सोमवार, 17 मई 2021

$ परिच्छेद ~ 42, [(18 जून, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Devotees dwells in Rama * जगतगुरु श्रीरामकृष्ण ,श्री नवद्वीप गोस्वामी (मणि सेन के गुरु) को शिक्षा~तुम लोग मन से त्याग करना! * गोस्वामी वंश (चपरास प्राप्त नेता ?) के लिए योग और भोग दोनों है * श्री गौरांग (नेता ) को - 'भाव , महाभाव और प्रेम ' *अंतरतम अवस्था, अर्धचेतन अवस्था और चेतन अवस्था*(The inmost state, the semi-conscious state, and the conscious state.)इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव, साधारण जीवों को केवल भाव तक *शास्त्र -अध्यन पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं, केवल शास्त्र का सार जानने के लिए * { ^ शास्त्र -सार जान लेने के बाद फिर ईश्वर का लाभ करने अर्थात ब्रह्मविद 'मनुष्य' बनने के लिए "3H विकास के 5 अभ्यास" में कूद पड़ना चाहिए ! * गीता का सार= हे जीव, सब त्यागकर भगवान् का लाभ करने के लिए साधना करो*गृही भक्त के लिए 'कामिनी -कांचन त्याग' का अर्थ है -मन से आसक्ति का त्याग* “ईश्वर तो सब प्राणियों में हैं -(एक राम घट-घट में लेटा) । फिर भक्त (रामभक्त) किसे कहते हैं ? *जो ईश्वर में रहता है वह है 'भक्त '- Rejoicing like these Pawapuri Temple fish in Chidanand Sagar.*as Fish in the Ocean of Bliss and Consciousness.^झील की मछली और निराकार का ध्यान *

 [(18 जून, 1883)परिच्छेद ~ 42, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]

*परिच्छेद~४२* 

*पानीहाटी महोत्सव में* 

(१) 

*कीर्तनानन्द में-क्या ठाकुर श्री गौरांग हैं?* 

श्रीरामकृष्ण पानीहाटी के महोत्सव में राजपथ पर बहुत लोगों से घिरे हुए संकीर्तनदल के बीच में नृत्य कर रहे हैं । दिन का एक बजा है । आज सोमवार, ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी तिथि है । तारीख 18 जून 1883 ई. । 

संकीर्तन के बीच में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए चारों ओर लोग कतार बाँधकर खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण प्रेम में मतवाले हो नाच रहे हैं । कोई कोई सोच रहे हैं कि क्या श्रीगौरांग फिर प्रकट हुए हैं? चारों ओर हरि-ध्वनि सागर की तरंगों के समान उमड़ रही है । चारों ओर से लोग फूल बरसा रहे हैं और बतासे लुटा रहे हैं ।  

श्री नवद्वीप गोस्वामी संकीर्तन करते हुए राघव पण्डित के मन्दिर की ओर आ रहे थे कि एकाएक श्रीरामकृष्ण दौड़कर उनसे आ मिले और नाचने लगे । 

यह राघव पण्डित का ‘चिउड़े का महोत्सव’ है । शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि पर प्रतिवर्ष महोसव होता है । इस महोत्सव को पहले दास रघुनाथ ने किया था । उसके बाद राघव पण्डित प्रतिवर्ष करते थे । 

दास रघुनाथ से नित्यानन्द ने कहा था, “अरे, तू घर से केवल भाग-भागकर आता है, और हमसे छिपाकर प्रेम का स्वाद लेता रहता है ! हमें पता तक नहीं लगने देता । आज तुझे दण्ड दूँगा; तू चिउड़े का महोत्सव करके भक्तों की सेवा कर ।” श्रीरामकृष्ण प्रायः प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं, आज भी यहाँ राम आदि भक्तों के साथ आनेवाले थे । राम सबेरे मास्टर के साथ कलकत्ते से दक्षिणेश्वर आये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वहीँ उत्तरवाले बरामदे में उन्होंने प्रसाद पाया । राम कलकत्ते से जिस गाड़ी पर आये थे, उसी पर श्रीरामकृष्ण पानीहाटी आये । राखाल, मास्टर, राम, भवनाथ तथा और भी दो-एक भक्त उनके साथ थे । 

गाड़ी मैगजीन रोड से होकर चानक के बड़े रास्ते पर आयी । जाते जाते श्रीरामकृष्ण बालक भक्तों से विनोद करने लगे । 

पानीहाटी के महोत्सव-स्थल पर गाड़ी पहुँचते ही राम आदि भक्त यह देखकर विस्मित हुए कि श्रीरामकृष्ण जो अभी गाड़ी में विनोद कर रहे थे, एकाएक अकेले ही उतरकर बड़े वेग से दौड़ रहे हैं । बहुत ढूँढ़ने पर उन्होंने देखा कि वे नवद्वीप गोस्वामी के संकीर्तन के दल में नृत्य कर रहे हैं और बीच बीच में समाधिस्थ भी हो रहे हैं । समाधि की दशा में कहीं वे गिर न पड़ें, इसलिए नवद्वीप गोस्वामी उन्हें बड़े यत्न से सम्हाल रहे हैं । चारों ओर भक्तगण हरि-ध्वनि कर उनके चरणों पर फूल और बतासे चढ़ा रहे हैं और एक बार उनके दर्शन पाने के लिए धक्कम धक्का कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण अर्धबाह्य दशा में नृत्य कर रहे हैं । फिर बाह्य दशा में आकर वे गाने लगे- 

जादेर हरि बोलते नयन झरे, तारा, 

तारा दूभाई एसेछे रे। 

जारा आपनि केंदे जगत् कांदाय 

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। १ 


जारा आपनि नेचे /मेते जगत् नाचाय /माताय,  

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे । 

जारा मार खेये प्रेम जाचे, 

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। २ 


जारा व्रजेर कानाइ-बलाइ ,

तारा तारा दुभाइ एसेंछे रे।  

जारा व्रजेर माखनचोर,  

तारा तारा दुभाइ एसेछे 'रे ।। ३ 


जारा जातिर विचार नाहि करे ,

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे । 

जारा आपामरे कोल देय ,

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। ४


जारा हरि होये हरि छोले ,

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे । 

जारा राधार प्रेमे मातोवारा ,

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। ५ 


जारा जगाइ-माधाइ उद्धारिलो, 

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे । 

जारा आपन-पर नाहि बाचे, 

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।।६ 

जीब तराते,  

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे । 

निताई-गौर, 

तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।।७

(भावार्थ)-देखो, वे दो भाई आए हैं, हरि का नाम लेते ही जिनकी आँखों से आँसूओं की झड़ी लग जाती है, वे दोनों भाई ^ (श्री गौरांग और नित्यानन्द) आये हैं; जो स्वयं नाचकर जगत् को नचाते हैं, वे दोनों भाई आये हैं जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, और जो मार खाकर भी प्रेम की याचना करते हैं, वे आये हैं।” 

उन्हें देखो, जो हरि-प्रेम के नशे से चूर होकर , पूरी दुनिया को भी ईश्वर -प्रेम में मतवाला बना देते हैं! देखो, ये वही दो भाई आए हैं, जो कभी ब्रज के कनाई (कन्हैया) और बलाई (बलराम) थे,और  जो गोपियों के घड़े से माखन चुराते थे। "देखो, वे दोनो आ गए हैं, जिन्होंने जाति-भेद के सभी नियमों को तोड़ दिया है, यहाँ तक कि अछूत बोलकर जाती-वहिष्कृत लोगों को अपना भाई समझकर आलिंगन करते हैं। 

" जो हरि का नाम सुनकर खुद को भूल जाते हैं, और उनके नाम से दुनिया को भी मतवाला बना देते हैं; जो कोई और नहीं बल्कि स्वयं हरि हैं, और उनके  पवित्र नाम का जप करते हैं ! उन्हें देखो, जिन्होंने दो आतताइयों जगाई  और मधाई ^ को पापपूर्ण रास्तों से चलने से बचा लिया।  वे वैसे महापुरुष है जो मित्र और शत्रु के बीच अंतर नहीं कर सकते! सम्पूर्ण मानव- जाति को बचाने के लिए , देखो वही दोनों भाई  'गौर और निताई ' फिर से अवतरित हुए हैं।} 

{ ^ जगाई- मधाई पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के रहने वाले दो आततायी (ruffians)भाई थे। इनका जन्म एक कुलीन ब्राम्हण परिवार में हुआ था लेकिन ये दोनों भाई दुर्व्यसनों से भरे हुए थे। वो मांस और मदिरा का सेवन करते थे। गांव की औरतों का पीछा करते थे। ब्राम्हण होने के बावजूद वो पूरी तरह से पथभ्रष्ट हो चुके थे। एक बार चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नित्यानन्द प्रभु उनके पास आए और जगाई-मधाई बंधुओं से कहा कि तुमलोग इन दुर्व्यसनों को छोड़ कर हरि के नाम में डूब जाओ। यह सुनते ही दोनों भाई क्रोधित हो गए और नित्यानन्द प्रभु को पत्थर फेंक कर मारा, उनका सिर फूट गया । लेकिन बदले नित्यानन्द ने उन्हें इतना प्रेम दिया कि उनका पापपूर्ण जीवन भी आध्यात्मिक जीवन में परिवर्तित हो गया था।}

{Behold, the two brothers ^  have come, who weep while chanting Hari's name, The brothers who dance in ecstasy and make the world dance in His name! Behold them, weeping themselves, and making the whole world weep as well, The brothers who, in return for blows, offer to sinners Hari's love. Behold them, drunk with Hari's love, who make the world drunk as well! Behold, the two brothers have come, who once were Kanai and Balai of Braja, They who would steal the butter out of the pots of the gopi maids. Behold, the two have come, who shatter all the rules of caste, Embracing everyone as brother, even the outcaste shunned by men; Who lose themselves in Hari's name, making the whole world mad; Who are none other than Hari Himself, and chant His hallowed name! Behold them, who saved from their sinful ways the ruffians Jagai and Madhai, ^ They who cannot distinguish between a friend and an enemy! Behold the two brothers, Gaur and Nitai, who come again to save mankind.}

श्रीरामकृष्ण के साथ सब उन्मत्त हो नाच रहे हैं, और अनुभव कर रहे हैं कि गौरांग और निताई हमारे सामने नाच रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण फिर गाने लगे- नदे टलमल टलमल कोरे - गौर प्रेमेर हिल्लोले रे। 

(भावार्थ)- “गौरांग के प्रेम के हिलोरों से नवद्वीप डाँवाडोल हो रहा है ।” 

संकीर्तन की तरंग राघव के मन्दिर की ओर बढ़ रही है । वहाँ परिक्रमा और नृत्य आदि करने के बाद श्रीविग्रह को प्रणाम कर वह तरंगायित जनसंघ गंगातट पर अवस्थित श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर की ओर बढ़ रहा है । 

संकीर्तनकारों में से कुछ ही लोग श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर में घुस पाये हैं । अधिकांश लोग दरवाजे से ही एक दूसरे को ढकेलते हुए झाँक रहे हैं । 

*श्री श्री राधाकृष्ण के प्रांगण में नृत्य *

श्रीरामकृष्ण श्रीराधाकृष्ण के आँगन में फिर नाच रहे हैं । कीर्तनानन्द में बिलकुल मस्त हैं ! बीच बीच में समाधिस्थ हो रहे हैं और चारों ओर से फूल-बतासे चरणों पर पड़ रहे हैं । आँगन के भीतर बारम्बार हरि-ध्वनि हो रही है । वही ध्वनि सड़क पर आते ही हजारों कण्ठों से उच्चारित होने लगी । गंगा पर नावों से आने-जानेवाले लोग चकित होकर इस सागर-गर्जन के समान उठती हुई ध्वनि को सुनने लगे और वे स्वयं भी ‘हरिबोल’; हरिबोल’ कहने लगे ।  

पानीहाटी के महोत्सव में एकत्रित हजारों नर-नारी सोच रहे हैं कि इन महापुरुष के भीतर निश्चित ही श्रीगौरांग का आविर्भाव हुआ है । दो-एक आदमी यह विचार कर रहे हैं कि शायद ये ही साक्षात् गौरांग हों । 

छोटे से आँगन में बहुत से लोग एकत्रित हुए हैं । भक्तगण बड़े यत्न से श्रीरामकृष्ण को बाहर लाये । 

[श्रीमणि सेन के बैठक कक्ष में ~ भगवान श्रीरामकृष्ण ]

श्रीरामकृष्ण श्री मणि सेन की बैठक में आकर बैठे । इन्हीं सेन परिवारवालों की और से पानीहाटी में श्रीराधाकृष्ण की सेवा होती है । वे ही प्रतिवर्ष महोत्सव का आयोजन करते हैं और श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देते हैं ।’ 

श्रीरामकृष्ण के कुछ विश्राम करने के बाद मणि सेन और उनके गुरुदेव नवद्वीप गोस्वामी ने उनको अलग ले जाकर भोजन कराया । कुछ देर बाद राम, राखाल, मास्टर आदि भक्त एक दूसरे कमरे में बिठाये गये । भक्तवत्सल श्रीरामकृष्ण स्वयं खड़े हो आनन्द करते हुए उनको खिला रहे हैं

(२)

[जगतगुरु श्रीरामकृष्ण ,श्री नवद्वीप गोस्वामी (मणि सेन के गुरु)  को शिक्षा देते हुए ]

*अंतरतम अवस्था, अर्धचेतन अवस्था और चेतन अवस्था।*

(The inmost state, the semi-conscious state, and the conscious state.)

*श्रीगौरांग को भाव , महाभाव और  प्रेम तीनों अवस्थाओं का अनुभव *

दोपहर का समय है । राखाल, राम आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण मणि सेन की बैठक में विराजमान हैं । नवद्वीप गोस्वामी भोजन करके श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे हैं ।

मणि सेन ने श्रीरामकृष्ण को गाड़ी का किराया देना चाहा । श्रीरामकृष्ण बैठक में एक कोच पर बैठे हैं, “और कहते हैं गाड़ी का किराया वे लोग (राम आदि) क्यों लेंगे ? वे तो पैसा कमाते हैं ।”

अब श्रीरामकृष्ण नवद्वीप गोस्वामी से ईश्वरी प्रसंग करने लगे ।

श्रीरामकृष्ण (नवद्वीप से)- 'भक्ति' के परिपक्व होने पर 'भाव' होता है, फिर 'महाभाव', फिर 'प्रेम', फिर 'वस्तु-लाभ' (ईश्वर) का लाभ होता है ।

[ শ্রীরামকৃষ্ণ (নবদ্বীপের প্রতি) — ভক্তি পাকলে ভাব — তারপর মহাভাব — তারপর প্রেম —তারপর বস্তুলাভ (ঈশ্বরলাভ)।

"Bhakti matured becomes bhava. Next is mahabhava, then prema, and last of all is the attainment of God.] 

“गौरांग को महाभाव और प्रेम की अवस्था का अनुभव हुआ था ।”

[ “গৌরাঙ্গের — মহাভাব, প্রেম।

Gauranga experienced the states of mahabhava and prema. ]

“इस प्रेम के होने पर मनुष्य जगत् को तो भूल ही जाता है बल्कि अपना शरीर, जो इतना प्रिय है, उसकी भी सुधि नहीं रहती । गौरांग को यह प्रेम हुआ था । समुद्र को देखते ही यमुना समझकर वे उसमें कूद पड़े !

[“এই প্রেম হলে জগৎ তো ভুল হয়ে যাবেই। আবার নিজের দেহ যে এত প্রিয় তাও ভুল হয়ে যায়! গৌরাঙ্গের এই প্রেম হয়েছিল। সমুদ্র দেখে যমুনা ভেবে ঝাঁপ দিয়ে পড়ল।

When prema is awakened, a devotee completely forgets the world; he also forgets his body, which is so dear to a man. Gauranga experienced prema. He jumped into the ocean, thinking it to be the Jamuna. ]

जीवों को महाभाव या प्रेम नहीं होता, उनको भाव तक ही होता है । लेकिन (अवतार/नेता /गुरु ) श्री गौरांग को - भाव , महाभाव और प्रेम ' इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव होता था।”

[“জীবের মহাভাব বা প্রেম হয় না — তাদের ভাব পর্যন্ত। আর গৌরাঙ্গের তিনটি অবস্থা হত। কেমন?”

The ordinary jiva does not experience mahabhava or prema. He goes only as far as bhava. But Gauranga experienced all three states. Isn't that so?"] 

नवद्वीप-जी हाँ । अन्तर्दशा (केन्द्र के समीपस्थ अवस्था,The inmost state) , अर्धबाह्य दशा (आधा सचेत अवस्था,the semi-conscious state) और बाह्य दशा (जाग्रत या प्रबुद्ध अवस्था,the conscious state !) 

[নবদ্বীপ — আজ্ঞা হাঁ। অন্তর্দশা, অর্ধবাহ্যদশা আর বাহ্যদশা।

"Yes, sir, that is true. The inmost state, the semi-conscious state, and the conscious state."

श्रीरामकृष्ण- अन्तर्दशा (केन्द्र के समीपस्थ अवस्था) में वे समाधिस्थ रहते थे, अर्धबाह्य दशा (आधा सचेत अवस्था) में केवल नृत्य कर सकते थे, और बाह्य दशा (जाग्रत या प्रबुद्ध अवस्था) में नामसंकीर्तन करते थे ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অন্তর্দশায় তিনি সমাধিস্থ থাকতেন। অর্ধবাহ্যদশায় কেবল নৃত্য করতে পারতেন। বাহ্যদশায় নামসংকীর্তন করতেন।

"In the inmost state he would remain in samadhi , unconscious of the outer world. In the semi-conscious state he could only dance. In the conscious state he chanted the name of God."

नवद्वीप ने अपने लड़के को लाकर श्रीरामकृष्ण से परिचित करा दिया । वे तरुण हैं - शास्त्र का अध्ययन करते हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

नवद्वीप- यह घर में शास्त्र पढ़ता है । इस देश में वेद एक प्रकार से अप्राप्य ही थे । मैक्समूलर ने उन्हें छपवाया, इसी से तो लोग अब उनको पढ़ सकते हैं ।

["He studies the scriptures at home. Previously one hardly saw a copy of the Vedas in this country. Max Müller has translated them; so people can now read these books."

*शास्त्र -अध्यन पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं, केवल  शास्त्र का सार जानने के लिए * 

श्रीरामकृष्ण- अधिक शास्त्र पढ़ने से और भी हानि होती है ।

“शास्त्र का सार जान लेना चाहिए । फिर ग्रन्थ की क्या आवश्यकता है ?

“शास्त्र का सार जान लेने पर डूबकी लगानी चाहिए (3H विकास के 5 अभ्यास में कूद पड़ना चाहिए)  – ईश्वर का लाभ करने के लिए ।

[বেশি শাস্ত্র পড়াতে আরও হানি হয়।“শাস্ত্রের সার জেনে নিতে হয়। তারপর আর গ্রন্থের কি দরকার!“সারটুকু জেনে ডুব মারতে হয় — ঈশ্বরলাভের জন্য।

"Too much study of the scriptures does more harm than good. The important thing is to know the essence of the scriptures. After that, what is the need of books? One should learn the essence and then dive deep in order to realize God.]

“मुझे माँ ने बतला दिया है कि वेदान्त का सार है- ‘ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या ।’

 गीता का सार क्या है ? दस बार ‘गीता’ शब्द कहने से जो हो वही – अर्थात् त्यागी, त्यागी ।

  [ “আমায় মা জানিয়ে দিয়েছেন, বেদান্তের সার — ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা। গীতার সার — দশবার গীতা বললে যা হয়, অর্থাৎ ‘ত্যাগী, ত্যাগী’।”

"The Divine Mother has revealed to me the essence of the Vedanta. It is that Brahman alone is real and the world illusory. The essence of the Gita is what you get by repeating the word ten times. The word becomes reversed. It is then 'tagi', which refers to renunciation. The essence of the Gita is: 'O man, renounce everything and practise spiritual discipline for the realization of God.'"

नवद्वीप- ठीक ‘त्यागी’ नहीं बनता, ‘तागी’ होता है । फिर उसका भी अर्थ वही है । ‘तग्’ धातु और ‘घञ्’ प्रत्यय=ताग उस पर ‘इन्’ प्रत्यय लगाने पर ‘तागी’ बनता है । ‘त्यागी’ का अर्थ जो है, ‘तागी’ का भी वही है ।

श्रीरामकृष्ण – गीता का सार यही है कि हे जीव, सब त्यागकर भगवान् का लाभ करने के लिए साधना करो । 

[The essence of the Gita is: 'O man, renounce everything and practise spiritual discipline ( 5 exercises of 3H development) for the realization of God.'"

*गृही भक्त के लिए 'कामिनी -कांचन त्याग' का अर्थ है -मन से आसक्ति का त्याग* 

नवद्वीप- त्याग की ओर तो मन नहीं जाता ! 

 [নবদ্বীপ — ত্যাগ করবার মন কই হচ্ছে?

"But how can we persuade our minds to renounce?"] 

श्रीरामकृष्ण- तुम लोग गोस्वामी हो, तुम्हारे यहाँ देवसेवा होती है, - तुम्हारे संसार-त्याग करने पर काम नहीं चलेगा । ऐसा करने से देवसेवा कौन करेगा ? तुम लोग मन से त्याग करना । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা গোস্বামী, তোমাদের ঠাকুর সেবা আছে, — তোমাদের সংসার ত্যাগ করলে চলবে না। তাহলে ঠাকুর সেবা কে করবে? তোমরা মনে ত্যাগ করবে।

"You are a goswami (Leader). It is your duty to officiate as priest in the temple (Mahamandal). You cannot renounce the world; otherwise, who would look after the temple and its services-(Be and Make) ? You have to renounce mentally.{Mahamandal Leader's duty is officiate as [C-IN-C or goswami)  in camp, otherwise who would spread the 'Man-making and Charecter Building Education and its ' Be and Make ' Leadership Training Tradititon ?  You have to renounce mentally.

“ईश्वर ही ने लोक -शिक्षा के लिए तुम लोगों को संसार में (गृहस्थ-जीवन में)  रखा है । तुम हजार संकल्प करो, त्याग नहीं कर सकोगे । उन्होंने तुम्हें ऐसी प्रकृति दी है कि तुम्हें संसार का कामकाज करना ही पड़ेगा । 

{“তিনিই লোকশিক্ষার জন্য তোমাদের সংসারে রেখেছেন — তুমি হাজার মনে কর, ত্যাগ করতে পারবে না — তিনি এমন প্রকৃতি তোমায় দিয়েছেন যে, তোমায় সংসারে কাজই করতে হবে।

"It is God Himself who has kept you in the world to set an example to men. You may resolve in your mind a thousand times to renounce the world, but you will not succeed. God has given you such a nature that you must perform your worldly duties. } 

“श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह तुम क्या कह रहे हो ? इच्छा करने ही से तुम युद्ध से निवृत्त न हो सकोगे । तुम्हारी प्रकृति तुमसे युद्ध करायेगी ।” (गीता 18 , 59) 

[“কৃষ্ণ অর্জুনকে বলছেন — তুমি যুদ্ধ করবে না, কি বলছ? — তুমি ইচ্ছা করলেই যুদ্ধ থেকে নিবৃত্ত হতে পারবে না, তোমার প্রকৃতিতে তোমায় যুদ্ধ করাবে।”

"Krishna said to Arjuna: 'What do you mean, you will not fight? By your mere will you cannot desist from fighting. Your very nature will make you fight.'

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। 

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।। 

(गीता, 18.59) 

यत् अहङ्कारम्  आश्रित्य न योत्स्ये इति मन्यसे।  मिथ्या एषः व्यवसायः ते प्रकृतिः त्वाम् नियोक्ष्यति।

18.59 If, filled with egoism, thou thinkest: "I will not fight", vain is this, thy resolve; Nature will compel thee.

तुझे यह भी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो कर्म करने में स्वतन्त्र हूँ , दूसरे का (या स्वामी जी का ?) कहना ' Be and Make ' मैं क्यों करूँ ?  -- जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है -- ऐसा निश्चय कर रहा है कि , "मैं युद्ध नहीं करूँगा " (मैं ' Be and Make ' आन्दोलन का कर्मी नहीं बनूँगा ! ) तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है।  क्योंकि तेरी प्रकृति -- तेरा क्षत्रियस्वभाव तुझे युद्ध में नियुक्त कर देगा

और (व्यष्टि) अहंकार का आश्रय लेकर तुम जो यह सोच रहे हो कि , "मैं युद्ध नहीं करूंगा", तो तुम्हारा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है, क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति  (तुम्हारा क्षत्रिय -स्वभाव) ही तुम्हें (बलात्)  युद्ध में लगा देगी;  अर्थात Be and Make ' कर्म में प्रवृत्त करेगी।]

श्रीकृष्ण अर्जुन से बातें कर रहे हैं- यह कहते ही श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हो रहे हैं । बात ही बात में सब अंग स्थिर हो गये । आँखें एकटक हो गयीं । साँस चल रही है कि नहीं-जान नहीं पड़ता । नवद्वीप गोस्वामी, उनके लड़के और भक्तगण निर्वाक् हो यह दृश्य देख रहे हैं ।  

गोस्वामी वंश के लिए  योग और भोग दोनों है !]

कुछ प्रकृतिस्थ हो श्रीरामकृष्ण नवद्वीप गोस्वामी से कहते हैं- 

“योग और भोग । तुम लोग गोस्वामी वंश के हो, तुम लोगों के लिए दोनों है । 

“अब केवल प्रार्थना, हार्दिक प्रार्थना करो कि हे ईश्वर, तुम्हारी इस भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य को मैं नहीं चाहता - मैं तुम्हें चाहता हूँ । 

[“যোগ ভোগ। তোমরা গোস্বামীবংশ তোমাদের দুই-ই আছে।“এখন কেবল তাঁকে প্রার্থনা কর, আন্তরিক প্রার্থনা — ‘হে ঈশ্বর, তোমার এই ভুবনমোহিনী মায়ার ঐশ্বর্য — আমি চাই না — আমি তোমায় চাই।’

"Yoga and bhoga. You goswamis have both. Now your only duty is to call on God and pray to Him sincerely: 'O God, I don't want the glories or Thy world-bewitching maya.(Bh)  I want Thee alone!' 

*भक्त और भगवान *  

[राम सब में निवास करते हैं, भक्त राम में निवास करते हैं]

(Rama dwells in all, Devotees dwells in Rama )

प्रश्न :ईश्वर तो सब प्राणियों में हैं -(ओहि राम घोट -घोट में लेटा) । फिर भक्त (राम-भक्त) किसे कहते हैं ? 

{“তিনি তো সর্বভূতেই আছেন — তবে ভক্ত (नेता) কাকে বলে? যে তাঁতে থাকে — যার মন-প্রাণ-অন্তরাত্মা সব, তাঁতে গত হয়েছে।”

God dwells in all beings, undoubtedly. That being the case, who may be called His devotee? 

जो ईश्वर में रहता है (वह है भक्त, नेता) , जिसका मन, प्राण, अन्तरात्मा – सब कुछ उसमें लीन हो गया है ।” 

[He who dwells in God, he who has merged his mind and life and innermost soul in God."

अब श्रीरामकृष्ण सहज दशा में आ गये हैं । नवद्वीप से कहते हैं- “मुझे यह जो अवस्था (समाधि-अवस्था) होती है, इसे कोई कोई रोग कहते हैं । इस पर मेरा कहना यह है कि जिसके चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है उसकी चिन्ता कर कोई अचैतन्य कैसे हो सकता है ?” 

[“ঠাকুর এইবার সহজাবস্থা প্রাপ্ত হইয়াছেন। নবদ্বীপকে বলিতেছেন:“আমার এই যে অবস্থাটা হয় (সমাধি অবস্থা) কেউ কেউ বলে রোগ। আমি বলি যাঁর চৈতন্যে জগৎ চৈতন্য হয়ে রয়েছে, — তাঁর চিন্তা করে কেউ কি অচৈতন্য হয়?”

 The Master returned to the sense plane. Referring to his samadhi, he said to Navadvip: "Some say that this state of mine is a disease. I say to them, "How can one become unconscious by thinking of Him whose Consciousness has made the whole world conscious?'

मणि सेन अभ्यागत ब्राह्मणों और वैष्णवों को बिदा कर रहे हैं – उनकी मर्यादा के अनुसार किसी को एक रुपया, किसी को दो रुपये बिदाई देते हैं । श्रीरामकृष्ण को पाँच रुपये देने आये । आप बोले, “मुझे रुपये दोगे तो तुम्हें तुम्हारे गुरु की शपथ है ।’ मणि सेन इतने पर भी देने आये । तब श्रीरामकृष्ण ने अधीर होकर मास्टर से कहा, “क्यों जी, लेना चाहिए ?” मास्टर ने बड़ी आपत्ति करते हुए कहा, “जी नहीं ! किसी हालत में न लें !” 

मणि सेन के घरवालों ने तब आम और मिठाई खरीदने के नाम पर राखाल के हाथ में रुपये दिए । 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैंने गुरु की शपथ दी है – मैं अब मुक्त हूँ । राखाल ने रुपये लिए हैं – अब वह जाने ! 

[Friends of Mani Sen gave the money to Rakhal, requesting him to buy some mangoes and sweets for the Master. Sri Ramakrishna said to M.: "I have definitely said to Mani that I would not accept the money. I feel free now. But Rakhal has accepted it. His is now the responsibility."

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठे – दक्षिणेश्वर लौट जाएँगे ।

*निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण* 

[Rejoicing like these Pawapuri Jain Temple fish 

in Chidanand Sagar,  the Ocean of Bliss and Consciousness.]

मार्ग में मती शील का मन्दिर है । श्रीरामकृष्ण बहुत दिनों से मास्टर से कहते आए हैं कि एक साथ आकर इस मन्दिर की झील को देखेंगे यह सिखलाने के लिए कि निराकार ध्यान *कैसे करना चाहिए।

श्रीरामकृष्ण को खूब सर्दी हुई है, तथापि भक्तों के साथ मन्दिर देखने के लिए गाड़ी से उतरे । 

मन्दिर में श्रीगौरांग की पूजा होती है । अभी सन्ध्या होने में कुछ देर है । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ गौरांग-मूर्ति के सम्मुख भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । 

अब मन्दिर के पूर्व की ओर जो झील है; उसके घाट पर आकर झील का पानी और मछलियों को देख रहे हैं । कोई इन मछलियों की हिंसा नहीं करता । कुछ मूढ़ी  फेंकने पर बड़ी बड़ी मछलियाँ झुण्ड के झुण्ड सामने आकर खाने लगती हैं – फिर निर्भय होकर आनन्द से पानी में घूमती-फिरती हैं । 

श्रीरामकृष्ण मास्टर से कहते हैं, “यह देखो कैसी मछलियाँ (कुम्भ)  हैं ! चिदानन्द-सागर (जल) में इन मछलियों (कुम्भ) की तरह आनन्द से विचरण करो ।” 

"Look at the fish. Meditating on the formless God is like swimming joyfully like these fish, in the Ocean of Bliss and Consciousness."

[* पानीहाटी के रास्ते में मति शील का मंदिर है जहाँ बिहार के पावापुरी जैन-मंदिर के झील की तरह मछलियों की हिंसा नहीं की जाती, ताकि लोग  चिदानन्दसागर में इन मछलियों की तरह आनन्द विहार करते देखकर निराकार का ध्यान कैसे किया जाता है ,यह सीख सकें।

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