श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(7)
*'पक्का मैं ' और 'कच्चा मैं '*
73 'जीव' 'ब्रह्म' के बीच में , पड़ा 'अहम' अज्ञान।
118 मिटा सको जो अहम हिय , मिटे भेद अज्ञान।।
जो 'मैं ' मनुष्य को संसारी बनाता है , कामिनी-कांचन में आबद्ध करता है , वह 'दुष्ट मैं ' है। जीव और ब्रह्म में भेद बस इसलिए है कि उनके बीच यह 'मैं ' खड़ा हुआ है। पानी पर अगर एक लाठी डाल दी जाये तो पानी दो भागों में बँटा हुआ -सा दीख पड़ता है। 'अहं ' या 'मैं ' पन ही वह लाठी है ; इसे उठा लो तो जल एक ही रह जायेगा।
74 'मैं '-पन से है प्रीत तो , और बढ़ा लो मीत।
120 जग सकल अपना कर लो , यही प्रीत की रीत।।
शंकराचार्य के एक शिष्य था। वह कई दिनों से सेवा कर रहा था पर आचार्य ने उसे अब तक एक भी उपदेश नहीं दिया था। एक दिन आचार्य अपने आसन पर बैठे हुए थे , ऐसे तो रहने दो उसे समय किसी के आने की आहट हुई। आचार्य ने पूछा , 'कौन है ?' शिष्य बोला -"मैं। " तब आचार्य बोले , " मैं ' यदि तुम्हें इतना ही प्रिय है तो उसे और बढ़ा ले (अर्थात 'सारा जगत मैं ही हूँ ' -यह धारणा कर ले ) , नहीं तो फिर उसे पूरी तरह त्याग दे।
75 'मैं ' पन अगर न जाहिं तो , बन जा प्रभु का दास।
121 दास 'मैं ' जे हिय बसे , ते हिय हरि प्रकाश।।
यदि देखो कि 'मैं ' नहीं दूर होता तो रहने दो उसे 'दास मैं ' बना हुआ। " हे ईश्वर ! तुम प्रभु हो मैं दास हूँ " इसी भाव में रहो। " मैं ईश्वर का दास हूँ , मैं माँ का भक्त हूँ " ऐसे मैं में दोष नहीं। मिठाई खाने से अम्लरोग होता है , पर मिश्री इसका अपवाद है। 'दास मैं ' , 'भक्त का मैं ' या 'बालक का मैं ' ये सब मानो जलराशि पर खींची गयी रेखा के समान है। यह 'मैं ' अधिक देर नहीं ठहरता।
'मैं ' पर विचार करते करते दिखाई देता है कि 'मैं ' केवल एक शब्द भर है। किन्तु फिर भी इसे दूर करना अत्यंत कठिन है। इस कारण यही कहना चाहिए कि " अरे दुष्ट 'मैं ' ! तू जब किसी हालत में नहीं जायेगा तो फिर ईश्वर का दास बनकर रह ! " मैं ईश्वर का दास हूँ" यह 'पक्का मैं ' है।
76 ईश्वर सब कुछ कर रहे ,करता इक भगवान।
125 जीवन्मुक्त तेहि जानिए , जिन्हके हिय अस ज्ञान।।
ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं , वे यन्त्री हैं , मैं यन्त्र हूँ --यह विश्वास यदि किसी में आ जाए तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। " हे प्रभो , तुम्हारा कर्म तुम्हीं करते हो , पर लोग कहते हैं मैं करता हूँ। "
77 जिन्हको हुआ समाधि है , जिन्हको ईश्वर ज्ञान।
127 तिन्हके हिय नहिं तिल भर , 'मैं ' -मेरा अज्ञान।।
अपनी निम्न-प्रकृति के साथ बहुत संग्राम करने के पश्चात , आत्मज्ञान के लिए तीव्र साधना करने के बाद ही समाधि अवस्था प्राप्त होती है। समाधि होने पर 'मैं ', 'मेरा' कुछ नहीं रह जाता। किन्तु ऐसी समाधि बहुत मुश्किल है। 'मैं ' बड़ा बलवान होता है -किसी तरह जाना नहीं चाहता। तभी तो हमें फिर-फिरकर संसार में जन्म लेना पड़ता है।
*अहंकार आवरण है, जो हृदय में विराजमान भगवान को देखने नहीं देता *
64 अहम् मेघ जब तक रहै , हृदय रूप आकाश।
99 तब तक भगवन सूर्य का , होत न उदय प्रकाश।।
सूर्य वैसे तो सारे संसार को प्रकाश और ताप देता है , पर यदि वह मेघ से आच्छन्न हो जाये तो ऐसा नहीं कर पाता। इसी भाँति जब तक हृदय अहंकार के आवरण से आच्छादित रहता है तब तक उसमें भगवान प्रकाशित नहीं हो पाते।
65 गुरु कृपा ते जब नशे , अहम् बुद्धि अज्ञान।
100 उदयमान तब होवहिं , पूर्ण ब्रह्म भगवान।।
यह 'अहं ' मेघ की तरह है। इसी के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। यदि श्रीगुरु की कृपा से अहं-बुद्धि दूर हो जाये तो फिर ईश्वर के पूर्ण दर्शन हो जाते हैं। जैसे , सिर्फ ढाई हाथ की दुरी पर ही साक्षात् पूर्ण ब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी हैं , किन्तु बीच में सीता रूपिणी माया का आवरण होने के कारण लक्ष्मण-रूपी जीव को ईश्वर राम के दर्शन नहीं होते।
66 'मैं ' मरतहि बला टले , टले जगत जंजाल।
101 हरि कृपा बिन कटे नहिं , कर्तापन का जाल।।
प्रश्न - महाराज , हम लोग इस तरह बद्ध क्यों हुए हैं ? हम ईश्वर को क्यों नहीं देख पाते ?
श्री रामकृष्ण - जीव का अहंकार ही माया है। यही अहंकार सब आवरण का मूल है। 'मैं ' के मरने पर ही सारा जंजाल दूर होगा। अगर किसी को ईश्वर [माँ काली ] की कृपा से ' मैं कर्ता नहीं हूँ ' यह 'ज्ञान' हो जाये , तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। फिर उसे किसी बात का भय नहीं।
[ गुरूगीरी और गुमाश्तागीरी : अगर किसी को माँ की कृपा से , यह धारणा हो गयी कि, 'व्यष्टि अहं, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'- बोध का यंत्र (agency-गुमाश्तागीरी) है ', तो वह जीवनमुक्त (De -Hypnotized) ही हो गया। फिर उसे किसी बात का भय नहीं।]
67 हरि निकट से निकट है , पर हम देख न पाहिं।
102 अहम् आवरण बीच में , बिन हरि कृपा न जाहिं।।
अगर मैं अपने को इस अँगोछे की ओट कर लूँ तो तुम मुझे नहीं देख सकते। पर मैं तुम्हारे बिलकुल नजदीक ही हूँ। इसी भाँति , और सब चीजों की अपेक्षा ईश्वर ही तुम्हारे सबसे ज्यादा निकट हैं , किन्तु इस अहंरूपी आवरण के कारण तुम उनके दर्शन नहीं पाते।
68 जीव हृदय अहम् बसे , जब तक अहम न जाहि।
103 भक्ति मुक्ति नहिं ज्ञान कछु , पुनि पुनि जग मँह आहि।।
जब तक अहंकार रहता है , तब तक न ज्ञान होता है , न मुक्ति मिलती है ; इस संसार में बार- बार आना-जाना पड़ता है।
69 ऊँच जमीं जल रहत नहि , रहत नीच भू माहिं।
105 तस किरपा नहिं अहम हिय , नम्र हृदय समाहिं।।
बरसात का पानी ऊँची जमीन पर नहीं ठहर पाता , बहकर नीची जगह में ही जमता है। वैसे ही ईश्वर की कृपा भी नम्र व्यक्तियों के हृदय में ठहरती है , अहंकार -अभिमानपूर्ण हृदय में नहीं।
* अहंकार पर विजय पाना आसान नहीं है *
70 मांज मांज थक जाहि पर , लहसुन गंध न जाय।
111 तस जतन कर लाख पर , 'मैं ' -पन नहि फुराय।।
जिस कटोरे में लहसुन पीस कर रखा जाता है उसकी गंध सौ बार मांजने पर भी नहीं जाती। 'मैं '- पन भी ऐसा ही पाजी है , चाहे जितनी कोशिश करो , वह जाते नहीं जाता।
71 पीपल को जो काटिये , कल पुनि कोपल आय।
113 तस विचार कर लाख पर , अहम बोध नहिं जाय।।
यह सच है कि एक-दो जनों को समाधि प्राप्त होकर उनका 'अहं ' चला जाता है ; परन्तु साधारणतया 'अहं ' जाता नहीं है। लाख विचार करो , पर 'अहं ' घूम -फिरकर फिर से हाजिर हो जाता है। पीपल की पेड़ को आज काट डालो , कल सुबह ही देखोगे कि फिर अंकुर निकल आया है।
72 अज्ञानी जग में फिरे , 'मैं मैं ' करे पुकार।
114 ज्ञानवान 'तुम तुम ' कहे , हरि तुम केवल सार।।
जो अपना नाम-यश चाहते हैं , वे भ्रम में हैं। वे यह भूल जाते हैं कि एकमात्र ईश्वर की ही इच्छा से सब कुछ हो रहा है , वही सबका नियामक है। ज्ञानवान व्यक्ति कहता है , 'प्रभो , तुम , तुम ' ; मूढ़ अज्ञानी (भेंड़त्व को प्राप्त सिंहशावक) ही 'मैं, मैं ' करता है।
*सिद्ध पुरुष का अहंकार*
78 होवत दरस अहम झड़े , रहे अल्प निशान।
129 ताते होत अनिष्ट नहि , होत सदा कल्याण।।
क्या 'अहं ' कभी पूरी तरह से नहीं जायेगा ? नारियल की डाली (कमल की पंखुड़ियाँ ?) समय पर झड़ जाती हैं , लेकिन उनका निशान रह जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है , तो उसका अहंकार पूरी तरह नष्ट हो जाता है , पर उसका थोड़ा दाग रह जाता है , किन्तु उस अहंकार से कोई अनिष्ट नहीं होता।
79 जगहित जग के काज कछु , रखहि अहम कै ज्ञान।
134 समाधिस्थ ज्ञानी पुरुष , जस आचार्य महान।।
समाधि के बाद भी कोई-कोई 'मैं ' को रख छोड़ते हैं - 'दास मैं ' या 'भक्त का मैं।' शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए 'विद्या का मैं ' रख छोड़ा था।
80 जस सनक जस सनत्कुमार , जस नारद हनुमान।
135 ब्रह्मदर्शी जगहित रखें , दास अहम का मान।।
हनुमान को ईश्वर के साकार और निराकार दोनों स्वरुप के दर्शन हुए थे , किन्तु इन दर्शनों के बाद उन्होंने 'दास मैं ' रख छोड़ा था।
नारद , सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार आदि ने भी इसी तरह ब्रह्मदर्शन के बाद भी 'दास मैं', 'भक्त मैं ' रख छोड़ा था।
एक भक्त ---'क्या नारदादि केवल भक्त थे या ज्ञानी भी थे ?
श्रीरामकृष्ण - नारदादि को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ था , किन्तु फिर भी वे कलनादिनी निर्झरणी की तरह भगवन्महिमा का गुणगान करते हुए विचरण करते रहते थे। लोकशिक्षा और धर्म- रक्षा के लिए उन्होंने 'विद्या का मैं ' रख छोड़ा था , ब्रह्म में पूर्ण विलीन न होकर अपने अलग अस्तित्व का मानो थोड़ा चिन्ह रख छोड़ा था।
81 देह धारण सत्संग अरु , करन जगत कल्याण।
136 माँ जगदम्बा स्वयं रखी , मुझमें अहम का ज्ञान।।
एक बार श्री रामकृष्ण देव ने अपने एक शिष्य से विनोद में पूछा , " क्यों, क्या तुम्हें मुझमें कोई अभिमान नजर आता है ? क्या मुझमें अभिमान है ?
शिष्य ने कहा , " जी महाराज , थोड़ा सा है। पर आप में उतना अभिमान इन कारणों से रखा गया है -१) देहधारण के लिए ; २) भगवद-भक्ति के उपभोग के लिए ;३) भक्तों के साथ सत्संग करने के लिए ; और ४) लोगों को उपदेश देने के लिए। फिर यह भी तो है कि इस 'अहं ' को रखने के लिए आपने काफी प्रार्थना की है। वैसे देखा जाय तो आपके मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति समाधि की ओर है। इसी से मैं कह रहा हूँ कि आपमें जो 'अहं ' या अभिमान बचा है वह आपकी प्रार्थना का ही फल है। "
तब श्री रामकृष्णदेव बोले , " ठीक है, लेकिन इस 'मैं ' को बनाये रखनेवाला मैं नहीं , जगदम्बा है। प्रार्थना को स्वीकार करना जगदम्बा के ही हाथ में है। "
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[(14.4. 1992) के बाद रोहणिया , बनारस , ऊँच -शरीर में लौट पाना माँ अन्नपूर्णा के ?]
1 टिप्पणी:
अति सुन्दर दोहे हैं और उनके हिन्दी विश्लेषण भी बहुत अच्छा एवं प्रेरणादायी हैं|हमे इन्हें बार बार पढना चाहिए|❤|🙏|जय भगवान श्री रामकृष्ण|सभी का मंगल हो!
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