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मंगलवार, 18 मई 2021

$$$$$ परिच्छेद ~ 44, [(hot? जून, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Leader removes all doubts!* *छिद्यन्ते सर्वसंशयाः तस्मिन् दृष्टे परावरे * *जन्म मरण शरीर का है आत्मा का नहीं * *नेता सभी शंकाओं को दूर करते हैं!*आत्मज्ञान होने पर सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न जैसे लगते हैं *अवतार ~ अर्थात नेतृत्व की उत्पत्ति (Genesis Of leadership)*जॉन स्टुअर्ट मिल (1806 - 1873) की आत्मकथा

 परिच्छेद ~ 44 * [ श्रीरामकृष्ण वचनामृत: (hot? जून, 1883) ] 

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (हिंदी अनुवाद)* *साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*] 
 
* परिच्छेद~ ४४* 

 *सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु,' ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं * 

[ 'Birth and death' belong to the body, not the soul.]
  
[जॉन स्टुअर्ट मिल की आत्मकथा]  
[Limitations of man — a conditioned being ]

(J. S. Mill and Sri Ramakrishna)

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे हैं । ज्येष्ठ मास, १८८३, ई. (जून, १८८३) । खूब गर्मी पड़ रही है । थोड़ी देर बाद सन्ध्या होगी । बर्फ आदि लेकर मास्टर आए और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर उनके चरणों के पास शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे । 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- मणि मल्लिक की नातिन का पति आया था । उसने किसी पुस्तक ^ में पढ़ा है, ईश्वर वैसे ज्ञानी, सर्वज्ञ नहीं जान पड़ते । नहीं तो इतना दुःख क्यों? और यह जो जीव की मौत होती है, उन्हें एक बार में मार डालना ही अच्छा होता, धीरे धीरे अनेक कष्ट देकर मारना क्यों ? जिसने पुस्तक लिखी है, उसने कहा है कि यदि वह होता तो इससे बढ़िया सृष्टि कर सकता था !

 [^जॉन स्टुअर्ट मिल (1806 - 1873) की आत्मकथा , John Stuart Mill’s Autobiography] 

MASTER (to M.): শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — মণি মল্লিকের নাতজামাই এসেছিল। সে কি বই-এ১ পড়েছে, ঈশ্বরকে তেমন জ্ঞানী, সর্বজ্ঞ বলে বোধ হয় না। তাহলে এত দুঃখ কেন? আর এই যে জীবের মৃত্যু হয়, একেবারে মেরে ফেললেই হয়, ক্রমে ক্রমে অনেক কষ্ট দিয়ে মারা কেন? যে বই লিখেছে সে নাকি বলেছে যে, আমি হলে এর চেয়ে ভাল সৃষ্টি করতে পারতাম।
 "The husband of Mani Mallick's granddaughter was here. He read in a book * that God could not be said to be quite wise and omniscient; otherwise, why should there be so much misery in the world? As regards death, it would be much better to kill a man all at once, instead of putting him through slow torture. Further, the author writes that if he himself were the Creator, he would have created a better world."}
 
मास्टर विस्मित होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं और चुप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)-  " उन्हें क्या समझा जा सकता है जी ? मैं तो कभी उन्हें अच्छा मानता हूँ और कभी बुरा । अपनी महामाया के भीतर हमें रखा है । कभी वह होश में लाते हैं, तो कभी बेहोश कर देते हैं । एक बार अज्ञान दूर हो जाता है, दूसरी बार फिर आकर घेर लेता है । तालाब का जल काई से ढँका हुआ है । पत्थर फेंकने पर कुछ जल दिखायी देता है, फिर थोड़ी देर बाद काई नाचते नाचते आकर उस जल को भी ढँक लेती है । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তাঁকে কি বুঝা যায় গা! আমিও কখন তাঁকে ভাবি ভাল, কখন ভাবি মন্দ। তাঁর মহামায়ার ভিতের আমাদের রেখেছেন। কখন তিনি হুঁশ করেন, কখন তিনি অজ্ঞান করেন। একবার অজ্ঞানটা চলে যায়, আবার ঘিরে ফেলে। পুকুর পানা ঢাকা, ঢিল মারলে খানিকটা জল দেখা যায়, আবার খানিকক্ষণ পরে পানা নাচতে নাচতে এসে সে জলটুকুও ঢেকে ফেলে। 
"Can a man ever understand God's ways? I too think of God sometimes as good and sometimes as bad. He has kept us deluded by His great illusion. Sometimes He wakes us up and sometimes He keeps us unconscious. One moment the ignorance disappears, and the next moment it covers our mind. If you throw a brick-bat into a pond covered with moss, you get a glimpse of the water. But a few moments later the moss comes dancing back and covers the water.] 

*जब 'स्व-स्वरुप ' की अनुभूति होती है, तब सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न सा लगने लगता है*

[When 'the Self' is realized -Birth and Death seem like dreams] 
 
“जब तक देहबुद्धि है, तभी तक सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, रोग-शोक हैं । ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं। देह की मृत्यु के बाद सम्भव है वे अच्छे स्थान पर ले जायें – जिस प्रकार प्रसव-वेदना के बाद सन्तान की प्राप्ति ! आत्मज्ञान होने पर सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न जैसे लगते हैं ।

[“যতক্ষণ দেহবুদ্ধি ততক্ষণই সুখ-দুঃখ, জন্মমৃত্যু, রোগশোক। দেহেরই এই সব, আত্মার নয়। দেহের মৃত্যুর পর তিনি হয়তো ভাল জায়গায় নিয়ে যাচ্ছেন — যেমন প্রসববেদনার পর সন্তানলাভ। আত্মজ্ঞান হলে সুখ-দুঃখ, জন্মমৃত্যু — স্বপ্নবৎ বোধ হয়।
"One is aware of pleasure and pain, birth and death, disease and grief, as long as one is identified with the body. All these belong to the body alone, and not to the Soul. After the death of the body, perhaps God carries one to a better place. It is like the birth of the child after the pain of delivery. Attaining Self-Knowledge, one looks on pleasure and pain, birth and death, as a dream.]

*ज्ञानी इतना ही जानता है कि वह कुछ नहीं जानता* 


[एक सेर घोटिते कि दोश सेर दूध धोरे ?] 

“हम क्या समझेंगे ? क्या एक सेर के लोटे में दस सेर दूध आ सकता है ? नमक का पुतला समुद्र नापने जाकर फिर खबर नहीं देता । गलकर उसी में मिल जाता है ।”

[“আমরা কি বুঝব! এক সের ঘটিতে কি দশ সের দুধ ধরে? নুনের পুতুল সমুদ্র মাপতে গিয়ে আর খবর দেয় না। গলে মিশে যায়।”
 [*******************https://bn.wikipedia.org/wiki//বাংলা_প্রবাদ-প্রবচনের_তালিকা} 
"How little we know! Can a one-seer pot hold ten seers of milk? If ever a salt doll ventures into the ocean to measure its depth, it cannot come back and give us the information. It melts into the water and disappears."

  *छिद्यन्ते सर्वसंशयाः तस्मिन् दृष्टे परावरे *

[अवतार , (पैगम्बर वरिष्ठ -गुरु, नेता, C-IN-C) के पास जाने से सारे संशय मिट जाते हैं ]
 
  [भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।। (मुण्डक 2/2/8)
‘उस परावर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर जड़ -चेतन की एकात्मतारूप हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है- जड़ देह-मन आदि में होने वाले आत्माभिमान का नाश हो जाता है, समस्त संशयों का उच्छेद हो जाता है और सम्पूर्ण कर्म (बीज सहित) नष्ट हो जाते हैं।’ गीता 4/37 में भी है। ] 
   सन्ध्या हुई, मन्दिरों में आरती हो रही है । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटे तख़्त पर बैठकर जगज्जननी का चिन्तन कर रहे हैं । राखाल, लाटू, रामलाल, किशोरी गुप्त आदि भक्तगण उपस्थित हैं । मास्टर आज रात को ठहरेंगे । कमरे के उत्तर की ओर एक छोटे बरामदे में श्रीरामकृष्ण एक भक्त के साथ एकान्त में बातें कर रहे हैं । कह रहे हैं, 
“भोर में तथा उत्तर-रात्रि में ध्यान करना अच्छा है और प्रतिदिन सन्ध्या के बाद ।” किस प्रकार ध्यान करना चाहिए, साकार ध्यान (इष्टदेव -विवेकदर्शन ), अरूप ध्यान ^* , यह सब बात बता रहे हैं ।

[अरूप-ध्यान ^* सच्चिदानन्द सागर में खेलती हुई मछली का ध्यानयोगसूत्र या अष्टांग योग, प्रत्याहार-धारणा।]   বলিতেছেন, “প্রত্যূষে ও শেষ রাত্রে ধ্যান করা ভাল ও প্রত্যহ সন্ধ্যার পর।” কিরূপ ধ্যান করিতে হয় — সাকার ধ্যান, অরূপ ধ্যান, সে-সব বলিতেছেন।
  "It is good to meditate in the small hours of the morning and at dawn. One should also meditate daily after dusk." He instructed the devotee about meditation on the Personal God and on the Impersonal Reality.]  

थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण पश्चिम के गोल बरामदे में बैठ गए । रात के नौ बजे का समय होगा । मास्टर पास बैठे हैं, राखाल आदि बीच बीच में कमरे के भीतर आ-जा रहे हैं । 

*श्रीरामकृष्णवादीयों  (Ramakrishnaites) के सारे शंसय मिट जायेंगे *  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- देखो, यहाँ पर जो लोग आएँगे, उन सभी का सन्देह मिट जाएगा; तुम क्या कहते हो ? 

[— দেখ, এখানে যারা যারা আসবে সকলের সংশয় মিটে যাবে, কি বল? "Those who come here will certainly have all their doubts removed. What do you say?"

{मनःसंयोग के प्रशिक्षक या अवतार वरिष्ठ -पैगम्बर वरिष्ठ  या  - CINC नवनीदा  के पास कैम्प में जो लोग जायेंगे उन सभी का संदेह मिट जायेगा , क्यों GN ; तुम क्या कहते हो ? } 

मास्टर- जी हाँ । 
उसी समय गंगा में काफी दूरी पर माँझी अपनी नाव खेता हुआ गाना गा रहा था । गीत की वह ध्वनि मधुर अनाहत ध्वनि की तरह आकाश के बीच में से होकर मानो गंगा के विशाल वक्ष को स्पर्श करती हुई श्रीरामकृष्ण के कानो में प्रविष्ट हुई । श्रीरामकृष्ण उसी समय भावाविष्ट हो गए । सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो उठे । श्रीरामकृष्ण मास्टर का हाथ पकड़कर कह रहे हैं, “देखो, देखो, मुझे रोमांच हो रहा है । मेरे शरीर पर हाथ रखकर देखो ।” 
प्रेम से आविष्ट उनके उस रोमांचपूर्ण शरीर को छूकर वे विस्मित हो गये । ‘पुलकपूरित अंग !’^*  उपनिषद् में कहा गया है कि वे विश्व में आकाश में ‘ओतप्रोत’ होकर विद्यमान हैं । क्या वे ही शब्द के रूप में श्रीरामकृष्ण को स्पर्श कर रहे हैं ? क्या यही शब्दब्रह्म है ?* 
(*एतस्मिन् नु खलु अक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्च । -बृहदारण्यक उपनिषद्, ३-८-११; शब्दः खे पौरुषं नृषु । - गीता, ७/८ ^* 
[এমন সময় গঙ্গাবক্ষে অনেক দূরে মাঝি নৌকা লইয়া যাইতেছে ও গান ধরিয়াছে। সেই গীতধ্বনি, মধুর অনাহতধ্বনির ন্যায় অনন্ত আকাশের ভিতর দিয়া গঙ্গার প্রশস্ত বক্ষ যেন স্পর্শ করিয়া ঠাকুরের কর্ণকুহরে প্রবেশ করিল। ঠাকুর অমনি ভাবাবিষ্ট। সমস্ত শরীর কণ্টকিত। মাস্টারের হাত ধরিয়া বলিতেছেন, “দেখ দেখ আমার রোমাঞ্চ হচ্ছে। আমার গায়ে হাত দিয়ে দেখ!” তিনি সেই প্রেমাবিষ্ট কণ্টকিত দেহ স্পর্শ করিয়া অবাক্‌ হইয়া রহিলেন। “পুলকে পূরিত অঙ্গ”! উপনিষদে কথা আছে যে, তিনি বিশ্বে আকাশে ‘ওতপ্রোত’ হয়ে আছেন। তিনিই কি শব্দরূপে শ্রীরামকৃষ্ণকে স্পর্শ করিতেছেন? এই কি শব্দ ব্রহ্ম?২
A boat was moving in the Ganges, far away from the bank. The boatman began to sing. The sound of his voice floating over the river reached the Master's ears, and he went into a spiritual mood. The hair on his body stood on end. He said to M., "Just feel my body." M. was greatly amazed. He thought: "The Upanishads describe Brahman as permeating the universe and the ether. Has that Brahman, as sound, touched the Master's body?"
थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण- जो लोग यहाँ पर आते हैं, उनके शुभ संस्कार हैं, क्या कहते हो ? 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যারা যারা এখানে আসে তাদের সংস্কার আছে; কি বল?
"Those who come here must have been born with good tendencies. Isn't that true?"
मास्टर- जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- अधर के वैसे संस्कार थे । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — অধরের সংস্কার ছিল। 
"Adhar must have good tendencies."
मास्टर- इसमें क्या कहना है ! 
[M:  তা আর বলতে।"That goes without saying."
श्रीरामकृष्ण- सरल होने पर ईश्वर शीघ्र प्राप्त होते हैं । फिर दो पथ हैं, - सत् और असत्, सत् पथ से जाना चाहिए । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সরল হলে ঈশ্বরকে শীঘ্র পাওয়া যায়। আর দুটো পথ আছে — সৎ, অসৎ। সৎপথ দিয়ে চলে যেতে হয়।  
"A guileless man easily realizes God. There are two paths: the path of righteousness and the path of wickedness. One should follow the path of righteousness."

मास्टर- जी हाँ, धागे में यदि रेशा निकला हो तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता । 

श्रीरामकृष्ण- कौर के साथ मुँह में केश चले जाने पर सब का सब थूककर फेंक देना पड़ता है । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — খাবারের সঙ্গে চুল জিবে পড়লে, মুখ থেকে সবসুদ্ধ ফেলে দিতে হয়।
"If a man finds a hair in the food he is chewing, he spits out the entire morsel."
मास्टर- परन्तु जैसे आप कहते हैं, जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है, असत्-संग उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता; प्रखर अग्नि में केले का पेड़ तक जल जाता है ! 
[মাস্টার — তবে আপনি যেমন বলেন, যিনি ভগবানদর্শন করেছেন, তাঁকে অসৎসঙ্গে কিছু করতে পারে না। খুব জ্ঞানাগ্নিতে কলাগাছটা পর্যন্ত জ্বলে যায়। 
M: "But you say that the man who has realized God cannot be injured by evil company. A blazing fire burns up even a plantain-tree."
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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।
रसः अहम् अप्सु कौन्तेय प्रभा अस्मि शशिसूर्ययोः प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ 7.8 ॥
 हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
वह सनातन तत्त्व क्या है जो सर्वत्र व्याप्त होते हुये भी दृष्टिगोचर नहीं होता ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है। किसी वस्तु का धर्म या स्वरूप वह है जो सदा एक समान बना रहता है और जिसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। यहाँ दिये दृष्टान्त जल में रस सूर्य चन्द्र में प्रकाश समस्त वेदों में प्रणव आकाश में शब्द पृथ्वी में पवित्र गन्ध पुरुषों में पुरुषत्व एवं तपस्वियों में तप आदि ये सब दर्शाते हैं कि आत्मा (Existence-consciousness-bliss) ही वह तत्त्व है जिसके कारण इन वस्तुओं का अपना विशेष अस्तित्व होता है। संक्षेपत आत्मा समस्त भूतों का जीवन है।
‘पुलकपूरित अंग !’^* राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति : -> 
* बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥13 ख॥
भावार्थ:-काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्‍गद्‍ वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥13 (ख)॥
छंद :
* जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
भावार्थ:- हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत) ! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥
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