श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(8)
*धर्म के सिद्धांतों पर तर्क-वितर्क करना व्यर्थ है *
91 अज्ञानी बोले बहुत , जीवे धर्म अत्यल्प।
152 ज्ञानी जन आचरण करे , बोलत है बहु अल्प।।
साधारण लोग 'थैलाभर ' धर्म की बातें करते रहते हैं पर उसका 'रत्तीभर ' भी चरित्र में नहीं उतारते। ज्ञानी व्यक्ति बोलते बहुत कम हैं , किन्तु उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्रगत धर्म की अभिव्यक्ति ही होती है।
84 'मुँह' से सरल 'कर ' से कठिन , जस तबला की बोल।
141 कहत सरल आचरत कठिन , तसहि धरम अनमोल।।
मृदंग या तबले के बोल मुँह से निकालना आसान है , किन्तु प्रत्यक्ष बजाना कठिन। इसी तरह धर्म की बात मुंह से कहना तो सरल है , किन्तु आचरण में लाना कठिन।
93 तर्क वितर्क जो करे बहु , धर्म स्वाद से दूर।
154 चखत स्वाद नहि शब्द करे , आनन्द रस भरपूर।।
मधुमक्खी जबतक 'गुन गुन ' करती हुई फूल के चारों ओर मँडराती रहती है , तब तक यह समझना चाहिए कि उसे फूल का मधु नहीं मिला है। अगर एक बार उसे मधु मिल जाये तो फिर उसका गुनगुनाना भी रुक जाता है। और वह शांत होकर फूल पर बैठकर मधुपान करने लगती है। इसी तरह , मनुष्य जब तक धर्म के सिद्धान्तों को लेकर तर्क-वितर्क करता रहता है , तब तक यही समझना चाहिए कि उसे धर्मामृत का स्वाद नहीं मिला है। एक बार यदि वह उस अमृत का स्वाद चख ले तो फिर वह शांत [विवेकानन्द !] हो जाता है।
90 बिन दरसन बहु तर्क करे , अध् जल गगरी समान।
151 दरस पाई आनन्द मगन , शान्त सदा सुजान।।
खाली गड़ुए में पानी भरते समय 'भक ', ' भक ' आवाज होती है। पर गड़ुआ भर जाने पर कोई आवाज नहीं होती। इसी प्रकार , जिन्हें भगवान की प्राप्ति नहीं हुई है , वे ही भगवान के स्वरुप के सम्बन्ध में नाना प्रकार के निरर्थक तर्क-वितर्क किया करते हैं , किन्तु जिसने भगवान का दर्शनलाभ कर लिया है , वह शान्त और स्थिर होकर दिव्य ईश्वरीय आनन्द का उपभोग करता है।
92 जस जस हरि की ओर बढ़े , घटहि तर्क बहु जान।
153 मिलत प्रभु से सकल मिटे , प्रगटत हिय में ज्ञान।।
घर-भोज के प्रारम्भ में बहुत गप-गपाड़ा सुनाई देता है , पर जब सभी पत्तल पर बैठ जाते हैं , तब हो-हल्ला बहुत कुछ घट जाता है। फिर जब पूड़ी -सब्जी परोस दी जाती है , और लोग खाना शुरू कर देते हैं , उस समय शोर बारह आना कम हो जाता है। जब मिठाइयाँ परोसी जाने लगती हैं , तो आवाज और भी कम हो जाती है। और अन्त में जब 'चटनी ' की बारी आती है तब केवल 'सप्प सप्प ' की आवाज सुनाई देने लगती है। फिर भोजन के बाद निद्रा (compulsory rest)! तब सबकुछ बिलकुल शान्त हो जाता है।
मनुष्य ईश्वर के जितने नजदीक आता है , तर्क-विचार और प्रश्न करने की प्रवृत्ति उतनी ही घट जाती है। जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है , उनके प्रत्यक्षः दर्शन हो जाते हैं , तब तर्क-विचार आदि का शोरगुल पूरी तरह शांत हो जाता है। यह मानो निद्रा की स्थिति है ; निद्रा अर्थात समाधि --ईश्वर के साथ युक्त होने की दिव्य आनंदमय अवस्था !
94 कच्ची पूड़ी शब्द करे , पकत होत अति शान्त।
157 तस अज्ञानी तर्क बहु , ज्ञानी सदा प्रशान्त।।
गरम घी में कच्ची पूड़ी छोड़ने पर 'छन -छन्न ' की आवाज होती है। पर पूड़ी जैसे जैसे पकती जाती है, वैसे वैसे आवाज कम होती जाती है , और जब वह पूरी तरह पक जाती है तब तो आवाज बिलकुल बन्द हो जाती है। इसी तरह , थोड़ा से ज्ञान मिलने पर मनुष्य खूब व्याख्यान देने और प्रचार करने लगता है , किन्तु पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने पर सारा बाह्याडम्बर समाप्त हो जाता है। वृथा तर्क मत करो। तर्क करके तुम किसी को उसकी भूल नहीं समझा सकते। जब माँ जगदम्बा की कृपा हो जाती है, तभी मनुष्य अपनी गलतियों को समझ पाता है।
" किताबी ज्ञान का खोखलापन "
82 गिद्ध उड़े आकाश में , ढूँढे सड़ी लाश।
137 तस शास्त्री मन वासना , होत न ज्ञान प्रकाश।।
एक दिन केशवचन्द्र सेन दक्षिणेश्वर आये और उन्होंने श्री रामकृष्णदेव से पूछा , " बहुत से पण्डित शास्त्रों का समूचा पुस्तकालय ही पढ़ डालते हैं , परन्तु फिर भी उनमें आध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी इतना घना अज्ञान कैसे बना रहता है ? " इस पर श्री रामकृष्णदेव ने उत्तर दिया , " चील-गिद्ध बहुत ऊँचा उड़ते हैं ; पर उनकी नजर मरे जानवरों की सड़ी लाश पर गड़ी रहती है। इसी प्रकार अनेक शास्त्रों का पाठ करने के बावजूद इन तथाकथित पण्डितों का मन सदा सांसारिक विषयों में , कामिनी -कांचन में आसक्त रहता है,इसीलिए उन्हें ज्ञानलाभ नहीं होता। "
83 कंचन काम है प्रिय जेहि , है जग पर आसक्ति।
139 शास्त्र पढ़न से लाभ नहीं , नहीं ज्ञान नहिं मुक्ति।।
कोरे पाण्डित्य से क्या लाभ ? पण्डितों को बहुत सारे शास्त्र , अनेकों श्लोक कंठस्थ हो सकते हैं , पर वह सब केवल रटने और दुहराने से क्या लाभ ? अपने जीवन में शास्त्रों में निहित सत्यों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होनी चाहिए। जब तक संसार के प्रति आसक्ति है , कामिनी -कांचन पर प्रीति है , तब तक चाहे जितने शास्त्र पढ़ो , ज्ञानलाभ नहीं होगा , मुक्ति नहीं मिलेगी।
85 परम् तत्व के ज्ञान बिन , वृथा शास्त्र का ज्ञान।
143 पंजी निचोड़त जल न मिले , धर ले मनुवा ध्यान।।
क्या धार्मिक ग्रन्थ पढ़कर भगवद-भक्ति प्राप्त की जा सकती है ? पंचांग में लिखा होता है कि अमुक दिन इतना पानी बरसेगा ; परन्तु समूचे पंचांग को निचोड़ने से तुम्हें एक बून्द भी पानी नहीं मिलता। इसी प्रकार , पोथियों में धर्मसम्बन्धी अनेक बातें लिखी होती हैं , पर उन्हें केवल पढ़ने से धर्मलाभ नहीं होता , उसके लिए इन तत्वों को लेकर साधना करनी होती है।
86 भांग भांग मनुवा रटे , नशा चढ़े नहि एक।
146 हरि हरि रटत न हरि मिले , बिन साधना विवेक।।
'भाँग भाँग ' कहकर कितना भी चिल्लाओ , उससे नशा नहीं चढ़ने वाला। भाँग ले जाओ , उसे घोंटो , पियो , तभी उसका नशा चढ़ेगा। सिर्फ 'भगवान भगवान ' कहकर चिल्लाने से क्या लाभ ? नियमित रूप से साधना करो [3H विकास के 5 अभ्यास करो ] , तभी तुम्हें सिद्धि मिलेगी।
87 धन विद्या का गरब जिन्हें , जिन्हें अहम अभिमान।
147 सपनेउ तिन्ह हरिदर्शन नहि , होवत नहि कछु ज्ञान।।
जिसे विद्या या धन का गर्व हो उसे ईश्वरलाभ नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्ति से यदि तुम पूछो, " अमुक स्थान पर एक अच्छे साधु हैं , उनके दर्शन के लिए चलोगे ? " तो अवश्य ही वह बहाने बनाते हुए कहेगा, " मैं नहीं जा सकता। " वह सोचता है - 'मैं इतना बड़ा आदमी ! मैं उसके पास जाऊंगा ! ' अज्ञान के कारण ही यह अहंकार होता है।
88 बिना विवेक विराग बिन , बिना सत्य अनुराग।
149 ग्रन्थ पढ़े भव गांठ बढ़े , बढ़े अहम कुभाग।।
ग्रन्थ सब समय ग्रन्थ का काम न कर ग्रन्थि (गाँठ ) का ही काम करते हैं। यदि ग्रंथों का अध्यन 'सत्य ' प्राप्ति की स्पृहा लेकर , विवेक-वैराग्य युक्त अन्तःकरण से न पढ़ा जाए तो उनके पठन से पाण्डित्य अभिमान , और अहंकार की गाँठ ही पक्की होती जाती है।
89 गरम राख में पड़त जल , जसहि तुरत उड़ जाहि।
150 तस दम्भी के ध्यान भजन , बिन फल सकल नशाहि।।
गरम राख की ढेरी पर पानी डालते ही सबका सब पानी उड़ जाता है। अभिमान-दाम्भिकता भी राख की ढेरी के समान है। दाम्भिक अन्तःकरण लेकर ध्यान -भजन , प्रार्थना आदि करने से कोई फल नहीं मिलता।
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