शनिवार, 15 मई 2021

$$$$$$$परिच्छेद ~ 37,[(5 जून, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत] *Wholehearted Faith**ज्ञानपथ और नास्तिकता* सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी मछली खेल रही है ।“ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” *साधु और अवतार में अन्तर* * केवल ईश्वरकोटि ही समाधि से लौट सकता है~ मकरध्वज* बेलघरिया में मोती शील की झील*

 [(5 जून, 1883)परिच्छेद ~ 37, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]

परिच्छेद~ ३७ 

*श्रीरामकृष्ण का प्रथम प्रेमोन्माद* 

(१) 

*पूर्वकथा- देवेन्द्र ठाकुर, दीन मुखर्जी और कुँवरसिंह* 

आज अमावस्या, मंगलवार का दिन है, 5 जून 1883  ई. । श्रीरामकृष्ण कालीमन्दिर में हैं । भक्त-समागम रविवार को विशेष होता है; आज अधिक लोग नहीं है । राखाल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । हाजरा भी है, श्रीरामकृष्ण के कमरे के सामने वाले बरामदे में अपना असन लगाया है । मास्टर पिछले रविवार से यहाँ हैं । 

कल सोमवार रात को कालीमन्दिर में कृष्णलीला पर नाटक हुआ था । श्रीरामकृष्ण ने कुछ देर तक देखा था । वैसे यह नाटक रविवार को होनेवाला था, पर उस दिन न हो पाया इसलिए कल सोमवार को हुआ । 

दोपहर को भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने प्रेमोन्माद की अवस्था (God-intoxicated state) का वर्णन कर रहे हैं । 

[ মধ্যাহ্নে খাওয়া-দাওয়ার পর ঠাকুর নিজের প্রেমোন্মাদ অবস্থা আবার বর্ণনা করিতেছেন।

It was afternoon. Sri Ramakrishna was telling the devotees about his experiences during his God-intoxicated state.

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - कैसी हालत बीत चुकी है । यहाँ भोजन न करता था, वराहनगर या दक्षिणेश्वर या आरियादह में किसी ब्राह्मण के घर चला जाता, और जाता भी देर में था । जाकर बैठ जाता था, पर बोलता कुछ नहीं । घर के लोग पूछते तो केवल कहता, ‘मैं यहाँ खाऊँगा ।’ और कोई बात नहीं करता । आलमबाजार में राम चटर्जी के यहाँ जाता । कभी दक्षिणेश्वर में सावर्ण चौधरी के मकान पर जाता । उनके यहाँ खाया तो करता था, पर अच्छा नहीं लगता था; उसमें कैसी गन्ध आती थी ।  

“एक दिन हठ कर बैठा, देवेन्द्रनाथ ठाकुर के घर जाऊँगा । मथुरबाबू से कहा, ‘देवेन्द्र ईश्वर का नाम लेते हैं, उनको देखना चाहता हूँ, मुझे ले चलोगे ?’ मथुरबाबू को अपनी मान-मर्यादा का बड़ा अभिमान था, वे अपनी गरज से किसी के मकान पर क्यों जाने लगे ? आगापीछा करने लगे । बाद में बोले, ‘अच्छा, देवेन्द्र और हम एक साथ पढ़ चुके हैं, चलिए, आपको ले चलेंगे ।’  

“एक दिन सुना कि दीन मुखर्जी नाम का एक भला आदमी बागबाजार के पुल के पास रहता है । भक्त है । मथुरबाबू को पकड़ा, दीन मुखर्जी के यहाँ जाऊँगा । मथुरबाबू क्या करते, गाड़ी पर मुझे ले गए । छोटा सा मकान और इधर एक बड़ी भारी गाड़ी पर एक बड़ा आदमी आया है; वह भी शरमा गया और हम भी ।  

फिर उसके लड़के का जनेऊ होनेवाला था । कहाँ बैठाए ! हम लोग बाजू के कमरे में जाने लगे तो वह बोल उठा, ‘वहाँ न जाइए, उस कमरें में औरतें हैं ।’ बड़ा असमंजस था । मथुरबाबू लौटते समय बोले, ‘बाबा, तुम्हारी बात अब कभी न मानूँगा ।’ मैं हँसने लगा । “कैसी अनोखी अवस्था थी ! कुँवरसिंह ने साधुओ को भोजन कराना चाहा, मुझे भी न्योता दिया । जाकर देखा बहुत से साधु आए हैं । 

मेरे बैठने पर साधुओ में से कोई कोई मेरा परिचय पूछने लगे- ‘आप गिरी हैं या पुरी ?’ पर ज्योंही उन्होंने पूछा त्योंही मैं अलग जाकर बैठा । सोचा कि इतनी खबर काहे की ? बाद को ज्योंही पत्तल बिछाकर भोजन के लिए बैठाया, किसी के कुछ कहने के पहले ही मैंने खाना शुरू कर दिया । साधुओं में से किसी किसी को कहते सुना, ‘अरे यह क्या !’ 

(२) 

“ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” 

 (स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत् अवस्था भी वैसी ही सत्य है ।) 

पाँच बजे हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के बरामदे की सीढ़ी पर बैठे हैं । राखाल, हाजरा और मास्टर पास बैठे हैं । हाजरा का भाव (भक्त का नहीं वेदान्तीयों जैसा)  है- ‘सोऽहं - I am He. मैं ही ब्रह्म हूँ ।’ 

[বেলা পাঁচটা হইয়াছে। ঠাকুর বারান্দার কোলে যে সিঁড়ি, তাহার উপর বসিয়া আছেন। রাখাল, হাজরা ও মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। হাজরার ভাব ‘সোঽহম্‌’

।It was about five o'clock in the afternoon. Sri Ramakrishna was sitting on the steps of his verandah. Hazra, Rakhal, and M. were near him. Hazra had the attitude of a Vedantist: "I am He.]

श्रीरामकृष्ण (हाजरा से)- हाँ, यह सोचने से सब गड़बड़ मिट जाती है, - वे ही आस्तिक हैं, वे ही नास्तिक; वे ही बुरे; वे ही नित्यवस्तु हैं, वे ही अनित्य जगत्; जाग्रति और निद्रा उन्हीं की अवस्थाएँ हैं; फिर वे ही सारी अवस्थाओं से परे (तुरीय ?) भी हैं । 

[अर्थात  किसी सच्चे जिज्ञासु (सत्यार्थी-सिंहशावक ) का भ्रम  (confusion : Hypnotized -अवस्था या भेंड़ होने का भ्रम यह सोचने से मिट जाता है कि ‘सोऽहं - मैं ही ब्रह्म हूँ !’ क्योंकि स्वयं ईश्वर (माँ भवतारिणी काली) ही नास्तिक (atheist- अनीश्वरवादी) बनी हैं , और वे ही आस्तिक (believer) बनी हैं। वे ही अच्छा और बुरा इंसान बनी हैं , वे ही नित्यवस्तु (शाश्वत -eternal, real,आत्मा या सच्चिदानन्द) हैं , और वे ही अनित्य जगत (नश्वर - mortal, unreal : मरणाधीन ,परिवर्तन शील होने के कारण मिथ्या देह -मन) बनी हैं !  जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति ये सभी उन्हीं की अवस्थायें हैं; फिर वे ही सारी अवस्थाओं से परे -तुरीय (चतुर्थ अवस्था) भी हैं ! अतः ज्ञानियों (पैगम्बरों) को जाग्रत अवस्था भी , स्वप्न अवस्था से अधिक सत्य प्रतीत नहीं होती।  (To the jnanis the waking state is no more real than the dream state.)  ]     

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — হাঁ, সব গোল মেটে; তিনিই আস্তিক, তিনিই নাস্তিক; তিনিই ভাল, তিনিই মন্দ; তিনিই সৎ, তিনিই অসৎ; জাগা, ঘুম এ-সব অবস্থা তাঁরই; আবার তিনি এ-সব অবস্থার পার।

"Yes, all one's confusion comes to an end if one only realizes that it is God who manifests Himself as the atheist and the believer, the good and the bad, the real and the unreal; that it is He who is present in waking and in sleep; and that He is beyond all these.] 

“एक किसान को बुढ़ापे में एक लड़का हुआ था । लड़के को वह बहुत यत्न से पालता था । धीरे धीरे लड़का बड़ा हुआ । एक दिन जब किसान खेत में काम कर रहा था, किसी ने आकर उसे खबर दी कि तुम्हारा लड़का बहुत बीमार है – अब-तब हो रहा है । उसने घर में आकर देखा, लड़का मर गया है । स्त्री खूब रो रही है; पर किसान की आँखों में आँसू तक नहीं । 

उसकी स्त्री अपनी पड़ोसिनों के पास इसलिए और भी शोक करने लगी कि ऐसा लड़का चला गया, पर इनकी आँखों में आँसू का नाम नहीं ! बड़ी देर बाद किसान ने अपनी स्त्री को पुकारकर कहा, ‘मैं क्यों नहीं रोता, जानती हो ? मैंने कल स्वप्न में देखा कि राजा हो गया हूँ और सात लड़कों का बाप बना हूँ । 

स्वप्न में ही देखा कि वे लड़के रूप और गुण में अच्छे हैं । क्रमशः वे बड़े हुए और विद्या तथा धर्म उपार्जन करने लगे । इतने में ही नींद खुल गयी । अब सोच रहा हूँ कि तुम्हारे इस एक लड़के के लिए रोऊँ या अपने उन सात लड़कों के लिए ?’ ज्ञानियों (पैगम्बरों) के मत से स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत् अवस्था भी वैसी ही सत्य है । 

[“একজন চাষার বেশি বয়সে একটি ছেলে হয়েছিল। ছেলেটিকে খুব যত্ন করে। ছেলেটি ক্রমে বড় হল। একদিন চাষা ক্ষেতে কাজ করছে, এমন সময় একজন এসে খবর দিলে যে, ছেলেটির ভারী অসুখ। ছেলে যায় যায়। বাড়িতে এসে দেখে, ছেলে মারা গেছে। পরিবার খুব কাঁদছে, কিন্তু চাষার চক্ষে একটুও জল নাই। পরিবার প্রতিবেশীদের কাছে তাই আরও দুঃখ করতে লাগল যে, এমন ছেলেটি গেল এঁর চক্ষে একটু জল পর্যন্ত নাই। অনেকক্ষণ পরে চাষা পরিবারকে সম্বোধন করে বললে, ‘কেন কাঁদছি না জানো? আমি কাল স্বপন দেখেছিলুম যে, রাজা হয়েছি, আর সাত ছেলের বাপ হয়েছি। স্বপনে দেখলুম যে, ছেলেগুলি রূপে গুণে সুন্দর। ক্রমে বড় হল বিদ্যা ধর্ম উপার্জন কল্লে। এমন সময় আমার ঘুম ভেঙে গেল; এখন ভাবছি যে, তোমার ওই এক ছেলের জন্য কাঁদব, কি আমার সাত ছেলের জন্য কাঁদব।’ জ্ঞানীদের মতে স্বপন অবস্থাও যেমন সত্য, জাগা অবস্থাও তেমনি সত্য।

"There was a farmer to whom an only son was born when he was rather advanced in age. As the child grew up, his parents became very fond of him. One day the farmer was out working in the fields, when a neighbour told him that his son was dangerously ill — indeed, at the point of death. Returning home he found the boy dead. His wife wept bitterly, but his own eyes remained dry. Sadly the wife said to her neighbours, 'Such a son has passed away, and he hasn't even one tear to shed!' After a long while the farmer said to his wife: 'Do you know why I am not crying? Last night I dreamt I had become a king, and the father of seven princes. These princes were beautiful as well as virtuous. They grew in stature and acquired wisdom and knowledge in the various arts. Suddenly I woke up. Now I have been wondering whether I should weep for those seven children or this one boy.' To the jnanis the waking state is no more real than the dream state.]

श्रीरामकृष्ण - “ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है ।” 

"God alone is the Doer. Everything happens by His will."

हाजरा- पर यह समझना बड़ा कठिन है भू- कैलास के साधु को कितना कष्ट दिया गया, जो एक तरह से उनकी मृत्यु का कारण हुआ । वे समाधि की हालत में मिले थे । होश में लाने के लिए लोगों ने उन्हें कभी जमीन में गाड़ा, कभी जल में डुबोया और कभी उनका शरीर दाग दिया । इस तरह उन्हें चैतन्य कराया । इन यन्त्रणाओं के कारण उनका शरीर छूट गया । लोगों ने उन्हें कष्ट भी दिया और ईश्वर की इच्छा से उनकी मृत्यु भी हुई । 

[HAZRA: "But it is very difficult to understand that. Take the case of the sadhu of Bhukailas. How people tortured him and; in a way, killed him! They had found him in samadhi. First they buried him, then they put him under-water, and then they branded him with a hot iron. Thus they brought him back to consciousness of the world. But in the end the sadhu died as a result of these tortures. He undoubtedly suffered at the hands of men, though, as you say, he died by the will of God."

* उद्देश्य (ईश्वरलाभ) पूरा होने के बाद~ शरीर रहे या जाये,कोई फर्क नहीं पड़ता *

श्रीरामकृष्ण-जिसका जैसा कर्म है, उसका फल वह पाएगा । किन्तु ईश्वर की इच्छा से उन साधु का शरीर-त्याग हुआ । वैद्य बोतल के अन्दर मकरध्वज ^*  तैयार करते हैं । उसके चारों ओर मिट्टी लीपकर वे उसे आग में रख देते हैं । बोतल के अन्दर का सोना आग की गर्मी से और कई चीजों के साथ मिलकर मकरध्वज बन जाता है । तब वैद्य बोतल को उठाकर उसे धीरे धीरे तोड़ता है और उससे मकरध्वज निकालकर रख लेता है । उस समय बोतल रहे चाहे नष्ट हो जाए, उससे क्या? उसी तरह लोग सोचते हैं कि साधु मार डाले गए, पर शायद उनकी चीज (inner stuff ) बन चुकी होगी । भगवान् का लाभ होने के बाद शरीर रहे भी तो क्या, और जाय तो भी क्या ? 

[मकरध्वज ^*  पारा और सल्फर (गंधक) से बनी एक आयुर्वेदिक दवा, जिसके निर्माण में सोना उत्प्रेरक का काम करता है।^An Indian medicine made of mercury and sulphur, in the preparation of which gold acts as a catalytic agent.] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যার যা কর্ম, তার ফল সে পাবে। কিন্তু ঈশ্বরের ইচ্ছায় সে সাধুর দেহত্যাগ হল। কবিরাজেরা বোতলের ভিতর মকরধ্বজ তৈয়ার করে। চারিদিকে মাটি দিয়ে আগুনে ফেলে রাখে। বোতলের ভিতর যে-সোনা আছে, সেই সোনা আগুনের তাতে আরও অন্য জিনিসের সঙ্গে মিশে মকরধ্বজ হয়। তখন কবিরাজ বোতলটি লয়ে আস্তে আস্তে ভেঙে, ভিতরের মকরধ্বজ রেখে দেয়। তখন বোতল থাকলেই বা কি, আর গেলেই বা কি? তেমনি লোকে ভাবে সাধুকে মেরে ফেললে, কিন্তু হয়তো তার জিনিস তৈয়ার হয়ে গিছল। ভগবানলাভের পর শরীর থাকলেই বা কি আর গেলেই বা কি?

MASTER: "Man must reap the fruit of his own karma. But as far as the death of that holy man is concerned, it was brought about by the will of God. The kavirajs prepare makaradhvaja ^*  in a bottle. The bottle is covered with clay and heated in the fire. The gold inside the bottle melts and combines with the other ingredients, and the medicine is made. Then the physicians break the bottle carefully and take out the medicine. When the medicine is made, what difference does it make whether the bottle is preserved or broken? So people think that the holy man was killed. But perhaps his inner stuff had been made. After the realization of God, what difference does it make whether the body lives or dies?

“भू-कैलास के वे साधु समाधिस्थ थे । समाधि अनेक प्रकार की होती है । हृषीकेश के साधु के कथन से मेरी अवस्था मिल गयी थी । कभी शरीर में चींटी की तरह वायु चलती हुई जान पड़ती है; कभी बड़े वेग के साथ, जैसे बन्दर एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते हैं; कभी मछली की तरह गति होती है । जिसको हो वही जान सकता है । जगत् का ख्याल जाता रहता है । मन के कुछ उतरने पर मैं कहता हूँ, ‘माँ, मुझे अच्छा कर दो, मैं बातें करना चाहता हूँ ।’   

*साधु (पुरोहित) और अवतार (पैगम्बर-वरिष्ठ ) में अन्तर* 

“ईश्वरकोटि जैसे अवतार (नेता -पैगम्बर) आदि, न होने पर कोई समाधि से नहीं लौट सकता । जीवकोटि के कोई कोई साधना के बल से समाधिस्थ होते तो हैं; पर वे फिर नहीं लौटते । जब ईश्वर स्वयं होकर आते हैं, अवतार रूप में आते हैं और जीवों की मुक्ति की चाभी उनके हाथ में रहती हैं, तब वे समाधि के बाद लौटते हैं- लोगों के कल्याण के लिए ।”  

[“ঈশ্বরকোটি (অবতারাদি) না হলে সমাধির পর ফেরে না। জীব কেউ কেউ সাধনার জোরে সমাধিস্থ হয়, কিন্তু আর ফেরে না। তিনি যখন নিজে মানুষ হয়ে আসেন, অবতার হন, জীবের মুক্তির চাবি তাঁর হাতে থাকে, তখন সমাধির পর ফেরেন। লোকের মঙ্গলের জন্য।”

"None but the Isvarakotis can return to the plane of relative consciousness after attaining samadhi. Some ordinary men attain samadhi through spiritual discipline; but they do not come back. But when God Himself is born as a man, as an Incarnation, holding in His hand the key to others' liberation, then for the welfare of humanity the Incarnation returns from samadhi to consciousness of the world."

मास्टर (मन ही मन)- क्या श्रीरामकृष्ण के हाथ में जीवों की मुक्ति की चाभी है ? 

[M. (to himself): "Does the Master hold in his hand the key to man's liberation?

हाजरा- ईश्वर को सन्तुष्ट करने से सब कुछ हुआ । अवतार हों या न हों । 

[হাজরা — ঈশ্বরকে তুষ্ট করতে পারলেই হল। অবতার থাকুন আর না থাকুন।

HAZRA: "The one thing needful is to please God. What does it matter whether an Incarnation of God exists or not?"]

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - हाँ, हाँ । विष्णुपुर में रजिस्टरी का बड़ा दफ्तर है, वहाँ रजिस्टरी हो जाने पर फिर ‘गोघाट’ में कोई बखेड़ा नहीं होता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — হাঁ, হাঁ। বিষ্ণুপুরে রেজিস্টারির বড় অফিস, সেখানে রেজেস্টারি করতে পাল্লে, আর গোঘাটে গোল থাকে না।

*श्रीरामकृष्ण -मणि (श्री 'म' संवादगुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा * 

*सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी 'मछली' (नामक कुम्भ) खेल रही है * 

शाम हुई । मन्दिर में आरती हो रही है । बारह शिवमन्दिरों तथा श्रीराधाकान्त के और माता भवतारिणी के मन्दिर में शंख घण्टा आदि मंगल-वाद्य बज रहे हैं । आरती समाप्त होने के कुछ समय बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे से दक्षिण के बरामदे में आ बैठे । चारों ओर घना अन्धकार है, केवल मन्दिर में स्थान स्थान पर दीपक जल रहे हैं । गंगाजी के वक्ष पर आकाश की काली छाया पड़ी है ।

आज अमावस्या है । श्रीरामकृष्ण सहज ही भावमय हैं, आज भाव और भी गम्भीर हो रहा है । बीच बीच में प्रणव उच्चारण कर रहे हैं और देवी का नाम ले रहे हैं । गर्मी का मौसम है, कमरे के भीतर गर्मी बहुत है । इसलिए बरामदे में आए हैं । किसी भक्त ने एक कीमती चटाई दी है । वही बरामदे में बिछायी गयी है । श्रीरामकृष्ण को सर्वदा माँ का ध्यान लगा रहता है । लेटे हुए आप मणि से धीरे धीरे बातें कर रहे हैं 

श्रीरामकृष्ण- देखो, ईश्वर के दर्शन होते हैं । अमुक (?) को दर्शन मिले हैं, परन्तु किसी से कहना मत । तुम्हें ईश्वर का रूप पसन्द है या निराकार-चिन्ता ? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, ঈশ্বরকে দর্শন করা যায়! অমুকের দর্শন হয়েছে, কিন্তু কারুকে বলো না। আচ্ছা, তোমার রূপ না নিরাকার ভাল লাগে?

 "Yes, God can be seen. X— has had a vision of God. But don't tell anyone about it. Tell me, which do you like better, God with form, or the formless Reality?"

मणि- इस समय तो निराकार-चिन्ता कुछ अच्छी लगती है, पर यह भी कुछ कुछ समझ में आया है कि वे ही साकार हो इन अनेक रूपों में विराजते हैं । 

[ আজ্ঞা, এখন একটু নিরাকার ভাল লাগে। তবে একটু একটু বুঝছি যে, তিনিই এ-সব সাকার হয়েছেন।

M: "Sir, nowadays I like to think of God without form. But I am also beginning to understand that it is God alone who manifests Himself through different forms."

श्रीरामकृष्ण- देखो, मुझे गाड़ी पर बेलघरिया में मोती शील की झील को ले चलोगे ? वहाँ मूढ़ी फेंक दो, मछलियाँ आकर उसे खाने लगेगी । अहा ! मछलियों को खेलती देखकर क्या आनन्द होता है, तुम्हें उद्दीपना होगी कि मानो सच्चिदानन्दरूपी सागर में आत्मारूपी मछली ^* खेल रही है । उसी तरह लम्बे-चौड़े मैदान में खड़े होने से ईश्वरीय भाव आ जाता है, जैसे किसी हण्डी में रखी हुई मछली तालाब में पहुँच गयी हो । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, আমায় বেলঘরে মতি শীলের ঝিলে গাড়ি করে নিয়ে যাবে? সেখানে মুড়ি ফেলে দাও, মাছ সব এসে মুড়ি খাবে। আহা! মাছগুলি ক্রীড়া করে বেড়াচ্ছে, দেখলে খুব আনন্দ হয়। তোমার উদ্দীপন হবে, যেন সচ্চিদানন্দ-সাগরে আত্মারূপ মীন ক্রীড়া করছে! তেমনি খুব বড় মাঠে দাঁড়ালে ঈশ্বরীয় ভাব হয়। যেন হাঁড়ির মাছ পুকুরে এসেছে।

MASTER: "Will you take me in a carriage some day to Mati Seal's garden house at Belgharia? When you throw puffed rice into the lake there, the fish come to the surface and eat it. Ah! I feel so happy to see them sport in the water. That will awaken your spiritual consciousness too. You will feel as if the fish of the human soul were playing in the Ocean of Satchidananda. In the same manner, I go into an ecstatic mood when I stand in a big meadow. I feel like a fish released from a bowl into a lake.

[आत्मारूपी मछली ^* सन्त कबीर ने कहा था -  जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥ जब सागर में पानी भरने जाएँ , तो घड़ा (कुम्भ) जल में रहता है, और  भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है।   इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। मगर फिर भी उस घट (कुम्भ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है।  इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार  होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा (मछली के नाम-रूप में अहंभाव) टूटता है  तो उसका जल , जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! 

ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सच्चिदानन्दरूपी (existence-consciousness-bliss)  सागर के समान है, चहुँ ओर चेतनता (pure Consciousness) रूपी जल ही जल है, तथा हम सभी जीव भी विभिन्न नाम-रूप धारी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं , जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं।  तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ ( यहाँ -'मछली' नामक कुम्भ ) को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे नाम-रूप (आकार - प्रकार) ही हैं।  इस मछली -शरीर रूपी जड़ -पदार्थ या घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा।  जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी I आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है।  अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है।  एकाकार हो जाती है। ] 

“उनके दर्शन के लिए साधना चाहिए । मुझे कठोर साधनाएँ करनी पड़ी । बिल्ववृक्ष के नीचे तरह तरह की साधनाएँ कर चुका । वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था - यह कहते हुए कि माँ, दर्शन दो । रोते रोते आँसूओं की झड़ी लग जाती थी । 

मणि- जब आप ही इतनी साधनाएँ कर चुके तब दूसरे लोग क्या एक ही क्षण में सब कर लेंगे ? मकान के चारों ओर उँगली फेर देने ही से क्या दीवाल बन जाएगी ?  

[মণি — আপনি কত সাধন করেছেন, আর লোকের কি একক্ষণে হয়ে যাবে? বাড়ির চারিদেকে আঙুল ঘুরিয়ে দিলেই কি দেয়াল হয়?

"You practised so many austerities, but people expect to realize God in a moment! Can a man build a wall simply by moving his finger around his home?"

*The Lila is real too~ पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की लीला भी सत्य है 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- अमृत कहता है, एक आदमी (पैगम्बर ,नेता शिक्षक) के आग जलाने पर दस आदमी उसके ताप से लाभ उठाते हैं । एक बात और है - नित्य को पहुँचकर लीला में रहना अच्छा है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — অমৃত বলে, একজন আগুন করলে দশজন পোয়ায়! আর-একটি কথা, নিত্যে পৌঁছে লীলায় থাকা ভাল।

MASTER (with a smile): "Amrita says that one man lights a fire and ten bask in its heat. I want to tell you something else. It is good to remain on the plane of the Lila after reaching the Nitya."

मणि- आपने तो कहा है कि लीला विलास के लिए है । 

[মণি — আপনি বলেছেন, লীলা বিলাসের জন্য।

M: "You once said that one comes down to the plane of the Lila in order to enjoy the divine play."

श्रीरामकृष्ण- नहीं, लीला भी सत्य है । और देखो, जब यहाँ आओगे तब अपने साथ थोड़ा कुछ लेते आना । खुद नहीं कहना चाहिए, इससे अभिमान होता है । अधर सेन से भी कहता हूँ, एक पैसे का कुछ लेकर आना । भवनाथ से कहता हूँ कि एक पैसे का पान लाना । भवनाथ की भक्ति कैसी है, देखी है तुमने? भवनाथ और नरेन्द्र मानो स्त्री और पुरुष हैं । भवनाथ नरेन्द्र का अनुगत हैं । नरेन्द्र को गाड़ी पर ले आना । कुछ खाने की चीज लाना । इससे बहुत भला होता है । 

[^हिंदू धर्मग्रंथ सद्गृहस्थ को किसी नेता / पैगम्बर या गुरु के यहाँ उपयुक्त उपहारों के साथ जाने की आज्ञा देते हैं।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না। লীলাও সত্য। আর দেখ, যখন আসবে, তখন হাতে করে একটু কিছু আনবে। নিজে বলতে নাই, অভিমান হয়। অধর সেনকেও বলি, এক পয়সার কিছু নিয়ে এস। ভবনাথকে বলি, এক পয়সার পান আনিস। ভবনাথের কেমন ভক্তি দেখেছ? নরেন্দ্র, ভবনাথ — যেমন নরনারী। ভবনাথ নরেন্দ্রের অনুগত। নরেন্দ্রকে গাড়ি করে এনো। কিছু খাবার আনবে। এতে খুব ভাল হয়

MASTER: "No, not exactly that. The Lila is real too. "Let me tell you something. Whenever you come here, bring a trifle with you.^ *[^The Hindu scriptures command the householder to visit a holy man with suitable presents.) Perhaps I shouldn't say it; it may look like egotism. I also told Adhar Sen that he should bring a pennyworth of something with him. I asked Bhavanath to bring a pennyworth of betel-leaf. Have you noticed Bhavanath's devotion? Narendra and he seem like man and woman. He is devoted to Narendra. Bring Narendra here with you in a carriage, and also bring some sweets with you. It will do you good.

*भक्त नास्तिकता आने पर भी ईश्वर चिन्तन नहीं त्यागता । 

“ज्ञान और भक्ति – दोनों ही मार्ग हैं । भक्तिमार्ग में आचार कुछ अधिक पालन करना पड़ता है । ज्ञानमार्ग में यदि कोई अनाचार भी करे तो वह मिट जाता है । खूब आग जलाकर एक केले का पेड़ भी झोंक दो, वह भी भस्म हो जाता है । 

[“জ্ঞান ও ভক্তি দুই-ই পথ। ভক্তিপথে একটু আচার বেশি করতে হয়। জ্ঞানপথে যদি অনাচার কেউ করে, সে নষ্ট হয়ে যায়। বেশি আগুন জ্বাললে কলাগাছটাও ভিতরে ফেলে দিলে পুড়ে যায়।

"Knowledge and love — both are paths leading to God. Those who follow the path of love have to observe a little more outer purity. But the violation of this by a man following the path of knowledge cannot injure him. It is destroyed in the fire of knowledge. Even a banana tree is burnt up when it is thrown into a roaring fire.

“ज्ञानी का मार्ग विचारमार्ग है । विचार करते करते कभी कभी नास्तिकपन भी आ सकता है । पर भगवान् को जानने के लिए भक्त की यदि हार्दिक इच्छा हो, तो नास्तिकता आने पर भी वह ईश्वर चिन्तन नहीं त्यागता । 

[জ্ঞানীর পথ বিচারপথ। বিচার করতে করতে নাস্তিকভাব হয়তো কখন কখন এসে পড়ে। ভক্তের আন্তরিক তাঁকে জানবার ইচ্ছা থাকলে, নাস্তিকভাব এলেও সে ঈশ্বরচিন্তা ছেড়ে দেয় না। 

"The jnanis follow the path of discrimination. Sometimes it happens that, discriminating between the Real and the unreal, a man loses his faith in the existence of God. But a devotee who sincerely yearns for God does not give up his meditation even though he is invaded by atheistic ideas. 

" जिसके बाप-दादे किसानी करते आ रहे हैं, अतिवृष्टि और अनावृष्टि के कारण किसी साल फसल न होने पर भी वह खेती करता ही रहता है ।” 

[ যার বাপ পিতামহ চাষাগিরি করে এসেছে, হাজাশুখা বৎসরে ফসল না হলেও সে চাষ করে!”

A man whose father and grandfather have been farmers continues his farming even though he doesn't get any crop in a year of drought."

श्रीरामकृष्ण लेटे लेटे बातें कर रहे हैं । बीच में मणि से बोले, “मेरा पैर थोड़ा दर्द कर रहा है, जरा हाथ फेर दो ।” 

इस प्रकार अहेतुक कृपासिन्धु गुरुदेव (ने कृपा कर के शिष्य को व्यक्तिगत सेवा करने की अनुमति प्रदान की , और)  कमलचरणों की सेवा करते हुए, मणि उनके श्रीमुख से वे अपूर्व तत्त्व सुन रहे हैं । 

[ঠাকুর তাকিয়ার উপর মস্তক রাখিয়া শুইয়া শুইয়া কথা কহিতেছেন। মাঝে মণিকে বলিতেছেন, “আমার পাটা একটু কামড়াচ্চে, একটু হাত বুলিয়ে দাও তো গা।”

Lying on the mat and resting his head on a pillow, Sri Ramakrishna continued the conversation. He said to M; "My legs are aching, Please stroke them gently." Thus, out of his infinite compassion, the Master allowed his disciple to render him personal service.

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