[(7 सितम्बर, 1883) परिच्छेद ~ 51, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)**साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]
परिच्छेद~ ५१
*गुरुशिष्य-संवाद – गुह्य कथा*
(१)
*अंग्रेजों का अनुकरण -भोग-विलास - Stomach-Worry *
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में उस छोटे तख्त पर बैठे मणि से गुह्य बातें कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हैं । आज शुक्रवार, 7 सितम्बर 1883 ई. है । भाद्र की शुक्ला षष्ठी तिथि है । रात के लगभग साढ़े सात बजे हैं ।
श्रीरामकृष्ण- उस दिन कलकत्ते गया । गाड़ी पर जाते जाते देखा, सभी निम्नदृष्टि हैं । सभी को अपने पेट की चिन्ता लगी हुई थी । सभी अपना पेट पालने के लिए (होटलों में या ठेला पर चाट खाने के लिए) दौड़ रहे थे । सभी का मन कामिनी-कांचन पर था । हाँ, दो-एक को देखा कि वे ऊर्ध्वदृष्टि हैं – ईश्वर की ओर उनका मन है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সেদিন কলকাতায় গেলাম। গাড়িতে যেতে যেতে দেখলাম, জীব সব নিম্নদৃষ্টি — সব্বাইয়ের পেটের চিন্তা। সব পেটের জন্য দৌড়ুচ্ছে! সকলেরই মন কামিনী-কাঞ্চনে। তবে দুই-একটি দেখলাম, ঊর্ধ্বদৃষ্টি — ঈশ্বরের দিকে মন আছে।
"The other day I went to Calcutta. As I drove along the streets in the carriage, I observed that everyone's attention was fixed on low things. Everyone was brooding over his stomach and running after nothing but food. Everyone's mind was turned to 'woman and gold'. I saw only one or two with their attention fixed on higher things, with their minds turned to God."
मणि- आजकल पेट की चिन्ता और भी बढ़ गयी है । अंग्रेजों का अनुकरण करने में लगे हुए लोगों का मन विलास की ओर अधिक मुड़ गया है । इसीलिए अभावों की वृद्धि हुई है ।
[মণি — আজকাল আরও পেটের চিন্তা বাড়িয়া দিয়েছে। ইংরেজদের অনুকরণ করতে গিয়ে লোকদের বিলাসের আরও মন হয়েছে, তাই অভাব বেড়েছে।
Trying to imitate the English, people have turned their attention to more luxuries; therefore their wants have also increased."}
श्रीरामकृष्ण- ईश्वर के विषय में उनका (अंग्रेजों का) कैसा मत है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওদের ঈশ্বর সম্বন্ধে কি মত?
"What do the English think about God?"
मणि- वे निराकारवादी हैं । [ उनका विश्वास निराकार भगवान 'formless God' में है ]
]মণি — ওরা নিরাকারবাদী।
M: "They believe in a formless God."
*सब भूतों में एक चैतन्य का दर्शन*
[ 'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'> "नजर को बदलो तो नजारे बदल जाते है। सोच को बदलो तो सितारे बदल जाते हैं। कश्तियाँ बदलने की जरुरत नहीं,दिशा को बदलो तो किनारे खुद व् खुद बदल जाते हैं ! अमीर मीनाई का प्रसिद्ध शेर है - "कौन सी जा ( जगह) है, जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं? शौक़-ए-दीदार है अगर, तो 'नज़र' पैदा कर! " ]
श्रीरामकृष्ण- हमारे यहाँ भी वह मत है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমাদের এখানেও ওই মত আছে।
"That is also one of our beliefs."
थोड़ी देर तक दोनों चुप रहे । अब श्रीरामकृष्ण अपनी ब्रह्मज्ञानदशा का वर्णन कर रहे हैं ।
Then Sri Ramakrishna began to describe his experiences of Brahman.
श्रीरामकृष्ण- मैंने एक दिन देखा कि एक ही चैतन्य सर्वत्र है – कहीं भेद नहीं है । पहले (ईश्वर ने) दिखाया कि बहुत से मनुष्य और जीव-जन्तु हैं – उनमें बाबू लोग हैं, अंग्रेज और मुसलमान हैं, मैं स्वयं (अवतार-वरिष्ठ) हूँ, मेहतर है, कुत्ता है, फिर एक दाढ़ीवाला मुसलमान है – उसके हाथ में एक छोटी थाली है, जिसमें भात है । उस छोटी थाली का भात वह सब के मुँह में थोड़ा थोड़ा दे गया । मैंने भी थोड़ा सा चखा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি একদিন দেখলাম, এক চৈতন্য — অভেদ। প্রথমে দেখালে, অনেক মানুষ, জীবজন্তু রয়েছে — তার ভিতর বাবুরা আছে, ইংরেজ, মুসলমান, আমি নিজে, মুদ্দোফরাস, কুকুর, আবার একজন দেড়ে মুসলমান হাতে এক সানকি, তাতে ভাত রয়েছে। সেই সানকির ভাত সব্বাইয়ের মুখে একটু একটু দিয়ে গেল, আমিও একটু আস্বাদ করলুম!
"One day I had the vision of Consciousness, non-dual and indivisible. At first it had been revealed to me that there were innumerable men, animals, and other creatures. Among them there were aristocrats, the English, the Mussalmans, myself, scavengers, dogs, and also a bearded Mussalman with an earthenware tray of rice in his hand. He put a few grains of rice into everybody's mouth. I too tasted a little.}
*ब्रह्मज्ञान और अभेदबुद्धि*
“एक दूसरे दिन दिखाया कि विष्ठा-मूत्र, अन्न-व्यंजन, तरह तरह की खाने की चीजें पड़ी हुई हैं । एकाएक मेरे शरीर से आत्मा निकली और आग की लौ की तरह सब चीजों को चखा, - मानो जीभ हिलाते हुए सभी चीजों का एक बार स्वाद ले लिया, विष्ठा, मूत्र, सब कुछ चखा । इससे (ईश्वर ने) दिखा दिया कि सब एक है-अभेद हैं ।
[“আর-একদিন দেখালে, বিষ্ঠা, মূত্র, অন্ন ব্যঞ্জন সবরকম খাবার জিনিস, — সব পড়ে রয়েছে। হঠাৎ ভিতর থেকে জীবাত্মা বেরিয়ে গিয়ে একটি আগুনের শিখার মতো সব আস্বাদ করলে। যেন জিহ্বা লকলক করতে করতে সব জিনিস একবার আস্বাদ করলে! বিষ্ঠা, মূত্র — সব আস্বাদ করলে! দেখালে যে, সব এক — অভেদ!”
"Another day I saw rice, vegetables, and other food-stuff, and filth and dirt as well, lying around. Suddenly the soul came out of my body and, like a flame, touched everything. It was like a protruding tongue of fire and tasted everything once, even the excreta. It was revealed to me that all these are one Substance, the non-dual and indivisible Consciousness.]
[भक्त (Devotees) और शिष्य (Disciple, Intimate Companions,लीला पार्षद )]
“फिर एक बार दिखाया कि 'यहाँ' के ^ अनेक भक्त हैं – पार्षद – अपने जन । ज्योंही आरती का शंख और घण्टा बज उठता, मैं कोठी की छत पर चढ़कर व्याकुल हो चिल्लाकर कहता, ‘अरे, तुम लोग कौन कहाँ हो ? आओ, तुम्हें देखने के लिए मेरे प्राण छटपटा रहे हैं ।’
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আবার একবার দেখালে যে, এখানকার সব ভক্ত আছে — পার্ষদ — আপনার লোক। যাই আরতির শাঁখঘন্টা বেজে উঠত, অমনি কুঠির ছাদের উপর উঠে ব্যকুল হয়ে চিৎকার করে বলতাম, “ওরে তোরা কে কোথায় আছিস আয়! তোদের দেখবার জন্য আমার প্রাণ যায়।”
"Another day it was revealed ^* to me that I had devotees — my intimate companions, my very own. Thereafter I would climb to the roof of the kuthi as soon as the bells and the conch-shells of the evening service sounded in the temples, and cry out with a longing heart: 'Oh, where are you all? Come here! I am dying to see you!'
(^This happened before any of the Master's intimate disciples came to him.^
[यह श्रीठाकुर देव के किसी अन्तरंग शिष्य के आने से पहले घटित -घटना थी। * श्रीरामकृष्ण अपने लिए गुरुभाव से ‘मैं’ या ‘हम’ शब्द का प्रयोग साधारण दशा में कदाचित् करते थे । किसी और ढंग से वह भाव वे सूचित करते थे । जैसे – ‘मेरे पास’ न कहकर ‘यहाँ’ कहते थे । ‘मेरा’ न कहकर ‘यहाँ का’ अथवा अपना शरीर दिखाकर ‘इसका’ कहते थे । हाँ, जगन्माता के सन्तान-भाव से वे ‘मैं’ या ‘हम’ शब्द का व्यवहार करते थे । भावावस्था में गुरुभाव के अर्थ में भी इन शब्दों का प्रयोग करते थे ।)
“अच्छा, 'मेरे' इन दिव्य -दर्शनों (दीदार-visions) के बारे में तुम्हें क्या मालुम होता है ?”
[“আচ্ছা, আমার এই দর্শন বিষয়ে তোমার কিরূপ বোধ হয়?”
(To M.) "Well, what do you think of these visions?"
मणि- आप ईश्वर के विलास का स्थान हैं । मैंने यही समझा कि आप यन्त्र हैं और वे यन्त्री (चलानेवाले) हैं। दूसरों को उन्होंने मानो साँचे में डालकर तैयार किया है, परन्तु आपको स्वयं के हाथों से गढ़ा हैं ।
[মণি — আপনি তাঁর বিলাসের স্থান! — এই বুঝেছি, আপনি যন্ত্র, তিনি যন্ত্রী; জীবদের যেন তিনি কলে ফেলে তৈয়ার করেছেন, কিন্তু আপনাকে তিনি নিজের হাতে গড়েছেন।
M: "God sports through you. This I have realized, that you are the instrument and God is the Master. God has created other beings as if with a machine, but yourself with His own hands.
*जो शुद्धा भक्ति चाहते हैं वे छः सिद्धियाँ नहीं चाहते *
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, हाजरा कहता है कि ईश्वर के दर्शन के बाद षडैश्वर्य ^* मिलते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, হাজরা বলে, দর্শনের পরে ষড়ৈশ্বর্য হয়।
"Well, Hazra says that after the vision of God one acquires the six divine powers."
[षडैश्वर्य ^*(विभूति पाद -३.३६):
परार्थत्वात्स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम् ॥ 36 ॥
[ परार्थत्वात् स्वार्थ संयमात् पुरुष ज्ञानम् > परार्थत्वात् ( उस बुद्धि के परार्थ अर्थात विपरीत ज्ञान से अलग ) स्वार्थ ( जो भोग से अलग जो पुरुष के विषय में ) संयमात् ( संयम करने से ) पुरुषज्ञानम् ( उस पुरुष अर्थात आत्मा का ज्ञान हो जाता है। )
बुद्धि और पुरुष दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न अर्थात अलग- अलग होते हैं । इन दोनों को अभिन्न अर्थात एक ही मानना भोग कहलाता है । जिसका कारण बुद्धि का विपरीत ज्ञान है । इस अवस्था से अलग स्वार्थ अर्थात केवल पुरुष के ही ज्ञान में संयम करने से आत्मा का ज्ञान होता है ।
बुद्धि और पुरुष दो अलग- अलग पदार्थ हैं । यहाँ सत्त्व शब्द से बुद्धि को सम्बोधित किया गया है । बुद्धि व पुरुष एक दूसरे से सर्वथा अर्थात पूरी तरह से भिन्न हैं । बुद्धि जड़ ( निर्जीव ) पदार्थ है । जिसकी उत्त्पत्ति सत्त्व, रज और तम नामक गुणों से हुई है । जबकि पुरुष अर्थात आत्मा किसी भी पदार्थ या तत्त्व से उत्पन्न नहीं होती है । यह शुद्ध चेतन स्वरूप है । ये दोनों एक दूसरे से इस प्रकार अलग – अलग हैं । जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा एक दूसरी से बिलकुल अलग होती हैं ।
बुद्धि व पुरुष दोनों को एक पदार्थ मानने को ही भोग कहा गया है । मनुष्य इस भोग (कामिनी -कांचन) में आसक्ति के फलस्वरूप ही बुद्धि व पुरुष को एक मानने की भूल करता है । इस भोग के अतिरिक्त दूसरी स्वार्थ अवस्था भी होती है । जिसमें केवल आत्मा के स्वरूप का ही ज्ञान होता है । जब योगी इस पुरुष में संयम करता है तो उसे पुरुष अर्थात आत्मा का ज्ञान हो जाता है । या ये कहें कि योगी को आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है ।
ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥ 37 ॥
[ततः – from this, प्रातिभ – intuition, श्रावण – hearing, वेदना – touch, अदर्शा – vision, स्वाद – taste, वार्ता – smell, जायन्ते – are born]
From this, intuition as well as higher touch, vision, taste and smell are born .
पुरुष-साक्षात्कार से पूर्व, ऊपर कहे गए संयम के द्वारा निम्नलिखित सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं :- प्रातिभ – ( intuition- सहज बोध ) इससे भूत, भविष्य, वर्तमान, सूक्ष्म, ढके हुए एवं दूर-स्थित पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। श्रावण ( hearing) – इससे दिव्य शब्दों का श्रवण होता है। वेदना ( touch, स्पर्श) – इससे दिव्य स्पर्श की क्षमता मिलती है।अदर्शा (vision) – इससे दिव्य रूप का दर्शन होता है। आस्वाद (taste) – इससे दिव्य रस का स्वाद मिलता है। वार्ता (smell) – इससे दिव्य गंध का अनुभव करने की शक्ति, जायन्ते (are born) प्राप्त होती है। ये छः सिद्धियाँ सामान्य रूप से तो सिद्धियाँ हैं किन्तु समाधि की अवस्था में विघ्न हैं। (३.३७)]
मणि- जो शुद्धा भक्ति चाहते हैं वे ईश्वर के ऐश्वर्य की इच्छा नहीं करते ।
[মণি — যারা শুদ্ধাভক্তি চায় তারা ঈশ্বরের ঐশ্বর্য দেখতে চায় না।
M: "Those who seek pure love don't want powers."
श्रीरामकृष्ण- शायद हाजरा पूर्वजन्म में गरीब था, इसीलिए उसे ऐश्वर्य देखने की उतनी तीव्र इच्छा है । हाल में हाजरा ने कहा है – ‘क्या मैं रसोइया ब्राह्मणों से बातचीत करता हूँ !’ फिर कहता है – ‘मैं खजांनची से कहकर तुम्हें वे सब चीजें दिला दूंगा !’ (मणि का उच्च हास्य)
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বোধ হয়, হাজরা আর-জন্মে দরিদ্র ছিল, তাই অত ঐশ্বর্য দেখতে চায়। হাজরা এখন আবার বলেছে, রাঁধুনি-বামুনের সঙ্গে আমি কি কথা কই! আবার বলে, খাজাঞ্চীকে বলে তোমাকে ওই সব জিনিস দেওয়াব! (মণির উচ্চহাস্য)
"Perhaps Hazra was a poor man in his previous life, and that is why he wants so much to see the manifestation of power. He wants to know what I talk about with the cook. He says to me: 'You don't have to talk to the cook. I shall talk to the manager of the temple myself and see that you get everything you want.' (M. laughs aloud.)
श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- वह ये सब बातें कहता रहता है और मैं चुप रह जाता हूँ ।
[(সহাস্যে) — ও ওই সব কথা বলতে থাকে, আর আমি চুপ করে থাকি।
He talks to me that way and I say nothing."
*अवतार क्यों होते हैं*
[ मनुष्य रूप में अवतरित होने पर, गोप-भक्त भी आसानी से 'गोपाल' की धारणा कर सकते हैं।]
मणि- आप तो बहुत बार कह चुके हैं कि शुद्ध भक्त (गोप-गोपियाँ) ऐश्वर्य देखना नहीं चाहता । वह ईश्वर का गोपाल रूप ^ (^ गोपाल (राखाल) = सभी दिव्य- शक्तियों से रहित चरवाहा श्रीकृष्ण) देखना चाहता है । प्रथम अवस्था में ईश्वर चुम्बक-पत्थर और ईश्वर भक्त सुई होते हैं; फिर तो भक्त ही चुम्बक-पत्थर और ईश्वर सुई बन जाते हैं – अर्थात् भक्त के पास ईश्वर छोटे हो जाते हैं।
[ মণি — আপনি তো অনেকবার বলে দিয়েছেন, যে শুদ্ধভক্ত সে ঐশ্বর্য দেখতে চায় না। যে শুদ্ধভক্ত সে ঈশ্বরকে গোপালভাবে দেখতে চায়। — প্রথমে ঈশ্বর চুম্বক পাথর হন আর ভক্ত ছুঁচ হন — শেষে ভক্তই চুম্বক পাথর হন আর ঈশ্বর ছুঁচ হন — অর্থাৎ ভক্তের কাছে ঈশ্বর ছোট হয়ে যান।
"Many a time you have said that a devotee who loves God for the sake of love does not care to see God's powers. A true devotee wants to see God as Gopala.4 In the beginning God becomes the magnet, and the devotee the needle. But in the end the devotee himself becomes the magnet, and God the needle; that is to say, God becomes small to His devotee."
श्रीरामकृष्ण- जैसे ठीक उदय के समय का सूर्य । अनायास ही देखा जा सकता है, वह आँखों को झुलसाता नहीं, बल्कि उनको तृप्त कर देता है । भक्त के लिए भगवान् का भाव कोमल हो जाता है – वे अपना ऐश्वर्य छोड़ भक्तों के पास आ जाते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যেমন ঠিক সূর্যোদয়ের সময়ে সূর্য। সে সূর্যকে অনায়াসে দেখতে পারা যায় — চক্ষু ঝলসে যায় না — বরং চক্ষের তৃপ্তি হয়। ভক্তের জন্য ভগবানের নরম ভাব হয়ে যায় — তিনি ঐশ্বর্য ত্যাগ করে ভক্তের কাছে আসেন।
"Yes, it is just like the sun at dawn. You can easily look at that sun. It doesn't dazzle the eyes; rather it satisfies them. God becomes tender for the sake of His devotees. He appears before them, setting aside His powers."
फिर दोनों चुप रहे ।
मणि- मैं सोचता हूँ, क्यों ये दर्शन सत्य नहीं होंगे ? यदि ये मिथ्या हुए तो यह संसार और भी मिथ्या ठहरा, क्योंकि देखने का साधन, मन तो एक ही है । फिर वे दर्शन शुद्ध मन से होते हैं और सांसारिक पदार्थ इसी अशुद्ध मन से देखे जाते हैं ।
[মণি — এ-সব দর্শন ভাবি, কেন সত্য হবে না — যদি এ-সব অসত্য হয় এ-সংসার আরও অসত্য — কেননা যন্ত্র মন একই। ও-সব দর্শন শুদ্ধমনে হচ্ছে আর সংসারের বস্তু এই মনে দেখা হচ্ছে।
M: "Why should your visions not be real? If they are unreal, then the world is still more unreal; for there is only one mind that is the instrument of perception. Your pure mind sees those visions, and our ordinary minds see worldly objects."]
श्रीरामकृष्ण- इस बार देखता हूँ कि तुम्हें खूब अनित्य का बोध हुआ है । अच्छा, कहो, हाजरा कैसा है ?
{শ্রীরামকৃষ্ণ — এবার দেখছি, তোমার খুব অনিত্য বোধ হয়েছে! আচ্ছা, হাজরা কেমন বল।
MASTER: "I see that you have grasped the idea of unreality (सत्य, असत्य , मिथ्या का विवेक हुआ है !). Well, tell me what you think of Hazra."}
मणि- वह है एक तरह का आदमी । (श्रीरामकृष्ण हँसे ।)
[মণি — ও একরকমের লোক! (ঠাকুরের হাস্য)
M: "Oh, I don't know." (The Master laughs.)
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, मुझसे तथा किसी और से कुछ मिलता जुलता है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, আমার সঙ্গে আর কারু মেলে?
MASTER: "Well, do you find me to be like anybody else?"
मणि- जी नहीं ।
श्रीरामकृष्ण- किसी परमहंस से ?
मणि- जी नहीं । आपकी तुलना नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- तुमने ‘अनचीन्हा पेड़’ सुना है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — অচিনে গাছ শুনেছ?
"Have you heard of a tree called the 'achina'?" (Literally, "unrecognizable".)
मणि- जी नहीं ।
श्रीरामकृष्ण- वह है एक प्रकार का पेड़ जिसे कोई देखकर पहचान नहीं सकता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে একরকম গাছ আছে — তাকে কেউ দেখে চিনতে পারে না।
MASTER (smiling): "Have you heard of a tree called the 'achina'?" (Literally, "unrecognizable".)
मणि- जी, आपको भी पहचानना कठिन है । आपको जो जितना समझेगा वह उतना ही उन्नत होगा ।
[মণি — আজ্ঞে, আপনাকেও চিনবার জো নাই। আপনাকে যে যত বুঝবে সে ততই উন্নত হবে!
M: "Likewise, it is not possible to recognize you. The more a man understands you, the more uplifted he will be."
मणि शान्त होकर विचार कर रहे हैं, - श्रीरामकृष्ण ने जो ‘उदय के समय का सूर्य’, ‘अनचीन्हा पेड़’ आदि बातें कही, क्या यही अवतार के लक्षण हैं ? क्या इसी का नाम नरलीला है ? क्या श्रीरामकृष्ण अवतार हैं ? क्या इसीलिए वे पार्षदों को देखने के लिए व्याकुल होकर कोठी की छत पर चढ़कर पुकारते थे कि अरे, तुम लोग कौन कहाँ हो, आओ !
[মণি চুপ করিয়া ভাবিতেছেন, ঠাকুর “সূর্যোদয়ের সূর্য” আর “অচিনে গাছ” এই সব কথা যা বললেন, এরই নাম কি অবতার? এরই নাম কি নরলীলা? ঠাকুর কি অবতার? তাই পার্ষদদের দেখবার জন্য ব্যাকুল হয়ে কুঠির ছাদে দাঁড়িয়ে ডাকতেন, “ওরে তোরা কে কোথায় আছিস আয়?”
M. was silent. He said to himself: "The Master referred to 'the sun at dawn' and 'the tree unrecognizable by man'. Did he mean an Incarnation of God? Is this the play of God through man? Is the Master himself an Incarnation? Was this why he cried to the devotees from the root of the kuthi: 'Where are you? Come to me!'?"
[Some of the devotees wondered, "Is Sri Ramakrishna an Incarnation of God, like Krishna, Chaitanya, and Christ?"]
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*ॐ * चित्त का विज्ञान : चित्त की चंचलता का रूपांतरण है समाधि !
योगसूत्र (3.52 ) क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है।
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