बुधवार, 12 मई 2021

$$ परिच्छेद ~ 30, [(15 अप्रैल 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Ma Kali ~ All-pervasive Energy/Power * *मनुष्य बनने (सूत का नम्बर पहचानने) के लिए सत्संग, गुरु-गृहवास की अनिवार्यता**ज्ञान (भेंड़त्व से भ्रममुक्त) के लिए महावाक्य के प्रति अटूट श्रद्धा चाहिए तर्क नहीं* *ताकिया ठेसान दिया बोसा !~ पद-पैसे का अहंकार छोड़ना बड़ा कठिन है *

  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

 परिच्छेद ~ ३०  

सुरेन्द्र के मकान पर अन्नपूर्णा पूजा (चैती दुर्गा पूजा ?) के उत्सव में 

(१)

*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना-मैं रथ हूँ , तुम रथी हो !

सुरेन्द्र के घर के आँगन में श्रीरामकृष्ण सभा को आलोकित कर बैठे हुए हैं । शाम के छः बजे होंगे । आँगन से पूर्व की ओर, दालान के भीतर, देवीप्रतिमा प्रतिष्ठित है । माता के पादपद्मों में जवा और बिल्वपत्र तथा गले में फूलों की माला शोभायमान् है । माता दालान को आलोकित करके बैठी हुई हैं ।

आज माँ अन्नपूर्णा देवी की पूजा है । चैत्र शुक्ला अष्टमी, 15 अप्रैल 1883 , दिन रविवार । सुरेन्द्र माता की पूजा कर रहे हैं, इसीलिए निमन्त्रण देकर श्रीरामकृष्ण को ले आए हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आये हैं । आते ही उन्होंने दालान पर चढ़कर देवी के दर्शन किए । फिर प्रणाम करके खड़े होकर देवी की ओर देखते हुए उँगलियों पर मूलमंत्र जपने लगे । भक्तगण दर्शन और प्रणाम करके पास ही खड़े हैं।

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आँगन में आए । आँगन में दरी पर साफ चद्दर बिछी है । उस पर कुछ तकिये रखे हुए हैं । एक ओर मृदंग-करताल लेकर कुछ वैष्णव बैठे हुए हैं; संकीर्तन होगा । भक्तगण श्रीरामकृष्ण को घेरकर बैठ गए । 

लोग श्रीरामकृष्ण को एक तकिये के पास ले जाकर बैठाने लगे; परन्तु वे तकिया हटाकर बैठे ।

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ताकिया ठेसान दिया बसा !~  पद-पैसे का अहंकार छोड़ना बड़ा कठिन है * 

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)-  तकिये के सहारे बैठना ? जानते हो न अहंकार  छोड़ना बड़ा कठिन है ! अभी विचार कर रहे हो कि मेरे में अहंकार कुछ भी नहीं है, परन्तु फिर न जाने कहाँ से आ जाता है ।

“बकरा काट डाला गया, फिर भी उसके अंग हिल रहे हैं ।

“स्वप्न में डर गए हो; आँखें खुल गयीं, बिलकुल सचेत हो गए, फिर भी छाती धड़क रही है । अभिमान ठीक ऐसा ही है । हटा देने पर भी न जाने कहाँ से आ जाता है ! बस आदमी मुँह फुलाकर कहने लगता है, 'मेरा' (डिप्टी मजिस्ट्रेट का !) आदर नहीं किया ।

{তাকিয়া ঠেসান দিয়া বসা! কি জানো, অভিমান ত্যাগ করা বড় কঠিন। এই বিচার কচ্ছ, অভিমান কিছু নয়। আবার কোথা থেকে এসে পড়ে!“ছাগলকে কেটে ফেলা গেছে, তবু অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ নড়ছে।“স্বপ্নে ভয় দেখেছ; ঘুম ভেঙে গেল, বেশ জেগে উঠলে তবু বুক দুড়দুড় করে। অভিমান ঠিক সেইরকম। তাড়িয়ে দিলেও আবার কোথা থেকে এসে পড়ে! অমনি মুখ ভার করে বলে, আমায় খাতির কল্লে না।

”You see, it is very difficult to give up vanity. You may discriminate, saving that the ego is nothing at all; but still it comes, nobody knows from where. A goat's legs jerk for a few moments even after its head has been cut off. Or perhaps you are frightened in a dream; you shake off sleep and are wide awake, but still you feel your heart palpitating. Egotism is exactly like that. You may drive it away, but still it appears from somewhere. Then you look sullen and say: 'What! I have not been shown proper respect!'

केदार- ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।’

[तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥(चैतन्य महाप्रभु रचित- शिक्षाष्टक -३)स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक क्षुद्र मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन (सेवा) विनम्र भाव से करना चाहिए।]  

श्रीरामकृष्ण- मैं भक्तों की रेणु की रेणु हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি ভক্তের রেণুর রেণু।"As for me, I consider myself as a speck of the dust of the devotee's feet."

वैद्यनाथ आए हैं । वैद्यनाथ विद्वान् हैं । कलकत्ता के हाइकोर्ट के वकील हैं । वे श्रीरामकृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करके एक ओर बैठ गए ।

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*स्वतंत्र इच्छा या ईश्वर की इच्छा ? ~~ Free will or God's Will *

[ क्या वास्तव में हम,  जो हमें पसंद है वह करने के लिए स्वतंत्र हैं,?]

सुरेन्द्र- ये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं, इसीलिए आए हैं ।

श्रीरामकृष्ण (वैद्यनाथ से)- जो कुछ देख रहे हो, सभी उनकी शक्ति है । उनकी शक्ति के बिना कोई कुछ भी नहीं कर सकता । परन्तु एक बात है । उनकी शक्ति सब जगह बराबर नहीं है । विद्यासागर ने कहा था, ‘परमात्मा ने क्या किसी को अधिक शक्ति दी है? मैंने कहा, ‘शक्ति अगर अधिक न देते तो  हम लोग तुम्हें देखने क्यों आते? तुम्हारे दो सींग थोड़े ही हैं ! अन्त में यही ठहरा कि विभुरूप ^(All-pervasive Energy/Power -प्रेम के रूप में ) में  सर्वभूतों में ईश्वर हैं, केवल शक्ति का भेद है । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (বৈদ্যনাথের প্রতি) — যা কিছু দেখছ, সবই তাঁর শক্তি। তাঁর শক্তি ব্যতিরেকে কারু কিছু করবার জো নাই। তবে একটি কথা আছে, তাঁর শক্তি সব স্থানে সমান নয়। বিদ্যাসাগর বলেছিল, “ঈশ্বর কি কারুকে বেশি শক্তি দিয়েছেন?” আমি বললুম, শক্তি কমবেশি যদি না দিয়ে থাকেন, তোমায় আমরা দেখতে এসেছি কেন? তোমার কি দুটো শিঙ বেরিয়েছে? তবে দাঁড়ালো যে, ঈশ্বর বিভূরূপে সর্বভূতে আছেন, কেবল শক্তিবিশেষ।

 "All that you see is the manifestation of God's Power. No one can do anything without this Power. But you must remember that there is not an equal manifestation of God's Power in all things. Vidyasagar once asked me whether God endowed some with greater power than others. I said to him; 'If there are no greater and lesser manifestations of His Power, then why have we taken the trouble to visit you? Have you grown two horns?' So it stands to reason that God exists in all beings as the All-pervasive Power ^ but the manifestations of His Power are different in different beings." 

[^  All-pervasive Energy/Power ~LOVE : आनन्दमयी माँ काली के प्रेमपूर्ण मातृहृदय का 'सर्वव्यापी विराट अहं' , ही  'व्यष्टि अहं' का सीमित प्रेम बनकर सर्वभूतों में लेलायमान है ! लेकिन उस प्रेम-शक्ति के प्रस्फुटन (manifestations) में तारतम्य है !]     

वैद्यनाथ- महाराज ! मुझे एक सन्देह है । यह जो Free Will अर्थात् स्वाधीन इच्छा की बात होती है, - कहते हैं कि हम इच्छा करें तो अच्छा काम भी कर सकते हैं और बुरा भी, - क्या यह सच है? क्या हम सचमुच स्वाधीन हैं? [क्या हम वास्तव में,  हमें जो पसंद है - वह करने के लिए स्वतंत्र हैं?] 

{বৈদ্যনাথ — মহাশয়! একটি সন্দেহ আমার আছে। এই যে বলে Free Will অর্থাৎ স্বাধীন ইচ্ছা — মনে কল্লে ভাল কাজও কত্তে পারি, মন্দ কাজও কত্তে পারি, এটি কি সত্য? সত্য সত্যই কি আমরা স্বাধীন?

 "Sir, I have a doubt. People speak of free will. They say that a man can do either good or evil according to his will. Is it true? Are we really free to do whatever we like?"] 

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*सब कुछ ईश्वर (जगतजननी) की इच्छा के अधीन है !* 

श्रीरामकृष्ण- सभी ईश्वर के अधीन है । उन्हीं की लीला है । उन्होंने अनेक वस्तुओं की सृष्टि की है, - छोटी-बड़ी, भली-बुरी, मजबूत-कमजोर । अच्छे आदमी, बुरे आदमी । यह सब उन्हीं की माया है – उन्हीं का खेल है । देखो न, बगीचे के सब पेड़ बराबर नहीं होते ।

“जब तक ईश्वर नहीं मिलते, तब तक जान पड़ता है, हम स्वाधीन हैं । यह भ्रम वे ही रख देते हैं, नहीं तो पाप की वृद्धि होती, पाप से कोई न डरता, न पाप की सजा मिलती ।

“जिन्होंने ईश्वर को पा लिया है, उनका भाव जानते हो क्या है? मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृही; मैं रथ हूँ, तुम रथी; जैसा चलाते हो, वैसा ही चलता हूँ जैसा कहाते हो, वैसा ही कहता हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — সকলই ঈশ্বরাধীন। তাঁরই লীলা। তিনি নানা জিনিস করেছেন। ছোট, বড়, বলবান, দুর্বল, ভাল, মন্দ। ভাললোক; মন্দলোক। এ-সব তাঁর মায়া, খেলা। এই দেখ না, বাগানের সব গাছ কিছু সমান হয় না।“যতক্ষণ ঈশ্বরকে লাভ না হয়, ততক্ষণ মনে হয় আমরা স্বাধীন। এ-ভ্রম তিনিই রেখে দেন, তা না হলে পাপের বৃদ্ধি হত। পাপকে ভয় হত না। পাপের শাস্তি হত না।“যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর ভাব কি জানো? আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি ঘর, তুমি ঘরণী; আমি রথ, তুমি রথী; যেমন চালাও, তেমনি চলি। যেমন বলাও, তেমনি বলি।”

 "Everything depends on the will of God. The world is His play. He has created all these different things — great and small, strong and weak, good and bad, virtuous and vicious. This is all His maya, His sport. You must have observed that all the trees in a garden are not of the same kind. "As long as a man has not realized God, he thinks he is free. It is God Himself who keeps this error in man. Otherwise sin would have multiplied. Man would not have been afraid of sin, and there would have been no punishment for it. "But do you know the attitude of one who has realized God? He feels: 'I am the machine, and Thou, O Lord, art the Operator. I am the house and Thou art the Indweller. I am the chariot and Thou art the Driver. I move as Thou movest me; I speak as Thou makest me speak.' 

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*ज्ञान (भेंड़त्व से भ्रममुक्त) के लिए महावाक्य के प्रति अटूट श्रद्धा चाहिए तर्क नहीं*  

 श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय :।  

            'ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। गीता 4.39।।

[जो श्रद्धावान् ,  तत्पर (भक्त) (जो गुरुवाक्य या महावाक्य सुनकर तर्क-कुतर्क नहीं करता, मनःसंयोग की साधना में जुट जाता है।) , और जितेन्द्रिय पुरुष हो , वैसा मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके (वह ब्रह्मविद मनुष्य) शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है। मनःसंयोग का अभ्यास किये  बिना श्रद्धा और ज्ञान में दृढ़ता आनी कठिन है। मन और इन्द्रियां ही हमें विषयों की ओर आकर्षित करके खींच ले जाती हैं। श्री शंकराचार्य के अनुसार श्रद्धा वह - आस्तिक्यबुद्धि है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश (महावाक्य ^  - 'तत्वमसि' )  से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है 'तत्वमसि' ^ - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ) यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे आनन्दस्वरूप (दिव्यस्वरूप) है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी।  

 [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*श्रद्धावान (faithful) की आध्यात्मिक उन्नति होती है, तार्किक (logical) की नहीं *

श्रीरामकृष्ण (वैद्यनाथ के प्रति)- “तर्क करना अच्छा नहीं । आप क्या कहते हैं?” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বৈদ্যনাথের প্রতি) তর্ক করা ভাল নয়; আপনি কি বল?

(To Vaidyanath): "It is not good to argue. Isn't that so?"

वैद्यनाथ- जी हाँ, तर्क करने का स्वभाव ज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है ।

{ "Yes, sir. The desire to argue disappears when a man attains wisdom."

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*मनुष्य बनने (सूत का नम्बर पहचानने) के लिए सत्संग,  गुरु-गृहवास की अनिवार्यता*

श्रीरामकृष्ण- Thank you ! तोमार होबे ! तुम पाओगे (You will make spiritual progress.) । ईश्वर की बात कोई कहता है, तो लोगों को विश्वास नहीं होता । यदि कोई महापुरुष कहें, मैंने ईश्वर को देखा है, तो कोई उस महापुरुष की बात ग्रहण नहीं करता । लोग सोचते हैं, इसने अगर ईश्वर को देखा है तो हमें भी दिखाए तो जानें परन्तु नाड़ी देखना कोई एक दिन में थोड़े ही सीख लेता है ! वैद्य के पीछे महीनों घूमना पड़ता है । तभी वह कह सकता है, कौन कफ की नाड़ी है, कौन पित्त की है और कौन वात की है । नाड़ी देखना जिनका पेशा है (जो भव-वैद्य हैं, जैसे नवनीदा ) , उनका संग करना चाहिए । (सब हँसते हैं ।) 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — Thank you (সকলের হাস্য)। তোমার হবে! ঈশ্বরের কথা যদি কেউ বলে, লোকে বিশ্বাস করে না। যদি কোন মহাপুরুষ বলেন, আমি ঈশ্বরকে দেখেছি তবুও সাধারণ লোকে সেই মহাপুরুষের কথা লয় না। লোকে মনে করে, ও যদি ঈশ্বর দেখেছে, আমাদের দেখিয়ে দিগ্‌। কিন্তু একদিনে কি নাড়ী দেখতে শেখা যায়? বৈদ্যের সঙ্গে অনেকদিন ধরে ঘুরতে হয়; তখন কোন্‌টা কফের কোন্‌টা বায়ূর কোন্‌টা পিত্তের নাড়ী বলা যেতে পারে। যাদের নাড়ী দেখা ব্যবসা, তাদের সঙ্গ করতে হয়। (সকলের হাস্য)

"You will make spiritual progress. People don't trust a man when he. speaks about God. Even if a great soul affirms that he has seen God, still the average person will not accept his words. He says to himself, 'If this man has really seen God, then let him show Him to me.' But can a man learn to feel a person's pulse in one day? He must go about with a physician for many days; only then can he distinguish the different pulses. He must be in the company of those with whom the examination of the pulse has become a regular profession.

“क्या सभी पहचान सकते हैं कि यह अमुक नम्बर का सूत है ? सूत का व्यवसाय करो, जो लोग व्यवसाय करते हैं, उनकी दुकान में कुछ दिन रहो, तो कौन चालीस नम्बर का सूत है, कौन इकतालीस नम्बर का, तुरन्त कह सकोगे ।”

{“অমুক নম্বরের সুতা, যে-সে কি চিনতে পারে? সুতোর ব্যবসা করো, যারা ব্যবসা করে, তাদের দোকানে কিছুদিন থাক, তবে কোন্‌টা চল্লিশ নম্বর, কোন্‌টা একচল্লিশ নম্বরের সুতা ঝাঁ করে বলতে পারবে।”

"Can anyone and everyone pick out a yarn of a particular count '3H' ? If you are in that trade, you can distinguish in a moment a forty-count thread from a forty-one."}

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

* खोल -मृदंग की थाप सुनकर श्रीराधा की कृष्ण-भक्ति का स्मरण और समाधि *

अब संकीर्तन होगा । मृदंग बजाया जा रहा है । गोष्ठ मृदंग बजा रहा है । अभी गाना शुरू नहीं हुआ । मृदंग का मधुर वाद्य गौरांगमण्डल और उनके नामसंकीर्तन की याद दिलाकर मन को उद्दीप्त करता है। श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । रह-रहकर मृदंगवादक पर दृष्टि डालकर कह रहे हैं- “अहा ! मुझे रोमांच हो रहा है !”

[মাঝেমাঝে খুলির দিকে দৃষ্টি নিক্ষেপ করিয়া বলিতেছেন, “আ মরি! আ মরি! আমার রোমাঞ্চ হচ্ছে।

”Now and then he looked at the drummer and said, "Ah! Ah! My hair is all standing on end."]

गवैयों ने पूछा, “कैसा पद गाएँ?” श्रीरामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा, “जरा गौरांग के कीर्तन गाओ ।”

कीर्तन आरम्भ हो गया । पहले गौर-चन्द्रिका होगी, फिर दूसरे गाने ।

कीर्तन में गौरांग के रूप का वर्णन हो रहा है । कीर्तन-गवैये अन्तरों में चुन-चुनकर अच्छे पद जोड़ते हुए गा रहे हैं – “सखि, मैंने पूर्णचन्द्र देखा”, “न ह्लास है – न मृगांक”, “हृदय को आलोकित करता है ।”

गवैयों ने फिर गाया- “कोटि चन्द्र के अमृत से उसका मुख धुला हुआ है ।” ("His face is bathed with the essence of a million moons.")

श्रीरामकृष्ण यह सुनते ही सुनते समाधिमग्न हो गए ।

गाना होता ही रहा । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । वे भाव में मग्न होकर एकाएक उठकर खड़े हो गए तथा प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की तरह श्रीकृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कीर्तन-गवैयों के साथ साथ गाने लगे – 

" सखी ! रुपेर दोष , ना मनेर दोष ? "

आन हेरिते, श्याममय - हेरि त्रिभुवन ! 

(আন্‌ হেরিতে শ্যামময় হেরি ত্রিভুবন!)

सखि ! रूप का दोष है या मन का ?” “दूसरों को देखती हुई तीनों लोक में श्याम ही श्याम देखती हूँ!  

श्रीरामकृष्ण नाचते हुए गा रहे हैं । भक्तगण निर्वाक् होकर देख रहे हैं । गवैये फिर गा रहे हैं, - गोपिका की उक्ति – “बंसी री ! तू अब न बज । क्या तुझे नींद भी नहीं आती?” 

इसमें पद जोड़कर गा रहे हैं – “और नींद आए भी कैसे !” “सेज तो करपल्लव है न?” _ “श्रीमुख के अमृत का पान करती है” _  “तिस पर उँगलियाँ सेवा करती हैं ।”

श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । कीर्तन होता रहा । श्रीमती राधा की उक्ति गायी जाने लगी । वे कहती हैं – “दृष्टि, श्रवण और प्राण की शक्ति तो चली गयी – सभी इन्द्रियों ने उत्तर दे दिया, तो मैं ही अकेली क्यों रह गयी ?”

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আসন পুনর্বার গ্রহণ করিয়াছেন। কীর্তন চলিতে লাগিল। শ্রীমতী বলছেন, চক্ষু গেল, শ্রবণ গেল, ঘ্রাণ গেল, ইন্দ্রিয় সকলে চলে গেল, — (আমি একেলা কেন বা রলাম গো)।

The Master sat down. The music went on. They sang, assuming the mood of Radha: "My eyes are blinded. My ears are deaf. I have lost the power of smell. All my senses are paralysed. But, alas, why am I left alone?"

अन्त में श्रीराधा-कृष्ण दोनों के एक दूसरे से मिलन का कीर्तन होने लगा-“राधिकाजी श्रीकृष्ण को पहनाने के लिए माला गूँथ ही रही थी कि अचानक श्रीकृष्ण उनके सामने आकर खड़े हो गए ।”

निधूवने श्यामविनोदिनी भोर। 

दूहार रुपेर नाहिक उपमा प्रेमेर नाहिर ओर।।

हिरण किरण आध वरण आध नील- मणि ज्योति:। 

आध गले वन-माला विराजित, आध गले गजमति।। 

आध श्रवणे मकर- कुण्डल आध रतन छबि। 

आध कपाले चाँदेर उदय आध कपाले रबि।।

आध शिरे शोभे मयूर शीखण्ड आध शिरे दोले वेणी। 

कर-कमल कोरे झलमल, फणि उगारबे मणि ॥

युगल-मिलन के संगीत का आशय यह है-

“कुंजवान में श्याम-विनोदिनी राधिका कृष्ण के भावावेश में विभोर हो रही है । दोनों में से न तो किसी के रूप की उपमा हो सकती है और न किसी के प्रेम की ही सीमा है । आधे में सुनहली किरणों की छटा है और आधे में नीलकान्त मणि की ज्योति । गले के आधे हिस्से में वन के फूलों की माला है और आधे में गज-मुक्ता । कानों के अर्धभाग में मकरकुण्डल हैं औए अर्धभाग में रत्नों की छबि । अर्धललाट में चन्द्रोदय हो रहा है । और आधे में सूर्योदय । मस्तक के अर्धभाग में मयूरशिखण्ड शोभा पा रहा है और आधे में वेणी । कनककमल झिलमिला रहे हैं, फणी मानो मणि उगल रहा है ।” 

[Finally the musicians sang of the union of Radha and Krishna: Radha and Krishna are joined at last in the Nidhu Grove of Vrindavan; Incomparable their beauty, and limitless their love! The one half shines like yellow gold, the other like bluest sapphire; Round the neck, on one side, a wild-flower garland hangs, And, on the other, there swings a necklace of precious gems. A ring of gold adorns one ear, a ring of shell the other; Half of the brow is bright as the blazing midday sun, The other softly gleams with the glow of the rising moon. Upon one half of the head a graceful peacock feather stands, and, from the other half, there hangs a braid of hair.

कीर्तन बन्द हुआ । श्रीरामकृष्ण ‘भागवत, भक्त, भगवान्’ इस मन्त्र का बार बार उच्चारण करते हुए भूमिष्ठ हो प्रणाम कर रहे हैं । चारों ओर के भक्तों को उद्देश्य करके प्रणाम कर रहे हैं और संकीर्तन-भूमि की धूलि लेकर अपने मस्तक पर रख रहे हैं ।

{কীর্তন থামিল। ঠাকুর, ‘ভগবত-ভক্ত-ভগবান’ এই মন্ত্র উচ্চারণ করিয়া বারবার ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতেছেন। চতুর্দিকে ভক্তদের উদ্দেশ করিয়া প্রণাম করিতেছেন ও সংকীর্তনভূমির ধূলি গ্রহণ করিয়া মস্তকে দিতেছেন।

As the music came to a close the Master said, "Bhagavata — Bhakta — Bhagavan", and bowed low to the devotees seated on all sides. He touched with his forehead the ground made holy by the singing of the sacred music.

(३) 

  [  परिच्छेद ~ ३०,(15 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*आनन्दमयी दुर्गा माँ में क्या साकार -निराकार (formless Reality) के दर्शन नहीं होते?

रात के साढ़े नौ बजे का समय होगा । अन्नपूर्णा देवी दालान को आलोकित कर रही है । सामने श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ खड़े हुए हैं । सुरेन्द्र, राखाल, केदार, मास्टर, राम, मनोमोहन तथा और भी अनेक भक्त हैं । उन लोगों ने श्रीरामकृष्ण के साथ ही प्रसाद पाया है । सुरेन्द्र ने सब को तृप्तिपूर्वक भोजन कराया है । अब श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर लौटनेवाले हैं । भक्तजन भी अपने अपने घर जाएँगे । सब लोग दालान में आकर इकट्ठे हुए हैं ।  

सुरेन्द्र- (श्रीरामकृष्ण से)- परन्तु आज मातृवन्दना का एक भी गाना नहीं हुआ । 

श्रीरामकृष्ण (देवीप्रतिमा की ओर उँगली उठाकर)- अहा ! दालान की कैसी शोभा हुई है ! माँ मानो अपनी दिव्य छटा छिटककर बैठी हुई हैं । इस रूप के दर्शन करने पर कितना आनन्द होता है ! भोग की इच्छा, शोक, ये सब भाग जाते हैं । परन्तु क्या निराकार के दर्शन नहीं होते? नहीं, होते हैं । हाँ, जरा भी विषय-बुद्धि के रहते नहीं होते । ऋषियों ने सर्वस्वत्याग करके ‘अखण्ड-सच्चिदानन्द’ में मन लगाया था ।  

{ শ্রীরামকৃষ্ণ (ঠাকুরের প্রতিমা দেখাইয়া) — আহা, কেমন দালানের শোভা হয়েছে। মা যেন আলো করে বসে আছেন। এরূপ দর্শন কল্লে কত আনন্দ হয়। ভোগের ইচ্ছা, শোক — এ-সব পালিয়ে যায়। তবে নিরাকার কি দর্শন হয় না — তা নয়। বিষয়বুদ্ধি একটুও থাকলে হবে না; ঋষিরা সর্বত্যাগ করে অখণ্ড সচ্চিদানন্দের চিন্তা করেছিলেন।

"Ah! Look at the beauty of the hall. The light of the Divine Mother seems to have lighted the whole place. Such a sight fills the heart with joy. Grief and desire for pleasure disappear. But can one not see God as formless Reality? Of course one can. But not if one has the slightest trace of worldliness. The rishis of olden times renounced everything and then contemplated Satchidananda, the Indivisible Brahman.

“आजकल ब्रह्मज्ञानी उन्हें ‘अचल-धन’ कहकर गाते हैं, - मुझे अलोना लगता है । (It sounds very dry to me.) जो लोग गाते हैं, वे मानो कोई मधुर रस नहीं पाते । शीरे पर ही भूले रहे, तो मिश्री की खोज करने की इच्छा नहीं हो सकती । 

{[ “ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানীরা ‘অচল ঘন’ বলে গান গায়, — আমার আলুনী লাগে। যারা গান গায়, যেন মিষ্টরস পায় না। চিটেগুড়ের পানা দিয়ে ভুলে থাকলে, মিছরীর পানার সন্ধান কত্তে ইচ্ছা হয় না।

"The Brahmajnanis of modern times (A reference to the members of the Brahmo Samaj.) sing of God as 'immutable, homogeneous'. It sounds very dry to me. It seems as if the singers themselves don't enjoy the sweetness of God's Bliss, One doesn't want a refreshing drink made with sugar candy if one is satisfied with mere coarse treacle.

“तुम लोग देखते हो – माता जी की छवि मूर्ति में ,बाहर कैसे सुन्दर दर्शन हो रहे हैं, और आनन्द भी कितना मिलता है । जो लोग निराकार निराकार करते रहते हैं ,अंत में कुछ नहीं पाते, उनके न है बाहर और न है भीतर ।” 

{“তোমরা দেখ, কেমন বাহিরে দর্শন কচ্ছ আর আনন্দ পাচ্ছ। যারা নিরাকার নিরাকার করে কিছু পায় না, তাদের না আছে বাহিরে না আছে ভিতরে।”

"Just see how happy you are, looking at this image of the Deity. But those who always cry after the formless Reality do not get anything. They realize nothing either inside or outside."

श्रीरामकृष्ण माता का नाम लेकर इस भाव का गीत गा रहे हैं,

माँ गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना। 


ओ दुटी चरण बिने आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना।। 

तपन -तनय, आमाय मंद कय, कि दोष ता तो जानी ना। 

भवानी बोलिये, भबे जाबो चले, मने छिलो एई वासना, 

अकूलपाथारे डूबाबे आमारे, स्वपने ओ ता जानि ना।।

अहर्निशि श्रीदूर्गानामे भासि, तोबु दुखराशि गेलो ना। 

एबार जोदि मोरी, ओ हरसुंदरी, (तोर) दूर्गानाम केहु आर लोबे ना।।

গো আনন্দময়ী হয়ে আমায় নিরানন্দ কর না।

ও দুটি চরণ বিনা আমার মন, অন্য কিছু আর জানে না ৷৷

তপন-তনয়, আমায় মন্দ কয়, কি দোষে তাতো জানি না।

ভবানী বলিয়ে, ভবে যাব চলে, মনে ছিল এই বাসনা,

অকূলপাথরে ডুবাবে আমারে, স্বপনেও তা জানি না ৷৷

অহরহর্নিশি শ্রীদুর্গানামে ভাসি, তবু দুখরাশি গেল না।

এবার যদি মরি, ও হরসুন্দরী, (তোর) দুর্গানাম কেউ আর লবে না ৷৷-

“माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना । मेरा मन तुम्हारे उन दोनों चरणों के सिवा और कुछ नहीं जानता । मैं नहीं जानता, धर्मराज मुझे किस दोष से दोषी बतला रहे हैं । मेरे मन में यह वासना थी कि तुम्हारा नाम लेता हुआ मैं भवसागर से तर जाऊँगा । मुझे स्वप्न में भी नहीं मालुम था कि तुम मुझे असीम सागर में डुबा दोगी । दिनरात मैं दुर्गानाम जप रहा हूँ, किन्तु फिर भी मेरी दुःखराशि दूर न हुई । परन्तु हे हरसुन्दरी, यदि इस बार भी मैं मरा तो यह निश्चय है कि संसार में फिर तुम्हारा नाम कोई न लेगा ।” 

[O Mother, ever blissful as Thou art, Do not deprive Thy worthless child of bliss! My mind knows nothing but Thy Lotus Feet. The King of Death scowls at me terribly; Tell me, Mother, what shall I say to him? It was my heart's desire to sail my boat Across the ocean of this mortal life,O Durga, with Thy name upon my lips. I never dreamt that Thou wouldst drown me here In the dark waters of this shoreless sea. Both day and night I swim among its waves,Chanting Thy saving name; yet even soThere is no end, O Mother, to my grief. If I am drowned this time, in such a plight, No one will ever chant Thy name again.

श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे : 

बोलो रे बोलो श्रीदूर्गानाम। (ओरे आमार आमार मन रे)।।  

दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोले पथे चोले जाय। 

शूलहस्ते शूलपाणि रक्षा कोरेन ताय।।

तुमि दिबा, तुमि संध्या, तुमि शे यामिनी। 

कखोनो पुरुष होओ मा, कखोनो कामिनी।।

तुमि बोलो छाड़ो  छाड़ो आमि ना छाड़ीबो।  

बाजन नूपूर होये मा चरणे बाजिबो।। 

(जय दूर्गा जय दूर्गा बोले)

शंकरी होईये मा गो गगने उड़िबे । 

मीन होये रोबो जले नखे तुले लबे।। 

नखाघाते ब्रह्ममयी जखोन जाबे मोर परानी, 

कृपा लोरे दिओ रांगा चरण दूखानि। 

गीत इस आशय का है-  “मेरे मन ! दुर्गानाम जपो । जो दुर्गानाम जपता हुआ रास्ते में चला जाता है, शूलपाणि शूल लेकर उसकी रक्षा करते हैं । तुम दिवा हो, तुम सन्ध्या हो, तुम्ही रात्रि हो; कभी तो तुम पुरुष का रूप धारण करती हो, कभी कामिनी बन जाती हो । तुम तो कहती हो कि मुझे छोड़ दो, परन्तु मैं तुम्हें कदापि न छोडूंगा, - मैं तुम्हारे चरणों में नूपुर होकर बजता रहूँगा, - जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहता हुआ ! माँ, जब शंकरी (शंखचील ^ ) होकर तुम आकाश में उड़ती रहोगी तब मैं मीन बनकर पानी में रहूँगा तुम अपने नखों पर मुझे उठा लेना । हे ब्रह्ममयी, नखों के आघात से यदि मेरे प्राण निकल जायें, तो कृपा करके अपने अरुण चरणों का स्पर्श मुझे करा देना ।” 

[शंकरी (शंखचील ^ )^हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय में माँ दुर्गा ने पतंग के समान पक्षी (शंखचील माँ विंध्यवासिनी देवी)  का रूप धारण किया था।

[Repeat, O mind, my Mother Durga's hallowed name. Whoever treads the path, repeating "Durga! Durga!",Siva Himself protects with His almighty trident. Thou art the day, O Mother! Thou art the dusk and the night .Sometimes Thou are man, and so metimes woman art Thou. Thou mayest even say to me: "Step aside! Go away!" Yet I shall cling to Thee, O Durga! Unto Thy feet As Thine anklets I shall cling, making their tinkling sound. Mother, when as the Kite3 ( (Thou soarest in the sky, There, in the water beneath, as a minnow I shall be swimming; Upon me Thou wilt pounce, and pierce me through with Thy claws. Thus, when the breath of life forsakes me in Thy grip, Do not deny me the shelter of Thy Lotus Feet!

श्रीरामकृष्ण ने देवी को फिर प्रणाम किया । अब सीढ़ियों से उतरते समय पुकार कर कह रहे हैं – “ओ रा – जू – हैं?” (ओ राखाल ! जूते सब हैं, या भूल गए ?) 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার প্রতিমার সম্মুখে প্রণাম করিলেন। এইবার সিঁড়িতে নামিবার সময় ডাকিয়া বলিতেছেন, “ও রা-জু-আ”? (ও রাখাল, জুতো সব আছে, না হারিয়ে গেছে?)

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े । सुरेन्द्र ने प्रणाम किया । दूसरे भक्तों ने भी प्रणाम किया । चाँदनी अभी भी रास्ते पर पड़ रही है । श्रीरामकृष्ण की गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी । 

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The Universal Mother : जगतजननी माँ दुर्गा :  ^ जो आत्मसाक्षात्कार के बाद माँ काली के द्वारा  फिर से शरीर में वापस भेज दिया गया है- वह जानता है कि -I am the chariot and Thou art the Driver.

 (देखें  /https://parvati.world/blog/the-universal-mother/

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