह डाला, ‘मुक्ति देनेवाले तो एक केशव ही हैं ।’
     केशव का नाम लेते ही सेजो बाबू का मुँह लाल हो गया और वे बोले, ‘तू साला ।’ (सब हँस पड़े।) मथुर बाबू शाक्त जो थे ! उनके लिए यह कहना स्वाभाविक ही था । मैंने इधर वैष्णवचरण को खींच लिया ।
     “जितने आदमियों को देखता हूँ, धर्म-धर्म करके एक दूसरे से झगड़ा किया करते हैं । हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मसमाजी, शाक्त, वैष्णव, शैव, सब एक दूसरे से लड़ाई-झगड़ा करते हैं यह बुद्धिमानी नहीं है । जिन्हें कृष्ण कहते हो, वे ही शिव, वे ही आद्याशक्ति हैं, वे ही ईसा हैं और वे ही अल्लाह हैं । एक राम उनके हजार नाम ।
        “वस्तु एक ही है, केवल उसके नाम अलग अलग हैं । सब लोग एक ही वस्तु की चाह कर रहे हैं । अन्तर इतना ही है की देश अलग है, पात्र अलग और नाम अलग । एक तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट से पानी ले रहे हैं, घड़े में भरकर कहते हैं, ‘जल’ । मुसलमान एक दूसरे घाट से पानी भर रहे हैं, चमड़े के बैग में – कहते हैं, ‘पानी’ । क्रिस्तान तीसरे घाट से पानी ले रहे हैं – वे कहते हैं ‘वाटर’ (Water) । (सब हँसते हैं।)
      “अगर कोई कहें, नहीं यह चीज जल नहीं है, यह पानी है या वाटर नहीं जल है, तो यह हँसी की ही बात होगी । इसीलिए दल, मतान्तर और झगड़े होते हैं । धर्म के नाम पर लट्ठम-लट्ठा , मार-काट ? यह सब अच्छी नहीं है । सब उन्हीं के पथ पर जा रहे हैं । आन्तरिकता होने पर, व्याकुलता आने पर – उन्हें मनुष्य प्राप्त करेगा ही।
         (मणि से) तुम यह सुनते जाओ – वेद, पुराण, तन्त्र-शास्त्र उन्हींको चाहते हैं; वे किसी दूसरे को नहीं चाहते । सच्चिदानन्द बस एक ही हैं । जिन्हें वेदों में ‘सच्चिदानन्द ब्रह्म’ कहा है, तन्त्र में उन्हींको ‘सच्चिदानन्द शिव’ कहा है, उन्हींको उधर पुराणों में ‘सच्चिदानन्द कृष्ण’ कहा है ।”
(To M.) "This is for you. All scriptures — the Vedas, the Puranas, the Tantras — seek Him alone and no one else, only that one Satchidananda. That which is called Satchidananda Brahman in the Vedas is called Satchidananda Siva in the Tantra. Again it is He alone who is called Satchidananda Krishna in the Puranas."
(মণির প্রতি) — “তুমি এইটে শুনে যাও —“বেদ, পুরাণ, তন্ত্র — সব শাস্ত্রে তাঁকেই চায়, আর কারুকে চায় না — সেই এক সচ্চিদানন্দ। যাকে বেদে ‘সচ্চিদানন্দ ব্রহ্ম’ বলেছে, তন্ত্রে তাঁকেই ‘সচ্চিদানন্দ শিবঃ’ বলেছে, তাঁকেই আবার পুরাণে ‘সচ্চিদানন্দ কৃষ্ণঃ’ বলেছে।”

“ব্রহ্মজ্ঞানীরা নিরাকার নিরাকার বলছে, তা হলেই বা; আন্তরিক তাঁকে ডাকলেই হল। যদি আন্তরিক হয়, তিনি তো অন্তর্যামী, তিনি অবশ্য জানিয়ে দেবেন, তাঁর স্বরূপ কি।
“তবে এটা ভাল না — এই বলা যে আমরা যা বুঝেছি তাই ঠিক, আর যে যা বলছে সব ভুল। আমরা নিরাকার বলছি, অতএব তিনি নিরাকার, তিনি সাকার নন। আমরা সাকার বলছি, অতএব তিনি সাকার, তিনি নিরাকার নন। মানুষ কি তাঁর ইতি করতে পারে?
“এইরকম বৈষ্ণব শাক্তদের ভিতর রেষারেষি। বৈষ্ণব বলে, আমার কেশব, — শাক্ত বলে, আমার ভগবতী, একমাত্র উদ্ধারকর্তা।
“আমি বৈষ্ণবচরণকে সেজোবাবুর কাছে নিয়ে গিছলাম। বৈষ্ণবচরণ বৈরাগী খুব পণ্ডিত কিন্তু গোঁড়া বৈষ্ণব। এদিকে সেজোবাবু ভগবতীর ভক্ত। বেশ কথা হচ্ছিল, বৈষ্ণবচরণ বলে ফেললে, মুক্তি দেবার একমাত্র কর্তা কেশব। বলতেই সেজোবাবুর মুখ লাল হয়ে গেল। বলেছিল, ‘শালা আমার!’ (সকলের হাস্য) শাক্ত কিনা। বলবে না? আমি আবার বৈষ্ণবচরণের গা টিপি।
“যত লোক দেখি, ধর্ম ধর্ম করে — এ ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে, ও ওর সঙ্গে ঝগড়া করছে। হিন্দু, মুসলমান, ব্রহ্মজ্ঞানী, শাক্ত, বৈষ্ণব, শৈব — সব পরস্পর ঝগড়া। এ বুদ্ধি নাই যে, যাঁকে কৃষ্ণ বলছো, তাঁকেই শিব, তাঁকেই আদ্যাশক্তি বলা হয়; তাঁকেই যীশু, তাঁহাকেই আল্লা বলা হয়। এক রাম তাঁর হাজার নাম।
“বস্তু এক, নাম আলাদা। সকলেই এক জিনিসকে চাচ্ছে। তবে আলাদা জায়গা, আলাদা পাত্র, আলাদা নাম। একটা পুকুরে অনেকগুলি ঘাট আছে; হিন্দুরা একঘাট থেকে জল নিচ্ছে, কলসী করে — বলছে ‘জল’। মুসলমানরা আর একঘাটে জল নিচ্ছে, চামড়ার ডোলে করে — তারা বলছে ‘পানী।’ খ্রীষ্টানরা আর-একঘাটে জল নিচ্ছে — তারা বলছে ‘ওয়াটার।’ (সকলের হাস্য)
“যদি কেউ বলে, না এ জিনিসটা জল নয়, পানী; কি পানী নয়, ওয়াটার; কি ওয়াটার নয়, জল; তাহলে হাসির কথা হয়। তাই দলাদলি, মনান্তর, ঝগড়া, ধর্ম নিয়ে লাটালাটি, মারামারি, কাটাকাটি — এ-সব ভাল নয়। সকলেই তাঁর পথে যাচ্ছে, আন্তরিক হলেই ব্যাকুল হলেই তাঁকে লাভ করবে।
"The Brahmos insist that God is formless. Suppose they do. It is enough to call on Him with sincerity of heart. If the devotee is sincere, then God, who is the Inner Guide of all, will certainly reveal to the devotee His true nature."But it is not good to say that what we ourselves think of God is the only truth and what others think is false, that because we think of God as formless, therefore He is formless and cannot have any form; that because we think of God as having form, therefore He has form and cannot be formless. Can a man really fathom God's nature?"This kind of friction exists between the Vaishnavas and the Saktas; The Vaishnava says, 'My Kesava is the only Saviour', whereas the Sakta insists, 'My Bhagavati is the only Saviour.'"Once I took Vaishnavcharan to Mathur Babu. Now, Vaishnavcharan was a very learned Vaishnava and an orthodox devotee of his sect. Mathur, on the other hand, was a devotee of the Divine Mother. They were engaged in a friendly discussion when suddenly Vaishnavcharan said, 'Kesava is the only Saviour.' No sooner did Mathur hear this than his ,face became red with anger and he blurted out, 'You rascal!' (All laugh.) He was a Sakta. Wasn't it natural for him to say that? I gave Vaishnavcharan a nudge."I see people who talk about religion constantly quarrelling with one another. Hindus, Mussalmans, Brahmos, Saktas, Vaishnavas, Saivas, all quarrel with one another. They haven't the intelligence to understand that He who is called Krishna is also Siva and the Primal Sakti, and that it is He, again, who is called Jesus and Allah. There is only one Rama and He has a thousand names.'"Truth is one; only It is called by different names. All people are seeking the same Truth; the variance is due to climate, temperament, and name. A lake has many ghats. From one ghat the Hindus take water in jars and call it 'jal'. From another ghat the Mussalmans take water in leather bags and call it 'pani'. From a third the Christians take the same thing and call it 'water'. (All laugh.) Suppose someone says that the thing is not 'jal' but 'pani', or that it is not 'pani' but 'water', or that it is not 'water' but 'jal', It would indeed be ridiculous. But this very thing is at the root of the friction among sects, their misunderstandings and quarrels. This is why people injure and kill one another, and shed blood, in the name of religion. But this is not good. Everyone is going toward God. They will all realize Him if they have sincerity and longing of heart.
 { [5 अप्रैल 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (सम्पूर्ण, द्वितीय मुद्रण -4 . 11 . 2014/ परिच्छेद~ 79 पृष्ठ -485) ब्रह्मसमाजी , वैष्णव और शाक्त साम्प्रदायिकता  के सम्बन्ध में उपदेश "]

(27-B)

*विभिन्न धर्म ईश्वरप्राप्ति के विभिन्न पथ हैं *

257 जस माटी के भेद बहु , गमला हण्डी सुराही। 
458 तस हरि धर धर भेष बहु जग में जगहित आहि।। 

जिस प्रकार कुम्हार के यहाँ हण्डी , गमले , सुराही ,संकोरे आदि भिन्न -भिन्न वस्तुएँ होती हैं ; परन्तु सभी एक ही मिट्टी की बनी होती हैं , उसी प्रकार ईश्वर एक होते हुए भी देश-काल आदि के भेदानुसार भिन्न-भिन्न रूपों और भावों में प्रकट होते हैं।

258 एक प्रभु के नाम अनन्त , रूप अनन्त है जान। 
463 भज ले कोई इक नाम रूप , मिलेंगे श्री भगवान।।

ईश्वर के अनंत नाम और अनन्त रूप हैं। जिस नाम और जिस रूप में तुम्हारी रूचि हो उसी नाम से और उसी रूप में तुम उन्हें पुकारो , तुम्हें उनके  दर्शन मिलेंगे। 
 
259 काली धाम है एक पर , ताको अनेक राह। 
454 भगवन एक बहु राह तस , जाकर जैसी चाह।।

जैसे कालीघाट के कालीमंदिर में जाने के बहुतसे रास्ते हैं , वैसे ही भगवान के घर जाने के लिये भी बहुतसे रास्ते हैं। हरएक धर्म एक एक राह है। 

श्रीरामकृष्ण वचनामृत

 (7 सितंबर,1884, पृष्ठ -512 )

*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्म- समन्वय* 

"वे (बाउल मत) लोग सिद्धावस्था को सहज अवस्था कहते हैं । एक दर्जे के आदमी हैं । वे 'सहज, सहज' का हुंकार करते  फिरते हैं । वे सहज अवस्था के दो लक्षण बतलाते हैं । एक यह कि देह में कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी और दूसरा यह कि पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा । कृष्ण की गन्ध भी न रह जायगी, इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे, बाहर कोई लक्षण प्रकट न होगा - नाम का जप भी न करेगा । दूसरे का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता ।

"वे लोग ठाकुर-पूजन, मूर्तिपूजन, यह सब पसन्द नहीं करते – जीता-जागता आदमी चाहते हैं । इसीलिए उनके दर्जे के आदमियों को  कर्ताभजा कहते हैं। 'कर्ताभजा' ~ अर्थात् जो लोग कर्ता को – गुरु को ईश्वर समझते और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं ।"
{ सिद्ध बाउल की सहज अवस्था के दो लक्षण - (1) " कृष्ण की गन्ध भी न रहेगी "= ईश्वर के भाव सब अन्तर में ही रहेंगे। आध्यात्मिकता का कोई लक्षण बाहर प्रकट न होंगे,  'सोऽहं' कभी न निकलेगा,  नाम-जप भी नहीं करेगा। (2) "पद्म पर भौंरा बैठेगा, परन्तु मधुपान न करेगा "   =का अर्थ है, कामिनी और कांचन की आसक्ति का त्याग – जितेन्द्रियता। कर्ताभजा - मत के बाउल, अपने संघ के कर्ता को - गुरु [ (C-IN-C) श्रीनवनीदा जैसा नेता ?] को ईश्वर समझते हैं और इसी भाव से उनकी पूजा करते हैं! }
श्रीरामकृष्ण - देखा, कितने तरह के मत हैं । जितने मत उतने पथ । असंख्य मत हैं और असंख्य पथ हैं।
भवनाथ- अब उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - एक को बलपूर्वक पकड़ना पड़ता है ।  छत पर जाने की चाह है, तो जीने से भी चढ़ सकते हो; बाँस की सीढ़ी लगाकर भी चढ़ सकते हो; रस्सी की सीढ़ी लगाकर, सिर्फ रस्सी पकड़कर या केवल एक बाँस के सहारे, किसी भी तरह से छत पर पहुँच सकते हो, परन्तु एक पैर इसमें और दूसरा उसमें रखने से नहीं होता । एक को दृढ़ भाव से पकड़े रहना चाहिए ।  ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए ।

[ईश्वर एक ही है किन्तु उनके विषय में असंख्य मत (innumerable opinions ) हैं ,  और ईश्वर तक पहुँचने के असंख्य पथ (innumerable paths) हैं ! ईश्वरलाभ करने की इच्छा हो तो एक ही रास्ते पर चलना चाहिए । चारो योगों में मनःसंयोग (Mental Concentration) कॉमन है - इसी को दृढ़ भाव से पकड़ना अच्छा है ! } 

"और दूसरे मतों को भी एक एक मार्ग समझना । यह भाव न हो कि मेरा ही मार्ग ठीक है, और सब झूठ हैं; द्वेष न हो । 

{"The Bauls designate the state of perfection as the 'sahaja', the 'natural' state. There are two signs of this state. First, a perfect man will not 'smell of Krishna'. Second, he is like the bee that sits on the lotus but does not sip the honey. The first means that he keeps all his spiritual feelings within himself. He doesn't show outwardly any sign of spirituality. He doesn't even utter the name of Hari. The second means that he is not attached to woman. He has completely mastered his senses.

"The Bauls do not like the worship of an image. They want a living man. That is why one of their sects is called the Kartabhaja. They worship the karta, that is to say, the guru, as God.

[Mahamandal's Kartabhaja, i.e. the Karta - the Guru (the leader, 'C-IN-C' Navnida?)]

"You see how many opinions there are about God. Each opinion is a path. There are innumerable opinions and innumerable paths leading to God."

BHAVANATH: "Then what should we do?"

"You must stick to one path with all your strength. A man can reach the roof of a house by stone stairs or a ladder or a rope-ladder or a rope or even by a bamboo pole. But he cannot reach the roof if he sets foot now on one and now on another. He should firmly follow one path. Likewise, in order to realize God a man must follow one path with all his strength.

"But you must regard other views as so many paths leading to God. You should not feel that your path is the only right path and that other paths are wrong. You mustn't bear malice toward others

"Well, to what path do I belong? Keshab Sen, used to say to me: 'You belong to our path. You are gradually accepting the ideal of the formless God.' Shashadhar says that I belong to his path. Vijay, too, says that I belong to his — Vijay's — path."

“ওরা সিদ্ধাবস্থাকে বলে সহজ অবস্থা। একথাকের লোক আছে, তারা ‘সহজ’ ‘সহজ’ করে চ্যাঁচায়। সহজাবস্থার দুটি লক্ষণ বলে। প্রথম — কৃষ্ণগন্ধ গায়ে থাকবে না। দ্বিতীয় — পদ্মের উপর অলি বসবে, কিন্তু মধু পান করবে না। ‘কৃষ্ণগন্ধ’ নাই, — এর মানে ঈশ্বরের ভাব সমস্ত অন্তরে, — বাহিরে কোন চিহ্ন নাই, — হরিনাম পর্যন্ত মুখে নাই। আর একটির মানে, কামিনীতে আসক্তি নাই — জিতেন্দ্রিয়।

“ওরা ঠাকুরপূজা, প্রতিমাপূজা — এ-সব লাইক করে না, জীবন্ত মানুষ চায়। তাই তো ওদের একথাকের লোককে বলে কর্তাভজা, অর্থাৎ যারা কর্তাকে — গুরুকে — ঈশ্বরবোধে ভজনা করে — পূজা করে।”

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখছো কত রকম মত! মত, পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ!

ভবনাথ — এখন উপায়!

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা জোর করে ধরতে হয়। ছাদে গেলে পাকা সিঁড়িতে উঠা যায়, একখানা মইয়ে উঠা যায়, দড়ির সিঁড়িতে উঠা যায়; একগাছা দড়ি দিয়ে, একগাছা বাঁশ দিয়ে উঠা যায়। কিন্তু এতে খানিকটা পা, ওতে খানিকটা পা দিলে হয় না। একটা দৃঢ় করে ধরতে হয়। ঈশ্বরলাভ করতে হলে, একটা পথ জোর করে ধরে যেতে হয়।

“আর সব মতকে এক-একটি পথ বলে জানবে। আমার ঠিক পথ, আর সকলের মিথ্যা — এরূপ বোধ না হয়। বিদ্বেষভাব না হয়।”

“আচ্ছা, আমি কোন্‌ পথের? কেশব সেন বলত, আপনি আমাদেরই মতের, — নিরাকারে আসছেন। শশধর বলে, ইনি আমাদের। বিজয়ও (গোস্বামী) বলে, ইনি আমাদের মতের লোক।”

261 एक तालाब है घाट बहु , पर पानी है एक।
467 धरम धरम तस पंथ बहु , ब्रह्म वारि पर एक।।

जिस प्रकार छत पर चढ़ने के लिये निसैनी , बाँस , रस्सा , सीढ़ी आदि अनेक उपाय हैं, उसी प्रकार ईश्वर के निकट पहुँचने के लिए भी अनेक उपाय हैं - प्रत्येक धर्म ही एक-एक उपाय बताता है।  

260 शहनाई जस एक है, बाजत धुन अनेक। 
466 तस ईश्वर तो एक है, होवत पथ अनेक।।

किसी ब्राह्म सज्जन के द्वारा पूछे जाने पर कि ब्राह्म धर्म और हिन्दू धर्म में क्या भेद है , श्री रामकृष्ण ने कहा था -शहनाई में एक ही स्वर अलापने और अलग अलग धुनें बजाने में जो अन्तर है वही। ब्राह्म धर्म मानो ब्रह्म का एक ही स्वर लगाकर बैठा है , जबकि हिन्दू धर्म उनमें से अलग-अलग सुर -तान -लय निकालते हुए तरह -तरह की राग-रागिनियाँ बजा रहा है। 
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[ प्रश्न - भगवान श्रीकृष्ण का 'मुरारी' नाम कैसे पड़ा ? 

          वामन पुराण के अनुसार प्राचीन काल में कश्यप ऋषि का औरस पुत्र 'मुर' नाम का एक असुर था। असुरों का स्वभाव होता है देवताओं से लड़ना । असुरों ने कई बार देवताओं से युद्ध किया, परन्तु जीत सदैव देवताओं की हुई; क्योंकि जहां भगवान का आश्रय हो, जीत वहीं होती है । बार-बार हारने से असुर बलहीन हो गए । मुर दैत्य ने सोचा कि कहीं देवता हमें मार ही न दें; इसलिए मरने के डर से भयभीत होकर उसने बहुत काल तक ब्रह्माजी की तपस्या की । उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा । मुर ने कहा- ' मैं जो कुछ भी वर  मांगूं, उसे आप दें तब मैं अपनी बात कहूँगा ।'
ब्रह्माजी ने कहा-'तुम्हारी तपस्या से मैं कृतज्ञ हूँ, तुम जो मांगोगे, वह मैं दूंगा ।'
        मुर दैत्य ने कहा-'मैं युद्धक्षेत्र में या कहीं भी अपनी हथेली जिसके शरीर पर रख दूँ, वह मर जाए; चाहे वह अमर ही क्यों न हो ?'
देवता अमर होते हैं; इसलिए यह बात मुर ने देवताओं के लिए कही थी । असुरों की बुद्धि माया से मोहित होती है, इसलिए वे विनाश ही मांगते हैं । ब्रह्माजी ने 'तथाऽस्तु' कह दिया । मुर दैत्य वर पाकर त्रिभुवन में घूमा; परन्तु किसी की भी हिम्मत उससे युद्ध करने की नहीं हुई ।मुर दैत्य ने सोचा-यमराज ही सबको मारने वाला है, अतएव सबसे पहले उसी को मारना चाहिए । सो वह यमराज के पास पहुंचा।
यमराज ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए कहा-'मैं तो निर्बल हूँ, मुझसे तुम क्या लड़ोगे ? तुम्हें लड़ना ही है तो मैंने सुन रखा है कि वैकुण्ठ में जो नारायण है, वह बहुत बलवान है । देवताओं को सारा बल वहीं से प्राप्त होता है । उनको तुम समाप्त कर दो, तो तुम्हारी जीत सदा के लिए हो जाएगी ।'मुर दैत्य को बात समझ आ गई । वह तुरंत वैकुण्ठ लोक पहुंच गया और भगवान नारायण के पास जाकर खड़ा हो गया ।
भगवान ने उससे कहा-'तुम यहां किस काम से आए हो ?' 
मुर दैत्य ने कहा- 'मैं तुमसे युद्ध करने आया हूँ ।'
मुर की बात सुनकर भगवान नारायण ने कहा- 'तुम आए हो मुझसे लड़ने के लिए, परन्तु जैसे किसी को ज्वर हो जाए तो उसका कलेजा कांपता है; उसी प्रकार तुम्हारा कलेजा क्यों कांप रहा है? मैं तुम्हारे जैसे डरपोक से नहीं लड़ता ।'
मुर दैत्य ने कहा- 'तुम मुझे कैसे डरपोक कहते हो, मेरा कलेजा कहां कांप रहा है ?'
भगवान ने कहा- 'तुम हाथ लगाकर देखो, कांप रहा है या नहीं ?'
मुर ने जैसे ही कलेजे पर हाथ रखा, वह जैसे केले की जड़ कट कर गिर जाती है, वैसे ही पृथ्वी पर गिर पड़ा । गिरते ही भगवान ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । सभी देवता वहां आकर भगवान की जय-जयकार कर कहने लगे-'आपने सबको बचा लिया, नहीं तो यह दैत्य किसी को छोड़ता नहीं ।'उस दिन से भगवान का नाम 'मुरारी' (मुरारि) हो गया-'मुरारि' अर्थात् मुर के शत्रु, मुर को मारने वाले।
लेकिन भगवान श्रीकृष्ण को 'मुरारी' क्यों कहते हैं ? यहां यह शंका होनी स्वाभाविक है कि मुरारी तो भगवान नारायण थे; फिर श्रीमद्भागवत के 'वेणुगीत' में गोपियों ने श्रीकृष्ण को 'मुरारी' क्यों कहा है?  
      इसके कई कारण हैं-▪️श्रीकृष्ण के नामकरण संस्कार में गर्गाचार्यजी ने यशोदा माता और नंदबाबा से कहा था कि-'यह बालक नारायण ही है और यह युग-युग में रंग-रूप परिवर्तित करके आता रहता है। सत्य युग में यह श्वेत वर्ण का और त्रेता युग में रक्त वर्ण का था; किंतु इस समय द्वापर युग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है । अत: इसका नाम अब 'कृष्ण' होगा ।' 
   यशोदा माता ने  यह बात गोपियों को बता दी थी; इसलिए गोपियां वेणुगीत में श्रीकृष्ण को मुरारी नाम से सम्बोधित करती हैं; क्योंकि जिस प्रकार नारायण ने मुर दैत्य का नाश कर देवताओं को निश्चिन्त किया; उसी प्रकार श्रीकृष्ण हमारे मुरों-क्लेश, संताप, कर्मफलभोग आदि का नाश करने वाले हैं । गोपियां कहती हैं-हमारी जो संसार की कामना है जिसके कारण आज हम यहां बंधी हैं; श्रीकृष्ण हमारी उन वासनाओं को, हमारे क्लेश, संताप और विरह-ताप को मिटा दीजिए और अपने 'मुरारी' नाम को सार्थक कीजिए ।
▪️भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन को गोपनीय रहस्य बताते हुए कहा-'हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदि कारण मैं ही हूँ । संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो । जगत में जहां-जहां वैभव, तेज, लक्ष्मी दीखती है, वह सब मेरी विभूति का अंश समझो । समस्त ब्रह्माण्ड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है (गीता १०। ३९-४१-४२)।'
'मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ-
-मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है ।
-दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है ।
-तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है ।
-चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है । जब मेरा चौथा स्वरूप योग-निद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है ।
इन सब कारणों से भगवान नारायण और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है; इसलिए दोनों को ही मुरारी कहा जाता है । ]
(साभार https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi)

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