मेरे बारे में

रविवार, 16 मई 2021

$$$$$ परिच्छेद ~ 40,[(15 जून, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] * *The devotee of Swan*राजहंस का भक्त 'कामिनी -कांचन ' से अनासक्त होने का दृढ़ संकल्प ले सकता है*गृहस्थ प्रवृत्ति से अनासक्त होकर निवृत्ति में स्थित हो जाये *लेकिन संकल्पशक्ति का तारतम्य होता है– विद्यासागर* साधना-सिद्ध और नित्य सिद्ध* *गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश*मनुष्य का जन्म तीन बार होता है *(Man is born thrice) * You Must Be Born Again!**मनुष्य बनने में बाधाएँ ,Obstacles in becoming Human Being* *गृहस्थ को फुफकारना अवश्य चाहिए* [A Householder Must Hiss] गृहस्थ के लिए भी उपाय है तीव्र वैराग्य *गुरुवाक्य (गुरुदेव से प्राप्त अपने इष्टदेव के नाम) में विश्वास । व्यास का विश्वास -ब्रह्मार्पणं *(गीता ४. २४) * भला और बुरा, पाप और पुण्य **ज्ञानयोग और भक्तियोग*

 [(15 जून, 1883) परिच्छेद ~ 40, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[ *साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]

परिच्छेद ४० 

*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ *

(१)

*गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश*

आज गंगा-दशहरा #, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, शुक्रवार का दिन है; तारीख १५ जून १८८३ ई. । भक्तगण श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में आए हैं । गंगादशहरा  के उपलक्ष्य में अधर और मास्टर को छुट्टी मिली है ।

[ गंगा दशहरा # ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष के १० वे दिन (दशमी) को गंगा दशहरा कहते हैं, मान्यता है कि  इसी दिन मां गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था । ] 

राखाल के पिता और पिता के ससुर आए हैं । पिता ने दूसरी बार विवाह किया है । ससुर महाशय श्रीरामकृष्ण का नाम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं; वे साधक पुरुष हैं, श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें रुक-रूककर देख रहे हैं । भक्तगण जमीन पर बैठे हैं ।

ससुर महाशय ने पूछा, “महाराज, क्या गृहस्थाश्रम में भगवान् का लाभ हो सकता है ?”

[শ্বশুর — মহাশয়, গৃহস্থাশ্রমে কি ভগবান লাভ হয়?

"Sir, can one realize God while leading the life of a householder?"

श्रीरामकृष्ण(हँसते हुए)- क्यों नहीं हो सकता ? कीचड़ में रहनेवाली मछली की तरह रहो । वह कीचड़ में रहती है, पर उसके शरीर पर कीचड़ नहीं लगता । और अ-सती स्त्री की तरह रहो जो घर का सारा कामकाज करती है, पर उसका मन अपने उपपति की ओर ही रहता है । ईश्वर से मन लगाए रखकर गृहस्थी का सब काम करो । परन्तु यह है बड़ा कठिन । (Do your duties in the world, fixing your mind on God. But this is extremely difficult.)

मैंने ब्राह्मसमाजवालों से कहा था कि जिस कमरे में इमली का अचार और पानी का मटका है, यदि उसी कमरे में सन्निपात का रोगी भी रहे तो बीमारी किस तरह दूर हो? फिर इमली की याद आते ही मुँह में पानी भर आता है । पुरुषों के लिए स्त्रियाँ इमली के अचार की तरह हैं । और विषय की तृष्णा तो सदा लगी ही है; यही पानी का मटका है । इस तृष्णा का अन्त नहीं है ।  टायफ़ायड का रोगी कहता है कि मैं एक मटका पानी पीऊँगा ।

बड़ा कठिन है । गृहस्थ जीवन में बहुत कठिनाईयाँ हैं । जिधर जाओ उधर ही कोई न कोई बला आ खड़ी हो जाती है । और निर्जन स्थान न होने के कारण भगवान् की चिन्ता नहीं होती । सोने को गलाकर गहना गढ़ाना है, तो यदि गलाते समय कोई दस बार बुलाए, तो सोना किस तरह गलेगा? 

    चावल छाँटते समय अकेले बैठकर छाँटना होता है । हर बार चावल हाथ में लेकर देखना पड़ता है कि कैसा साफ हुआ । छाँटते समय यदि कोई दस बार बुलाये तो अच्छी तरह छाँटना कैसे हो सकता है?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেন হবে না? পাঁকাল মাছের মতো থাক। সে পাঁকে থাকে, কিন্তু গায়ে পাঁক নাই। আর ঘুষকীর মতো থাক। সে ঘরে-কন্নার সব কাজ করে কিন্তু  মন উপপতির উপর পড়ে থাকে। ঈশ্বরের উপর মন ফেলে রেখে সংসারের কাজ সব কর। কিন্তু বড় কঠিন। আমি ব্রহ্মজ্ঞানীদের বলেছিলুম, যে-ঘরে আচার তেঁতুল আর জলের জালা সেই ঘরেই বিকারের রোগী! কেমন করে রোগ সারবে? আচার তেঁতুল মনে করলে মুখে জল সরে। পুরুষের পক্ষে স্ত্রীলোক আচার তেঁতুলের মতো। আর বিষয় তৃষ্ণা সর্বদাই লেগে আছে; ওইটি জলের জালা। এ তৃষ্ণার শেষ নাই। বিকারের রোগী বলে, এক জালা জল খাব! বড় কঠিন। সংসারে নানা গোল। এদিকে যাবি, কোঁস্তা ফেলে মারব; ওদিকে যাবি, ঝাঁটা ফেলে মারব; এদিকে যাবি জুতো ফেলে মারব। আর নির্জন না হলে ভগবানচিন্তা হয় না। সোনা গলিয়ে গয়না গড়ব তা যদি গলাবার সময় পাঁচবার ডাকে, তাহলে সোনা গলানো কেমন করে হয়? চাল কাঁড়ছ একলা বসে কাঁড়তে হয়। এক-একবার চাল হাত করে তুলে দেখতে হয়, কেমন সাফ হল। কাঁড়তে কাঁড়তে যদি পাঁচবার ডাকবে, ভাল কাঁড়া কেমন করে হয়?

MASTER (with a smile): "Why not? Live in the world like a mudfish. The mudfish lives in the mud but itself remains unstained. Or live in the world like a loose woman. She attends to her household duties, but her mind is always on her sweetheart. Do your duties in the world, fixing your mind on God. But this is extremely difficult. I said to the members of the Brahmo Samaj: 'Suppose a typhoid patient is kept in a room where there are jars of pickles and pitchers of water. How can you expect the patient to recover? The very thought of spiced pickles brings water to one's mouth.' To a man, woman is like that pickle. The craving for worldly things, which is chronic in man, is like the patient's craving for water. There is no end to this craving. The typhoid patient says, 'I shall drink a whole pitcher of water.' The situation is very difficult. There is so much confusion in the world. If you go this way, you are threatened with a shovel; if you go that way, you are threatened with a broomstick; again, in another direction, you are threatened with a shoe-beating. Besides, one cannot think of God unless one lives in solitude. The goldsmith melts gold to make ornaments. But how can he do his work well if he is disturbed again and again? Suppose you are separating rice from bits of husk. You must do it all by yourself. Every now and then you have to take the rice in your hand to see how clean it is. But how can you do your work well if you are called away again and again?"

*गृहस्थ के लिए भी उपाय है -छः दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में गुरुगृह वास

एक भक्त- महाराज, फिर उपाय क्या है ?

श्रीरामकृष्ण- उपाय है । यदि तीव्र वैराग्य हो तो हो सकता है । जिसे 'मिथ्या' समझते हो उसे हठपूर्वक उसी समय त्याग दो ।     

जिस समय मैं बहुत बीमार था गंगाप्रसाद सेन (वैद्य ) के पास लोग मुझे ले गए । गंगाप्रसाद ने कहा, ‘यह औषधि खानी पड़ेगी पर जल नहीं पी सकते । हाँ, अनार का रस पी सकते हो।’ सब लोगों ने सोचा कि बिना जल पिए मैं कैसे रह सकता हूँ । 

मैंने निश्चय किया कि अब जल न पीऊँगा । मैं ‘परमहंस’ ^ हूँ । मैं बतख थोड़े ही हूँ, - मैं तो राजहंस ^ हूँ दूध पिया करूँगा ।

{'परमहंस' ^ शब्द का प्रयोग संन्यासियों की उच्चतम श्रेणी के लिए किया जाता है, इस शब्द का दूसरा अर्थ राजहंस (Swan) भी होता है। भारत में एक किम्वदन्ती प्रचलित है कि राजहंस  दूध और पानी के मिश्रण से दूध को अलग कर सकता है। कहा जाता है कि उसके गले की ग्रंथि से एसिड का स्राव होता है , जो दूध को दही में बदल देता है, जिसे हंस पानी छोड़कर खा जाता है।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আছে। যদি তীব্র বৈরাগ্য হয়, তাহলে হয়। যা মিথ্যা বলে জানছি, রোখ করে তৎক্ষণাৎ ত্যাগ কর। যখন আমার ভারী ব্যামো, গঙ্গাপ্রসাদ সেনের কাছে লয়ে গেল। গঙ্গাপ্রসাদ বললে, স্বর্ণপটপটি খেতে হবে, কিন্তু জল খেতে পাবে না; বেদানার রস খেতে পার। সকলে মনে করলে, জল না খেয়ে কেমন করে আমি থাকব। আমি রোখ কল্লুম আর জল খাব না। ‘পরমহংস’! আমি তো পাতিহাঁস নই — রাজহাঁস! দুধ খাব।

"There is a way. One succeeds if one develops a strong spirit of renunciation. Give up at once, with determination,  what you know to be unreal. Once, when I was seriously ill, I was taken to the physician Gangaprasad Sen. He said to me: 'I shall give you a medicine, but you mustn't drink any water. You may take pomegranate juice.' Everyone wondered how I could live without water; but I was determined not to drink, it. I said to myself: 'I am a paramahamsa and not a goose. I shall drink only milk.' A paramahamsa is one belonging to the highest order of monks; the word also means swan .There is a popular tradition किम्वदन्ती in India that a swan (राजहंस) can separate the milk from a mixture of milk and water. It is said that a secretion of acid turns the milk into curd, which the swan eats, leaving the water.} 

“कुछ काल निर्जन में रहना पड़ता है । खेल के समय धप्पा ('granny') छू लेने पर फिर भय नहीं रहता । सोना हो जाने पर (भगवान् मिल जाने के बाद)  जहाँ जी चाहे रहो । निर्जन में रहकर यदि भक्ति मिली हो और भगवान् मिल चुके हों, तो फिर संसार में भी रह सकते हो ।

[“কিছুদিন নির্জনে থাকতে হয়। বুড়ী ছুঁয়ে ফেললে আর ভয় নাই। সোনা হলে তারপরে যেখানেই থাক। নির্জনে থেকে যদি ভক্তিলাভ হয়, যদি ভগবানলাভ হয়, তাহলে সংসারেও থাকা যায়। (রাখালের বাপের প্রতি) তাই তো ছোকরাদের থাকতে বলি। কেননা, এখানে দিন কতক থাকলে ভগবানে ভক্তি হবে। তখন বেশ সংসারে গিয়ে থাকতে পারবে।”

"You have to spend a few days in solitude. If you but touch the 'granny' you are safe. Turn yourself into gold and then live wherever you please. After realizing God and divine love in solitude, one may live in the world as well. (To Rakhal's father) That is why I ask the youngsters to stay with me; for they will develop love of God by staying here a few days. After that they can very well lead the life of a householder."

(राखाल के पिता के प्रति) इसीलिए तो लड़कों को यहाँ (छह दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में गुरुगृह वास)  रहने के लिए कहता हूँ; क्योंकि यहाँ थोड़े दिन रहने पर भगवान् में भक्ति होगी; उसके बाद सहज ही संसार में जाकर रह सकेंगे ।”

* भला और बुरा, पाप और पुण्य -महाकारण को समझना *

 (good and evil, virtue and vice)

एक भक्त- यदि ईश्वर ही सब कुछ करते हैं, तो फिर लोग भला और बुरा, पाप और पुण्य, यह सब क्यों कहते हैं ? तब तो पाप भी उन्हीं की इच्छा से होता है !

राखाल के पिता के ससुर- उनकी इच्छा को हम कैसे समझें ?

श्रीरामकृष्ण- पाप और पुण्य हैं, पर वे स्वयं निर्लिप्त हैं । वायु में सुगन्ध भी है और दुर्गन्ध भी, परन्तु वायु स्वयं निर्लिप्त है । ईश्वर की सृष्टि ऐसी ही है । भला-बुरा, सत्-असत्-दोनों हैं । जैसे पेड़ों में कोई आम का पेड़ है, कोई कटहल का, कोई किसी और चीज का । 

    देखो न, दुष्ट आदमियों (तालिबानियों ) की भी आवश्यकता है। जिस तालुके की प्रजा उद्दण्ड होती है, वहाँ एक दुष्ट आदमी भेजना पड़ता है, तब कहीं तालुके का ठीक शासन होता है । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — পাপ-পুণ্য আছে, কিন্তু তিনি নিজে নির্লিপ্ত। বায়ুতে সুগন্ধ দুর্গন্ধ সবরকমই থাকে, কিন্তু বায়ু নিজে নির্লিপ্ত। তাঁর সৃষ্টিই এইরকম; ভালমন্দ, সদসৎ; যেমন গাছের মধ্যে কোনটা আমগাছ, কোনটা কাঁঠালগাছ, কোনটা আমরাগাছ। দেখ না দুষ্ট লোকেরও প্রয়োজন আছে। যে-তালুকের প্রজারা দুর্দান্ত, সে-তালুকে একটা দুষ্ট লোককে পাঠাতে হয়, তবে তালুকের শাসন হয়।

"There is no doubt that virtue and vice exist in the world; but God Himself is unattached to them. There may be good and bad smells in the air, but the air is not attached to them. The very nature of God's creation is that good and evil, righteousness and unrighteousness, will always exist in the world. Among the trees in the garden one finds mango and jack-fruit, and hog plum too. Haven't you noticed that even wicked men are needed? Suppose there are rough tenants on an estate; then the landlord must send a ruffian to control them."

फिर गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में बात चली ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)- बात यह है, गृहस्थ का जीवन व्यतीत करने पर मन की शक्ति ( mental powers)  का अपव्यय होता है । इस अपव्यय से जो हानि होती है वह तभी पूरी हो सकती है जब कोई संन्यास ले ।

* 'मनुष्य' (नेता पैगम्बर,ब्रह्मविद) बनने के लिए तीन बार जन्म लेना पड़ता है* 

पिता प्रथम 'जन्मदाता' है । उसके बाद द्वितीय जन्म 'उपनयन' के समय होता है । एक बार फिर जन्म होता है, 'संन्यास '#  के समय । 

{'Except ye be born again ye cannot enter into the kingdom of Heaven'-- Christ. John 3:3 प्रश्न यह है कि “मैं अनंत जीवन पाने के लिए क्या करूँ?” मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम न फिरो और (समाधि से व्युत्थान के बाद) बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।  You Must Be Born Again! *तुम्हें नए सिरे से जन्म लेने की आवश्यकता है।  * समाधि से व्युत्थान होने के बाद ~ पैगम्बर का जन्म होता है * After rising from the samadhi ~ Prophet is born !*   प्रथम जन्मदाता हैं पिता , दूसरे उपनयन के आचार्य (मनःसंयोग के प्रशिक्षण से मन की आँख खोलने की शिक्षा देने वाले CINC -नवनीदा  और तीसरी माँ काली (गुरुदेव) ; जिनकी कृपा से ~ … हे मेरे बच्चो, जब तक तुम में से पैगम्बर प्रकट न हो जाए, मैं तुम्हारे लिए प्रसव की सी पीड़ा में हूं।” ( गलाटियन्स ) My little children, for whom I am again in the pain of childbirth until Christ is formed in you . (Galatians 4:17–19) }     

 कामिनी-कांचन-ये ही दो विघ्न हैं । स्त्री की आसक्ति पुरुष को ईश्वर के मार्ग से डिगा देती है । किस तरह पतन होता है, यह पुरुष नहीं जान सकता । 

   किले (A reference to the fort in Calcutta.) के अन्दर जाते समय यह बिलकुल न जान सका कि ढालू रास्ते से जा रहा हूँ । जब किले के अन्दर गाड़ी पहुँची तो मालुम हुआ कि कितने नीचे आ गया हूँ ।

       स्त्रियाँ पुरुषों को कुछ नहीं समझने देतीं । कप्तान* कहता है, मेरी स्त्री ज्ञानी है ! (*श्री विश्वनाथ उपाध्याय) भूत जिस पर सवार होता है, वह नहीं जानता कि भूत सवार है, वह कहता है कि मैं आनंद में हूँ । (सभी निस्तब्ध हैं ) 

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — কি জানো, সংসার করলে মনের বাজে খরচ হয়ে পড়ে। এই বাজে খরচ হওয়ার দরুন মনের যা ক্ষতি হয়, সে ক্ষতি আবার পূরণ হয়, যদি কেউ সন্ন্যাস করে। বাপ প্রথম জন্ম দেন, তারপরে দ্বিতীয় জন্ম উপনয়নের সময়। আর-একবার জন্ম হয় সন্ন্যাসের সময়।১ কামিনী ও কাঞ্চন এই দুটি বিঘ্ন। মেয়েমানুষে আসক্তি ঈশ্বরের পথ থেকে বিমুখ করে দেয়। কিসে পতন হয়, পুরুষ জানতে পারে না। যখন কেল্লায় যাচ্ছি, একটুও বুঝতে পারি নাই যে, গড়ানে রাস্তা দিয়ে যাচ্ছি। কেল্লার ভিতর গাড়ি পৌঁছুলে দেখতে পেলুম, কত নিচে এসেছি। আহা, পুরুষদের বুঝতে দেয় না! কাপ্তেন বলে, আমার স্ত্রী জ্ঞানী! ভূতে যাকে পায়, সে জানে না যে, ভূতে পেয়েছে! সে বলে, বেশ আছি! (সকলে নিস্তব্ধ)

[ "You see, by leading a householder's life a man needlessly dissipates his mental powers. The loss he thus incurs can be made up if he takes to monastic life. The first birth is a gift of the father; then comes the second birth, when one is invested with the sacred thread. There is still another birth at the time of being initiated into monastic life. The two obstacles to spiritual life are 'woman' and 'gold'. Attachment to 'woman' diverts one from the way leading to God. Man doesn't know what it is that causes his downfall. Once, while going to the Fort, (A reference to the fort in Calcutta.) I couldn't see at all that I was driving down a sloping road; but when the carriage went inside the Fort, I realized how far down I had come. Alas! 'Women keep men deluded. Captain says, 'My wife is full of wisdom.' The man possessed by a ghost does not realize it. He says, 'Why, I am all right!'" (the devotees listened to these words in deep silence.)

श्रीरामकृष्ण- संसार में (गृहस्थ जीवन में) केवल काम का ही नहीं, क्रोध का भी भय है । कामना मार्ग में रूकावट होने से ही क्रोध पैदा हो जाता है ।

[“সংসারে শুধু যে কামের ভয়, তা নয়। আবার ক্রোধ আছে। কামনার পথে কাঁটা পড়লেই ক্রোধ।”

"It is not lust alone that one should be afraid of in the life of the world. There is also anger. Anger arises when obstacles are placed in the way of desire."]

 [या कोई गृहस्थ प्रवृत्ति से अनासक्त होकर निवृत्ति में स्थित हो जाये, लेकिन उसमें भी संकल्पशक्ति का तारतम्य होता है। ]

 *गृहस्थ को फुफकारना अवश्य चाहिए* 

[A Householder Must Hiss] 

मास्टरभोजन करते समय मेरी थाली से बिल्ली कुछ खाना उठा लेने को बढ़ती है, मैं कुछ नहीं बोल सकता ।

[“মাস্টার — আমার পাতের কাছে বেড়াল নুলো বাড়িয়ে মাছ নিতে আসে, আমি কিছু বলতে পারি না।

M: "At meal-time, sometimes a cat stretches out its paw to take the fish from my plate. But I cannot show any resentment."] 

श्रीरामकृष्ण- क्यों ! एक बार मारते क्यों नहीं ? उसमें क्या दोष है? गृहस्थ को फुफकारना चाहिए, पर विष न उगलना चाहिए । किसी को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए, पर शत्रुओं के हाथ से बचाने के लिए क्रोध का आभास दिखलाना चाहिए; नहीं तो शत्रु आकर उसे हानि पहुँचाएँगे । 

पर त्यागी (संन्यासी) के लिए फुफकारने की भी आवश्यकता नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন! একবার মারলেই বা, তাতে দোষ কি? সংসারী ফোঁস করবে! বিষ ঢালা উচিত নয়। কাজে কারু অনিষ্ট যেন না করে। কিন্তু শত্রুদের হাত থেকে রক্ষা পাবার জন্য ক্রোধের আকার দেখাতে হয়। না হলে শত্রুরা এসে অনিষ্ট করবে। ত্যাগির ফোঁসের দরকার নাই।

"Why? You may even beat it once in a while. What's the harm? A worldly man should hiss, but he shouldn't pour out his venom. He mustn't actually injure others. But he should make a show of anger to protect himself from enemies. Otherwise they will injure him. But a sannyasi need not even hiss."]

एक भक्त- महाराज, गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए (दादा-नाना बनकर) भगवान् को भी पाना बड़ा ही कठिन देखता हूँ । कितने आदमी ऐसे हो सकते हैं ? ऐसा तो कोई देखने में नहीं आता ।

[একজন ভক্ত — মহাশয়, সংসারে তাঁকে পাওয়া বড়ই কঠিন দেখছি। কটা লোক এরকম হতে পারে? কি! দেখতে তো পাই না।"

I find it is extremely difficult for a householder to realize God. How few people can lead the life you prescribe for them! I haven't found any."]

श्रीरामकृष्ण- क्यों नहीं होगा ? उधर सुना है कि एक डिप्टी है । बड़ा अच्छा आदमी है । प्रताप सिंह उसका नाम है । दानशीलता, ईश्वर की भक्ति आदि बहुतसे गुण उसमें हैं । मुझे लेने के लिए आदमी भेजा था । ऐसे लोग भी तो हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন হবে না? ও-দেশে শুনেছি, একজন ডেপুটি, খুব লোক — প্রতাপ সিং; দান-ধ্যান, ঈশ্বরে ভক্তি, অনেক গুণ আছে। আমাকে লতে পাঠিয়েছিল। এইরকম লোক আছে বইকি।

"Why should that be so? I have heard of a deputy magistrate named Pratap Singh. He is a great man. He has many virtues: compassion and devotion to God. He meditates on God. Once he sent for me. Certainly there are people like him.] 

(२) 

साधना का प्रयोजन । 

*व्यास का विश्वास -ब्रह्मार्पणं *

[ ब्रह्मार्पणं *(गीता ४. २४) :  यह एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसको महामण्डल शिविर में भोजन प्रारम्भ करने के पूर्व पढ़ा जाता है, किन्तु अधिकांश लोग न तो इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयत्न ही करते हैं। तथापि इसका अर्थ गंभीर है और इसमें सम्पूर्ण वेदान्त के सार को बता दिया गया है।]

श्रीरामकृष्ण- साधना की बड़ी आवश्यकता है । फिर क्यों नहीं होगा ? यदि ठीक ठीक विश्वास हो, तो अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता । चाहिए गुरु-वाक्य (तत्वमसि) पर विश्वास । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধন বড় দরকার। তবে হবে না কেন? ঠিক বিশ্বাস যদি হয়, তাহলে আর বেশি খাটতে হয় না। গুরুবাক্যে বিশ্বাস! 

"The practice of discipline is absolutely necessary. Why shouldn't a man succeed if he practises sadhana? But he doesn't have to work hard if he has real faith — faith in his guru's words.]

“व्यासदेव यमुना के उस पार जाएँगे इतने में वहाँ गोपियाँ आयीं । वे भी पार जाएँगी, पर नाव नहीं मिलती । गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब क्या किया जाय ?’ व्यासदेव ने कहा, ‘अच्छा, तुम लोगों को पार किए देता हूँ; पर मुझे बड़ी भूख लगी है, तुम्हारे पास कुछ है ?’ गोपियों के पास दूध, दही, मक्खन आदि था सब कुछ उन्होंने खाया । गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब पार जाने का क्या हुआ?’ 

व्यासदेव तब किनारे पर जाकर खड़े हुए और कहने लगे, ‘हे यमुने, यदि आज मैंने कुछ न खाया हो तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाय’ यह कहते ही जल अलग-अलग हो गया । गोपियाँ यह देखकर दंग रह गयी; सोचनी लगीं, इन्होंने अभी अभी तो इतनी चीजें खायी हैं, फिर भी कहते हैं, ‘यदि मैं कुछ न खाया हो’ 

“ यही दृढ़ विश्वास है । मैंने नहीं- हृदय में जो नारायण (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) हैं उन्होंने खाया है ।’ 

[“ব্যাসদেব যমুনা পার হবেন, গোপীরা এসে উপস্থিত। গোপীরাও পার হবে কিন্তু খেয়া মিলছে না। গোপীরা বললে, ঠাকুর! এখন কি হবে? ব্যাসদেব বললেন, আচ্ছা তোদের পার করে দিচ্ছি, কিন্তু আমার বড় খিদে পেয়েছে, কিছু আছে? গোপীদের কাছে দুধ, ক্ষীর, নবনী অনেক ছিল, সমস্ত ভক্ষণ করলেন। গোপীরা বললে, ঠাকুর পারের কি হল। ব্যাসদেব তখন তীরে গিয়ে দাঁড়ালেন; বললেন, হে যমুনে, যদি আজ কিছু খেয়ে না থাকি, তোমার জল দুভাগ হয়ে যাবে, আর আমরা সব সেই পথ দিয়ে পার হয়ে যাব। বলতে বলতে জল দুধারে সরে গেল। গোপীরা অবাক্‌; ভাবতে লাগল — উনি এইমাত্র এত খেলেন, আবার বলছেন, ‘যদি আমি কিছু খেয়ে না থাকি?’“এই দৃঢ় বিশ্বাস। আমি না, হৃদয় মধ্যে নারায়ণ — তিনি খেয়েছেন।

Once Vyasa was about to cross the Jamuna, when the gopis also arrived there, wishing to go to the other side. But no ferry-boat was in sight. They said to Vyasa, 'Revered sir, what shall we do now?' 'Don't worry', said Vyasa. 'I will take you across. But I am very hungry. Have you anything for me to eat?' The gopis had plenty of milk, cream, and butter with them. Vyasa ate it all. Then the gopis asked, 'Well, sir, what about crossing the river?' Vyasa stood on the bank of the Jamuna and said, 'O Jamuna, if I have not eaten anything today, then may your waters part so that we may all walk to the other side.' No sooner did the sage utter these words than the waters of the Jamuna parted. The gopis were speechless with wonder. 'He ate so much just now,' they said to themselves, 'and he says, "If I have not eaten anything . . ." ! ' Vyasa had the firm conviction that it was not himself, but the Narayana who dwelt in his heart, that had partaken of the food.] 

“ शंकराचार्य तो ब्रह्मज्ञानी थे, पर पहले उनमें भेदबुद्धि भी थी । वैसा विश्वास न था । चाण्डाल मांस का बोझ लिए आ रहा था, वे गंगास्नान करके ही उठे थे कि चाण्डाल से स्पर्श हो गया । कह उठे, ‘अरे ! तूने मुझे छू लिया !’ चाण्डाल ने कहा, ‘महाराज, न आपने मुझे छुआ न मैंने आपको ! शुद्ध आत्मा-न वह शरीर है, न पंचभूत है, और न चौबीस तत्त्व है ।’ तब शंकर को ज्ञान हुआ । 

जड़भरत राजा रहुगण की पालकी ले जाते समय जब आत्मज्ञान की बातें करने लगे, तब राजा ने पालकी से नीचे उतरकर कहा, ‘आप कौन हैं ?’ जड़भरत ने कहा, ‘नेति नेति-मैं शुद्ध आत्मा हूँ ।’ उनका पक्का विश्वास था कि वे शुद्ध आत्मा हैं । 

[“শঙ্করাচার্য এদিকে ব্রহ্মজ্ঞানী; আবার প্রথম প্রথম ভেদবুদ্ধিও ছিল। তেমন বিশ্বাস ছিল না। চণ্ডাল মাংসের ভার লয়ে আসছে, উনি গঙ্গাস্নান করে উঠেছেন। চণ্ডালের গায়ে গা লেগে গেছে। বলে উঠলেন, ‘এই তুই আমায় ছুঁলি!’ চণ্ডাল বললে, ‘ঠাকুর, তুমিও আমায় ছোঁও নাই, আমিও তোমায় ছুঁই নাই।’ যিনি শুদ্ধ আত্মা, তিনি শরীর নন, পঞ্চভূত নন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব নন। তখন শঙ্করের জ্ঞান হয়ে গেল। “জড়ভরত রাজা রহুগণের পালকি বহিতে বহিতে যখন আত্মজ্ঞানের কথা বলতে লাগল, রাজা পালকি থেকে নিচে এসে বললে, তুমি কে গো! জড়ভরত বললেন, আমি নেতি, নেতি, শুদ্ধ আত্মা। একেবারে ঠিক বিশ্বাস, আমি শুদ্ধ আত্মা।”

"Sankaracharya was a Brahmajnani, to be sure. But at the beginning he too had the feeling of differentiation. He didn't have absolute faith that everything in the world is Brahman. One day as he was coming out of the Ganges after his bath, he saw an untouchable, a butcher, carrying a load of meat. Inadvertently the butcher touched his body. Sankara shouted angrily, 'Hey there! How dare you touch me?' 'Revered sir,' said the butcher, 'I have not touched you, nor have you touched me. The Pure Self cannot be the body nor the five elements nor the twenty-four cosmic principles.' Then Sankara came to his senses. Once Jadabharata was carrying King Rahugana's palanquin and at the same time giving a discourse on Self-Knowledge. The king got down from the palanquin and said to Jadabharata, 'Who are you, pray?' The latter answered, 'I am Not this, not this — I am the Pure Self.' He had perfect faith that he was the Pure Self.]

*ज्ञानयोग और भक्तियोग*

“सोऽहम् । मैं शुद्ध आत्मा हूँ – यह ज्ञानियों का मत है । भक्त कहते हैं, यह सब भगवान् का ऐश्वर्य है । धनी का ऐश्वर्य न होने से उसे कौन जान सकता है? पर साधक की भक्ति देखकर, यदि ईश्वर कहेंगे कि जो मैं हूँ, वही तू भी है, तब दूसरी बात है ।

     राजा बैठे हैं, उस समय नौकर यदि सिंहासन पर जाकर बैठ जाय और कहे, ‘राजा, जो तुम हो वही मैं भी हूँ, तो लोग उसे पागल कहेंगे । 

     पर यदि नौकर की सेवा से सन्तुष्ट हो राजा एक दिन यह कहें, ‘आ जा, तू मेरे पास बैठ, इसमें कोई दोष नहीं; जो तू है वही मैं भी हूँ !’ और तब यदि वह जाकर बैठे तो उसमें कोई दोष नहीं है । 

    एक साधारण जीव का यह कहना कि सोऽहम् – मैं वही हूँ – अच्छा नहीं है । जल की ही तरंग होती है तरंग का जल थोड़े ही होता है ।

[“ ‘আমিই সেই’ ‘আমি শুদ্ধ আত্মা’ — এটি জ্ঞানীদের মত। ভক্তেরা বলে, এ-সব ভগবানের ঐশ্বর্য। ঐশ্বর্য না থাকলে ধনীকে কে জানতে পারত? তবে সাধকের ভক্তি দেখে তিনি যখন বলবেন, ‘আমিও যা, তুইও তা’ তখন এক কথা। রাজা বসে আছেন, খানসামা যদি রাজার আসনে গিয়ে বসে, আর বলে, ‘রাজা তুমিও যা, আমিও তা’ লোকে পাগল বলবে। তবে খানসামার সেবাতে সন্তুষ্ট হয়ে রাজা একদিন বলেন, ‘ওরে, তুই আমার কাছে বোস, ওতে দোষ নাই; তুইও যা, আমিও তা!’ তখন যদি সে গিয়ে বসে, তাতে দোষ হয় না। সামান্য জীবেরা যদি বলে, ‘আমি সেই’ সেটা ভাল না। জলেরই তরঙ্গ; তরঙ্গের কি জল হয়?"

'I am He', 'I am the Pure Self' — that is the conclusion of the jnanis. But the bhaktas say, 'The whole universe is the glory of God.' Who would recognize a wealthy man without his power and riches? But it is quite different when God Himself, gratified by the aspirant's devotion, says to him, 'You are the same as Myself.' Suppose a king is seated in his court, and his cook enters the hall, sits on the throne, and says, 'O King, you and I are the same!' People will certainly call him a madman. But suppose one day the king, pleased with the cook's service, says to him: 'Come, sit beside me. There is nothing wrong in that. There is no difference between you and me.' Then, if the cook sits on the throne with the king, there is no harm in it. It is not good for ordinary people to say, 'I am He'. The waves belong to the water. Does the water belong to the waves?]

“बात यह है कि मन स्थिर न होने से योग नहीं होता, तुम चाहे जिस राह से चलो । मन योगी के वश में रहता है, योगी मन के वश में नहीं ।

योगाभ्यास या मनःसंयोग का अभ्यास करते समय ‘ मन स्थिर होने पर प्राण-वायु भी स्थिर हो जाती है' – उससे कुम्भक होता है । 

वह कुम्भक भक्तियोग से भी होता है, भक्ति से प्राण -वायु स्थिर हो जाती है ।

 ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं !’ ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं !’ .... यह कहते कहते जब भाव हो जाता है, तब वह मनुष्य पूरा वाक्य नहीं कह सकता, केवल। ... ‘हाथी हैं’ कहता है । इसके बाद सिर्फ ‘हा – ’ इतना ही! भाव से भी प्राणवायु स्थिर हो जाती है, और उससे कुम्भक होता है ।

[“কথাটা এই — মন স্থির না হলে যোগ হয় না, যে পথেই যাও। মন যোগীর বশ! যোগী মনের বশ নয়। “মন স্থির হলে বায়ু স্থির হয় — কুম্ভক হয়। এই কুম্ভক ভক্তিযোগেতেও হয়; ভক্তিতে বায়ু স্থির হয়ে যায়। ‘নিতাই আমার মাতা হাতি’, ‘নিতাই আমার মাতা হাতি!’ এই বলতে বলতে যখন ভাব হয়ে যায়, সব কথাগুলো বলতে পারে না, কেবল ‘হাতি’! ‘হাতি’! তারপর শুধু ‘হা’। ভাবে বায়ু স্থির হয় — কুম্ভক হয়।

"The upshot of the whole thing is that, no matter what path you follow, yoga is impossible unless the mind becomes quiet. The mind of a yogi is under his control; he is not under the control of his mind. When the mind is quiet the prana stops functioning. Then one gets kumbhaka. One may have the same kumbhaka through bhaktiyoga as well: the prana stops functioning through love of God too. In the kirtan the musician sings, 'Nitai amar mata hati!' ("My Nitai dances like a mad elephant!") Repeating this, he goes into a spiritual mood and cannot sing the whole sentence. He simply sings, 'Hati! Hati!' When the mood deepens he sings only, 'Ha! Ha!' Thus his prana stops through ecstasy, and kumbhaka follows.]

  “एक आदमी झाड़ू दे रहा था कि किसी ने आकर कहा, ‘अजी, अमुक मर गया !’ जो झाड़ू दे रहा था, उसका यदि वह अपना आदमी न हुआ, तो वह झाड़ू देता ही रहता है और बीच बीच में कहता है, ‘दुःख की बात है, वह आदमी मर गया ! बड़ा अच्छा आदमी था ।’ इधर झाड़ू भी चल रही है ।

      परन्तु यदि कोई अपना हुआ तो झाड़ू उसके हाथ से छुट जाता है, और ‘हाय’ कहकर वह बैठ जाता है । उस समय उसकी प्राणवायु स्थिर हो जाती है; कोई काम या विचार उससे फिर नहीं हो सकता । औरतों में नहीं देखा – यदि कोई कभी ठक होकर या निर्वाक् होकर कुछ देखे या सुने तो दूसरी औरतें उससे कहती हैं, ‘क्यों, क्या तुझे भाव हुआ है?’ यहाँ पर भी वायु स्थिर हो गयी है, इसी से निर्वाक् होकर मुँह खोले रहती है ।

[“একজন ঝাঁট দিচ্ছে, একজন লোক এসে বললে, ‘ওগো, অমুক নেই, মারা গেছে!’ যে ঝাঁট দিচ্ছে তার যদি আপনার লোক না হয়, সে ঝাঁট দিতে থাকে, আর মাঝে মাঝে বলে, ‘আহা, তাই তো গা, লোকটা মারা গেল! বেশ ছিল!’ এদিকে ঝাঁটাও চলছে। আর যদি আপনার লোক হয়, তাহলে ঝাঁটা হাত থেকে পড়ে যায়, আর ‘এ্যাঁ’! বলে বসে পড়ে। তখন বায়ু স্থির হয়ে গেছে; কোন কাজ বা চিন্তা করতে পারে না। মেয়েদের ভিতর দেখ নাই! যদি কেউ অবাক্‌ হয়ে একটা জিনিস দেখে বা একটা কথা শুনে, তখন অন্য মেয়েরা বলে, তোর ভাব লেগেছে নাকি লো! এখানেও বায়ু স্থির হয়েছে, তাই অবাক্‌, হাঁ করে থাকে।“

"Suppose a man is sweeping a courtyard with his broom, and another man comes and says to him: 'Hello! So-and-so is no more. He is dead.' Now, if the dead person was not related to the sweeper, the latter goes on with his work, remarking casually: 'Ah! That's too bad. He is dead. He was a good fellow.' The sweeping goes on all the same. But if the dead man was his relative, then the broom drops from his hand. 'Ah!' he exclaims, and he too drops to the ground. His prana has stopped functioning. He can neither work nor think. Haven't you noticed, among women, that if one of them looks at something or listens to something in speechless amazement, the other women say to her, 'What? Are you in ecstasy?' In this instance, too, the prana has stopped functioning, and so she remains speechless, with mouth agape.


*ज्ञानी के लक्षण । साधना-सिद्ध और नित्य सिद्ध*

“सोऽहम् सोऽहम् कहने से ही नहीं होता । ज्ञानी के लक्षण हैं । नरेन्द्र के नेत्र उभरे हुए हैं । इनके भी कपाल और नेत्र का लक्षण अच्छा है ।

[“সোঽহংসোঽহম্‌ কল্লেই হয় না। জ্ঞানীর লক্ষণ আছে। নরেন্দ্রের চোখ সুমুখঠেলা। এঁরও কপাল ও চোখের লক্ষণ ভাল।

 "It will not do merely to repeat, 'I am He, I am He.' There are certain signs of a jnani. Narendra has big protruding eyes. (Pointing to a devotee) He also has good eyes and forehead.] 

   “फिर सब की एक-सी हालत नहीं होती । जीव चार प्रकार के कहे गए हैं- बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य । सभी को साधना करनी पड़ती है, यह बात भी नहीं है । 

नित्य-सिद्ध और साधना-सिद्ध, दो तरह के साधक हैं । कोई अनेक साधनाएँ करने पर ईश्वर को पाता है; कोई जन्म से ही सिद्ध है, जैसे प्रह्लाद । 

[“আর, সব্বায়ের এক অবস্থা নয়। জীব চার প্রকার বলেছে, — বদ্ধজীব, মুমুক্ষুজীব, মুক্তজীব, নিত্যজীব। সকলকেই যে সাধন করতে হয়, তাও নয়। নিত্যসিদ্ধ আর সাধনসিদ্ধ। কেউ অনেক সাধন করে ঈশ্বরকে পায়, কেউ জন্ম অবধি সিদ্ধ, যেমন প্রহ্লাদ।

 "All men are by no means on the same level. It is said that there are four classes of men: the bound, the struggling, the liberated, and the ever-free. It is also not a fact that all men have to practise spiritual discipline. There are the ever-free and those who achieve perfection through spiritual discipline. Some realize God after much spiritual austerity, and some are perfect from their very birth. Prahlada is an example of the ever-free.

‘होमा’ नाम की चिड़िया आकाश में रहती है । वहीँ वह अण्डा देती है । अण्डा आकाश से गिरता है और गिरते ही गिरते वह फूट जाता है, और उससे बच्चा निकलकर गिरता है । वह इतने ऊँचे पर से गिरता है कि गिरते ही गिरते उसके पंख निकल आते हैं । जब वह पृथ्वी के पास आ जाता है तब देखता है कि जमीन से टकराते ही वह चूरचूर हो जाएगा । तब वह सीधे ऊपर उड़ जाता है- अपनी माँ के पास।

“प्रह्लाद आदि नित्य-सिद्ध भक्तों की साधना बाद में होती है । साधना के पहले ही उन्हें ईश्वर का लाभ होता है, जैसे लौकी, कुम्हड़े का पहले फल, और उसके बाद फूल होता है । (राखाल के पिता से) नीच वंश में भी यदि नित्य-सिद्ध जन्म ले तो वह वही होता है, दूसरा कुछ नहीं होता । चने के मैली जगह में गिरने पर भी चने का ही पेड़ होता है ।

[“প্রহ্লাদাদি নিত্যসিদ্ধের সাধন-ভজন পরে। সাধনের আগে ঈশ্বরলাভ। যেমন লাউ কুমড়োর আগে ফল, তারপরে ফুল। (রাখালের বাপের দিকে চাহিয়া) নীচ বংশেও যদি নিত্যসিদ্ধ জন্মায়, সে তাই হয়, আর কিছু হয় না। ছোলা বিষ্ঠাকুড়ে পড়লে ছোলাগাছই হয়!”

"Eternally perfect sages like Prahlada also practise meditation and prayer. But they have realized the fruit, God-vision, even before their spiritual practice. They are like gourds and pumpkins, which grow fruit first and then flowers.

*शक्ति का तारतम्य – विद्यासागर* 

“ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है, किसी को कम । कहीं पर एक दिया जल रहा है, कहीं पर एक मशाल । विद्यासागर की बात से जान लिया कि उनकी बुद्धि की पहुँच कितनी दूर है । जब मैंने शक्तिविशेष की बात कही, तब विद्यासागर ने कहा, ‘महाराज, तो क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम?’ 

मैंने भी कहा, ‘फिर क्या? शक्ति की कमी-बेशी हुए बिना तुम्हारा इतना नाम क्यों है ? तुम्हारी विद्या, तुम्हारी दया, यही सब सुनकर तो हम लोग आए हैं । तुम्हारे कोई दो सींग तो निकले नहीं हैं !’  

विद्यासागर की इतनी विद्या और इतना नाम होते हुए भी उन्होंने ऐसी कच्ची बात कह दी ! बात यह है कि जाल में पहले-पहल बड़ी मछलियाँ पड़ती हैं- रोहू, कतला आदि । उसके बाद मछुआ पैर से कीचड़ को घोंट देता है ।

       तब तरह तरह की छोटी छोटी मछलियाँ निकल आती हैं, और तुरन्त फँस जाती हैं । ईश्वर को न जानने से थोड़ी ही देर में भीतर से छोटी छोटी मछलियाँ (कच्ची बातें) निकल पड़ती हैं ! केवल पण्डित होने से क्या होगा ?” 

[“তিনি কারুকে বেশি শক্তি, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন। কোনখানে একটা প্রদীপ জ্বলছে, কোনখানে একটা মশাল জ্বলছে। বিদ্যাসাগরের এক কথায় তাকে চিনেছি, কতদুর বুদ্ধির দৌড়! যখন বললুম শক্তিবিশেষ, তখন বিদ্যাসাগর বললে, মহাশয়, তবে কি তিনি কারুকে বেশি, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন? আমি অমনি বললুম, তা দিয়েছেন বইকি। শক্তি কম বেশি না হলে তোমার নাম এত কম হবে কেন? তোমার বিদ্যা, তোমার দয়া — এই সব শুনে তো আমরা এসেছি। তোমার তো দুটো শিং বেরোয় নাই! বিদ্যাসাগরের এত বিদ্যা, এত নাম, কিন্তু এত কাঁচা কথা বলে ফেললে, ‘তিনি কি কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন?’ কি জান, জালে প্রথম প্রথম বড় বড় মাছ পড়ে — রুই, কাতলা। তারপর জেলেরা পাঁকটা পা দিয়ে ঘেঁটে দেয়, তখন চুনোপুঁটি, পাঁকাল এই সব মাছ বেরোয় — একটু দেখতে দেখতে ধরা পড়ে। ঈশ্বরকে না জানলে ক্রমশঃ ভিতরের চুনোপুঁটি বেরিয়ে পড়ে। শুধু পণ্ডিত হলে কি হবে?”

"God has given to some greater power than to others. In one man you see it as the light of a lamp, in another, as the light of a torch. One word of Vidyasagar's revealed to me the utmost limit of his intelligence. When I told him of the different manifestations of God's Power in different beings, he said to me, 'Sir, has God then given greater power to some than to others?' At once I said: 'Yes, certainly He has. If there are not different degrees of manifestation of His Power, then why should your name be known far and wide? You see, we have come to you after hearing of your knowledge and compassion. You haven't grown two horns, have you?' With all his fame and erudition, Vidyasagar said such a childish thing as 'Has God given greater power to some than to others?' The truth is that when the fisherman draws his net, he first catches big fish like trout and carp; then he stirs up the mud with his feet, and small fish come out — minnows, mud-fish, and so on. So also, unless a man knows God, 'minnows' and the like gradually come out from within him. What can one achieve through mere scholarship?"

=======




कोई टिप्पणी नहीं: