गुरुवार, 20 मई 2021

परिच्छेद ~ 48, [(18 अगस्त, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]*Leaders live in the company of devotee* जीवन का उद्देश्य*ईश्वर का दर्शन * अवतार (नेता) -तत्त्व और गुरुगिरि का अंतर *'

[(18 अगस्त, 1883)परिच्छेद ~ 48,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)**साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]
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परिच्छेद ~ ४८
 
*बलराम के मकान पर*

* झाँप दिले होबेई होबे! झाँप दिले होबेई होबे! * 

(विवेक-दर्शन के अभ्यास में मग्न हो जायें, तो विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर रहेगा !  ) 

एक दिन, १८ अगस्त १८८३ ई., शनिवार को तीसरे पहर श्रीरामकृष्ण बलराम के घर आए हैं । आप अवतार (नेता) -तत्त्व समझा रहे हैं ।

[আর-একদিন ১৮ই অগস্ট, ১৮৮৩ (২রা ভাদ্র, শনিবার), বৈকালে বলরামের বাড়ি আসিয়াছেন। ঠাকুর অবতারতত্ত্ব বুঝাইতেছেন।
Sri Ramakrishna was at Balaram Bose's house in Calcutta. He was explaining the mystery of Divine Incarnation to the devotees.]
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति)- अवतार लोकशिक्षा के लिए भक्ति और भक्त लेकर रहते हैं । मानो छत पर चढ़कर सीढ़ी से आते-जाते रहना । जब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक सभी वासनाएँ नष्ट नहीं होतीं, तब तक दूसरे लोग छत पर चढ़ने के लिए भक्तिपथ पर रहेंगे । सब वासनाएँ मिट जाने पर ही छत पर पहुँचा जा जाता है । दुकानदार का हिसाब जब तक नहीं मिलता, तब तक वह नहीं सोता । खाते का हिसाब ठीक करके ही सोता है !
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — অবতার লোকশিক্ষার জন্য ভক্তি-ভক্ত নিয়ে থাকে। যেমন ছাদে উঠে সিঁড়িতে আনাগোনা করা। অন্য মানুষ ছাদে উঠবার জন্য ভক্তিপথে থাকবে; যতক্ষণ না জ্ঞানলাভ হয়, যতক্ষণ না সব বাসনা যায়। সব বাসনা গেলেই ছাদে উঠা যায়। দোকানদার যতক্ষণ না হিসাব মেটে ততক্ষণ ঘুমায় না। খাতায় হিসাব ঠিক করে তবে ঘুমায়!
MASTER: "In order to bring people spiritual knowledge, an Incarnation of God lives in the world in the company of devotees, cherishing an attitude of love for God. It is like going up and coming down the stairs after having once reached the roof. In order to reach the roof, other people should follow the path of devotion, as long as they have not attained Knowledge and become free of desire. The roof can be reached only when all desires are done away with. The shopkeeper does not go to bed before finishing his accounts. He goes to sleep only when his accounts are finished.

 (मास्टर के प्रति) “मनुष्य यदि डुबकी लगाए  तो अवश्य सफल होगा । डुबकी लगाने पर सफलता निश्चित है ।
[(মাস্টারের প্রতি) — ঝাঁপ দিলে হবেই হবে! ঝাঁপ দিলে হবেই হবে।
(To M.) "A man will certainly succeed if he will take the plunge. Success is sure for such a man. 
“अच्छा, केशव सेन, शिवनाथ, - ये लोग जो उपासना करते हैं, वह तुम्हें कैसी लगती है ?”

[“আচ্ছা, কেশব সেন, শিবনাথ এরা যে উপাসনা করে, তোমার কিরূপ বোধ হয়?”
"Well, what do you think of the worship conducted by Keshab, Shivanath, and the other Brahmo leaders?"
 
मास्टर- जी, जैसा आप कहते हैं, - वे (गुरुगिरि करने वाले नेता ) बगीचे का ही वर्णन करते हैं, परन्तु बगीचे के मालिक के दर्शन करने की बात बहुत कम कहते हैं । प्रायः बगीचे के वर्णन से ही प्रारम्भ और उसी में समाप्ति हो जाती है।
[মাস্টার — আজ্ঞা, আপনি যেমন বলেন, তাঁরা বাগান বর্ণনাই করেন, কিন্তু বাগানের মালিককে দর্শন করার কথা খুব কমই বলেন। প্রায় বাগান বর্ণনায় আরম্ভ আর উহাতেই শেষ।
M: "They are satisfied, as you say, with describing the garden, but they seldom speak of seeing the Master of the garden. Describing the garden is the beginning and end of their worship."

श्रीरामकृष्ण- ठीक । बगीचे के मालिक की खोज करना और उनसे बातचीत करना, यही असल काम है। ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है ।^ * 
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক! বাগানের মালিককে খোঁজা আর তাঁর সঙ্গে আলাপ করা এইটেই কাজ। ঈশ্বরদর্শনই জীবনের উদ্দেশ্য।১
"You are right. Our only duty is to seek the Master of the garden and speak to Him. The only purpose of life is to realize God."


( जीवन का उद्देश्य ^ *-> आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । - बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/५ )अरे मैत्रेयि, आत्मा अमूर्त होते हुए भी इसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, मन को एकाग्र करने से यह अनुभव गम्य हो सकती है तथा इसे अनुभव में लाने के लिए 'विवेकदर्शन का अभ्यास' भी किया जा सकता है । ]
बलराम के घर से अब अधर के घर पधारे हैं । सायंकाल के बाद अधर के बैठकघर में नाम-संकीर्तन और नृत्य कर रहे हैं; कीर्तनकार वैष्णवचरण गाना गा रहे हैं । अधर, मास्टर, राखाल आदि उपस्थित हैं।
[বলরামের বাড়ি হইতে এইবার অধরের বাড়ি আসিয়াছেন। সন্ধ্যার পর অধরের বৈঠকখানায় নামসংকীর্তন ও নৃত্য করিতেছেন। বৈষ্ণবচরণ কীর্তনিয়া গান গাইতেছেন। অধর, মাস্টার, রাখাল প্রভৃতি উপস্থিত আছেন।
Sri Ramakrishna then went to Adhar's house. After dusk he sang and danced in Adhar's drawing-room. M., Rakhal, and other devotees were present. After the music he sat down, still in an ecstatic mood. ]

कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर बैठे हैं । 
राखाल (भावी नेता)  से कह रहे हैं, “यहाँ का जल श्रावण मास का जल नहीं है । श्रावण मास का जल काफी तेजी के साथ आता है और फिर निकल जाता है । यहाँ पर पाताल से निकले हुए स्वयम्भू शिव हैं, स्थापित किए हुए शिव नहीं हैं । तू क्रोध में दक्षिणेश्वर से चला आया; मैंने माँ से कहा, ‘माँ, इसके अपराध पर ध्यान न देना ।’
क्या श्रीरामकृष्ण अवतार हैं ? स्वयम्भू शिव हैं ?

[ শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার? পাতাল ফোঁড়া শিব?


{ “এখানকার শ্রাবণ মাসের জল নয়। শ্রাবণ মাসের জল খুব হুড়হুড় করে আসে আবার বেরিয়ে যায়। এখানে পাতাল ফোঁড়া শিব, বসানো শিব নয়। তুই রাগ করে দক্ষিণেশ্বর থেকে চলে এলি, আমি মাকে বললুম, মা এর অপরাধ নিসনি।
"This religious fervour (Referring to himself) is not like rain in the rainy season, which comes in torrents and goes in torrents. It is like an image of Siva that has not been set up by human hands but is a natural one that has sprung up, as it were, from the bowels of the earth. The other day you left Dakshineswar in a temper. I prayed to the Divine Mother to forgive you."
फिर भावविभोर होकर अधर से कह रहे हैं – “भैया, तुमने जो नाम लिया था, उसी का ध्यान करो ।
ऐसा कहकर अधर की जिव्हा अपनी उँगली से छूकर उस पर न जाने क्या लिख दिया । क्या यही अधर की दीक्षा हुई ? 
{” আবার অধরকে ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন, “বাপু! তুমি যে নাম করেছিলে তাই ধ্যান করো।”এই বলিয়া অধরের জিহ্বা অঙ্গুলি দ্বারা স্পর্শ করিলেন ও জিহ্বাতে কি লিখিয়া দিলেন। এই কি অধরের দীক্ষা হইল?
The Master was still in an abstracted mood and said to Adhar, "My son, meditate on the Deity whose name you chanted." With these words he touched Adhar's tongue with his finger and wrote something on it. Did the Master thereby impart spirituality to Adhar?

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आत्मा के मूर्त रूप स्वामी विवेकानन्द सम्बन्ध मे पहले सुनना होगा, उसके बाद मनन अर्थात् चिन्ता करनी होगी, उसके बाद लगातार 'विवेकदर्शन का अभ्यास  करना होगा। इच्छा करने पर तो मन सभी जगह जा सकता है, किन्तु इस शरीर को प्रयत्न करके चलना सीखने मे ही कितना समय बीत जाता है। हमारे सभी आदर्शों के सम्बन्ध मे भी यही बात है। आदर्श हमसे बहुत दूर है, और हम उनसे बहुत नीचे पडे हुये है, तथापि हम जानते है कि हमे एक आदर्श मान कर रखना आवश्यक है। इतना ही नही, हमे सर्वोच्च आदर्श रखना ही आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति इस जगत् मे कोई आदर्श लिये बिना ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते है। जिसका एक निश्चित आदर्श है वह यदि एक हजार भूलों मे पड़ सकता है तो जिसका कोई भी आदर्श नहीं है वह दस हज़ार भूल करेगा यह निश्चय है। अतएव  एक युवा -आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) को अपना मर्दर्शक नेता के रूप  में सदैव अपने सामने रखना ही अच्छा है।)
"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।। - अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उन चित्तवृत्तियों का निरोध होता है। हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं।  रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है।  इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं।  अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है।  वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है। 
आलस्य और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं। महिषासुर कहीं बाहर नहीं , हमारे अंतर में ही  आलस्य और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं।  यह आलस्य  रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है। अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा। हमारे चैतन्य (मन वस्तु- चित्त) में सदा से एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है, और वह इस जीवन के अंत तक चलती रहेगी। 
 एक शक्ति हमें ऊपर परमात्मा की ओर खींच रही है, व दूसरी शक्ति नीचे वासनाओं की ओर।  हम बीच में असहाय हैं।  जो शक्ति नीचे की ओर खींच रही है वह बड़ी आकर्षक और सुहावनी है, पर अंततः दुःखदायी है।  जो शक्ति ऊपर खींच रही है वह लग तो रही है कष्टमय, पर परिणाम में स्थायी आनंददायक है। सूक्ष्म देह में मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्रों से होते हुए सहस्त्रार तक एक अति-अति सूक्ष्म प्राण शक्ति प्रवाहित हो  रही है, उसके प्रति सजग रहें।  सुषुम्ना में नीचे के तीन चक्रों में यदि चेतना रहेगी तो वह अधोगामी होगी और ऊपर के तीन चक्रों में ऊर्ध्वगामी।  अपनी चेतना को सदा प्रयासपूर्वक उत्तरा-सुषुम्ना में यानि आज्ञाचक्र से ऊपर रखें।  
अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण प्रेम -अपने इष्टदेव या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द को दें;  निश्चित रूप से कल्याण होगा।  अपने आदर्श - स्वामी विवेकानन्द से प्रेम और उनके प्रेम-रूप (छवि) पर अनवरत, निरंतर प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
 गीता में भी भगवान कहते हैं ..."असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। 
व्यासदेव [५००० वर्ष पहले ही मानो व्यासदेव जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा !] कहते हैं - मनुष्य के चित्त-नदी का प्रवाह 'उभयतो वाहिनी' है, दोनों दिशाओं में होता रहता है। लेकिन मन में लालच के भाव को थोड़ा कम करते हुए 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा एक दिशा में (आत्मोन्मुखी या उर्ध्वमुखी) जाने से मन शान्त होता है, शक्तिशाली होता, असाध्य को भी साधने की शक्ति अर्जित करता है और मनुष्य के जीवन को कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करा देता है। जबकि दूसरी दिशा में (संसारोन्मुखी या निम्नोमुखी ) जाने से और अधिक चंचल हो जाता है, दुर्बल हो जाता है और निस्तेज होकर मनुष्य जीवन को नष्ट कर पशु तुल्य बना देता है। जैसे कि खाद्य-पदार्थ भी दो प्रकार के होते हैं- एक प्रकार का आहार लेने से शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और शक्तिशाली बन जाता है। जबकि दुसरे प्रकार का आहार स्वादिष्ट होने पर शरीर को दुर्बल और रोगी बनाता है। 
                     प्रयत्न के द्वारा (विवेक-दर्शन के अभ्यास के द्वारा) हम अपने मन के प्रवाह को कल्याण की दिशा में मोड़ सकते हैं। उसे शाश्वतसुख और नश्वरसुख, या श्रेय-प्रेय में अंतर समझाकर अच्छे रास्ते पर (ऊर्ध्वमुखी रखने) लाने से जीवन सुन्दर हो जाता है। लेकिन मन को मनमानी करने के लिये छोड़ देने से जीवन व्यर्थ हो जाता है। इसलिये 'वासना और धन ' (Lust and Lucre) के लालच या प्रलोभन से सम्मोहित न होकर 'मनः संयोग' का नियमित अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास) करने से मन वश में हो जाता है। कहा भी गया है - 'करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात से सिल पर परत निसान॥' मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा शान्त और नियंत्रित मन के माध्यम से जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने से ही बहुमूल्य मनुष्य-जन्म  को सार्थक बनाया जा सकता है। योगसूत्र  (1.12)  के व्यास भाष्य में इसे "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी कहा गया है :-  " चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। " 

"कोशिश करने वालों की हार नहीं होती "

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, 
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।।

 मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, 
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना नहीं अखरता है।
 आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, 
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
 मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, 
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।।
 
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
 कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
 क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।। 

जब तक न सफल हो, नींद-चैन को त्यागो तुम, 
संघर्षों का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
 कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, 
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
-----सोहन लाल द्विवेदी।]

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।- कबीर 

अर्थ : 'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ' जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है।  लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
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