[(22 सितम्बर, 1883)परिच्छेद ~ 53, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
परिच्छेद~ ५३
*अधर के मकान पर राखाल , ईशान आदि भक्तों के संग में*
(१)
*वेदान्त बोधक कहानियाँ *
श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ते में अधर के मकान पर शुभागमन किया है । आप अधर के बैठक-घर में बैठे हैं। दिन के तीसरे पहर का समय है । राखाल, अधर, मास्टर, ईशान आदि तथा अनेक पड़ोसी भी उपस्थित हैं ।
श्री ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय को श्रीरामकृष्ण प्यार करते थे । वे अकाउण्टेण्ट जनरल के आफिस में सुपरिण्टेण्डेण्ट थे । पेन्शन लेने के बाद वे दान-ध्यान, धर्म-कर्म करते रहते और बीच बीच में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते थे । मछुआबाजार स्ट्रीट में उनके मकान पर श्रीरामकृष्ण ने एक दिन आकर नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ भोजन किया था और लगभग पूरे दिन रहे थे । उस उपलक्ष्य में ईशान ने अनेक लोगों को भी आमन्त्रित किया था ।
[শ্রীযুক্ত ঈশানচন্দ্র মুখোপাধ্যায়কে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভালবাসিতেন। তিনি Accountant General's Office-এ একজন সুপারিনটেণ্ডেন্ট ছিলেন। পেনশন লইবার পরে তিনি দান-ধ্যান, ধর্মকর্ম লইয়া থাকিতেন ও ঠাকুরকে মাঝে মাঝে দর্শন করিতেন। মেছুয়াবাজার স্ট্রীটে তাঁহার বাড়িতে ঠাকুর একদিন আসিয়া নরেন্দ্রাদি ভক্তসঙ্গে আহারাদি করিয়াছিলেন ও প্রায় সমস্ত দিন ছিলেন। সেই উপলক্ষে ঈশান অনেকগুলি লোককে নিমন্ত্রণ করিয়াছিলেন।
The Master was very fond of Ishan. He had been a superintendent in the Accountant General's office, and later on his children also occupied high government positions. One of them was a class-mate of Narendra. Ishan's purse was always open for the poor and needy. When he retired from service, he devoted his time to spiritual practices and charity. He often visited Sri Ramakrishna at Dakshineswar.
श्री नरेन्द्र आनेवाले थे, परन्तु आ न सके । ईशान पेन्शन लेने के बाद श्रीरामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में सर्वदा जाया करते हैं, और भाटपाड़ा में गंगातट पर निर्जन में बीच बीच में ईश्वरचिन्तन करते हैं । इस समय उनके मन में भाटपाड़ा में गायत्री का पुरश्चरण करने की इच्छा थी । आज शनिवार, 22 सितम्बर 1883 ई. है ।
*बालक का विश्वास- 'बालक ने ईश्वर को पत्र भेजा' *
श्रीरामकृष्ण (ईशान के प्रति)- अपनी वह कहानी – 'बालक ने पत्र भेजा' कहो तो !
ईशान (हँसकर) - एक बालक ने सुना कि ईश्वर ने हमें पैदा किया है । इसलिए उसने अपनी प्रार्थना जताने के लिए ईश्वर के नाम पर एक पत्र लिखकर लेटर बाक्स में डाल दिया । पता लिखा था – स्वर्ग ! (सब हँसे ।)
{"A boy once heard that God is our Creator. So he wrote a letter to God, setting forth his prayers, and posted it. The address he put on the envelope was 'Heaven'."
(*मैथ्यू 11:25- यीशु ने कहा, “हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ, कि तूने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया है।
“The kingdom of heaven unto babes but is hidden from the wise and the pruden.” – Bible/मै)
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - देखा, इसी बालक की तरह विश्वास चाहिए ।* तब होता है । (ईशान के प्रति) और वह 'कर्मत्याग (renunciation of activities) की कहानी' सुनाओ तो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — দেখলে! এই বালকের মতো বিশ্বাস২। তবে হয়, (ঈশানের প্রতি) — আর সেই কর্মত্যাগের কথা?
(with a smile): "Did you hear that story? One succeeds in spiritual life when one develops a faith like that boy's. (To Ishan) Tell us about the renunciation of activities."
*अशौच (सूतक) में कर्मत्याग*
ईशान- भगवान् की प्राप्ति होने पर सन्ध्या आदि कर्मों का त्याग हो जाता है । एक दिन गंगा के तट पर बैठकर कुछ लोग सन्ध्योपासना कर रहे थे। किन्तु उनमें से एक व्यक्ति सन्ध्योपासना नहीं कर रहा था। पूछने पर उसने कहा , ' मैं अशौच (सूतक ) का पालन कर रहा हूँ , इसमें पूजा-पाठ करना मना है। मृताशौच तथा जन्मशौच, (सूतक अवस्था) ^ दोनों ही हुए हैं । अविद्यारूपी माता की मृत्यु हुई है और आत्माराम का जन्म हुआ है ।”
{ঈশান — ভগবানলাভ হলে সন্ধ্যাদি কর্ম ত্যগ হয়ে যায়। গঙ্গাতীরে সকলে সন্ধ্যা করছে, একজন করছে না। তাকে জিজ্ঞাসা করায় সে বললে, আমার অশৌচ হয়েছে, সন্ধ্যা৩ করতে নাই। মরণাশৌচ, আর জন্মাশৌচ দুই-ই হয়েছে। অবিদ্যা মার মৃত্যু হয়েছে, আত্মারামের জন্ম হয়েছে।
ISHAN: "After the attainment of God, religious duties such as the sandyha drop away. One day some people were sitting on the bank of the Ganges performing the sandyha. But one of them abstained from it. On being asked the reason, he said: 'I am observing asoucha. I cannot perform the sandyha ceremony.6 In my case the defilement is due to both a birth and a death. My mother, Ignorance, is dead, and my son, Self-Knowledge, has been born.'"
कहा गया है कि प्रातः सन्ध्या से वह पाप दूर होते हैं जो रात्रि में किए गए हैं। सायं संध्या से दिन में किए गए पाप दूर होते हैं । माध्यन्दिन संध्या सूर्य का मार्ग प्रशस्त करने के लिए है। मैत्रैयी उपनिषद् 2/12,13, 14) का कथन है कि एक ब्राह्मण (ब्रह्मविद या ब्रह्मऋषि) क्यों संध्या नहीं कर रहा है? वह उत्तर देता है : - यदि मेरे हृदय आकाश में चिदादित्य सदा भासता है तो मुझे संध्या करने की क्या आवश्यकता है।
अहङ्कार सुतं वित्तभ्रातरं मोहमन्दिरम्।
आशापत्नीं त्यजेद्यावत्तावन्मुक्तो न संशयः।।
(मैत्रैयी उपनिषद् 2.12)
अहङ्कार ही पुत्र है। समस्त प्रकार के जगत के कर्मरूप व्यापार ही भाई हैं। मोह ही निवासरूप घर है। समस्त प्रकार की आशा और इच्छा ही पत्नी है। जब तक कोई मनुष्य (नेता /जीवनमुक्त शिक्षक) इनका त्याग नही कर देता तब तक उसे जीवनमुक्ति (de -Hypnotized अवस्था) नही मिल सकती। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नही है।
मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुत: ।
सूतक द्वय सम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे।।(13)
जिस ब्रह्मवेत्ता (सन्यासी) की मोहरूपी माँ मृत्यु को प्राप्त हो गयी है , और ज्ञानरूपी पुत्र पैदा हो गया ; तो (अष्टपाश) बन्धन का सूतक (सूत्र) टूटते ही ज्ञानरूप सूतक (सूत्र) का बन्धन जुड़ गया। इस प्रकार दो सूत्रों का एक साथ टूटना और दूसरे का जुड़ना होते ही सन्धि नाम की कोई स्थिति न होने से ~ कैसी सन्ध्योपासना। "
हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ (14)
(मैत्रेयी उपनिषद ---२.१३,१४)
चेतन का प्रकाश रूप चिद् आदित्य जिस ब्रह्मविद (नेता/जीवनमुक्त शिक्षक) के हृदयाकाश में सदैव भासमान होकर प्रकाशित हो रहा है,जो न कभी अस्त होता है और न ही उदय होता है,उसके लिए रातदिन की सन्धि होती ही नही तो उसके लिए सन्धया की उपासना कैसी?
कर्मत्यागान्न सन्यासो न प्रैषोच्चारणेन तु ।
सन्धौजीवात्मनोरैक्यं सन्यासः परिकीर्तित:।। (17)
कर्मो को छोड़ देना ही सन्यास नही है और न ही "मैं सन्यासी हूँ"ऐसा कह देने से भी कोई सन्यासी नही हो सकता। समाधि अवस्था में जीव और परम् आत्म की एकता का भासित होना,आभास होना,भान होना ही सन्यास कहा जाता है।
वमनाहारवद्यस्य भाति सर्व एषणादिषु ।
तस्याधिकारः सन्यासे त्यक्त देहाभिमानिनः।।(18)
तीनों प्रकार की एषणायें जब उलटी किये हुए भोजन, वमन किये हुए भोजन सदृश लगने लगती हैं और जिसने देह के प्रति ममता अभिमान को त्याग दिया है,उसको ही सन्यास लेने का अधिकार है।
द्रव्यार्थमन्नवस्त्रार्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा ।
सन्यसेदुभयभ्रष्ट: स मुक्तिं नाप्तुमर्हति।। (20)
द्रव्य,अन्न,वस्त्र और धन अथवा प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिये जो सन्यास लेता है अथवा सन्यासी वेश बनाकर लोगों से अनाधिकृत दान लेता है ये सभी भ्रष्ट कहे जाते हैं। इन्हें कभी मुक्ति नही मिलती।]
{ मृताशौच तथा जन्मशौच, (सूतक अवस्था) ^*^Asoucha is a temporary defilement caused by the birth or death of a blood relative. A man observing asoucha cannot perform the sandyha, or daily worship.^अशौच एक प्रकार की अस्थाई अशुद्धता (defilement-अपवित्र हो जाना) है जो किसी अपने निकट सम्बन्धी (परिवार) व ‘‘गौत्र’’ (गोतिया में ) में जन्म या मृत्यु के अवसर पर होती है। अशौच या सूतक का पालन करने वाला व्यक्ति संध्या या दैनिक पूजा नहीं कर सकता। क्षत्रिय –12 रात्रियों के बाद 13वें दिन शुद्ध होता है। ब्राह्मण- 10 रात्रियों के बाद 11वें दिन शुद्ध होता है।
जन्म के बाद सूतक क्योंः- व्यवहारिक पक्ष – जैसे चोट लगने पर श्वेत रक्त कण घाव को ठीक करते हैं उसी तरह जब परिवार में नवजात उत्पन्न होता है तो कुलवृद्धि की खुशी होनेपर ‘‘ डोपामिन ’’ (मैडीकल साइंस) रसायन शरीर में बढ़ जाता है अर्थात् हमारे मनोभाव तरंगों में असीमित वृद्धि हो जाती है। उनको सामान्य होने में लगभग 10 -25 दिन का समय लगता है। दूसरी ओर नवजात शिशु और माता की देखभाल में सब लग जाते हैं। इसलिए ऋषियों ने व्यवहारिक रूप से सूतक व्यवस्था रखी है। माता के गर्भ में जब नवजात शिशु होता है तो वह अपने प्राणमय कोश, ब्रह्म स्थान, नाभिचक्र जिसमें 72000 सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म नाड़ियाँ होती हैं उनके माध्यम से खान-पान, श्वास-प्रश्वास लेता है और बढता है। जन्म के बाद जब नाल काटा जाता है तो इस ब्रह्म स्थान को काटने से तथा अन्य रक्तपात के कारण जो घोर ब्रह्मदोष लगता है उसको सूतक कहा जाता है। सूतक का दोष नाल काटने के बाद ही लगता है। यह जन्म के बाद की अशुद्धि है।]
*चाण्डाल का स्पर्श और शंकराचार्य ।*
श्रीरामकृष्ण- अच्छा वह कहानी सुनाना - "चांडाल के रूप में स्वयं विश्वनाथ"; जिसमें कहा है कि आत्मज्ञान होने पर जातिभेद (caste distinctions, drop) नहीं रह जाता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আর আত্মজ্ঞান হলে জাতিভেদ থাকে না, সেই কথাটি?
MASTER: "Tell us, also, how caste distinctions drop away when one attains Self-Knowledge."
ईशान- वाराणसी में गंगास्नान करके शंकराचार्य घाट की सीढ़ी पर चढ़ रहे थे – उस समय कुत्ते पालनेवाले एक चाण्डाल को सामने बिलकुल पास ही देखकर बोले, “यह क्या, तूने मुझे छू लिया !” चाण्डाल बोला, “महाराज, तुमने भी मुझे नहीं छुआ और मैंने भी तुम्हें नहीं छुआ । आत्मा सभी के अन्तर्यामी और निर्लिप्त हैं ।* शराब में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब और गंगाजल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब, क्या इन दोनों में भेद है ?
[ঈশান — কাশীতে গঙ্গাস্নান করে শঙ্করাচার্য সিঁড়িতে উঠছেন — এমন সময় কুক্কুরপালক চণ্ডালকে সামনে দেখে বললেন, এই তুই আমায় ছুঁলি। চন্ডাল বললে, ঠাকুর, তুমিও আমায় ছোঁও নাই — আমিও তোমায় ছুঁই নাই; আত্মা সকলেরই অন্তর্যামী আর নির্লিপ্ত। সুরাতে সূর্যের প্রতিবিম্ব আর গঙ্গাজলে সূর্যের প্রতিবিম্ব এ-দুয়ে কি ভেদ আছে?৪
"Sankaracharya was once climbing the steps after finishing his bath in the Ganges, when he saw just in front of him an untouchable who had a pack of dogs with him. 'You have touched me!' said Sankara. 'Revered sir,' said the pariah, "I have not touched you, nor have you touched me. The Self is the Inner Ruler of all beings and cannot be contaminated. Is there any difference between the sun's reflection in wine and its reflection in the Ganges?'"]
{*"मनीषा पंचकम्" की कथा : आदिशंकराचार्य काशी में गंगास्नान करके आगे बढे,तब चार कुत्तों से घिरा एक चांडाल उनके मार्गमें आ कर खडा हो गया। आचार्य ने उसे दूर हटने को कहा - गच्छ! गच्छ ! तब चांडाल बोला- अन्नमयादन्नमयमथवा चैतन्यमेव चैतन्यात् । द्विजवर दूरीकर्तुं वाञ्छसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति।।" हे आचार्य , हटो, हटो कह कर आप किसे दूर हटाना चाहते हैं ? अन्नमय शरीर से अन्नमय शरीर को दूर हटाना चाहते हैं अथवा शरीर में स्थित उस चैतन्य से चैतन्य को दूर करना चाहते हैं ! इन शब्दों के द्वारा आप किसे दूर करना चाहते हैं ? चांडाल बोला :- समस्त जगत में सच्चिदानन्द व्याप्त है, आश्चर्य है कि अद्वैतवादी स्पर्शास्पर्श का विचार कर रहे हैं? आदिशंकराचार्य ने सोचा और संकल्प किया कि, चांडाल के रूप में स्वयं विश्वनाथ ने ही मुझे यह तत्वबोध दिया है। आचार्य ने जिन श्लोकों से चांडाल वेशधारी भगवान् विश्वनाथ की स्तुति की वे श्लोक "मनीषा पंचकम्" के नाम से प्रसिद्ध हैं।
" यही बात गीता में भी वर्णित है - "सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।गीता 6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नाम-रूपमय यह सृष्टि पारमार्थिक सत्य की अभिव्यक्ति है अथवा यह सृष्टि उस सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में मिट्टी , सुवर्ण के समस्त आभूषणों में स्वर्ण जल समस्त तरंगों में, जल ही विद्यमान है। वैसे ही समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में आत्मा स्थित है।हम अपने शरीर मन और बुद्धि (जो स्वार्थमय होने के कारण पुरुष से बिल्कुल भिन्न है) के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ, इन्द्रिय विषयों को , दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन मन-बुद्धि -अहं आदि उपाधियों से परे आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष जब उस आध्यात्मिक दृष्टि से नमरूपमय जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है। जैसे मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। इस ज्ञान को समझने से श्लोक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जिसने अनेकता में एक सत्य का दर्शन कर लिया वही आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समदृष्टि सेब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल को देख सकता है। }
*'धर्मों में सामंजस्य (harmony -समन्वय) के प्रतीक- बाबा हरिहरनाथ '*
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - और वह 'समन्वय की कथा-हरिहरनाथ ' कैसी ? सभी मतों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আর সেই সমন্বয়ের কথা, সব মত দিয়েই তাঁকে পাওয়া যায়?৫
MASTER (with a smile): "And about harmony: how one can realize God through all paths."
ईशान (हँसकर)- 'हरि' और 'हर' में एक ही धातु "ह्री" है , जिससे दोनों शब्द व्युत्पन्न हुए हैं। केवल प्रत्यय *(श्लेषालंकार -pun) का भेद है । जो हरि हैं, वही हर हैं । विश्वास भर रहना चाहिए ।
{ঈশান (সহাস্য) — হরি-হরের এক ধাতু, কেবল প্রত্যয়ের ভেদ, যিনিই হরি তিনিই হর। বিশ্বাস থাকলেই হল।
"Both Hari and Hara are derived from the same root. The difference is only in the pratyaya. In reality. He who is Hari is also Hara. If a man has faith in God, then it doesn't matter whom he worships."
^*There is a pun on this word, which means both "faith" and "inflection".]
The root "hri", from which both words are derived. Further, Hari and Hara are two manifestations of the same Godhead. Hari is a name of Vishnu, the Ideal Deity of the Vaishnavas, and Hara a name of Siva, the Ideal Deity of the Saivas.
{हिन्दू धर्म में, विष्णु (=हरि) तथा शिव (=हर) का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है।
बाबा हरिहरनाथ में विष्णु तथा शिव दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण हरिहरनाथ वैष्णव तथा शैव दोनों के लिये पूज्य हैं। कई विद्वान शिव और विष्णु को अलग मानते हैं। ढाई हज़ार साल पहले शिव को मानने वालों ने अपना अलग पंथ ‘शैव’ बना लिया था, तो विष्णु में आस्था रखने वालों ने ‘वैष्णव’ पंथ। किंतु शिव और विष्णु अलग होकर भी एक ही हैं। विष्णुपुराण में विष्णु को ही शिव कहा गया है, तो शिवपुराण के अनुसार शिव के ही हज़ार नामों में से एक है विष्णु। शिव विष्णु की लीलाओं से मुग्ध रहते हैं और कभी हनुमान के रूप में, तो कभी स्वामी विवेकानन्द के रूप में उनकी आराधना करते हैं। विष्णु अपने रूपों से शिवलिंग की स्थापनाएं और पूजा करते हैं। दोनों में परस्पर मैत्री और आस्था भाव है। स्वयं विष्णु शिव को अपना भगवान कहते हैं, हालांकि दोनों के काम बंटे हुए हैं। शिव (हनुमान या स्वामी विवेकानन्द) प्रत्यक्ष रूप में किसी की आराधना नहीं करते, बल्कि सबसे मैत्री-भाव रखते हैं। हां, वे शक्ति (माता सीता , या माँ सारदा देवी) की आराधना ज़रूर करते हैं, जो कि उन्हीं के भीतर समाई हुई है। शिव और विष्णु ने अपनी एकरूपता दर्शाने के लिए ही ‘हरिहरनाथ ’ रूप धरा था, जिसमें शरीर का एक हिस्सा विष्णु यानी हरि और दूसरा हिस्सा शिव यानी हर का है।}
* असुरों के राजा बलि की कथा *
[ " विष्णु का पद साधु के हृदय में " है > इसलिए साधु का हृदय सब से बड़ा है ]
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) अच्छा वह कहानी – साधु का हृदय सब से बड़ा है ।
ईशान(हँसकर)- सब से बड़ी है 'पृथ्वी', उससे बड़ा है 'समुद्र', उससे बड़ा है 'आकाश' । परन्तु भगवान् विष्णु ने एक पैर से स्वर्ग, मर्त्य, पाताल – त्रिभुवन पर अधिकार कर लिया था । पर उस विष्णु का पद ^ * साधु के हृदय में है ! इसलिए साधु का हृदय सब से बड़ा है ।
[विष्णु का पद ^ * सप्तचिरजीवियों में से एक -असुरों के राजा बलि , पुराणप्रसिद्ध विष्णुभक्त, दानवीर, महान् योद्धा थे। विरोचनपुत्र दैत्यराज बलि सभी युद्ध कौशल में निपुण थे। जिसकी राजधानी महाबलिपुरम थी। इन्हें परास्त करने के लिए विष्णु का वामनावतार हुआ था। वामन पुराण के मुताबिक असुरों के राजा बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। इससे भयभीत होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद मांगी। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। वामन भगवान ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। शुक्राचार्य के सावधान करने पर भी बलि दान से विमुख न हुआ। पहले और दूसरे पग में भगवान ने धरती और आकाश को नाप लिया। अब तीसरा पग रखने के लिए कुछ बचा नहीं थी तो राजा बलि ने कहा कि तीसरा पग उनके सिर पर रख दें। तब भगवान ने ऐसा ही किया। भगवान राजा बलि से प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि से वरदान मांगने को कहा। तो बलि ने उनसे पाताल में बसने की प्रार्थना की. बलि की इच्छा पूर्ति के लिए भगवान को पाताल जाना पड़ा। भगवान विष्णु के पाताल जाने के बाद सभी देवतागण और माता लक्ष्मी चिंतित हो गए।अपने पति भगवान विष्णु को वापस लाने के लिए माता लक्ष्मी गरीब स्त्री बनकर राजा बलि के पास पहुंची और उन्हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी। बदले में भगवान विष्णु को पाताल लोक से वापस ले जाने का वचन ले लिया। पाताल से विदा लेते वक्त भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया। जिसके अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक भगवान विष्णु पाताल लोक में रहेंगे। देवशयनी एकादशी की रात से भगवान विष्णु पाताल में चले जाते हैं और उनका शयन काल शुरू हो जाता है। जो 4 महीनों तक चलता है। जिसे हम चातुर्मास कहते हैं। इस अवधि को योगनिद्रा माना जाता है। इस दौरान भगवान शिव सृष्टि का संचालन करते हैं।'ओणम' के अवसर पर राजा बलि केरल में प्रतिवर्ष अपनी प्यारी प्रजा को देखने आते हैं। ]
"इन सब बातों को सुनकर भक्तगण आनन्दित हो रहे हैं ।
{ঈশান (সহাস্যে) — সকলের চেয়ে বড় পৃথিবী, তার চেয়ে বড় সাগর, তার চেয়ে বড় আকাশ। কিন্তু ভগবান বিষ্ণু এক পদে স্বর্গ, মর্ত্য, পাতাল, ত্রিভুবন অধিকার করেছিলেন। সেই বিষ্ণুপদ সাধুর হৃদয়ের মধ্যে! তাই সাধুর হৃদয় সকলের চেয়ে বড়।এই সকল কথা শুনিয়া ভক্তেরা আনন্দ করিতেছেন।
This earth is the largest thing we see anywhere around us. But larger than the earth is the ocean, and larger than the ocean is the sky. But Vishnu, the Godhead, has covered earth, sky, and the nether world with one of His feet. And that foot of Vishnu is enshrined in the sadhu's heart. Therefore the heart of a holy man is the greatest of all." The devotees were delighted with Ishan's words.
(२)
[गायत्री भी ब्रह्म-मंत्र है , सीधा माँ काली की उपासना करो !]
*कलियुग में वेदमत नहीं चलता ,आद्याशक्ति की उपासना से ही ब्रह्म की उपासना होती है *
ईशान भाटपाड़ा में गायत्री का पुरश्चरण करेंगे । गायत्री ब्रह्ममन्त्र है । विषयबुद्धि बिलकुल लुप्त हुए बिना ब्रह्मज्ञान नहीं होता । परन्तु कलियुग में अन्नगत प्राण है - विषयबुद्धि छूटती नहीं । रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श – मन सदा इन्हीं विषयों को लेकर रहता है । इसलिए श्रीरामकृष्ण कहते हैं, ‘कलि में वेद का मत नहीं चलता । जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । शक्ति की उपासना करने से ही ब्रह्म की उपासना होती है । जिस समय वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय करते हैं, उस समय उन्हें शक्ति कहते हैं । दो अलग अलग नहीं – एक ही हैं ।’
[ঈশান ভাটপাড়ায় গায়ত্রীর পুরশ্চরণ করিবেন। গায়ত্রী ব্রহ্মমন্ত্র। একেবারে বিষয়বুদ্ধি না গেলে ব্রহ্মজ্ঞান হয় না। কিন্তু কলিতে অন্নগত প্রাণ — বিষয়বুদ্ধি যায় না! রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ — মন এই সব বিষয়১ লয়ে সর্বদাই থাকে তাই ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলেন, কলিতে বেদমত চলে না। যিনিই ব্রহ্ম তিনিই শক্তি। শক্তির উপাসনা করিলেই ব্রহ্মের উপাসনা হয়। যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করেন তখন তাঁকে শক্তি বলে। দুটা আলাদা জিনিস নয়। একই জিনিস।
Ishan intended to retire to a solitary place and practise a special discipline of the Gayatri, through which Brahman is invoked. But the Master said that the Knowledge of Brahman was not possible without the complete destruction of worldliness. Further, he said that it was impossible for a man totally to withdraw his mind from the objects of the senses in the Kaliyuga, when his life was dependent on food. That is why the Master discouraged people from attempting the Vedic worship of Brahman and asked them to worship Sakti, the Divine Mother, who is identical with Brahman.]
* ^ परम् सत्य की खोज और एथेंस का सत्यार्थी > 'ईशान चन्द्र मुखोपाध्याय" ^ *
[The quest of the Absolute and Ishan. The Vedantic position. “I am He” — सोऽहं ]
श्रीरामकृष्ण (ईशान के प्रति)- क्यों ‘नेति नेति’ करके भटक रहे हो ? ब्रह्म के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता । केवल कहा जा सकता है, ‘अस्तिमात्रम्’* ‘केवलः रामः’।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — কেন নেতি নেতি করে বেড়াচ্ছ? ব্রহ্ম সম্বন্ধে কিছুই বলা যায় না, কেবল বলা যায় “অস্তি মাত্রম্”। কেবলঃ রামঃ।
"Why do you waste your time simply repeating 'Neti, neti'? Nothing whatsoever can be specified about Brahman, except that It exists.
“हम जो कुछ देख रहे हैं, सोच रहे हैं, सभी उस आद्याशक्ति (Primordial Energy) का, उस चित् शक्ति (the Primal Consciousness) का ही ऐश्वर्य है – सृजन, पालन, संहार, ( Creation, preservation, and destruction) जीव, जगत् ( living beings and the universe); फिर ध्यान, ध्याता; ( meditation and the meditator) भक्ति और प्रेम (bhakti and prema)- सब उन्हीं का ऐश्वर्य है।”
[“আমরা যা কিছু দেখছি, চিন্তা করছি, সবই সেই আদ্যাশক্তির, সেই চিচ্ছক্তির ঐশ্বর্য — সৃষ্টি, পালন, সংহার; জীবজগৎ; আবার ধ্যান, ধ্যাতা, ভক্তি, প্রেম — সব তাঁর ঐশ্বর্য।
"Whatever we see or think about is the manifestation of the glory of the Primordial Energy, the Primal Consciousness. Creation, preservation, and destruction, living beings and the universe, and further, meditation and the meditator, bhakti and prema — कल स्वप्न में देखा एक गाय बछड़े को बहुत कष्ट सहकर जन्म देती है, लेकिन जन्म देते ही दौड़कर उसे चाटती है?all these are manifestations of the glory of that Power.
{ ईशानचंद्र मुखोपाध्याय का परिचय - श्री रामकृष्ण के विशेष -कृपा प्राप्त गृहस्थ भक्त थे । उनका घर 19 केशवचंद्र स्ट्रीट, कोलकाता में था। लेकिन मूल रूप से 24 परगना जिले के 'हरि-नाभि' ग्राम के रहने वाले थे। A. G. Bengal (ए. जी. बंगाल) के ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट थे। व्यक्तिगत जीवन में ईशान चन्द्र एक परम् दयालु , उदार ह्रदय , दानवीर और भक्त थे। दक्षिणेश्वर भवतारिणी मन्दिर के प्रांगण में स्थित श्री ठाकुरदेव के कमरे में नियमित रूप से जाने-आने के फलस्वरूप ईशान ठाकुर देव के आश्रित भक्त में अग्रगण्य थे। ईशान चन्द्र के निवास-स्थान पर श्रीठाकुर देव बहुत बार गए थे , और उनकी सेवा ग्रहण किये थे। ईशान चंद्र के जीवन का अंतिम समय भाटपारा में साधन-भजन करते हुए बीता था । भाटपारा विधानसभा सीट पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले में पड़ती है। 1896 में, 73 वर्ष की आयु में, भाटपारा में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र श्रीशचन्द्र और सतीशचन्द्र आदि बड़े उत्कृष्ट चरित्र वान सज्जन व्यक्ति थे। उनके पुत्र श्रीशचन्द्र मुखोपाध्य श्री 'म' के सहपाठी थे तथा यूनिवर्सिटी के उत्कृष्ट छात्र में गिने जाते थे। सतीश चन्द्र भी उनके सहपाठी और मित्र थे। परिव्राजक अवस्था में भारत-भ्रमण के दौरान स्वामीजी गाजीपुर में (जहाँ पवहारी बाबा से उनकी मुलाकात हुई थी। ) सतीश चन्द्र के घर पर कुछ दिनों रुके थे।
*जलके भाबले'ई जलेर हिमशक्ति (icebergs) के भावते होय*
[जल के विषय में सोचने से हिमशैल (icebergs) में रूपान्तरित होने की शक्ति के बारे में सोचना पड़ता है, निराकार आत्मा के विषय में सोचने पर उसके नामरूप धारण करने की शक्ति के विषय में भी सोचना ही पड़ता है ! ]
“परन्तु ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं । लंका से लौटने के बाद हनुमान ने राम की स्तुति की थी । कहा था, ‘हे राम, तुम्हीं परब्रह्म हो और सीता तुम्हारी शक्ति हैं । परन्तु तुम दोनों अभिन्न हो, जिस प्रकार सर्प और उसकी टेढ़ी गति, - साँप जैसी गति को सोचना हो तो साँप को सोचना होगा, और साँप को सोचने पर साँप की गति को भी सोचना पड़ता है ।
दूध का विचार करने पर दूध के रंग का – धवलत्व का विचार करना पड़ता है, और दूध की तरह सफेद अर्थात् धवलत्व को सोचने पर दूध का स्मरण लाना पड़ता है । जल की शीतलता का चिन्तन करते ही जल का स्मरण आता है और फिर जल के चिन्तन के साथ ही, जल की शीतलता का भी चिन्तन [जल आइसबर्ग (हिम-शिला) बनने की शक्ति का भी चिन्तन] करना पड़ता है ।”
[“কিন্তু ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ। লঙ্কা থেকে ফিরে আসবার পর হনুমান রামকে স্তব করছেন; বলছেন, হে রাম, তুমিই পরব্রহ্ম, আর সীতা তোমার শক্তি। কিন্তু তোমরা দুজনে অভেদ। যেমন সর্প ও তার তির্যগ্গতি — সাপের মতো গতি ভাবতে গেলেই সাপকে ভাবতে হবে; আর সাপকে ভাবলেই সাপের গতি ভাবতে হয়। দুগ্ধ ভাবলেই দুধের বর্ণ ভাবতে হয়, ধবলত্ব। দুধের মতো সাদা অর্থাৎ ধবলত্ব ভাবতে গেলেই দুধকে ভাবতে হয়। জলের হিমশক্তি ভাবলেই জলকে ভাবতে হয়, আবার জলকে ভাবলেই জলের হিমশক্তিকে (icebergs) ভাবতে হয়।
"But Brahman is identical with Its Power. On returning from Ceylon, Hanuman praised Rama, saying: 'O Rama, You are the Supreme Brahman, and Sita is Your Sakti. You and She are identical.' Brahman and Sakti are like the snake and its wriggling motion. Thinking of the snake, one must think of its wriggling motion, and thinking of its wriggling motion, one must think of the snake. Or they are like milk and its whiteness. Thinking of milk, one has to think of its colour, that is, whiteness, and thinking of the whiteness of milk, one has to think of milk itself. Or they are like water and its wetness. Thinking of water, one has to think of its wetness, and Along with the contemplation wetness (गीलापन) of water, (the power of water to become icebergs) one has to think of water.
*आद्याशक्ति (हिमशक्ति ~ महामाया या आवरण और विक्षेप शक्ति) ने ब्रह्म को आवृत्त कर रखा है*
“इस आद्याशक्ति (आवरण और विक्षेप शक्ति) या महामाया ने ब्रह्म को आवृत्त कर रखा है । आवरण (और विक्षेप?) हट जाते ही ‘मैं जो था, वही बन गया ।’ ‘मैं ही तुम, तुम ही मैं हूँ !’
{.“এই আদ্যাশক্তি বা মহামায়া ব্রহ্মকে আবরণ করে রেখেছে। আবরণ গেলেই ‘যা ছিলুম’, ‘তাই হলুম’। ‘আমিই তুমি’ ‘তুমিই আমি’!
"This Primal Power, Mahamaya, has covered Brahman. As soon as the covering is withdrawn, one realizes: 'I am what I was before', 'I am Thou; Thou art I'.}
“जब तक आवरण है, तब तक वेदान्तवादी की ‘सोऽहम्’ अर्थात् ‘मैं ही परब्रह्म हूँ’ यह बात नहीं चलती। जल की ही तरंग है, तरंग का जल नहीं कहलाता । जब तक आवरण है (देहात्मबोध बना हुआ है), तब तक ‘माँ माँ’ कहकर पुकारना अच्छा है । तुम माँ हो, मैं तुम्हारी सन्तान हूँ । तुम प्रभु हो, मैं तुम्हारा दास हूँ । सेव्यसेवक-भाव अच्छा है ।
इसी दासभाव से फिर सभी भाव आते हैं – शान्त, सख्य आदि । मालिक (बंगला में मोनिब -Boss) यदि नौकर से प्यार करता हैं, तो उसे बुलाकर कहता है, ‘आ, मेरे पास बैठ, तू जो है, मैं भी वही हूँ;’ परन्तु नौकर यदि अपनी इच्छा से मालिक के पास बैठने जाय तो क्या मालिक नाराज न होंगे ?
{“যতক্ষণ আবরণ রয়েছে, ততক্ষণ বেদান্তবাদীদের সোঽহম্ অর্থাৎ ‘আমিই সেই পরব্রহ্ম’ এ-কথা ঠিক খাটে না। জলেরই তরঙ্গ, তরঙ্গের কিছু জল নয়। যতক্ষণ আবরণ রয়েছে ততক্ষণ মা — মা বলে ডাকা ভাল। তুমি মা, আমি তোমার সন্তান; তুমি প্রভু, আমি তোমার দাস। সেব্য-সেবক ভাবই ভাল। এই দাসভাব থেকে আবার সব ভাব আসে — শান্ত, সখ্য প্রভৃতি। মনিব (Boss) যদি দাসকে ভালবাসে, তাহলে আবার তাকে বলে, আয়, আমার কাছে বস; তুইও যা, আমিও তা। কিন্তু দাস যদি মনিবের কাছে সেধে বসতে যায়, মনিব (Boss) রাগ করবে না?”
"As long as that covering remains, the Vedantic formula 'I am He', that is, man is the Supreme Brahman, does not rightly apply. The wave is part of the water, but the water is not part of the wave. As long as that covering remains, one should call on God as Mother Addressing God, the devotee should say, 'Thou art the Mother and I am Thy child; Thou art the Master and I am Thy servant.' It is good to have the attitude of the servant toward the master. From this relationship of master and servant spring up other attitudes: the attitude of serene love for God, the attitude of friend toward friend, and so forth. When the master loves his servant, he may say to him, 'Come, sit by my side; there is no difference between you and me.' But if the servant comes forward of his own will to sit by the master, will not the master be angry? }
*अवतार-लीला चित्शक्ति या आद्याशक्ति (Divine Power) का ऐश्वर्य है !*
(अवतार लीला और ईशान >अज्ञान शब्दमें जो नञ् समास है> वेद, पुराण एवं तन्त्रों का समन्वय)
“अवतारलीला - ये सब चित्शक्ति (the Power of Primal Consciousness) के ऐश्वर्य हैं । जो ब्रह्म हैं, वे ही फिर राम, कृष्ण तथा शिव हैं ।”
[“অবতারলীলা — এ-সব চিচ্ছক্তির ঐশ্বর্য। যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই আবার রাম, কৃষ্ণ, শিব।”
"God's play on earth as an Incarnation is the manifestation of the glory of the Chitsakti, the Divine Power. That which is Brahman is also Rama, Krishna, and Siva."]
ईशान- हरि और हर, एक ही धातु है, केवल प्रत्यय का भेद है । (सभी हँस पड़े ।)
[ঈশান — হরি, হর এক ধাতু কেবল প্রত্যয়ের ভেদ। (সকলের হাস্য)
ISHAN: "Yes, sir. Both Hari and Hara are derived from the same root. The difference lies only in the pratyaya."
’*अज्ञान शब्द में जो नञ् समास है-- वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है,
प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञान का वाचक है।*
श्रीरामकृष्ण- हाँ, एक के अतिरिक्त दो कुछ भी नहीं है । वेद में कहा है – ॐ सच्चिदानन्दं ब्रह्म; पुराण में कहा है – ॐ सच्चिदानन्दः कृष्णः और तन्त्र में कहा है - ॐ सच्चिदानन्दः शिवः ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, এক বই দুই কিছু নাই। বেদেতে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ ব্রহ্ম, পুরাণে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ কৃষ্ণঃ, আবার তন্ত্রে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ শিবঃ।
MASTER: "Yes, there is only One without a second. The Vedas speak-of It as 'Om Satchidananda Brahma (ब्रह्म) ', the Puranas as 'Om Satchidananda Krishna(श्रीकृष्ण) ', and the Tantra as 'Om Satchidananda Siva (शिव) '.
“उस चित्शक्ति (eloquence- वाग्मिता ^* ) ने महामाया के रूप में सभी को अज्ञानी ^ * बना रखा है । अध्यात्मरामायण में है, राम के दर्शन जितने ऋषियों ने किए वे सभी एक बात कहते थे, - ‘हे राम, हमें अपनी भुवनमोहिनी माया द्वारा मुग्ध न करो ।’*
[“সেই চিচ্ছক্তি, মহামায়ারূপে সব অজ্ঞান করে রেখেছে। অধ্যাত্মরামায়ণে আছে, রামকে দর্শন করে যত ঋষিরা কেবল এই কথাই বলছে, হে রাম, তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ করো না!”
"The Chitsakti, as Mahamaya, has deluded all with ignorance. It is said in the Adhyatma Ramayana that when the rishis saw Rama, they prayed to Him in these words only: 'O Rama, please do not delude us with Your world-bewitching maya.']
[लेकिन अज्ञान शब्दमें जो नञ् समास है वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। अधूरे ज्ञान को ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियों का और बुद्धि का ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। स्वरूप से अपरिवर्तनशील होने पर भी अपने को परिवर्तनशील पदार्थों से एक मान लेना अज्ञान है। केवल आत्म विस्मृति के कारण ही उपाधियों में व्यक्त हुआ वह 'आत्मा' कर्तृत्व कर्म फलभोग आदि से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। 'समास' शब्द का शाब्दिक अर्थ - संक्षिप्त करना (संक्षिप्तिकरण), “समास” शब्द का निर्माण - सम् + आस; अच्छी तरह + बैठना ! मायारिक्त का सही समास विग्रह है माया से रिक्त। निषेध या अभाव के अर्थ में पूर्वपद “न”, “अ” या “अन/अन्” लगाने से नञ् तत्पुरुष समास बनता है, इसके पदों का निषेधात्मक अर्थ प्रकट होता है। ]
*नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।गीता 5.15।।
(गीता, ५/१५) विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है; (किन्तु) अज्ञान से 'ज्ञान' ढका हुआ है, इससे (विवेक-प्रयोग नहीं करने से) सब जीव मोहित होते हैं।
जीव स्वरूप से अकर्ता तथा सुख-दुःख से रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखीदुःखी होता है। तेन मुह्यन्ति जन्तवः > इस वाक्यांश में इसी मूढ़ता (अज्ञान) को ही यहाँ तेन पदसे कहा गया है। जो मनुष्य मूढ़तावश अपने विवेक को महत्त्व नहीं देते, वे वास्तव में जन्तु अर्थात् पशु ही हैं ! क्योंकि उनके और पशुओं के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं पर उन भोगों को भोगना मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है। .[आहार निद्रा भय मैथुनं च,सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।धर्मो हि तेषामधिको विशेष:, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म (विवेक-प्रयोग क्षमता) है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है।आकृति मात्र से कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है जो अपने विवेक को महत्त्व देता है। भगवान के द्वारा मनुष्य-मात्र को विवेक दिया हुआ है जिसके द्वारा वह इस मूढ़ता का नाश कर सकता है। ]
ईशान- यह माया क्या है ?
[ঈশান — এ মায়াটা কি?
ISHAN: "What is this maya?"]
श्रीरामकृष्ण- जो कुछ देखते हो, सुनते हो, सोचते हो, सभी माया है । एक बात में कहना हो तो, कामिनी-कांचन ही माया का आवरण है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যা কিছু দেখছ, শুনছ, চিন্তা করছ — সবই মায়া। এককথায় বলতে গেলে, কামিনী-কাঞ্চনই মায়ার আবরণ।
"Whatever you see, think, or hear is maya. In a word, 'woman and gold' is the covering of maya.]
“पान खाना, मछली खाना , तम्बाकू पीना, तेल मालिश करना – इनमें दोष नहीं है । केवल इन्हीं का त्याग करने से क्या होगा ? कामिनी-कांचन के त्याग की आवश्यकता है । वही त्याग है ! गृहस्थ लोग बीच बीच में निर्जन स्थान में (वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ) जाकर साधन-भजन कर भक्ति प्राप्त करके मन से त्याग करें । संन्यासी बाहर भीतर दोनों ओर से त्याग करें ।
.[“পান খাওয়া, মাছ খাওয়া, তামাক খাওয়া, তেল মাখা — এ-সব তাতে দোষ নাই। এ-সব শুধু ত্যাগ করলে কি হবে? কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগই দরকার। সেই ত্যাগই ত্যাগ! গৃহীরা মাঝে মাঝে নির্জনে গিয়ে সাধন-ভজন করে, ভক্তিলাভ করে মনে ত্যাগ করবে। সন্ন্যাসীরা বাহিরে ত্যাগ, মনে ত্যাগ — দুই-ই করবে।”
“केशव सेन से मैंने कहा था, ‘जिस कमरे में जल का घड़ा और इमली का अचार है उसी कमरे में यदि सन्निपात का रोगी रहे तो भला वह कैसे अच्छा हो सकता है ? बीच बीच में निर्जन स्थान में (C-IN-C नवनीदा द्वारा संचालित कैम्प में) जाना ही चाहिए ।’
[“কেশব সেনকে বলেছিলাম, যে-ঘরে জলের জালা আর আচার, তেঁতুল, সেই ভরে বিকারী রোগী থাকলে কেমন করে হয়? মাঝে মাঝে নির্জনে থাকতে হয়।”
"I once said to Keshab, 'How can a typhoid patient be cured if he remains in a room whsre a pitcher of water and a jar of pickles are kept?' Now and then one should live in solitude."
एक भक्त- महाराज, नवविधान ब्राह्मसमाज किस प्रकार है – मानो खीचड़ी जैसा !
[একজন ভক্ত — মহাশয়, নববিধান কিরকম, যেন ডাল-খিচুড়ির মতো।
A DEVOTEE: "Sir, what do you think of the Navavidhan? It seems to me like a hotchpotch of everything."]
श्रीरामकृष्ण- कोई कोई कहते हैं आधुनिक । मैं सोचता हूँ, क्या ब्राह्मसमाजवालों का ईश्वर दूसरा है ? कहते हैं नवविधान, माने - नई व्यवस्था, सो होगा । जिस प्रकार छः दर्शन हैं, षट्दर्शन, उसी प्रकार एक और कुछ होगा ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেউ কেউ বলে আধুনিক। আমি ভাবি, ব্রহ্মজ্ঞানীর ঈশ্বর কি আর-একটা ইশ্বর? বলে নববিধান, নূতন বিধান; তা হবে! যেমন ছটা দর্শন আছে, ষড়্ দর্শন, তেমনি আর-একটা কিছু হবে।
MASTER: "Some say it is a modern thing. That sets me wondering: 'Then is the God of the Brahmo Samaj a new God?' The Brahmos speak of their cult as the Navavidhan, as a New Dispensation. Well, it may be so. Who knows? There are six systems of philosophy; so perhaps it is like one of these.
“परन्तु निराकारवादियों की भूल क्या है जानते हो ? भूल यह है कि वे कहते हैं, ईश्वर निराकार हैं, और बाकी सारे मत गलत हैं ।’
[“তবে নিরাকারবাদীদের ভুল কি জানো? ভুল এই — তারা বলে, তিনি নিরাকার আর সব মত ভুল।
"But do you know where those who speak of the formless God make their mistake? It is where they say that God is formless only, and that those who differ with them are wrong.
“मैं जानता हूँ, वे साकार निराकार दोनों ही हैं, और भी कितने प्रकार के बन सकते हैं ! वे सब कुछ बन सकते हैं ।”
[“আমি জানি, তিনি সাকার, নিরাকার দুই-ই, আরো কত কি হতে পারেন। তিনি সবই হতে পারেন।৪”
"But I know that God is both with and without form. And He may have many more aspects. It is possible for Him to be everything.]
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप। एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।10.40।।] हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।भगवान् यहाँ अर्जुन को दृश्य (साकार -अवतार) के द्वारा अदृश्य (निराकार -सच्चिदानन्द) का दर्शन करने की कला को सिखाने के लिए अपनी कुछ विशेष विभूतियों का वर्णन करते हैं।]
[श्रीरामकृष्ण और प्रत्यभिज्ञा दर्शन-‘मैं जो था, वही बन गया ।’]
[ 'अछूत' में भगवान ~ God in the 'Untouchables' ]
(ईशान के प्रति) – “वही चित्शक्ति, वही महामाया चौबीस तत्त्व ^* बनी हुई है । एक दिन मैं ध्यान कर रहा था, ध्यान करते करते -- मन चला गया रसिक के के घर में । रसिक एक मेहतर है । मन से कहा, ‘अरे, रह, वहीँ पर रह’ । माँ ने दिखा दिया, उसके घर में जो लोग घूम रहे हैं, वे बाहर का आवरण (Shell -सीप,शंख) मात्र हैं, भीतर वही एक कुलकुण्डलिनी, एक षट्चक्र है ।
.[(ঈশানের প্রতি) — সেই চিচ্ছক্তি, সেই মহামায়া চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়ে রয়েছেন। আমি ধ্যান করছিলাম; ধ্যান করতে করতে মন চলে গেল রস্কের বাড়ি! রস্কে ম্যাথর। মনকে বললুম, থাক শালা ওইখানে থাক। মা দেখিয়া দিলেন, ওর বাড়ির লোকজন সব বেড়াচ্ছে খোল মাত্র, ভিতরে সেই এক কুলকুণ্ডলিনী, এক ষট্চক্র!
(To Ishan) "The Chitsakti, Mahamaya, has become the twenty-four cosmic principles. One day as I was meditating, my mind wandered away to Rashkē's house. He is a scavenger. I said to my mind, 'Stay there, you rogue!' The Divine Mother revealed to me that the men and women in this house were mere masks; inside them was the same Divine Power, Kundalini, that rises up through the six spiritual centres of the body.
“ वह आद्याशक्ति स्त्री है या पुरुष ? मैंने उस देश (कामारपुकुर) में देखा, 'लाहा' लोगों के घर पर कालीपूजा हो रही है । माँ के गले में जनेऊ दिया है । एक व्यक्ति ने पूछा, ‘माँ को जनेऊ क्यों है ?’ जिसके घर में पूजा है उसने कहा, ‘भाई, तूने माँ को ठीक पहचाना है, परन्तु मैं तो कुछ भी नहीं जानता कि माँ पुरुष है या स्त्री !’(^The images of male deities only are invested with the sacred thread.)
[“সেই আদ্যাশক্তি মেয়ে না পুরুষ? আমি ও-দেশে দেখলাম, লাহাদের বাড়িতে কালীপূজা হচ্ছে। মার গলায় পৈতে দিয়েছে। একজন জিজ্ঞাসা করলে, মার গলায় পৈতে কেন? যার বাড়ির ঠাকুর, তাকে সে বললে, ভাই! তুই মাকে ঠিক চিনেছিস, কিন্তু আমি কিছু জানি না, মা পুরুষ কি মেয়ে।
"Is the Primal Energy man or woman? Once at Kamarpukur I saw the worship of Kali in the house of the Laha's. They put a sacred thread (जनेऊ ) on the image of the Divine Mother. One man asked, 'Why have they put the sacred thread on the Mother's person?' The master of the house said: Brother, I see that you have rightly understood the Mother. But I do not yet know whether the Divine Mother is male or female.'
“इस प्रकार कहा जाता है कि महामाया शिव को निगल गयी ^ * । माँ के भीतर षट्चक्र का ज्ञान होने पर शिव माँ की जाँघ में से निकल आए । फिर शिव ने तन्त्रों की रचना की ।”
[“এইরকম আছে যে, সেই মহামায়া শিবকে টপ্ করে খেয়ে ফেলেন। মার ভিতরে ষট্চক্রের জ্ঞান হলে শিব মার ঊরু দিয়ে বেরিয়া এলেন। তখন শিব তন্ত্রের সৃষ্টি করলেন।
"It is said that Mahamaya swallowed Siva. When the six centres in Her Were awakened, Siva came out through Her thigh. Then Siva created the Tantra philosophy.
[ पुराणों में मां धूमावती की कथा: एक बार देवी पार्वती को भूख से व्याकुल हो जाती हैं, और वह भगवान शिव से कुछ भोजन की मांग करती हैं। उनकी बात सुन महादेव देवी पार्वती जी से कुछ समय इंतजार करने को कहते हैं। समय बीतने लगता है परंतु भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती और देवी पार्वती भगवान शिव को ही निगल जाती हैं। महादेव को निगलने पर देवी पार्वती के शरीर से धुआं निकलने लगता है। तब भगवान शिव माया द्वारा देवी पार्वती से कहते हैं कि देवी, धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावती होगा। भगवान कहते हैं तुमने जब मुझे खाया तब विधवा हो गईं अत: अब तुम इस वेश में ही पूजी जाओगी। धूमावती देवी का स्वरूप विधवा का है और कौवा इनका वाहन है, वह श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, खुले केश रुप में होती हैं। पति को निगल जाना ये सब सांकेतिक प्रकरण हैं। यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है, जो कभी ख़त्म नहीं होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है। मां धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं। देवी का स्वरूप चाहे जितना उग्र क्यों न हो वह संतान के लिए कल्याणकारी ही होता है।ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष अष्टमी को मां धूमावती की जयंती मनाई जाती है। भगवान शिव द्वारा प्रकट की गई दस महाविद्याओं में मां धूमावती एक हैं। इस अवसर पर दस महाविद्या का पूजन किया जाता है। मां पार्वती का यह स्वरूप अत्यंत उग्र है। मां धूमावती विधवा स्वरूप में पूजी जाती हैं। मां धूमावती के दर्शन से संतान और पति की रक्षा होती है। मां अपने भक्तों के सभी कष्टों को दूर करती हैं। परंपरा है कि इस दिन सुहागिनें, मां का पूजन नहीं करती हैं, बल्कि दूर से ही मां के दर्शन करती हैं।]
“उसी चित्शक्ति के, उसी महामाया के शरणागत होना पड़ता है ।”
[“সেই চিচ্ছক্তির, সেই মহামায়ার শরণাগত হতে হয়।”
"Take refuge in the Chitsakti, the Mahamaya."
ईशान- आप कृपा कीजिए ।
[ঈশান — আপনি কৃপা করুন।
ISHAN: "Please bestow your grace on me."
* विवेक-प्रयोग के बिना शास्त्राध्ययन (Mere Book-Learning)व्यर्थ- गुरु का प्रयोजन । *
*[ईशान को लीडरशिप ट्रेनिंग -“ডুব দাও”---‘डुबकी लगाओ !’]*
श्रीरामकृष्ण- सरल भाव से कहो, ‘हे ईश्वर, दर्शन दो’ और रोओ और कहो, ‘हे ईश्वर, कामिनी-कांचन से मन को हटा दो ।’
“और डुबकी लगाओ । ऊपर उपर बहने से या तैरने से क्या रत्न मिलता है ? डुबकी लगानी पड़ती है।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সরলভাবে বল, হে ঈশ্বর, দেখা দাও, আর কাঁদ; আর বল, হে ঈশ্বর, কামিনী-কাঞ্চন থেকে মন তফাত কর! “আর ডুব দাও। উপর উপর ভাসলে বা সাঁতার দিলে কি রত্ন পাওয়া যায়? ডুব দিতে হয়।
"Say to God with a guileless heart, 'O God, reveal Thyself to me.' And weep. Pray to God, 'O God, keep my mind away from "woman and gold".' And dive deep. Can a man get pearls by floating or swimming on the surface? He must dive deep.
“गुरु से पता लेना चाहिए । (चपरास प्राप्त गुरु/नेता से 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण लेना चाहिए) एक व्यक्ति बाणलिंग शिव * की खोज कर रहा था । किसी ने कह दिया, ‘अमुक नदी के किनारे जाओ, वहाँ पर एक वृक्ष देखोगे, उस वृक्ष के पास एक भँवर है । वहाँ पर डुबकी लगानी होगी, तब बाणलिंग शिव मिलेगा ।’ इसीलिए गुरु से पता जान लेना चाहिए ।”
[“গুরুর কাছে সন্ধান নিতে হয়। "One must get instruction from a guru." একজন বাণলিঙ্গ শিব * খুঁজতে ছিল। কেউ আবার বলে দেয়, অমুক নদীর ধারে যাও, সেখানে একটি গাছ দেখবে, সেই গাছের কাছে একটি ঘূর্ণি জল আছে, সেইখানে ডুব মারতে হবে, তবে বাণলিঙ্গ শিব পাওয়া যাবে। তাই গুরুর কাছে সন্ধান জেনে নিতে হয়।“
"One must get instruction from a guru. Once a man was looking for a stone image of Siva. Someone said to him: "Go to a certain river. There you will find a tree. Near it is a whirlpool. Dive into the water there, and you will find the image of Siva.' So I say that one must get instruction from a teacher."
[*बाणलिंग या नर्मदेश्वर लिंग का परिचय : पवित्र नर्मदा नदी के किनारे पाया जाने वाला एक विशेष गुणों वाला पाषाण ही बाणलिंग कहलाता है। इसकी खासियत यह है कि यह प्राकृतिक रूप से ही बनता है। नदी में बहते हुए शिलाखण्ड शिवलिंग का रूप धारण कर लेते हैं जो कि भगवान शिव का चमत्कार है। खासकर स्वयंभू (स्वयं-सिद्ध) शिवलिंग पूजा से गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है। हिन्दू धर्म के विभिन्न शास्त्रों तथा धर्मग्रंथों के अनुसार मां नर्मदा को यह वरदान प्राप्त था की नर्मदा का हर बड़ा या छोटा पाषण (पत्थर) बिना प्राण प्रतिष्ठा किये ही शिवलिंग के रूप में सर्वत्र पूजित होगा। अतः नर्मदा के हर पत्थर को नर्मदेश्वर महादेव के रूप में घर में लाकर सीधे ही पूजा अभिषेक किया जा सकता है। इसलिए यह स्वयंसिद्ध शिवलिंग माना जाता है और इनके केवल दर्शन भर ही भाग्य संवारने वाला बताया गया है। नर्मदेश्वर शिवलिंग की पूजा से सुख-समृद्धि के साथ-साथ बड़ी से बड़ी मुसीबत से भी सुरक्षा मिलती है। यह शिवलिंग ओंकारेश्वर व घाबडी कुंड में भी प्राप्त होते हैं, इन शिवलिंगों का स्वरूप बहुत ही सुंदर व चमकीला होता है यह शिवलिंग अधिक प्रभाव शाली होने के कारण मूल्यवान भी होते हैं।]
ईशान- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु (नवनीदा) के रूप में आते हैं । मनुष्य गुरु से यदि कोई दीक्षा लेता है, तो उन्हें मनुष्य मानने से कुछ नहीं होगा । उन्हें साक्षात् ईश्वर मानना होगा, तभी मन्त्र पर विश्वास होगा । विश्वास हुआ कि सब कुछ हो गया ! शुद्र एकलव्य ने मिट्टी के द्रोणाचार्य बनाकर वन में बाण चलाना सीखा था । मिट्टी के द्रोण की पूजा करता था – साक्षात् द्रोणाचार्य मानकर । इसी से वह धनुर्विद्या में सिद्ध हो गया!
[ শ্রীরামকৃষ্ণ — সচ্চিদানন্দই গুরু-(নেতা -নবনীদা) রূপে আসেন। মানুষ গুরুর কাছে যদি কেউ দীক্ষা লয়, তাঁকে মানুষ ভাবলে কিছু হবে না। তাঁকে সাক্ষাৎ ঈশ্বর ভাবতে হয়, তবে তো মন্ত্রে বিশ্বাস হবে? বিশ্বাস হলেই সব হয়ে গেল! শূদ্র (একলব্য) মাটির দ্রোণ তৈয়ার করে বনেতে বাণশিক্ষা করেছিল। মাটির দ্রোণকে পূজা করত, সাক্ষাৎ দ্রোণাচার্য জ্ঞানে; তাইতেই বাণশিক্ষায় সিদ্ধ হল।
MASTER: "It is Satchidananda that comes to us in the form of the guru. If a man is initiated by a human guru, he will not achieve anything if he regards his guru as a mere man. The guru should be regarded as the direct manifestation of God. Only then can the disciple have faith in the mantra given by the guru. Once a man has faith he achieves all. The sudra Ekalavya learnt archery in the forest before a clay image of Drona. He worshipped the image as the living Drona; that by itself enabled him to attain mastery in archery.
“और तुम (गुरुगिरि करने वाले) ब्राह्मण-पण्डितों को लेकर अधिक झमेला न किया करो । उन्हें चिन्ता है दो पैसे पाने की !”
“मैंने देखा है, ब्राह्मण स्वस्त्ययन करने आया है; चण्डीपाठ या और कुछ पाठ कर रहा है – पर आधे पन्ने वैसे ही उलटता जा रहा है । (सभी हँस पड़े ।)
[“আর তুমি ব্রাহ্মণ পণ্ডিতদের নিয়ে বেশি মাখামাখি করো না। ওদের চিন্তা দুপয়সা পাবার জন্য! “আমি দেখেছি, ব্রাহ্মণ স্বস্ত্যয়ন করতে এসেছে, চন্ডীপাঠ কি আর কিছু পাঠ করেছে। তা দেখেছি অর্ধেক পাতা উল্টে যাবে। (সকলের হাস্য)
"Don't mix intimately with brahmin pundits. Their only concern is to earn money. I have seen brahmin priests reciting the Chandi while performing ing the swastyayana. It is hard to tell whether they are reading the sacred book or something else. They turn half the pages without reading them. (All laugh.)
“अपनी हत्या एक छोटी नहरनी से भी हो सकती । दूसरों को मारने के लिए ढाल-तलवार चाहिए । - शास्त्रग्रन्थादि का यही हेतु है ।”
“बहुत से शास्त्रों की भी कोई आवश्यकता नहीं है । यदि विवेक न हो तो केवल पाण्डित्य से कुछ नहीं होता, षट्शास्त्र पढ़कर भी कुछ नहीं होता । निर्जन में, एकान्त में, गुप्त रूप से रो-रोकर उन्हें पुकारो, वे ही सब कुछ कर देंगे ।”
[“নিজের বধের জন্য একটি নরুনেই হয়। পরকে মারতেই ঢাল-তরোয়াল — শাস্ত্রাদি।
“নানা শাস্ত্রেরও কিছু প্রয়োজন নাই৮। যদি বিবেক না থাকে, শুধু পাণ্ডিত্যে কিছু হয় না। ষট্শাস্ত্র পড়লেও কিছু হয় না। নির্জনে গোপনে কেঁদে কেঁদে তাঁকে ডাক, তিনিই সব করে দেবেন।”
"A nail-knife suffices to kill oneself. One needs sword and shield to kill others. That is the purpose of the sastras.
"One doesn't really need to study the different scriptures. If one has no discrimination, one doesn't achieve anything through mere scholarship, even though one studies all the six systems of philosophy. Call on God, crying to Him secretly in solitude. He will give all that you need."]
श्रीरामकृष्ण ने सुना है, ईशान भाटपाड़ा में पुरश्चरण करने के लिए गंगा के तट पर कुटिया बना रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (व्यग्र भाव से ईशान के प्रति)- क्यों जी, क्या कुटिया बन गयी ? जानते हो, ये सब काम लोगों से जितने छिपे रहें, उतना ही अच्छा है । जो लोग सतोगुणी हैं, वे ध्यान करते हैं मन में, कोने में, वन में; कभी तो मच्छरदानी के भीतर ही बैठ ध्यान करते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্যস্ত হইয়া ঈশানের প্রতি) — হ্যাঁগা, ঘর কি তৈয়ার হয়েছে? কি জানো, ও-সব কাজ লোকের খপরে যত না আসে ততই ভাল। যারা সত্ত্বগুণী, তারা ধ্যান করে মনে, কোণে, বনে, কখনও মশারির ভিতর ধ্যান করে!
Sri Ramakrishna had heard that Ishan was building a house on the bank of the Ganges for the practice of spiritual discipline. He asked Ishan eagerly: "Has the house been built? Let me tell you that the less people know of your spiritual life, the better it will be for you. Devotees endowed with sattva meditate in a secluded corner or in a forest, or withdraw into the mind. Sometimes they meditate inside the mosquito net."
*छूतधर्मी का आचरण मत करो ।*
हाजरा महाशय को ईशान बीच बीच में भाटपाड़ा ले जाते हैं । हाजरा महाशय छूतधर्मी (outward purity) की तरह आचरण करते हैं । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें वैसा करने से मना किया था ।
श्रीरामकृष्ण (ईशान के प्रति)- और देखो, अधिक छूतधर्मी का आचरण मत करो । एक साधु को बड़ी प्यास लगी थी । भिश्ती जल लेकर जा रहा था; उसने साधु को जल देना चाहा । साधु ने कहा, ‘क्या तुम्हारी मशक साफ है ?’ भिश्ती बोला, ‘महाराज, मेरी मशक खूब साफ है ! परन्तु आपकी मशक के भीतर मल-मूत्र आदि अनेक प्रकार के मैल हैं । इसलिए कहता हूँ, मेरी मशक से जल पीजिए, इससे दोष न लगेगा ।’ आपकी मशक अर्थात् आपकी देह, आपका पेट (जिसमे Gallbladder है ?)।
.[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — আর দেখ, বেশি আচার করো না। একজন সাধুর বড় জলতৃষ্ণা পেয়েছে, ভিস্তি জল নিয়ে যাচ্ছিল, সাধুকে জল দিতে চাইলে। সাধু বললে, তোমার ডোল (চামড়ার মোশক) কি পরিষ্কার? ভিস্তি বললে। মহারাজ, আমার ডোল খুব পরিষ্কার, কিন্তু তোমার ডোলের ভিতর মলমূত্র অনেকরকম ময়লা আছে। তাই বলছি, আমার ডোল থেকে খাও, এতে দোষ হবে না। তোমার ডোল অর্থাৎ তোমার দেহ, তোমার পেট!
(to Ishan): "Let me tell you another thing. Don't be over-fastidious about outward purity. Once a sadhu felt very thirsty. A water-carrier was carrying water in his skin water-bag, and offered the water to the holy man. The sadhu asked if the skin was clean. The carrier said: 'Revered sir, my skin bag is perfectly clean. But inside your skin are all sorts of filthy things. That is why I can ask you to drink water from my skin. It won't injure you.' By 'your skin', the carrier meant the body, the belly, and so forth.]
[সিদ্ধাবস্থায় কর্মত্যাগ ]
*सिद्धावस्था में कर्मत्याग हो जाता है !*
“और उनके नाम पर विश्वास रखो । तो फिर तीर्थ आदि की भी आवश्यकता न होगी ।”
[“আর তাঁর নামে বিশ্বাস কর। তাহলে আর তীর্থাদিরও প্রয়োজন হবে না।”
"Have faith in the name of God. Then you won't need even to go to holy places."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर गाना गा रहे हैं –
गया-गंगा-प्रभासादि काशी कांची केवा चाय |
काली काली बोले आमार अजपा यदि फुराय ||
त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से कि चाय |
संध्या तार संधाने फेरे कभु संधि नाहि पाय ||
दया व्रत दान आदि, आर किछु ना मने लय |
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय ||
कालीनामेर एतगुण केवा जानते पारे ताय |
देवाधिदेव महादेव जाँर पंचमुखे गुण गाय ||
(भावार्थ)- “यदि ‘काली काली’ कहते हुए मेरे शरीर का अन्त हो तो गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि कौन चाहता है ? जो तीनों समय काली का नाम लेता है, वह क्या पूजा-सन्ध्या चाहता है ? सन्ध्या स्वयं उसकी खोज में रहकर भी पता नहीं पाती । कालीनाम के इतने गुण हैं कि कौन उसका पार पा सकता है । उन गुणों को देवाधिदेव महादेव पंचमुखों से गाते हैं । दया, व्रत, दान आदि और किसी में भी मन नहीं जाता, मदन का यज्ञ-याग ब्रह्ममयी के पदपद्म में है ।”
ईशान सब सुनकर चुप होकर बैठे हैं ।
[# स्कन्दपुराण में बद्रिकाश्रम, अयोध्या, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, कन्याकुमारी, प्रभास, द्वारका, काशी, कांची आदि तीर्थों की महिमा; गंगा, नर्मदा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों के उद्गम की मनोरथ कथाएँ; रामायण, भागवतादि ग्रन्थों का माहात्म्य, विभिन्न महीनों के व्रत-पर्व का माहात्म्य तथा शिवरात्रि, सत्यनारायण आदि व्रत-कथाएँ अत्यन्त रोचक शैली में प्रस्तुत की गयी हैं।
'अलमोड़ा का आकर्षण' (Magic of Almora ) ~ से सम्बन्धित एक पत्र' ~ ' A Letter'वचनामृत के समस्त गाने-भजन : https://vivek-jivan.blogspot.com/2020/05/?m=0]
["मैं नश्वर देह-मन नहीं , अजर-अमर अविनाशी आत्मा हूँ" - इस विश्वास से ही सब कुछ मिलता है ।]
(ईशान को उपदेश ; आत्मा की मृत्यु नहीं ,बालक के समान इस विश्वास से आत्मसाक्षात्कार )
श्रीरामकृष्ण (ईशान के प्रति)- और भी सन्देह हो तो पूछ लो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — আর কিছু খোঁচ মোচ (সন্দেহ) থাকে জিজ্ঞাসা কর!
MASTER (to Ishan): "Tell me if you have any more doubts."]
ईशान- जी, आपने जो कहा है - विश्वास !
श्रीरामकृष्ण- हाँ, ठीक विश्वास के द्वारा ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है । और पूरा विश्वास करने पर और भी शीघ्र प्रगति होती है । गौ यदि चुन-चुनकर खाती है तो दूध कम देती है, सभी प्रकार के घास-पत्ते खाने पर वह अधिक दूध देती है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক বিশ্বাসের দ্বারাই তাঁকে লাভ করা যায়। আর, সব বিশ্বাস করলে আরও শীঘ্র হয়। গাভী যদি বেছে বেছে খায়, তাহলে দুধ কম দেয়; সবরকম গাছ খেলে সে হুড়হুড় করে দুধ দেয়।
MASTER: "God can be realized by true faith alone. And the realization is hastened if you believe everything about God. The cow that picks and chooses its food gives milk only in dribblets, but if she eats all kinds of plants, then her milk flows in torrents.
“राजकृष्ण बनर्जी के लड़के ने एक कहानी सुनायी थी कि एक व्यक्ति को आदेश हुआ कि इस भेड़ में ही तू अपना इष्ट देखना उसने इसी पर विश्वास किया । सर्वभूतों में वे ही विराजमान हैं ।”
[“রাজকৃষ্ণ বাঁড়ুজ্জের ছেলে গল্প করেছিল যে একজনের প্রতি আদেশ হল, দেখ্, এই ভেড়াতেই তোর ইষ্ট দেখিস। সে তাই বিশ্বাস করলে। সর্বভূতে যে তিনিই আছেন .
"Once I heard a story. A man heard the command of God that he should see his Ideal Deity in a ram. He at once believed it. It is God who exists in all beings.
“गुरु ने भक्त से कह दिया कि राम ही घट घट में विराजमान हैं । भक्त का उसी समय विश्वास हो गया! जब देखा एक कुत्ता मुँह में रोटी लेकर भाग रहा है, तो भक्त घी का पात्र हाथ में लेकर पीछे पीछे दौड़ता है और कहता है, ‘राम, थोड़ा ठहरो, रोटी में घी तो लगा दूँ !”
.[“গুরু ভক্তকে বলে দিছিলেন যে, ‘রামই ঘট্ ঘটমে লেটা।’ ভক্তের অমনি বিশ্বাস। যখন একটা কুকুর রুটি মুখে করে পালাচ্ছে, তখন ভক্ত ঘিয়ের ভাঁড় হাতে করে পিছু পিছু দৌড়াচ্ছে আর বলছে, ‘রাম একটু দাঁড়াও, রুটিতে ঘি মাখানো হয় নাই।’
"A guru said to his disciple, 'It is Rama alone who resides in all bodies.' The disciple was a man of great faith. One day a dog snatched a piece of bread from him and started to run away. He ran after the dog, with a jar of butter in his hand, and cried again and again: 'O Rama, stand still a minute. That bread hasn't been buttered.'
“अहा ! कृष्णकिशोर का क्या ही विश्वास था ! कहा करता था, ‘ওঁ কৃষ্ণ ! ওঁ রাম !,‘ॐ कृष्ण ॐ राम’ - इस मन्त्र का उच्चारण करने पर करोड़ों सन्ध्या-वन्दन का फल होता है ।”
“फिर मुझे कृष्णकिशोर कान में कहा करता था, ‘कहना नहीं किसी से; मुझे सन्ध्या-पूजा अच्छी नहीं लगती ।”
[“আচ্ছা, কৃষ্ণকিশোরের কি বিশ্বাস! বলত ‘ওঁ কৃষ্ণ! ওঁ রাম! এই মন্ত্র উচ্চারণ করলে কোটি সন্ধ্যার ফল হয়!’
"What tremendous faith Krishnakishore had! He used to say, 'By chanting "Om Krishna, Om Rama", one gets the result of a million sandhyas.' Once he said to me secretly, 'I don't like the sandhya and other devotions any more; but don't tell anyone.']
“मुझे भी वैसा ही होता है । माँ दिखा देती हैं कि वे ही सब कुछ बनी हुई हैं । शौच के बाद मैदान से आ रहा था पंचवटी की ओर, देखा साथ साथ एक कुत्ता आ रहा है; तब पंचवटी के पास आकर थोड़ी देर खड़ा रहा; सोचा, शायद माँ इसके द्वारा कुछ कहलाए !
[“আমারও ওইরকম হয়! মা দেখিয়ে দেন যে, তিনিই সব হয়ে রয়েছেন। বাহ্যের পর ঝাউতলা থেকে আসছি, পঞ্চবটীর দিকে, দেখি, সঙ্গে একটি কুকুর আসছে, তখন পঞ্চবটীর কাছে একবার দাঁড়াই, মনে করি, মা যদি একে দিয়ে কিছু বলান!
"Sometimes I too feel that way. The Mother reveals to me that She Herself has become everything. One day I was coming from the pine-grove toward the Panchavati. A dog followed me. I stood still for a while near the Panchavati. The thought came to my mind that the Mother might say something to me through that dog.]
“इसलिए जैसा तुमने कहा, विश्वास से ही सब कुछ मिलता है ।”
[“তাই তুমি যা বললে; বিশ্বাসে সব মিলে।”
"You were absolutely right when you said that through faith alone one achieves all."
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।। सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर। समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है, उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं। मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है; जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा (विवेकदर्शन या विवेकानन्द के मूर्तरूप पर प्रत्याहार-धारणा के अभ्यास के द्वारा ) हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं- वह गुण ही उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं? इसलिए अग्नि का धर्म उष्णता है। जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म और (2) गौण धर्म गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है, परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। मनुष्य निःस्वार्थपरता को सम्पूर्णतः त्याग कर दे (100 %), तो पशु हो जाता है। जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति आदि अवस्थाएं (मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं हैं ) ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है; जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द (100 %निःस्वार्थपरता ) स्वरूप आत्मा है। आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न, र्मत्य जीव का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न कर्ता, भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। यद्यपि नैतिकता, सदाचार, जीवन के समस्त कर्तव्य, श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण की इच्छा, इन सब -"मानवीय चरित्र " को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि सदाचार - सुंदर व्यवहार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है।]
*राजर्षि जनक के समान पहले साधना-बाद में गृहस्थाश्रम में ईश्वरलाभ *
[गृहस्थ-आश्रम की कठिन समस्या और भगवान की कृपा]
[The difficult Problem of the Householder (प्रवृत्ति मार्ग) and the Lord's Grace]
ईशान- परन्तु हम तो गृहस्थाश्रम में हैं ।
[ঈশান — আমরা কিন্তু গৃহে রয়েছি।
ISHAN: "But we are householders."
श्रीरामकृष्ण- क्या हानि है ! उनकी कृपा हने पर असम्भव भी सम्भव हो जाता है । रामप्रसाद ने गाना गाया था, यह 'संसार धोखे की टट्टी' है । उसका उत्तर किसी दूसरे ने एक दूसरे गाने में दिया था-
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হলেই বা, তাঁর কৃপা১১ হলে অসম্ভব সম্ভব হয়। রামপ্রসাদ গান গেয়েছিল, “এই সংসার ধোঁকার টাটি।” তাঁকে একজন উত্তর দিছিল আর-একটি গানের ছলে:
" एई संसार मजार कुटी , आमि खाई दाई आर मजा लूटी !
जनक राजा महातेजा, तार वा किसे छिल त्रुटि।
से जे येदिक -ओदिक दूदिक रेखे , खेयेछिल दूधेर बाटी। "
এই সংসার মজার কুটি, আমি খাই দাই আর মজা লুটি,
জনক রাজা মহাতেজা, তার বা কিসে ছিল ত্রুটি।
সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।
This very world is a mansion of mirth;
Here I can eat, here drink and make merry.
Janaka's might was unsurpassed;
What did he lack of the world or the Spirit?
Holding to one as well as the other,
He drank his milk from a brimming cup!
(भावार्थ)- ‘यह संसार आनन्द की कुटिया है । मैं खाता, पीता और आनन्द करता हूँ । जनक राजा बड़े तेजस्वी थे, उन्हें किस बात की कमी थी, वे तो दोनों ओर संभाले रखकर, लबालब भरे प्याले से दूध पीते थे ।’
“परन्तु पहले निर्जन में गुप्त रूप से साधन-भजन करके ईश्वर को प्राप्त करने के बाद संसार में रहने से मनुष्य ‘जनक राजा’ बन सकता है। नहीं तो कैसे होगा ?
[“কিন্তু আগে নির্জনে গোপনে (कैम्प में) সাধন-ভজন করে, ঈশ্বলাভ করে সংসারে থাকলে, ‘জনক রাজা’ হওয়া যায়। তা না হলে কেমন করে হবে?
"One should first realize God through spiritual discipline in solitude, and then live in the world. Only then can one be a King Janaka. What can you achieve otherwise?
" देखो न, कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती सभी विद्यमान हैं, परन्तु शिव कभी समाधिस्थ, तो कभी ‘राम राम’ कहते हुए नृत्य कर रहे हैं ।”
[“দেখ না, কার্তিক, গণেশ, লক্ষ্মী, সরস্বতী সবই রয়েছে, কিন্তু শিব কখনও সমাধিস্থ, কখনও রাম রাম করে নৃত্য করছেন!”
"Further, take the case of Siva. He has everything — Kartika, Ganesa, Lakshmi, and Sarasvati. Still, sometimes He dances in a state of divine fervour, chanting the name of Rama, and sometimes He is absorbed in Samadhi."
{^ *नॉर्मन विन्सेंट पेले ने 1952 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्द पुस्तक "The Power of Positive Thinking " ( सकारात्मक चिन्तन की आश्चर्यजनक शक्ति ) में लिखा था, "When life gives you lemons, make lemonade" ‘जब जिंदगी आपको नींबू थमाती है, तो नींबू का शरबत (lemonade) बनाइये !’ यह लगातार 186 हफ्तों तक न्यूयॉर्क की यह सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब रही है। 'जब गृहस्थ जीवन निम्बू थमाता हो ' कहने से तात्पर्य है कि जब जीवन में खटास या कठिनाई का दौर चल रहा हो , उस समय भी आत्मा की अनन्त शक्ति में विश्वास रखते हुए उस दौर को भी सकारात्मक और वांछनीय अवस्था में बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। (Lemons suggest sourness or difficulty in life; making lemonade is turning them into something positive or desirable.) नॉर्मन विन्सेंट पेले ने कहा है, ‘ निरन्तर सकारात्मक मानसिकता बनाये रखना एक ऐसा प्रबल विश्वास है कि - सभी चीज़ें (Head On accident होने वाला हो या कोरोना महामारी का दौर ) सब कुछ ठीक हो जायेगा ; और आप किसी भी तरह की परेशानी से उबर पाएंगे।’ " परमेश्वर (अर्थात आत्मा की शक्ति-माँ जगदम्बा ) के लिए सब कुछ संभव है"- (मत्ती 19:26)। यह कथन ही 'सकारात्मक चिन्तन की शक्ति' का आधार है। यह परमेश्वर (आत्मा) का सामर्थ है जो असंभव को संभव बनाता है। परमेश्वर (आत्मा की शक्ति) से सब कुछ हो सकता है (लूका 1:37)“परन्तु पहले निर्जन में (कैम्प में ) गुप्त रूप से साधन-भजन करके ईश्वर को प्राप्त करने के बाद गृहस्थ-आश्रम में रहने से मनुष्य स्वयं ‘जनक राजा’ बन सकता है , और अपने समान अन्य गृहस्थों को 'जनक राजा ' जैसा बनने में सहायता कर सकता है। नहीं तो कैसे होगा ? इसलिए हमारा आदर्श वाक्य है - Be and Make ' - अर्थात स्वयं 'जनक राजा ' (राजर्षि-राजा + ऋषि) बनो और दूसरों को 'जनक राजा ' (राजर्षि) बनने में सहायता करो ! ]
“(जनक राजा के अतिरिक्त अगर कोई दूसरा उदाहरण देखना हो , भगवान शिव के गृहस्थाश्रम को देखो!) देखो न, कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती सभी विद्यमान हैं, परन्तु शिव कभी समाधिस्थ, तो कभी ‘राम राम’ कहते हुए नृत्य कर रहे हैं ।”
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[चित्शक्ति ^* -प्रत्यभिज्ञा दर्शन , काश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा है। प्रत्यभिज्ञा (= प्रति + अभिज्ञा) का शाब्दिक अर्थ है- पहले से देखे हुए को पहचानना, या, पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार चित् अपने को चित्शक्ति के रूप में देखता है। वह चिन्मात्र नहीं है, पराशक्ति भी है। जिसे परावाक्, स्वातंत्र्य, ऐश्वर्य, कर्तृत्व, स्फुरता, सार, हृदय, स्पंद आदि के नाम से भी जाना जाता है। परमेश्वर ही मूलतत्व है। अज्ञान या माया उससे भिन्न कुछ नहीं है। यह उसी का स्वेच्छापरिगृहीत रूप है। वह अपने स्वातंत्र्य से, अपनी इच्छा से अपने को ढक भी लेता है। और अपनी इच्छा से ही अपने को प्रकट भी करता है। यह परमतत्व विश्वोत्तीर्ण भी है और विश्वमय भी है। विश्व शिव की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है। प्रलयावस्था में यह भक्ति शिव में संहृत रहती है, सृष्टि और स्थिति में यह शक्ति विश्वाकार में व्यक्त रहती है। चित् वह है जो अपने को सब आवरणों से ढककर भी सदा अनावृत बना रहता है, सब परिवर्तनों के भीतर भी सदा परिवर्तनरहित बना रहता है। उसमें प्रमाता प्रमेय, वेदक वेद्य का द्वैत भाव नहीं रहता, क्योंकि उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ है ही नहीं। शांकर वेदांत भी चित् को अद्वैत मानता है। चित् की आत्मचेतना, प्रकाश का आत्मज्ञान, प्रकाश का यह ज्ञान कि "मैं हूँ"। मणि भी स्वयंप्रकाश है, किंतु उसे अपने प्रकाश का ज्ञान नही है। ब्रह्मवाद ब्रह्म को निर्गुण, निर्विकार चैतन्य मात्र मानता है। उसके अनुसार ब्रह्म में कर्तृत्व नहीं है, किंतु ईश्वराद्वयवाद के अनुसार परमशिव में स्वातंत्र्य या कर्तृत्व है जिसके द्वारा वह सदा सृष्टि, स्थिति, संहार, अनुग्रह और विलय इन पंचकृत्यों को करता रहता है। परम शिव की अनंत शक्तियाँ हैं, किंतु मुख्यत: पाँच शक्तियाँ हैं हृ चित्, आनंद, इच्छा, ज्ञान, क्रिया। चित् का स्वभाव आत्मप्रकाशन है। स्वातंत्र्य को आनंद शक्ति कहते हैं। वस्तुत: चित् और आनंद परमशिव के स्वरूप ही हैं। अपने को सर्वथा स्वतंत्र और इच्छासंपन्न मानना इच्छाशक्ति है। इसी से सृष्टि का संकल्प होता है। वेद्य की ओर उन्मुखता को ज्ञानशक्ति कहते हैं। इसका दूसरा नाम आमर्श है। सब आकार धारण करने की योग्यता को क्रिया शक्ति कहते हैं। ]
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