शनिवार, 15 मई 2021

$$परिच्छेद ~ 35, [(2 जून, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Inherited tendencies**बलराम के घर पर श्रीरामकृष्ण के नरलीला का दर्शन और अमर आनन्द का (Immortal Bliss) आस्वादन* मनुष्य बनने के लिये संन्यासी और गृहस्थ दोनों को विषयासक्ति (Inherited tendencies) छोड़ना अनिवार्य है* श्री ठाकुर देव की इष्टदेवी भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से पाप आदि स्वतः भाग जाते हैं * सच्चिदानन्द (ecstatic love-immortal Bliss) के मूर्त रूप (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) के प्रति प्रेमभक्ति*[The Humanity of वराह-अवतार“ पंच भूतेर फाँदे , ब्रह्म पड़े काँदे ।” ] [प्रेमा-भक्ति और ज्ञानमिश्रित-भक्ति ] *मुक्ति और भक्ति - गोपीप्रेम* * पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रोते हैं *नरलीला का दर्शन और आस्वादन* *राजा हरिश्चन्द्र की कथा*संन्यासी और गृहस्थ - दोनों को विषयासक्ति छोड़नी होगी

   [(2 जून, 1883) परिच्छेद ~ 35, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) * साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

परिच्छेद~ ३५ 

(१) 

   [(2 जून, 1883) परिच्छेद ~ 35, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*संन्यासी हो या  गृहस्थ, विषयासक्ति (Inherited tendencies of sensuality) छोड़ना अनिवार्य* 

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं । बलराम के मकान से होकर अधर के मकान पर और उसके बाद राम के मकान पर जाएँगे । अधर के मकान में मनोहर साँई का कीर्तन होगा । राम के घर पर कथा होगी । शनिवार, वैशाख कृष्णा द्वादशी, 2 जून 1883 ई. । 

श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, उन पर  प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब स्वतः भाग जाते हैं, जैसे धूप से मैदान के जलाशय का जल स्वतः ही सूख जाता है ।   (भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से पाप आदि स्वतः भाग जाते हैं> 

 विषय की वासना तथा कामिनी - कांचन में आसक्ति (मोह) रखने से कुछ नहीं होता । यदि 'कामिनी -कांचन ' के प्रति  जन्मजात आसक्ति (Inborn or Inherited tendencies/(जन्मजात या विरासत में मिली प्रवृत्ति)) बनी ही रहे  तो संन्यास  लेने पर भी कुछ नहीं होता - जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।” 

{ঠাকুর গাড়ি করিয়া আসিতে আসিতে রাখাল ও মাস্টার প্রভৃতি ভক্তদের বলিতেছেন, “দেখ, তাঁর উপর ভালবাসা এলে পাপ-টাপ সব পালিয়ে যায়, সূর্যের তাপে যেমন মেঠো পুকুরে জল শুকিয়ে যায়।”

“বিষয়ের উপর, কামিনী-কাঞ্চনের উপর, ভালবাসা থাকলে হয় না। সন্ন্যাস করলেও হয় না যদি বিষয়াসক্তি থাকে। যেমন থুথু ফেলে আবার থুথু খাওয়া!”

As they drove along, Sri Ramakrishna said to the devotees: "You see, sin flies away when love of God  grows in a man's heart,  even as the water of the reservoir dug in a meadow dries up under the heat of the sun. But one cannot love God if one feels attracted to worldly things, to 'woman and gold'.  Merely taking the vow of monastic life will not help a man if he is attached to the world. It is like swallowing your own spittle after spitting it out on the ground."

थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “ब्राह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते । (हँसकर- माँ भवतारिणी काली को ) नरेन्द्र कहता है, ‘पुत्तलिका’ ! [- अर्थात  साकार रूप वाला भगवान -'माँ काली' मात्र एक मूर्ति है !-- God with form is a mere idol !)  फिर कहता है, ‘वे (श्री ठाकुर देव) अभी तक कालीमन्दिर में जाते हैं ।’ 

{কিয়ৎক্ষণ পরে গাড়িতে ঠাকুর আবার বলিতেছেন, “ব্রহ্মজ্ঞানীরা সাকার মানে না। (সহাস্যে) নরেন্দ্র বলে ‘পুত্তলিকা’! আবার বলে, ‘উনি এখনও কালীঘরে যান’!”

"The members of the Brahmo Samaj do not accept God with form. Narendra says that God with form is a mere idol. He says further: 'What? He (Referring to the Master.) still goes to the Kali temple!'"

 * श्रीरामकृष्ण के नरलीला का दर्शन और अमर आनन्द का (Immortal Bliss) आस्वादन*

श्रीरामकृष्ण और उनका संगत (party) बलराम के घर पर आए हैं । वे एकाएक भावाविष्ट हो गए हैं । सम्भव हैं, देख रहे हैं, ईश्वर ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं । जगन्माता से कह रहे हैं, “माँ, यह क्या दिखा रही हो ? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो ? राखाल आदि के द्वारा क्या क्या दिखा रही हो, माँ ! रूप आदि सब उड़ गया । अच्छा माँ, मनुष्य का शरीर तो केवल ऊपर का खोल (pillow-case) ही है न? चैतन्य (Consciousness रूपी रुई ) तुम्हारा ही है । 

[ঠাকুর হঠাৎ ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন। বুঝি দেখিতেছেন, ঈশ্বরই জীবজগৎ হইয়া রহিয়াছেন, ঈশ্বরই মানুষ হইয়া বেড়াইতেছেন। জগন্মাতাকে বলিতেছেন, “মা, একি দেখাচ্ছ! থাম; আবার কত কি! রাখাল-টাখালকে দিয়ে কি দেখাচ্ছ! রূপ-টুপ সব উড়ে গেল। তা মা, মানুষ তো কেবল খোলটা বই তো নয়। চৈতন্য তোমারই।

"Mother, what is all this? Stop! What are these things Thou art showing to me? What is it that Thou dost reveal to me through Rakhal and others? The form is disappearing. But, Mother, what people call 'man' is only a pillow-case, nothing but a pillow-case. Consciousness is Thine alone.

“माँ, आजकल के ब्रह्मज्ञानी 'मीठा रस' (sweet-Bliss, माँ का अमृत आनन्द-immortal Bliss  ) का स्वाद चखे बिना ही अपने को ब्रह्मज्ञानी समझ लेते हैं। इसलिए उनकी आँखें सूखी-सूखी , चेहरा रुखा- रुखा रहता है ! सच्चिदानन्द (ecstatic love) के मूर्त रूप (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) के प्रति प्रेमभक्ति न होने से कुछ न हुआ ! 

{“মা, ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানীরা মিষ্টরস পায় নাই। চোখ শুকনো, মুখ শুকনো! প্রেমভক্তি না হলে কিছুই হল না।

"The modern Brahmajnanis have not tasted Thy sweet bliss (immortal Bliss) . Their eyes look dry and so do their faces. They won't achieve anything without ecstatic love of God.

“माँ, तुमसे कहा था,- ' एक व्यक्ति को साथी बना दो, मेरे जैसे किसी को ! इसीलिए राखाल को दिया है न ?”

{“মা, তোমাকে বলেছিলাম, একজনকে সঙ্গী করে দাও আমার মতো। তাই বুঝি রাখালকে দিয়েছ।”

"Mother, once I asked Thee to give me a companion just like myself. Is that why Thou hast given me Rakhal?"

*जब माँ काली मुक्ति देना चाहेंगी -उस समय साधुसंग और व्याकुलता देंगी * 

श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । मनोहर साँई के कीर्तन की तैयारी हो रही है । 

श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए अधर के बैठकघर में अनेक भक्त तथा पड़ोसी आए हैं । सभी की इच्छा है कि श्रीरामकृष्ण कुछ कहें ।  

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) -  सांसारिकता (worldliness-कामिनी-कांचन में आसक्ति ) और मुक्ति (भ्रममुक्ति -liberation, de -Hypnotization)  दोनों ही ईश्वर (माँ काली)  की इच्छा पर निर्भर हैं । उन्होंने ही हमें सांसारिकता में, या अज्ञान की अवस्था (सम्मोहित अवस्था - Hypnotized अवस्था -भेंड़त्व की अवस्था) में बनाकर रखा है । फिर जिस समय वे अपनी इच्छा से पुकारेंगे, उसी समय मुक्ति होगी। लड़का खेलने गया है, खाने के समय माँ बुला लेती है । 

“जिस समय वे मुक्ति देंगे उस समय वे साधुसंग (holy men-मार्गदर्शक नेता या नवनीदा जैसे जीवन- मुक्त शिक्षक का संग) करा देते हैं और फिर अपने को पाने के लिए (परम् सत्य को देखने की)  व्कुलता उत्पन्न कर देते हैं ।”

 [ और तब विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा का संग और इन्द्रियातीत सत्य, तुरीयं सच्चिदानन्द को देखने की प्रणाली मनःसंयोग का प्रशिक्षण प्राप्त होता है।] "

{সংসার আর মুক্তি দুই ঈশ্বরের ইচ্ছা। তিনিই সংসারে অজ্ঞান করে রেখেছেন; আবার তিনিই ইচ্ছা করে যখন ডাকবেন তখন মুক্তি হবে। ছেলে খেলতে গেছে, খাবার সময় মা ডাকে।

“যখন তিনি মুক্তি দেবেন তখন তিনি সাধুসঙ্গ করিয়ে নেন। আবার তাঁকে  পাবার জন্য ব্যাকুলতা করে দেন।”

 "Both worldliness and liberation depend on God's will. It is God alone who has kept man in the world in a state of ignorance; and man will be free when God, of His own sweet will, calls him to Himself. It is like the mother calling the child at meal-time, when he is out playing. When the time comes for setting a man free, God makes him seek the company of holy men (Like C-IN-C Navani Da). Further, it is God who makes him restless for spiritual life."

पड़ोसी- महाराज, किस प्रकार की व्याकुलता होती है ? 

[প্রতিবেশী — মহাশয়, কিরকম ব্যাকুলতা?

প্রতিবেশী — মহাশয়, কিরকম ব্যাকুলতা? "What kind of restlessness, sir?"

श्रीरामकृष्ण- नौकरी छूट जाने पर क्लर्क को जिस प्रकार व्याकुलता होती है । वह जिस प्रकार रोज आफिस में घूमता है और पूछता रहता है, ‘साहब, कोई नौकरी की जगह खाली हुई?’ व्याकुलता होने पर मनुष्य छटपटाता है- कैसे ईश्वर को पाऊँ ! 

“और यदि मूँछों पर हाथ फेरते हुए पैर पर पैर धरकर बैठे बैठे पान चबा रहा है- कोई चिन्ता नहीं, तो ऐसी स्थिति में ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती !” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম গেলে কেরানির যেমন ব্যাকুলতা হয়! সে যেমন রোজ আফিসে আফিসে ঘোরে, আর জিজ্ঞাসা করে, হ্যাঁগা কোনও কর্মখালি হয়েছে? ব্যাকুলতা হলে ছটফট করে — কিসে ঈশ্বরকে পাব!

“গোঁপে চাড়া, পায়ের উপর পা দিয়ে বসে আছেন, পান চিবুচ্ছেন, কোন ভাবনা নেই এরূপ অবস্থা হলে ঈশ্বরলাভ হয় না!”

"Like the restlessness of a clerk who has lost his job. He makes the round of the offices daily and asks whether there is any vacancy. When that restlessness comes, man longs for God. A fop, seated comfortably with one leg over the other, chewing betel-leaf and twirling his moustaches — a carefree dandy —, cannot attain God."

पड़ोसी- साधुसंग होने पर क्या व्याकुलता हो सकती है ? 

[প্রতিবেশী — সাধুসঙ্গ হলে এই ব্যাকুলতা হতে পারে? NEIGHBOUR: "Can one get this longing for God through frequenting the company of holy men [holy men-CINC नवनीदा या महामण्डल का संग]?"

श्रीरामकृष्ण- हाँ, हो सकती है, परन्तु पुराने पाखण्डियों (confirmed scoundrel) को नहीं होती । साधु का कमण्डल चारों धाम होकर आने पर भी कडुए का कडुआ ही रह जाता है ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, হতে পারে, তবে পাষণ্ডের হয় না। সাধুর কমণ্ডলু চার-ধাম করে এল, তবু যেমন তেতো তেমনি তেতো!MASTER:

 "Yes, it is possible. But not for a confirmed scoundrel. A sannyasi's kamandalu, made of bitter gourd, travels with him to the four great places of pilgrimage but still does not lose its bitterness."

अब कीर्तन शुरू हुआ है; गोस्वामी श्री कृष्ण चरित (कलह-संवाद) गा रहे हैं- “श्रीमती कह रही हैं, ‘सखि ! प्राण जाता है, कृष्ण को ला दे !’ 

[এইবার কীর্তন আরম্ভ হইয়াছে। গোস্বামী কলহান্তরিতা গাইতেছেন:শ্রীমতী বলছেন, সখি, প্রাণ যায়, কৃষ্ণ এনে দে! The kirtan began. The musician sang of Sri Krishna's life in Vrindavan:RADHA: "Friend, I am about to die. Give me back my Krishna."]

सखी - ‘राधे, कृष्णरूपी मेघ बरसता ही था; परन्तु तूने मान (प्रेमकोप-) रूपी आँधी से उस मेघ को उड़ा दिया । तू कृष्ण के सुख में सुखी नहीं है; नहीं तो मान क्यों करती?’ 

[সখী — রাধে, কৃষ্ণমেঘে বরিষণ হত, কিন্তু তুই মান-ঝঞ্ঝাবাতে মেঘ উড়াইলি। তুই কৃষ্ণসুখে সুখী নস্‌, তাহলে মান করবি কেন?

FRIEND: "But, Radha, the cloud of Krishna was ready to burst into rain. It was yourself who blew it away with the strong wind of your pique (अभिमान) . You are certainly not happy to see Krishna happy; or why were you piqued?"

श्रीमती/ श्रीराधा - ‘सखि, मान तो मेरा नहीं है । जिसका मान है उसी के साथ चला गया है ।’ 

[শ্রীমতী — সখি, মান তো আমার নয়। যার মান তার সঙ্গে গেছে। RADHA: "But this pride was not mine. My pride has gone away with Him who made me proud."

ललिता श्रीमती की ओर से कुछ कह रही है- ‘सबने मिलकर प्रीत की .....सबहुँ मिली कैंयली प्रीत ...कोई देखौली घाटे माठे , विशाखा देखौली चित्रपटे!   

अब कीर्तन में गोस्वामी कह रहे हैं कि सखियाँ राधाकुण्ड के पास श्रीकृष्ण की खोज करने लगीं । उसके बाद यमुनातट पर श्रीकृष्ण का दर्शन, साथ में श्रीदाम, सुदाम,मधुमंगल । वृन्दा के साथ श्रीकृष्ण का वार्तालाप, श्रीकृष्ण का योगी का-सा भेस, जटिला-संवाद, राधा का भिक्षादान, राधा का हाथ देख योगी द्वारा गणना तथा संकट की भविष्यवाणी कात्यायनी की पूजा में जाने की तैयारी । कीर्तन समाप्त हुआ। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

[The Humanity of Avatars, वराह-अवतार]

“ माँ कात्यायनी की पूजा करनी ही पड़ती है - पंच भूतेर फाँदे , ब्रह्म पड़े काँदे ।”

श्रीरामकृष्ण-गोपियों ने कात्यायनी की पूजा की थी । सभी उस महामाया आद्याशक्ति ( Primal Energy) के अधीन हैं । अवतार आदि तक उस माया का आश्रय लेकर ही लीला करते हैं; इसीलिए वे आद्याशक्ति की पूजा करते हैं । देखो न, राम सीता के लिए कितने रोये हैं । (हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥) पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रोते हैं *।

 [हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम विष्णु के अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। ] 

 {শ্রীরামকৃষ্ণ — গোপীরা কাত্যায়নীপূজা করেছিলেন। সকলেই সেই মহামায়া আদ্যাশক্তির অধীনে। অবতার আদি পর্যন্ত মায়া আশ্রয় করে তবে লীলা করেন। তাই তাঁরা আদ্যাশক্তির পূজা করেন। দেখ না, রাম সীতার জন্য কত কেঁদেছেন। “পঞ্চভূতের ফাঁদে, ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে।”

"The gopis worshipped Katyayani in order to be united with Sri Krishna. Everyone is under the authority of the Divine Mother, Mahamaya, the Primal Energy. Even the Incarnations of God accept the help of maya to fulfil their mission on earth. Therefore they worship the Primal Energy. Don't you see how bitterly Rama wept tor Sita? 'Brahman weeps, ensnared in the meshes of maya.'

“हिरण्याक्ष का वध कर वराह-अवतार कच्चे-बच्चे लेकर रह रहे थे । आत्मविस्मृत होकर उन्हें स्तनपान करा रहे थे । देवताओ ने परामर्श करके शिवजी को भेज दिया । शिवजी ने त्रिशूल के आघात से वराह का शरीर विनष्ट कर दिया; तब वे स्वधाम में पधारे । शिवजी ने पूछा था -  ‘तुम आत्मविस्मृत क्यों हो गये हो?’ इस पर विष्णु ने सूअर के शरीर में रहते हुए भी कहा था, ‘क्यों , मैं तो बहुत मजे में हूँ !” 

{“হিরণ্যাক্ষকে বধ করে বরাহ অবতার ছানা-পোনা নিয়ে ছিলেন। আত্মবিস্মৃত হয়ে তাদের মাই দিচ্ছিলেন! দেবতারা পরামর্শ করে শিবকে পাঠিয়ে দিলেন। শিব শূলের আঘাতে বরাহের দেহ ভেঙে দিলেন; তবে তিনি স্বধামে চলে গেলেন। শিব জিজ্ঞাসা করেছিলেন, তুমি আত্মবিস্মৃত হয়ে আছ কেন? তাতে তিনি বলেছিলেন, আমি বেশ আছি!”

"Vishnu incarnated himself as a sow in order to kill the demon Hiranyaksha. After killing the demon, the sow remained quite happy with her young ones. Forgetting her real nature, she was suckling them very contentedly. The gods in heaven could not persuade Vishnu to relinquish His sow's body and return to the celestial regions. He was absorbed in the happiness of His beast form. After consulting among themselves, the gods sent Siva to the sow. Siva asked the sow, 'Why have you forgotten yourself?' Vishnu replied through the sow's body, 'Why, I am quite happy here.' Thereupon with a stroke of his trident Siva destroyed the sow's body, and Vishnu went back to heaven."

अधर के मकान से होकर अब श्रीरामकृष्ण राम के मकान पर जा रहे हैं । 

(२) 

*रामचन्द्र दत्त के मकान पर* 

श्रीरामकृष्णदेव सिमुलिया मुहल्ले की मधु राय की गली में रामबाबू ^  के मकान में आये है । रामचन्द्र दत्त श्री रामकृष्णदेव के विशिष्ट भक्त हैं । वे डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर मेडिकल कालेज में रसायनशास्त्र के सहकारी परीक्षक नियुक्त हुए थे और ‘साइन्स असोसिएशन’ में रसायनशास्त्र के अध्यापक भी थे । उन्होंने स्वोपार्जित धन से यह मकान बनवाया था । इस मकान में श्रीरामकृष्णदेव कुछ एक बार आये थे, इसीलिए यह मकान भक्तों के लिए आज तीर्थ के समान महान् पवित्र है।

{From Adhar's house Sri Ramakrishna went to Ram's house. Ramchandra Dutta, one of the chief householder disciples of the Master, lived in Calcutta. He had been one of the first to announce the Master as an Incarnation of God. The Master had visited his house a number of times and unstintingly praised the devotion and generosity of this beloved disciple. A few of the Master's disciples made Ram's house virtually their own dwelling-place.

रामचन्द्र गुरुदेव की कृपा लाभ कर ज्ञानपूर्वक संसारधर्म पालन करने की चेष्टा करते थे । श्रीरामकृष्णदेव मुक्तकण्ठ से रामबाबू की प्रशंसा करते और कहते थे, - ‘राम अपने मकान में भक्तों को स्थान देता है, कितनी सेवा करता है, उसका मकान भक्तों का एक अड्डा है ।’ नित्यगोपाल, लाटू, तारक आदि एक प्रकार से रामचन्द्र के घर के आदमी हो गये थे । इन्होंने उनके साथ बहुत दिनों तक एकत्र वास किया था । इसके सिवाय उनके मकान में प्रतिदिन नारायण की पूजा और सेवा होती थी ।  

रामचन्द्र श्रीरामकृष्ण को वैशाख की पूर्णिमा को, जिस समय हिण्डोले का श्रृंगार होता है, इस मकान में उनकी पूजा करने के लिए सर्वप्रथम ले आये थे । प्रायः प्रतिवर्ष आज के दिन वे उनको ले जाकर भक्तों से सम्मिलित हो महोत्सव मनाया करते थे । रामचन्द्र के प्यारे शिष्यवृन्द अब भी उस दिन उत्सव मनाते हैं ।  

आज रामचन्द्र के मकान में उत्सव है ! श्रीरामकृष्ण आयेंगे । आपके लिए रामचन्द्र ने श्रीमद्भागवत की कथा का प्रबन्ध किया है । छोटासा आँगन है, परन्तु उसी में कैसा सुन्दर सजाया है ! वेदी तैयार हुई है, उस पर कथक महोदय बैठे हैं । राजा सत्य हरिश्चन्द्र ^* की कथा   हो रही है । [राजा सत्य हरिश्चन्द्र ^*अयोध्या के राजा हरिशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे भगवान राम के पूर्वज थे। इनकी पत्नी का नाम तारा था और पुत्र का नाम रोहित।  एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने सपना देखा कि उन्होंने अपना सारा राजपाट विश्वामित्र को दान में दे दिया है। अगले दिन जब विश्वामित्र उनके महल में आए, तो उन्होंने विश्वामित्र को सारा हाल सुनाया। ऋषि विश्वामित्र ने  राजा हरिशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका सागरपर्यन्त संपूर्ण राज्य मांग लिया। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने सहर्ष अपना राज्य उन्हें सौंप दिया। लेकिन जाते-जाते विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं अतिरिक्त दान में मांगी। विश्वामित्र ने राजा को याद दिलाया कि राजपाट के साथ राज्य का कोष भी वे दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु को दोबारा दान नहीं किया जाता।]...  

इसी समय बलराम और अधर के मकान से होकर श्रीरामकृष्ण यहाँ आ पहुँचे । रामचन्द्र ने आगे बढ़कर उनकी चरणरज को मस्तक में धारण किया और वेदी के संम्मुख उनके लिए निर्दिष्ट आसन पर उन्हें लाकर बैठाया । चारों ओर भक्त और पास ही मास्टर बैठे हैं ।

* सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की कथा* होने लगी- 

“विश्वामित्र बोले, ‘महाराज ! तुमने मुझे संसार सागर-पृथ्वी दान कर दी है, इसलिए अब इसके भीतर तुम्हारे लिए स्थान नहीं है; किन्तु तुम काशीधाम में रह सकते हो, वह महादेव का स्थान है । चलो, तुम्हें और तुम्हारी सहधर्मिणी शैब्या और तुम्हारे पुत्र को वहाँ पहुँचा दें । वहीँ पर जाकर तुम प्रबन्ध करके मुझे दक्षिणा दे देना ।’ यह कहकर राजा को साथ ले विश्वामित्र काशीधाम की ओर चले । काशी में आकर उन लोगों ने विश्वेश्वर के दर्शन किये ।” 

[রাজা হরিশ্চন্দ্রের কথা চলিতে লাগিল। বিশ্বামিত্র বলিলেন, “মহারাজ! আমাকে সসাগরা পৃথিবী দান করিয়াছ, অতএব ইহার ভিতর তোমার স্থান নাই। তবে ৺কাশীধামে তুমি থাকিতে পার। সে মহাদেবের স্থান। চল, তোমাকে, তোমার সহধর্মিণী শৈব্যা ও তোমার পুত্র সহিত সেখানে পৌঁছাইয়া দিই। সেইখানে গিয়া তুমি দক্ষিণা যোগাড় করিয়া দিবে।” এই বলিয়া রাজাকে লইয়া ভগবান বিশ্বামিত্র ৺কাশীধাম অভিমুখে যাত্রা করিলেন। কাশীতে পৌঁছিয়া সকলে ৺বিশ্বেশ্বর-দর্শন করিলেন।

The great King Harischandra of the Purana was the embodiment of generosity. No one ever went away from him empty-handed. Now, the sage Viswamitra, wanting to test the extent of the king's charity, extracted from him a promise to grant any boon that he might ask, Then the sage asked for the gift of the sea-girt world, of which Harischandra was king. Without the slightest hesitation the king gave away his kingdom. Then Viswamitra demanded the auxiliary fee, which alone makes charity valid and meritorious.

विश्वेश्वर-दर्शन की बात होते ही श्रीरामकृष्ण एकदम भावाविष्ट हो अस्पष्ट रूप से ‘शिव’ ‘शिव’ उच्चारण कर रहे हैं । 

कथक महोदय कथा कहते गए- “राजा हरिश्चन्द्र दक्षिणा नहीं दे पाए, इसलिए उन्होंने रानी शैब्या को बेच दिया। पुत्र रोहिताश्व भी शैब्या के साथ चला गया ।” 

कथक महोदय ने शैब्या के ब्राह्मण मालिक के यहाँ रोहिताश्व के फूल तोड़ने और उसे साँप के द्वारा काटे जाने की कथा कही । -  

“उस अन्धकाराच्छन्न कालरात्रि में सन्तान की मृत्यु हो गयी । उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए कोई नहीं था । गृहस्वामी वृद्ध ब्राह्मण शय्या त्यागकर नहीं उठे । पुत्र के शव को गोद में लिए शैब्या अकेली शमशान की ओर चल पड़ी । बीच बीच में बादल गरज रहे थे और बिजली कड़क रही थी । एक एक बार घोर अन्धकार को चीरती हुई बिजली चमक दिखा जाती थी । भयभीत, शोकाकुल शैब्या रोती हुई चली जा रही थी ।” 

“पत्नी और पुत्र को बेचने पर भी दक्षिणा की राशि पूरी न होने पायी; इसलिए हरिश्चन्द्र ने स्वयं को एक चाण्डाल को बेच डाला था । वे शमशान में चाण्डाल बने बैठे हैं - कर वसूल करने पर ही अग्निसंस्कार करने देंगे । कितने ही शव जल रहे हैं, कितने जलकर भस्मीभूत हो गए हैं । घोर अँधेरी रात में शमशान कितना भयावना दिखायी दे रहा है ! शैब्या उस स्थान पर आकर विलाप करने लगी । 

उस करुण क्रन्दन को सुनकर, ऐसा कौन है जो व्याकुल न हो, जिसका हृदय विदीर्ण न हो? सभी श्रोतागण रो पड़े । 

श्रीरामकृष्ण क्या कर रहे हैं? वे स्थिर होकर कथा सुन रहे हैं - बिलकुल स्थिर हैं । केवल एक बार आँख के कोने में एक बूँद आँसू छलक उठा पर आपने उसे पोंछ डाला । आपने अधीर होकर रुदन क्यों नहीं किया ?  

अन्त में रोहिताश्व को जीवनदान, सब लोगों का विश्वेश्वर दर्शन और हरिश्चन्द्र का पुनः राज्यलाभ वर्णन कर कथक महोदय ने कथा समाप्त की । श्रीरामकृष्ण बहुत समय तक वेदी के सम्मुख बैठकर कथा सुनते रहे । कथा समाप्त होने पर बाहर के कमरे में जाकर बैठे । चारों ओर भक्तमण्डली बैठी है, कथक भी पास बैठ गये । श्रीरामकृष्ण कथक से बोले, “कुछ उद्धव संवाद कहो ।” 

*मुक्ति और भक्ति - गोपीप्रेम* 

 [प्रेमा-भक्ति और ज्ञानमिश्रित-भक्ति ]

कथक कहने लगे- “जब उद्धव वृन्दावन आए, गोपियाँ और ग्वालबाल उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो दौड़कर उनके पास गए । सभी पूछने लगे, ‘श्रीकृष्ण कैसे हैं? क्या वे हम लोगों को भूल गए? क्या वे कभी हम लोगों का स्मरण करते हैं?’ यह कहकर कोई रोने लगा, कोई उन्हें साथ ले वृन्दावन के अनेक स्थानों को दिखलाने और कहने लगा, ‘इस स्थान में श्रीकृष्ण न गोवर्धन धारण किया था; यहाँ पर धेनुकासुर और वहाँ पर शकटासुर का वध किया था; इस मैदान में गौओं को चराते थे; इसी यमुना के तट पर वे विहार करते थे; यहाँ पर ग्वालबालों सहित क्रीड़ा करते थे; इस कुंज में गोपियों के साथ वार्तालाप करते थे ।’ 

उद्धव बोले, ‘आप लोग कृष्ण के लिए इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं? वे तो सर्वभूतों में व्याप्त हैं । वे साक्षात् नारायण हैं ! उनके सिवाय और कुछ नहीं है ।’ गोपियों ने कहा, ‘हम यह सब नहीं समझ सकतीं । लिखना पढ़ना हमें नहीं मालुम । हम तो केवल अपने वृन्दावनविहारी कृष्ण को जानती हैं, जो यहाँ बहुत-कुछ लीला कर गए हैं ।’ उद्धव फिर बोले, ‘वे साक्षात् नारायण हैं, उनकी चिन्ता करने से पुनः संसार में नहीं आना पड़ता, जीव मुक्त हो जाता है ।’ गोपियों ने कहा, ‘हम मुक्ति आदि-ये सब बातें नहीं समझतीं । हम तो अपने प्राणवल्लभ कृष्ण को देखना चाहती हैं ।’  

श्रीरामकृष्णदेव यह सब ध्यान से सुनते रहे और भाव में मग्न हो बोले, “गोपियों का कहना सत्य है ।” यह कहकर वे अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे-

आमि मुक्ती दिते कातोर नेई, शुद्धा भक्ती दिते कातोर होई।  

आमार भक्ती जेबा पाय, ताते केब पाय, शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी। 

शुन चंद्रावली भक्तीर कथा कोई, भक्तीर कारणे पाताल भवने।  

शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी, बलिर द्वारे आमि द्वारे होये रोई।  

शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने, गोप गोपी बिने अन्ये नाही जाने।  

भक्तीर कारणे नंदेर भवने, पिता ज्ञाने नंदेर बाधा माथाय बोई।  


 गाने का आशय यह है- 

“मैं (श्री कृष्ण)  मुक्ति देने में कातर नहीं होता, पर शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ । जो शुद्धा भक्ति प्राप्त कर लेते हैं वे सब से आगे हैं । वे पूज्य होकर त्रिलोकजयी होते हैं ।

 सुनो चन्द्रावलि, (वृन्दावन की एक गोपी)  भक्ति की बात करता हूँ - 'मुक्ति' तो मिलती है, पर 'भक्ति' कहाँ मिलती है? भक्ति के कारण मैं पाताल में बलिराजा ^*का द्वारपाल होकर रहता हूँ । शुद्धा भक्ति एक वृन्दावन में है जिसे गोप-गोपियों के सिवाय दूसरा कोई नहीं जानता । भक्ति के कारण मैं नन्द के भवन में उन्हें पिता जानकर उनके जूते सिर पर ले चलता हूँ ।” 

[बलिराजा ^*^पुराण में वर्णित राजा बली  की कहानी का प्रसंग । भगवान श्रीहरि वामन का रूप लेकर राजा बलि के पास दान मांगने पहुंचे। राजा से तीन पग धरती मांगी जो बलि ने दे दी। भगवान ने एक पग में आकाश, दूसरे में धरती व तीसरा पग राजा के सिर पर रख दिया। राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना ही रहे हैं तो मुझे वरदान ‍दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प लिया। पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे और इस तरह बलि निश्चिंत होकर सोता था। ]

[Though I am never loath to grant salvation, I hesitate indeed to grant pure love. Whoever wins pure love surpasses all; He is adored by men; He triumphs over the three worlds. Listen, Chandravali!4 I shall tell you of love: Mukti a man may gain, but rare is bhakti. Solely for pure love's sake did I become King Vali's door-keeper Down in his realm in the nether world. 5Alone in Vrindavan can pure love be found; Its secret none but the gopas and gopis know. For pure love's sake I dwelt in Nanda's house; Taking him as My father, I carried his burdens on My head.

श्रीरामकृष्ण (कथक के प्रति)- गोपियों की भक्ति थी प्रेमाभक्ति – अव्यभिचारिणी भक्ति – निष्ठा-भक्ति। व्यभिचारिणी भक्ति किसे कहते हैं, जानते हो? ज्ञानमिश्रित भक्ति । जैसे कृष्ण ही सब हुए हैं – वे ही परब्रह्म हैं, वे ही राम, वे ही शिव, वे ही शक्ति हैं । पर प्रेमाभक्ति में उस ज्ञान का संयोग नहीं है द्वारका में आकर हनुमान ने कहा, ‘सीताराम के दर्शन करूँगा ।’ भगवान् रुक्मिणी से बोले, ‘तुम सीता बनकर बैठो, अन्यथा हनुमान से रक्षा नहीं है ।’ 

       पाण्डवों ने जब राजसूय यज्ञ किया, उस समय देश देश के नरेश युधिष्ठिर को सिंहासन पर बिठाकर प्रणाम करने लगे । विभीषण बोले, ‘मैं एक नारायण को प्रणाम करूँगा, और दूसरे को नहीं !यह सुनते ही भगवान् स्वयं भूमिष्ठ होकर, युधिष्ठिर को प्रणाम करने लगे । तब विभीषण ने राजमुकुट धारण किए हुए भी युधिष्ठिर को साष्टांग प्रणाम किया । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (কথকের প্রতি) — গোপীদের ভক্তি প্রেমাভক্তি; অব্যভিচারিণী ভক্তি, নিষ্ঠাভক্তি। ব্যভিচারিণী ভক্তি কাকে বলে জানো? জ্ঞানমিশ্রা ভক্তি। যেমন, কৃষ্ণই সব হয়েছেন। তিনিই পরব্রহ্ম, তিনিই রাম, তিনিই শিব, তিনিই শক্তি। কিন্তু ও জ্ঞানটুকু প্রেমাভক্তির সঙ্গে মিশ্রিত নাই। দ্বারকায় হনুমান এসে বললে, “সীতা-রাম দেখব।” ঠাকুর রুক্মিণীকে বললেন, “তুমি সীতা হয়ে বস, তা না হলে হনুমানের কাছে রক্ষা নাই।” পাণ্ডবেরা যখন রাজসূয় যজ্ঞ করেন, তখন যত রাজা সব যুধিষ্ঠিরকে সিংহাসনে বসিয়া প্রণাম করতে লাগল। বিভীষণ বললেন, “আমি এক নারায়ণকে প্রণাম করব, আর কারুকে করব না।” তখন ঠাকুর নিজে যুধিষ্ঠিরকে ভুমিষ্ঠ হয়ে প্রণাম করতে লাগলেন। তবে বিভীষণ রাজমুকুটসুদ্ধ সাষ্টাঙ্গ হয়ে যুধিষ্ঠিরকে প্রণাম করে।

The Master said to the kathak: "The gopis had ecstatic love, unswerving and single-minded devotion to one ideal. Do you know the meaning of devotion that is not loyal to one ideal? It is devotion tinged with intellectual knowledge. It makes one feel: 'Krishna has become all these. He alone is the Supreme Brahman. He is Rama, Siva, and Sakti.' But this element of knowledge is not present in ecstatic love of God. Once Hanuman came to Dwaraka and wanted to see Sita and Rama. Krishna said to Rukmini, His queen, 'You had better assume the form of Sita; otherwise there will be no escape from the hands of Hanuman.'(Because Rama and Sita were Hanuman's Chosen Ideals.) "Once the Pandava brothers performed the Rajasuya sacrifice. All the kings placed Yudhisthira on the royal throne and bowed low before him in homage. But Bibhishana, the King of Ceylon, said, 'I bow down to Narayana and to none else.' At these words the Lord Krishna bowed down to Yudhisthira. Only then did Bibhishana prostrate himself, crown and all, before him.

“किस प्रकार, जानते हो? जैसे घर की बहू अपने देवर, जेठ, ससुर और स्वामी सब की सेवा करती है । पैर धोने के लिए जल देती है, अँगौछा देती है, पीढ़ा रख देती है, परन्तु दूसरी तरह का सम्बन्ध एकमात्र स्वामी के साथ रहता है । 

“इस प्रेमाभक्ति में दो चीजें हैं । ‘अहंता और ‘ममता’ । यशोदा सोचती थीं, ‘गोपाल को मैं न देखूँगी तो और कौन देखेगा? मेरे देखभाल न करने पर उसे रोग-व्याधि हो सकती है ।’ यशोदा नहीं जानती थीं कि कृष्ण स्वयं भगवान् हैं । और ‘ममता’ – ‘मेरा कृष्ण, मेरा गोपाल’ । उद्धव बोले, ‘माँ, तुम्हारे कृष्ण साक्षात् नारायण हैं, वे संसार के चिन्तामणि हैं । वे सामान्य वस्तु नहीं हैं ।’ यशोदा कहने लगीं, ‘अरे तुम्हारे चिन्तामणि कौन ! मैं पूछती हूँ , मेरा गोपाल कैसा है ? चिन्तामणि नहीं, मेरा गोपाल कैसा है?’  

{"There are two elements in this ecstatic love: 'I-ness' and 'my-ness'. Yasoda used to think: 'Who would look after Gopala if I did not? He will fall ill if I do not serve Him.' She did not look on Krishna as God. The other element is 'my-ness'. It means to look on God as one's own —'my Gopala'. Uddhava said to Yasoda: 'Mother, your Krishna is God Himself. He is the Lord of the Universe and not a common human being.' 'Oh!' exclaimed Yasoda. 'I am not asking you about your Lord of the Universe. I want to know how my Gopala fares. Not the Lord of the Universe, but my Gopala.'

“गोपियों की निष्ठा कैसी थी ! मथुरा में द्वारपाल से अनुनयविनय कर वे सभा में आयीं । द्वारपाल उन लोगों को कृष्ण के पास ले गया । कृष्ण को देख गोपियाँ मुख नीचा कर परस्पर कहने लगीं, ‘यह पगड़ी बाँधे राजवेश में कौन है? इसके साथ वार्तालाप कर क्या अन्त में हम द्विचारिणी बनेंगी? हमारे मोहन मोरमुकुट-पीताम्बरधारी प्राणवल्लभ कहाँ हैं? देखते हो इन लोगों की निष्ठा कैसी है ! वृन्दावन का भाव ही दूसरा है । सुना है, द्वारका (गुजरात) की तरफ लोग पार्थसखा श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं - वे राधा को नहीं चाहते !”  

भक्त-कौन श्रेष्ठ है, ज्ञानमिश्रित भक्ति या प्रेमाभक्ति ?

श्रीरामकृष्ण- ईश्वर के प्रति एकान्त अनुराग हुए बिना प्रेमाभक्ति का उदय नहीं होता । और ‘ममत्व’-ज्ञान अर्थात् भगवान् मेरे अपने हैं, यह ज्ञान । तीन मित्र जंगल में जा रहे थे, सहसा एक बाघ सामने आ खड़ा हुआ ! एक आदमी बोला, ‘भाई, हम सब आज मरे ।’ दूसरा आदमी बोला, ‘क्यों, मरेंगे क्यों ? आओ, ईश्वर का स्मरण करें ।’ तीसरा आदमी बोला, ‘नहीं, ईश्वर को कष्ट देकर क्या होगा? आओ, इसी पेड़ पर चढ़कर बैठें ।’ 

“जिस आदमी ने कहा, ‘हम लोग मरे’ वह नहीं जानता था कि ईश्वर रक्षा करने वाले हैं । जिसने कहा, ‘आओ, ईश्वर का स्मरण करें’ वह ज्ञानी था, वह जानता था कि ईश्वर सृष्टि, स्थिति, प्रलय के मूल कारण हैं । और जिसने कहा, ‘भगवान् को कष्ट देकर क्या होगा, आओ, पेड़ पर चढ़ बैठें’, उसके भीतर प्रेम उत्पन्न हुआ था-स्नेह-ममता का भाव आया था । तो प्रेम का स्वभाव ही यह है कि प्रेमी अपने को बड़ा समझता है और प्रेमास्पद को छोटा । वह देखता है, कहीं उसे कोई कष्ट न हो । उसकी यही इच्छा होती है कि जिससे प्रेम करें उसके पैर में एक काँटा भी न चुभे ।” 

श्रीरामकृष्णदेव तथा भक्तों को ऊपर ले जाकर अनेक प्रकार के मिष्टान आदि से रामबाबू ने उनकी सेवा की । भक्तों ने बड़े आनन्द से प्रसाद पाया । 

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