सोमवार, 10 मई 2021

$ परिच्छेद ~ 27 , [(29 मार्च 188) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Raga-Bhakti* *राग-भक्ति, अर्थात ईश्वर को (माँ काली को) अपनी माँ के रूप में प्यार करना*समाधितत्त्व (भ्रमर-कीट न्याय) सविकल्प और निर्विकल्प ~No trace of cockroach- ego?* *गृहस्थ शिक्षक के लिए व्हाइट ड्रेस ही सर्वोत्तम~ वेष के अनुकूल मन होना अनिवार्य* लोकैषणा- समाज में प्रतिष्ठा और यश की कामना को विषवत त्याग दो* नरेन्द्र इत्यादि नित्यसिद्ध — उनमें भक्ति जन्मजात रहती है * नित्यसिद्ध तो मधुमक्खी की तरह होते हैं ,

परिच्छेद ~ २७ [ श्रीरामकृष्ण वचनामृत (29 मार्च 188)

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ 

परिच्छेद~ २७
 
*ब्राह्मभक्तों के प्रति उपदेश* 
(१) 

*समाधि-मन्दिर में* 
फाल्गुन के कृष्णपक्ष की पंचमी है, बृहस्पतिवार, २९ मार्च १८८३ । दोपहर को भोजन करके भगवान् श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर का वही पहले का कमरा है । सामने पश्चिम की ओर गंगा बह रही है । दिन के दो बजे का समय है । ज्वार आ रहा है । 

कोई कोई भक्त आए हुए हैं । ब्राह्मभक्त श्री अमृत और (well-known singer of the Brahmo Samaj, Trailokya.)ब्राह्मसमाज के नामी गवैये श्री त्रैलोक्य-जिन्होंने केशव सेन के ब्राह्म समाज में भगवान् की लीलाओं का गुणगान कर बालक, वृद्ध सभी का कितनी बार मन लुभाया है-आए हैं । 
राखाल बीमार हैं । उन्हीं की बात श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण-यह लो, राखाल बीमार पड़ गया । क्या सोडा पीने से अच्छा होता है? न जाने क्या होगा ! राखाल, तू जगन्नाथ का प्रसाद खा । यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण एक अद्भुत भाव में आ गये । 
शायद आप देख रहे हैं, साक्षात् नारायण सामने राखाल के रूप में बालक का वेष धारण करके आ गए हैं । इधर कामिनीकांचन-त्यागी बालकभक्त शुद्धात्मा राखाल हैं और उधर भगवत्प्रेम में सदा मस्त रहनेवाले श्रीरामकृष्ण की प्रेमभरी दृष्टि-अतएव वात्सल्यभाव का उदय होना स्वाभाविक था । राखाल को वात्सल्यभाव से देखते हुए आप बड़े ही प्रेम से ‘गोविन्द’ ‘गोविन्द’ उच्चारण करने लगे । 
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श्रीकृष्ण को देखकर यशोदा के मन में जिस भाव का उदय होता था, यह शायद वही भाव है ! भक्तगण यह अद्भुत दृश्य देख रहे हैं । एकाएक वह भाव स्थिर हो गया । ‘गोविन्द’ नाम जपते हुए भक्तावतार श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गए ! शरीर चित्रवत् स्थिर हो गया । इन्द्रियाँ मानो अपने काम से जवाब देकर चली गयीं । नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर हो रही है । साँस चल रही है या नहीं, इसमें सन्देह है । इस लोक में केवल शरीर पड़ा हुआ है, आत्माराम चिदाकाश में विहार कर रहे हैं । अब तक जो माता की तरह सन्तान के लिए घबड़ाए हुए थे, वे अब कहाँ हैं? क्या इसी अद्भुत अवस्था का नाम समाधि है? 
{ समाधि As his soul soared into the realm of Divine Consciousness, his body became motionless, his eyes were fixed on the tip of his nose, and his breathing almost ceased.

इसी समय गेरुए कपड़े पहने हुए एक अपरिचित बंगाली सज्जन आ पहुँचे भक्तों के बीच में बैठ गए । 

(२) 
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । 
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ (गीता, ३/६) 

[जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों  (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धि वाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
 शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है। और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है।
विचारो की दिशा (श्रेय-प्रेय)  निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का चरित्र (स्वभाव) बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषयचिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उनसे प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है
इसलिए जिस व्यक्ति ने कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही मन और बुद्धि को विषयों के चिन्तन से बुद्धिमत्तापूर्वक निवृत्त नहीं किया हो तो ऐसे साधक की आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही असुरक्षित और आनन्दरहित होगी।
जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है।  ] 


*गृहस्थ शिक्षक के लिए व्हाइट ड्रेस ही सर्वोत्तम~  वेष के अनुकूल मन होना अनिवार्य*   

धीरे धीरे श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटने लगी । भाव में आप ही आप बातचीत कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण (गेरुआ देखकर)- यह गेरुआ क्यों ? क्या कुछ लपेट लेने ही से हो गया ? (हँसते हैं।) किसी ने कहा था-“चण्डी छेड़े होलुम ढाकी।” ‘चण्डी छोड़कर अब ढोल बजाता हूँ ।’ पहले चण्डी के गीत गाता था, फिर ढोल बजाने लगा । (सब हँसते हैं ।) 
[ আবার গেরুয়া কেন? একটা কি পরলেই হল? (হাস্য) একজন বলেছিল, “চন্ডী ছেড়ে হলুম ঢাকী।” — আগে চণ্ডির গান গাইত, এখন ঢাক বাজায়! (সকলের হাস্য)  
(at the sight of the ochre cloth): "Why this gerrua? Should one put on such a thing for a mere fancy? A man once said, 'I have exchanged the Chandi for a drum.' At first he used to sing the holy songs of the Chandi; now he beats the drum. (All laugh.)

“वैराग्य तीन-चार प्रकार के होते हैं । जिसने संसार की ज्वाला से दग्ध होकर गेरुआ धारण कर लिया है, उसका वैराग्य अधिक दिन नहीं टिकता । किसी ने देखा, काम कुछ मिलता नहीं, झट गेरुआ पहनकर काशी चला गया ! तीन महीने बाद घर में चिट्ठी आयी, उसने लिखा है- ‘मुझे काम मिल गया है, कुछ ही दिनों में घर आऊँगा, चिन्ता न करना !’ परन्तु जिसके सब कुछ है, चिन्ता की कोई बात नहीं, किन्तु फिर भी कुछ अच्छा नहीं लगता, अकेले अकेले में भगवान् के लिए रोता है, उसी का वैराग्य यथार्थ वैराग्य है ।” 
[“বৈরাগ্য তিন-চার প্রকার। সংসারের জ্বালায় জ্বলে গেরুয়াবসন পরেছে — সে বৈরাগ্য বেশিদিন থাকে না। হয়তো কর্ম নাই, গেরুয়া পরে কাশী চলে গেল। তিনমাস পরে ঘরে পত্র এল, ‘আমার একটি কর্ম হইয়াছে, কিছুদিন পরে বাড়ি যাইব, তোমরা ভাবিত হইও না।’ আবার সব আছে, কোন অভাব নাই, কিন্তু কিছুভাল লাগে না। ভগবানের জন্য একলা একলা কাঁদে। সে বৈরাগ্য যথার্থ বৈরাগ্য।
"There are three or four varieties of renunciation. Afflicted with miseries at home, one may put on the ochre cloth of a monk; but that renunciation doesn't last long. Again, a man out of work puts on an ochre wearing-cloth and goes off to Benares. After three months he writes home: 'I have a job here. I shall come home in a few days. Don't worry about me.' Again, a man may have everything he wants. He lacks nothing, yet he. does not enjoy his possessions. He weeps for God alone. That is real renunciation.
“मिथ्या कुछ भी अच्छा नहीं । मिथ्या वेष भी अच्छा नहीं । वेष के अनुकूल यदि मन न हुआ, तो क्रमशः उससे महा अनर्थ ही जाता है । झूठ बोलने या बुरा कर्म करने से धीरे धीरे उसका भय चला जाता है । इससे सादे कपड़े पहनना अच्छा है । मन में आसक्ति भरी है, कभी कभी पतन भी हो जाता है, और बाहर से गेरुआ ! यह बड़ा ही भयानक है ।” 
{“মিথ্যা কিছুই ভাল নয়। মিথ্যা ভেক ভাল নয়। ভেকের মতো যদি মনটা না হয়, ক্রমে সর্বনাশ হয়। মিথ্যা বলতে বা করতে ক্রমে ভয় ভেঙে যায়। তার চেয়ে সাদা কাপড় ভাল। মনে আসক্তি, মাঝে মাঝে পতন হচ্ছে, আর বাহিরে গেরুয়া! বড় ভয়ঙ্কর!”
"No lie of any sort is good. A false garb, even though a holy one, is not good. If the outer garb does not correspond to the inner thought, it gradually brings ruin. Littering false words or doing false deeds, one gradually loses all fear. Far better is the white cloth of a householder. Attachment to worldliness, occasional lapses from the ideal, and an outer garb of gerrua — how dreadful!

* लोकैषणा-  को विषवत त्याग दो*    

“यहाँ तक कि जो लोग सच्चे हैं उनके लिए कौतुकवश भी झूठ की नक़ल बुरी चीज है । केशव सेन के यहाँ मैं ‘नव ~ वृन्दावन’ नाटक देखने गया था । न जाने कैसा क्रास (Cross) वह लाया और फिर पानी छिड़कने लगा; कहता था, शान्तिजल है । एक को देखा, मतवाला बना बहक रहा था ।
[”এমনকি, যারা সৎ, অভিনয়েও তাদের মিথ্যা কথা বা কাজ ভাল নয়। কেশব সেনের ওখানে নববৃন্দাবন নাটক দেখতে গিছলাম। কি একটা আনলে ক্রস (cross); আবার জল ছড়াতে লাগল, বলে শান্তিজল। একজন দেখি মাতাল সেজে মাতলামি করছে!”
"It is not proper for a righteous person to tell a lie or do something false even in a dramatic performance. Once I went to Keshab's house to see the performance of a play called Nava-Vrindavan. They brought something on the stage which they called the 'Cross'. Another actor sprinkled water, which they said was the 'Water of Peace'. I saw a third actor staggering and reeling in the role of a drunkard."
ब्राह्मभक्त- कु. बाबू थे ।
श्रीरामकृष्ण- भक्त के लिए इस तरह का स्वाँग करना भी अच्छा नहीं । उन सब विषयों में बड़ी देर तक मन को डाल रखना दोष है । मन धोबी के घर का कपड़ा है, जिस रंग से रंगोगे, वही रंग उस पर चढ़ जाएगा । मिथ्या में बड़ी देर तक डाल रखोगे तो मिथ्या ही हो जाएगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তের পক্ষে ওরূপ সাজাও ভাল নয়। ও-সব বিষয়ে মন অনেকক্ষণ ফেলে রাখায় দোষ হয়। মন ধোপা ঘরের কাপড়, যে-রঙে ছোপাবে সেই রঙ হয়ে যায়। মিথ্যাতে অনেকক্ষণ ফেলে রাখলে মিথ্যার রঙ ধরে যাবে।
"It is not good for a devotee to play such parts. It is bad for the mind to dwell on such subjects for a long while. The mind is like white linen fresh from the laundry; it takes the colour in which you dip it. If it is associated with falsehood for a long time, it will be stained with falsehood.

“एक दूसरे दिन ‘निमाई-संन्यास’ (A play describing Sri Chaitanya's embracing of the monastic life.) का अभिनय था । केशव के घर में मैं भी देखने के लिए गया था । केशव के कुछ खुशामदी चेलों ने अभिनय बिगाड़ डाला था । एक खुशामदी चेले ने केशव से कहा, ‘कलिकाल के चैतन्य तो आप ही हैं’। केशव मेरी ओर देखकर हँसता हुआ कहने लगा, ‘तो फिर ये क्या हुए?’ मैंने कहा,  ‘আমি তোমাদের দাসের দাস। রেণুর রেণু।’ ‘मैं तुम्हारे दासों का दास-रज की रज हूँ ।’ केशव में लोकैषणा थी - उनको  नाम और यश की अभिलाषा थी !”  Keshab had a desire for name and fame.
[“আর-একদিন নিমাই-সন্ন্যাস, কেশবের বাড়িতে দেখতে গিছিলাম। যাত্রাটি কেশবের কতকগুলো খোশামুদে শিষ্য জুটে খারাপ করেছিল। একজন কেশবকে বললে, ‘কলির চৈতন্য হচ্ছেন আপনি!’ কেশব আমার দিকে চেয়ে হাসতে হাসতে বললে, ‘তাহলে ইনি কি হলেন?’ আমি বললুম, ‘আমি তোমাদের দাসের দাস। রেণুর রেণু।’ কেশবের লোকমান্য হবার ইচ্ছা ছিল।”
"Another day I went to Keshab's house to see the play called Nimai-Sannyas. (A play describing Sri Chaitanya's embracing of the monastic life.) Some flattering disciples of Keshab spoiled the whole performance. One of them said to Keshab, 'You are the Chaitanya of the Kaliyuga.' Keshab pointed to me and asked with a smile, Then who is he?' I replied: 'Why, I am the servant of your servant. I am a speck of the dust of your feet.' Keshab had a desire for name and fame.

*नरेन्द्रादि नित्यसिद्ध पाताल फोड़ शिव (Hades burst Shiva) उनमें भक्ति जन्मजात रहती है *

 (अमृत और त्रैलोक्य के प्रति ) - नरेंद्र, राखाल इत्यादि सभी लड़के, नित्यसिद्ध हैं। ये लोग जन्म से ही भगवान के भक्त होते हैं। बहुत से लोगों को बहुत साधना करके थोड़ी सी भक्ति होती है, लेकिन इनलोगों में जन्म से ही ईश्वर के लिए प्रेम रहता है। " যেন পাতাল ফোঁড়া শিব — বসানো শিব নয়।“---[ स्वयंभू का अर्थ होता है, पृथ्वी या भूमि से स्वयं निकला हुआ। यानि प्राकृतिक।] (They are like the natural image of Siva, which springs forth from the earth and is not set up by human hands.) " मानो 'स्वयंभू'~  पाताल फोड़ शिव हैं - रखे हुए शिव नहीं। " 
[(অমৃত ও ত্রৈলোক্যের প্রতি) — “নরেন্দ্র, রাখাল-টাখাল এই সব ছোকরা, এরা নিত্যসিদ্ধ, এরা জন্মে ঈশ্বরের ভক্ত। অনেকের সাধ্যসাধনা করে একটু ভক্তি হয়, এদের কিন্তু আজন্ম ঈশ্বরে ভালবাসা। যেন পাতাল ফোঁড়া শিব — বসানো শিব নয়।"
Youngsters like Narendra and Rakhal are ever-perfect. Every time they are born they are devoted to God. An ordinary man acquires a little devotion after austerities and a hard struggle. But these boys have love of God from the very moment of their birth. They are like the natural image of Siva, which springs forth from the earth and is not set up by human hands.
“नित्यसिद्धों (ever-perfect) का एक दर्जा ही अलग है । सभी चिड़ियों की चोंच टेढ़ी नहीं होती । ये कभी संसार में नहीं फँसते, जैसे प्रह्लाद ।
[“নিত্যসিদ্ধ একটি থাক আলাদা। সব পাখির ঠোঁট বাঁকা নয়। এরা কখনও সংসারে আসক্ত হয় না। যেমন প্রহ্লাদ।
"The ever-perfect form a class by themselves. Not all birds have crooked beaks. The ever-perfect are never attached to the world. There is the instance of Prahlada.

“साधारण मनुष्य साधना करता है, ईश्वर पर भक्ति भी करता है, और संसार में भी फँस जाता है, स्त्री और धन ('woman and gold') के लिए भी हाथ लपकाता है । मक्खी जैसे फूल पर भी बैठती है, बर्फियों पर भी बैठती है और विष्ठा पर भी बैठती है । (सब स्तब्ध हैं ।)
{“সাধারণ লোক সাধন করে, ঈশ্বরে ভক্তিও করে। আবার সংসারেও আসক্ত হয়, কামিনী-কাঞ্চনে মুগ্ধ হয়। মাছি যেমন ফুলে বসে, সন্দেশে বসে, আবার বিষ্ঠাতেও বসে। (সকলে স্তব্ধ)
"Ordinary people practise spiritual discipline and cultivate devotion to God; but they also become attached to the world and are caught in the clamour of 'woman and gold'. They are like flies, which sit on a flower or a sweetmeat and light on filth as well.

नित्यसिद्ध तो मधुमक्खी की तरह होते हैं । मधुमक्खियाँ केवल फूल पर बैठती हैं और मधु  ही पीती हैं । नित्यसिद्ध रामरस का  ही पान करते हैं (The ever-perfect drink only the Nectar of Divine Bliss. accept only branded teachings), विषयरस की ओर नहीं जाते ।
[“নিত্যসিদ্ধ যেমন মৌমাছি, কেবল ফুলের উপর বসে মধুপান করে। নিত্যসিদ্ধ হরিরস পান করে, বিষয়রসের দিকে যায় না।
"But the ever-perfect are like bees, which light only on flowers and sip the honey. The ever-perfect drink only the Nectar of Divine Bliss. They are never inclined to worldly pleasures.


*राग-भक्ति, अर्थात  ईश्वर को (माँ काली को) अपनी माँ के रूप में प्यार करना*
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साधना द्वारा जो भक्ति प्राप्त होती है, इनकी वह भक्ति नहीं है । इतना जप, इतना ध्यान करना होगा, इस तरह पूजा करनी होगी, यह सब विधिवादीय भक्ति है । जैसे किसी गाँव में किसी को जाना है, परन्तु रास्ते में धनहे खेत पड़ते हैं, तो मेड़ों से घूमकर उसे जाना पड़ता है । अगर किसी को सामनेवाले गाँव में जाना हैं, परन्तु रास्ते में नदी पड़ती है, तो टेढ़ा रास्ता चक्कर लगाते हुए ही पार करना पड़ता है ।
[.“সাধ্য-সাধনা করে যে ভক্তি, এদের সে ভক্তি নয়। এত জপ, এত ধ্যান করতে হবে, এইরূপ পূজা করতে হবে — এ-সব ‘বিধিবাদীয়’ ভক্তি। যেমন ধান হলে মাঠ পার হতে গেলে আল দিয়ে ঘুরে ঘুরে যেতে হবে। আবার যেমন সম্মুখের গাঁয়ে যাবে, কিন্তু বাঁকা নদী দিয়ে ঘুরে ঘুরে যেতে হবে।
"The devotion of the ever-perfect is not like the ordinary devotion that one acquires as a result of strenuous spiritual discipline. Ritualistic devotion consists in repeating the name of God and performing worship in a prescribed manner. It is like crossing a rice-field in a roundabout way along the balk. Again, it is like reaching a near-by village by boat in a roundabout way along a winding river.

“रागभक्ति, प्रेमाभक्ति, ईश्वर पर आत्मीयों की-सी प्रीति होने पर फिर कोई विधिनियम नहीं रह जाता । तब का जाना धनहे खेतों की मेड़ों पर का जाना नहीं, किन्तु कटे हुए खेतों से सीधा निकल जाना है । चाहे जिस ओर से सीधे चले जाओ । बाढ़ आने पर फिर नदी के टेढ़े रास्ते से नहीं जाना पड़ता । तब इधर उधर की जमीन और रास्ते पर एक बाँस पानी चढ़ जाता है । तब तो बस सीधे नाव चलाकर पार हो जाओ । “इस रागभक्ति, अनुराग या प्रेम के बिना ईश्वर नहीं मिलते ।”
{“রাগভক্তি প্রেমাভক্তি ঈশ্বরে আত্মীয়ের ন্যায় ভালবাসা, এলে আর কোন বিধিনিয়ম থাকে না। তখন ধানকাটা মাঠ যেমন পার হওয়া। আল দিয়ে যেতে হয় না। সোজা একদিক দিয়ে গেলেই হল।
"One does not follow the injunctions of ceremonial worship when one develops raga-bhakti, when one loves God as one's own. Then it is like crossing a rice-field after the harvest. You don't have to walk along the balk. You can go straight across the field in any direction."Without this intense attachment, this passionate love, one cannot realize God."


*समाधितत्त्व (भ्रमर-कीट न्याय) सविकल्प और निर्विकल्प*

अमृत- महाराज ! इस समाधि-अवस्था में भला आपको क्या जान पड़ता है?
श्रीरामकृष्ण- सुना नहीं-(भ्रमर-कीट न्याय) ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है। वह अनुभव कैसा होता है जानते हो? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो । 
{ "You may have heard that the cockroach, by intently meditating on the brahmara, is transformed into a brahmara. Do you know how I feel then? I feel like a fish released from a pot into the water of the Ganges."
अमृत- क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता?
{ "Don't you feel at that time even a trace of cockroach- ego?"
श्रीरामकृष्ण- हाँ, बहुधा मेरा कुछ अहंकार रह जाता है। सोने के एक टुकड़े को तुम चाहे जितना घिस डालो पर अन्त में एक छोटा सा कण बचा ही रहता है । और, जैसे कोई बड़ी भारी अग्निराशी है, उसकी एक जरा सी चिनगारी हो । बाह्य ज्ञान चला जाता है, परन्तु प्रायः थोड़ा सा अहंकार रह जाता है, शायद वे विलास के लिए रख छोड़ते हैं । ‘मैं’ और ‘तुम’ इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है । 
:{ "Yes, generally a little of it remains. However hard you may rub a grain of gold against a grindstone, still a bit of it always remains. Or again, take the case of a big fire; the ego is like one of its sparks. In samadhi I lose outer consciousness completely; but God generally keeps a little trace of ego in me for the enjoyment of divine communion. Enjoyment is possible only when 'I' and 'you' remain.
कभी कभी इस ‘अहं’ को भी वे मिटा देते हैं । इसे ‘जड़ समाधि’ या ‘निर्विकल्प समाधि’ कहते हैं । तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था । ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया । ‘तदाकाराकारित’ ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है ! 
{"Again, sometimes God effaces even that trace of 'I'. Then one experiences jada samadhi or nirvikalpa samadhi. That experience cannot be described. A salt doll went to measure the depth of the ocean, but before it had gone far into the water it melted away. It became entirely one with the water of the ocean. Then who was to come back and tell the ocean's depth?"
  
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