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रविवार, 23 मई 2021

$#$#$# परिच्छेद ~ 54 , [(23 सितम्बर, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Don't hate anyone ~ gangrene* [नित्यगोपाल बोस , (Nityagopal Basu) - ज्ञानानन्द अवधूत (Jnanananda Abadhuta)(1855 - 1911) 'कांकुरगांछी के योगोद्यान मठ' में ठाकुर का अस्थिकलश रखा गया था तब पॉँच -छः महीनों तक नित्यगोपाल उस कलश की पूजा-अर्चना रोजाना किये करते थे।*तुलसीदल और शक्ति का कट्टर उपासक गौरी पंडित (bigoted worshipper of Sakti)* ‘हा रे रे रे, निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ।’*हाजरा को उपदेश – घृणा व निन्दा छोड़ दो* तमोगुण को कुम्भकर्ण, रजोगुण को रावण और सतोगुण को विभीषण *श्रीरामकृष्ण की कर्मत्याग की अवस्था *शरीर में थोड़ा बल दो माँ ! जिससे आजीवन कैम्प जा सकूँ * *ईशान को उपदेश - "कलीयुग में वेदमत नहीं चलता - मातृभाव से साधना करो !*ठाकुर देव माँ काली के साथ बातचीत कैसे कर रहे हैं ? ^* विद्वान् पथः पुरएत ऋजु नेषति। विद्वान गण पुरोगामी होकर सरल पथ से मनुष्यों का नेतृत्व करें।* विद्वान भक्त लोग गगन में निबद्ध दृष्टि के समान विष्णु के उस परम पद को सदैव देखते रहते हैं* *लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-*(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे। (ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्। (ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे। अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज है। व्यक्त स्वयम्भू लिंग ब्रह्मा के पुष्कर क्षेत्र की सीमापर मेवाड़ का एकलिंग है।शरीर में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग है। अनाहत चक्र बाण लिंग है। आज्ञा चक्र में इतर लिंग है।शब्द लिंग-अव्यक्त शब्दों को व्यक्त अक्षरों द्वारा प्रकट करना भी लिंग (Lingua = language) है। #नंदी अनंत प्रतीक्षा के प्रतीक हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में #प्रतीक्षा को सबसे बड़ा गुण माना जाता है।भगवान #शिव की प्रतिमा में साथ साथ... अगर छाती से पेट का भाग देखें तो आपको #नंदी जी भी दिखेंगे।तस्मै नकाराय नमः शिवाय।१।दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय।५।# शंकर = शं + कं + रं। प्राण रूप-किसी भी पिण्ड में स्थित ब्रह्म ॐ है। "उमा" शब्द की व्याख्या :

 [(23 सितम्बर, 1883) परिच्छेद ~ 54, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद ~ 54*

*दक्षिणेश्वर में राम आदि भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ बैठे हैं । राखाल, मास्टर, राम, हाजरा आदि भक्तगण उपस्थित हैं । हाजरा महाशय बाहर के बरामदे में बैठे हैं । आज रविवार,23 सितम्बर 1883, भाद्रपदी कृष्ण सप्तमी है ।

नित्यगोपाल ^* , तारक आदि भक्तगण राम के घर पर रहते हैं । उन्होंने उन्हेंआदर-सत्कार के साथ रखा है। राखाल बीच बीच में अधर सेन के मकान पर जाया करते हैं । नित्यगोपाल सदा ही भाव में विभोर रहते हैं । तारक (स्वामी शिवानन्द ) की भी स्थिति अन्तर्मुखी है । आजकल वे लोगों से विशेष वार्तालाप नहीं करते ।

[नित्यगोपाल ^ * (1855 - 1911) [নিত্যগোপাল বসু — জ্ঞানানন্দ অবধূত] [नित्यगोपाल बोस , (Nityagopal Basu) - ज्ञानानन्द अवधूत (Jnanananda Abadhuta)(1855 - 1911) ]  आप श्री रामकृष्ण की कृपाप्राप्त भक्तों में से एक भक्त थे। रामचन्द्र दत्त और मनमोहन मित्र के चचेरे भाई थे।  तुलसीचरण दत्त (बाद में स्वामी निर्मलानंद) नित्यगोपाल के भगिना  हैं। कोलकाता के अहिरीटोला के प्रसिद्द 'बोस खानदान ' से सम्बन्धित थे , इनके पिता का नाम जन्मेजय और माता का नाम गौरी देवी था। नित्यगोपाल भी यदा-कदा रामचन्द्र दत्त के साथ श्री ठाकुरदेव का दर्शन करने आया करते थे। वे सदैव भगवतभाव में डूबे रहते थे। श्री रामकृष्ण ने उनकी आध्यात्मिक अवस्था को देखकर उन्हें बहुत प्रेम करते थे।  ठाकुर उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों  को देखकर उन्हें 'परमहंस -अवस्था ' प्राप्त कहते  थे। ठाकुर उनके सम्बन्ध में कहा करते थे कि कठोर-साधना किये बिना ही उन्हें आध्यात्मिक अनुभूतियां प्राप्त होती रहती थी। नित्यगोपाल की मानसिकता अलग प्रकार की होने के कारण श्रीरामकृष्ण अपने निष्ठावान भक्तों को  उनके साथ घुलने-मिलने से मना करते थे। वे कहते थे, ''उसके विचार अलग प्रकार के हैं -His thoughts are different, वह यहां का  आदमी नहीं है"। ठाकुर के देहत्याग करने के बाद , उनके अस्थि-कलश को जब 'कांकुरगांछी के योगोद्यान मठ' में रखा गया था तब पॉँच -छः महीनों तक नित्यगोपाल  उस कलश की पूजा-अर्चना रोजाना किये करते थे। उन दिनों  नित्यगोपाल दिन का अधिकांश समय ध्यान करने में व्यतीत करते थे। उन्होंने बाद में  113 न ०  रासबिहारी एवेन्यू (Rasbihari Avenue.) में 'महानिर्वाण  मठ' की स्थापना की थी और 'Jnanananda Abadhut'.'ज्ञानानंद अवधूत' का नाम ग्रहण कर लिया था । उन्होंने  पानीहाटी में उनके द्वारा स्थापित एक और मठ को 'कैवल्य  मठ' कहा जाता था। उनके द्वारा रचित  25 पुस्तकों में से कुछ का अनुवाद अंग्रेजी में भी  किया गया है।]

[ नरेंद्र के विषय में  - श्री रामकृष्ण के विचार ]

श्रीरामकृष्ण अब नरेन्द्र की बात कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (एक भक्त के प्रति)- आजकल नरेन्द्र तुम्हें भी ‘लाईक’ (like-पसन्द) नहीं करता । (मास्टर के प्रति) अधर के घर पर तो नरेन्द्र आया नहीं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (একজন ভক্তের প্রতি) — নরেন্দ্র তোমাকেও লাইক্‌ করে না। (মাস্টারের প্রতি) কই, অধরের বাড়ি নরেন্দ্র এল না কেন?

MASTER (to a devotee): "Narendra doesn't like even you, nowadays. (To M.) Why didn't he come to see me at Adhar's house?]

“ एक साथ ही नरेन्द्र में कितने गुण हैं । गाने-बजाने में, लिखने-पढ़ने में, सभी में प्रवीण है । उस दिन यहाँ से कप्तान की गाड़ी से जा रहा था । गाड़ी में कप्तान भी बैठे थे । उन्होंने उससे अपने पास बैठने के लिए कितना कहा । पर नरेन्द्र अलग ही जाकर बैठा; कप्तान की ओर ताक कर देखा तक नहीं ।

[“একাধারে নরেন্দ্রের কত গুণ! গাইতে, বাজাতে, লেখাপড়ায়! সেদিন কাপ্তেনের গাড়িতে এখান থেকে যাচ্ছিল; কাপ্তেন অনেক করে বললে, তার কাছে বসতে। নরেন্দ্র ওধারে গিয়ে বসল; কাপ্তেনের দিকে ফিরে চেয়েও দেখলে না।”

"How versatile Narendra is! He is gifted in singing, in playing on instruments, and in studies. He is independent and doesn't care about anybody. The other day he was returning to Calcutta with Captain in his carriage. Captain begged Narendra to sit beside him, but he took a seat opposite. He didn't even look at Captain.] 

*तुलसीदल और शक्ति का कट्टर उपासक गौरी पंडित

“केवल पाण्डित्य से क्या होगा? साधन-भजन चाहिए, इन्देश का गौरी पण्डित शाक्त विद्वान था और साधक भी । पहले वह शक्ति का कट्टर साधक ( bigoted worshipper of Shakti) था । माँ के भाव में कभी कभी पागल हो जाता था । बीच बीच में कह उठता था, हा रे रे रे, निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ।’* उस समय सब पण्डित निष्प्रभ हो जाते थे । मैं भी भावाविष्ट हो जाता था । मेरा भोजन देखकर पूछता, ‘तुमने भैरवी लेकर साधना की है ?’

[**देवी अपराध क्षमा स्तोत्र : - देव्यपराध क्षमापन स्तोत्र आद्य शंकराचार्य के द्वारा रचित स्तोत्र है जो देवी भगवती को समर्पित है, "  परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि। इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि ! कं यामि शरणम्॥५॥ गणेशजी को जन्म देनेवाली, हे माता पार्वती ! [ अन्य देवताओंकी आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकार की सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिये पचासी वर्ष से अधिक अवस्था बीत जाने पर मैंने देवताओं को छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा - पूजा मुझ से नहीं हो पाती ; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है । इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्ब रहित होकर किसकी शरणमें जाऊँगा ॥५॥] 

[“শুধু পাণ্ডিত্যে কি হবে? সাধন-ভজন চাই। ইঁদেশের গৌরী — পণ্ডিতও ছিল, সাধকও ছিল। শাক্ত-সাধক; মার ভাবে মাঝে মাঝে উন্মত্ত হয়ে যেত! মাঝে মাঝে বলত, ‘হা রে রে, রে নিরালম্ব লম্বোদরজননি কং যামি শরণম্‌?’ তখন পণ্ডিতেরা কেঁচো হয়ে যেত। আমিও আবিষ্ট হয়ে যেতুম। আমার খাওয়া দেখে বলত, তুমি ভৈরবী নিয়ে সাধন করেছ?"

What can a man achieve through mere scholarship? What is needed is prayer and spiritual discipline. Gauri of Indesh was both a scholar and a devotee. He was a worshipper of the Divine Mother. Now and then he would be overpowered with spiritual fervour. When he chanted a hymn to the Mother, the pundits would seem like earth-worms beside him. I too would be overcome with ecstasy.

“एक कर्ताभजा सम्प्रदाय के पण्डित ने निराकार की व्याख्या करते हुए कहा, ‘निराकार अर्थात् नीर का आकार !’ यह व्याख्या सुनकर गौरी बहुत क्रुद्ध हुआ ।

[“একজন কর্তাভজা নিরাকারের ব্যাখ্যা করলে। নিরাকার অর্থাৎ নীরের আকার! গৌরী তাই শুনে মহা রেগে গেল।

“पहले-पहल कट्टर शाक्त था; तुलसी का पत्ता ^  दो लकड़ियों के सहारे उठाता था – छूता न था ! (सभी हँसे ।) इसके बाद घर गया । घर से लौट आने के पश्चात् फिर वैसा नहीं करता था ।

[“প্রথম প্রথম একটু গোঁড়া সাক্ত ছিল; তুলসীপাতা দুটো কাঠি করে তুলত — ছুঁত না (সকলের হাস্য) — তারপর বাড়ি গেল; বাড়ি থেকে ফিরে এসে আর অমন করে নাই।

^तुलसी दल पवित्र है ,विष्णु को अत्यन्त प्रिय हैं।  खासकर भगवान विष्णु व कृष्ण पूजन इसके बिना संपूर्ण नहीं माना जाता। तुलसीदल कभी बासी नहीं माना जाता, न ही ये किसी चीज से अपवित्र होता है।  पूजा में कभी भी तुलसी के पत्ते और गंगाजल को बासी नहीं माना जाता। लेकिन शक्ति का कट्टर उपासक विष्णु से जुड़ी हर चीज से नफरत करता है, और शाक्त लोग इसके विपरीत।

These leaves are sacred to Vishnu. The bigoted worshipper of Sakti hates everything associated with Vishnu, and vice versa.

“मैंने कालीमन्दिर के सामने एक तुलसी का पौधा लगाया था । पर कुछ समय में वह सूख गया । कहते हैं, जहाँ पर बकरों की बलि होती है, वहाँ पर तुलसी नहीं रहती ।” 

[“প্রথম প্রথম একটু গোঁড়া সাক্ত ছিল; তুলসীপাতা দুটো কাঠি করে তুলত — ছুঁত না (সকলের হাস্য) — তারপর বাড়ি গেল; বাড়ি থেকে ফিরে এসে আর অমন করে নাই।" “আমি একটি তুলসীগাছ কালীঘরের সম্মুখে পুঁতেছিলাম; মরে গেল। পাঁঠা বলি যেখানে হয়, সেখানে নাকি হয় না!

*तमोगुण- कुम्भकर्णरजोगुण- रावण और सतोगुण - विभीषण*

“गौरी सभी बातों की सुन्दर व्याख्या करता था । रावण के दस शिरों के बारे में कहता था, दस इन्द्रियाँ! तमोगुण को कुम्भकर्ण, रजोगुण को रावण और सतोगुण को विभीषण कहता था । इसीलिए विभीषण ने राम को प्राप्त किया था ।”

[“গৌরী বেশ সব ব্যাখ্যা করত। ‘এ-ওই!’ ব্যাখ্যা করত — এ শিষ্য! ওই তোমার ইষ্ট! আবার রাবণের দশমুণ্ড বলত, দশ ইন্দ্রিয়। তমোগুণে কুম্ভকর্ণ, রজোগুণে রাবণ, সত্ত্বগুণে বিভীষণ। তাই বিভীষণ রামকে লাভ করেছিল।”

गौरी पंडित ‘এ-ওই!’,* ‘A-Oi!’ की व्याख्या करते हुए कहता था -'यह' (this) शिष्य ! है, और 'वह' (That) तुम्हारे इष्ट (अभिलषित वस्तु) ! } 

[राम, तारक और नित्यगोपाल]

श्रीरामकृष्ण मध्यान्ह के भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं । कलकत्ते से राम, तारक (स्वामी शिवानन्द) आदि भक्तगण आकर उपस्थित हुए । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वे जमीन पर बैठ गए । मास्टर भी जमीन पर बैठे हैं । राम कह रहे हैं, ‘हम लोग मृदंग बजाना सीख रहे हैं ।”

श्रीरामकृष्ण (राम के प्रति)- नित्यगोपाल ने भी कुछ सीखा है ?

राम- जी नहीं, वह कुछ ऐसा ही मामूली बजा सकता है ।

श्रीरामकृष्ण- और तारक ?

राम- वह अच्छा बजा सकेगा ।

श्रीरामकृष्ण- तो फिर वह मुँह उतना नीचा किए न रहेगा । किसी दूसरी ओर मन अधिक लगा देने पर फिर ईश्वर पर उतना नहीं रह जाता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাহলে আর অত মুখ নিচু করে থাকবে না; একটা দিকে খুব মন দিলে ঈশ্বরের দিকে তত থাকে না।

"Then he won't keep his eyes on the ground so much. If the mind is much directed to something else, it doesn't dwell deeply on God."दादा ने होमियोपैथी सीखने से मना किया था ?]

राम- मैं समझता हूँ, मैं जो सीख रहा हूँ, वह केवल संकीर्तन के लिए है ।

[রাম — আমি মনে করি, আমি যে শিখছি, কেবল সংকীর্তনের জন্য।

RAM: "I have been studying the drum only to accompany the kirtan."]

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- सुना है तुमने गाना सीखा है ?

मास्टर(हँसकर)- जी नहीं, यों ही ऊँ आँ करता हूँ । 

[ मेरा अपना भाव -The song expresses my ideal perfectly.] 

श्रीरामकृष्ण- तुम वह गाना जानते हो ? जानते हो ? जानते हो तो गाओ न । ‘आर काज नाइ ज्ञानविचारे, दे माँ पागल करे ।’* (*‘अब मुझे ज्ञान-विचार से कुछ लेनादेना नहीं है; हे माँ, मुझे तू पागल बना दे ।’)

(শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ওটা অভ্যাস আছে? থাকে তো বল না। “আর কাজ নাই জ্ঞান-বিচারে, দে মা পাগল করে।”

देखो, यही मेरा असली भाव है ।

[“দেখ, ওইটে আমার ঠিক ভাব।”

 "Have you practised that song: "O Mother, make me mad with Thy love'? If you have, please sing it. The song expresses my ideal perfectly."

*हाजरा को उपदेश – घृणा व निन्दा छोड़ दो*

हाजरा महाशय कभी कभी किसी के सम्बन्ध में घृणा प्रकट करते थे ।

[ হাজরা মহাশয় কারু কারু সম্বন্ধে ঘৃণা প্রকাশ করিতেন।

The conversation turned to Hazra's hatred for certain people, which Sri Ramakrishna did not like.

श्रीरामकृष्ण (राम आदि भक्तों के प्रति)- कामारपुकुर में किसी मकान पर मैं अक्सर जाया करता था । उस घर के लड़के मेरी ही बराबरी के थे, वे लड़के उस दिन यहाँ आए थे और दो-तीन दिन रहे भी । हाजरा की तरह उनकी माँ भी सब से घृणा करती थी । अन्त में उसके पैर में न जाने क्या (gangrene) हो गया । पैर सड़ने लगा । कमरे में इतनी दुर्गन्ध हुई कि लोग अन्दर तक नहीं जा सकते थे ।

“इसीलिए मैंने हाजरा से यह बात कही और उसे चेतावनी दे दी कि किसी की निन्दा न करो ।” 

 [শ্রীরামকৃষ্ণ (রাম প্রভৃতি ভক্তদের প্রতি) — ও-দেশে একজনের বাড়ি প্রায় সর্বদাই গিয়ে থাকতাম; তারা সমবয়সী; তারা সেদিন এসেছিল; এখানে দু-তিনদিন ছিল। তাদের মা ওইরূপ সকলকে ঘৃণা করত। শেষে সেই মার পায়ের খিল কিরকম করে খুলে গেল আর পা পচতে লাগল। ঘরে এত পচা গন্ধ হল যে, লোকে ঢুকতে পারত না।

"I used frequently to visit a certain house at Kamarpukur. The boys of the family were of my age. The other day they came here and spent two or three days with me. Their mother, like Hazra, used to hate people. Then something happened to her foot, and gangrene set in. On account of the foul smell, no one could enter her room. I told the incident to Hazra and asked him not to hate anyone."

दिन के चार बजे का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण मुँह-हाथ धोने के लिए झाऊतल्ले की ओर गए । उनके कमरे के दक्षिणपूर्ववाले बरामदे में दरी बिछायी गयी । श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले से लौटकर उस पर बैठे । राम आदि उपस्थित हैं । अधर सेन जाति के सुनार हैं । उनके घर राखाल ने अन्नग्रहण कर लिया, इसलिए रामबाबू ने कुछ कहा है । अधर परम भक्त हैं । यही बातें हो रही हैं

एक भक्त हँसी हँसी में सुनारों में से किसी किसी के स्वभाव का वर्णन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं – स्वयं कोई राय प्रकट नहीं कर रहे हैं ।(শ্রীরামকৃষ্ণ হাসিতেছেন, নিজে কোন মত প্রকাশ করিতেছেন না।)

*श्रीरामकृष्ण की कर्मत्याग की अवस्था * 

सायंकाल हुआ । आँगन में उत्तर-पश्चिम के कोने में श्रीरामकृष्ण खड़े हैं, वे समाधिस्थ हैं । काफी देर बाद उनका मन बाह्य जगत् में लौटा । श्रीरामकृष्ण की कैसी अद्भुत स्थिति है ! आजकल प्रायः समाधिमग्न रहते हैं । थोड़े ही उद्दीपन से बाह्यज्ञानशून्य हो जाते हैं । जब भक्तगण आते हैं, तब थोड़ा वार्तालाप करते हैं; अन्यथा सदा ही अन्तर्मुख रहते हैं । अब पूजा, जप आदि नहीं कर सकते ।

[In those days the Master remained almost always in an ecstatic state. He would lose consciousness of the world at the slightest suggestion from outside. But for scant conversation with visiting devotees, he remained in an indrawn mood and was unable to perform his daily worship and devotions.

समाधि भंग होने के बाद खड़े खड़े ही जगन्माता के साथ बातचीत कर रहे हैं । कह रहे हैं, “माँ, पूजा गयी, जप गया । देखना माँ ! कहीं जड़ न बना डालना । सेव्यसेवक-भाव में रखना माँ, जिससे बात कर सकूं, तुम्हारा नाम-गुण – संकीर्तन और गान कर सकूं । और शरीर में थोड़ा बल दो माँ ! जिससे थोड़ा चल फिर सकूँ, जहाँ पर तुम्हारी कथा होती हो, जहाँ पर तुम्हारे भक्तगण हों, उन स्थानों में जा सकूँ ।”

[সমাধি ভঙ্গের পর দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়াই জগন্মাতার সহিত কথা কহিতেছেন। বলিতেছেন, “মা! পূজা গেল, জপ গেল,১ দেখো মা, যেন জড় করো না! সেব্য-সেবকভাবে রেখো। মা, যেন কথা কইতে পারি। যেন তোমার নাম করতে পারি, আর তোমার নামগুণকীর্তন করব, গান করব মা! আর শরীরে একটু বল দাও মা! যেন আপনি একটু চলতে পারি; যেখানে তোমার কথা হচ্ছে, যেখানে তোমার ভক্তরা আছে, সেই সব জায়গায় যেতে পারি।”

Coming down to the relative world, he began to talk to the Divine Mother, still standing where he was. "O Mother," he said, "worship has left me, and japa also. Please see, Mother, that I do not become an inert thing. Let my attitude toward God be that of the servant toward the master. O Mother, let me talk about Thee and chant Thy holy name. I want to sing Thy glories. Give me a little strength of body that I may move about, that I may go to places where Thy devotees live, and sing Thy name."

श्रीरामकृष्ण ने आज प्रातःकाल कालीमन्दिर में जाकर जगन्माता के श्रीचरणकमलों पर पुष्पांजलि अर्पण की है । वे फिर जगन्माता के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘माँ, आज सबेरे चरणों में दो फूल चढ़ाए । सोचा, अच्छा हुआ, फिर बाह्य पूजा की ओर मन जा रहा है ! पर माँ, फिर ऐसा क्यों हुआ ? फिर जड़ की तरह क्यों बना डाल रही हो ?”

[শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন। মা আজ সকালে তোমার চরণে দুটো ফুল দিলাম; ভাবলাম; বেশ হল, আবার (বাহ্য) পূজার দিকে মন যাচ্ছে; তবে মা, আবার এমন হল কেন? আবার জড়ের মতো কেন করে ফেলছ!

[Continuing, the Master said: O Mother, I offered flowers at Thy feet this morning. I thought: 'That is good. My mind is again going back to formal worship.' Then why do I feel like this now? Why art Thou turning me into a sort of inert thing?"

भाद्रपद कृष्णा सप्तमी । अभी तक चन्द्रमा का उदय नहीं हुआ । रात्रि तमसाच्छन्न है । श्रीरामकृष्ण अभी भावाविष्ट हैं, इसी स्थिति में अपने कमरे के छोटे तख्त पर बैठे । फिर जगन्माता के साथ बात कर रहे हैं।

*ईशान को उपदेश - "कलीयुग में वेदमत नहीं चलता - मातृभाव से साधना करो !*

अब सम्भवतः भक्तों के सम्बन्ध में माँ से कुछ कह रहे हैं । ईशान मुखोयाध्याय की बात कह रहे हैं । ईशान में कहा था, ‘मैं भाटपाड़ा में जाकर गायत्री का पुरश्चरण करूँगा ।’ श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था कि कलियुग में वेदमत नहीं चलता; जीव अन्नगतप्राण है, आयु कम है, देहबुद्धि, विषयबुद्धि सम्पूर्ण नष्ट नहीं होती । इसीलिए ईशान को मातृभाव से तन्त्रमत के अनुसार साधना करने का उपदेश दिया था, और ईशान से कहा था, ‘जो ब्रह्म हैं, वही माँ, वही आद्याशक्ति हैं ।’

[এইবার বুঝি ভক্তদের বিষয়ে মাকে কি বলিতেছেন। ঈশান মুখোপাধ্যায়ের কথা বলিতেছেন। ঈশান বলিয়াছিলেন, আমি ভাটপাড়ায় গিয়া গায়ত্রীর পুরশ্চরণ করিব। শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁকে বলিয়াছিলেন যে, কলিকালে বেদমত চলে না। জীবের অন্নগত প্রাণ, আয়ু কম, দেহবুদ্ধি, বিষয়বুদ্ধি একেবারে যায় না। তাই ঈশানকে মাতৃভাবে তন্ত্রমতে সাধন করিতে উপদেশ দিয়াছিলেন। আর ঈশানকে বলেছিলেন, যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই মা, তিনিই আদ্যাশক্তি।

The previous day Sri Ramakrishna had discouraged Ishan about Vedic worship, saying that it was not suitable for the Kaliyuga. He had asked Ishan to worship God as the Divine Mother.

श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट होकर कह रहे हैं, “फिर गायत्री का पुरश्चरण ! इस छत पर से उस छत पर कूदना । किसने उससे ऐसी बात कही है? अपने ही मन से कर रहा है । अच्छा, थोड़ा पुरश्चरण करेगा।”

[ "Why this special discipline of the Gayatri? Why this jumping from this roof to that? . . . Who told him to do it? Perhaps he is doing it of his own accord. . . . Well, he will practise a little of that discipline."

(मास्टर के प्रति)- “अच्छा, मुझे यह सब क्या वायु के विकार से होता है अथवा भाव से ?”

मास्टर विस्मित होकर देख रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण जगन्माता के साथ इस प्रकार बातचीत कर रहे हैं । वे विस्मित होकर देख रहे हैं, ईश्वर हमारे अति निकट, बाहर तथा भीतर हैं । अत्यन्त निकट हुए बिना श्रीरामकृष्ण धीरे धीरे उनके साथ बातचीत कैसे कर रहे हैं ? ^* 

[(মাস্টারের প্রতি) — “আচ্ছা আমার এ-সব কি বাইয়ে, না ভাবে?” মাস্টার অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন যে, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ জগন্মাতার সঙ্গে এইরূপ কথা কহিতেছেন। তিনি অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন! ঈশ্বর আমাদের অতি নিকটে, বাহিরে আবার অন্তরে। অতি নিকটে না হলে শ্রীরামকৃষ্ণ চুপি চুপি তাঁর সঙ্গে কেমন করে কথা কচ্ছেন।২

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[श्रीरामकृष्ण देव धीरे धीरे माँ जगदम्बा के  साथ बातचीत ? ^* "तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥" (सूरयः) धार्मिक विद्वान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो ( विष्णोः या विष्णु = सर्वत्र व्यापनशील परमात्मा, श्रीठाकुर देव) व्यापक आनन्दस्वरुप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद है (तत्) उसको सदा सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा, ज्ञानी और प्रेमी भक्तजन अपनी आत्मा में निरन्तर  (पश्यन्ति) दर्शन करते रहते  हैं॥ (ऋग्वेद 1.22.20/ गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद्, २७)
भावार्थ :- हे सर्वत्र व्यापनशील विष्णु परमात्मा ! आपका जो अत्यन्त उत्कृष्ट पद सबके जानने योग्य है जिसको प्राप्त होकर जीव लोग पूर्णानन्द में रहते हैं और फिर वहाँ शीघ्र दुःख में नहीं घिरते हैं उस पद को सूरयः ( विद्वान, ब्रह्मविद, जितेन्द्रिय, योगी लोग ) प्राप्त करते हैं ( अनुभव करते हैं )। इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे साधारण मनुष्य सूर्य के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं। वैसे ही विद्वान् (ब्रह्मविद) लोग निर्मल विज्ञान से विद्या वा श्रेष्ठ विचारयुक्त शुद्ध अपने आत्मा में जगदीश्वर को सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। 
  ज्ञानीजन विश्वव्यापी भगवान् विष्णु के परमपद को द्युलोक में व्याप्त दिव्य प्रकाश की भाँति देखते हैं।।- "The wise and true seekers realize the lord through meditation within their own self. They see Him vividly as the eye ranges over the sky. 
विद्वान् पथः पुरएत ऋजु नेषति।-ऋग्वेद। मार्ग का  विद्वान गण पुरोगामी होकर सरल पथ से मनुष्यों का नेतृत्व करें। [ पथः = मार्ग का विद्वान् = जानने वाला पुरएतः ... नेता ऋजु = सीधा नेषति = ले-चलेगा।]
ज्ञान रूप में गुरु-शिष्य परम्परा का प्रतीक वट है। जैसे वट वृक्ष की शाखा जमीन से लग कर अपने जैसा वृक्ष बनाता है, उसी प्रकार गुरु (नेता /जीवनमुक्त शिक्षक) अपना ज्ञान देकर शिष्य को अपने जैसा मनुष्य बनाता है।

" यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय । 
    दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय !"  

*लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-*
" मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । 
सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि । 
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥
(योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)

(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे :- जिस मूल स्वरूप में वस्तु लीन होती है तथा उसी से पुनः उत्पन्न होती है, वह स्वयम्भू लिंग है। यह एक ही है।
(ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्-जिस दिशा में गति है वह बाण लिंग है। बाण चिह्न द्वारा गति की दिशा भी दिखाते हैं। ३ आयाम का आकाश है, अतः बाण लिंग ३ हैं। 
 (ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे-जिस बाहरी रूप या आवरण में वस्तु है वह इतर (other) लिंग है। यह अनन्त प्रकार का है, पर १२ मास में सूर्य की १२ प्रकार की ज्योति के अनुसार इसे १२ ज्योतिर्लिंगों में विभक्त किया गया है। 
आकाश में विश्व का मूल स्रोत अव्यक्त लिंग है, ब्रह्माण्डों के समूह के रूप में व्यक्त स्वयम्भू लिंग है। ब्रह्माण्ड या आकाशगंगा से गति का आरम्भ होता है, अतः यह बाण-लिंग है। सौर मण्डल में ही विविध सृष्टि होती है अतः यह इतर लिंग है।
भारत में अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज है, जो जगन्नाथ धाम की सीमा है। वेद में उषा सूक्त में पृथ्वी परिधि का १/२ अंश = ५५.५ कि.मी. धाम है, जगन्नाथ मन्दिर से उतनी दूरी पर एकाम्र क्षेत्र तथा लिंगराज है। व्यक्त स्वयम्भू लिंग ब्रह्मा के पुष्कर क्षेत्र की सीमापर मेवाड़ का एकलिंग है। त्रिलिंग क्षेत्र तेलंगना है, जो अब नया राज्य बना है। जनमेजय काल में यह त्रिकलिंग का भाग था। १२ ज्योतिर्लिंग भारत के १२ स्थानों में हैं।
शरीर में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग है क्योंकि यहां के अंगों से प्रजनन होता है। शरीर के भीतर श्वास और रक्त सञ्चार हृदय के अनाहत चक्र से होते हैं अतः यह बाण लिंग है। विविध वस्तुओं का स्वरूप आंख से दीखता  है तथा मस्तिष्क द्वारा बोध होता है, अतः इसके आज्ञा चक्र में इतर लिंग है। 
योनिस्थं तत्परं तेजः स्वयम्भू लिङ्ग संस्थितम् । परिस्फुरद् वादि सान्तं चतुर्वर्णं चतुर्दलम् । कुलाभिधं सुवर्णाभं स्वयम्भू लिङ्ग संगतम् । हृदयस्थे अनाहतं नाम चतुर्थं पद्मजं भवेत् । पद्मस्थं तत्परं तेजो बाण लिङ्गं प्रकीर्त्तितम् । आज्ञापद्मं भ्रुवो र्मध्ये हक्षोपेतं द्विपत्रकम् । तुरीयं तृतीय लिङ्गं तदाहं मुक्तिदायकः । (शिवसंहिता, पटल ५)
शब्द लिंग-अव्यक्त शब्दों को व्यक्त अक्षरों द्वारा प्रकट करना भी लिंग (Lingua = language) है। लिंग पुराण में अलग अलग उद्देश्यों के लिये अलग अलग लिपियों का उल्लेख है-
वर्णाः षडधिकाः षष्टिरस्य मन्त्रवरस्य तु । 
पञ्च मन्त्रास्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान् हरिः ॥८८॥ 
(लिङ्ग पुराण १/१७)
गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये। कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर=अवकहडा चक्र + ॐ)यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि। साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।

#नंदी अनंत प्रतीक्षा के प्रतीक हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में #प्रतीक्षा को सबसे बड़ा गुण माना जाता है। जिसे हम बस बैठना और इंतजार करना समझते हैं,वह वास्तविक रूप से ध्यान है।नंदी यह उम्मीद नहीं कर रहे हैं कि#महादेव कल बाहर आएंगे। वे  सदैव प्रतीक्षा करेंगे।
जब भी हम किसी शिव मंदिर जाते हैं तो अक्सर देखते हैं कि कुछ लोग शिवलिंग के सामने बैठे नंदी के कान में अपनी मनोकामना कहते हैं। ये एक परंपरा बन गई है। इस परंपरा के पीछे की वजह एक मान्यता है। मान्यता है कि नंदी भगवान शिव के परम भक्त हैं। जब भी कोई व्यक्ति शिव मंदिर में आता है तो वह नंदी के कान में अपनी मनोकामना कहता है। इसके पीछे मान्यता है कि भगवान शिव तपस्वी हैं और वे हमेशा समाधि में रहते हैं। ऐसे में उनकी समाधि और तपस्या में कोई विघ्न ना आए। इसलिए नंदी ही हमारी मनोकामना शिवजी तक पहुंचाते हैं। इसी मान्यता के चलते लोग नंदी को लोग अपनी मनोकामना कहते हैं। 


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वैद्यनाथेश्वर मंदिर 🚩 कर्नाटक

 हमारे शिल्पकारों में इतना कौशल था कि उन्होंने भगवान #शिव की प्रतिमा में साथ साथ... अगर छाती से पेट का भाग देखें तो आपको #नंदी जी भी दिखेंगे।
# दिगम्बर-ज्ञान अव्यक्त होता है अतः शिव को दिगम्बर कहा गया है। क्रिया व्यक्त होती है-उसमें भीतरी गति कृष्ण तथा बाह्य गति जो दीखती है वह शुक्ल है। अतः क्रिया या यज्ञ रूप विष्णु का शरीर कृष्ण पर उनका वस्त्र श्वेत है। हम ज्ञान या क्रिया रूप की ही उपासना करते हैं ( २ प्रकार की निष्ठा), पदार्थ रूप ब्रह्म की नहीं। अतह शैव और वैष्णव के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर मार्ग जैन धर्म में हैं।
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्। (गीता ३/३)
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय।१।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय।५। (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥ (विष्णु स्तोत्र)
 # शंकर = शं + कं + रं। प्राण रूप-किसी भी पिण्ड में स्थित ब्रह्म ॐ है। प्राण रूप में गति होने पर वह रं है। उसके कारण क्रिया होने पर वह कं (कर्त्ता) है। शान्त अवस्था शं है जिसमें सृष्टि बनी रहती है। तीनों का समन्वय है शंकर = शं + कं + रं। ब्रह्म को ॐ तत्सत् कहते हैं (गीता १७/२३), ॐ गतिशील होने पर रं है। व्यक्ति का निर्देश (तत्) नाम से होता है अतः व्यक्ति के प्राण निकलने पर उसे ॐ तत्सत् के स्थान पर राम (रं)-नाम सत् कहते हैं। प्राणो वै रं प्राणे हीमानि भूतानि रमन्ते। (बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१) प्राणो वै वायुः। (मैत्रायणी उपनिषद् ६/३३)ॐ तत्सदिति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता १७/२३)

[साभार ૐ~ शिव - तांडव ~ૐ https://www.facebook.com/ShivTandav/posts/1905138832893636/]
"उमा" शब्द की व्याख्या :  आचार्य शङ्कर कहते कि" उमा " ओंकार ही है । यह शक्ति और सर्वोच्च वैश्विक ऊर्जा है, जिसे शिवसूत्र में 'परब्रह्म की इच्छा शक्ति उमा कुमारी'  हैमवती (“Daughter of the snow-capped one”).कहा गया है। जैसे " हैमवती उमा" के द्वारा, देवताओं को  'यक्ष' का पता चला , कि वे कौन थे ?  वैसे ही ओंकार के द्वारा परमात्मा का पता चलता है क्योंकि उमा ही ओंकार रूप है । है परमेश्वर अपने स्वरूप में , परन्तु ओंकार की मूर्ति में ज्ञात हो जाता है। जैसे इन्द्र को यह ज्ञान हुआ कि परमेश्वर की शक्ति से ही सब देवता शक्ति वाले बने हैं , वैसे ही यहाँ कह रहे हैँ " सर्व देवाः शंविवन्ति इतिविष्णुः " सुर्य चन्द्रादि जो बाह्य देवता हैं आँख , कान ,नाक आदि जो अन्दर के ज्ञान - देवता हैं ,सारे ओंकार स्वरूप जो परमात्मा है उसका ध्यान करने पर उसका ज्ञान करा देते हैं इसलिए विष्णु कहा ।
 उमा शब्द को यदि आप देखें तो इसमें तीन अक्षर हैं -" उ " , " म " और " अ " ॐ में भी यही तीन शब्द है " अ " , " उ " और " म !" ॐ के बारे में विचार आता है कि किस अवस्था में इसका उच्चारण करें , कौन उच्चारण करे , कैसे करे? परन्तु " उमा " का उच्चारण करने में कोई विचार करने की जरूरत नहीं है । " उमा " कोई भी बोल सकता है । जब लगातार आप बोलेंगे " उ " - " म" - " अ " , " उ" - " म " - " अ" तो " अ " - " उ " - " म " यों" ॐ " हो जाएगा. अतः " उमा " का उच्चारण करने से ॐ हो जाता है । 
मानव मात्र के लिए किसी भी लौकिक सुख के ऊपर ब्रह्मानंद होता है, जो उसे कुंडलिनी जागरण से प्राप्त होता है, तब वह धन्य हो जाता है। ऐसा आत्मज्ञानी व्यक्ति जीवनमुक्त होकर ब्रह्म से तादात्म्य करता है और इसके फलस्वरूप वसंत ऋतु के समान लोकहित करता हुआ दूसरों को भी तारता रहता है।--[रघोत्तम शुक्ल]

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो

वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।

तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्

अहेतुनान् यानपि तारयन्तः ॥

( विवेक-चूड़ामणि /३७)

37. ‘‘इस संसार में भयंकर भवसागर से स्वयं तरे हुए और निःस्वार्थ भाव से दूसरों को भी तारते हुए वसंत ऋतु के समान लोक का हित करते हुए शांतचित्त महात्मा संत निवास करते हैं।’’

तेज लहरों की मार और तेज भंवरों भरे संसार सागर से स्वयं पार पा चुके तथा अन्य लोगों को भी बिना किसी कारण ही तारने वाले तथा लोकहित का आचरण करते हुए भी अति शांत महापुरुष ऋतुराज वसंत के समान इस संसार में निवास करते हैं।

There are good souls, calm and magnanimous, who do good to others as does the spring, and who, having themselves crossed this dreadful ocean of birth and death, help others also to cross the same, without any motive whatsoever. ​Nature of great masters :- Like the arrival of spring, in their presence everything changes.  On the surface there are waves but in the deep ocean there are no waves there is only peace. Similarly, the teacher who has deep understanding doesn’t get disturbed by the waves of the relative world. Suffering happens when we live at the periphery of the personality. Move towards the centre. Although they are living in this, but they have transcended this relative world. They are always happy to help without asking for anything in return. For e.g. flower and fragrance, likewise mahatma and knowledge. 

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