मंगलवार, 27 जुलाई 2021

🕊🏹🙏🔆परिच्छेद ~ 90, [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~ 90 ] Pay carriage hire of a Guru /Leader *श्रीरामकृष्ण के 'अप्रतिरोध' (Non-resistance) का सिद्धान्त -सत्व गुण का तम *विद्या और अविद्या के रूपों से वे ही लीला कर रहे हैं ।* Mother, why do You make me argue?* राई बोलिले बोलिते पारे ! (कृष्णेर जोन्ने जेगे आछे) (सारा रात जेगे आछे ! ) (मान कोरिले करिते पारे। )*माँ , तुम मुझसे तर्क क्यों करवाती हो ? * "माँ, मुझे पागल कर दे । ज्ञान और तर्क के द्वारा या शास्त्रों का पाठ करके कोई ईश्वर की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकता ।” ईश्वर दर्शन का उपाय है ~ गुरुवाक्य पर विश्वास * [साधना (3H विकास के 5 अभ्यास) किये बिना शास्त्रों की अवधारणा नहीं होती !] कामारपुकुर की बढ़ई- कन्या का कार्यदर्शन"दूध में मक्खन है, दूध में मक्खन है, [महावाक्य -तत्त्वमसि ] इस तरह चिल्लाते रहने से क्या होता है ? उसे निकालने की चेष्टा करनी पड़ेगी। दूध में जोरन डालो , दही जमाओ, मथो, तब होगा * आपने निकाला है मक्खन ? मक्खन निकालकर मुँह के सामने रखो । न तालाब में चारा (मछलियों का) छोडेगा - न बंसी लेकर बैठा रहेगा - बस, मछली पकड़कर उसके हाथ में रख दो ! कैसा उत्पात है ! *मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता :- केमन घी , ना जेमन घी *नारद और शुकदेव आदि ने ब्रह्मज्ञान के पश्चात् भक्ति ली थी, उनका ईश्वर पर प्रेम हुआ था । प्रेम ही सच्चिदानन्द को पकड़ने की रस्सी है ।" इसी का नाम विज्ञान है ।*जो नित्य (the Absolute)में पहुँचकर लीला (the Relative)लेकर रहता है, और पुनः लीला से नित्य में उठ सकता है उसीका नाम है -विज्ञानी !* ज्ञानी संसार को धोखे की टट्टी (माया -भ्रम framework of illusion) समझता है, और विज्ञानी 'आनन्द की हवेली ' (mansion of mirth) *तुमि त्रिभुवन नाथ, आमि भिखारि अनाथ *बल करे , केशे धरे, दाओ चरणे आश्रय।* वेदों में आभास (hint) मात्र है ।" वे पाप का हरण करते हैं, इसीलिए उन्हें "हरि "कहते हैं ।चैतन्य देव ने इस नाम [हरिबोल -हरिबोल] का प्रचार किया था*अतएव यह बहुत ही अच्छा है *[नरेंद्र का आगमनी संगीत ~ माँ दुर्गा के पदार्पण का गीत* * राखाल के लिए चिन्ता-यदु मल्लिक - भोलानाथ का बयान *।🕊🏹तैत्तिरीय उपनिषद:-'शी'क्षावल्ली 🕊🏹

परिच्छेद~ ९० 

*साधना तथा साधु संग*

(१) 

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 90 ] 

🕊🏹🔆"ज्ञानी "के लिए संसारधोखे की टट्टी है ;

🕊"विज्ञानी " के लिए 'आनन्द की हवेली ' (mansion of mirth) 🔆

श्रीरामकृष्ण दोपहर के भोजन के बाद अपने कमरे में विश्राम कर रहे हैं । कुछ भक्त भी बैठे हुए हैं । आज नरेन्द्र, भवनाथ आदि भक्त कलकत्ते से आये हैं । दोनों मुखर्जी भाई, ज्ञानबाबू, छोटे गोपाल, बड़े काली, ये भी आये हैं । तीन-चार भक्त कोन्नगर से आये हुए हैं । उन्हें बुखार आया था, सूचना आयी थी । आज रविवार है, 14 सितम्बर, 1884 ।

पिता का स्वर्गवास हो जाने पर नरेन्द्र अपनी माँ और भाइयों की चिन्ता में पड़कर बड़े व्याकुल हैं । वे परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे हैं ।

Sunday, September 14, 1884; Sri Ramakrishna was sitting in his room with Narendra, Bhavanath, the Mukherji brothers, and other devotees. Rakhal was staying with Balaram at Vrindavan and was laid up with an attack of fever. Narendra was preparing himself for his coming law examination.

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মধ্যাহ্ন সেবার পর দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে ভক্তসঙ্গে ঘরে বিশ্রাম করিতেছেন। আজ নরেন্দ্র, ভবনাথ প্রভৃতি ভক্তেরা কলিকাতা হইতে আসিয়াছেন। মুখুজ্জে ভ্রাতৃদ্বয়, জ্ঞানবাবু, ছোট গোপাল, বড় কালী প্রভৃতি এঁরাও আসিয়াছেন। কোন্নগর হইতে তিন-চারিটি ভক্ত আসিয়াছেন। রাখাল শ্রীবৃন্দাবনে বলরামের সহিত আছেন। তাঁহার জ্বর হইয়াছিল — সংবাদ আসিয়াছে। আজ রবিবার, কৃষ্ণা দশমী তিথি, ৩০শে ভাদ্র, ১২৯১। ১৪ই সেপ্টেম্বর, ১৮৮৪। নরেন্দ্র পিতৃবিয়োগের পর মা ও ভাইদের লইয়া বড়ই ব্যতিব্যস্ত হইয়াছেন। তিনি আইন পরীক্ষার জন্য প্রস্তুত হইবেন।

ज्ञानबाबू चार परीक्षाएँ पास कर चुके हैं । वे सरकारी नौकरी करते हैं । दस-ग्यारह बजे के लगभग आये हैं ।

About eleven o'clock Jnan Babu arrived. He was a government official and had received four university degrees.

[জ্ঞানবাবু চারটে পাস করিয়াছেন ও সরকারের কর্ম করেন। তিনি ১০টা-১১টার সময় আসিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण - (ज्ञानबाबू को देखकर) - क्यों जी, एकाएक ज्ञानोदय, यह क्या ?

MASTER (at the sight of Jnan Babu): "Well! Well! This sudden awakening of 'knowledge'! ("Jnan Means knowledge)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (জ্ঞানবাবু দৃষ্টে) — কিগো, হঠাৎ যে জ্ঞানোদয়!

 ज्ञान - (सहास्य) - जी, बड़े भाग्य से ज्ञानोदय होता है ।

JNAN (smiling): "You must admit, sir, that one sees the awakening of knowledge as a result of very good fortune."

[জ্ঞান (সহাস্যে) — আজ্ঞা, অনেক ভাগ্যে জ্ঞানোদয় হয়।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य)- तुम ज्ञानी होकर भी अज्ञानी क्यों हो ? हाँ, मैं समझा, जहाँ ज्ञान है, वहीं अज्ञान है ! वशिष्ठ देव इतने ज्ञानी थे, परन्तु लड़कों के शोक से वे भी रोये थे । अतएव तुम ज्ञान और अज्ञान के पार हो जाओ । पैरों में अज्ञान का काँटा लग गया है, उसे निकालने के लिए ज्ञानरूपी काँटे की जरूरत है । निकल जाने पर दोनों काँटे फेंक देना चाहिए । "ज्ञानी कहते हैं, यह संसार धोखे की टट्टी  (माया -भ्रम framework of illusion) है; और जो ज्ञान और अज्ञान के पार चले गये हैं, वे कहते हैं, यह संसार  'आनन्द की हवेली ' 'mansion of mirth' है ! वह देखता है, ईश्वर ही जीव-जगत् और चौबीसों सृष्टि-तत्त्व हुए हैं 

MASTER (smiling): "You are Jnan. Then why should you have ajnan, ignorance? Oh, I understand. Where there is knowledge there is also ignorance. The sage Vasishtha was endowed with great knowledge and still he wept at the death of his sons. Therefore I ask you to go beyond both knowledge and ignorance. The thorn of ignorance has pierced the sole of a man's foot. He needs the thorn of knowledge to take it out. Afterwards he throws away both thorns. The jnani says, 'This world is a "framework of illusion".' But he who is beyond both knowledge and ignorance describes it as a 'mansion of mirth'He (विज्ञानी) sees that it is God Himself who has become the universe, all living beings, and the twenty-four cosmic principles.

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি জ্ঞান হয়ে অজ্ঞান কেন? ও বুঝেছি, যেখানে জ্ঞান সেইখানেই অজ্ঞান! বশিষ্ঠদেব অত জ্ঞানী, পুত্রশোকে কেঁদেছিলেন! তাই তুমি জ্ঞান অজ্ঞানের পার হও। অজ্ঞান কাঁটা পায়ে ফুটেছে, তুলবার জন্য জ্ঞান কাঁটার দরকার। তারপর তোলা হলে দুই কাঁটাই ফেলে দেয়। [“এই সংসার ধোঁকার টাটি — জ্ঞানী বলছে। যিনি জ্ঞান অজ্ঞানের পার, তিনি (विज्ञानी ?) বলছেন ‘মজার কুঠি!’ সে দেখে ঈশ্বরই জীব, জগৎ, এই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব সব হয়েছেন। 

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 90 ] 

🔆🙏निर्लिप्त गृहस्थ - ठाकुर की जन्मस्थली कामारपुकुर की बढ़ई- कन्या का कार्यदर्शन🔆🙏

[Indifferent householder - Thakur's birthplace carpenter girls work philosophy]

"उन्हें पा लेने पर फिर संसार में रहा जा सकता है । तब आदमी निर्लिप्त हो सकता है । उस देश में बढ़ई की औरतों को मैंने देखा है, ढेंकी में चूड़ा कूटती है, एक हाथ से धान चलाती है, दूसरे से बच्चे को दूध पिलाती हैं, साथ ही खरीददारों से बातचीत भी करती है, कहतीं है तुम्हारे ऊपर दो आने उधार हैं, दे जाना । परन्तु उनका बारह आना मन हाथ पर रहता है कि कहीं ढेंकी न गिर जाय । "बारह आना मन ईश्वर पर रखकर चार आने से काम करना चाहिए ।''

A man can live in the world after attaining God. Then he can lead the life of detachment. In the country I have seen the women of the carpenter families making flattened rice with a husking-machine. With one hand one of them turns the paddy in the hole and with the other she holds a nursing child. At the same time she talks with the buyer. She says to him: 'You owe me two annas. Pay it before you go.' But seventy-five per cent of the woman's mind is on her hand lest it should be crushed by the pestle of the husking-machine. "A man should do his worldly duties with only twenty-five per cent of his mind, devoting the rest to God."

[“তাঁকে লাভ করার পর সংসার করা যেতে পারে। তখন নির্লিপ্ত হতে পারে। ও-দেশে ছুতোরদের মেয়েদের দেখেছি — ঢেঁকি নিয়ে চিড়ে কোটে। একহাতে ধান নাড়ে, একহাতে ছেলেকে মাই দেয় — আবার খরিদ্দারের সঙ্গে কথাও কচ্চে — ‘তোমার কাছে দুআনা পাওনা আছে — দাম দিয়ে যেও।’ কিন্তু তার বারো আনা মন হাতের উপর — পাছে হাতে ঢেঁকি পড়ে যায়।"

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत~ 90 ] 

🕊नेता (विज्ञानी) नित्य से लीला में आता  है 

और पुनः लीला से नित्य में भी उठ सकता है🕊🏹    

श्रीरामकृष्ण शशघर पण्डित की बात भक्तों से कह रहे हैं - "देखा, एकरुखा आदमी है । केवल सूखा ज्ञान और विचार लेकर है ।

"जो नित्य  (the Absolute) में पहुँचकर लीला  (the Relative)लेकर रहता है, और पुनः लीला से नित्य में उठ सकता है , उसका ज्ञान पक्का है, उसकी भक्ति भी पक्की है ।

“नारदादि ने ब्रह्मज्ञान के पश्चात् भक्ति ली थी, इसी का नाम विज्ञान है ।

Referring to Pundit Shashadhar, the Master said to the devotees, "I found him monotonous — engaged in the dry discussion of philosophy."He alone who, after reaching the Nitya, the Absolute, can dwell in the Lila, the Relative, and again climb from the Lila to the Nitya, has ripe knowledge and devotion. Sages like Narada cherished love of God after attaining the Knowledge of Brahman. This is called vijnana.

[শ্রীযুক্ত পণ্ডিত শশধরের কথা ভক্তদের বলিতেছেন, “দেখলাম — একঘেয়ে, কেবল শুষ্ক জ্ঞানবিচার নিয়ে আছে।”“যে নিত্যতে পৌঁছে লীলা নিয়ে থাকে, আবার লীলা থেকে নিত্যে যেতে পারে, তারই পাকা জ্ঞান, পাকা ভক্তি।“নারদাদি ব্রহ্মজ্ঞানের পর ভক্তি নিয়ে ছিলেন। এরই নাম বিজ্ঞান।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🕊🏹प्रेम सच्चिदानन्द (चैतन्य+आनन्द) को पकड़ने की रस्सी है🕊🏹

(गोपाला हरि का प्यारा नाम है, नंदलाला ! हरि का प्यारा नाम है) 

[প্রেম সচ্চিদানন্দকে ধরবার দড়ি।]

[Prema is the rope by which one can reach]

 [Satchidananda. = (Awareness or consciousness+ Bliss )]

"केवल ज्ञान शुष्क होता है - जैसे एकाएक फूट पड़नेवाले आतशबाजी के अनार - कुछ देर फूल छूटने पर तुरन्त फूट जाते हैं । नारद और शुकदेव आदि का ज्ञान, जैसे अच्छे अनार । थोड़ी देर एक तरह के फूल निकलते हैं, फिर बन्द होकर दूसरी तरह के फूल निकलने लगते हैं । नारद और शुकदेव आदि का ईश्वर पर प्रेम हुआ था । प्रेम (भक्ति) सच्चिदानन्द को (बाबा नंद के लाल) पकड़ने की रस्सी है ।"

"Mere dry knowledge is like an ordinary rocket: it bursts into a few sparks and then dies out. But the Knowledge of sages like Narada and Sukadeva is like a good rocket: for a while it showers balls of different colours, and then it stops; again it throws out new balls, and again it stops; and thus it goes on. Those sages had prema for God. Prema is the rope by which one can reach Satchidananda."

[শুধু শুষ্ক জ্ঞান! ও যেন ভস্‌-করে-ওঠা তুবড়ি। খানিকটা ফুল কেটে ভস্‌ করে ভেঙে যায়। নারদ, শুকদেবাদির জ্ঞান যেন ভাল তুবড়ি। খানিকটা ফুল কেটে বন্ধ হয়, আবার নূতন ফুল কাটছে — আবার বন্ধ হয় — আবার নূতন ফুল কাটে! নারদ, শুকদেবাদির তাঁর উপর প্রেম হয়েছিল। প্রেম সচ্চিদানন্দকে ধরবার দড়ি।”

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

[ठाकुर श्री रामकृष्ण बकुल पेड़ के नीचे - झाऊतला से भावावेश। ]

दोपहर के भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । बकुल (मौलश्री) के पेड़ के नीचे बैठने की जो जगह है, वहाँ दो-चार भक्त बैठे हुए गप्पें लड़ा रहे हैं । भवनाथ, दोनों मुखर्जी भाई, मास्टर, छोटे गोपाल, हाजरा आदि । श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले की ओर जा रहे हैं, वहाँ जाकर जरा बैठे ।

हाज़रा (छोटे गोपाल से): " तुम उनके लिए [अर्थात् ठाकुर देव के लिए] थोड़ा हुक्का बना दो।"

HAZRA (to the younger Gopal): "Please prepare a smoke for him [meaning the Master]."

হাজরা (ছোট গোপালকে) — এঁকে একটু তামাক খাওয়াও।

श्रीरामकृष्ण  (मुस्कुराते हुए): "तुम  यह क्यों नहीं कहते कि तुम हुक्का पीना चाहते हो ?" (सभी हँस पड़ते हैं।)

MASTER (smiling): "Why don't you admit that you want it?" (All laugh.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি খাবে তাই বল। (সকলের হাস্য)

मुखर्जी - (हाजरा से) - आपने इनके पास से बहुत कुछ सीखा है ।

MUKHERJI (to Hazra): "You must have learnt much wisdom from him [meaning the Master]."

[মুখুজ্জে (হাজরাকে) — আপনি এঁর কাছে থেকে অনেক শিখেছেন।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं बचपन से ही इनकी यह अवस्था है । (सब हँसते हैं ।)

MASTER (smiling): "No, he has been wise like this from his boyhood." (All laugh.)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না, এঁর বাল্যকাল থেকেই এই অবস্থা। (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले से लौट रहे हैं । भक्तों ने देखा, भावावेश में हैं । मदहोश व्यक्ति की तरह चल रहे हैं । जब कमरे में आये तब प्रकृतिस्थ हो गये ।

Presently Sri Ramakrishna returned from the pine-grove. The devotees noticed that he was in an ecstatic mood and was reeling like a drunkard. After reaching his room he regained the normal state. 

[ঠাকুর ঝাউতলা হইতে ফিরিয়া আসিতেছেন — ভক্তেরা দেখিলেন। ভাবাবিষ্ট। মাতালের ন্যায় চলিতেছেন। যখন ঘরে পোঁছিলেন, তখন আবার প্রকৃতিস্থ হইলেন।

(२)

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🕊🏹🙏मास्टर महाशय के सामने विद्व्ता का घमण्ड !🕊🏹🙏 

 श्रीरामकृष्ण के कमरे में बहुत से भक्तों का समागम हुआ है । कोन्नगर के भक्तों में एक साधक अभी पहले-पहल आये हैं । उम्र पचास के ऊपर होगी । देखने से मालूम होता है कि भीतर पाण्डित्य का पूरा अभिमान (विद्व्ता का घमण्ड ?) है । 

Many devotees gathered in the room. Among them was a new-comer, a sadhaka from Konnagar, who looked over fifty years of age and seemed to have great vanity of scholarship.

[ঠাকুরের ঘরে অনেক ভক্ত সমাগত হইয়াছেন। কোন্নগরের ভক্তদের মধ্যে একজন সাধক নূতন আসিয়াছেন — বয়ঃক্রম পঞ্চাশের উপর। দেখিলে বোধ হয়, ভিতরে খুব পাণ্ডিত্যাভিমান আছে। 

बातचीत करते हुए वे कह रहे, ‘समुद्र-मंथन के पहले क्या चन्द्र न था ? परन्तु इसकी मीमांसा कौन करे?’

While conversing, he was saying, 'Was there no moon before the churning of the ocean? But who will analyze it?'

কথা কহিতে কহিতে তিনি বলিতেছেন, “সমুদ্র মন্থনের আগে কি চন্দ্র ছিল না? এ-সব মীমাংসা কে করবে?”

मास्टर - (सहास्य) - देवी के एक गाने में है - जब ब्रह्माण्ड ही न था, तब मुण्डमाला तुझे कहाँ मिली होगी? 

[सृष्टि के पहले माँ काली को सिर की माला (पंचमुण्डी आसन) कहाँ मिली? When there was no head before creation, then where did Mother Kali get the garland of Head or Panchmundi seat?]    

মাস্টার (সহাস্যে) — ‘ব্রহ্মাণ্ড ছিল না যখন মুণ্ডমালা কোথায় পেলি?’

साधक - (विरक्ति से) - वह दूसरी बात है ।

Sadhak – (disgusted) – That is another matter.

সাধক (বিরক্ত হইয়া) — ও আলাদা কথা।

  [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆*नारान (नरेन्द्र ?) के प्रति ठाकुर का विश्वास, ज्ञान या  श्रद्धा *🔆

🔆🙏नरेन्द्र निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक नारायण ऋषि थे🔆🙏 

कमरे में खड़े होकर श्रीरामकृष्ण ने एकाएक कहा – ‘ वह आया था नारान ? 

[नरेन्द्र =ठाकुर की भाषा में नारान ? निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक~नारायण ऋषि, जिसको ठाकुर अपने साथ लेकर अवतरित हुए थे ? -इसकी मीमांसा ज्ञान से नहीं भक्ति द्वारा ही सम्भव है !’] 

The Master stood in the middle of the room and suddenly said to M., "He came here — Naran."

ঘরের মধ্যে দাঁড়াইয়া ঠাকুর মাস্টারকে হঠাৎ বলিতেছেন, “সে এসেছিল — নারাণ।” 

नरेन्द्र बरामदे में हाजरा आदि से बातें कर रहे हैं - उनकी चर्चा का शब्द श्रीरामकृष्ण के कमरे में सुन पड़ रहा है ।

Narendra was engaged in a discussion with Hazra and a few others on the verandah. They could be heard from the room.

[নরেন্দ্র বারান্দায় হাজরা প্রভৃতির সহিত কথা কহিতেছেন — বিচারের শব্দ ঠাকুরের ঘর হইতে শুনা যাইতেছে।

श्रीरामकृष्ण - खूब बक सकता है । इस समय घर (माँ-भाई) की चिन्ता में बहुत पड़ गया है ।

MASTER (referring to Narendra): "The chatterbox! But he is now much worried about his family."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — খুব বকতে পারে! এখন বাড়ির ভাবনায় বড় পড়েছে।

मास्टर - जी हाँ ।

M: "Yes, sir, it is true."

[মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ।

श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र ने विपत्ति को सम्पत्ति समझने के लिए कहा था न ?

MASTER: "Once he said that he would look upon adversity as his good fortune. Isn't that so?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিপদকে সম্পদজ্ঞান করবে বলেছিল কিনা। কি?

मास्टर - जी हाँ, मनोबल खूब है ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, মনের বলটা খুব আছে।

M: "He has great strength of mind."

बड़े काली - कम क्या है ? 

[ठाकुर CINC ने स्वयं उसे अपने बगल वाली कुर्सी पर बिठाया था !] 

A DEVOTEE: "Does he lack strength in anything?" 

[Thakur CINC himself had seated him in the chair next to him!]

[বড়কালী — কোন্‌টা কম? 

[ঠাকুর নিজের আসনে বসিয়াছেন।]

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏* ईश्वर दर्शन का उपाय है ~ गुरु विवेकानन्द (CINC की मूर्ति) दर्शन  *🔆🙏  

[साधना (विवेक-दर्शन का अभ्यास) किये बिना शास्त्रों की अवधारणा नहीं होती !]

[ঈশ্বরদর্শনের উপায়, গুরুবাক্যে বিশ্বাস — শাস্ত্রের ধারণা কখন ]

ध्यान मूलं गुरु मूर्ति (रूपं?), पूजा मूलं गुरु पदम्।

मंत्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥१॥

कोन्नगर के एक भक्त श्रीरामकृष्ण से कह हैं - 'महाराज, ये (साधक) आपको देखने आये हैं; इन्हें कुछ पूछना है ।

Pointing to the sadhaka from Konnagar, a devotee said to the Master: "Sir, he has come to visit you. He has some questions to ask." 

[কোন্নগরের একটি ভক্ত ঠাকুরকে বলিতেছেন — মহাশয়, ইনি (সাধক) আপনাকে দেখতে এসেছেন — এঁর কি কি জিজ্ঞাস্য আছে।

साधक देह और सिर ऊँचा किये बैठे हैं ।

The sadhaka was seated erect, his chin up.

[সাধক দেহ ও মস্তক উন্নত করিয়া বসিয়া আছেন।

साधक - महाराज, उपाय क्या है ? 

SADHAKA: "Sir, what is the way?"

[সাধক — মহাশয়, উপায় কি?

श्रीरामकृष्ण - गुरु की बातों पर विश्वास करना । उनके आदेश के अनुसार चलने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं । जैसे डोर अगर ठिकाने से लगी हुई हो तो उसे पकड़कर चलने से पते पर पहुँचा जा सकता है ।

MASTER: "Faith in the guru's words. One attains God by following the guru's instructions step by step. It is like reaching an object by following the trail of a thread."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — গুরুবাক্যে বিশ্বাস। তাঁর বাক্য ধরে ধরে গেলে ভগবানকে লাভ করা যায়। যেমন সুতোর খি ধরে ধরে গেলে বস্তুলাভ হয়।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏"क्या भगवान को देखना संभव है?"🔆🙏

[हम जानते हैं कि दूध में घी है -पर क्या खुली आँखों से घी दीखता है ?]

🕊🏹विवेकदर्शन का अभ्यास किये बिना विवेक-स्रोत उद्घाटित नहीं होगा 🕊🏹🙏

साधक - क्या उनके (ईश्वर के या माँ काली के) दर्शन होते हैं ?

SADHAKA: "Is it possible to see God?"

সাধক — তাঁকে কি দর্শন করা যায়?

श्रीरामकृष्ण - वे विषय-बुद्धि के रहते नहीं मिलते । कामिनी और कांचन का लेशमात्र रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते । वे शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि से गोचर होते हैं । वह मन चाहिए जिसमें वासना और धन में आसक्ति का लेशमात्र न हो । शुद्ध मन, शुद्ध-बुद्धि और शुद्ध आत्मा, ये एक ही वस्तु हैं ।

["ईश्वर कामिनी -कांचन में घोर आसक्त मन के द्वारा अज्ञेय (unknowable-दुर्बोध) है। 'स्त्री और स्वर्ण' के प्रति आसक्ति का लेशमात्र रहने से भी कोई ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। लेकिन वह शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि से जानने योग्य है - वैसा मन (शुद्ध अहं -माँ जगदम्बा मातृ ह्रदय का सर्वव्यापी विराट मैं बोध में रूपन्तरित अहं) और वैसी बुद्धि- जिसमें कामिनी -कांचन के प्रति थोड़ी सी आसक्ति (लालच)  का  निशान नहीं हो । शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा, एक ही चीज है।"]

MASTER: "He is unknowable by the mind engrossed in worldliness. One cannot attain God if one has even a trace of attachment to 'woman and gold'. But He is knowable by the pure mind and the pure intelligence — the mind and intelligence that have not the slightest trace of attachment. Pure Mind, Pure Intelligence, Pure Atman, are one and the same thing."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি বিষয়বুদ্ধির অগোচর। কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তির লেশ থাকলে তাঁকে পাওয়া যায় না। কিন্তু শুদ্ধমন, শুদ্ধবুদ্ধির গোচর — যে মনে, যে বুদ্ধিতে, আসক্তির লেশমাত্র নাই। শুদ্ধমন, শুদ্ধবুদ্ধি, আর শুদ্ধ আত্মা — একই জিনিস।

साधक - परन्तु शास्त्र में है - 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' वे मन और वाणी से परे हैं ।

[यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चनेति। एतं ह वाव न तपति । किमहं साधु ना करवम् किमहं पापमकरवमिति। स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते । य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥ (तैत्तिरीयोपनिषद/ब्रह्मानन्द वल्ली/ २/४,५)-जिस_ प्रभु (ईश्वर-माँ काली ) को न प्राप्त कर के मन के सहित सभी वाणियां लौट आती हैं, ऐसे परब्रह्म परमात्मा के (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव के) सारभूत आनन्द को जानने वाला विद्वान् (जानता हुआ- ब्रह्मविद)  किसी से भी भयभीत नहीं होता। उस विद्वान (ब्रह्मविद) को, 'मैंने शुभ (कर्म) क्यों नहीं किया ? मैंने पाप (कर्म) क्यों किया ?' इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती। (पाप और पुण्य को ही ताप का कारण मानने वाला) जो विद्वान अपनी आत्मा को प्रसन्न (आनंदित) रखता है उसे ये दोनों (पाप और पुण्य) आत्म-स्वरूप ही दिखायी देते हैं । जो इस प्रकार (पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दस्वरूप ब्रह्म को) जानता है। (वह headless कौन है ?)  ऐसी ही यह उपनिषद् (रहस्यविद्या) है  ] 

SADHAKA: "But the scriptures say, 'From Him words and mind return baffled.' He is unknowable by mind and words."

[সাধক — কিন্তু শাস্ত্রে বলছে, ‘যতো বাচো নিবর্তন্তে অপ্রাপ্য মনসা সহ।’ — তিনি বাক্য-মনের অগোচর।

श्रीरामकृष्ण - रखो इसे । साधना किये बिना शास्त्रों का अर्थ समझ में नहीं आता । 'भंग-भंग' चिल्लाने से क्या होता है ? पण्डित जितने हैं, सर्राटे के साथ श्लोकों की आवृत्ति करते हैं, परन्तु इससे होता क्या है ? भंग जाहे जितनी देह में लगा ली जाय, पर इससे नशा नहीं होता, नशा लाने के लिए तो भंग पीनी ही चाहिए

"दूध में घी है, दूध में मक्खन है, इस तरह चिल्लाते रहने से क्या होता है ? दूध जमाओ, दही बनाओ, मथो, तब मक्खन प्राप्त होगा होगा ।"

[केवल दोहराने से क्या फायदा, दूध में मक्खन है' !  दूध में घी है ! दूध को जमाओ - वैराग्य के साथ प्रत्याहार और धारणा अभ्यास करके मन को स्वामी विवेकानन्द की छवि पर एकाग्र करते करते , दूध (मन) को दही में (शुद्ध मन ) में परिणत कर मथो, अर्थात  विवेक-प्रयोग करते रहो तभी मक्खन (विवेकज ज्ञान) मिलेगा।]

MASTER: "Oh, stop! One cannot understand the meaning of the scriptures without practising spiritual discipline. What will you gain by merely uttering the word 'siddhi'? (Indian hemp.) The pundits glibly quote the scriptures; but what will that accomplish? A man does not become intoxicated even by rubbing siddhi on his body; he must swallow it. What is the use of merely repeating, There is butter in the milk'? Turn the milk into curd and churn it. Only then will you get butter."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও থাক্‌ থাক্‌। সাধন না করলে শাস্ত্রের মানে বোঝা যায় না। সিদ্ধি সিদ্ধি বললে কি হবে? পণ্ডিতেরা শ্লোক সব ফড়র ফড়র করে বলে। কিন্তু তাতে কি হবে? সিদ্ধি গায় মাখলেও নেশা হয় না, খেতে হয়। “শুধু বললে কি হবে ‘দুধে আছে মাখন’, ‘দুধে আছে মাখন’? দুধকে দই পেতে মন্থন কর, তবে তো হবে!”

साधक - मक्खन निकालना , ये सब तो शास्त्र की ही बातें हैं ।

SADHAKA: "You talk about churning butter. But you too. are quoting the scriptures."

[সাধক — মাখন তোলা — ও-সব তো শাস্ত্রের কথা।

श्रीरामकृष्ण - शास्त्र की बात कहने या सुनने से क्या होता है ?  उसकी धारणा होनी चाहिए। पंचाग में लिखा हैं - वर्षा पूरी होगी, परंतु पंचाग दबाओ तो कही बूंद भर भी पानी नहीं निकलता ।


MASTER : "What will one gain by merely quoting or hearing the scriptures? One must assimilate them. The almanac makes a forecast of the rainfall for the year, but you won't get a drop by squeezing its pages."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শাস্ত্রের কথা বললে বা শুনলে কি হবে? ধারণা করা চাই। পাঁজিতে লিখেছে বিশ আড়া জল। পাঁজি টিপলে একটুও পড়ে না।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏मार्गदर्शक  नेता की आवश्यकता :-  केमन घी , ना जेमन घी 🔆🙏

[नेता /गुरु / शिक्षक मक्खन से घी निकालने की पद्धति बतलाते हैं]

[কেমন ঘি, না যেমন ঘি!} 'Ghee tastes like ghee.]

सत्य का साधक - आप मक्खन मथने की बात कहते हैं - आपने कभी मक्खन को मथ कर घी निकाला है ? 

Seeker of Truth : "You talk about churning butter. Have you done it yourself?

"সাধক (=সত্যের সন্ধানকারী) — মাখন তোলা — আপনি তুলেছেন?]

श्रीरामकृष्ण - मैंने क्या किया है और क्या नहीं किया यह बात रहने दो । और ये बातें समझाना बहुत मुश्किल है । कोई अगर पूछे कि घी का स्वाद कैसा है तो कहना पड़ता है, जैसा है - वैसा ही है ।

"You don't have to bother about what I have or haven't done. Besides, it is very difficult to explain these things to others. Suppose someone asks you, 'What does ghee taste like?' Your answer will be, 'Ghee tastes like ghee.

 ['শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি করেছি আর না করেছি — সে কথা থাক। আর এ-সব কথা বোঝানো বড় শক্ত। কেউ যদি জিজ্ঞাসা করে — ঘি কিরকম খেতে। তার উত্তর — কেমন ঘি, না যেমন ঘি!} 

"यह सब समझना हो तो साधुओं का संग करना चाहिए । कौनसी नाड़ी कफ की है, कौनसी पित्त की और कौन वायु की, इसके जानने की अगर जरूरत हो तो सदा वैद्य  के साथ रहना चाहिए।"

[ मार्गदर्शक  नेता (भववैद्य) की आवश्यकता :  मक्खन निकालने की पद्धति सीखनी हो  तो C-IN-C नवनीदा जैसे गुरु /नेता / का संग करना चाहिए (छः दिनों का  गुरुगृहवास-Be and Make ' युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेना  चाहिए, जैसे मेडिकल स्टूडेंट्स इंटर्नशिप ट्रेनिंग लेते हैं।)]  

"To understand these things one needs to live with holy men, just as to understand the pulse of bile,4 of phlegm, and so on, one needs to live with a physician."

[“এ-সব জানতে গেলে সাধুসঙ্গ দরকার। কোন্‌টা কফের নাড়ী, কোন্‌টা পিত্তের নাড়ী, কোন্‌টা বায়ুর নাড়ী — এটা জানতে গেলে বৈদ্যের সঙ্গে থাকা দরকার।”

[^त्रिफला ही एक मात्र ऐसे ओषधि है जो वात,पित ,कफ तीनों को एक साथ संतुलित करती है!आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार हमारे शरीर मे जितने भी रोग होते है वो त्रिदोष: वात, पित्त, कफ के बिगड़ने से होते है । सिर से लेकर छाती के मध्य भाग तक जितने रोग होते है वो कफ के बिगड़ने के कारण होते है ,और छाती के मध्य से पेट खत्म होने तक जितने रोग होते है तो पित्त के बिगड़ने से होते है और उसके नीचे तक जितने रोग होते है वो वात (वायु )के बिगड़ने से होते है । लेकिन कई बार गैस होने से सिरदर्द होता है तब ये वात बिगड़ने से माना जाएगा । एक वैद्य  रोगी की नब्ज को छू कर उनकी स्थिति का निर्धारण कर सकता है। According to orthodox Hindu medicine, phlegm, bile, and wind are the three humours that control physical health. A physician can determine their condition by reeling the patient's pulse.]

साधक - दूसरे के साथ रहने में कोई कोई आपत्ति करते हैं । (अकेले रहना अधिक पसन्द करते हैं ?)

SADHAKA: "There are some people who are irritated by others' company."

[সাধক — কেউ কেউ অন্যের সঙ্গে থাকতে বিরক্ত হয়।

श्रीरामकृष्ण - वह ज्ञान के बाद – ईश्वर-प्राप्ति के बाद की अवस्था है । पहले तो साधुसंग चाहिए ही न ?

MASTER: "That happens only after the attainment of Knowledge, after the realization of God. "Shouldn't a beginner live in the company of holy men?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে জ্ঞানের পর — ভগবানলাভের পর — আগে সাধুসঙ্গ চাই না?

["यह ज्ञान प्राप्ति के बाद (ब्रह्मविद बनने के बाद की अवस्था है) , यह अवस्था भगवान की प्राप्ति के बाद,  अर्थात दूध से दही बनाकर , उससे मक्खन को अलग कर और उसे मथ कर घी निकालने और उसे चखने के बाद ही होती है। लेकिन क्या 3H विकास के 5 अभ्यास सीखने की शुरआत करने वाले एक प्रवर्तक (beginner -नौसिखिया) को  'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make ' शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता - 'CINC नवनीदा'  जैसे भववैद्य या पवित्र मनुष्य की संगति में रहना , अर्थात उनके  साथ कुछ दिनों तक गुरुगृह वास करते हुए प्रशिक्षण नहीं लेना चाहिए ?]

साधक चुप हैं ।

The sadhaka sat in silence a few moments. 

[সাধক চুপ করিয়া আছেন।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏 ईश्वर-प्राप्ति के बाद की अवस्था का वर्णन केवल संकेत से किया जा सकता है 🔆🙏

(Seeker of Truth) सत्य जिज्ञासु साधक - (कुछ देर बाद, झुंझलाकर) - आपने उन्हें जाना? – कहिये – प्रत्यक्ष रूप से (directly) हो या अनुभव (intuitively) से । इच्छा हो और आप कह सकें तो कहिये, नहीं तो न सही ।

Then he said with some irritation: "Please tell me whether you have realized God either directly or intuitively. You may answer me if you are able, or you may keep silent if you wish." 

[সাধক (কিয়ৎক্ষণ পরে, গরম হইয়া) — আপনি তাঁকে যদি জানতে পেরেছেন বলুন — প্রত্যক্ষেই হোক আর অনুভবেই হোক। ইচ্ছা হয় পারেন বলুন, না হয় না বলুন।

श्रीरामकृष्ण - (मुस्कराते हुए) - क्या कहूँ, आभास (hint) मात्र कहा जा सकता है ।

The Master said with a smile: "What shall I say? One can only give a hint."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈষৎ হাসিতে হাসিতে) — কি বলবো! কেবল আভাস বলা যায়।

साधक - वही कहिये ।

SADHAKA: "Then tell us that much."

[সাধক — তাই বলুন।

नरेन्द्र गायेंगे । नरेन्द्र कहते हैं, पखावज अभी तक नहीं लाया गया ।

Narendra was going to sing. He said, "No one has brought a pakhoaj."

[নরেন্দ্র গান গাহিবেন। নরেন্দ্র বলিতেছেন, পাখোয়াজটা আনলে না।

छोटे गोपाल - महिमाचरण बाबू के पास है ।

THE YOUNGER GOPAL: "Mahimacharan has one."

[ছোট গোপাল — মহিম (মহিমাচরণ) বাবুর আছে —

श्रीरामकृष्ण - नहीं, उसकी चीज़ ले आने की कोई जरूरत नहीं ।

MASTER (interrupting): "No, we don't want anything of his here."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, ওর জিনিস এনে কাজ নাই।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏कोन्ननगर के सत्य जिज्ञासु साधक के प्रति ठाकुर का स्नेह-धूप न लगे 🔆🙏 

कोन्नगर के एक भक्त कलाकारों के ढंग के गाने गा रहे हैं । गाना हो रहा है और श्रीरामकृष्ण एक एक बार साधक की अवस्था देख रहे हैं । गवैया नरेन्द्र के साथ गाने और बजाने के विषय पर घोर तर्क कर रहे हैं  साधक गवैये से कह रहे हैं, “तुम भी तो यार कम नहीं हो, इन सब वाद-विवादों से गरज ?” इस विवाद में एक और महाशय बोल रहे थे; श्रीरामकृष्ण ने साधक से कहा, "आपने इन्हें भी डाँटा क्यों नहीं?"

 A devotee from Konnagar sang a song. Every now and then Sri Ramakrishna glanced at the sadhaka. The singer and Narendra became engaged in a furious discussion about musical technique. The sadhaka said to the singer, "What is the use of such discussions?" Referring to another man who had joined in the discussion, Sri Ramakrishna said to the sadhaka, "Why didn't you scold him, too?"

[আগে কোন্নগরের একটি ভক্ত কালোয়াতি গান গাহিতেছেন।গানের সময় ঠাকুর সাধকের অবস্থা এক-একবার দেখিতেছেন। গায়ক নরেন্দ্রের সহিত গানবাজনা সম্বন্ধে ঘোরতর তর্ক করিতেছেন।সাধক গায়ককে বলছেন, তুমিও তো বাপু কম নও। এ-সব তর্কে কি দরকার!আর-একজন তর্কে যোগ দিয়াছিলেন — ঠাকুর সাধককে বলিতেছেন, “আপনি এঁকে কিছু বকলেন না?” 

श्रीरामकृष्ण कोन्नगर के भक्तों से कह रहे हैं, "देखता हूँ, आप लोगों के साथ भी इनकी नहीं बनती ।”

It could be seen that the sadhaka was not on friendly terms with his companions from Konnagar.

[শ্রীরামকৃষ্ণ কোন্নগরের ভক্তদের বলছেন, “কই আপনাদের সঙ্গেও এর ভাল বনে না দেখছি।” 

 नरेन्द्र गा रहे हैं - 

जाबे कि हे दिन आमार विफले चलिये, 

आछि नाथ, दिवानिशि आशापथ निरखिये। 

तुमि त्रिभुवन नाथ, आमि भिखारि अनाथ,

केमोन बोलिबो तोमाय ‘एशो हे मम हृदय। ’

हृदय कूटीर द्वार, खूले राखि अनिबार,

कृपा करि एकबार, एशे कि जूडाबे हिये। 

***Narendra sang: O Lord, must all my days pass by so utterly in vain?Down the path of hope I gaze with longing, day and night. . . .

যাবে কি হে দিন আমার বিফলে চলিয়ে,

আছি নাথ দিবানিশি আশাপথ নিরখিয়ে।

गाना सुनते हुए साधक ध्यानमग्न हो गये । श्रीरामकृष्ण के तख्त के उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । दिन के तीन या चार बजे का समय होगा - पश्चिम की ओर से धूप आकर उन पर पड़ रही थी । श्रीरामकृष्ण ने फौरन एक छाता लेकर अपने पश्चिम और रखा, जिससे साधक को धूप न लगे  

The sadhaka closed his eyes in meditation as he listened to the song. It was four o'clock in the afternoon. The rays of the setting sun fell on his body. Sri Ramakrishna quickly opened an umbrella and placed it near the door so that the sun might not disturb the sadhaka.]

[সাধক গান শুনিতে শুনিতে ধ্যানস্থ হইয়াছেন। ঠাকুরের তক্তপোশের উত্তরে দক্ষিণাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। বেলা ৩টা-৪টা হইবে। পশ্চিমের রোদ্র আসিয়া তাঁহার গায়ে পড়িয়াছে। ঠাকুর তাড়াতাড়ি একটি ছাতি লইয়া তাহার পশ্চিমদিকে রাখিলেন। যাহাতে রৌদ্র সাধকের গায়ে না লাগে।

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆श्री रामकृष्ण की भाव-समाधि  और नरेंद्र के गीत 🔆

🔆🙏विज्ञानी नेता माँ काली  की कृपा से  प्रतिकूलता को भी अवसर में बदल सकता है🔆🙏

नरेन्द्र गा रहे हैं –

मलिन पंकिल मने केमोने डाकिबो तोमाय। 

पारे कि तृण पशिते ज्वलंत अनल यथाय।।

 तुमि पुण्येर आधार, ज्वलंत अनलसम। 

आमि पापी तृणसम, केमोने पूजिबो तोमाय।। 

 शुनि तव नामेर गुणे, तरे महापापी जने। 

लोइते पवित्र नाम, कांपे हे मम हृदय।।

 अभ्यस्त पापेर सेवाय, जीवन चलिया जाय। 

केमोने करिबो आमि पवित्र पथ आश्रय।।

 ए पातकी नराधमे, तारो जदि दयाल नामे। 

बल करे , केशे धरे, दाओ चरणे आश्रय।। 

"इस मलिन और पंकिल मन को लेकर तुम्हे कैसे पुकारूँ ? क्या जलती हुई आग में कभी तृण पैठने का भी साहस कर सकता है ? तुम पुण्य के आधार हो, जलती हुई आग के समान हो, मैं तृण जैसा पापी तुम्हारी पूजा कैसे करूँ ? परन्तु सुना है, तुम्हारे नाम के गुणों से महापापियों का भी परित्राण हो जाता है, पर तुम्हारे पवित्र नाम का उच्चारण करते हुए मेरा हृदय न जाने क्यों काँप रहा है । मेरा अभ्यास पाप की सेवा में बढ़ गया है, जीवन वृथा ही चला जाता है, मैं स्वयं पवित्र मार्ग का आश्रय किस तरह लूँगा ? यदि इस पातकी और नराधम को तुम यदि अपने दयालु नाम के गुण से तारो तो तार दो । कहो, मेरे सिर के बालों को खींचकर  कब अपने चरणों में आश्रय दोगे ?"

Narendra sang again: How shall I call on Thee, O Lord, with such a stained and worldly mind? Can a straw remain unharmed, cast in a pit of flaming coals? Thou, all goodness, art the fire, and I, all sin, am but a straw: How shall I ever worship Thee? The glory of Thy name, they say, redeems those even past redeeming; Yet, when I chant Thy sacred name, alas! my poor heart quakes with fright. I spend my life a slave to sin; how can I find a refuge, then, O Lord, with in Thy holy way? In Thine abounding kindliness, rescue Thou this sinful wretch; Drag me off by the hair of my head and give me shelter at Thy feet.

নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন:

মলিন পঙ্কিল মনে কেমনে ডাকিব তোমায়।

পারে কি তৃণ পশিতে জ্বলন্ত অনল যথায় ৷৷

তুমি পুণ্যের আধার, জ্বলন্ত অনলসম।

আমি পাপী তৃণসম, কেমনে পূজিব তোমায় ৷৷

শুনি তব নামের গুণে, তরে মহাপাপী জনে।

লইতে পবিত্র নাম কাঁপে হে মম হৃদয় ৷৷

অভ্যস্ত পাপের সেবায়, জীবন চলিয়া যায়।

কেমনে করিব আমি পবিত্র পথ আশ্রয় ৷৷

এ পাতকী নরাধমে, তার যদি দয়াল নামে।

বল করে কেশে ধরে, দাও চরণে আশ্রয় ৷৷

(3)

[नरेन्द्रादि को शिक्षा]  

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

[वेद-वेदान्त में ब्रह्म , ईश्वर , भगवान को केवल आभास (hint) या संकेत मात्र कहा गया है ]

'गोपाला' हरि का प्यारा नाम है, 'नन्दलाला' हरि का प्यारा नाम है -

इस युग में 'गदाई' हरि (विष्णु) का प्यारा नाम है ! 

🔆🙏 हे चिदानन्दघन !  जो तुम्हारा नाम जपता है वह अमर हो जाता है !🔆🙏

नरेन्द्र गा रहे हैं –

सुंदर तोमार नाम दीन-शरण हे।

 बहिछे अमृतधार, जुड़ाय श्रवण  ओ प्राण-रमण हे॥

एक तव नाम धन, अमृत-भवन हे।अमर होय सेजन, जे करे कीर्तन हे।।  

गभीर विषादराशि निमेषे  बिनाशे, जखोनि तव नामसूधा श्रवणे परशे। 

हृदय मधूमय तव नाम गाने होय; हे हृदयनाथ चिदानन्दघन हे॥

“है दीनों के शरण ! तुम्हारा नाम बड़ा ही मधुर है । उसमें अमृत की धारा बह रही है । हे प्राणों में रमण करनेवाले । उससे मेरे श्रवणेन्द्रिय शीतल हो जाते हैं । जब कभी तुम्हारे नाम को सुधा श्रवणों का स्पर्श करती है तो समस्त विषाद-राशि का एक क्षण में नाश हो जाता है । हे हृदय के स्वामी – चिदानन्दघन ! तुम्हारे नाम का जप करने से हृदय अमृतमय हो जाता है ।

Sweet is Thy name, O Refuge of the humble!It falls like sweetest nectar on our ears And comforts us, Beloved of our souls!The priceless treasure of Thy name alone Is the abode of Immortality,And he who chants Thy name becomes immortal.Falling upon our ears, Thy holy name Instantly slays the anguish of our hearts, Thou Soul of our souls, and fills our hearts with bliss!

[সুন্দর তোমার নাম দীনশরণ হে।বহিছে অমৃতধার, জুড়ায় শ্রবণ ও প্রাণরমণ হে ৷৷গভীর বিষাদরাশি নিমেষে বিনাশে যখনি তব নামসুধা শ্রবণে পরশে।হৃদয় মধুময় তব নামগানে, হয় হে হৃদয়নাথ চিদানন্দ ঘন হে ৷

ज्योंही नरेन्द्र ने गाया - 'और जो  नाम जपता है वह अमर हो जाता है, श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये। समाधि के आरम्भ में हाथ की उँगलियाँ, खासकर अंगूठा काँप रहा था । कोन्नगर के भक्तों ने श्रीरामकृष्ण की समाधि कभी नहीं देखी थी । श्रीरामकृष्ण को मौन धारण करते हुए देखकर वे लोग जाने के लिए उठे।

As Narendra sang the line, "And he who chants Thy name becomes immortal", the Master went into samadhi. At first his fingers, especially the thumbs, began to tremble. The devotees from Konnagar had never seen the Master in samadhi. Seeing him silent, they were about to leave the room. Bhavanath said to them: "Why are you going away? This is his samadhi." 

[নরেন্দ্র যেই গাহিলেন — “হৃদয় মধুময় তব নামগানে”, ঠাকুর অমনি সমাধিস্থ। সমাধির প্রারম্ভে হস্তের অঙ্গুলি, বিশেষতঃ বৃদ্ধাঙ্গুলি, স্পন্দিত হইতেছে। কোন্নগরের ভক্তেরা ঠাকুরের সমাধি কখন দেখেন নাই। ঠাকুর চুপ করিলেন দেখিয়া তাঁহারা গাত্রোত্থান করিতেছেন।

भवनाथ - कृपा करके आप लोग बैठ जाइये , यह इनकी समाधि की अवस्था है ।

Bhavanath - Please sit down, this is his state of samadhi.

[ভবনাথ — আপনারা বসুন না। এঁর সমাধি অবস্থা।

कोन्नगर के भक्तों ने फिर आसन ग्रहण किया ।

The devotees resumed their places.

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏चौथी भूमि से मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा) का अभ्यास प्रारम्भ करने की पद्धति🔆🙏 

नरेन्द्र गा रहे हैं -

दिबा-निशि करिया जतन हृदयते (चौथी भूमि-तुरीय ? में) रचेछि आसन। 

जगतपति हे कृपा करि , सेथा कि करिबे आगमन।।  

श्रीरामकृष्ण भावावेश में अपने चौकी से नीचे उतरकर नरेन्द्र के बगल में जमीन पर बैठ गये । 

I have laboured day and night, To make Thy seat within my heart; Wilt Thou not be kind to me, O Lord of the World, and enter there?Sri Ramakrishna, still in the ecstatic mood, came down from his couch to the floor and sat by Narendra. 

[কোন্নগরের ভক্তেরা আবার আসন গ্রহণ করিলেন। 

নরেন্দ্র গাহিতেছেন:

দিবানিশি করিয়া যতন ,হৃদয়েতে রচেছি আসন,

                         জগৎপতি হে কৃপা করি, সেথা কি করিবে আগমন।

ঠাকুর ভাবাবেশে নিচে নামিয়া মেঝেতে নরেন্দ্রের কাছে বসিলেন।

नरेन्द्र ने गाया -

चिदाकाशे होलो पूर्ण प्रेमचंद्रोदय हे। 

उथलिलो प्रेमसिंधू कि आनंदमय हे।। 

(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

चारिदिके झलमल कोरे भक्त ग्रहदल।

भक्तसंगे भक्तसखा लीलारसमय हे।। 

(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

स्वर्गेर दुआर खुली, आनंदलहरी तूली। 

नवविधान वसंत समीरन बय।।

छूटे ताहे मंद मंद लीलारस प्रेमगंध। 

घ्राणे जोगिवृंद जोगानंदे मत्त होये हे।। 

(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय)

जैसे ही नरेंद्र ने अंतिम पंक्ति 'जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय ' गाई, श्री रामकृष्ण उठ खड़े हुए और  फिर से समाधि में लीन हो गए ।

The beloved disciple sang again: চিদাকাশে হল পূর্ণ প্রেমচন্দ্রোদয় হে।উথলিল প্রেমসিন্ধু কি আনন্দময় হে ৷৷জয় দয়াময়! জয় দয়াময়! জয় দয়াময়! In Wisdom's firmament the moon of Love is rising full, And Love's flood-tide, in surging waves, is flowing everywhere. O Lord, how full of bliss Thou art! Victory unto Thee! . . .As Narendra sang the last line, Sri Ramakrishna stood up, still absorbed in samadhi.

{‘জয় দয়াময়’ এই নাম শুনিয়া ঠাকুর দণ্ডায়মান, আবার সমাধিস্থ!}

बड़ी देर बाद जब कुछ प्राकृत अवस्था हुई तब वही जमीन पर बिछी हुई चटाई पर जा बैठे । नरेन्द्र का गाना समाप्त हो गया । तानपुरा यथास्थान रख दिया गया । श्रीरामकृष्ण की भाव का आवेश अब भी है। उसी अवस्था में कह रहे हैं - "यह भला कैसी बात है माँ ! मक्खन निकालकर मुँह के सामने रखो । न तालाब में चारा (मछलियों का) छोडेगा - न बंसी लेकर बैठा रहेगा - बस, मछली पकड़कर उसके हाथ में रख दो ! कैसा उत्पात है ! माँ ! तर्क-विचार अब न सुनूँगा, कैसा उत्पात है ! अब मैं फटकार दूँगा ।" वे वेदविधि के पार हैं । - क्या वेद, वेदान्त और शास्त्रों को पढ़कर कोई उन्हें प्राप्त कर सकता है ? (नरेन्द्र से) तू समझा? वेदों में आभास (hint-संकेत) मात्र है !"

{After a long time the Master regained partial consciousness of the world and sat down on the mat. Narendra finished his singing, and the tanpura was put back in its place. The Master was still in a spiritual mood and said: "Mother, tell me what this is. They want someone to extract the butter for them and hold it to their mouths. They won't throw the spiced bait into the lake. They won't even hold the fishing-rod. Someone must catch the fish and put it into their hands! How troublesome! Mother, I won't listen to any more argument. The rogues force it on me. What a bother! I shall shake it off. God is beyond the Vedas and their injunctions. Can one realize Him by studying the scriptures, the Vedas, and the Vedanta? (To Narendra) Do you understand this? The Vedas give only a hint."

[অনেকক্ষণ পরে কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া আবার মেঝেতে মাদুরের উপর বসিলেন। নরেন্দ্র গান সমাপ্ত করিয়াছেন। তানপুরা যথাস্থানে রাখা হইয়াছে। ঠাকুরের এখনও ভাবাবেশ রহিয়াছে। ভাবাবস্থাতেই বলিতেছেন, “এ কি বল দেখি মা, মাখন তুলে কাছে ধরো! পুকুরে চার ফেলবে না — ছিপ নিয়ে বসে থাকবে না — মাছ ধরে ওঁর হাতে দাও! কি হাঙ্গাম! মা, বিচার আর শুনব না, শালারা ঢুকিয়ে দেয় — কি হাঙ্গাম! ঝেড়ে ফেলব! “সে বেদ বিধির পার! — বেদ-বেদান্ত শাস্ত্র পড়ে কি তাঁকে পাওয়া যায়? (নরেন্দ্রের প্রতি) বুঝেছিস? বেদে কেবল আভাস!”

नरेन्द्र ने फिर स्वयं तानपूरा ले आने के लिए कहा । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, मैं गाऊँगा । उन्होंने कई गाने गाये । अब भी भावावेश है, श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं । "...आमि ओई खेदे खेद करि श्यामा। तुमि माता थाकते आमार जागा - घरे चुरि गो माँ।" माँ, यही वह दुःख है जो मेरे हृदय को अत्यंत दुखी करता है, कि माँ तेरे होते हुए भी, और मेरे जागते हुए भी, मेरे घर में डकैती पड़ जाए। . . ."

Narendra wanted the tanpura again. The Master said, "I want to sing." He was still in an ecstatic mood and sang: Mother, this is the grief that sorely grieves my heart, That even with Thee for Mother, and though I am wide awake, There should be robbery in my house. . . .

[নরেন্দ্র আবার তানপুরা আনিতে বলিলেন। ঠাকুর বলিলেন, “আমি গাইব।” এখনও ভাবাবেশ রহিয়াছে — ঠাকুর গাহিতেছেন: আমি ওই খেদে খেদ করি শ্যামা।তুমি মাতা থাকতে আমার জাগা ঘরে চুরি গো মা। 

श्री रामकृष्ण ने कहा - " माँ , तुम मुझसे तर्क क्यों करवाती हो ?  

{The Master said, "Mother, why do You make me argue?" 

[“মা! বিচার কেন করাও?” 

ठाकुर फिर गा रहे हैं -

 एबार आमि भालो भेबेछि । भालो भाबिर काछे भाब शिखेछि॥

घूम भेंगेछे आर कि घुमाई योगे योगे जेगे आछि। 

योगनिद्रा तोरे दिये माँ , घूमेरे घूम पोड़ायेछी।  

जे देशे रजनी नाइ मा, सेइ देशेर एक लोक पेयेछि। 

आमि किबा दिबा, किबा संध्या, संध्यारे वन्ध्या कोरेछि॥

तोमार पद तोमाय दिये, तोमाते तोमाय सोंपेछि। 

भवेर हाटे एशे एबार, बेचा केना सब कोरेछि॥

प्रसाद बोले, भुक्ति मुक्ति उभये माथाय रेखेछि। 

                           (आमि) काली ब्रह्म जेने मर्म धर्माधर्म सब छेड़ेछि॥ 

আবার গাহিতেছেন: বার আমি ভাল ভেবেছি, ভাল ভাবীর কাছে ভাব শিখেছি।ঘুম ভেঙেছে আর কি ঘুমাই যোগে যাগে জেগে আছি, যোগনিদ্রা তোরে দিয়ে মা, ঘুমেরে ঘুম পাড়ায়েছি।

He sang again: Once for all, this time, I have thoroughly understood; From One who knows it well, I have learnt the secret of bhava. . . .

ठाकुर बोले - " मैं पूर्णतः होश में हूँ। " किन्तु इस समय भी वे भावाविष्ट हैं। 

The Master said, "I am quite conscious." But he was still groggy with divine fervour. 

[ঠাকুর বলিতেছেন — “আমি হুঁশে আছি।” এখনও ভাবাবস্থা।

उन्होंने एक बार फिर गाया:

सुरापान कोरी ना आमि सूधा खाई जय काली बोले।  

मन- माताले माताल कोरे, मद- माताले माताल बोले।।

गुरुदत्त गुड़ लोये, प्रवृत्ती तय मशला दिये।  

ज्ञान शुड़ीते, चोयाय भांटी पान कोरे मोर मन- माताले।। 

मूलमंत्र यंत्र भरा, शोधन कोरी बोले तारा।  

प्रसाद बोले एमोन सूरा खेले चतुर्वर्ग मेले।। 

He sang once more: I drink no ordinary wine, but Wine of Everlasting -Bliss, As I repeat my Mother Kali's name; It so intoxicates my mind that people take me to be drunk! . . .

তিনি আরও একবার গেয়েছিলেন: সুরাপান করি না আমি, সুুধা খাই জয় কালী বলে।মন-মাতালে মাতাল করে, মদ-মাতালে মাতাল বলে ৷৷ 

उन्होंने कई गाने गाये , 

भवसिंधू जले, विधान कमले, आनंदमयी विराजे। 

आवेशे आकूल, भक्त अलिकूल, पिये सूधा तार माझे।। 

देखे देखे मायेर प्रसन्न वदन, चित्त विनोदन भूवन मोहन।

पदतले दले दले साधुगण नाचे गाय प्रेमे होईये मगन।। 

किबा अपरूप आहा मरी मरी जुडाईलो प्राण दरशन कोरी। 

प्रेमदासे बोले सबे पाये धोरी, गाओ भाई मायेर जय। 

श्री रामकृष्ण ने कहा , "माँ, मैं और कोई तर्क नहीं सुनूँगा।" 

 Sri Ramakrishna had said, "Mother, I won't listen to any more argument.

["ঠাকুর বলিয়াছেন, ‘মা, বিচার আর শুনব না।’

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏अपने सहोदर भाई पर या ब्रह्ममयी के पुत्र पर दूसरे पुत्र का जोर चलता है !🔆🙏 

[चरवाहे ने अपने गुरु से कहा था - 'तुम्हें पीटकर मंत्र लूँगा  !] 

नरेन्द्र  एक चरण की आवृत्ति करते हुए कह रहे हैं -

                                       (आमाय) दे मा पागल करे,

 आर काज नाई मा  ज्ञान विचारे। 

 तोमार प्रेमेर सुरा  पाने करो मातोआरा , 

ओ मा भक्तचित्तहरा डुबाओ  प्रेमसागरे ॥

श्री रामकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा- "माँ, मुझे पागल कर दे ।  ज्ञान और तर्क के  द्वारा या शास्त्रों का पाठ करके कोई ईश्वर की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकता ।”

Sri Ramakrishna said with a smile: "O Mother, make me mad! God cannot be realized through knowledge and reasoning, through the arguments in the scriptures."

(আমায়) দে মা পাগল করে, আর কাজ নাই জ্ঞানবিচারে।তোমার প্রেমের সুরা পানে কর মাতোয়ারা,ও মা ভক্ত-চিত্তহরা ডুবাও প্রেম-সাগরে। 

[ঠাকুর ঈষৎ হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন — “দে মা পাগল করে! তাকে জ্ঞানবিচার করে — শাস্ত্রের বিচার করে পাওয়া যায় না।”

ठाकुर देव कोन्नगर के गायक का शास्त्रीय संगीत और रागिनी आलाप को सुनकर प्रसन्न हुए हैं। और  विनयपूर्वक गानेवाले से कह रहे हैं - 'भाई, आनन्दमयी का एक गाना गाइये ।’”

 He had been pleased with the singing of the musician from Konnagar and said to him humbly: "Please sing about the Divine Mother. Please — one song."

[কোন্নগরের গায়কের কালোয়াতি গান ও রাগিণী আলাপ শুনিয়া প্রসন্ন হইয়াছেন। বিনীতভাবে গায়ককে বলিতেছেন, “বাবু, একটি আনন্দময়ির নাম!”

गवैये - महाराज, क्षमा कीजियेगा ।

MUSICIAN: "You must excuse me, sir."

[গায়ক — মহাশয়! মাপ করবেন।

श्रीरामकृष्ण गवैये को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कह रह हैं - "नहीं भाई, इसके लिए आग्रह कर सकता हूँ ।" 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (গায়ককে হাতজোড় করিয়া প্রণাম করিতে করিতে বলছেন) — “না বাপু! একটি, জোর করতে পারি!”

MASTER (bowing with folded hands): "No, sir. I can enforce this demand."

इतना कहकर गोविन्द अधिकारी की यात्रा (नाटक) के दल में गायी जानेवाली वृन्दा (गोपी-सखी)  की उक्ति को गाते हुए कह रहे हैं -" राई बोलिले बोलिते पारे ! (कृष्णेर जोन्ने जेगे आछे) (सारा रात जेगे आछे ! ) (मान कोरिले करिते पारे। )  'राधिका अगर कृष्ण को कुछ कहना चाहे तो कह सकती है, क्योंकि कृष्ण के लिए तमाम रात जगकर उन्होंने भोर कर दिया ।"

Saying this, Sri Ramakrishna sang a few lines from a kirtan, assuming the attitude of a gopi: Radha has every right to say it ; She has kept awake for Krishna. She has stayed awake all night, And she has every right to be piqued.}

[এই বলিয়া গোবিন্দ অধিকারীর যাত্রায় বৃন্দার উক্তি কীর্তন গান গাইয়া বলিতেছেন:" রাই বলিলে বলিতে পারে! (কৃষ্ণের জন্য জেগে আছে।)(সারা রাত জেগে আছে!) (মান করিলে করিতে পারে।)"

"बाबू, तुम ब्रह्ममयी के पुत्र हो, वे घट-घट में हैं, तुम पर मेरा जोर अवश्य है । किसान ने अपने गुरु से कहा था - 'तुम्हें ठोंक कर मन्त्र लूँगा ।"

Then he said to the musician: "My dear sir, you are a child of the Divine Mother. She dwells in all beings. Therefore I have every right to enforce my demand. A farmer said to his guru, 'I shall get my mantra from you by beating you, if I have to.'"

{“বাপু! তুমি ব্রহ্মময়ীর ছেলে! তিনি ঘটে ঘটে আছেন! অবশ্য বলব। চাষা গুরুকে বলেছিল — ‘মেরে মন্ত্র লব!’

गवैये - (सहास्य) - जूतियों से ठोंक कर ?

[গায়ক (সহাস্য) — জুতো মেরে।

MUSICIAN (smiling): "By a shoe-beating?'

श्रीरामकृष्ण - (गुरु के उद्देश्य में प्रणाम करके, हँसकर) - नहीं, इतनी दूर नहीं बढ़ सकता हूँ । फिर भावावेश में कह रहे हैं - "प्रवर्तक (The beginner) , साधक (the struggling) , सिद्ध (the perfect) और सिद्धों के सिद्ध (the supremely perfect ) हैं - क्या तुम सिद्ध हो या सिद्ध के सिद्ध ? अच्छा गाओ।"

MASTER (smiling): "No! I won't go that far." Again in an abstracted mood Sri Ramakrishna said: "The beginner, the struggling, the perfect, and the supremely perfect. Which are you — perfect or supremely perfect? Come along! Sing for us."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্রীগুরুদেবকে উদ্দেশে প্রণাম করিতে করিতে সহাস্যে) — অত দূর নয়। আবার ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন — “প্রবর্তক, সাধক, সিদ্ধ, সিদ্ধর সিদ্ধ; — তুমি কি সিদ্ধ, না সিদ্ধের সিদ্ধ? আচ্ছা গান কর।”

गवैये आलाप करके गाने लगे - उन्होंने सिर्फ एक राग गाया --मन निषेध ! 

The musician complied. He sang just a melody.

[গায়ক রাগিণী আলাপ করিয়া গান গাহিতেছেন — মন বারণ!

  [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

"माँ ,शब्दब्रह्म को सुनता कौन है ? मैं या तुम ?"

🔆🙏 शब्दब्रह्म में आनंद किसने लिया ?- 'माँ, आलाप क्या मैंने सुना ?  या तुम ने ?'🔆🙏

🙏🔆🙏🔆🙏🔆শব্দব্রহ্মে আনন্দ — ‘মা, আমি না তুমি?’🙏🔆🙏🔆🙏 ]

श्रीरामकृष्ण (आलाप सुनकर) - भाई इससे भी आनन्द होता है ।

MASTER: "My dear sir, that too makes me happy."

[শ্রীরামকৃষ্ণ (আলাপ শুনিয়া) — বাবু! তেও আনন্দ হয়, বাবু!

गाना समाप्त हो गया । कोन्नगर के भक्त श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके बिदा हो गये । साधक हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कह रहे हैं - 'गुसाईंजी, तो मैं अब चलता हूँ ।' 

The musician then sang a song. When the music was over, the devotees from Konnagar saluted the Master and took their leave. The sadhaka bowed before him with folded hands and said, "Holy man, let me say good-bye."

[গান সমাপ্ত হইল। কোন্নগরের ভক্তেরা প্রণাম করিয়া বিদায় লইলেন। সাধক জোড়হাতে প্রণামকরিয়া বলছেন, “গোঁসাইজী! — তবে আসি।” 

श्रीरामकृष्ण अब भी भावावेश में हैं - माता के साथ - अपने को दिखलाते हुए बातचीत कर रहे हैं "माँ, यह तुम हो या मैं ? क्या मैं कुछ भी करता हूँ ? - नहीं नहीं, सब कुछ तुम करती हो। साधक के तर्कों को मैंने सुना या तुमने ?  ना - मैंने नहीं सुना - तुम्हीं ने सुना है ।"

”Sri Ramakrishna, still in an ecstatic mood, was talking to the Divine Mother.MASTER: "Mother, is it You or I? Do I do anything? No. no! It is You. Was it You who heard the arguments all this time, or was it I? No, not I. It was You."

[ঠাকুর এখনও ভাবাবিষ্ট। মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন,“মা! আমি না তুমি? আমি কি করি? — না, না, তুমি।“তুমি বিচার শুনলে — না এতক্ষণ আমি শুনলাম? — না; আমি না; — তুমিই! (শুনলে)।

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏  साधु (कर्मी -भक्त) भी तीन तरह के होते हैं सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी 🔆🙏

[सभी प्रकार के कर्मी का सम्मान करो ! ]

[আমি সবরকম সাধুকে মানি।]

[Respect Holy Men of all classes.]

श्रीरामकृष्ण की प्राकृत अवस्था हो रही है । अब वे नरेन्द्र, भवनाथ, मुखर्जी आदि भक्तों से साधक के सम्बन्ध में बातचीत कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna became conscious of the outer world and began to converse with Narendra, Bhavanath, and the other devotees. They were talking about the sadhaka.

[ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন। নরেনদ্র, ভবনাথ, মুখুজ্জে ভ্রাতৃদ্বয় প্রভৃতি ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন। সাধকটির কথায় —

साधक की बात उठाते हुए भवनाथ ने पूछा, कैसा आदमी है ?

BHAVANATH (smiling): "What kind of man is he?"] 

[ভবনাথ (সহাস্যে) — কিরকমের লোক!

श्रीरामकृष्ण - तमोगुणी भक्त है ।

MASTER: "He is a tamasic devotee."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তমোগুণী ভক্ত।

भवनाथ - खूब श्लोक कह सकता है ।

BHAVANATH: "He can certainly recite Sanskrit verses."

[ভবনাথ — খুব শ্লোক বলতে পারে।

श्रीरामकृष्ण - मैंने एक आदमी से कहा था - 'वह रजोगुणी साधु है - उसे क्यों सीधा-फीधा देते हो ?' एक दूसरे साधु ने मुझे शिक्षा दी । उसने कहा - 'ऐसी बात मत कहो, साधु तीन तरह के होते हैं - सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी ।' उस दिन से मैं सब तरह के साधुओं को मानता हूँ ।

MASTER: "Once I said to a man about a sadhu: "He is a rajasic sadhu. Why should one give him food and other presents?' At this another sadhu taught me a lesson by saying to me: 'Don't say that. There are three classes of holy men: sattvic, rajasic, and tamasic.' Since that day I have respected holy men of all classes."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি একজনকে বলেছিলাম — ‘ও রজোগুণী সাধু — ওকে সিধে-টিধে দেওয়া কেন?’ আর-একজন সাধু আমায় শিক্ষা দিলে — ‘অমন কথা বলো না! সাধু তিনপ্রকার — সত্ত্বগুণী, রজোগুণী, তমোগুণী।’ সেই দিন থেকে আমি সবরকম সাধুকে মানি।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🙏🔆खल भक्त- कर्मियों में भी एक ही ईश्वर हैं ?🙏🔆 

नरेन्द्र - (सहास्य) - क्या ? उसी तरह जैसे हाथी नारायण है ? सभी नारायण हैं ।

NARENDRA (smiling): "What? Is it like the elephant God'? All, indeed are God."

[নরেন্দ্র (সহাস্যে) — কি, হাতি নারায়ণ? সবই নারায়ণ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - विद्या और अविद्या के रूपों से वे ही लीला कर रहे हैं । मैं दोनों को प्रणाम करता हूँ । चण्डी में है - 'वही लक्ष्मी है और अभागे के यहाँ की धूल भी वही है ।' (भवनाथ आदि से) यह क्या विष्णु पुराण में है ?

[ लक्ष्मी और अलक्ष्मी : माता लक्ष्मी के एकदम विपरीत हैं उनकी बड़ी बहन अलक्ष्मी, जानिए उनके स्वरूप के बारे में… समुद्रमंथन के दौरान माता लक्ष्मी का अवतरण हुआ था. लेकिन उनसे पहले माता अलक्ष्मी अवतरित हुई थीं। मान्यता है समुद्रमंथन के समय कालकूट के बाद इनका प्रादुर्भाव हुआ था।  समुद्र से निकलने के बाद देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु का चयन किया।  जबकि माता अलक्ष्मी ने आसुरी शक्तियों की शरण ली।  इसलिए इनकी गिनती रत्नों में नहीं की जाती।  इनके प्रादुर्भाव के समय देवताओं ने कहा था कि जिस घर में कलह होगी, तुम वहीं निवास करोगी। अलक्ष्मी और लक्ष्मी कभी साथ नहीं रहतीं। गरीबी, क्लेश और गंदगी जहां होती है, वहां अलक्ष्मी का निवास होता है। अगर अलक्ष्मी से घर को बचाना है तो साफ सफाई का विशेष खयाल रखें क्योंकि तब घर में लक्ष्मी निवास करती हैं।  जहां लक्ष्मी होती हैं, अलक्ष्मी वहां से चली जाती हैं. छोटी दिवाली के दिन घर का कबाड़ बाहर निकाला जाता है, साफ सफाई की जाती है।  दरअसल ऐसा करके अलक्ष्मी को घर से बाहर भेजा जाता है, ताकि दीपावली के दिन लक्ष्मी माता घर में पधार सकें। नरक चतुर्दशी के दिन जब घर की साफ सफाई वगैरह की जाती है, तो अलक्ष्मी घर से चली जाती हैं।  इसके बाद दीपावली के दिन माता लक्ष्मी का आगमन होता है। ]

"It is God Himself who sports in the world as both vidya and avidya. Therefore I salute both. It is written in the Chandi: The Divine Mother is the good fortune of the blessed and the ill fortune of the unlucky.' (To Bhavanath) Is that mentioned in the Vishnu Purana?"

{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তিনিই বিদ্যা-অবিদ্যারূপে লীলা কচ্ছেন। দুই-ই আমি প্রণাম করি। চন্ডীতে আছে, তিনিই লক্ষ্মী। আবার হতভাগার ঘরে অলক্ষ্মী। (ভবনাথের প্রতি) এটা কি বিষ্ণুপুরাণে আছে?} 

भवनाथ – (हँसते हुए) – जी, मुझे तो नहीं मालूम । कोन्नगर के भक्त आप की समाधि-अवस्था देखकर उठे चले जा रहे थे ।

BHAVANATH (smiling): "I don't know, sir. The devotees from Konnagar did not understand your samadhi and were about to leave the room."

[ভবনাথ (সহাস্যে) — আজ্ঞা, তা জানি না। কোন্নগরের ভক্তেরা আপনার সমাধি অবস্থা আসছে বুঝতে না পেরে উঠে যাচ্ছিল।

श्रीरामकृष्ण - कोई फिर कह रहा था कि तुम लोग बैठो ।

MASTER: "Who was it that asked them to remain?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কে আবার বলছিল — তোমরা বসো।

भवनाथ - (हँसते हुए) - वह मैं हूँ ।

BHAVANATH (smiling): "It was I."

[ভবনাথ (সহাস্য) — সে আমি!

श्रीरामकृष्ण - तुम जैसे लोगों को यहाँ लाते हो, वैसे ही भगा भी देते हो !

MASTER: "My child, you are equally good in bringing people here and in driving them away."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি বাছা ঘটাতেও যেমন, আবার তাড়াতেও তেমনি।

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏 श्रीरामकृष्ण के 'अप्रतिरोध 'का सिद्धान्त -सत्व गुण का तम-हरिनाम का महात्म्य🔆🙏 

नरेंद्र को शिक्षा -सत्त्व (निःस्वार्थपरता)  का तम रखना चाहिए  ]

[Doctrine of Non-resistance and Sri Ramakrishna —

 নরেন্দ্রের প্রতি উপদেশ —সত্ত্বের তমঃ — হরিনাম-মাহাত্ম্য ]

गवैये के साथ नरेन्द्र का वाद विवाद हुआ था, उसी की बात चल रही है ।

The conversation turned to the argument that Narendra had had with the musician from Konnagar.

[গায়কের সঙ্গে নরেন্দ্রের তর্ক হইয়াছিল, — সেই কথা হইতেছে।

मुखर्जी - नरेन्द्र ने भी मोर्चा नहीं छोड़ा ।

MUKHERJI: "Narendra didn't spare him."

[মুখুজ্জে — নরেন্দ্রও ছাড়েন নাই।

रामकृष्ण - हाँ, ऐसी दृढ़ता तो चाहिए ही । इसे सत्त्व (निःस्वार्थपरता) का तम कहते हैं । लोग जो कुछ कहेंगे क्या उसी पर विश्वास करना होगा ? वेश्या से क्या यह कहा जायगा कि तुम्हें जो रुचे वही करो ? तो वेश्या की बात भी माननी होगी । मान करने पर एक सखी ने कहा था - 'राधिका को अहंकार हुआ है ।’ वृन्दे ने कहा, "यह 'अहं' किसका है ? - यह उन्हीं का अहंकार है - कृष्ण के ही गर्व से वे गर्व करती हैं ।"

 "That's right. One needs such grit. This is called the influence of tamas on sattva. Must a man listen to everything another man says? Should one say to a prostitute, 'All right, you may do whatever you like'? Must one listen to her? At one time Radha was piqued. A friend said, 'Her ego has been roused.' Brinde, another friend, said: 'Whose is this ego? Her ego belongs to Krishna alone. She is proud in the pride of Krishna.'"

{শ্রীরামকৃষ্ণ — না, এরূপ রোখ চাই! একে বলে সত্ত্বের তমঃ। লোকে যা বলবে তাই কি শুনতে হবে? বেশ্যাকে কি বলবে, আচ্ছা যা হয় তুমি করো। তাহলে বেশ্যার কথা শুনতে হবে? মান করাতে একজন সখী বলেছিল, ‘শ্রীমতীর অহংকার হয়েছে।’ বৃন্দে বললে, এ ‘অহং’ কার? — এ তাঁরই অহং। কৃষ্ণের গরবে গরবিনী।}

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏हरिनाम जप करने का माहात्म्य ~ the glory of God's name !  🔆🙏 

अब हरिनाम के माहात्म्य की बात हो रही है ।

The conversation turned to the glory of God's name.

[এইবার হরিনাম-মাহাত্ম্যের কথা হইতেছে।

भवनाथ - नामजप  करने पर मेरी देह हलकी पड़ जाती है ।

BHAVANATH: "I feel such relief while chanting the name of Hari."

[ভবনাথ — হরিনামে আমার গা যেন খালি হয়।

श्रीरामकृष्ण - वे पाप का हरण करते हैं, इसीलिए उन्हें हरि कहते हैं । वे त्रिताप के हरण करनेवाले हैं ।

"He who relieves us of sin is Hari. He relieves us of our three afflictions in the world.

{শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি পাপ হরণ করেন তিনিই হরি। হরি ত্রিতাপ হরণ করেন।}

"और चैतन्य देव ने इस नाम [हरिबोल -हरिबोल] का प्रचार किया था, अतएव अच्छा है । देखो, चैतन्य देव कितने बड़े पण्डित थे और वे अवतार थे । उन्होंने इस नाम का प्रचार किया था, अतएव यह बहुत ही अच्छा है । (हँसते हुए) कुछ किसान एक न्योते में गये थे । भोजन करते समय उनसे पूछा गया, तुम लोग आमड़े की खटाई खाओगे ? उन्होंने कहा, बाबुओं ने अगर उसे खाया हो तो हमें भी देना । मतलब यह कि उन्होंने खाया होगा तो वह चीज अच्छी ही होगी ।" (सब हँसते हैं)

MASTER: "He who relieves us of sin is Hari. He relieves us of our three afflictions in the world. Chaitanya preached the glory of Hari's name; so it must be good. You see, he was such a great scholar, and an Incarnation too. Since he preached that name, it must be good. (Smiling) Once some peasants were invited to a feast. They were asked if they would eat a preparation of hog plum. They answered: 'You may give it to us if the gentlemen have eaten it. If they enjoyed it, then it must be good.' (All laugh.)

[“আর চৈতন্যদেব হরিনাম প্রচার করেছিলেন — অতএব ভাল। দেখো চৈতন্যদেব কত বড় পণ্ডিত — আর তিনি অবতার — তিনি যেকালে এই নাম প্রচার করেছিলেন এ অবশ্য ভাল। (সহাস্যে) চাষারা নিমন্ত্রণ খাচ্ছে — তাদের জিজ্ঞাসা করা হল, তোমরা আমড়ার অম্বল খাবে? তারা বললে, ঝদি বাবুরা খেয়ে থাকেন তাহলে আমাদের দেবেন। তাঁরা যেকালে খেয়ে গেছেন সেকালে ভালই হয়েছে।” (সকলের হাস্য)

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏निराकारवादी ब्राह्म  शिवनाथ क्या मूर्तिपूजक ठाकुरदेव को लाइक करेगा ?🔆🙏

श्रीरामकृष्ण की शिवनाथ शास्त्री से मिलने की इच्छा हुई है । वे मुखर्जियों से कह रहे हैं ‘एक बार शिवनाथ शास्त्री को देखने के लिए जाऊँगा, तुम्हारी गाड़ी से जाऊँगा तो किराया न पड़ेगा ।'

(To the Mukherji brothers) "I should like to visit Shivanath. I won't have to hire a carriage if you take me in yours."

[ঠাকুর শিবনাথ (শাস্ত্রী)-কে দেখিতে যাইবেন ইচ্ছা হইয়াছে — তাই মুখুজ্জেকে বলিতেছেন, “একবার শিবনাথকে দেখতে যাবো — তোমাদের গাড়িতে গেলে আর ভাড়া লাগবে না!”

मुखर्जी - जो आज्ञा, एक दिन भेज दी जायगी ।

MUKHERJI: "All right, sir, we shall set a day."

[মুখুজ্জে — যে আজ্ঞা, তাই একদিন ঠিক করা যাবে।

श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - अच्छा, क्या वह हम लोगों को पसन्द करेगा ? वे लोग साकारवादियों की कितनी निन्दा करते हैं ।

"Do you think the Brahmos will like me? They criticize those who believe in God with form."

{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — আচ্ছা, আমাদের কি লাইক করবে? অত ওরা (ব্রাহ্মভক্তেরা), সাকারবাদীদের নিন্দা করে।}

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏 पहले युगावतार से प्रेम का 'अंकुर' होगा, फिर 'पेड़' होगा, तब 'फल' होंगे🔆🙏

श्रीयुत महेन्द्र मुखर्जी तीर्थ यात्रा करनेवाले हैं ? श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं –

Mahendra Mukherji wanted to go on a pilgrimage. He told Sri Ramakrishna so.

[শ্রীযুক্ত মহেন্দ্র মুখুজ্জে তীর্থযাত্রা করিবেন — ঠাকুরকে জানাইতেছেন।

(सहास्य) “यह कैसी बात ! प्रेम के अंकुर के उगते ही जा रहे हो ? अंकुर होगा, फिर पेड़ होगा, तब फल होंगे । तुम्हारे साथ अच्छी बातें हो रही थीं ।"

"How is that? Do you want to go when the sprout of divine love has hardly come up? First comes the sprout, then the tree, then the fruit. We are so happy to have you here to talk to."

{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সে কি গো! প্রেমের অঙ্কুর না হতে হতে যাচ্চো? অঙ্কুর হবে, তারপর গাছ হবে, তারপর ফল হবে। তোমার সঙ্গে বেশ কথাবার্তা চলছিল।

महेन्द्र - जी, जरा इच्छा हुई है, घूम लूँ । फिर जल्द ही आ जाऊँगा

MAHENDRA: "I feel like visiting the holy places a little. I shall return soon."

[মহেন্দ্র — আজ্ঞা, একটু ইচ্ছা হয়েছে ঘুরে আসি। আবার শীঘ্র ফিরে আসব।

(४)

[(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏निराकारवादी नरेंद्र ने आगमनी  ~ माँ दुर्गा के पदार्पण का गीत गाया 🔆🙏

तीसरा पहर ढल गया है । दिन के पाँच बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण उठे । भक्तगण बगीचे में टहल रहे हैं । उनमें से कितने ही शीघ्र घर जाने वाले हैं । श्रीरामकृष्ण उत्तरवाले बरामदे में हाजरा से बातचीत कर रहे हैं । नरेन्द्र आजकल गुहों के बड़े लड़के अन्नदा के पास प्रायः जाया करते हैं

It was about five o'clock in the afternoon. Sri Ramakrishna left his room. The devotees were walking in the garden. Many of them were about to leave.The Master was conversing with Hazra on the north verandah. They were talking of Narendra's frequent visits to Annada, the eldest son of the Guhas.

[অপরাহ্ন হইয়াছে।বেলা ৫টা হইবে। ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন।ভক্তেরা বাগানে বেড়াইতেছেন। অনেকে শীঘ্র বিদায় লইবেন।ঠাকুর উত্তরের বারান্দায় হাজরার সহিত কথা কহিতেছেন। নরেন্দ্র আজকাল গুহদের বড়ছেলে অন্নদার কাছে প্রায় যান।

हाजरा - सुना है, गुहों का लड़का आजकल कठोर साधना कर रहा है । भोजन भी थोड़ा सा ही करता है। चार दिन बाद अन्न खाता हैं ।

HAZRA: "I hear that Annada is now practising austerity. He lives on very little food and eats rice once every four days."

[হাজরা — গুহদের ছেলে অন্নদা, শুনলাম বেশ কঠোর করছে। সামান্য সামান্য কিছু খেয়ে থাকে। চারদিন অন্তর অন্ন খায়।

श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ! 'कौन कहे किस भेष से नारायण मिल जाय ।’

MASTER: "Is that so? 'Who knows? One may realize God even by means of a religious garb.'"

{শ্রীরামকৃষ্ণ — বল কি? ‘কে জানে কোন্‌ ভেক্‌সে নারায়ণ মিল্‌ যায়।’} 

हाजरा - नरेन्द्र ने माँ दुर्गा के स्वागत-गीत [आगमनी] गाया था ।

HAZRA: "Narendra sang the agamani.**"

[হাজরা — নরেন্দ্র আগমনী গাইলে।

श्रीरामकृष्ण - (उत्सुकता से) – कैसा ?

MASTER (eagerly): "How did he sing it?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যস্ত হইয়া) — কিরকম?

किशोर पास खड़ा था ।

श्रीरामकृष्ण - तेरी तबियत अच्छी है न ?

Kishori stood close by. The Master said to him, "Are you well?"

[কিশোরী কাছে দাঁড়াইয়া। ঠাকুর বলছেন, তুই ভাল আছিস?

श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले गोल बरामदे में खड़े हैं । शरत् काल है । फलालैन का गेरुआ कुर्ता पहने हैं और नरेन्द्र से कह रहे हैं - “क्या तूने  सच में आगमनी संगीत **  गाया था ?”

 [^ब्रह्म समाज का सदस्य होने के कारण , नरेन्द्र उन दिनों  हिन्दू  धर्म के देवी-देवताओं में विश्वास नहीं करते थे।

As a member of the Brahmo Samaj, Narendra at that time did not believe in the gods and goddesses of the Hindu religion. 

आगमनी संगीत ^ माँ दुर्गा को आमन्त्रित करने वाले गीतों की एक श्रेणी। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी दुर्गा या उमा पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं। उनका विवाह , उनके मातापिता के इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव के साथ हुआ था जो अपने शरीर पर चिता की भष्म लपेटे भूतों के साथ श्मशान घाट घूमते हैं और भिक्षा माँगकर खाते हैं। विवाह के नियमानुसार दुर्गा को हर साल तीन दिन अपने माता-पिता के साथ रहने की अनुमति थी। बंगाल की संस्कृति के अनुसार हिन्दू महिलाएं देवी दुर्गा को अपनी बेटी के रूप में देखती हैं। दुर्गा पूजा के पहले दिन वे देवी माँ का स्वागत करने के लिए आगमनी गाते हैं। (महालया के दिन भोर में रेडियो पर यह बोधन तथा आगमनी संगीत सुनकर दुर्गा पूजा आने का भान हो जाता है । हिन्दू समुदाय इस दिन से ही मां दुर्गा का धरती पर आगमन मानता है । दूसरे दिन से नवरात्र की पूजा शुरू हो जाती है । 5 दिनों बाद षष्ठी के दिन बिल्ववरण से दुर्गा मां घरों में, पंडालों में विराजमान हो जाती हैं ।)  इस आगमनी श्रेणी के सभी गीत एक माँ की अपनी उस बेटी के लिए अत्यन्त सहृदयता और प्रेम से परिपूर्ण होता है, जो लंबे समय के बाद अपने पति के घर से अपने मायके लौट रही है।

^A class of songs invoking Durga, the Divine Mother. According to Hindu mythology Durga, or Uma, is the daughter of King Himalaya. She was married, against the will of Her parents, to Siva, who roams in the cremation ground in the company of ghosts, smearing His body with ashes and living on alms. According to the terms of the marriage, Durga was allowed to stay with Her parents three days each year. The Hindu women of Bengal look on Durga as their own daughter. On the first day of the Durga Puja they sing the agamani to welcome the Divine Mother. The song is full of the tenderness and affection of a mother for her daughter who is returning home from her husband's house after a long time.} 

गोल बरामदे से उतरकर श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के साथ गंगा के बाँध पर आये । साथ मास्टर हैं । नरेन्द्र आगमनी संगीत गा रहे हैं -महारानी मैना कह रहिं हैं -इस बार जब दामाद जी आयेंगे तब कह दूँगी कि उमा घर पर नहीं है -.....  

केमोन करे परेर घरे छिली उमा ? बोल मा ताइ। 

कतो लोके कतोइ बोले, शुने प्राण मोरे जाइ।।

मा’र प्राणे कि धैर्य धोरे, जामाई ना कि भिक्षा कोरे। 

एबार निते एले परे (बोलबो) उमा आमार घरे नाइ।।  

चिताभस्म माखि अंगे, जामाई फिरे नाना रंगे। 

तूई ना कि माँ, तारि संगे तोर सोनार अंगे माखिश छाई।।

(गीतकार: गिरीशचंद्र घोष)  

" मुझे बताओ, मेरी उमा, दूरवर्ती पाहुन (शिव, उमा के पति।) के घर में अकेले तुम कैसे रहती थी ? लोग हमें बहुत ताने मारते हैं ! काश, मैं शर्म से मर ही जाती !' सुनती हूँ मेरा दामाद अपने शरीर पर चिता की राख मलकर बहुत खुशी से घूमता फिरता है ? और उसके साथ-साथ तुम भी,अपने सुवर्ण जैसी त्वचा पर  वही राख लगाती हो ? जो वह खाता है , भिक्षा माँगकर खाता है! तुम्हारी माँ होने के नाते मैं यह सब कैसे सहन कर सकती हूँ? इस बार जब वह विदा करवाकर अपने साथ लिवा जाने के लिए यहाँ आयेगा, तो मैं उससे कह दूँगी कि , "मेरी बेटी उमा घर पर नहीं है।"

Accompanied by Narendra and M., Sri Ramakrishna walked to the embankment of the Ganges. Narendra sang the agamani: 

     Tell me, my Uma, how have you fared, alone in the Stranger's (Siva, Uma's Husband.) house? People speak so much ill of us! Alas, I die of shame! 'My Son-in-law smears His body with ashes from the funeral pyre, And roams about in great delight; You too, along with Him, cover with ash your golden skin. He begs the food that He eats! How can I bear it, being your mother? This time, when He returns to claim you, I shall say to Him, "My daughter Uma is not at home."

[ঠাকুর পশ্চিমের গোল বারান্দায়। শরৎকাল। গেরুয়া রঙে ছোপানো একটি ফ্লানেলের জামা পরিতেছেন ও নরেন্দ্রকে বলছেন, “তুই আগমনী গেয়েছিস?” গোল বারান্দা হইতে নামিয়া নরেন্দ্রের সঙ্গে গঙ্গার পোস্তার উপর আসিলেন। সঙ্গে মাস্টার। নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন:

কেমন করে পরের ঘরে, ছিলি উমা বল মা তাই।কত লোকে কত বলে, শুনে প্রাণে মরে যাই ৷৷ চিতাভস্ম মেখে অঙ্গে, জামাই বেড়ায় মহারঙ্গে। তুই নাকি মা তারই সঙ্গে, সোনার অঙ্গে মাখিস ছাই ৷৷ কেমন মা ধৈর্য ধরে, জামাই নাকি ভিক্ষা করে। এবার নিতে এলে পরে, বলব উমা ঘরে নাই 

श्रीरामकृष्ण खड़े हुए सुन रहे हैं । सुनते सुनते उन्हें भावावेश हो रहा है ।अब भी दिन कुछ शेष है। सूर्य भगवान पश्चिम की ओर अभी कुछ दीख पड़ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भाव में डूबे हुए हैं । एक ओर गंगा उत्तर की ओर बही जा रही है । अभी कुछ देर से ज्वार का आना शुरू हुआ है । पीछे फुलवाड़ी है । दाहिनी ओर नौबत और पंचवटी दिखायी दे रही हैं । पास में नरेन्द्र खड़े हुए गा रहे हैं । शाम हो गयी ।

Sri Ramakrishna stood listening to the song and went into samadhi. The sun was still above the horizon as the Master stood on the embankment in the ecstatic mood. On one side of him was the Ganges, flowing north with the flood-tide. Behind him was the flower garden. To his right one could see the nahabat and the Panchavati. Narendra stood by his side and sang. Gradually the darkness of evening fell upon the earth.

[ঠাকুর দাঁড়াইয়া শুনিতেছেন। শুনিতে শুনিতে ভাবাবিষ্ট।এখনও একটু বেলা আছে। সূর্যদেব পশ্চিম গগনে দেখা যাইতেছেন। ঠাকুর ভাবাবিষ্ট। তাঁহার একদিকে উত্তরবাহিনী গঙ্গা — কিয়ৎক্ষণ হইল জোয়ার আসিয়াছে। পশ্চাতে পুষ্পোদ্যান। ডানদিকে নবত ও পঞ্চবটী দেখা যাইতেছে। কাছে নরেন্দ্র দাঁড়াইয়া গান গাহিতেছেন। সন্ধ্যা হইল।

नरेन्द्र आदि भक्त प्रणाम करके बिदा हो गये । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये । जगन्माता का स्मरण-चिन्तन कर रहे हैं । श्रीयुत यदु मल्लिक पासवाले बगीचे में आज आये हुए हैं । बगीचे में आने पर प्राय: आदमी भेजकर श्रीरामकृष्ण को बुलवा ले जाते हैं । आज भी आदमी भेजा है - श्रीरामकृष्ण जायेंगे। श्रीयुत अधर सेन कलकत्ते से आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

 After Narendra and several other devotees had saluted the Master and left for Calcutta, Sri Ramakrishna returned to his room. He was absorbed in meditation on the Divine Mother and was chanting Her holy name.Jadu Mallick had arrived at his garden house next to the Kali temple. He sent for the Master. Adhar, too, had arrived from Calcutta, and he saluted Sri Ramakrishna. 

নরেন্দ্র প্রভৃতি ভক্তেরা প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিয়াছেন। ঘরে ঠাকুর আসিয়াছেন ও জগন্মাতার নাম ও চিন্তা করিতেছেন।শ্রীযুক্ত যদু মল্লিক পার্শ্বের বাগানে আজ আসিয়াছেন। বাগানে আসিলে প্রায় ঠাকুরকে লোক পাঠাইয়া লইয়া যান — আজ লোক পাঠাইয়াছেন — ঠাকুরের যাইতে হইবে। শ্রীযুক্ত অধর সেন কলিকাতা হইতে আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন।

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

 🔆🙏जदु मल्लिक के बगीचे में भक्तों के साथ🔆🙏

श्रीरामकृष्ण श्रीयुत यदु मल्लिक के बगीचे में जायेंगे । लाटू से कह रहे हैं ! – ‘लालटेन जला – जरा चलेंगे ।

The Master asked Latu to light the lantern and accompany him to Jadu's garden.

[ঠাকুর শ্রীযুক্ত যদু মল্লিকের বাগানে যাইবেন। লাটুকে বলিতেছেন, লণ্ঠটা জ্বাল্‌, একবার চল্‌।

श्रीरामकृष्ण लाटू के साथ अकेले जा रहे हैं । मास्टर भी साथ हैं ।

[ঠাকুর লাটুর সঙ্গে একাকী যাইতেছেন। মাস্টার সঙ্গে আছেন।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - तुम नारायण को लेते क्यों नहीं आये ?

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তুমি নারাণকে আনলে না কেন?

MASTER (to M.): "Why didn't you bring Naran with you?"

मास्टर कह रहे हैं - "क्या मैं भी साथ चलू ?"

M: "Shall I come with you?"

মাস্টার বলিতেছেন — আমি কি সঙ্গে যাব?

श्रीरामकृष्ण – चलोगे ? अधर आदि सब हैं - अच्छा, चलो । दोनों मुखर्जी भाई रास्ते में खड़े थे । श्रीरामकृष्ण मास्टर से पूछ रहे हैं - "क्या ये लोग भी कोई जायेंगे ? (मुखर्जियों से) अच्छा है चलो। तो हम जल्दी चले आ सकेंगे ।"

MASTER: "Do you want to come? Adhar and the others are here. All right, you may come. Will the Mukherjis also come with us? (To the Mukherjis) Come along. Then we can leave Jadu Mallick quickly."

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যাবে? অধর-টধর সব রয়েছে — আচ্ছা, এসো।মুখুজ্জেরা পথে দাঁড়াইয়াছিলেন। ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন — ওঁরা কেউ যাবেন? (মুখুজ্জেদের প্রতি) — আচ্ছা, বেশ চলো। তাহলে শীঘ্র উঠে আসতে পারব।

 [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏यदु मल्लिक के साथ अधर की नौकरी और चैतन्यलीला पर चर्चा🔆🙏$

श्रीरामकृष्ण यदु मल्लिक के बैठकखाने में आये । कमरा सजा हुआ था । कमरे में और बरामदे में दीवारगीरें जल रही हैं । श्रीयुत यदुलाल छोटे-छोटे लड़कों को लिये हुए प्रसन्नतापूर्वक दो-एक मित्रों के साथ बैठे हैं । नौकरों में से कोई आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा है, कोई पंखा झल रहा है । यदु बाबू ने हँसकर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से सम्भाषण किया, जैसे पुराने परिचितों का व्यवहार हो

The Master went to Jadu's drawing-room. It was a well furnished room, with everything spick and span. The lamps were lighted. Jadu was sitting with his friends and was playing with the children. Servants were in attendance. Smiling, Jadu welcomed Sri Ramakrishna, but he did not get up. He treated the Master as a friend of long acquaintance.

[ঠাকুর যদু মল্লিকের বৈঠকখানায় আসিয়াছেন। সুসজ্জিত বৈঠকখানা। ঘর বারান্দায় দ্যালগিরি জ্বলিতেছে। শ্রীযুক্ত যদুলাল ছোট ছোট ছেলেদের লইয়া আনন্দে দু-একটি বন্ধুসঙ্গে বসিয়া আছেন। খানসামারা কেহ অপেক্ষা করিতেছে, কেহ হাতপাখা লইয়া পাখা করিতেছে। যদু হাসিতে হাসিতে বসিয়া বসিয়া ঠাকুরকে সম্ভাষণ করিলেন ও অনেকদিনের পরিচিতের ন্যায় ব্যবহার করিতে লাগিলেন।

यदु बाबू गौरांग के भक्त हैं । उन्होंने स्टार थियेटर में चैतन्यलीला देखी थी । श्रीरामकृष्ण से उसी की बातचीत कर रहे हैं । कहा, चैतन्य-लीला का नया अभिनय बड़ा अच्छा हो रहा है ।

श्रीरामकृष्ण आनन्दपूर्वक चैतन्यलीला की बातचीत सुन रहे हैं, रह-रहकर यदु बाबू के एक छोटे लड़के का हाथ लेकर खेल कर रहे हैं । मास्टर और दोनों मुखर्जी भाई उनके पास बैठे हुए हैं ।

श्रीयुत अधर सेन ने कलकत्ता म्युनिसिपैल्टी के वाईस चेअरमन के पद के लिए बड़ी चेष्टा की थी । उस पद का वेतन हजार रुपया है । अधर डिप्टी मजिस्ट्रेट हैं । तीन सौ रुपया प्रति मास पाते है । उम्र तीस साल की होगी ।

 ​Jadu was a devotee of Gauranga. He had just seen a performance of Gauranga's life at the Star Theatre and told the Master about it. The Master listened to his account joyfully and played with the children. M. and the Mukherji brothers sat near him. In the course of the conversation Sri Ramakrishna told Jadu that Adhar had not been able to secure the post of vice-chairman the Calcutta Municipality. Jadu said that Adhar was still young and could try for it again.

[যদু গৌরাঙ্গভক্ত। তিনি স্টার থিয়েটারে চৈতন্যলীলা দেখিয়া আসিয়াছেন। ঠাকুরের কাছে গল্প করিতেছেন। বলিলেন, চৈতন্যলীলা নূতন অভিনয় হইতেছে। বড় চমৎকার হইয়াছে।ঠাকুর আনন্দের সহিত চৈতন্যলীলা-কথা শুনিতেছেন। মাঝে মাঝে যদুর একটি ছোট ছেলের হাত লইয়া খেলা করিতেছেন। মাস্টার ও মুখুজ্জে-ভ্রাতারা তাঁহার কাছে বসিয়া আছেন।শ্রীযুক্ত অধর সেন কলিকাতা মিউনিসিপ্যালিটির ভাইস-চেয়ারম্যান-এর কর্মের জন্যে চেষ্টা করিয়াছিলেন। সে কর্মের মাহিনা হাজার টাকা। অধর ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট — তিনশ টাকা মাইনে পান। অধরের বয়স ত্রিশ বৎসর।

श्रीरामकृष्ण - (यदु बाबू से) - अधर का काम अभी नहीं हुआ है ।

यदु और उनके मित्र - अधर की उम्र भी तो अभी ज्यादा नहीं हुई ।

कुछ देर बाद यदु कह रहे हैं - 'तुम जरा गौरांग-भाव का गीत सुनाओ । श्रीरामकृष्ण गौरांग का भाव गाकर बतला रहे हैं - 

 'आमार गौर नाचे। 

नाचे संकीर्तन , श्रीवास -अँगने , भक्तगण संगे।'

'आमार गौर रतन।  '

'गौर चाहे वृन्दावन पाने , आर धारा बहे दू नयने। 

श्रीरामकृष्ण ने कीर्तन के कई गाने गाये ।

At his request the Master sang a few songs about Gauranga.

[चैतन्य चरित के लिए देखें ------https://archive.org/stream/in.ernet.dli.2015.482317/2015.482317.Srichaitanya--Chariramrit-bhag_djvu.txt 

(५)

  [(14 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-90 ] 

🔆🙏 राखाल के लिए चिन्ता-यदु मल्लिक - भोलानाथ का बयान 🔆🙏

गीत के समाप्त हो जाने पर दोनों मुखर्जी भाई उठे । उनके साथ श्रीरामकृष्ण भी उठे । परन्तु भावावेश अब भी है । घर के बरामदे में आकर खड़े होते समाधिमग्न हो गये । बरामदे में कई बत्तियाँ जल रही थीं। बगीचे का दरवान भक्त था । वह श्रीरामकृष्ण को आमन्त्रित करके कभी कभी भोजन कराता था । दरवान श्रीरामकृष्ण को बड़े पंखे से हवा करने लगा । बगीचे के कर्मचारी श्रीयुत रतन ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।श्रीरामकृष्ण की प्राकृत अवस्था हो रही है । उन लोगों से सम्भाषण करते हुए वे 'नारायण-नारायण' उच्चारण कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ठाकुर-मन्दिर के सदर फाटक तक आये । यहाँ मुखर्जी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।अघर श्रीरामकृष्ण को खोज रहे थे ।

After the music was over, the Mukherjis were about to take their leave. The Master, too, was ready to go, but he was in an ecstatic mood. On coming to the porch he went into samadhi. The gate-keeper of the garden house was a pious man. Now and then he invited the Master to his house and fed him. Sri Ramakrishna stood there in samadhi, and the gate-keeper fanned him with a large fan. Ratan, the manager of the garden house, saluted the Master, and Sri Ramakrishna, returning to the consciousness of the relative world, greeted the manager and the gate-keeper, saying, "Narayana". Then, accompanied by the devotees, he went back to the temple garden through the main gate.

[গান সমাপ্ত হইলে মুখুজ্জেরা গাত্রোত্থান করিলেন। ঠাকুরও সঙ্গে সঙ্গে উঠিলেন। কিন্তু ভাবাবিষ্ট। ঘরের বারান্দায় আসিয়া একেবারে সমাধিস্থ হইয়া দণ্ডায়মান। বারান্দায় অনেকগুলি আলো জ্বলিতেছে। বাগানের দ্বারবান ভক্ত লোক। ঠাকুরকে মাঝে মাঝে নিমন্ত্রণ করিয়া সেবা করান। ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়া দাঁড়াইয়া আছেন। দ্বারবানটি আসিয়া ঠাকুরকে পাখার হাওয়া করিতেছেন; বড় হাত পাখা।বাগানের সরকার শ্রীযুক্ত রতন আসিয়া প্রণাম করিলেন।ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন। নারায়ণ! নারায়ণ! — এই নাম উচ্চারণ করিয়া তাহাদের সম্ভাষণ করিলেন। 

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इनके (मास्टर के) साथ तुम लोग सदा मिलते रहना और बातचीत करना ।

प्रिय मुखर्जी - (सहास्य) – हाँ, ये अब से हमारे मास्टर बने ।

श्रीरामकृष्ण - गंजेड़ी का स्वभाव है कि दूसरे गंजेड़ी को देखकर उसे आनन्द होता है । अमीरों के आने पर तो वह बोलता भी नहीं । परन्तु अगर एक अभागा कहीं का गंजेड़ी आ जाय तो उसे गले लगाने लगता है । (सब हँसते हैं ।) 

श्रीरामकृष्ण बगीचे के रास्ते से पश्चिम की ओर होकर अपने कमरे की ओर जा रहे हैं । रास्ते में कह रहे हैं - 'यदु बड़ा हिन्दू है - भागवत की बहुत सी बातें कहता है ।'

मणि कालीमन्दिर में चरणामृत ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भी वहीं पहुँचे । माता के दर्शन करेंगे । रात के नौ बजे मुखर्जियों ने प्रणाम करके बिदा ली । अधर और मास्टर जमीन पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण अधर से राखाल की बातें कर रहे हैं ।

राखाल वृन्दावन में हैं, बलराम के साथ पत्र द्वारा संवाद मिला था, वे बीमार हैं । दो-तीन दिन हुए श्रीरामकृष्ण राखाल की बीमारी का हाल पाकर इतने चिन्तित हो गये थे कि दोपहर की सेवा के समय हाजरा से, क्या होगा, कहकर बालक की तरह रोने लगे थे । अधर ने राखाल को रजिस्ट्री करके चिट्ठी लिखी है । परन्तु अब तक पत्र की स्वीकृति उन्हें नहीं मिली ।

श्रीरामकृष्ण - नारायण को पत्र मिला और तुम्हें पत्र का जवाब भी नहीं मिला ?

अधर - जी नहीं, अभी तक तो नहीं मिला ।

श्रीरामकृष्ण - और मास्टर को भी लिखा है ।

श्रीरामकृष्ण 'स्टार थियेटर' में चैतन्य-लीला देखने जायेंगे, इसी सम्बन्ध में बातचीत हो रही है ।

श्रीरामकृष्ण - ( हंसते हुए) - यदु ने कहा था, एक रुपये वाली जगह ^ से खूब दीख पड़ता है और सस्ता भी है !

{^अपनी अपार संपत्ति के बावजूद, यदु मल्लिक बहुत कंजूस था। 

^In spite of his great wealth, Jadu Mallick was very miserly.} 

"एक बार हम लोगों को पेनेटी ( Panihati) ले जाने की बातचीत हुई थी, यदु ने हम लोगों के चढ़ने के लिए चलती नाव किराये पर लेने की बातचीत की थी ! (सब हँसते हैं ।)

{Jadu wanted me to go in a country boat with a whole crowd of passengers.} 

"पहले ईश्वर की बातें कुछ-कुछ सुनता था । अब वह नहीं दीख पड़ता । कुछ खुशामदी लोग यदु के दाँये-बाँये हमेशा बने रहते हैं - उन लोगों ने और चकाचौंध लगा दिया है ।

"बड़ा हिसाबी है । जाने के साथ ही उसने पूछा, कितना किराया है ? मैंने कहा, 'तुम्हारा न सुनना ही अच्छा है । तुम ढाई रुपया देना ।' ^ इससे चुप हो गया और वही ढाई रुपये देता है !" (सब हँसते हैं ।)

{^भारत में गृहस्थ के लिए यह प्रथा है कि जब कोई पवित्र-पूज्य मनुष्य (साधु-संन्यासी या माता-पिता की श्रेणी का व्यक्ति)  उसके घर आता हो , तो उसे उनकी गाड़ी का आने-जाने का किराया अवश्य देना चाहिए ।

^It is customary for a householder in India to pay the carriage hire of a holy man when the latter visits his house.} 

ठाकुरबाड़ी के दक्षिणी छोर पर एक सुलभ -शौचालय बनाया गया है।  शौचालय के बगल में यदु का बगीचा है उसको लेकर यदु मल्लिक  के साथ विवाद (dispute) चल रहा है। बगीचे के मुन्शी श्री भोलानाथ ने जज के समक्ष एक बयान (deposition) दिया है। बयान देने के बाद से उनको बहुत डर लग रहा है। इसकी सूचना उन्होंने ठाकुर को भी दी थी। ठाकुर ने उनको कहा था कि अधर डेपुटी मजिस्ट्रेट है, जब वह यहाँ आये तो तुम इस सम्बन्ध में उनके साथ बातचीत करना। श्री राम चक्रवर्ती भोलानाथ को अपने साथ लेकर ठाकुर के पास आये हैं , और सारा हाल बताकर कहते हैं कि भोलानाथ ने जब से गवाही दी है , तब से वह डरा हुआ है। ठाकुर थोड़ा चिन्तित होकर उठकर बैठ गए और अधर को सारा हाल बताने को कहा। अधर ने पूरा विवरण सुनने के बाद कहा कि यह कोई खास बात नहीं है , थोड़ा कष्ट उठाकर कोर्ट जाना पड़ेगा, और हल हो जायेगा। यह सुनकर ठाकुर की गहरी चिंता जैसे दूर हो गयी।    

रात हो गयी है । अधर जायेंगे, प्रणाम कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नारायण को लेते आना ।

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तैत्तिरीय उपनिषद : संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 1)

साभार लेखक: साधु भद्रेशदास, पीएच.डी., डी.लिट.

तैत्तिरीय उपनिषद:-'शी'क्षावल्ली:

एक परिचय

यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद में सम्मिलित है। इस उपनिषद को तैत्तिरीय शाखा (शाखा) में तैत्तिरीय आरण्यक के भाग के रूप में पढ़ा जाता है। इसलिए इस उपनिषद को तैत्तिरीय उपनिषद भी कहा जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद को तीन खंडों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक को 'वल्ली' कहा जाता है। इनमें से पहला 'शी'क्षावल्ली, दूसरा आनंदवल्ली और तीसरा भृगुवल्ली है। आइए हम इन तीनों वल्लियों के उपदेशों और सार को देखें।

 'शी'क्षावल्ली : सब कुछ आनंदमय हो। तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली के शब्दों को गुनगुनाते हुए शुरू होता है - 'शन्नो मित्र: शं वरुण:। शन्नो भवत्वर्यमा। शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरूक्रमः।' - 'शन्नो मित्रः शं वरुणः, शन्नो भवत्वर्यमः, शन्नो इंद्रो ब्रशस्पितिहि, शन्नो विष्णुरूक्रमः' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। ये उपदेश देने से पहले शांति के लिए प्रार्थना करने वाले उपदेशकों के शब्द हैं। यह हर जगह आनंद और शांति का अनुरोध है। मित्र, वरुण, अर्यमा, बृहस्पति और अन्य देवता, जिन्हें परमात्मा ने सृष्टि का प्रबंधन करने के लिए नियुक्त किया है, हमारे लिए खुशी का स्रोत बनें और हर जगह शांति की वर्षा करें। इस उपनिषद की शुरुआत में परमात्मा से की गई यह प्रार्थना संपूर्ण सृष्टि की भलाई के लिए प्रार्थना करती है। यह भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का महान एवं अद्वितीय गुण है। सबके हर दुख का निवारण, परम आनंद की अनुभूति, परम शांति की प्राप्ति- यही हिंदू सनातन चिंतन की दिशा रही है।

आइए अब इस मंत्र का एक और संदेश देखें।

मैं अक्षरब्रह्म और परब्रह्म को नमन करता हूं। 'नमो ब्रह्मणे' - 'नमो ब्राह्मणे' - 'मैं ब्रह्म को नमन करता हूं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। केवल एक शब्द, 'ब्राह्मणे' का उपयोग करते हुए, उपदेशक ऋषि दो दिव्य संस्थाओं अक्षरब्रह्म और परब्रह्म को नमन करते हैं। इसका कारण यह है कि इस उपनिषद में बाद में 'ब्रह्मविद्याप्नोति परम' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1) और 'सत्यं ज्ञानम् अनंत ब्रह्म' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1) जैसे कथनों में अक्षरब्रह्म को 'ब्राह्मण' शब्द का उपयोग करने का उल्लेख है, जबकि 'आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात' (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/6) जैसे कथन परब्रह्म को 'ब्राह्मण' शब्द का उपयोग करने के लिए संदर्भित करते हैं। इस प्रकार अक्षरब्रह्म और परब्रह्म दोनों के लिए सामान्य शब्द 'ब्राह्मण' का उपयोग करते हुए, ऋषि इन दोनों दिव्य संस्थाओं को ध्यान में रखते हुए 'नमो ब्राह्मणे' शब्दों का उपयोग करते हैं - 'मैं अक्षर-पुरुषोत्तम को नमन करता हूं'।

इस धनुष का कारण समझ में आता है। उपनिषद् ब्रह्मविद्या के शास्त्र हैं। उपनिषद स्वयं ब्रह्मविद्या को परिभाषित करते हैं - 'येनाऽक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।' - 'येनाऽक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तम तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्' - 'जिससे अक्षर अर्थात् अक्षरब्रह्म और पुरुष अर्थात् परब्रह्म को उनके तत्त्व से जाना जाता है, वह ब्रह्मविद्या कहलाती है।' (मुंडक उपनिषद: 1/2/13) इस कारण से, तैत्तिरीय उपनिषद में, ब्रह्मविद्या की इन दोनों दिव्य संस्थाओं को याद किया गया है और ब्रह्मविद्या पर उपदेश शुरू करने से पहले उन्हें प्रणाम किया गया है।

प्रकट को श्रद्धांजलि

झुकने के बाद अब श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' - 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। यहां अक्षरब्रह्म और परब्रह्म दोनों की अभिव्यक्ति का संकेत दिया गया है। गुणातीत गुरु के प्रति अभिव्यक्ति की इस भावना को विकसित करना चाहिए और बार-बार मजबूत करना चाहिए। गुरु स्वयं अक्षरब्रह्म हैं, और परब्रह्म निरंतर उनके भीतर निवास करते हैं। इस प्रकार, इस वाक्य का तात्पर्य है कि हमें सर्वोच्च दिव्यता के साथ प्रकट गुरु की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वह अक्षरब्रह्म और परब्रह्म का प्रकट रूप है।

शांति के लिए इस प्रार्थना में, हम शिक्षण ऋषि के महान आचरण का भी अनुभव करते हैं।

शिक्षक की सत्य प्रतिज्ञा

सत्य बोलना एक उपदेशक, शिक्षक या शिक्षक की पहली आवश्यकता है। 'ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि।' – 'रुतम् वदिष्यामि; सत्यं वदिष्यामि' - 'मैं केवल शाश्वत सिद्धांत ही बोलूंगा। मैं सत्य बोलूंगा (अर्थात् मिथ्या सिद्धांत नहीं सिखाऊंगा)' (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/1)। इन शब्दों के साथ ऋषि ने सत्य बोलने की प्रतिज्ञा की है। यहाँ, ऋषि एक उपदेशक, एक शिक्षक, एक शिक्षक है और शिक्षा देना उसका कर्तव्य है। झूठ बोलना पाप है, लेकिन झूठ सिखाना घोर पाप होगा। यह वैदिक गुरु-शिष्य संवाद की एक विशेष विशेषता है। शिक्षक शिष्य और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है। वह अपना कर्तव्य समझता है। वह इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि एक दूषित शिक्षा एक शिष्य के जीवन को कितना तबाह कर सकती है और पूरे समाज को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा, एक ईमानदार व्यक्ति को सहनशील भी होना चाहिए। वह जानता है कि सच बोलने पर उसे कभी-कभार प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ सहनी पड़ेंगी। इसी कारण से, समाज में ऐसे ईमानदार और सहिष्णु गुरुओं की निरंतर आवश्यकता को जानकर, शिक्षण ऋषि प्रार्थना करते हैं, 'तन्मामवतु। तदवक्तरामवतु। अवतु माम्। अवतार वक्तम।' 'तन्मामवतु; तद्वक्त्रमवतु; अवतु माँ; अवतु वक्तरम्;' - 'हे भगवान! मुझे बचाओ। वक्ता, शिक्षक को बचाएं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। इस प्रकार, किसी की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने का कारण अंततः समाज को सुशिक्षित रखना ही है। इस प्रकार, यह मंत्र उस आदर्श दृष्टिकोण को दर्शाता है जो एक शिक्षक को अपना पाठ शुरू करने से पहले रखना चाहिए।

'शिक्षा' शब्द का एक विशेष अर्थ

यहाँ 'शिक्षा' का अर्थ दण्ड नहीं, बल्कि शिक्षा है और उसमें भी एक विशेष प्रकार की शिक्षा - वह शिक्षा जो वेदों के अध्ययन में काम आती है। हमारे वेद विशेष ज्ञान के सागर हैं। एक सच्चा वैज्ञानिक बनने के लिए व्यक्ति को इनका विस्तार से अध्ययन करना चाहिए। इनका अध्ययन करने के लिए सबसे पहले इनकी देखभाल करनी होगी।

हमारी प्राचीन परम्पराओं के अनुसार वेदों को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने की एक विशेष विधि प्रचलित रही है। यह विधि व्यवस्थित उच्चारण और दोहराव की है। हजारों साल पहले, जब लेखन अच्छी तरह से स्थापित नहीं हुआ था, हमारे वेदों को इस उच्चारण और दोहराने की विधि द्वारा संरक्षित किया गया था। इस प्राचीन परंपरा का फल प्रामाणिक मंत्रों का विशाल संग्रह है जो आज हमें वेदों में मिलता है। उच्चारण और पुनरावृत्ति की इस विधि को भली-भांति समझाने वाला विज्ञान 'शिक्षा' है। इस उपनिषद में यह बताया गया है। 'शिक्षां व्याख्यास्यामः' - 'शिक्षाम् व्याख्यानस्यामः' - 'अब हम शिक्षा की व्याख्या करेंगे' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/2)। इस प्रस्ताव के साथ, ऋषि शिक्षा के मुख्य विषयों को सूचीबद्ध करते हैं: 'वर्णः स्वरः। मात्रा बलम्। सम सन्तानः। इत्युक्तः शिक्षाध्यायः।' 'वर्णः स्वरः; मातृ बलम्; सम संतनः; 'इत्युक्तः शिक्षोध्यायः' (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/2)। वर्नाहा का अर्थ है अक्षर। इसमें स्वर जैसे 'अ - ए', 'इ - आई', 'उ - उ', 'ऋ - रु' आदि और व्यंजन जैसे 'क - का', 'ख - खा', 'ग - शामिल हैं। ग', 'घ - घ', आदि। वेदों के मंत्रों का उच्चारण ठीक से हो सके, इसके लिए शिक्षा ग्रंथों में सबसे पहले बताया गया है कि स्वर और व्यंजन मुंह या गले के किस भाग से उत्पन्न होते हैं, साथ ही उनकी उत्पत्ति कैसे होती है, और क्या। उनका असली उच्चारण वास्तव में है।

स्वरः का अर्थ है स्वर। मंत्रों के उच्चारण के साथ-साथ मंत्रों के गायन को सक्षम बनाने के लिए स्वरों की भी अद्भुत व्यवस्था है।

मात्रा का अर्थ है अवधि. यहां वैदिक मंत्रों में स्वरों का उच्चारण कितनी अवधि तक करना चाहिए, यह बताया गया है। ह्रस्व (छोटा) और दीर्घ (लंबा) जैसी अवधियां उच्चारण की लंबाई दर्शाती हैं।

बलम् का अर्थ है वह बल जिससे मंत्र के अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए।

साम का अर्थ है अक्षरों के उच्चारण की समानता।

संतनः का अर्थ है शब्दों को उनके क्रम के अनुसार उच्चारण करने की प्रणाली। इसे संहिता के नाम से भी जाना जाता है।

इस प्रकार, वैदिक शिक्षा ग्रंथ वैदिक मंत्रों के उच्चारण के पहलुओं की विस्तृत व्याख्या देते हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।

स्वाभाविक रूप से, कोई भी वेदों के उच्चारण के लिए इस पूरी प्रणाली की आवश्यकता पर सवाल उठा सकता है। उत्तर सीधा है। हमारे वेद कोई साधारण पुस्तक नहीं, ईश्वरीय शास्त्र हैं। हमें अपने प्रश्न का उत्तर तब मिलेगा जब हम हजारों साल पहले के बारे में सोचें जब ज्ञान को लिखकर सुरक्षित रखने का कोई तरीका नहीं था। वेद शाश्वत सिद्धांतों का सागर हैं। प्रत्येक वाक्य एक शाश्वत सिद्धांत है। इन सिद्धांतों को संरक्षित करने के लिए, हमारे पूर्वजों ने पहले इनका सही उच्चारण करना आवश्यक समझा, क्योंकि वेदों का पाठ मंत्रों के रूप में किया जाता है। वैदिक मन्त्रों की रचना शब्दों से हुई है। और अक्षरों से शब्द बनते हैं। यदि मंत्रों के शब्दों का उच्चारण या क्रम बदल दिया जाए तो सिद्धांत बदल सकते हैं या लुप्त हो सकते हैं। इस कारण से, वैदिक स्कूलों ने सबसे पहले अपने छात्रों को शिक्षा के बारे में सिखाया।

इस प्रकार, तैत्तिरीय उपनिषद में, वेदों के अध्ययन के लिए उपयोगी शिक्षा की उचित व्याख्या दी गई है। इसीलिए उपनिषद के इस भाग को शिक्षावल्ली कहा जाता है।

अनुवादक: साधु परमविवेकदास

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तैत्तिरीय उपनिषद

संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 2)

शिक्षा की महिमा

जहां शिक्षा है, वहीं प्रगति और उत्थान है। जहाँ शिक्षा नहीं, वहाँ प्रगति नहीं; पतन होता है और समाज को दुःख का सामना करना पड़ता है। इसीलिए वैदिक काल से ही हमें निरन्तर अध्ययन की प्रेरणा मिलती रही है। यह इस उपनिषद में स्पष्ट है। मंत्र के शब्द हैं: 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।' – 'रुतम् च स्वध्यायप्रवचने च; सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च; तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च; दमश्च स्वध्यायप्रवचने च' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/17)। स्वाध्याय का अर्थ है सीखने की क्रिया, अध्ययन करना; प्रवचन का अर्थ है सिखाना। इस प्रकार, शास्त्र हमें सिखाने और सीखने का आदेश देते हैं। हमें अपनी इस विरासत को सदैव संजोकर रखना चाहिए।

दीक्षांत भाषण

दीक्षांत समारोह की परंपरा हमारे यहां वैदिक काल से ही चली आ रही है। शिक्षावल्ली के 11वें अध्याय (अनुवाक) में इसका ध्यान आता है। हमारी वैदिक शिक्षा परम्परा के अनुसार विद्यार्थी आश्रम में रहता है। कई वर्षों तक, छात्र विभिन्न विषयों में अनुभवी शिक्षकों से सीखते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में दक्षता हासिल करते हैं। जब उनकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो दीक्षांत समारोह आयोजित किया जाता है। शिक्षक स्वयं समारोहपूर्वक विद्यार्थियों की डिग्रियों की घोषणा करते हैं। यह दीक्षांत समारोह विद्यार्थियों की अंतिम कक्षा है। उस दिन से, ये प्रखर युवा आश्रम छोड़ देंगे और सभी की भलाई के लिए समाज में अपना पहला कदम उठाएंगे। वे एक नया जीवन शुरू करेंगे. इसलिए, शिक्षक बड़े प्यार से उन्हें सलाह के अपने आखिरी शब्द देते हैं। ये उपदेश ही दीक्षांत समारोह हैं। उनमें समस्त शिक्षा का सार समाहित है। आइए देखें कि इस उत्थानशील दीक्षांत समारोह में क्या शामिल है।

'वेदमनुत्व्याचार्योऽन्तेवसिनमनुशास्ति' - 'वेदमनुच्याचार्योऽन्तेवसिनमनुशास्ति' - 'शिक्षक उन छात्रों को निर्देश देते हैं जिन्होंने वेदों का अध्ययन पूरा कर लिया है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। वह उन्हें निर्देश देते हैं, 'सत्यं वद।' घर्मं चर। स्वाध्यायन् मा प्रमदः।' 'सत्यं वद; धर्मम् चर; स्वध्यायन् मा प्रमदः' - 'सच बोलो। अपने धर्म का पालन करो. अपनी पढ़ाई में कभी भी निष्क्रिय न रहें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। 'मातृदेवो भव. पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। 'अतिथिदेवो भव।' - 'मातृवेदो भव, पितृदेवो भव, अतिथिदेवो भव' - 'अपनी मां को देवी के समान जानो (यानी उनकी सेवा करो और उन्हें प्रसन्न करो जैसे कि वह देवी हों), अपने पिता को भगवान के समान जानो, अपने शिक्षक को जानो अतिथि को देवता के समान जानो, अतिथि को भी देवता के समान जानो' (तैत्तिरीय उपनिषदः 1/11)। 'यान्यानवद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। 'नो इतरानी।'- 'यन्यानवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इताराणि' - 'हे शिष्यों! केवल वही कार्य करें जो शास्त्र और समाज के अनुरूप हों। इसके विपरीत कार्य न करें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। 'यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि। नो इतरानी. ये के चास्मत्वत्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्।' - 'यन्यास्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपस्यानि, न इताराणि, ये के चस्माच्छ्रेयंसो ब्राह्मणः, तेषाम् त्वयः सनेन प्रश्वसितव्यम्' - 'इसके अलावा, केवल अपना अच्छा आचरण अपनाएं, और कुछ नहीं।' यहां से जाने के बाद यदि तुम्हें हमसे श्रेष्ठ कोई गुरु मिले तो उसका आदर करना, उसे आसन देकर प्रणाम करना।'' (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/11) इस प्रकार अमूल्य शिक्षा देकर शिक्षक अंत में कहते हैं: 'एश आदेशः।' एष उपदेशः। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्।' - 'एषा आदेशः, ईशा उपदेशः, एतदनुशासनम्, एवमुपासितव्यम्' - 'यह हमारा अंतिम आदेश है। यही शिक्षा है. आगे बढ़ो, इसके अनुसार जियो' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)।

दीक्षांत भाषण के पूरा होने पर, शिक्षावल्ली शांति के लिए एक और प्रार्थना के साथ समाप्त होती है।

इस प्रकार, शिक्षावल्ली में, हम अपनी सनातन वैदिक परंपरा में जीवन पर महान दृष्टिकोण और समृद्ध दार्शनिक विचार देखते हैं।

इस उपनिषद में, शिक्षावल्ली के बाद, हम आनंदवल्ली में आध्यात्मिकता - ब्रह्मविद्या - के उपदेश पाते हैं। आइए एक नजर डालते हैं.

आनंदवल्ली

एक वादा: जो ब्रह्म को जानता है वह परब्रह्म को प्राप्त करता है

जैसे ही आनंदवल्ली शुरू होती है, पहले शब्द अक्षर-पुरुषोत्तम सिद्धांत की शुरुआत करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली के शब्दों को तुरही बजाना शुरू करता है: 'ॐ ब्रह्मविद् आप्नोति परमम्' - 'ओम् ब्रह्मविद् आप्नोति परम' - 'जो ब्रह्म, यानी अक्षरब्रह्म को जानता है, वह परम, यानी परब्रह्म को प्राप्त करता है' (तैत्तिरीया उपनिषद: 2/1) . अक्षरब्रह्म को जानने का अर्थ केवल जानकारी नहीं, बल्कि बोध है। हमें ब्रह्मरूप या अक्षररूप बनना होगा। यह ब्रह्मरूप हो जाने वाले व्यक्ति के लिए परब्रह्म की प्राप्ति की प्रतिज्ञा है। यही बात अर्जुन को समझाई गई: 'ब्रह्मभूतः प्रियात्मा न शोचति न काङक्षति।' समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते परमं॥' - 'ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति, समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम लभते परम्' (गीताः 18/74)। इसी कारण से, भगवान स्वामीनारायण इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि केवल ब्रह्मरूप बनने वाले को ही परमात्मा की भक्ति करने का अधिकार है। (वचनामृतं लोय 7)। इसके अलावा, अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी ने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को इसी सिद्धांत के साथ समझाया है: “हम दो चीजों को पूरा करने के लिए पैदा हुए हैं। एक तो अक्षररूप हो जाना; और दो, परमात्मा से जुड़ना” (स्वामिनी वोटो: 4/101)।

इस प्रकार 'ब्रह्मविद्याप्नोति परम्' (तैत्तिरीय उपनिषदः 2/1) कहने से ऐसा लगता है जैसे ब्रह्मविद्या को उसकी संपूर्णता में संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत कर दिया गया है।

ब्रह्म से परिचय

उपनिषद केवल यह कहकर नहीं रुकता कि परब्रह्म को पाने के लिए अक्षरब्रह्म को जानना आवश्यक है। जिससे अक्षरब्रह्म को आसानी से जाना जा सके, यह हमें अक्षरब्रह्म के दिव्य स्वरूप से भी परिचित कराता है। उपनिषद कहता है: 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' - 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)। अक्षरब्रह्म सत्यम् है, अर्थात् इसका स्वरूप और लक्षण सदैव विद्यमान रहते हैं, इनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अक्षरब्रह्म ज्ञानम् है, अर्थात यह ज्ञान का स्वरूप है, जो सदैव माया से निष्कलंक रहता है। यही कारण है कि ऐतरेय उपनिषद 'प्रज्ञानं ब्रह्म' 'प्रज्ञानं ब्रह्म' (ऐतरेय उपनिषद: 2/1) शब्दों के साथ अक्षरब्रह्म की महिमा गाता है। अक्षरब्रह्म अनन्तम् है। अंत का अर्थ है अंत, जिसका अंत न हो वह अनंत अर्थात अविनाशी है। अन्त का मतलब सीमा भी होता है, अनंत का मतलब बिना सीमा के होता है। अक्षरब्रह्म अपनी सर्वज्ञता से हर चीज़ में व्याप्त है और इसलिए अनंत है।

अक्षरब्रह्म के साथ परब्रह्म के आनंद का अनुभव

'सोऽश्नुते सर्वान् कामन् सह ब्राह्मण विपश्चितेति' - 'सोऽष्णुते सर्वान् कामन् सह ब्राह्मण विपश्चितेति' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)। इस मंत्र का सार यह है कि जैसे अक्षरब्रह्म परमात्मा के परम आनंद का अनुभव करता है, वैसे ही उस ब्रह्मरूप भक्त को भी, जिसने उस अक्षरब्रह्म का अनुभव कर लिया है।

यह उपनिषद हमें यह भी बताता है कि यदि कोई उस अक्षरब्रह्म को नहीं जानता तो क्या होता है। असन्नेव स भवति। असद्‌ ब्रह्मेति वेद चेत्' - 'असन्नेव स भवति; असद् ब्रह्मेति वेद चेत' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/6)। अर्थात्, जो अक्षरब्रह्म को अस्तित्वहीन मानता है, जो अक्षरब्रह्म के अस्तित्व को नहीं जानता, वह अपने अस्तित्व के उद्देश्य को खो देता है।

इस प्रकार, परब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक अक्षरब्रह्म इकाई का वर्णन किया गया है।

परमात्मा: आनंदमय

परमात्मा की महिमा यहां आनंदमय के रूप में गाई गई है। 'तस्माद्वा एतस्माद्' विज्ञानमयाद्‌। अन्योऽन्तर आत्मा आनंदमयः' - 'तस्माद्व एतस्माद विज्ञानमयाद' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/5)। इस मंत्र में, विज्ञानमय शब्द आत्मा को संदर्भित करता है। परमात्मा परब्रह्म, जो सर्वज्ञ रूप से आत्मा के भीतर रहता है और सभी आत्माओं का आत्मा है, आनंद से भरा है। 'रसो वै सः' - 'रसो वै सः' - वह परमात्मा आनंदमय है। (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 2/7) इतना ही नहीं, 'रसं ह्येव लब्ध्वाऽनन्दि भवति' शब्दों के साथ । एष ह्येवाऽनन्दयाति'– 'रसम् ह्येव लब्ध्वा''नन्दि भवति, एषा ह्येव''नन्दयति'' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/7)। यह आनंदमय परमात्मा सभी के आनंद का कारण है। उसे प्राप्त करके ही आनंद की अनुभूति होती है। वह सबको आनंदित करने वाला है।

क्या परमात्मा के आनंद का वर्णन किया जा सकता है, जो सदैव आनंदमय है और सभी के आनंद का कारण है? वह आनंद कैसा है? किस हद तक? इस पर भी यहां चिंतन किया गया है.

साधु भद्रेशदास, पीएच.डी., डी.लिट.

अनुवादक: साधु परमविवेकदास

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तैत्तिरीय उपनिषद

संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 3)

परम आनंद पर चिंतन

'सैषाऽनंदस्य मीमांसा भवति' - 'सैषा' नंदस्य मीमांसा भवति' - 'आइए अब परम आनंद पर चिंतन करें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)। इन शब्दों के साथ परमात्मा के आनंद को एक पैमाने का उपयोग करके मापने का एक सार्थक प्रयास किया गया है जिसमें मनुष्य के आनंद को 'एक आनंद' के रूप में गिना जाता है।

मनुष्य के आनंद को समझाते हुए उपनिषद कहता है: 'युवा स्यात् साघु युवाध्याकः। आशिष्ठो दृधिष्ठो बलिष्ठः। तसयेयं पृथिवी सर्व वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनंदः।' – 'युवः स्यात् साधु युवेध्यायकः; आशिष्ठो बालिश्तः; तस्येयं पृथिवे सर्व वित्तस्य पूर्ण स्यात्; सा एको मानुषा आनन्दः।' - 'अगर कोई कम उम्र का हो, अच्छा स्वभाव वाला हो, पढ़ाने लायक बुद्धिमान हो, आशावादी हो, आशावादी हो, निराशावादी न हो, इतना स्वस्थ हो कि सब कुछ खा सके और पचा सके, मजबूत शरीर के साथ-साथ मजबूत इरादों वाला भी हो; इतना ही नहीं, यदि सारी पृथ्वी धन-सम्पत्ति से भर जाती और वह सारी सम्पत्ति उसकी हो जाती, अर्थात् यदि वह सारे जगत का सम्राट होता; यह सब एक साथ एक व्यक्ति में एक इंसान के लिए एक आनंद होगा।' इसके बाद कहते हैं, 'ते ये शतं मानुषा आनंदः।' स एको मनुष्यगण्घर्वाणाम् आनंदः।' – 'ते ये शतं मानुषः आनंदः; सा एको मनुष्यगन्धर्वानाम् आनंदहा' - 'ऐसे सैकड़ों मनुष्य के आनंद एक मनुष्यगंधर्व के एक आनंद के बराबर हैं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)। मनुष्य-गंधर्वों के बाद देव-गंधर्व आते हैं, फिर पितृ, फिर अंजनज जैसे देवता, फिर कर्म-देव, फिर अन्य देवता, फिर इंद्र, फिर बृहस्पति और प्रजापति। प्रत्येक प्राणी का 'एक आनंद' पूर्ववर्ती से सौ गुना अधिक है।

अंत में, यह कहा गया है, 'ते ये शतं प्रजापतेरानंद:।' स एको ब्रह्म आनंदः।' - 'ते ये शतं प्रजापतेरानंदः, स एको ब्राह्मण आनंदः' - 'ऐसे सैकड़ों प्रजापति के आनंद मिलकर अक्षरब्रह्म के एक आनंद हैं' (तैत्तिरेय उपनिषद: 2/8)। वास्तव में 'अनंतम ब्रह्म' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1) अक्षरब्रह्म के अनंत गुणों और शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है; इसलिए इसका आनंद भी अनंत है. लेकिन परमात्मा की महानता की श्रेष्ठता दिखाने के लिए, तुलना करने में मदद के लिए इसे अक्षरब्रह्म के एक आनंद के रूप में परिभाषित किया गया है।

इस प्रकार, मनुष्य से लेकर अक्षरब्रह्म तक, प्रत्येक इकाई के आनंद को पिछले से सौ गुना अधिक दिखाते हुए, यह परमात्मा के आनंद पर निष्कर्ष निकालते हुए कहता है: 'यतो वाचो निवर्तन्ते।' अप्राप्य मनसा सह' - 'यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/9)। परमात्मा का आनंद अवर्णनीय है, शब्द कम पड़ जाते हैं, यहां तक ​​कि मन भी अपर्याप्त है, अर्थात परमात्मा का आनंद असीमित है; पूरी तरह से असीमित; पूरी तरह से और पूरी तरह से असीमित. इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता. वह निरंतर और सहजता से (सहज) इस अनंत (अनंत) आनंद का अनुभव करता है। वह अनंतानंद, सहजानंद हैं।

इस प्रकार, दूसरी वल्ली केवल परमात्मा के आनंदमय रूप और अनंत दिव्य आनंद (आनंद) का वर्णन करती है और इस प्रकार तैत्तिरीय उपनिषद की इस वल्ली को 'आनंदवल्ली' कहा जाता है।

उस परम आनंदमय परमात्मा की क्षमताओं का भी यहाँ वर्णन किया गया है।

सर्व विधाता सोऽकामयत्

। बहु स्यां प्रजायेय। स तपस्तस्तप्त्वा। इदं सर्वमसृजत्। तत्सृष्ट्वा। तदेवानुप्रविशत्।।' – 'सोऽकामायता; बहु स्याम प्रजायेय; सा तपस्तस्तप्त्वा; इदम् सर्वमसृजाता; तत्सृष्टव; तदेवानुप्रविशत्' - 'उस परम आनंदमय परमात्मा ने सृष्टि बनाने का संकल्प लिया। उस संकल्प के अनुसार उन्होंने इन सबकी रचना की और वे उस सृष्टि में व्याप्त हैं, अर्थात वे नियंत्रक और समर्थक के रूप में निवास करते हैं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/6)। इस प्रकार, सदैव आनंदमय परमात्मा संपूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियंत्रक और समर्थक है। इसके अलावा, 'भीषास्माद् वत: पवते।' भिषादेति सूर्यः। भीषास्माद्‌ अग्निश्रश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्घवति पंचम इति' - 'भीषणस्मद् वतः पवते; भीषदेति सूर्यः; भीष्माद् अग्निश्चेन्द्रश्च; मृत्युर्धावति पंचम इति' - 'यह उस आनंदमय परमात्मा के भय के कारण है कि हवा चलती है, सूर्य उगता है, और अग्नि और इंद्र जैसे देवता आज्ञाओं का पालन करते हैं। उन्हीं की आज्ञा से मृत्यु भी क्रियाशील रहती है' (तैत्तिरीय उपनिषदः 2/8)। ऐसा कहने पर परमात्मा की सत्ता स्थापित हो जाती है।

फल: आनंद की प्राप्ति

इस तरह, आनंदवल्ली 'ब्रह्मविद् आप्नोति परम' से शुरू होती है - 'जो ब्रह्म को जानता है, अर्थात, ब्रह्मरूप हो जाता है, परब्रह्म को प्राप्त करता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1), और अक्षरब्रह्म के रूप का वर्णन करता है ताकि आसानी से पता चल सके. इसके बाद, ब्रह्मरूप हो जाने वाले भक्त को परमात्मा का जो स्वरूप प्राप्त होता है, वह भी परमानंदमय बताया गया है। अब, निष्कर्ष निकालने के लिए, जो व्यक्ति इन उपदेशों को सही मायने में समझता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह दिखाया जाता है: 'स य एवं विट' - 'सा या एवं विट' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8), जो व्यक्ति वास्तव में उपरोक्त उपदेशों को समझता है वह स्वयं बन जाता है। ब्रह्मरूप और 'आनंदमयम् आत्मानम् उपसंक्राति' - 'आनंदमयम् आत्मानम् उपसंक्रामति' - 'सर्वदा आनंदमय परमात्मा को प्राप्त करता है और सर्वोच्च आनंद का अनुभव करता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)।

इस प्रकार, हमने अब तैत्तिरीय उपनिषद में आनंदवल्ली का सार देखा है। अब तीसरे 'भृगुवल्ली' का सार देखें।

भृगुवल्ली 'अघिहि भगवान:'

शब्दों के साथ- 'अधीहि भगवः' - 'कृपया मुझे अध्यात्मविद्या सिखाएं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/1)। भृगु अपने पिता वरुण ऋषि के शिष्य बन गए। प्रसन्न होकर, उनके पिता अपने पुत्र और शिष्य को अध्यात्मज्ञान सिखाते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद के इस भाग के श्रोता भृगु हैं इसलिए इसे भृगुवल्ली कहा जाता है। इसके अलावा, उनके पिता, वरुण, उन्हें यह ज्ञान दे रहे हैं, इसलिए 'सैशा भार्गवी वारुणी विद्या' - 'इस विद्या को भार्गवी-विद्या और वारुणी-विद्या के नाम से भी जाना जाता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/1) ).

सृजन, पालन और विघटन के आनंदमय सर्वकर्ता,

इससे पहले, आनंदवल्ली में, परमात्मा को आनंदमय बताया गया था और इसने हमें सूचित किया कि दुनिया का निर्माता वही आनंदमय परमात्मा है। यहाँ, भृगुवल्ली में, वही उपदेश दिया गया है, लेकिन थोड़े अलग तरीके से। वल्ली की शुरुआत में, वरुण भृगु से कहते हैं: 'यतो वा इमनि भूतानि जायन्ते। येन जन्मनि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञास्व' - 'यतो वा इमनि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति; तद्विजिग्नास्व' - 'तुम्हें उसे जानना चाहिए जिसके कारण सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण सब कुछ जीवित और कायम है, और जिसमें सब कुछ प्रलय में समा जाता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/6)। ऐसा कहकर वह फिर स्वयं ही कहता है कि यह कौन है 'आनंदद्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।' आनन्देन जन्मनि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति' - 'आनन्ददध्येव खल्विमणि भूतानि जायन्ते; आनंदेन जटानि जीवन्ति; आनंदम प्रयन्त्यभिसंविशन्तिति' - 'वास्तव में, यह सदैव आनंदमय परमात्मा के कारण है कि सब कुछ उत्पन्न होता है, यह हमेशा आनंदित परमात्मा के कारण है कि सब कुछ जीवित और कायम है, और इस परम आनंदमय परमात्मा के कारण ही विघटन भी होता है।' अर्थात्, सदैव आनंदमय परमात्मा ही सृष्टि, पालन और प्रलय का सर्वकर्ता है (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/6)।

इस प्रकार, भृगुवल्ली का मुख्य विषय सदैव आनंदमय परमात्मा है।

निष्कर्ष

इस प्रकार हमने संक्षेप में तैत्तिरीय उपनिषद के सार पर चर्चा की है। हम कम से कम यह देख सकते हैं कि हमारी वैदिक शिक्षा प्रणाली सांसारिक ज्ञान तक सीमित नहीं है। अध्यात्मविद्या, ब्रह्मविद्या, शिक्षा के हर क्षेत्र में संयुक्त है। और कोई भी शिक्षा जिसमें ब्रह्मविद्या शामिल है, निस्संदेह, सभी के लिए फायदेमंद, सर्व-मुक्तिदायक और पूरी तरह से आनंददायक है। सचमुच, यजुर्वेद में पाया जाने वाला यह तैत्तिरीय उपनिषद इसका अद्भुत उदाहरण है।

साभार : साधु भद्रेशदास, पीएच.डी., डी.लिट./अनुवादक: साधु परमविवेकदास

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[भवनाथ (भवनाथ चट्टोपाध्याय : (1863 - 1896) - ठाकुर के एक गृहस्थ  भक्त भवनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म  बरहानगर के अतुलकृष्ण बनर्जी लेन में हुआ था। पिता रामदास और माता इच्छामयी देवी। माता-पिता की इकलौती संतान भवनाथ अपनी युवावस्था से ही विभिन्न जनकल्याणकारी गतिविधियों में लगे रहे। ब्रह्म समाज में जाने से नरेन्द्रनाथ से मित्रता हुई , शिक्षक थे और सबसे बढ़कर 1881 ई में ही ठाकुर का सानिध्य प्राप्त किया था।  नरेंद्रनाथ के प्रति उनकी ईमानदारी को देखकर ठाकुर उन्हें 'हरिहरात्मा' कहकर बुलाते थे। इसके अलावा ठाकुर नरेन को 'पुरुष' और भवनाथ को 'प्रकृति' कहते थे। उन्होंने दोनों को 'नित्यसिद्ध' और 'अरूप का घर' बताया। ठाकुर के शरीर को बचाने के बाद, भवनाथ ने मुंशी के एक प्रेतवाधित घर को बाराहनगर में एक मठ के लिए 10 रुपये प्रति माह के लिए किराए पर लिया। वह एक सुगायक थे और कई बार ठाकुर के लिए गीत गाते थे। 'नितिकसुम' और 'आदर्शनारी' उनकी लिखी दो पुस्तकें हैं। उनके अनुरोध पर, बरहानगर के अविनाश दा दक्षिणेश्वर आए और विष्णु मंदिर की इमारत में दफन अपने कैमरे के साथ श्री श्री ठाकुर की एक व्यापक रूप से प्रसारित तस्वीर ली। उन्होंने ठाकुर को ध्रुव की एक तस्वीर भेंट की थी , जो वर्तमान में दक्षिणेश्वर काली मंदिर में ठाकुर के कमरे की शोभा बढ़ा रही है। हालांकि बरहानगर मठ की स्थापना के दौरान उन्होंने आर्थिक रूप से कोई मदद नहीं की, लेकिन अन्य तरीकों से उन्होंने बहुत मदद की। ठाकुर की मृत्यु के बाद, उन्होंने बी. ए किया। बाद में उन्होंने एक स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में नौकरी की और कलकत्ता से बाहर चले गए, जिसके परिणामस्वरूप उनका बरहानगर मठ के साथ संबंध कमजोर हो गया। वह 18 ई. में भवानीपुर में बिहारी डॉक्टर रोड पर रहते थे। इस समय उनकी इकलौती पुत्री प्रतिभा का जन्म हुआ। उन्होंने 1896 में रामकृष्ण दास लेन में एक किराए के घर में कालाजार के कारण दम तोड़ दिया।
ভবনাথ [ভবনাথ চট্টোপাধ্যায়] (১৮৬৩ - ১৮৯৬) — ঠাকুরের গৃহীভক্ত ভবনাথ চট্টোপাধ্যায়ের বরাহনগরে বর্তমান অতুলকৃষ্ণ ব্যানার্জী লেনে জন্ম।

 পিতা রামদাস ও মাতা ইচ্ছাময়ী দেবী। পিতামাতার একমাত্র সন্তান ভবনাথ যৌবনের প্রারম্ভ হইতেই নানা জনহিতকর কার্যে নিযুক্ত থাকিতেন। ব্রাহ্মসমাজে যাতায়াত নরেন্দ্রনাথের সহিত বন্ধুত্ব, শিক্ষকতা করা এবং সর্বোপরি ১৮৮১ খ্রীষ্টাব্দ নাগাদ শ্রীশ্রীঠাকুরের সান্নিধ্যলাভ তাঁহার জীবনের স্মরণীয় ঘটনা। নরেন্দ্রনাথের সহিত তাঁহার অন্তরিকতা দেখিয়া ঠাকুর তাঁহাদিগকে ‘হরিহরাত্মা’ বলিতেন। ইহা ব্যতীত ঠাকুর কখনও নরেনকে ‘পুরুষ’ ও ভবনাথকে ‘প্রকৃতি’ বলিতেন। তিনি উভয়কেই ‘নিত্যসিদ্ধ’ ও ‘অরূপের ঘর’ বলিয়া নির্দিষ্ট করিয়াছিলেন। ঠাকুরের দেহরক্ষার পর বরাহনগরে মঠের জন্য মুন্সীদের ভূতুড়ে বাড়ি মাসিক ১০ টাকা ভাড়ায় ভবনাথ যোগাড় করিয়া দেন। তিনি সুগায়ক ছিলেন, বহুবার ঠাকুরকে গান শুনাইয়াছিলেন। ‘নীতিকুসুম’ ও ‘আদর্শনারী’ তাঁহার রচিত দুইখানি গ্রন্থ। তাঁহারই আহ্বানে বরাহনগরের অবিনাশ দাঁ দক্ষিণেশ্বরে আসিয়া তাঁহার ক্যামেরায় ৺বিষ্ণু মন্দিরের দালানে সমাধিস্থ অবস্থায় শ্রীশ্রীঠাকুরের বহুল প্রচারিত ছবি তোলেন। তিনি ঠাকুরকে ধ্রুবর একটি ফটো উপহার দিয়াছিলেন যেটি বর্তমানে দক্ষিণেশ্বর কালীমন্দিরে ঠাকুরের ঘরের শোভাবর্ধন করিতেছে। বরাহনগরমঠ প্রতিষ্ঠার সময় আর্থিক সাহায্য না করিলেও অন্য দিক দিয়া তিনি অনেক সাহায্য করিয়াছিলেন। ঠাকুরের তিরোধানের পর তিনি বি. এ. পাশ করেন। পরে বিদ্যালয় পরিদর্শনের চাকুরী লইয়া কলিকতার বাহিরে চলিয়া যান, ফলে বরাহনগর মঠের সহিত তাঁহার সম্পর্ক ক্ষীণ হইতে থাকে। তিনি ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দে ভবানীপুরে বিহারী ডাক্তার রোডে বসবাস করিতে থাকেন। এই সময়ে তাঁহার একমাত্র কন্যা প্রতিভার জন্ম হয়। ১৮৯৬ খ্রীষ্টাব্দে কালাজ্বরে আক্রান্ত হইয়া তিনি রামকৃষ্ণ দাস লেনের ভাড়াবাড়িতে দেহত্যাগ করেন। 

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