शुक्रवार, 14 मई 2021

ॐपरिच्छेद ~ 34, [(27 मई, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Mother is Destroyer of sufferings *(आमार) मा त्वं हि तारा* ब्रह्माण्ड छीलो ना जखोन (तुई) मुण्डमाला कोथाय पेलि। *भिन्न धर्म मार्गों के प्रति विद्वेषभाव अच्छा नहीं, - शाक्त, वैष्णव, वेदान्ती ये सब झगड़ा करते हैं, यह ठीक नहीं ।**श्रीरामकृष्ण द्वारा माँ काली की पूजा तथा आत्मपूजा - 'माँ विपद्नाशिनी' मंत्र* ठाकुर देव पहलीबार जब कामारपुकुर से कलकत्ता आये तो झामापुकुर में रहे थे और घर घर में जाकर पूजा करते थे, उस समय कभी कभी नकुड़ वैष्णव की दुकान (ब्यूटीस्टोर?) में जाकर बैठते थे और आनन्द मनाते थे । * क्या श्रीरामकृष्ण गौरांग है ?

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) * साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

*परिच्छेद ३४* 

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*विद्वेषभाव अच्छा नहीं, लेकिन अपने इष्टदेव पर एकनिष्ठ भक्ति अनिवार्य है * 

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में खड़े खड़े भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । रविवार, वैशाख कृष्णा पंचमी, २७ मई १८८३ ई. । दिन के नौ बजे का समय होगा । भक्तगण धीरे धीरे आकर उपस्थित हो रहे हैं ।  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर आदि भक्तों के प्रति)- विद्वेषभाव अच्छा नहीं, - शाक्त, वैष्णव, वेदान्ती ये सब झगड़ा करते हैं, यह ठीक नहीं । पद्मलोचन बर्दवान महाराज के सभापण्डित थे । सभा में विचार हो रहा था-‘शिव बड़े हैं या ब्रह्मा ।’ पद्मलोचन ने बहुत सुन्दर बात कही थी, - ‘मैं नहीं जानता, मुझसे न शिव का परिचय है, और न ब्रह्मा का !’ (सभी हँसने लगे ।) 

{"It is not good to harbour malice. The Saktas, the Vaishnavas, and the Vedantists quarrel among themselves. That is not wise. Padmalochan was court pundit of the Maharaja of Burdwan. Once at a meeting the pundits were discussing whether Siva was superior to Brahma, or Brahma to Siva. Padmalochan gave an appropriate reply. 'I don't know anything about it', said he. 'I haven't talked either to Siva or to Brahma.'

“व्याकुलता रहने पर सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जाता है, परन्तु निष्ठा रहनी चाहिए । निष्ठा-भक्ति का दूसरा नाम है अव्यभिचारिणी भक्ति-जिस प्रकार 'एक शाखावाला वृक्ष' सीधा ऊपर की ओर जाता है। व्यभिचारिणी भक्ति-जैसे पांच शाखावाला वृक्ष । 

गोपियों की ऐसी निष्ठा थी कि वृन्दावन के पीताम्बर और मोहनचूड़ावाले गोपालकृष्ण के अतिरिक्त और किसी से प्रेम न करेंगी ।

मथुरा में जब राजवेष में सिर पर पगड़ी पहने कृष्ण को देखा तो उन्होंने घूँघट की आड़ में मुँह छिपा लिया और कहा, ‘वह कौन है? क्या इसके साथ बात करके हम द्विचारिणी बनेंगी ?’ 

{"If people feel sincere longing, they will find that all paths lead to God. But one should have nishtha, single-minded devotion. It is also described as chaste and unswerving devotion to God. It is like a tree with only one trunk shooting straight up. Promiscuous devotion is like a tree with five branches. Such was the single-minded devotion of the gopis to Krishna that they didn't care to look at anyone but the Krishna they had seen at Vrindavan — the Shepherd Krishna, bedecked with a garland of yellow wild-flowers and wearing a peacock feather on His crest. At the sight of Krishna at Mathura with a turban on His head and dressed in royal robes, the gopis pulled down their veils. They would not look at His face. 'Who is this man?' they said. 'Should we violate our chaste love for Krishna by talking to him?'

“स्त्री जो स्वामी की सेवा करती है वह भी निष्ठा-भक्ति है । देवर, जेठ को खिलाती है, पैर धोने को जल देती है, परन्तु स्वामी के साथ दूसरा ही सम्बन्ध रहता है । इसी प्रकार अपने धर्म में भी निष्ठा हो सकती है । इसीलिए दूसरे धर्म से घृणा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनके साथ मीठा व्यवहार करना चाहिए ।” 

{"The devotion of the wife to her husband is also an instance of unswerving love. She feeds her brothers-in-law as well, and looks after their comforts, but she has a special relationship with her husband. Likewise, one may have that single-minded devotion to one's own religion; but one should not on that account hate other faiths. On the contrary, one should have a friendly attitude toward them."

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*श्रीरामकृष्ण द्वारा माँ काली की पूजा तथा आत्मपूजा - 'माँ विपद्नाशिनी महामन्त्र'*

"O Mother! O Destroyer of suffering! O Remover of grief and agony!"  

श्रीरामकृष्ण गंगास्नान करके काली के दर्शन करने गए हैं । साथ में मास्टर हैं । श्रीरामकृष्ण पूजा के आसन पर बैठकर माँ के चरणकमलों पर फूल चढ़ा रहे हैं; बीच बीच में अपने सिर पर भी चढ़ा रहे हैं और ध्यान कर रहे हैं । 

बहुत समय के बाद श्रीरामकृष्ण आसन से उठे । भाव में विभोर होकर नृत्य कर हे हैं और मुँह से माँ का नाम ले रहे हैं । कह रहे हैं, ‘हे माँ विपद्नाशिनी, माँ विपद्नाशिनी।’ देह धारण करने से ही दुःख, विपदाएँ होती हैं, सम्भव है इसीलिए जीव को इस ‘विपद्नाशिनी’ महामन्त्र का उच्चारण कर कातर होकर पुकारना सिखा रहे हैं 

{অনেকক্ষণ পরে ঠাকুর আসন হইতে উঠিলেন। ভাবে বিভোর, নৃত্য করিতেছেন। আর মুখে মার নাম করিতেছেন। বলিতেছেন, “মা বিপদনাশিনী গো, বিপদনাশিনী!” দেহধারণ করলেই দুঃখ বিপদ, তাই বুঝি জীবকে শিখাইতেছেন তাঁহাকে ‘বিপদনাশিনী’ এই মহামন্ত্র উচ্চারণ করিয়া কাতর হইয়া ডাকিতে।

After a long time he stood up. He was in a spiritual mood and danced before the image, chanting the name of Kali. Now and again he said: "O Mother! O Destroyer of suffering! O Remover of grief and agony!" Was he teaching people thus to pray to the Mother of the Universe with a yearning heart, in order to get rid of the suffering inevitable in physical life?

   [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*श्री रामकृष्ण और झामापुकुर के नकुड़ बाबाजी *

अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में आकर बैठे हैं । अभी तक भाव का आवेश है । पास हैं राखाल, मास्टर, नकुड़ वैष्णव आदि । नकुड़ वैष्णव श्रीगौरांग के भक्त हैं ( 'Gauranga Mahaprabhu' -'Gauranga' is another name for Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)  जिन्हें श्रीरामकृष्ण अट्ठाईस-उनतीस वर्षों से जानते हैं । जिस समय वे पहले-पहल कलकत्ते में आकर झामापुकुर में रहे थे और घर घर में जाकर पूजा करते थे, उस समय कभी कभी नकुड़ वैष्णव की दुकान  में जाकर बैठते थे और आनन्द मनाते थे। [ He was a devotee of Gauranga and had a small shop which Sri Ramakrishna had often visited when he first came to Calcutta from Kamarpukur.

आजकल पानिहाटी में राघव पण्डित के महोत्सव के उपलक्ष्य में नकुड़ बाबाजी आकर प्रायः प्रतिवर्ष श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते हैं । नकुड़ वैष्णव भक्त थे । कभी कभी वे भी महोत्सव का भण्डारा देते थे। नकुड़ मास्टर के पड़ोसी थे । श्रीरामकृष्ण जिस समय झामापुकुर में थे, उस समय गोविन्द चटर्जी के मकान में रहते थे । नकुड़ ने मास्टर को वह पुराना मकान दिखाया था ।

[পেনেটীতে রাঘব পণ্ডিতের মহোৎসবে উপলক্ষে নকুড় বাবাজী ইদানীং ঠাকুরকে প্রায় বর্ষে বর্ষে দর্শন করিতেন। নকুড় ভক্ত বৈষ্ণব, মাঝে মাঝে তিনিও মহোৎসব দিতেন। নকুড় মাস্টারের প্রতিবেশী। ঠাকুর ঝামাপুকুরে যখন ছিলেন, গোবিন্দ চাটুজ্যের বাড়িতে থাকিতেন। সেই পুরাতন বাটী নকুড় মাস্টারকে দেখাইয়াছিলেন।

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*जगन्माता के नामकीर्तन के आनन्द में श्रीरामकृष्ण* 

श्रीरामकृष्ण भाव के आवेश में माँ जगदम्बा के गीत गा रहे हैं : 

१ )

 सदानन्दमयी काली, महाकालेर मनोमोहिनी। 



तूमि आपन सूखे आपनि नाचो, आपनि दाओ मा करतालि।।

आदिभूता सनातनी, शून्यरुपा शशीभाली। 

ब्रह्माण्ड छीलो ना जखोन (तुई) मुण्डमाला कोथाय पेलि। 

सबे मात्र तुमि जंत्री, आमरा तोमार तंत्रे चलि। 

जेमोन कोराओ तेमनि कोरि माँ, जेमोन बोलाओ तेमनि बोली।।

निर्गुणे कमलाकान्त दिये बोले मा गालागाली। 

सर्बनाशे धोरे आशी, धर्माधर्म दुटो खेलि।।

 সদানন্দময়ী কালী, মহাকালের মনোমোহিনী ৷

তুমি আপন সুখে আপনি নাচ, আপনি দাও মা করতালি ৷৷

আদিভূতা সনাতনী, শূন্যরূপা শশিভালি ৷

ব্রহ্মাণ্ড ছিল না যখন (তুই) মুণ্ডমালা কোথায় পেলি ৷৷

সবে মাত্র তুমি যন্ত্রী, আমরা তোমার তন্ত্রে চলি ৷

যেমন করাও তেমনি করি মা, যেমন বলাও তেমনি বলি ৷৷

নির্গুণে কমলাকান্ত দিয়ে বলে মা গালাগালি ৷

সর্বনাশী ধরে অসি ধর্মাধর্ম দুটো খেলি ৷৷

जिसका भावार्थ यह है - 

(१)“हे महाकाल की मनोमोहिनी सदानन्दमयी काली, माँ, तुम अपने आनन्द में आप ही नाचती हो और आप ही ताली बजाती हो । 

हे आदिभूते सनातनि, शून्यरुपे शशिभालिके, जिस समय ब्रह्माण्ड न था, उस समय तुझे मुण्डमाला कहाँ मिली ? 

एकमात्र तुम यन्त्री हो, हम सब तुम्हारे निर्देश पर चलते हैं । माँ, तुम जैसा कराती हो, वैसा ही करते हैं, जैसा कहलाती हो वैसा ही कहते हैं ।

 हे निर्गुणे, माँ, कमलाकान्त गाली देकर कहता है कि तुझ सर्वनाशिनी ने खड़ग धारण करके धर्म और अधर्म दोनों को नष्ट कर दिया है !” 

{O Kali, my Mother full of Bliss! Enchantress of the almighty Siva! In Thy delirious joy Thou dancest, clapping Thy hands together! Eternal One! Thou great First Cause, clothed in the form of the Void! Thou wearest the moon upon Thy brow. Where didst Thou find Thy garland of heads before the universe was made? Thou art the Mover of all that move, and we are but Thy helpless toys; We move alone as Thou movest us and speak as through us Thou speakest. But worthless Kamalakanta says, fondly berating Thee: Confoundress! With Thy flashing sword Thoughtlessly Thou hast put to death my virtue and my sin alike!

(२)



(आमार) मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।
आमि जानि गो माँ दीन-दयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा ।।

तुमि संध्या, तुमि गायत्री, तुमि जगदधात्री गो मा ।
तुमि अकूलेर त्राणकत्री, सदाशिवेर मनोरमा ।।

तुमि जले, तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो मा ।
आछो  सर्वघटे अक्षपुटे, साकार आकार निराकारा ।।


भावानुवाद  (भैरवी-एकताल )

(आमार) माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा ।

मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।

जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।

घट-घट में, आँखों की पुतली में - तू ही विराजे,  साकार आकार निराकारा ।।

तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ ।

भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।

[Lyrics Source:-http://vivek-jivan.blogspot.in/2012/03/8.html]

আমার মা ত্বং হি তারা, 

তুমি ত্রিগুণধরা পরাৎপরা।

আমি জানি মা ও দীন-দয়াময়ী, তুমি দুর্গমেতে দুখহরা ৷

তুমি সন্ধ্যা তুমি গায়ত্রী, তুমি জগধাত্রী, গো মা

তুমি অকুলের ত্রাণকর্ত্রী, সদাশিবের মনোরমা ৷

তুমি জলে, তুমি স্থলে, তুমি আদ্যমূলে গো মা

আছ সর্বঘটে অর্ঘ্যপুটে সাকার আকার নিরাকারা।

हे तारा, तुम ही मेरी माँ हो । तुम त्रिगुणधारा परात्परा हो । मैं जानता हूँ, माँ, कि तुम दीनों पर दया करने वाली और विपत्ति में दुःख को हरण करनेवाली हो । तुम सन्ध्या, तुम गायत्री, तुम जगद्धात्री हो । माँ, तुम असहाय को बचानेवाली तथा सदाशिव के मन को हरनेवाली हो । माँ, तुम जल में, थल में, और आदिमूल में विराजमान हो । तुम साकार रूप में सर्व घट में विद्यमान होते हुए भी निराकार हो ।” 

{Mother, Thou art our sole Redeemer,Thou the Support or the three gunas, Higher than the most high.Thou art compassionate, I know,Who takest away our bitter grief. Sandhya art Thou, and Gayatri;Thou dost sustain this universe.Mother, the Help art Thou , Of those that have no help but Thee,O Eternal Beloved of Siva! Thou art in earth, in water Thou; Thou liest at the root of all.In me, in every creature,Thou hast Thy home; though clothed with form,Yet art Thou formless Reality.

श्रीरामकृष्ण ने ‘माँ’ के और भी कुछ गीत गाये ।

३. गोलमाल में माल मिला हुआ है, गोल को छोड़ दो और माल चुनो।

४. मन चलो चलते हैं, और कोई काम नहीं है, वे भी उसी ......  तालुक के रे ! आदि 

      फिर भक्तों से कह रहे हैं, संसारियों (गृहस्थों)  के सामने केवल दुःख की बात ठीक नहीं । आनन्द चाहिए। जिनको अन्न का अभाव है, वे दो दिन उपवास भी कर सकते हैं, परन्तु खाने में थोड़ा विलम्ब होने पर जिन्हें दुःख होता है उनके पास केवल रोने की बातें, दुःख की बातें करना ठीक नहीं । 

“वैष्णवचरण कहा करता था, ‘केवल, पाप, पाप यह सब क्या है? आनन्द करो ।”

{ "It is not always best to tell householders about the sorrows of life. They want bliss. Those who suffer from chronic poverty can go without food for a day or two. But it is not wise to talk about the sorrows and miseries of life to those who suffer if their food is delayed a few minutes. Vaishnavcharan used to say: 'Why should one constantly dwell on sin? Be merry!'"

श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद विश्राम भी न कर सके थे कि मनोहर साँई गोस्वामी आ पधारे । 

श्रीराधा के भाव में महाभावमय श्रीरामकृष्ण । क्या श्रीरामकृष्ण गौरांग है ? 

गोस्वामी पूर्वराग का कीर्तन गा रहे हैं । थोड़ा सुनकर ही श्रीरामकृष्ण राधा के भाव में भावाविष्ट हो गए । पहले ही गौरचन्द्रिका-कीर्तन । “हथेली पर हाथ-चिन्तित गोरा-आज क्यों चिन्तित हैं? सम्भवतः राधा के भाव में भावित हुए हैं ।”  

गोस्वामी फिर गा रहे हैं- 

(भावार्थ)- “घड़ी में सौ बार, पल पल में घर से बाहर आती और फिर भीतर जाती है । कहीं पर भी मन नहीं लग रहा है, जोर जोर से श्वास चल रहा है, बार बार कदम्ब-कानन की ओर ताकती है । राधे, ऐसा क्यों हुआ ? 

संगीत की इसी पंक्ति को सुन श्रीरामकृष्ण की महाभाव की स्थिति हुई है ! उन्होंने अपनी कमीज को फाड़कर फेंक दिया । 

कीर्तनकार फिर गा रहे हैं- ‘तेरा अंग शीतल है .......’ 

कीर्तनकार का संगीत सुनते सुनते महाभाव में श्रीरामकृष्ण काँप रहे हैं ! केदार को देख वे कीर्तन के स्वर में कह रहे हैं, “प्राणनाथ, हृद्यवल्लभ, तुम लोग मुझे कृष्ण ला दो; यही तो मित्रता का काम है; या तो उन्हें ला दो और नहीं तो मुझे ले चलो; तुम लीगों की मैं चिरकाल के लिए दासी बनी रहूँगी ।” 

गोस्वामी कीर्तनिया श्रीरामकृष्ण के महाभाव की स्थिति को देखकर मुग्ध हुए हैं । वे हाथ जोड़कर कह रहे हैं, “मेरी विषयबुद्धि मिटा दीजिए ।”  

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- तुम उस साधु के सदृश हो जिसने पहले रहने की जगह ठीक कर, फिर शहर देखना शुरू किया । तुम इतने बड़े रसिक हो, तुम्हारे भीतर से इतना मीठा रस निकल रहा है । 

गोस्वामी- प्रभो, मैं चीनी का बोझ ढोनेवाला बैल हूँ, चीनी का आस्वादन कहाँ कर सका ? 

फिर कीर्तन होने लगा । कीर्तनकार श्रीमती राधिका की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं - “कोकिलकुल कुर्वती कलनादम् ।” कोकिल का कलनाद भी श्रीमती को वज्रध्वनि जैसा लग रहा है ।

   इसलिए वे जैमिनी का नाम उच्चारण कर रही हैं और कह रही हैं, ‘सखि, कृष्ण के विरह में यह प्राण नहीं रहेगा; इस देह को तमाल वृक्ष की शाखा पर रख देना ।’ 

गोस्वामी ने राधाश्याम का मिलन गाकर कीर्तन समाप्त किया । 

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