मंगलवार, 25 मई 2021

ॐ$#$परिच्छेद ~ 58, [(26 नवम्बर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Touch Paras Be Gold-मनःसंयोग **Horses in my uncle's cow-shed.*सिन्दुरिया पट्टी ब्रह्मसमाज के नेताओं द्वारा के वार्षिक अधिवेशन में श्री रामकृष्ण का सम्मान * महिलाओं के प्रति उनका सम्मान तथा माता मानकर स्त्री-जाति की पूजा *शिवनाथ एवं सत्य बोलना कलिकाल की तपस्या * माँ को भी सत्य न दे सका *गृहस्थों के प्रति उपदेश-छः दिवसीय वार्षिक शिविर में रहना अनिवार्य क्यों ?* * अहंकार की महाऔषधि — 'तुम से भी बड़े लोग हैं*निर्जन में साधना और साधुसंग **प्रवृति मार्ग का उपाय निष्काम- कर्म (Be and Make), निवृत्ति मार्ग का उपाय वासना त्याग।*भाव, कुम्भक तथा ईश्वरदर्शन*

 [(26 नवम्बर, 1883) परिच्छेद ~ 58, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

परिच्छेद -58

(१)

*सिन्दुरिया पट्टी ब्रह्मसमाज के नेताओं द्वारा के वार्षिक अधिवेशन में श्री रामकृष्ण का सम्मान *

कार्तिक की कृष्णा एकादशी है, सोमवार, 26 नवम्बर 1883 ईं. । श्री मणिलाल मल्लिक के मकान में सिन्दुरिया-पट्टी ब्राह्मसमाज का अधिवेशन हुआ करता है । मकान चितपुर रास्ते पर है । समाज का अधिवेशन राजपथ के पास ही दुमँझले के सभागृह में हुआ करता है । आज समाज की वार्षिकी है; इसीलिए मणिलाल महोत्सव मना रहा हैं ।

उपासनागृह आज आनन्दपूर्ण है, बाहर और भीतर हरे हरे पल्लवों, नाना प्रकार के फूलों और पुष्पमालाओं से सुशोभित हो रहा है । कमरे में भक्तगण बैठे हुए उपासना कब शुरू होगी इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । कमरे के भीतर सब को जगह नहीं मिल पायी है, कई लोग पश्चिम ओर वाले छत पर टहल रहे हैं या जगह जगह पर रखी सुन्दर कुर्सियों पर बैठे हैं । बीच बीच में गृहस्वामी तथा उनके स्वजन आकर मधुर शब्दों से अभ्यागत भक्तों का स्वागत कर रहे हैं शाम के पहले से ही (दूर-दूर से)  ब्राह्मभक्तगण आने लगे हैं ।

उन्हें आज एक विशेष उत्साह है – वहाँ आज श्रीरामकृष्णदेव का शुभागमन होगा केशव, विजय, शिवनाथ आदि ब्राह्म-समाज के नेताओं को (Leaders of the Brahmo Samaj ) श्रीरामकृष्णदेव बहुत प्यार करते थे । यही कारण है कि ब्राह्मभक्तों के वे इतने प्यारे हो गए थे । वे भगवत्प्रेम में मस्त रहते हैं; उनका प्रेम, उनका प्रांजल विश्वास, ईश्वर के साथ बालक की तरह उनकी बातचीत, ईश्वर के लिए उनका व्याकुल होकर रोना, महिलाओं के प्रति उनका सम्मान तथा  माता मानकर स्त्री-जाति की पूजा, उनका विषयप्रसंग-वर्जन, तैलधारावत् सदा ही ईश्वर-प्रसंग करते रहना, उनका सर्वधर्म-समन्वय और अन्य धर्मों के प्रति लेशमात्र भी द्वेषभाव का न रहना, भगवद्भक्तों के लिए उनका रोना, इन सब कारणों से ब्राह्मभक्तों का चित्त उनकी ओर आकर्षित हो चुका था; इसीलिए आज कितने ही भक्त बहुत दूर से उनके दर्शन के लिए आए हुए हैं

[It was the day of the annual festival of the Sinduriapatti Brahmo Samaj. The ceremony was to be performed in Manilal Mallick's house. The worship hall was beautifully decorated with flowers, wreaths, and evergreens, and many devotees were assembled, eagerly awaiting the worship. Their enthusiasm had been greatly heightened by the news that Sri Ramakrishna was going to grace the occasion with his presence. Keshab, Vijay, Shivanath, and other leaders of the Brahmo Samaj held him in high respect. His God-intoxicated state of mind, his intense love of spiritual life, his burning faith, his intimate communion with God, and his respect for women, whom he regarded as veritable manifestations of the Divine Mother, together with the unsullied purity of his character, his complete renunciation of worldly talk, his love and respect for all religious faiths, and his eagerness to meet devotees of all creeds, attracted the members of the Brahmo Samaj to him. Devotees came that day from far-off places to join the festival, for it would give them a chance to get a glimpse of the Master and listen to his inspiring talk.] 

*सत्य बोलना ही कलिकाल की तपस्या है 

उपासना के पूर्व श्रीरामकृष्ण विजयकृष्ण गोस्वामी और दूसरे ब्राह्मभक्तों के साथ प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं । समाजगृह में दीप जल चुका है, अब शीघ्र ही उपासना शुरू होगी ।

[Sri Ramakrishna arrived at the house before the worship began, and became engaged in conversation with Vijaykrishna Goswami and the other devotees. The lamps were lighted and the divine service was about to begin.

श्रीरामकृष्ण बोले, “क्योंजी, क्या शिवनाथ न आएगा ?” एक ब्राह्मभक्त ने कहा, “जी नहीं, आज उनको कई काम हैं आ न सकेंगे ।”

श्रीरामकृष्ण- शिवनाथ को देखने से मुझे बड़ा आनन्द होता है । मानो भक्तिरस में डूबा हुआ है । और जिसे बहुत लोग मानते-जानते हैं उसमें ईश्वर की कुछ शक्ति अवश्य रहती है । परन्तु शिवनाथ में एक बहुत बड़ा दोष है-उसकी बात का कोई निश्चय नहीं रहता । मुझसे उसने कहा था, एक बार वहाँ (दक्षिणेश्वर) जाएँगे, परन्तु फिर नहीं आया और न कोई खबर ही भेजी; यह अच्छा नहीं है । 

एक यह भी कहा है कि सत्य बोलना कलिकाल की तपस्या है । दृढ़ता के साथ सत्य को पकड़े रहने से ईश्वरलाभ होता है । सत्य की दृढ़ता न रहने से क्रमशः सब नष्ट हो जाता है । यही सोचकर मैं अगर कभी कह डालता हूँ, मुझे शौच को जाना है, फिर शौच को जाने की आवश्यकता न भी रहे, तो भी एक बार गड़वा लेकर झाऊतल्ले की ओर जाता हूँ । यही भय लगा रहता है कि कहीं सत्य की दृढ़ता न खो जाए।

इस अवस्था के बाद हाथ में फूल लेकर माँ से मैंने कहा था, ‘माँ, यह लो तुम अपना ज्ञान, यह लो अपना अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो माँ; यह लो अपना भला, यह लो अपना बुरा, मुझे शुद्धा भक्ति दो माँ; यह लो अपना पुण्य, यह लो अपना पाप, मुझे शुद्धा भक्ति दो माँ ।’ जब यह सब मैंने कहा था, तब यह बात नहीं कह सका कि माँ, यह लो अपना सत्य, यह लो अपना असत्य माँ को सब कुछ तो दे सका, परन्तु सत्य न दे सका । 

[ পরমহংসদেব বলিতেছেন, “হ্যাগা, শিবনাথ আসবে না?” একজন ব্রাহ্মভক্ত বলিতেছেন, “না, আজ তাঁর অনেক কাজ আছে, আসতে পারবেন না।” পরমহংসদেব বলিলেন, “শিবনাথকে দেখলে আমার আনন্দ হয়, যেন ভক্তিরসে ডুবে আছে; আর যাকে অনেকে গণে-মানে, তাতে নিশ্চয়ই ঈশ্বরের কিছু শক্তি আছে। তবে শিবনাথের একটা ভারী দোষ আছে — কথার ঠিক নাই। আমাকে বলেছিল যে, একবার ওখানে (দক্ষিণেশ্বরের কালীবাড়িতে) যাবে, কিন্তু যায় নাই, আর কোন খবরও পাঠায় নাই, ওটা ভাল নয়। এইরকম আছে যে, সত্য কথাই কলির তপস্যা। সত্যকে আঁট করে ধরে থাকলে ভগবানলাভ হয়। সত্যে আঁট না থাকলে ক্রমে ক্রমে সব নষ্ট হয়। আমি এই ভেবে যদিও কখন বলে ফেলি যে বাহ্যে যাব, যদি বাহ্যে নাও পায় তবুও একবার গাড়ুটা সঙ্গে করে ঝাউতলার দিকে যাই। ভয় এই — পাছে সত্যের আঁট যায়। আমার এই অবস্থার পর মাকে ফুল হাতে করে বলেছিলাম, ‘মা! এই নাও তোমার জ্ঞান, এই নাও তোমার অজ্ঞান, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও মা; এই নাও তোমার শুচি, এই নাও তোমার অশুচি, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও মা; এই নাও তোমার ভাল, এই নাও তোমার মন্দ, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও মা; এই নাও তোমার পুণ্য, এই নাও তোমার পাপ, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও।’ যখন এই সব বলেছিলুম, তখন এ-কথা বলিতে পারি নাই, ‘মা! এই নাও তোমার সত্য, এই নাও তোমার অসত্য।’ সব মাকে দিতে পারলুম, ‘সত্য’ মাকে দিতে পারলুম না।”

"I feel very happy when I see Shivanath. He always seems to be absorbed in the bliss of bhakti. Further, a man who is respected by so many surely possesses some divine power. But he has one great defect: he doesn't keep his word. Once he said to me that he would come to Dakshineswar, but he neither came nor sent me word. That is not good. It is said that truthfulness alone constitutes the spiritual discipline of the Kaliyuga. If a man clings tenaciously to truth he ultimately realizes God. Without this regard for truth, one gradually loses everything. 

If by chance I say that I will go to the pine-grove, I must go there even if there is no further need of it, lest I lose my attachment to truth. After my vision of the Divine Mother, I prayed to Her, taking a flower in my hands: 'Mother, here is Thy knowledge and here is Thy ignorance. Take them both, and give me only pure love. Here is Thy holiness and here is Thy unholiness. Take them both, Mother, and give me pure love. Here is Thy good and here is Thy evil. Take them both, Mother, and give me pure love. Here is Thy righteousness and here is Thy unrighteousness. Take them both, Mother, and give me pure love.' I mentioned all these, but I could not say: 'Mother, here is Thy truth and here is Thy falsehood. Take them both.' I gave up everything at Her feet but could not bring myself to give up truth."]

ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना होने लगी । आचार्यजी वेदी पर बैठ गए । उद्बोधन-मन्त्र के बाद आचार्यजी परब्रह्म को लक्ष्य करके वेदोक्त महामन्त्रों का उच्चारण करने लगे । ब्राह्मभ्क्तगण स्वर मिलाकर प्राचीन आर्य-ऋषियों के मुख से निकले हुए, उनकी पवित्र रसनाओं द्वारा उच्चारित नामों का कीर्तन करने लगे; कहने लगे-

“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, ( "Brahman is Truth, Knowledge, and Infinity.),आनन्दरुपममृतं यद्विभाति, ( It shines as Bliss and Immortality.अर्थात् वह (ब्रह्म या परम् सत्य ) आनन्द रूप में प्रकाशित होता है।)शान्तम् शिवमद्वैतम् शुद्धमपापविद्धम् ।” ( Brahman is Peace, Blessedness, the One without a Second; It is pure and unstained by sin." ) प्रणव-संयुक्त यह ध्वनि भक्तों के हृदयाकाश में प्रतिध्वनित होने लगी । अनेकों के अन्तस्तल में वासना का निर्वाण-सा हो गया । चित्त बहुत-कुछ स्थिर और ध्यानोन्मुख होने लगा । सब की आँखें मूँदी हुई हैं- थोड़ा देर के लिए सब कोई वेदोक्त सगुण ब्रह्म का चिन्तन करने लगे ।

[ব্রাহ্মসমাজের পদ্ধতি অনুসারে উপাসনা আরম্ভ হইল। বেদীর উপর আচার্য, সম্মুখে সেজ। উদ্বোধনের পর আচার্য পরব্রহ্মের উদ্দেশে বেদোক্ত মহামন্ত্র উচ্চারণ করিতে লাগিলেন। ব্রাহ্মভক্তগণ সমস্বরে সেই পুরাতন আর্য ঋষির শ্রীমুখ-নিঃসৃত, তাঁহাদের সেই পবিত্র রসনার দ্বারা উচ্চারিত নামগান করিতে লাগিলেন। বলিতে লাগিলেন, “সত্যং জ্ঞানংমনন্তং ব্রহ্ম, আনন্দস্বরূপমমৃতং যদ্বিভাতি, শান্তং শিবমদ্বৈতম্‌, শুদ্ধমপাপবিদ্ধম্‌।” প্রণবসংযুক্ত এই ধ্বনি ভক্তদের হৃদয়াকাশে প্রতিধ্বনিত হইল। অনেকের অন্তরে বাসনা নির্বাপিতপ্রায় হইল। চিত্ত অনেকটা স্থির ও ধ্যানপ্রবণ হইতে লাগিল। সকলেরই চক্ষু মুদ্রিত! — ক্ষণকালের জন্য বেদোক্ত সগুণ ব্রহ্মের চিন্তা করিতে লাগিলেন।

Soon the service began according to the rules of the Brahmo Samaj. The preacher was seated on the dais. After the opening prayer he recited holy texts of the Vedas and was joined by the congregation in the invocation to the Supreme Brahman. They chanted in chorus: "Brahman is Truth, Knowledge, and Infinity. It shines as Bliss and Immortality. Brahman is Peace, Blessedness, the One without a Second; It is pure and unstained by sin." The minds of the devotees were stilled, and they closed their eyes in meditation.

श्रीरामकृष्णदेव भावमग्न हैं । निःस्पन्द, स्थिरदृष्टि, निर्वाक्, चित्रपुत्तलिका की तरह बैठे हुए हैं । आत्मापक्षी न जाने कहाँ आनन्दपूर्वक विहार कर रहे हैं, शरीर शून्य मन्दिर-सा पड़ा हुआ है । 

समाधि के कुछ समय बाद श्रीरामकृष्णदेव आँखें खोलकर चारों और देख रहे हैं । देखा, सभा के सभी मनुष्य आँखें बन्द किए हुए हैं । 

तब श्रीरामकृष्णदेव ‘ब्रह्म’ ‘ब्रह्म’ कह कर एका एक खड़े हो गए । उपासना के बाद ब्राह्मभक्त-मण्डली मृदंग और करताल लेकर संकीर्तन करने लगी । प्रेम और आनन्द में मग्न होकर श्रीरामकृष्ण भी उनके साथ मिल गए और नृत्य करने लगे । सब लोग मुग्ध होकर वह नृत्य देख रहे हैं । विजय और दूसरे भक्त भी उन्हें घेरकर नाच रहे हैं । 

कितने लोग तो यह दृश्य देखकर ही कीर्तन का आनन्द लेते हुए संसार को भूल गए – नामामृत पीकर थोड़ी देर के लिए विषय का आनन्द भूल गए – विषयसुख का स्वाद कटु जान पड़ने लगा ।

[পরমহংসদেব ভাবে নিমগ্ন। স্পন্দহীন, স্থিরদৃষ্টি, অবাক্‌ চিত্রপুত্তলিকার ন্যায় বসিয়া আছেন। আত্মাপক্ষী কোথায় আনন্দে বিচরণ করিতেছেন, আর দেহটি মাত্র শূন্যমন্দিরে পড়িয়া রহিয়াছে। সমাধির অব্যবহিত পরেই চক্ষু মেলিয়া চারিদিকে চাহিতেছেন। দেখিলেন, সভাস্থ সকলেই নিমীলিত নেত্র। তখন ‘ব্রহ্ম’ ‘ব্রহ্ম’ বলিয়া হঠাৎ দণ্ডায়মান হইলেন। উপাসনান্তে ব্রাহ্মভক্তেরা খোল-করতাল লইয়া সংকীর্তন করিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ প্রেমানন্দে মত্ত হইয়া তাঁহাদের সঙ্গে যোগ দিলেন আর নৃত্য করিতে লাগিলেন। সকলে মুগ্ধ হইয়া সেই নৃত্য দেখিতেছেন। বিজয় ও অন্যান্য ভক্তেরাও তাঁহাকে বেড়িয়া বেড়িয়া নাচিতেছেন। অনেকে এই অদ্ভুত দৃশ্য দেখিয়া ও কীর্তনানন্দ সম্ভোগ করিয়া এককালে সংসার ভুলিয়া গেলেন — ক্ষণকালের জন্য হরি-রস-মদিরা পান করিয়া বিষয়ানন্দ ভুলিয়া গেলেন। বিষয়সুখের রস তিক্তবোধ হইতে লাগিল।

The Master went into deep samadhi. He sat there transfixed and speechless. After some time he opened his eyes, looked around, and suddenly stood up with the words "Brahma! Brahma!" on his lips. Soon the devotional music began, accompanied by drums and cymbals. In a state of divine fervour the Master began to dance with the devotees. Vijay and the other Brahmos danced around him. The guests and the devotees were enchanted. Many of them drank the sweet bliss of God's name and forgot the world. The happiness ness of the material world appeared bitter to them, at least for the time being.

कीर्तन हो जाने पर सब ने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण क्या कहते हैं, यह सुनने के लिए सब लोग उन्हें घेरकर बैठे ।

(२)

[राजर्षि जनक जैसे नेता -निर्माणकारी छः दिवसीय वार्षिक प्रशिक्षण शिविर की रुपरेखा* Outline of the six-day annual Leadership Training camp for the householders .] 

*गृहस्थों के प्रति उपदेश* 

ब्राह्मभक्त-मण्डली को सम्बोधित करके श्रीरामकृष्ण ने कहा-“निर्लिप्त होकर संसार में रहना कठिन है। प्रताप ^ (^ ब्रह्म समाज के एक प्रसिद्ध नेता प्रताप चंद्र मजूमदार) ने कहा था, ‘महाराज, हमारा वह मत है जो राजर्षि जनक का था; जनक निर्लिप्त होकर संसार में रहते थे , वैसा ही हम लोग भी करेंगे ।’ मैंने कहा, ‘सोचने ही से क्या कोई जनक हो सकता है? राजर्षि जनक को कितनी तपस्या करने के बाद ज्ञानलाभ हुआ था ! नतमस्तक और ऊर्ध्वपद होकर उग्र तपस्या में कितना काल व्यतीत करने के बाद वे संसार में लौटे थे !’

[সমবেত ব্রাহ্মভক্তগণকে সম্বোধন করিয়া তিনি বলিতেছেন, “নির্লিপ্ত হয়ে সংসার করা কঠিন। প্রতাপ বলেছিল, মহাশয়, আমাদের জনক রাজার মত। জনক নির্লিপ্ত হয়ে সংসার করেছিলেন, আমরাও তাই করব। আমি বললুম, মনে করলেই কি জনক রাজা হওয়া যায়! জনক রাজা কত তপস্যা করে জ্ঞানলাভ করেছিলেন, হেঁটমুণ্ড ঊর্ধ্বপদ হয়ে অনেক বৎসর ঘোরতর তপস্যা করে তবে সংসারে ফিরে গিছলেন।

MASTER: "It is difficult to lead the life of a householder in a spirit of detachment. Once Pratap said to me: 'Sir, we follow the example of King Janaka. He led the life of a householder in a detached spirit. We shall follow him.' I said to him: 'Can one be like King Janaka by merely wishing it? How many austerities he practised in order to acquire divine knowledge! He practised the most intense form of asceticism for many years and only then returned to the life of the world.'

“परन्तु क्या संसारियों (householders) के लिए उपाय नहीं है ? – हाँ, अवश्य है । कुछ दिन (कमसे कम छः दिन का वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर)  एकान्त में साधना करनी पड़ती है, तब भक्ति होती है, तब ज्ञान होता है, इसके बाद जाकर संसार में रहो, फिर कोई दोष नहीं । जब निर्जन में साधना करोगे, उस समय संसार से बिलकुल अलग रहो; तब स्त्री, पुत्र, कन्या, माता, पिता, भाई, बहन, आत्मीय, कुटुम्ब कोई भी पास न रहे; निर्जन में साधना करते समय सोचो, हमारे कोई नहीं हैं, ईश्वर ही हमारे सर्वस्व हैं । और रो-रोकर उनके पास ज्ञान और भक्ति की प्रार्थना करो ।

[“তবে সংসারীর কি উপায় নাই? — হাঁ অবশ্য আছে। দিন কতক নির্জনে সাধন করতে হয়। তবে ভক্তিলাভ হয়, জ্ঞানলাভ হয়; তারপর গিয়ে সংসার কর, দোষ নাই। যখন নির্জনে সাধন করবে, সংসার থেকে একেবারে তফাতে যাবে। তখন যেন স্ত্রী, পুত্র, কন্যা, মাতা, পিতা, ভাই, ভগিনী, আত্মীয়-কুটুম্ব কেহ কাছে না থাকে। নির্জনে সাধনের সময় ভাববে, আমার কেউ নাই; ঈশ্বরই আমার সর্বস্ব। আর কেঁদে কেঁদে তাঁর কাছে জ্ঞান-ভক্তির জন্য প্রার্থনা করবে।

"Is there, then, no hope for householders? Certainly there is. They must practise spiritual discipline in solitude for some days. Thus they will acquire knowledge and devotion. Then it will not hurt them to lead the life of the world. But when you practise discipline in solitude, keep yourself entirely away from your family. You must not allow your wife, son, daughter, mother, father, sister, brother, friends, or relatives near you. While thus practising discipline in solitude, you should think: 'I have no one else in the world. God is my all,' You must also pray to Him, with tears in your eyes, for knowledge and devotion.

*निर्जन में मनःसंयोग का प्रशिक्षण*

“यदि कहो, कितने दिन संसार छोड़कर निर्जन में रहें ? तो इसके लिए यदि एक दिन भी इस तरह रह सको तो वह अच्छा; तीन दिन रहो तो ओर अच्छा है; अथवा बारह दिन, महीने भर, तीन महीने, सालभर – जो जितने दिन रह सके । ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके संसार में रहने से फिर अधिक भय नहीं रहता ।

[“যদি বল কতদিন সংসার ছেড়ে নির্জনে থাকবো? তা একদিন যদি এইরকম করে থাক, সেও ভাল; তিনদিন থাকলে আরও ভাল; বা বারোদিন, একমাস, তিনমাস, একবৎসর — যে যেমন পারে। জ্ঞান-ভক্তিলাভ করে সংসার করলে আর বেশি ভয় নাই।

"If you ask me how long you should live in solitude away from your family, I should say that it would be good for you if you could spend even one day in such a manner. Three days at a time are still better. One may live in solitude for twelve days, a month, three months, or a year, according to one's convenience and ability. One hasn't much to fear if one leads the life of a householder after attaining knowledge and devotion.]

“हाथों में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर हाथों में उसका दूध नहीं चिपकता । छुई-छुऔवल खेलो तो पार छू लेने से फिर डर नहीं रहता । एक बार पारस पत्थर को छूकर सोना बन जाओ, फिर हजार वर्ष तक मिट्टी के नीचे गड़े रहने पर भी जब मिट्टी से निकाले जाओगे, तो सोना का सोना ही रहोगे ।

[“হাতে তেল মেখে কাঁঠাল ভাঙলে হাতে আঠা লাগে না। চোর চোর যদি খেল বুড়ি ছুঁয়ে ফেললে আর ভয় নাই। একবার পরশমণিকে ছুঁয়ে সোনা হও, সোনা হবার পর হাজার বৎসর যদি মাটিতে পোঁতা থাক, মাটি থেকে তোলবার সময় সেই সোনাই থাকবে।

"If you break a jack-fruit after rubbing your hands with oil, then its sticky milk will not smear your hands. While playing the game of hide-and-seek, you are safe if you but once touch the 'granny'. Be turned into gold by touching the philosopher's stone. After that you may remain buried underground a thousand years; when you are taken out you will still be gold.

मन दूध की तरह है । उस मन को अगर संसाररूपी जल में रखो तो दूध पानी से मिल जायगा; इसीलिए दूध को निर्जन में दही बनाकर उससे मक्खन निकाला जात है । जब निर्जन में साधना (एकाग्रता का अभ्यास) करके मनरूपी दूध से ज्ञानभक्ति-रूपी मक्खन निकाला गया, तब वह मक्खन अनायास ही संसार-रूपी पानी में रखा जा सकता है । वह मक्खन कभी संसार-रूपी जल से मिल नहीं सकता – संसार जल पर निर्लिप्त होकर उतराता रहता है ।”

[“মনটি দুধের মতো। সেই মনকে যদি সংসার-জলে রাখ, তাহলে দুধেজলে মিশে যাবে। তাই দুধকে নির্জনে দই পেতে মাখন তুলতে হয়। যখন নির্জনে সাধন করে মনরূপ দুধ থেকে জ্ঞান-ভক্তিরূপ মাখন তোলা হল, তখন সেই মাখন অনায়াসে সংসার-জলে রাখা যায়। সে মাখন কখনও সংসার-জলের সঙ্গে মিশে যাবে না — সংসার-জলের উপর নির্লিপ্ত হয়ে ভাসবে।”

'Mental Concentration Class' by Sri Ramakrishna : "The mind is like milk. If you keep the mind in the world, which is like water, then the milk and water will get mixed. That is why people keep milk in a quiet place and let it set into curd, and then churn butter from it. Likewise, through spiritual discipline practised in solitude, churn the butter of knowledge and devotion from the milk of the mind. Then that butter can easily be kept in the water of the world. It will not get mixed with the world. The mind will float detached on the water of the world."]

(३)

*श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी की निर्जन में साधना और साधुसंग *

[Solitude and Holy company] 

श्रीयुत विजय अभी अभी गया से लौटे हैं । वहाँ बहुत दिनों तक निर्जन में रहकर वे साधुओं से मिलते रहे थे । इस समय उन्होंने भगवा धारण कर लिया है । उनकी अवस्था बड़ी ही सुन्दर है; जान पड़ता है, सदा ही अन्तर्मुख रहते हैं । श्रीरामकृष्णदेव के पास सिर झुकाए हुए हैं, जैसे मग्न होकर कुछ सोचते हों।

[শ্রীযুক্ত বিজয় গোস্বামী সবে গয়া হইতে ফিরিয়াছেন। সেখানে অনেকদিন নির্জনে বাস ও সাধুসঙ্গ হইয়াছিল। এক্ষণে তিনি গৈরিকবসন পরিধান করিয়াছেন। অবস্থা ভারী সুন্দর, যেন সর্বদা অন্তর্মুখ। পরমহংসদেবের নিকট হেঁটমুখ হইয়া রহিয়াছেন, যেন মগ্ন হইয়া কি ভাবিতেছেন।

Vijay had just returned from Gaya, where he had spent a long time in solitude and holy company. He had put on the ochre robe of a monk and was in an exalted state of mind, always indrawn. He was sitting before the Master with his head bent down, as if absorbed in some deep thought.]

विजय को देखते ही श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, -' विजय ! तुमि कि बासा पाकड़ेछो ? (“বিজয়! তুমি কি বাসা পাকড়েছ?) “विजय, क्या तुमने घर ढूँढ लिया है ? 

[বিজয়কে দেখিতে দেখিতে পরমহংসদেব তাঁহাকে বলিলেন, “বিজয়! তুমি কি বাসা পাকড়েছ?

Casting his benign glance on Vijay, the Master said; "Vijay, have you found your room?] 

“देखो, दो साधु विचरण करते हुए एक शहर में आ पहुँचे । आश्चर्यचकित होकर उनमें से एक शहर, बाजार, दुकानें और इमारतें देख रहा था, इसी समय दूसरे से उसकी भेंट हो गयी । तब दूसरे साधु ने कहा, “तुम दंग होकर शहर देख रहे हो; तुम्हारा डेरा-डण्डा कहा है ? पहले साधु ने कहा, ‘मैं पहले घर की खोज करके, डेरा-डण्डा रख, ताला लगाकर, निश्चिन्त होकर निकला हूँ, अब शहर का रंग-ढंग देख रहा हूँ ।’ 

इसीलिए तुमसे मैं पूछ रहा हूँ, क्या तुमने घर ढूँढ लिया ? (मास्टर आदि से-দেখ, বিজয়ের এতদিন ফোয়ারা চাপা ছিল, এইবার খুলে গেছে।”) देखो, इतने दिनों तक विजय का फौआरा दबा हुआ था, अब खुल गया है ।

[“দেখ, দুজন সাধু ভ্রমণ করতে করতে একটি শহরে এসে পড়েছিল। একজন হাঁ করে শহরের বাজার, দোকান, বাড়ি দেখছিল; এমন সময় অপরটির সঙ্গে দেখা হল। তখন সে সাধুটি বললে, তুমি হাঁ করে শহর দেখছ — তল্পি-তল্পা কোথায়? প্রথম সাধুটি বললে, আমি আগে বাসা পাকড়ে, তল্পি-তল্পা রেখে, ঘরে চাবি দিয়ে, নিশ্চিন্ত হয়ে বেরিয়েছি। এখন শহরে রঙ দেখে বেড়াচ্ছি। তাই তোমায় জিজ্ঞাসা করছি, তুমি কি বাসা পাকড়েছ? (মাস্টার ইত্যদির প্রতি), দেখ, বিজয়ের এতদিন ফোয়ারা চাপা ছিল, এইবার খুলে গেছে।”

"Let me tell you a parable: Once two holy men, in the course of their wanderings, entered a city. One of them, with wondering eyes and mouth agape, was looking at the market-place, the stalls, and the buildings, when he met his companion. The latter said: 'You seem to be filled with wonder at the city. Where is your baggage?' He replied: 'First of all I found a room. I put my things in it, locked the door, and felt totally relieved. Now I am going about the city enjoying all the fun.' 

"So I am asking you, Vijay, if you have found your room. (To M. and the others) You see, the spring in Vijay's heart has been covered all these days. Now it is open.]

*गृहस्थ के लिए उपाय निष्काम कर्म- 'Be and Make': संन्यासी के लिए वासनात्याग* 

(विजय से) – “देखो, शिवनाथ बड़ी उलझन में है । अखबार में लिखना पड़ता है, और भी बहुत से काम उसे करने पड़ते हैं । विषय-कर्म ही से अशान्ति होती है, कितनी चिन्ताएँ आ इकट्ठी होती हैं ।

[(বিজয়ের প্রতি) — দেখ, শিবনাথের ভারী ঝঞ্ঝাট। খবরের কাগজ লিখতে হয়, আর অনেক কর্ম করতে হয়। বিষয়কর্ম করলেই অশান্তি হয়, অনেক ভাবনা-চিন্তা জোটে।

(To Vijay) "Well, Shivanath is always in trouble and turmoil. He has to write for magazines and perform many other duties. Worldly duties bring much worry and anxiety along with them.]

“श्रीमद्भागवत में है, अवधूत ने चौबीस गुरुओं में चील को भी एक गुरु बनाया था । एक जगह धीवर मछली मार रहे थे, एक चील झपटकर एक मछली ले गयी, परन्तु मछली को देखकर करीब एक हजार कौए उसके पीछे लग गए, और साथ ही काँव-काँव करके बड़ा हल्ला मचाना शुरू कर दिया । 

मछली को लेकर चील जिस तरफ जाती, तब कौए भी उसी ओर गये । जब वह उत्तर की तरफ गयी, तब वे भी उसी ओर गये । इसी तरह पूर्व और पश्चिन की ओर भी चील चक्कर काटने लगी । अन्त में घबराहट के मारे चक्कर लगते हुए मछली उससे छूट कर जमीन पर गिर पड़ी । तब वे कौए चील को छोड़ मछली की ओर उड़े । चील तब निश्चिन्त होकर एक पेड़ की डाल पर जा बैठी । बैठी हुयी सोचने लगी, ‘कुल बखेड़े की जड़ यही मछली थी; अब वह मेरे पास नहीं है इसीलिए मैं निश्चिन्त हूँ ।’

[“শ্রীমদ্ভাগবতে আছে যে, অবধূত চব্বিশ গুরুর মধ্যে চিলকে একটি গুরু করেছিলেন। এক জায়গায় জেলেরা মাছ ধরছিল, একটি চিল এসে মাছ ছোঁ মেরে নিয়ে গেল। কিন্তু মাছ দেখে পেছনে পেছনে প্রায় এক হাজার কাক চিলকে তাড়া করে গেল, আর সঙ্গে সঙ্গে কা কা করে বড় গোলমাল করতে লাগল। মাছ নিয়ে চিল যেদিকে যায়, কাকগুলোও তাড়া করে সেইদিকে যেতে লাগল। দক্ষিণদিকে চিলটা গেল, কাকগুলোও সেইদিকে গেল; আবার উত্তরদিকে যখন সে গেল, ওরাও সেইদিকে গেল। এইরূপে পূর্বদিকে ও পশ্চিমদিকে চিল ঘুরতে লাগল। শেষে ব্যতি ব্যস্ত হয়ে ঘুরতে ঘুরতে মাছটা তার কাছ থেকে পড়ে গেল। তখন কাকগুলো চিলকে ছেড়ে মাছের দিকে গেল। চিল তখন নিশ্চিন্ত হয়ে একটা গাছের ডালের উপর গিয়ে বসল। বসে ভাবতে লাগল — ওই মাছটা যত গোল করেছিল। এখন মাছ কাছে নাই, আমি নিশ্চিন্ত হলুম।

"It is narrated in the Bhagavata that the Avadhuta had twenty-four gurus, one of whom was a kite. In a certain place the fishermen were catching fish. A kite swooped down and snatched a fish. At the sight of the fish, about a thousand crows chased the kite and made a great noise with their cawing. Whichever way the kite flew with the fish, the crows followed it. The kite flew to the south and the crows followed it there. The kite flew to the north and still the crows followed after it. The kite went east and west, but with the same result. As the kite began to fly about in confusion, lo, the fish dropped from its mouth. The crows at once let the kite alone and flew after the fish. Thus relieved of its worries, the kite sat on the branch of a tree and thought: 'That wretched fish was at the root of all my troubles. I have now got rid of it and therefore I am at peace.']

“अवधूत ने चील से यह शिक्षा प्राप्त की कि जब तक मछली साथ रहेगी अर्थात् वासना रहेगी, तब तक कर्म भी रहेगा, और कर्म के कारण चिन्ता और अशान्ति भी रहेगी । वासना का त्याग होने से ही कर्मों का क्षय हो जाता है और शान्ति मिलती है ।

[“অবধূত চিলের কাছে এই শিক্ষা করলেন যে, যতক্ষণ সঙ্গে মাছ থাকে অর্থাৎ বাসনা থাকে ততক্ষণ কর্ম থাকে আর কর্মের দরুন ভাবনা, চিন্তা, অশান্তি। বাসনাত্যাগ হলেই কর্মক্ষয় হয় আর শান্তি হয়।

"The Avadhuta learnt this lesson from the kite, that as long as a man has the fish, that is, worldly desires, he must perform actions and consequently suffer from worry, anxiety, and restlessness. No sooner does he renounce these desires than his activities fall away and he enjoys peace of soul.] 

“परन्तु निष्काम कर्म  ('Be and Make ' )अच्छा है । उससे अशान्ति नहीं होती । पर निष्काम कर्म करना बड़ा कठिन है । मनुष्य सोचता है कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ परन्तु कहाँ से कामना (लोकैषणा ?) निकल पड़ती है, यह समझ में नहीं आता ।

  यदि पहले की साधना अधिक हो तो 'उसके बल से' कोई कोई निष्काम कर्म कर सकते हैं । ईश्वर-दर्शन के बाद निष्काम कर्म अनायास ही किए जा सकते हैं । ईश्वरदर्शन (विवेक-दर्शन?) के बाद प्रायः कर्म छूट जाते हैं । दो-एक मनुष्य (नारदादि-नवनीदा आदि) लोकशिक्षा के लिए कर्म करते हैं ।

[“তবে নিষ্কামকর্ম ভাল। তাতে অশান্তি হয় না। কিন্তু নিষ্কামকর্ম করা বড় কঠিন। মনে করছি, নিষ্কামকর্ম করছি, কিন্তু কোথা থেকে কামনা এসে পড়ে, জানতে দেয় না। আগে যদি অনেক সাধন থাকে, সাধনের বলে কেউ কেউ নিষ্কামকর্ম করতে পারে। ঈশ্বরদর্শনের পর নিষ্কামকর্ম অনায়াসে করা যায়। ঈশ্বরদর্শনের পর প্রায় কর্মত্যাগ হয়; দুই-একজন (নারদাদি) লোকশিক্ষার জন্য কর্ম করে।”

"But work without any selfish motive is good. It does not create any worry. But it is very difficult to be totally Unselfish. We may think that our work is selfless, but selfishness comes, unknown to us, from no one knows where. But if a man has already undergone great spiritual discipline, then as a result of it he may be able to do work without any selfish motive. After the vision of God a man can easily do unselfish work. In most cases action drops away after the attainment of God. Only a few, like Narada, work to bring light to mankind.}

{पूर्वजन्म में ही यदि " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- 'Be and Make ' में प्रशिक्षण मिल चुका हो तो उसके बल से कोई -"नवनीदा" निष्काम कर्म कर सकते हैं!

*संन्यासी को संचय न करना चाहिए*

*प्रेम के फल-स्वरूप कर्मत्याग* 

अवधूत की एक आचार्या और थी – मधुमक्खी - बड़े परिश्रम से कितने ही दिनों में मधु-संचय करती है, परन्तु उस मधु का भोग वह स्वयं नहीं कर पाती । छत्ता कोई दूसरा ही आकर तोड़ ले जाता है । मधुमक्खी से अवधूत को यह शिक्षा मिली कि संचय न करना चाहिए । साधु-सन्तों को सोलहों आने ईश्वर पर अवलम्बित रहना चाहिए । उन्हें संचय न करना चाहिए ।

“यह संसारियों के लिए (प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों के लिए) नहीं है । संसारी (गृहस्थ) को संसार (परिवार) का भरणपोषण करना पड़ता है । इसीलिए उन्हें संचय की आवश्यकता होती है । पक्षी और संत संचयी नहीं होते, परन्तु चिड़ियाँ बच्चे देने पर संचय करती हैं- चोंच में दबाकर बच्चे के लिए खाना ले आती हैं ।

[“অবধূতের আর-একটি গুরু ছিল — মৌমাছি! মৌমাছি অনেক কষ্টে অনেকদিন ধরে মধু সঞ্চয় করে। কিন্তু সে মধু নিজের ভোগ হয় না। আর-একজন এসে চাক ভেঙে নিয়ে যায়। মৌমাছির কাছে অবধূত এই শিখলেন যে, সঞ্চয় করতে নাই। সাধুরা ঈশ্বরের উপর ষোল আনা নির্ভর করবে। তাদের সঞ্চয় করতে নাই। “এটি সংসারীর পক্ষে নয়। সংসারীর সংসার পরতিপালন করতে হয়। তাই সঞ্চয়ের দরকার হয়! পন্‌ছী (পাখি) আউর দরবেশ (সাধু) সঞ্চয় করে না। কিন্তু পাখির ছানা হলে সঞ্চয় করে — ছানার জন্য মুখে করে খাবার আনে।

"The Avadhuta accepted a bee as another teacher. Bees accumulate their honey by days of hard labour. But they cannot enjoy their honey, for a man soon breaks the comb and takes it away. The Avadhuta learnt this lesson from the bees, that one should not lay things up. Sadhus should depend one hundred per cent on God. They must not gather for the morrow. But this does not apply to the householder. He must bring up his-family; therefore it is necessary for him to provide. Birds and monks do not hoard. Yet birds also hoard after their chicks are hatched: they collect food in their beaks for their young ones.]

“देखो विजय, साधु के साथ अगर बोरिया-बधना रहे- कपड़े की पन्द्रह गिरहवाली गठरी रहे, तो उस पर विश्वास न करना । ( 10 लाख का F.D. बैंक में जमा कर संन्यासी बने) मैंने बटतल्ले में ऐसे साधु देखे थे । दो-तीन बैठे हुए थे, कोई दाल के कंकड़ चुन रहा था, कोई कपड़ा सी रहा था और कोई बड़े आदमी के घर के भण्डारे की गप्प लड़ा रहा था, ‘अरे उस बाबू ने लाखों रूपये खर्च किए, साधुओं को खूब खिलाया – पूड़ी, जलेबी, पेड़ा, बरफी मालपुआ, बहुत सी चीजें तैयार करायीं’ ।” (सब हँसते हैं ।) 

{“দেখ বিজয়, সাধুর সঙ্গে যদি পুঁটলি-পাটলা থাকে, পনেরটা গাঁটোয়ালা যদি কাপড়-বুচকি থাকে তাহলে তাদের বিশ্বাস করো না। আমি বটতলায় ওইরকম সাধু দেখেছিলাম। দু-তিনজন বসে আছে, কেউ ডাল বাছছে, কেউ কেউ কাপড় সেলাই করছে, আর বড় মানুষের বাড়ির ভাণ্ডারার গল্প করছে। বলছে, ‘আরে ও বাবুনে লাখো রূপেয়া খরচ কিয়া, সাধু লোককো বহুৎ খিলায়া — পুরি, জিলেবী, পেড়া, বরফী, মালপুয়া, বহুৎ চিজ তৈয়ার কিয়া।” (সকলের হাস্য)

"Let me tell you one thing, Vijay. Don't trust a sadhu if he keeps bag and baggage with him and a bundle of clothes with many knots. I have seen such sadhus under the banyan tree in the Panchavati. Two or three of them were seated there. One was picking over lentils, some were sewing their clothes, and all were gossiping about a feast they had enjoyed in a rich man's house. They said among themselves, 'That rich man spent a hundred thousand rupees on the feast and fed the sadhus sumptuously with cake, sweets, and many such delicious things.'" (All laugh.)}

विजय-जी हाँ, गया में इस तरह के साधु मुझे भी देखने को मिले हैं । गया के साधु लोटावाले होते हैं । (सब हँसते हैं ।)

(বিজয় — আজ্ঞা হাঁ। গয়ায় ওইরকম সাধু দেখেছি। গয়ায় লোটাওয়ালা সাধু। (সকলের হাস্য)

VIJAY: "It is true, sir. I have seen such sadhus at Gaya. They are called the lotawalla sadhus14 of Gaya."] 

श्रीरामकृष्ण(विजय के प्रति) – ईश्वर पर जब प्रेम हो जाता है तब कर्म आप ही आप छूट जाते हैं । ईश्वर जिनसे कर्म कराते हैं, वे करते रहें । अब तुम्हारा समय हो गया है; अब सब छोड़कर तुम कहो, मन, तू देख और मैं देखूँ, कोई दूसरा न देखे’ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়ের প্রতি) — ঈশ্বরের প্রতি প্রেম আসলে কর্মত্যাগ আপনি হয়ে যায়। যাদের ঈশ্বর কর্ম করাচ্ছেন, তারা করুক। তোমার এখন সময় হয়েছে।  — সব ছেড়ে তুমি বলো, “মন, তুই দেখ আর আমি দেখি, আর যেন কেউ নাহি দেখে।”

MASTER (to Vijay): "When love of God is awakened, work drops away of itself. If God makes some men work, let them work. It is now time for you to give up everything. Renounce all and say, 'O mind, may you and I alone behold the Mother, letting no one else intrude.'] 

यह कहकर श्रीरामकृष्ण उस अतुलनीय कण्ठ से माधुरी बरसाते हुए गाने लगे- 

जतने हृदये रेखो , आदरिणी श्यामा मा के,

मन तुई देख  आर आमि देखि, आर जेनो केहू नाहि देखे। 


कामादिरे दिये फाँकी, आय मन विरले देखि,

रसनारे संगे राखि, से जेनो मा बोले डाके। 

(माझे माझे से जॅनो  माँ  बोले डाके)।।

कुरुचि कुमंत्री जतो, निकट होते दिओ नाको,

ज्ञान-नयन के प्रहरी रेखो, शे जेनो सावधाने थाके। 

(खुब जॅनो सावधाने थाके) ।। 


যতনে হৃদয়ে রেখো আদরিণী শ্যামা মাকে,

মন তুই দেখ আর আমি দেখি, আর যেন কেউ নাহি দেখে।

কামাদিরে দিয়ে ফাঁকি, আয় মন বিরলে দেখি,

রসনার সঙ্গে রাখি, সে যেন মা বলে ডাকে।

(মাঝে মাঝে সে যেন মা বলে ডাকে) ৷৷

কুরুচি কুমন্ত্রী যত, নিকট হতে দিও নাকো

জ্ঞাননয়নকে প্রহরী রেখো, সে যেন সাবধানে থাকে।

        (খুব যেন সাবধানে থাকে) ৷৷

(भावार्थ) –

“आदरणीय श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में धारण करो । मन ! तू देख और मैं देखूँ; कोई दूसरा न देखने पाए । कामादि को धोखा देकर, मन ! आ, निर्जन, में उसे देखें, साथ रसना को भी रखेंगे ताकि वह ‘माँ माँ’ कहकर पुकारती रहे ! कुमंत्रणाएँ देनेवाली जितनी कुरुचियाँ हैं उन्हें पास भी न फटकने देना । ज्ञान-नयन (स्वामी विवेकानन्द) को पहरेदार रखो, वह सतर्क रहे ।”

[Cherish my precious Mother SyamaTenderly within, O mind; May you and I alone behold Her,Letting no one else intrude.O mind, in solitude enjoy Her, Keeping the passions all outside; Take but the tongue, that now and again It may cry out, "O Mother! Mother!" Suffer no breath of base desire To enter and approach us there,But bid true knowledge stand on guard, Alert and watchful evermore.

श्रीरामकृष्ण (विजय के प्रति) – भगवान् की शरण में जाकर अब लज्जा, भय, यह सब छोड़ो । मैं अगर भगवत्कीर्तन में नाचूँ तो लोग मुझे कहेंगे, यह सब भाव छोड़ो ।

“लज्जा, घृणा और भय, इन तीनों में किसी के रहते ईश्वर नहीं मिलते । लज्जा, घृणा, भय, जाति-अभिमान, गुप्त रखने की इच्छा, ये सब पाश हैं । इन सब के चले जाने से जीव की मुक्ति होती है ।

[(বিজয়ের প্রতি) — “ভগবানের শরণাগত হয়ে এখন লজ্জা, ভয় — এ-সব ত্যাগ কর। ‘আমি হরিনামে যদি নাচি, লোকে আমায় কি বলবে’ — এ-সব ভাব ত্যাগ কর।”“লজ্জা, ঘৃণা, ভয় তিন থাকতে নয়। লজ্জা, ঘৃণা, ভয়, জাতি আভিমান, গোপন ইচ্ছা — এ-সব পাশ। এ-সব গেলে জীবের মুক্তি হয়।

The Master said to Vijay: "Surrender yourself completely to God, and set aside all such things as fear and shame. Give up such feelings as, What will people think of me if I dance in the ecstasy of God's holy name?' The saying, 'One cannot have the vision of God as long as one has these three — shame, hatred, and tear', is very true. Shame, hatred, fear, caste, pride, secretiveness, and the like are so many bonds. Man is free when he is liberated from all these.]

“पाशों में जो बँधा हुआ है वह जीव है और उनसे जो मुक्त है वह शिव है । भगवत्प्रेम दुर्लभ वस्तु है । पहले-पहल, पति के प्रति पत्नी की जैसी निष्ठा होती है वैसी ही यदि ईश्वर के प्रति हो तो ही भक्ति होती है। शुद्धा भक्ति का होने बड़ा कठिन है । भक्ति द्वारा मन और प्राण ईश्वर में लय हो जाते हैं ।

[“পাশবদ্ধ জীব, পাশমুক্ত শিব। ভগবানের প্রেম — দুর্লভ জিনিস। প্রথমে স্ত্রীর যেমন স্বামীতে নিষ্ঠা, সেইরূপ নিষ্ঠা যদি ঈশ্বরেতে হয় তবেই ভক্তি হয়। শুদ্ধাভক্তি হওয়া বড় কঠিন। ভক্তিতে প্রাণ মন ঈশ্বরেতে লীন হয়।

"When bound by ties one is jiva, and when free from ties one is Siva. Prema, ecstatic love of God, is a rare thing. "First of all one acquires bhakti. Bhakti is single-minded devotion to God, like the devotion a wife feels for her husband. It is very difficult to have unalloyed devotion to God. Through such devotion one's mind and soul merge in Him.]

इसके बाद भाव होता है । भाव में मनुष्य निर्वाक् हो जाता है । वायु स्थिर हो जाती है । कुम्भक आप ही आप होता है । जैसे बन्दूक दागते समय गोली चलानेवाला मनुष्य निर्वाक् हो जाता है और उसकी वायु स्थिर हो जाती है ।

[“তারপর ভাব। ভাবেতে মানুষ অবাক্‌ হয়। বায়ু স্থির হয়ে যায়। আপনি কুম্ভক হয়। যেমন বন্দুকে গুলি ছোড়বার সময়, যে ব্যক্তি গুলি ছোড়ে সে বাক্যশূন্য হয় ও তার বায়ু স্থির হয়ে যায়।"

Then comes bhava, intense love. Through bhava a man becomes speechless. His nerve currents are stilled. Kumbhaka comes by itself. It is like the case of a man whose breath and speech stop when he fires a gun.

“प्रेम का होना बड़ी दूर की बात है । प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था । ईश्वर पर जब प्रेम होता है, तब बाहर की चीजें भूल जाती हैं । संसार भूल जाता है । अपना शरीर जो इतना प्यारा है, वह भी भूल जाता है ।”

[“প্রেম হওয়া অনেক দূরের কথা। চৈতন্যদেবের প্রেম হয়েছিল। ঈশ্বরে প্রেম হলে বাহিরের জিনিস ভুল হয়ে যায়। জগৎ ভুল হয়ে যায়। নিজের দেহ যে এত প্রিয় জিনিস — তাও ভুল হয়ে যায়।”

"But prema, ecstatic love, is an extremely rare thing. Chaitanya had that love. When one has prema one forgets all-outer things. One forgets the world. One even forgets one's own body, which is so dear to a man."]

यह कहकर श्रीरामकृष्णदेव फिर गाने लगे- से दिन कबे बा हबे

সেদিন কবে বা হবে?

হরি বলিতে ধারা বেয়ে পড়বে (সেদিন কবে বা হবে?)

সংসার বাসনা যাবে (সেদিন কবে বা হবে?)

অঙ্গে পুলক হবে (সেদিন কবে বা হবে?)।

से दिन कबे बा हबे

से दिन कबे बा हबे

हरि बोलिते धारा बेये पड़बे

से दिन कबे बा हबे

संसार वासना जाबे

से दिन कबे बा हबे

अंगे पुलक हबे

से दिन कबे बा हबे

(भावार्थ) – “नहीं मालूम, कब वह दिन होगा जब हरिनाम कहते हुए मेरी आँखों से धारा बह चलेगी, संसार-वासना दूर हो जाएगी, शरीर पुलकित हो जाएगा !”

[Oh, when will dawn the blessed day,When tears of joy will flow from my eyes As I repeat Lord Hari's name? Oh, when will dawn the blessed day, When all my craving for the world Will vanish straightway from my heart,And with the thrill of His holy name All of my hair will stand on end?Oh, when will dawn that blessed day?

(४) 

*भाव, कुम्भक तथा ईश्वरदर्शन* 

ऐसी बातचीत हो रही है, ठीक इस समय कुछ और निमन्त्रित ब्राह्मभक्त आकर उपस्थित हुए । उनमें कुछ तो पण्डित थे और कुछ उच्चपदाधिकारी राजकर्मचारी । उनमें एक श्री रजनीनाथ राय भी थे ।

[এইরূপ কথাবার্তা চলিতেছে, এমন সময় নিমন্ত্রিত আর কয়েকটি ব্রাহ্মভক্ত আসিয়া উপস্থিত হইলেন। তন্মধ্যে কয়েকটি পণ্ডিত ও উচ্চপদস্থ রাজকর্মচারী। তাঁহাদের মধ্যে একজন শ্রীরজনীনাথ রায়।

So the talk of divine things was proceeding, when some invited Brahmo devotees entered the room. There were among them a few pundits and high government officials.]

श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “भाव के होने पर वायु स्थिर हो जाती है । अर्जुन ने जब लक्ष्य-भेद किया, तब उनकी दृष्टि मछली की आँख पर ही थी – किसी दूसरी ओर नहीं । यहाँ तक कि आँख के सिवाय कोई दूसरा अंग उन्हें दीख ही नहीं पड़ा । ऐसी अवस्था में वायु स्थिर होती है, कुम्भक होता है । 

{ঠাকুর বলিতেছেন, ভাব হইলে (चित्त की वृत्तियों का निरोध होने पर) বায়ু স্থির হয়; আর বলিতেছেন, অর্জুন যখন লক্ষ্য বিঁধেছিল, কেবল মাছের চোখের দিকে দৃষ্টি ছিল — আর কোন দিকে দৃষ্টি ছিল না। এমন কি চোখ ছাড়া আর কোন অঙ্গ দেখতে পায় নাই। এরূপ অবস্থায় বায়ু স্থির হয়, কুম্ভক হয়।

 Sri Ramakrishna had said that bhava stills the nerve currents of the devotee. He continued: "When Arjuna was about to shoot at the target, the eye of a fish, his eyes were fixed on the eye of the fish, and on nothing else. He didn't even notice any part of the fish except the eye. In such a state the breathing stops and one experiences kumbhaka.}

“ईश्वरदर्शन का एक लक्षण यह है कि भीतर से महावायु घरघराती हुई सिर की ओर जाती है; तब समाधि होती है, भगवान् के दर्शन होते हैं ।

[“ঈশ্বরদর্শনের একটি লক্ষণ, — ভিতর থেকে মহাবায়ু গর্‌গর্‌ করে উঠে দিকে যায়! তখন সমাধি হয়, ভগবানের দর্শন হয়।”

"Another characteristic of God-vision is that a great spiritual current rushes up along the spine and goes toward the brain. If then the devotee goes into samadhi, he sees God."

कोरा पाण्डित्य मिथ्या है । ऐश्वर्य, वैभव, मान, पद सब मिथ्या है ।

“जो पण्डित मात्र हैं किन्तु ईश्वर पर जिनकी भक्ति नहीं है उनकी बातें उलझनदार होती है । सामाध्यायी नाम के एक पण्डित ने कहा था, ‘ईश्वर नीरस है, तुम लोग अपनी भक्ति और प्रेम के द्वारा उसे सरस कर लो ।’ जिन्हें वेदों ने ‘रसस्वरूप’ कहा है, उन्हें नीरस बतलाता है ! इससे ज्ञात होता है कि वह मनुष्य नहीं जानता ईश्वर कौन सी वस्तु है; इसीलिए उसकी बातें इतनी उलझनदार हैं ।

[(অভ্যাগত ব্রাহ্মভক্ত দৃষ্টে) — “যাঁরা শুধু পণ্ডিত, কিন্তু যাদের ভগবানে ভক্তি নাই, তাদের কথা গোলমেলে। সামাধ্যায়ী বলে এক পণ্ডিত বলেছিল, ‘ঈশ্বর নীরস, তোমরা নিজের প্রেমভক্তি দিয়ে সরস করো।’ বেদে যাঁকে ‘রসস্বরূপ’ বলেছে তাঁকে কি না নীরস বলে! আর এত বোধ হচ্ছে, সে ব্যক্তি ঈশ্বর কি বস্তু কখনও জানে নাই। তাই এরূপ গোলমেলে কথা।

Looking at the Brahmo devotees who had just arrived, the Master said: "Mere pundits, devoid of divine love, talk incoherently. Pundit Samadhyayi once said, in the course of his sermon: 'God is dry. Make Him sweet by your love and devotion.' Imagine! To describe Him as dry, whom the Vedas declare as the Essence of Bliss! It makes one feel that the pundit didn't know what God really is. That was why his words were so incoherent.]

“एक ने कहा था, मेरे मामा के यहाँ घोड़ों की एक बड़ी गोशाला है ! उसकी इस बात से समझना चाहिए कि घोड़ा एक भी नहीं है; क्योंकि घोड़े कभी गोशाला में नहीं रहते । (सब हँसते हैं ।)  

{“একজন বলেছিল, ‘আমার মামার বাড়িতে এক গোয়াল ঘোড়া আছে।’ এ-কথায় বুঝতে হবে, ঘোড়া আদবেই নাই, কেননা গোয়ালে ঘোড়া থাকে না। (সকলের হাস্য)

"A man once said, 'There are many horses in my uncle's cow-shed.' From that one could know that the man had no horses at all. No one keeps a horse in a cow-shed.} 

“किसी को ऐश्वर्य का-वैभव, सम्मान, पद आदि का – अहंकार होता है । यह सब दो दिन के लिए हैं । साथ कुछ भी न जाएगा । 

[“কেউ ঐশ্বর্যের — বিভব, মান, পদ — এই সবের অহংকার করে। এ-সব দুই দিনের জন্য, কিছুই সঙ্গে যাবে না। একটা গানে আছে:

"Some people pride themselves on their riches and power — their wealth, honour, and social position. But these are only transitory. Nothing will remain with you in death.

एक गीत में हैं- भेवे देख मन केउ कारो नय 

 ভেবে দেখ মন কেউ কারু নয়, মিছে ভ্রম ভূমণ্ডলে।

ভুল না দক্ষিণাকালী বদ্ধ হয়ে মায়াজালে ৷৷

যার জন্য মর ভেবে, সে কি তোমার সঙ্গে যাবে।

সেই প্রেয়সী দিবে ছড়া, অমঙ্গল হবে বলে ৷৷

দিন দুই-তিনের জন্য ভবে কর্তা বলে সবাই মানে।

সেই কর্তারে দেবে ফেলে, কালাকালের কর্তা এলে ৷৷’

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भेबे देख मन केउ कारो नय,

भेबे देख मन केउ कारो नय,मिछे भ्रम भूमंडले |



भुलना दक्षिणाकाली, बद्ध ह्ये मायाजाले। 

जार जन्य मोरो  भेबे से की तोमार  संगे जाबे?

सेइ प्रेयसि दिबे छड़ा , अमंगल होए बोले।  

दिन दुई दिनेर जोन्ने भावे, कर्ता बोले सबइ माने ,

से कर्तार देबे फेले, कालाकालेर कर्ता एले ||

(गीत का आशय) – ‘ऐ मन सोच ले, कोई किसी का नहीं है । तू इस संसार में वृथा ही मारा मारा फिरता है । मायाजाल में फँसकर दक्षिणाकाली की भूल न जाना । जिसके लिए तू इतना सोचता है, क्या वह तेरे साथ भी जाएगा ? तेरी वही प्रेयसी, जब तू मर जाएगा तब तेरी लाश से अमंगल की शंका करके घर में पानी का छिड़काव करेगी । यह सोचना कि मुझे लोग मालिक जो कहते हैं, वह सिर्फ दो ही दिन के लिए है । जब कालाकाल के मालिक आ जाते हैं तब पहले के वही मालिक शमशानघाट में फेंक दिये जाते हैं ।’

[Remember this, O mind! Nobody is your own:Vain is your wandering in this world.Trapped in the subtle snare of maya as you are,Do not forget the Mother's name.Only a day or two men honour you on earth As lord and master; all too soon.That form, so honoured now, must needs be cast away, When Death, the Master, seizes you.Even your beloved wife, for whom, while yet you live,You fret yourself almost to death,Will not go with you then; she too will say farewell,And shun your corpse as an evil thing.

[अहंकार की महाऔषधि — 'तुम से भी बड़े लोग हैं !' ]

“और धन का अहंकार भी न करना चाहिए । अगर कहो, मैं धनी हूँ । तो धनी भी एक-एक से बढ़कर हैं । सन्ध्या के बाद जब जुगुनू उड़ता है, तब वह सोचता है, इस संसार को प्रकाश मैं दे रहा हूँ । परन्तु तारे ज्यों ही उगते हैं कि उसका अहंकार चला जाता है । तब तारे सोचने लगे, हमीं लोग संसार को प्रकाश देते हैं । कुछ देर बाद चन्द्रोदय हुआ । तब तारे लज्जा से म्लान हो गये । चन्द्रदेव सोचने लगे । मेरे ही आलोक से संसार हँस रहा है, संसार को प्रकाश मैं देता हं । देखते ही देखते सूर्य उगे, चन्द्र मलिन होकर ऐसे छिपे कि फिर दीख भी न पड़े ।

আর টাকার অহংকার করতে নাই। যদি বল আমি ধনী, — তো ধনীর আবার তারে বাড়া তারে বাড়া আছে। সন্ধ্যার পর যখন জোনাকি পোকা উঠে, সে মনে করে, আমি এই জগৎকে আলো দিচ্ছি! কিন্তু নক্ষত্র যাই উঠল অমনি তার অভিমান চলে গেল। তখন নক্ষত্রেরা ভাবতে লাগল আমরা জগৎকে আলো দিচ্ছি! কিছু পরে চন্দ্র উঠল, তখন নক্ষত্রেরা লজ্জায় মলিন হয়ে গেল। চন্দ্র মনে করলেন আমার আলোতে জগৎ হাসছে, আমি জগৎকে আলো দিচ্ছি। দেখতে দেখতে অরুণ উদয় হল, সূর্য উঠছেন। চাঁদ মলিন হয়ে গেল, — খানিকক্ষণ পরে আর দেখাই গেল না।

"One must not be proud of one's money. If you say that you are rich, then one can remind you that there are richer men than you, and others richer still, and so on. At dusk the glow-worm comes out and thinks that it lights the world. But its pride is crushed when the stars appear in the sky. The stars feel that they give light to the earth. But when the moon rises the stars fade in shame. The moon feels that the world smiles at its light and that it lights the earth. Then the eastern horizon becomes red, and the sun rises. The moon fades and after a while is no longer seen.}

“धनी मनुष्य अगर यह सब सोचे तो धन का अहंकार न हो ।”

[“ধনীরা যদি এইগুলি ভাবে, তাহলে ধনের অহংকার হয় না।”

"If wealthy people would think that way, they would get rid of their pride in their wealth."

उत्सव के कारण मणिलाल ने खान-पान का बहुत बड़ा आयोजन किया था । उन्होंने यत्नपूर्वक श्रीरामकृष्ण और समवेत भक्तमण्डली को भोजन कराया । जब सब लोग घर लौटे, तब रात बहुत हो गयी थी, परन्तु किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ ।

[উৎসব উপলক্ষে মণিলাল অনেক উপাদেয় খাদ্যসামগ্রীর আয়োজন করিয়াছেন। তিনি অনেক যত্ন করিয়া শ্রীরামকৃষ্ণ ও সমবেত ভক্তগণকে পরিতোষ করিয়া খাওয়াইলেন। যখন সকলে বাড়ি প্রত্যাগমন করিলেন, তখন রাত্রি অনেক, কিন্তু কাহারও কোন কষ্ট হয় নাই।

Manilal had provided a sumptuous feast in celebration of the festival. He entertained the Master and the other guests with great love and attention. It was late at night when they returned to their homes.

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