सोमवार, 24 मई 2021

#$#$#$# $# परिच्छेद ~ 56, [(10 अक्टूबर, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *'Why should I be one-sided?रसो वै सः* भावावेश में जगनमाता के साथ श्री रामकृष्ण का वार्तालाप*श्रीरामकृष्ण का बलराम के पिता को उपदेश -1. " ईश्वर सगुण हैं और निर्गुण भी हैं, निराकार हैं और साकार भी *सर्वधर्म-समन्वय *2.*राधा-कृष्ण लीला का अर्थ - रस और रसिक *3 तीर्थाटन, गले में माला , वैष्णव- भेष धारण कब तक ? *साईं के बाद और कुछ नहीं रह जाता *5 - व्याकुल होओ !*श्री रामकृष्ण द्वारा एक वैरागी वैष्णव का वेश-धारण और राम-मंत्र ग्रहण* *श्रीरामकृष्ण के 'व्यष्टि अहं' का, माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरण**सर्वधर्म-समन्वय और श्रीरामकृष्ण* "वैष्णव, शाक्त, शैव और वेदान्तवादी " भक्त चार प्रकार के होते हैं । प्रवर्तक, साधक, सिद्ध और सिद्ध का सिद्ध । सभी पथों तथा सभी मतों के लोग, श्रीरामकृष्ण के पास आएँगे और आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे!"

[(10 अक्टूबर, 1883) परिच्छेद ~ 56~[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद ~ ५६* 

*अधर के मकान पर दुर्गापूजा-महोत्सव में*

(१)

*श्रीरामकृष्ण द्वारा श्रीदुर्गामाई की संध्या आरती का दर्शन *

श्री अधर के मकान पर नवमी-पूजा के दिन दालान में श्रीरामकृष्ण खड़े हैं । सन्ध्या के बाद श्रीदुर्गामाई की आरती देख रहे हैं । अधर के घर पर दुर्गापूजा का महोत्सव है । इसलिए वे श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रित करके लाए हैं ।

[শ্রীযুক্ত অধরের বাড়িতে ৺নবমীপূজার দিনে ঠাকুরদালানে শ্রীরামকৃষ্ণ দণ্ডায়মান। সন্ধ্যার পর শ্রীশ্রীদুর্গার আরতি দর্শন করিতেছেন। অধরের বাড়ি দুর্গাপূজা মহোৎসব, তাই তিনি ঠাকুরকে নিমন্ত্রণ করিয়া আনিয়াছেন।

Adhar had invited the Master to come to his house on the occasion of the Durga Puja festival. It was the third day of the worship of the Divine Mother. When Sri Ramakrishna arrived at Adhar's house, he found Adhar's friend Sarada, Balaram's father, and Adhar's neighbours and relatives waiting for him.

आज बुधवार है । 10 अक्टूबर 1883 ई. । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ पधारे हैं । उनमें बलराम के पिता तथा अधर के मित्र स्कूल-इन्स्पेक्टर सारदाबाबू भी आए हैं । अधर ने पूजा के उपलक्ष्य में पड़ोसी तथा आत्मीयजनों को भी निमन्त्रण दिया है । वे भी आए हैं ।

श्रीरामकृष्ण सन्ध्या की आरती देखकर भावविभोर होकर पूजा के दालान में खड़े हैं । भावाविष्ट होकर माँ को गाना सुना रहे हैं ।

अधर गृही भक्त हैं । और भी अनेक गृही भक्त उपस्थित हैं । वे सब त्रितापों से तापित हैं सम्भव है इसीलिए श्रीरामकृष्ण सभी के मंगल के लिए जगन्माता की स्तुति कर रहे हैं- 

[অধর গৃহীভক্ত, আবার অনেক গৃহীভক্ত উপস্থিত, ত্রিতাপে তাপিত। তাই বুঝি শ্রীরামকৃষ্ণ সকলের মঙ্গলের জন্য জগন্মাতাকে স্তব করিতেছেন:

[The Master went into the worship hall to see the evening worship. When it was over, he remained standing there in an abstracted mood and sang in praise of the Divine Mother:

ॐ श्रीरामकृष्ण: तारो तारिणी। एबार तारो त्वरित कोरिये, 

तपन-तनय- त्रासे त्रासित, जाय माँ प्राणी।। 

जगत अम्बे  जन- पालिनी, जन- मोहिनी जगत- जननी। 

यशोदा जठरे जनम लोईये सहाय हरी लीलाय।।

वृन्दावने राधाविनोदिनी, व्रजवल्लभ- विहारिणी। 

रासरंगीनी रसमयी होये रास कोरिले लीलाप्रकाश।।

गिरिजा गोपजा गोविंद मोहिनी, तुमि मा गंगे गतिदायिनी;

गांधर्विके गौरवरणी गाओ जे गोलोके गुण तोमार। 

शिवे सनातनी शर्वाणी, ईशानी सदानन्दमयी सर्व-स्वरुपिणी,

सगुणा निर्गुणा सदाशिव- प्रिये के जाने महिमा तोमार ! 


তার তারিণী। এবার তারো ত্বরিত করিয়ে,

তপন-তনয়-ত্রাসে ত্রাসিত, যায় মা প্রাণী ৷৷

জগত অম্বে জন-পালিনী, জন-মোহিনী জগত-জননী।

যশোদা জঠরে জনম লইয়ে সহায় হরিলীলায় ৷৷

বৃন্দাবনে রাধাবিনোদিনী, ব্রজবল্লভবিহারকারিণী।

রাসরঙ্গিনী রসময়ী হয়ে রাস করিলে লীলাপ্রকাশ ৷৷

গিরিজা গোপজা গোবিন্দ মোহিনী তুমি মা গঙ্গে গতিদায়িনী;

গান্ধার্বিকে গৌরবরণী গাওয়ে গোলকে গুণ তোমার।

শিবে সনাতনী সর্বাণী ঈশানী সদানন্দময়ী সর্বস্বরূপিণী,

সগুণা নির্গুণা সদাশিবপ্রিয়ে কে জানে মহিমা তোমার!

(संगीत का भावार्थ)-

(गिरिजा-तारा)  “हे माँ भव-तारिणी ! मुझे तारो । अब की बार शीघ्र तारो । हे माँ, जीवगण यम से भयभीत हो गए हैं । हे जगज्जननि ! संसार को पालनेवाली ! लोगों को मोहनेवाली जगज्जननि ! तुमने यशोदा की कोख में जन्म लेकर हरि की लीला में सहायता की थी; तुमने वृन्दावन में राधा बन व्रजवल्लभ के साथ विहार किया । रास रचकर रसमयी तुमने रासलीला का प्रकाश किया । हे माँ, तुम गिरिजा हो, गोपतनया हो, गोविन्द की मनमोहिनी हो, तुम सद्गति देनेवाली गंगा हो हे गौरि, सारा विश्व तुम्हारा गुणगान गाता है । हे शिवे ! हे सनातनि ! सदानन्दमयी सर्वस्वरूपिणि ! हे निर्गुणे, हे सगुणे ! हे सदाशिव की प्रिये ! तुम्हारी महिमा को कौन जानता है !

[Out of my deep affliction rescue me, O Redeemer! Terrified by the threats of the King of Death am I! Left to myself, I shall perish soon; Save me, oh, save me now, I pray! Mother of all the worlds! Thou, the Support of mankind! Thou, the Bewitcher of all, the Mother of all that has life! Vrindavan's charming Radha art Thou, Dearest playmate of Braja's Beloved. Blissful comrade of Krishna, well-spring of Krishna's lila, Child of Himalaya, best of the gopis, beloved of Govinda! Sacred Ganga, Giver of moksha! Sakti! The universe sings Thy praise. Thou art the Spouse of Siva, the Ever-blessed, the All; Sometimes Thou takest form and sometimes art absolute. Eternal Beloved of Mahadeva, Who can fathom Thine infinite glories?

(भावावेश में जगनमाता के साथ श्री रामकृष्ण का वार्तालाप) 

*मैंने भोजन कर लिया ,अब तुमलोग प्रसाद पाओ ! *

श्रीरामकृष्ण अधर के मकान के दुमँजले पर बैठकघर में बैठे हैं । कमरे में अनेक आमन्त्रित व्यक्ति आए हैं । बलराम के पिता और सारदाबाबू आदि पास बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण अभी भी भावविभोर हैं । आमन्त्रित व्यक्तियों को सम्बोधित कर कह रहे हैं, “मैंने भोजन कर लिया है; अब तुम लोग भी भोजन करो (प्रसाद पाओ !) ।” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ অধরের বাড়ির দ্বিতল বৈঠকখানায় গিয়া বসিয়াছেন। ঘরে অনেক নিমন্ত্রিত ব্যক্তি আসিয়াছেন। বলরামের পিতা ও সারদাবাবু প্রভৃতি কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর এখনও ভাবাবিষ্ট। নিমন্ত্রিত ব্যক্তিদের সম্বোধন করিয়া বলিতেছেন, “ও বাবুরা, আমি খেয়েছি, এখন তোমরা নিমন্ত্রণ খাও।”

The Master went to Adhar's drawing-room on the second floor and took a seat, surrounded by the guests. Still in a mood of divine fervour, he said: "Gentlemen, I have eaten. Now go and enjoy the feast." Was the Master hinting that the Divine Mother had partaken of Adhar's offering? Did he identify himself with the Divine Mother and therefore say, "I have eaten"?

अधर की पूजा और नैवेद्य को माँ ने ग्रहण किया है; क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण जगन्माता के आवेश में आकर कह रहे हैं, ‘मैंने खा लिया है; अब तुम लोग भी प्रसाद पाओ’?

श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट होकर जगन्माता से कह रहे हैं, “माँ ! मैं खाऊँ ? या तुम खाओगी ? माँ, कारणानन्दरूपिणी ( the Wine of Divine Bliss) ।”

 क्या श्रीरामकृष्ण जगन्माता को और अपने को एक ही देख रहे हैं ! जो माँ हैं, क्या वही स्वयं लोक-शिक्षा के लिए पुत्र (C-IN-C नवनीदा) के रूप में अवतीर्ण हुई हैं ? क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण भाव के आवेश में कह रहे हैं, मैंने भोजन कर लिया है ? 

[ঠাকুর জগন্মাতাকে ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন, “মা আমি খাব? না, তুমি খাবে? মা কারণানন্দরূপিণী।”শ্রীরামকৃষ্ণ কি জগন্মাতাকে ও আপনাকে এক দেখিতেছেন? যিনি মা তিনিই কি সন্তানরূপে লোকশিক্ষার জন্য অবতীর্ণ হইয়াছেন? তাই কি ঠাকুর “আমি খেয়েছি” বলছেন?

Then, addressing the Divine Mother, he continued: "Shall I eat, O Mother? Or will You eat? O Mother, the very Embodiment of the Wine of Divine Bliss!" Did the Master look on himself as one with the Divine Mother? Had the Mother incarnated Herself as the Son to instruct mankind in the ways of God? Was this why the Master said, "I have eaten"?

इसी प्रकार भाव के आवेश में देह के बीच षट्चक्र और उसमें माँ को देख रहे हैं । इसलिए फिर भाव-विभोर होकर गाना गा रहे हैं - भुवन भुलाइली माँ , हरमोहिनी !

[In that state of divine ecstasy Sri Ramakrishna saw the six centres in his body, and the Divine Mother dwelling in them. He sang a song to that effect.

भूवन भूलाईलि मा, हरमोहिनी

मूलाधारे महोत्पले वीणावाद्य-विनोदिनी॥

शरीर शारीर यन्त्रे,          सुषुम्नादि त्रय तंत्रे

गुण भेदे महामंत्रे तिनग्राम संचारिणी ।

आधार भैरवाकार,          षडदले श्रीराग आर

 मणिपूरेते मल्लार,  बसंते हृदप्रकाशिनी;

विशुद्ध हिन्दोल सूरे,       कर्नाटक आज्ञापूरे

तान-मान-लय-सूरे त्रिसप्त-सूरभेदिनी ॥

महामाया मोहपाशे,        बद्ध करो अनायासे,

 तत्त्व लये तत्त्वाकाशे स्थिर आछे सौदामिनी।

श्रीनंदकूमार कय, तत्त्व ना निश्चय हय,

तव तत्त्व गुणत्रय काकीमुख-आच्छादिनी॥

 (महाराज नंदकूमार राय)

ভুবন ভুলাইলি মা, হরমোহিনী।

মূলাধারে মহোৎপলে, বীণাবাদ্য-বিনোদিনী ৷৷

শরীর শারীর যন্ত্রে সুষুম্নাদি ত্রয় তন্ত্রে,

গুণভেদ মহামন্ত্রে গুণত্রয়বিভাগিনী ৷৷

আধার ভৈরবাকার, ষড়্‌ দলে শ্রীরাগ আর।

মণিপুরেতে মহ্লার বসন্তে হৃৎপ্রকাশিনী ৷৷

বিশুদ্ধ হিল্লোল সুরে, কর্ণাটক আজ্ঞাপুরে।

তান-লয়-মান-সুরে ত্রিসপ্ত-সুরভেদিনী ৷৷

মহামায়া মোহপাশে বদ্ধ কর আনায়াসে।

তত্ত্ব লয়ে তত্ত্বাকাশে স্থির আছে সৌদামিনী ৷৷

শ্রীনন্দকুমারে কয়, তত্ত্ব না নিশ্চয় হয়।

তব তত্ত্ব গুণত্রয় কাকীমুখ-আচ্ছাদিনী ৷৷

(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू विणावादनकरती हुई चित्तविनोदन करती है । महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है मूलाधारचक्र में तू भैरव राग के रूप में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है । तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है । हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान हैं । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता । तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है ।”

उन्होंने फिर गाया:

भाब कि भेबे परान गेलो।


जार नामे हरे काल, पदे महाकाल, तार केनो कालोरुप होलो।।

कालोरुप अनेक आछे, ए बोड़ो आश्चर्य कालो। 

जाँरे हृदि माझारे राखले पारे हृदय पद्म कोरे आलो।।

नामे काली, रुपे काली, कालो होते अधिक कालो।

ओ रुपे जे देखेछे, शे मेजेछे अन्यरुप लागे ना भालो।।

प्रसाद बोले कुतुहले, एमोन मेये कोथाय छिलो। 

जारे ना देखे , नाम शुने काने- मन गिये ताय लिप्त होलो।। 

भाब कि भेबे परान गेलो।

जार नामे हरे काल, पदे महाकाल, तार केनो कालोरुप होलो।। 

ভাব কি ভেবে পরাণ গেল। 

যাঁর নামে হরে কাল, পদে মহাকাল, তাঁর কেন কালরূপ হল ৷৷

কালরূপ অনেক আছে, এ-বড় আশ্চর্য কালো,

যাঁরে হৃদিমাঝে রাখলে পরে হৃদপদ্ম করে আলো ৷৷

রূপে কালী, নামে কালী কাল হতে অধিক কালো।

ও-রূপ যে দেখেছে, সে মজেছে অন্যরূপ লাগে না ভাল ৷৷

প্রসাদ বলে কুতুহলে এমন মেয়ে কোথায় ছিল।

না দেখে নাম শুনে কানে মন গিয়ে তায় লিপ্ত হল ৷৷

(भावार्थ)- “माँ के गूढ़ तत्त्वों को सोचते सोचते प्राणों पर आ बीती । जिसके नाम से कालभय नष्ट होता है, जिसके चरणों के नीचे महाकाल है, उसका काला रूप क्यों हुआ ? काले रूप अनेक हैं, पर यह बड़ा आश्चर्यजनक काला रूप है, जिसे हृदय के बीच में रखने पर हृदयरूपी पद्म आलोकित हो जाता है। रूप में काली है, नाम में काली है, काले से भी अधिक काली है । जिसने इस रूप को देखा है, वह मोहित हो गया है, उसे दूसरा रूप अच्छा नहीं लगता ।‘प्रसाद’ आश्चर्य के साथ कहता है कि ऐसी लड़की कहाँ थी, जिसे बिना देखे, केवल कान से जिसका नाम सुनकर ही मन जाकर उससे लिप्त हो गया !”

[My mind is overwhelmed with wonder, Pondering the Mother's mystery; Her very name removes. The fear of Kala, Death himself; Beneath Her feet lies Maha-Kala. Why should Her hue be kala, black? Many the forms of black, but She Appears astoundingly black; When contemplated in the heart, She lights the lotus that blossoms there. Her form is black, and She is named Kali, the Black One. Blacker than black, Is She! Beholding Her, Man, is bewitched for evermore; No other form can he enjoy. In wonderment asks Ramprasad: Where dwells this Woman so amazing? At Her mere name, his mind Becomes at once absorbed in Her, Though he has never yet beheld Her.

अभया की शरण में जाने से सभी भय दूर हो जाते हैं, सम्भव है इसीलिए वे भक्तों को अभयदान दे रहे हैं और गाना गा रहे हैं- " अभय पदे प्राण सँपेछि, आमि आर कि यमेर भय रेखेछि ?"  

(भावार्थ) – “मैंने अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, फिर क्या यम मैं भयभीत हो जाऊँगा ” इत्यादि।

[I have surrendered my soul at the fearless feet of the Mother; Am I afraid of Death any more? Unto the tuft of hair on my head. Is tied the almighty mantra, Mother Kali's name. My body I have sold in the market-place of the world And with it have bought Sri Durga's name. Deep within my heart I have planted the name of Kali, The Wish-fulfilling Tree of heaven; When Yama, King of Death, appears, To him I shall open my heart and show it growing there. I have cast out from me my six unflagging foes;5Ready am I to sail life's sea, Crying, "To Durga, victory!"

श्री सारदाबाबू पुत्र-शोक से अत्यन्त व्यथित हैं । इसलिए उनके मित्र अधर उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास लाये हैं । वे गौरांग के भक्त हैं । उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण में श्रीगौरांग का उद्दीपन हुआ है । 

[শ্রীযুক্ত সারদাবাবু পুত্রশোকে অভিভূত, তাই তাঁর বন্ধু অধর তাঁহাকে ঠাকুরের কাছে লইয়া আসিয়াছেন। তিনি গৌরাঙ্গ ভক্ত। তাঁহাকে দেখিয়া শ্রীরামকৃষ্ণের শ্রীগৌরাঙ্গের উদ্দীপন হইয়াছে। ঠাকুর গাহিতেছেন:

\Sarada was stricken with grief on account of his son's death. So Adhar had taken him to Dakshineswar to visit the Master. Sarada was a devotee of Sri Chaitanya. Sri Ramakrishna looked at him and was inspired with the ideal of Gauranga.

श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं- आमार अंग केन गौर हल, आमार अंग केन गौर हल।  कि करले रे धनी , अकाले सकाल केले , अकालेते बरन धराले।। 

(भावार्थ) – “मेरा अंग क्यों गौर हुआ ? ^ इत्यादि ।

[The song represents the words of Gauranga in the mood of Krishna. Gauranga, who had a golden complexion, is regarded as an Incarnation of Krishna

यह गीत कृष्ण के भाव में गौरांग के शब्दों का प्रतिनिधित्व करता है। सुनहरे रंग वाले गौरांग को कृष्ण का अवतार माना जाता है।

आमार अंग केनो गौर (ओ गौर होलो रे!)

कि करले धनी, अकाले सकाल कैले (कोइले)

अकालेते बरण धराले॥

एखोन तो, गौर होते दिन, बाकि आछे। 

एखोन तो द्वापर लीला, शेष होय नाई। 

एकि होलो रे! कोकिल मयूर, सकलइ गौर

जे दिके फिराइ आंखि (एकि होलो रे)

एकि एकि, गौरमय सकल देखि ।

राइ बुझि मथुराय एलो, ताइ ते अंग गौर होलो!

धनी कुमुरिये पोका छिलो, ताइते आपनार वरण धराइलो।

एखनि जे अंग कालो छिलो, देखते-देखते गौर होलो।

राइ भेबे कि राइ होलाम (एकि रे)

जे राधामन्त्र जप ना करे, राइ धनी कि आपनार बरण धराय तारे।

मथुराय आमि कि नवद्विपे आमि, किछु ठाओराते नारि रे। 

एखनओ तो, महादेव अद्वैत होय नाइ,विशाखा रामानन्द होय नाई।

एखनओ तो ब्रह्माहरिदास होय नाइ,एखनओ तो नारद श्रीवास होय नाइ। 

एखनओ तो, मा यशोदा शची होय नाइ,एकाइ केनो आमि गौर। 

(जखन बलाइ दादा निताइ होय नाइ तखन)

तबे ताइ बुझि मथुराय ऐलो, ताइते कि अंग आमार गौर होलो।

(अतएव बुझि आमि गौर) एखन तो, पिता नन्द जगन्नाथ होय नाई।

एखन तो श्रीराधिका गदाधर होय नाई,आमार अंग केनो गौर होलो॥

.আমার অঙ্গ কেন গৌর হল। 

কি করলে রে ধনী, অকালে সকাল কৈলে, অকালেতে বরণ ধরালে ৷৷

এখন তো গৌর হতে দিন, বাকি আছে!

এখন তো দ্বাপর লীলা, শেষ হয় নাই!

একি হল রে! কোকিল ময়ূর, সকলই গৌর।

যেদিকে ফিরাই আঁখি (একি হল রে)।

একি, একি, গৌরময় সকল দেখি ৷৷

রাই বুঝি মথুরায় এল, তাইতো অঙ্গ বুঝি গৌর হল!

ধনী কুমুরিয়ে পোকা ছিল, তাইতে আপনার বরণ ধরাইল।

এখনি যে অঙ্গ কালো ছিল, দেখতে দেখতে গৌর হল!

রাই ভেবে কি রাই হলাম। (একি রে)

যে রাধামন্ত্র জপ না করে, রাই ধনী কি আপনার বরণ ধরায় তারে।

মথুরায় আমি, কি নবদ্বীপে আমি, কিছু ঠাওরাতে নারি রে!

এখনও তো, মহাদেব অদ্বৈত হয় নাই (আমার অঙ্গ কেন গৌর)।

এখনও তো বলাই দাদা নিতাই হয় নাই, বিশাখা রামানন্দ হয় নাই।

এখনও তো ব্রহ্মা হরিদাস হয় নাই, এখনও তো নারদ শ্রীবাস হয় নাই।

      এখনও তো মা যশোদা শচী হয় নাই।

একাই কেন আমি গৌর (যখন বলাইদাদা নিতাই হয় নাই তখন)

তবে রাই বুঝি মথুরায় এল, তাইতে কি অঙ্গ আমার গৌর হল।

(অতএব বুঝি আমি গৌর) এখনও তো, পিতা নন্দ জগন্নাথ হয় নাই।

এখনও তো শ্রীরাধিকা গদাধর হয় নাই। আমার অঙ্গ কেন গৌর হল ৷৷

Why has My body turned so golden? It is not time for this to be: Many the ages that must pass, before as Gauranga I appear. Here in the age of Dwapara My sport is not yet at an end; How strange this transformation is! The peacock glistens, all of gold; and golden, too, the cuckoo gleams! Everything around Me here has turned to gold! Naught else appears But gold, whichever way I look. What can it mean, this miracle, that everything I see is gold?Ah, I can guess its meaning now: Radha has come to Mathura,7 and that is why My skin is gold .For she is like the brahmara,8 (भ्रमर -कीट न्याय)  and so has given Me her hue. Dark blue My body was but now; yet in the twinkling of an eye It turned to gold. Have I become Radha by contemplating her? I cannot imagine where I am — in Mathura or Navadvip. But how could this have come to pass? Not yet is Balarama born as Nitai, nor has Narada Become Srivas, nor Yasoda as Mother Sachi yet returned. Then why should I, among them all, alone assume a golden face? Not yet is Father Nanda born as Jagannath;9 then why should I Be thus transmuted into gold? Perhaps because in Mathura sweet Radha has appeared, My skin Has borrowed Gauranga's golden hue. 

अब श्रीगौरांग के भाव में आविष्ट हो गाना गा रहे हैं । कह रहे हैं, सारदाबाबू यह गाना बहुत चाहते हैं ।

Sri Ramakrishna sang again, still overpowered with the ideal of Gauranga:

भाब होबे बै कि रे! भाब हासे कांदे नाचे गाय। 

बन देखे वृंदावन भाबे; सुरधुनी देखे श्रीयमुना भाबे,

गोरा फुकुरि फुकुरि कांदे। 

(जार अंत:कृष्ण बहिर्गौर) (गोरा आपनार पाय आपनि धरे)

बोलो कथा राई प्रेममय़ी। 

ভাব হবে বই কি রে (ভাবনিধি শ্রীগৌরাঙ্গের)

ভাবে হাসে কাঁদে নাচে গায়।

বন দেখে বৃন্দাবন ভাবে। সুরধনী দেখে শ্রীযমুনা ভাবে।

গোরা ফুকরি ফুকরি কান্দে! (যার অন্তঃ কৃষ্ণ বহির্গৌর)

গোরা আপনার পা আপনি ধরে ৷৷ 

(भावार्थ) – “भावनिधि गौरांग का भाव होगा नहीं तो क्या ? भाव में हँसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं। वन देखकर वृन्दावन समझते हैं । गंगा देख उसे यमुना मान लेते हैं । गौरांग सिसक-सिसककर रो रहे हैं । यद्यपि वे बाहर ‘गोर’ हैं तथापि भीतर वे ‘कृष्ण’ हैं ।

 Surely Gauranga is lost in a state of blissful ecstasy; In an exuberance of joy, he laughs and weeps and dances and sings. He takes a wood for Vrindavan, the Ganges for the blue Jamuna; Loudly he sobs and weeps. Yet, though he is all gold without, He is all black within — black with the blackness of Krishna!

पाड़ार लोके गोल करे माँ , आमाय बले गौर कलंकिनी। 

एकि कोईबार कथा कोइबो कोथा ; लाजे मलाम ओगो प्राण सजनी। 

পাড়ার লোকে গোল করে মা,আমায় বলে গৌর কলঙ্কিনী।

একি কইবার কথা কইবো কোথা;লাজে মলাম ওগো প্রাণ সজনী।

একদিন শ্রীবাসের বাড়ি, কীর্তনের ধুম হুড়াহুড়ি;

গৌরচাঁদ দেন গড়াগড়ি শ্রীবাস আঙিনায়;

আমি একপাশে দাঁড়িয়া ছিলাম, (একপাশে নুকায়ে),

আমি পড়লাম অচেতন হয়ে, চেতন করায় শ্রীবাসের রমণী।

একদিন কাজীর দলন, গৌর করেন নগর কীর্তন,

চণ্ডালাদি যতেক যবন, গৌর সঙ্গেতে;

হরিবোল হরিবোল বলে, চলে যান নদের বাজার দিয়ে,

আমি তাদের সঙ্গে গিয়ে,

দেখেছিলাম রাঙা চরণ দুখানি।

একদিন জাহ্নবীর তটে; গৌরচাঁদ দাঁড়ায়ে ঘাটে,

চন্দ্রসূর্য উভয়েতে, গৌর অঙ্গেতে;

দেখে গৌর রূপের ছবি, ভুলে গেল শাক্ত শৈবী,

আমার কলসী পড়ে গেল দৈবী, দেখেছিল পাপ ননদিনী ৷৷ 

(भावार्थ) - “माँ ! पड़ोसी लोग हल्ला मचाते हैं । मुझे गौरकलंकिनी कहते हैं ? क्या यह कहने की बात है? कहाँ कहूँगी ? ओ प्यारी सखि, लज्जा से मरी जाती हूँ । 

एक दिन श्रीवास के मकान में कीर्तन की धूम मची हुई थी; गौररुपी चन्द्रमा श्रीवास के आँगन पर लोटपोट हो रहा था । मैं एक कोने में खड़ी थी। एक ओर छिपी हुई थी । मैं बेहोश हो गयी । श्रीवास की धर्मपत्नी मुझे होश में लायी । 

एक दिन गौर नगरकीर्तन कर रहे थे; चाण्डाल, यवन आदि भी गौर के साथ थे । वे ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कहते हुए नदिया के बाजारों में से चले जा रहे थे । मैंने उनके साथ जाकर दो रक्तिम चरणों के दर्शन किए थे ।

एक दिन गंगातट पर घाट पर गौरांग प्रभु खड़े थे । मानो चन्द्र और दूरी दोनों ही गौर के अंग में प्रकट हुए थे । गौर के रूप को देखकर शाक्त और शैव भूल गए । एकाएक मेरा घड़ा गिर पड़ा ! दुष्ट ननदिया ने देख लिया था ।” 

बलराम के पिता वैष्णव हैं; सम्भव है इसीलिए अब श्रीरामकृष्ण गोपियों के दिव्य प्रेम का गाना गा रहे हैं।

 श्यामेर नागाल पेलाम ना गो सेइ, 

श्यामेर नागाल पेलाम ना (गो) सई,आमि कि सुखे आर घरे रोई॥

श्याम यदि मोर होतो माथार चूल, 

यतन कोरे बांधतुम बेणी सई, दिये बकुल फूल। 

(केशव-केश यतने बांधतुम सई) (केऊ नकते परतो ना सई)

(श्याम कालो आर केश कालो) (कालोय कालो मिशे जेतो गो)

श्याम यदि मोर बेशर होइतो) (नाशा माझे सतत रोइतो)

(अधर चांद अधरे र’त सई) (जा होबार नय, ता मने होयगो)

(श्याम केनो बेशर होबे’ सई)

श्याम मोर यदि कंकण होतो, बाहु माझे सतत रोईतो। 

(कंकण नाडा दिये चले जेतुम सई) (बाहु नाडा दिये)

(श्याम कंकण हात दिये, चले जेतुम सई, राजपथे)

শ্যামের নাগাল পেলাম না গো সই।  

আমি কি সুখে আর ঘরে রই।

শ্যাম যদি মোর হত মাথার চুল।

যতন করে বাঁধতুম বেণী সই, দিয়ে বকুল ফুল ৷৷

শ্যাম যদি মোর কঙ্কন হত বাহু মাঝে সতত রহিত।

(কঙ্কন নাড়া দিয়ে চলে যেতুম সই) (বাহু নাড়া দিয়ে)

(শ্যাম-কঙ্কন হাতে দিয়ে) (চলে যেতুম সই) (রাজপথে)

(भावार्थ) – “सखि, श्याम को पा न सकी, तो फिर किस सुख से घर पर रहूँ ? 

यदि श्याम मेरे सिर के केश होते तो हे सखि, मैं उसमें बकुल फूल पिरोकर यत्न के साथ वेणी बाँध लेती। श्याम यदि मेरे हाथ के कंगन होते, तो सदा बाँहों में लगे रहते ।

 सखि, मैं कंगन हिलाकर, बाँह हिलाकर चली जाती । हे सखि ! मैं श्यामरुपी कंगन को हाथ में पहनकर सड़कों पर से चली जाती । 

जिस समय श्याम अपनी बाँसुरी बजाता है, तो मैं यमुना में जल लेने आती हूँ । मैं भटकी हुई हरिणी की तरह इधर-उधर ताकती रहती हूँ ।”

(२)

*श्रीरामकृष्ण का बलराम के पिता को उपदेश -सर्वधर्म-समन्वय *

[*"अद्वैतस्वरूप श्रीरामकृष्ण " के निकट 'वैष्णव, शाक्त, शैव और वेदान्तवादी,' सभी पथों तथा सभी मतों के लोग आएँगे और आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे! * क्योंकि श्रीरामकृष्ण के  'व्यष्टि अहं' का माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरण हो गया है ! *Shri Ramakrishna's individual ego has been transformed into the omnipresent 'I' - of Mother Jagadamba!*

बलराम के पिता की उड़ीसा प्रान्त में भद्रक, पूरी आदि कई स्थानों में जमींदारी है और वृन्दावन, पुरी, भद्रक आदि अनेक स्थानों में उनकी देवसेवा और अतिथिशालाएँ भी हैं । वे वृद्धावस्था में श्रीवृन्दावन में भगवान् श्यामसुन्दर के कुंज में उनकी सेवा में लगे रहते थे । 

बलराम के पिताजी पुराने मत के वैष्णव हैं । अनेक वैष्णव भक्त, शाक्त, शैव और वेदान्तवादियों के साथ सहानुभूति नहीं रखते हैं; कोई कोई उनसे द्वेष भी करते हैं । 

परन्तु श्रीरामकृष्ण इस प्रकार की संकीर्णता पसन्द नहीं करते । उनका कहना है की व्याकुलता रहने पर सभी पथों तथा सभी मतों से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है । 

अनेक वैष्णव भक्त बाहर से तो जप-जाप, पूजा-पाठ आदि करते हैं, परन्तु भगवान् को प्राप्त करने के लिये उनमें व्याकुलता नहीं है । सम्भव है इसीलिये श्रीरामकृष्ण बलराम के पिताजी को उपदेश दे रहे हैं।

[বলরামের পিতার ভদ্রক প্রভৃতি উড়িষ্যার নানাস্থানে জমিদারী আছে ও তাঁহাদের বৃন্দাবন, পুরী, ভদ্রক প্রভৃতি নানাস্থানে দেবসেবা অতিথিশালা আছে। তিনি শেষ জীবনে শ্রীবৃন্দাবনে ৺শ্যামসুন্দরের কুঞ্জে তাঁহার সেবা লইয়া থাকিতেন।বলরামের পিতা মহাশয় পুরাতন বৈষ্ণব। অনেক বৈষ্ণবভক্তেরা শাক্ত, শৈব ও বেদান্তবাদীদের সঙ্গে সহানুভূতি করেন না; কেহ কেহ তাঁদের বিদ্বেশ করেন। শ্রীরামকৃষ্ণ কিন্তু এরূপ সঙ্কীর্ণ মত ভালবাসেন না। তিনি বলেন যে, ব্যকুলতা থাকিলে সব পথ, সব মত দিয়া ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। অনেক বৈষ্ণবভক্ত বাহিরে মালা, গ্রন্থ পাঠ ইত্যাদি করেন কিন্তু ভগবানলাভের জন্য ব্যাকুলতা নাই। তাই বুঝি ঠাকুর বলরামের পিতা মহাশয়কে উপদেশ দিতেছেন।

Balaram's father was a wealthy man with estates in different parts of Orissa. An orthodox member of the Vaishnava sect, he had built temples and arranged for distribution of food to the pilgrims at various holy places. He had been spending the last years of his life in Vrindavan. The Vaishnavas, for the most part, are bigoted in their religious views. Some of them harbour malicious feelings toward the followers of the Tantra and Vedanta. But Sri Ramakrishna never encouraged such a narrow outlook. According to his teachings, through earnestness and yearning all lovers of God will ultimately reach the same goal. The Master began the conversation in order to broaden the religious views of Balaram's father.

 *आत्मज्ञानी को एक पक्षीय क्यों रहना चाहिए ? *

(श्री रामकृष्ण द्वारा एक वैरागी वैष्णव का वेश-धारण और राम-मंत्र ग्रहण) 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - सोचा, मैं क्यों एकांगी (एक पक्षीय) बनूँ ? मैंने भी वृन्दावन में वैष्णव वैरागी का भेष ग्रहण किया था । उस भाव में तीन दिन रहा । फिर दक्षिणेश्वर में राम-मन्त्र लिया था । लम्बा तिलक, गले में कंठी; फिर थोड़े दिनों के बाद सब कुछ हटा दिया । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ভাবলাম কেন একঘেয়ে হব। আমিও বৃন্দবনে বৈষ্ণব-বৈরাগীর ভেক লয়েছিলাম; তিনদিন ওই ভাবে ছিলাম। আবার দক্ষিণেশ্বরে রামমন্ত্র লয়েছিলাম; দীর্ঘ ফোঁটা, গলায় হীরা; আবার কদিন পরে সব দূর করে দিলাম।

MASTER (to M.): "Once I thought, 'Why should I be one-sided?' Therefore I was initiated into Vaishnavism in Vrindavan and took the garb of a Vaishnava monk. I spent three days practising the Vaishnava discipline. Again, at Dakshineswar I was initiated into the mystery of Rama worship. I painted my forehead with a long mark and put on a string with a diamond round my neck. But after a few days I gave them up.

*अधिक पुस्तकें न पढ़ो केवल भक्तिशास्त्र (चैतन्य चरितामृत)  का अध्ययन करो !"*

“एक आदमी के पास एक बर्तन था । लोग उसके पास कपड़ा रँगवाने के लिये जाते थे । बर्तन में एक रंग तैयार रहता । परन्तु जिसे जिस रंग की आवश्यकता होती, उस बर्तन में कपड़ा डुबाने से वह उसी रंग का हो जाता । यह देखकर एक व्यक्ति विस्मित होकर रंगवाले से कहता है की तुम स्वयं जिस रंग से रंगे हो वही रंग (मातृभक्ति) मुझे दो ।”

[“একজনের একটি গামলা ছিল। লোকে তার কাছে কাপড় ছোপাতে আসত। গামলায় রঙ গোলা আছে; কিন্তু যার যে রঙ দরকার ওই গামলাতে কাপড় ডোবালেই সেই রঙ হয়ে যেত। একজন তাই দেখে অবাক্‌ হয়ে রঙওয়ালাকে বলছে, এখন তুমি যে রঙে রঙেছ সেই রঙটি আমাকে দাও।”

"A certain man had a tub. People would come to him to have their clothes dyed. The tub contained a solution of dye. Whatever colour a man wanted for his cloth, he would get by dipping the cloth in the tub. One man was amazed to see this and said to the dyer, 'Please give me the dye you have in your tub.'"

क्या इस उदाहरण द्वारा श्रीरामकृष्ण यही कह रहे हैं कि सभी धर्मों के लोग उनके पास आएँगे और आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे ?

[Was the Master hinting that people professing different religions would come to him and have their spiritual consciousness awakened according to their own ideals?

श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “एक वृक्ष पर एक गिरगिट था ! एक व्यक्ति ने देखा हरा, दूसरे ने देखा काला और तीसरे ने पीला, इस प्रकार अलग अलग व्यक्ति अलग अलग रंग देख गये । बाद में वे आपस में विवाद कर रहे हैं । एक कहता है, वह जन्तु हरे रंग का है । दूसरा कहता है, नहीं लाल रंग का, कोई कहता है पीला, और इस प्रकार आपस में सब झगड़ रहे हैं । उस समय वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति बैठा था, सब मिलकर उसके पास गये । उसने कहा, ‘मैं इस वृक्ष के नीचे रातदिन रहता हूँ, मैं जानता हूँ, यह बहुरुपिया है । क्षण क्षण में रंग बदलता है, और फिर कभी कभी इसके कोई रंग नहीं रहता ।’

[শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন, “একটি গাছের উপর একটি বহুরূপী ছিল। একজন লোক দেখে গেল সবুজ, দ্বিতীয় ব্যক্তি দেখল কালো, তৃতীয় ব্যক্তি হলদে; এইরূপ অনেক লোক ভিন্ন ভিন্ন রঙ দেখে গেল। তারা পরস্পরকে বলছে, না জানোয়ারটি সবুজ। কেউ বলছে লাল, কেউ বলছে হলদে আর ঝগড়া করছে। তখন গাছতলায় একটি লোক বসেছিল তার কাছে সকলে গেল। সে বললে, আমি এই গাছতলায় রাতদিন থাকি, আমি জানি এইটু বহুরূপী। ক্ষণে ক্ষণে রঙ বদলায়। আবার কখন কখন কোন রঙ থাকে না।”

क्या श्रीरामकृष्ण यही कह रहे हैं की ईश्वर सगुण है, भिन्न भिन्न रूप धारण करता है और फिर निर्गुण है, कोई रूप नहीं, वाक्य मन से परे है ? और वे स्वयं भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि सभी पथों से ईश्वर के माधुर्य का रस पीते हैं ?

श्रीरामकृष्ण (बलराम के पिता के प्रति) – और अधिक पुस्तकें न पढ़ो, परन्तु भक्तिशास्त्र का अध्ययन करो, जैसे श्रीचैतन्यचरितामृत । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ কি বলিতেছেন যে, ঈশ্বর সগুণ, নানারূপ ধরেন? আবার নির্গুণ কোন রঙ নাই, বাক্যমনের অতীত? আর তিনি ভক্তিযোগ, জ্ঞানযোগ সব পথ দিয়াই ঈশ্বরের মাধুর্য রস পান করেন?শ্রীরামকৃষ্ণ (বলরামের পিতার প্রতি) — বই আর পড়ো না, তবে ভক্তিশাস্ত্র পড়ো যেমন শ্রীচৈতন্যচরিতামৃত।

MASTER (to Balaram's father): "Don't read books any more. But you may read books on devotion, such as the life of Chaitanya.'

https://www.facebook.com/ChaitanyaCharitawali/?ref=page_internal] 

* राधा-कृष्ण लीला का अर्थ* 

*वे अपने माधुर्य का आस्वादन लेने के दो बने हैं-रस और रसिक !*  

 [*#*रस (=भगवान ,कमल ,कृष्ण,ठाकुर) और रसिक (=भक्त-भँवरा ,राधा, माँ सारदा ) *# 

" असल बात यह है कि उनसे प्रेम करना चाहिए , उनके माधुर्य का आस्वादन करना चाहिए। वे रस हैं और भक्त रसिक ; भक्त उस रस का पान करते हैं। वे कमल हैं और भक्त भौंरा , भक्त उनके चरणकमलों को हृदय में धारण कर मधु पीता है। 

[“কথাটা এই, তাঁকে ভালবাসা, তাঁর মাধুর্য আস্বাদন করা। তিনি রস, ভক্ত রসিক সেই রস পান করে। তিনি পদ্ম, ভক্ত অলি। ভক্ত পদ্মের মধু পান করে।

"The whole thing is to love God and taste His sweetness. He is sweetness and the devotee is its enjoyer. The devotee drinks the sweet Bliss of God. Further, God is the lotus and the devotee the bee. The devotee sips the honey of the lotus.

" भक्त जिस प्रकार भगवान के बिना नहीं रह सकता , भगवान भी भक्त के बिना नहीं रह सकते ! उस समय भक्त रस बन जाता है और भगवान बनते हैं रसिक ; भक्त बनता है कमल  और भगवान बनते हैं भौंरा ! वे अपने माधुर्य का आस्वादन करने के लिए दो बने हैं , इसीलिए राधाकृष्ण- लीला हुई। "

[“ভক্ত যেমন ভগবান না হলে থাকতে পারে না, ভগবানও ভক্ত না হলে থাকতে পারেন না। তখন ভক্ত হন রস, ভগবান হন রসিক, ভক্ত হন পদ্ম, ভগবান হন অলি। তিনি নিজের মাধুর্য আস্বাদন করবার জন্য দুটি হয়েছেন, তাই রাধাকৃষ্ণলীলা।”

"As a devotee cannot live without God, so also God cannot live without His devotee. Then the devotee becomes the sweetness, and God its enjoyer. The devotee becomes the lotus,(जब उसका चरित्रकमल खिल जाता है, तब भगवान भँवरा बन जाते हैं ।) and God the bee. It is the Godhead that has become these two in order to enjoy Its own Bliss. That is the significance of the episode of Radha and Krishna.

वैष्णव धर्म के एक मत के अनुसार, ब्रह्म या परमात्मा  स्वयं राधा और कृष्ण बन गए ताकि उनके पारस्परिक मिलन का आनंद लिया जा सके।

[^According to one school of the Vaishnava religion, the Supreme God Himself became Radha and Krishna in order to enjoy the bliss of their mutual communion.

{रसो वै सः। *#* रास -- एक धार्मिक परिकल्पना है जो गौडीय वैष्णव आदि कृष्णभक्ति परम्परा में विशेष रूप से देखने को मिलती है। चैतन्य परम्परा में  (तैत्तिरीयोपनिषद,2/7 ) के 'रसो वै सः' (वस्तुतः भगवान 'रस' है) को प्रायः उद्धृत किया जाता है।}

 *बलराम के पिता को  उपदेश - तीर्थाटन, गले में माला , वैष्णव- भेष धारण कब तक ?* 

“तीर्थ, गले में माला, नियम, ये सब पहले-पहल करने पड़ते हैं । वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर, भगवान् का दर्शन हो जाने पर बाहर का आडम्बर धीरे धीरे कम होता जाता है । उस समय उनका नाम लेकर रहना और स्मरण-मनन करना । ^# 

[“তীর্থ, গলায় মালা, আচার — এ-সব প্রথম প্রথম করতে হয়। বস্তুলাভ হলে ভগবানদর্শন হলে, বাহিরের আড়ম্বর ক্রমে কমে যায়। তখন তাঁর নামটি নিয়েথাকা আর স্মরণ-মনন।১

"At the beginning of spiritual life the devotee should observe such rites as pilgrimage, putting a string of beads around his neck, and so forth. But outward ceremonies gradually drop off as he attains the goal, the vision of God. Then his only activity is the repetition of God's name, and contemplation and meditation on Him.

^# यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।गीता 3.17।।परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता। ]

“सोलह रुपयों के पैसे अनेक होते हैं, परन्तु जब सोलह रुपये इकट्ठे किए जाते हैं, तो उतने अधिक नहीं दीखते । फिर उनके बदले में जब गिन्नी* बनायी तो कितना कम हो गया ! फिर उसे बदलकर यदि छोटासा हीरा लाओ तो लोगों को पता तक नहीं लगता ।

[*उस समय एक गिन्नी का मूल्य सोलह रुपये था ।# " merhchantman sold all, woundup his business, and bought a pearl of great price. -- Bible. " किसी सौदागर को एक जब बहुमूल्य मोती मिल गया, तब  उसने अपना सब कुछ बेच दिया और उसे खरीद लिया! मत्ती 13:46]

[“ষোল টাকার পয়সা এক কাঁড়ি, কিন্তু ষোলটি টাকা যখন করলে, তখন আর অত কাঁড়ি দেখায় না। তাদের বদলে যখন একটি মোহর করলে, তখন কত কম হয়ে গেল। আবার সেটি বদলে যদি একটু হীরা কর, তাহলে লোকে টেরই পায় না।২#

"The pennies equivalent to sixteen rupees make a great heap. But sixteen silver coins do not look like such a big amount. Again, the quantity becomes much smaller when you change the sixteen rupees into one gold mohur. And if you change the gold into a tiny piece of diamond, people hardly notice it."

गले में माला, नियम आदि न रहने से वैष्णवगण आक्षेप करते हैं, क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि ईश्वरदर्शन के बाद माला, दीक्षा आदि का बन्धन उतना नहीं रह जाता ? वस्तु प्राप्त होने पर बाहर का काम कम हो जाता है ।

[গলায় মালা আচার প্রভৃতি না থাকলে বৈষ্ণবেরা নিন্দা করেন। তাই কি ঠাকুর বলিতেছেন যে, ঈশ্বরদর্শনের পর মালা ভেক এ-সবের আঁট তত থাকে না? বস্তুলাভ হলে বাহিরের কর্ম কমে যায়।

Orthodox Vaishnavas insist on the outer insignia of religion. They criticize any devotee who does not wear these marks. Was that why the Master said that, after the vision of God, a devotee becomes indifferent to outer marks, giving up formal worship when the goal of spiritual life is attained?

 *सात्विक साधना, सर्वधर्म समन्वय  और कट्टरता का परित्याग *

श्रीरामकृष्ण (बलराम के पिता के प्रति) – “कर्ताभजा सम्प्रदायवाले कहते हैं कि भक्त चार प्रकार के होते हैं । प्रवर्तक, साधक, सिद्ध और सिद्ध का सिद्ध । प्रवर्तक तिलक लगाते हैं, गले में माला धारण करते हैं और नियम पालन करते हैं । साधक-इनका उतना बाहर का आडम्बर नहीं रहता; उदाहरणार्थ, बाउल । सिद्ध-जिसका स्थिर विश्वास है कि ईश्वर हैं । सिद्ध के सिद्ध जैसे चैतन्यदेव, उन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है और सदा उनसे वार्तालाप करते हैं । सिद्ध के सिद्ध को ही वे लोग साईं कहते हैं । साईं के बाद और कुछ नहीं रह जाता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বলরামের পিতার প্রতি) — কর্তাভজারা বলে, প্রবর্তক, সাধক, সিদ্ধ, সিদ্ধের সিদ্ধ। প্রবর্তক ফোঁটা কাটে, গলায় মালা রাখে; আর আচারী। সাধক — তাদের অত বাহিরে আড়ম্বর থাকে না, যেমন বাউল। সিদ্ধ — যার ঠিক বিশ্বাস যে ঈশ্বর আছেন। সিদ্ধের সিদ্ধ — যেমন চৈতন্যদেব। ঈশ্বরকে দর্শন করেছেন, আর সর্বদা কতাবার্তা আলাপ। সিদ্ধের সিদ্ধকেই ওরা সাঁই বলে। “সাঁইয়ের পর আর নাই”।

MASTER (to Balaram's father): "The Kartabhajas group the devotees into four classes: the pravartaka, the sadhaka, the siddha, and the siddha of the siddha. The pravartaka, the beginner, puts the mark of his religion on his forehead, wears a string of beads around his neck, and observes other outer conventions. The sadhaka, the struggling devotee, does not care so much for elaborate rites. An example of this class is the Baul. The siddha, the perfect, firmly believes that God exists. The siddha of the siddha, the supremely perfect, like Chaitanya, not only has realized God but also has become intimate with Him and talks with Him all the time. This is the last limit of realization.

‘साधक भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं । सात्त्विक साधना गुप्त रूप से होती है । इस प्रकार का साधक साधन-भजन को छिपाता है । देखने से वह साधारण लोगों की तरह जान पड़ता है । मच्छरदानी के भीतर बैठा ध्यान करता है ।

[“সাধক নানারকম। সাত্ত্বিক সাধনা গোপনে, সাধক সাধন-ভজন গোপনে করে, দেখলে প্রাকৃত লোকের মতো বোধ হয়, মশারির ভিতর ধ্যান করে।

"There are many kinds of spiritual aspirants. Those endowed with sattva perform their spiritual practices secretly. They look like ordinary people, but they meditate inside the mosquito net.] 

“राजसिक साधक बाहर का आडम्बर रखता है, गले में जपमाला, भेष, गेरुआ वस्त्र, रेशमी वस्त्र, सोने के दानेवाली जपमाला, मानो साइनबोर्ड लगाकर बैठना !”

[“রাজসিক সাধক বাহিরের আড়ম্বর রাখে, গলায় মালা, ভেক, গেরুয়া, গরদের কাপড়, সোনার দানা দেওয়া জপের মালা। যেমন সাইন বোর্ড মেরে বসা।”

"Aspirants endowed with rajas exhibit outward pomp — a string of beads around the neck, a mark on the forehead, an ochre robe, a silk cloth, a rosary with a gold bead, and so on. They are like stall-keepers advertising their wares with signboards.

वैष्णव भक्तों की वेदान्तमत पर अथवा शाक्तमत पर उतनी श्रद्धा नहीं है । श्रीरामकृष्ण बलराम के पिता को उस प्रकार के संकीर्ण भाव को त्यागने का उपदेश कर रहे हैं ।

[বৈষ্ণবভক্তদের বেদান্তমতের অথবা শাক্তমতের উপর তত শ্রদ্ধা নাই। বলরামের পিতা মহাশয়কে ওইরূপ সঙ্কীর্ণ ভাব পরিত্যাগ করিতে ঠাকুর উপদেশ দিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण(बलराम के पिता आदि के प्रति) – जो भी धर्म हो, जो भी मत हो, सभी उसी एक ईश्वर को पुकार रहे हैं । इसलिए किसी धर्म अथवा मत के प्रति अश्रद्धा या घृणा नहीं करनी चाहिए । वेद उन्हें ही कह रहे हैं, सच्चिदानन्द ब्रह्म, भागवत आदि पुराण उन्हें ही कह रहे हैं, सच्चिदानन्द कृष्ण, और तन्त्र कह रहे हैं, सच्चिदानन्द शिव । वही एक सच्चिदानन्द हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বলরামের পিতা প্রভৃতির প্রতি) — যে ধর্মই হোক, যে মতই হোক, সকলেই এক ঈশ্বরকে ডাকছে; তাই কোন ধর্ম, কোন মতকে অশ্রদ্ধা বা ঘৃণা করতে নাই। বেদে তাঁকেই বলছে, সচ্চিদানন্দঃ ব্রহ্ম; ভাগবতাদি পুরাণে তাঁকেই বলছে, সচ্চিদানন্দঃ কৃষ্ণঃ, তন্ত্রে বলেছে, সচ্চিদানন্দঃ শিবঃ। সেই এক সচ্চিদানন্দ।

"All religions and all paths call upon their followers to pray to one and the same God. Therefore one should not show disrespect to any religion or religious opinion. It is God alone who is called Satchidananda Brahman in the Vedas, Satchidananda Krishna in the Puranas, and Satchidananda Siva in the Tantras. It is one and the same Satchidananda.

“वैष्णवों के अनेक सम्प्रदाय हैं । वेद जिन्हें ब्रह्म कहते हैं, वैष्णवों का एक दल उन्हें अलख-निरंजन कहता है । अलख अर्थात जिन्हें लक्ष्य नहीं किया जा सकता, इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता । वे कहते हैं, राधा व कृष्ण अलख के दो बुलबुले हैं ।

[বৈষ্ণবদের নানা থাক থাক আছে। বেদে তাঁকে ব্রহ্ম বলে, একদল বৈষ্ণবেরা তাঁকে বলে, আলেক নিরঞ্জন। আলেক অর্থাৎ যাঁকে লক্ষ্য করা যায় না, ইন্দ্রিয়ের দ্বারা দেখা যায় না। তারা বলে, রাধা আর কৃষ্ণ আলেকের দুটি ফুট।

\"There are different sects of Vaishnavas. That which is called Brahman in the Vedas is called Alekh-Niranjan by one Vaishnava sect. 'Alekh' means That which cannot be pointed out or perceived by the sense-organs. According to this sect, Radha and Krishna are only two bubbles of the Alekh.

“वेदान्तमत में अवतार नहीं हैं । वेदान्तवादी कहते हैं, राम, कृष्ण –भी ये सच्चिदानन्दरूपी समुद्र की दो लहरें हैं । 

[“বেদান্তমতে অবতার নাই, বেদান্তবাদীরা বলে রাম, কৃষ্ণ, এরা সচ্চিদানন্দ সাগরের দুটি ঢেউ।

"According to the Vedanta,11 there is no Incarnation of God. The Vedantists say that Rama and Krishna are but two waves in the Ocean of Satchidananda.

“एक के अतिरिक्त दो तो नहीं हैं, चाहे जिस नाम से कोई ईश्वर को पुकारे, यदि वह पुकार हार्दिक हो तो वह उसके पास अवश्य ही पहुँचेगी । व्याकुलता रहनी चाहिए ।”

[“এক বই তো দুই নাই; যে যা বলে, যদি আন্তরিক ঈশ্বরকে ডাকে, তাঁর কাছে নিশ্চয় পঁহুছিবে। ব্যাকুলতা থাকলেই হল।”

"In reality there are not two. There is only One. A man may call on God by any name; if he is sincere in his prayer he will certainly reach Him. He will succeed if he has longing."

श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर भक्तों से ये सब बातें कह रहे हैं । अब प्रकृतिस्थ हुए हैं और कह रहे हैं, “तुम बलराम के पिता हो ?”

[শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবে বিভোর হইয়া ভক্তদের এই সকল কথা বলিতেছিলেন। এইবার একটু প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন ও বলিতেছেন, “তুমি বলরামের বাপ?”

As Sri Ramakrishna spoke these words to the devotees, he was overwhelmed with divine fervour. Coming down to partial consciousness of the world, he said to Balaram's father, "Are you the father of Balaram?"

*तीर्थ भ्रमण से भी आध्यात्मिक प्रगति क्यों नहीं होती ?*  

बलराम के पिता को उपदेश - व्याकुल होओ !*

सभी थोड़ी देर चुपचाप बैठे हैं, बलराम के वृद्ध पिता चुपचाप हरिनाम की माला जप रहे हैं ।

[সকলে একটু চুপ করিয়া আছেন, বলরামের বৃদ্ধ পিতা নিঃশব্দে হরিনামের মালা জপ করিতেছেন।

All sat in silence. Balaram's aged father was silently telling his beads.

श्रीरामकृष्ण(मास्टर आदि के प्रति) –अच्छा, ये लोग इतना जप करते हैं, इतना तीर्थ करते हैं, फिर इनकी प्रगति क्यों नहीं होती ? मानो अठारह मास का इनका एक वर्ष होता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টার প্রভৃতির প্রতি) — আচ্ছা, এরা এত জপ করে, এত তীর্থ করেছে, তবু এরকম কেন? যেন আঠার মাসে এক বৎসর!

MASTER (to M. and the others): "Well, these people practise so much japa and go to so many sacred places, but why are they like this? Why do they make no progress? In their case it seems as if the year consists of eighteen months.

“हरीश से कहा, ‘यदि व्याकुलता न रहे, तो फिर वाराणसी जाने की क्या आवश्यकता ? व्याकुलता रहने पर यहीं पर वाराणसी है ।”

[“হরিশকে বললুম, কাশী যাওয়া কি দরকার যদি ব্যাকুলতা না থাকে। ব্যাকুলতা থাকলে, এইখানেই কাশী।

"Once I said to Harish: 'What is the use of going to Benares if one does not feel restless for God? And if one feels that longing, then this very place is Benares.'

“इतना तीर्थ, इतना जप करते हैं, फिर भी कुछ क्यों नहीं होता ? व्याकुलता नहीं है । व्याकुल होकर उन्हें पुकारने पर वे दर्शन देते हैं ।”

[“এত তীর্থ, এত জপ করে, হয় না কেন? ব্যাকুলতা নাই। ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকলে তিনি দেখা দেন!

"They make so many pilgrimages and repeat the name of God so much, but why do they not realize anything? It is because they have no longing for God. God reveals Himself to the devotee if only he calls upon Him with a longing heart.

“नाटक के प्रारम्भ में रंगभूमि पर बड़ी गड़बड़ी मची रहती है । उस समय श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं होता। उसके बाद नारद ऋषि जिस समय व्याकुल होकर वृन्दावन में आकर वीणा बजाते हुए पुकारते हैं और कहते हैं, ‘प्राण हे, गोविन्द मम जीवन’-उस समय कृष्ण और ठहर नहीं सकते, गोपालों के साथ सामने आ जाते हैं ।”

[“যাত্রার গোড়ায় অনেক খচমচ খচমচ করে; তখন শ্রীকৃষ্ণকে দেখা যায় না। তারপর নারদ ঋষি যখন ব্যাকুল হয়ে বৃন্দাবনে এসে বীণা বাজাতে বাজাতে ডাকে আর বলে, প্রাণ হে গোবিন্দ মম জীবন! তখন কৃষ্ণ আর থাকতে পারেন না। রাখালদের সঙ্গে সামনে আসেন, আর বলেন, ধবলী রও! ধবলী রও!”

"At the beginning of a yatra performance much light-hearted restlessness is to be observed on the stage. At that time one does not see Krishna. Next the sage Narada enters with his flute and sings longingly, 'O Govinda! O my Life! O my Soul!' Then Krishna can no longer remain away and appears with the cowherd boys."

=============

[रसो वै सः -> श्रीरामकृष्ण : रस स्वरुप तो 'भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस'  हैं , हमें रसिक अर्थात उनका भक्त बनना है , और दूसरों को भी उनका भक्त बनने में सहायता करनी हैं ! 'Be and Make ' let this be our Motto .-Swami Vivekananda ]

 आत्मा जो सूक्ष्म, तेजस, प्राज्ञ शरीर के साथ अनादि काल से रह रही है, तप रही है।  सूक्ष्म विकार और वासनाएं न जाने कितने-कितने जन्मों से उसे जला रही हैं, वह शीतलता चाहती है।  शुद्ध रूप में तो वह स्वयं प्रेम स्वरूप है, आनन्दस्वरूप है , पर अभी उस पर (आत्मा पर नहीं उसके तादात्म्य किये देह-मन पर) कर्मों के संस्कार चिपके हैं।  वह (उसका मन) मलिन है, परमात्मा रूपी जल ही उसे तृप्त कर सकता है।  यूँ तो परमात्मा तो हर क्षण उसके निकट ही है, उसके हर सुख-दुःख की खबर भी उसे है।  वह उसे हर पल निहार रहा है पर आत्मा ही अपने आवरण में ढकी उसे नहीं देख पा रही है।  जब ज्ञान मिलता है कर्म संस्कार ढीले पड़ते हैं तो उसे कुछ भास होता है, वह परमात्मा के उन्मुख होना चाहती है पर अहंकार आड़े आ जाता है, कभी बुद्धि भ्रमित करती है।  ज्ञान यदि हमें रूखा-सूखा और गर्वीला बना दे तो वह ज्ञान भी व्यर्थ हो जाता है।  हमें तो स्वयं रसिक (भक्त)  बनना है, और दूसरों को भी रसिक (भक्त)  बनने में सहायता करनी हैं ।   

श्लोक १. असद् वा इदमग्र आसीत्‌। ततो वै सदजायत।तदात्मानं स्वयमकुरुत।तस्मात् तत्सुकृतमुच्यत इति।यद्वै तत्सुकृतम्‌। रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्‌। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्‌।एष ह्येवानन्द याति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते। अथ सोऽभयं गतो भवति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते।थ तस्य भयं भवति। तत्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।तदप्येष श्लोको भवति॥

अन्वय  :  अग्रे असत् वै इदम् आसीत् ततः वै सत् अजायत। तत् आत्मानं स्वयम् अकुरुत। तस्मात् तत् सुकृतम् उच्यते इति यत् वै तत् सुकृतम्। सः वै रसः। अयं जीवः आत्मानन्दरसं लब्ध्वा एव हि आनन्दी भवति । (अयं रसं हि लब्ध्वा आनन्दी भवति।) कः हि एव अन्यात् कः प्राण्यात् यत् एषः आनन्दः आकाशे न स्यात् एषः हि एव आनन्दायाति। एषः यदा हि एव अदृश्ये अनात्म्ये अनिरुक्ते अनिलयने अभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सः अभयं गतः भवति। यदा हि एव एषः एतस्मिन् उ दरम् अन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति तत् तु एव अमन्वानस्य विदुष्सः भयम्। तत् अपि एषः श्लोकः भवति।

आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है।  कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 'यही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब हमारी 'अन्तरात्मा' उस 'अदृश्य', 'अशरीरी' (अनात्म्य) अनिर्दशं (अनिरुक्त) एवं 'अनिलयन' 'ब्रह्म' में आश्रय ग्रहण करके दृढ़ रूप से 'उस' प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है। किन्तु जब हमारी 'अन्तरात्मा' स्वयं के लिए 'ब्रह्म ' में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं 'ब्रह्म' ही एक भय बन जाता है। जिसके विषय में 'श्रुति' का यह वचन है।

In the beginning all this Universe was NonExistent and Unmanifest, from which this manifest Existence was born. Itself created itself; none other created it. Therefore they say of it the well and beautifully made. Lo this that is well and beautifully made, verily it is no other than the delight behind existence. When he hath gotten him this delight, then it is that this creature becometh a thing of bliss; for who could labour to draw in the breath or who could have strength to breathe it out, if there were not that Bliss in the heaven of his heart, the ether within his being? It is He that is the fountain of bliss; for when the Spirit that is within us findeth his refuge and firm foundation in the Invisible Bodiless Undefinable and Unhoused Eternal, then he hath passed beyond the reach of Fear. But when the Spirit that is within us maketh for himself even a little difference in the Eternal, then he hath fear, yea the Eternal himself becometh a terror to such a knower who thinketh not. Whereof this is the Scripture.

उपनिषद्‌‌में आया है–‘रसो वै सः’ (तैत्तिरीय. २/७) ‘वह परमात्मतत्त्व रसस्वरूप है ।’ तात्पर्य है कि रस वास्तव में परमात्मतत्त्व में ही है, जो शान्त, अखण्ड तथा अनन्त है । उस परमत्मतत्त्व का ही अंश होने से जीवात्मा में भी वह रस स्वतःस्वभाविक है– 'ईस्वर  अंस  जीव  अबिनाशी ।चेतन अमल सहज सुख रासी ॥' परन्तु "देहात्मबोध "-- शरीर से तादात्म्य, या सम्बन्ध की मान्यता मुख्य होने के कारण जीवात्मा को वह रस सांसारिक भोगों में, इन्द्रियों के विषयोंमें दीखने लगता है अर्थात् उसकी भोगों में रस-बुद्धि हो जाती है । 

भोगों का यह रस नाशवान् होता है, जब कि परमात्मा का रस अविनाशी होता है । अतः भोगों का रस तो निरसता में बदल जाता है तथा उसका अन्त हो जाता है, पर परमात्माका रस नित्य-निरन्तर सरस रहता है तथा बढ़ता ही रहता है । भोगों के रस की दो अवस्थाएँ होती हैं–संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । इनमें संयोग-रसकी अपेक्षा वियोगरस श्रेष्ठ है; क्योंकि वियोग में जो रस मिलता है, वह संयोग में नहीं मिलता । जैसे, जबतक भोजन न मिले, तब तक ‘भोजन मिलेगा’–इस (मिलन की लालसा) में जो सुख मिलता है, वह भोजन मिलने पर नहीं रहता, प्रत्युत प्रत्येक ग्रास में क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा मिट जाता है और भोजन से अरुचि पैदा हो जाती है ! 

परन्तु परमात्मा का रस इससे बहुत विलक्षण है । वह संयोग और वियोग–दोनों ही अवस्थाओं में समानरूप से बढ़ता ही रहता है, न तो घटता है और न मिटता ही है ! भोगों की सत्ता और महत्ता मानने से भीतर में भोगों के प्रति एक सूक्ष्म आकर्षण, प्रियता, मिठास पैदा होती है, उसका नाम ‘रस’ है । किसी लोभी व्यक्ति को रुपये मिल जायँ और कामी व्यक्ति को स्त्री मिल जाय तो भीतर-ही-भीतर एक खुशी आती है, यही ‘रस’ है । भोग भोगने के बाद मनुष्य कहता है कि ‘बड़ा मजा आया’–यह उस रस की स्मृति है । यह रस अहम् (चिज्जडग्रन्थि) में रहता है । इसी रसका स्थूल रूप राग, आसक्ति है ।

जब तक रस-बुद्धि रहती है, तब तक प्रकृति और उसके कार्य (क्रिया और पदार्थ) की पराधीनता रहती है । रसबुद्धि निवृत्त होने पर पराधीनता मिट जाती है, भोगों के सुख की परवशता नहीं रहती, भीतर से भोगों की गुलामी नहीं रहती ।भोगों के रस में जननेन्द्रिय का रस बड़ा प्रबल माना गया है । इसलिये काम को जितना बड़ा कठिन होता है । "अली-मृग-मीन -पतंग -गज जरै एक ही आँच तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावें पांच !  संसार में रुपयों के विषय में ईमानदार आदमी तो मिल सकते हैं, पर स्त्री के विषय में ईमानदार आदमी मिलना अपेक्षाकृत कठिन है । ईमानदार आदमी किसी के लाखों रुपये अपने पास सुरक्षित रख सकता है, पर किसी की स्त्री को अपने पास सुरक्षित रखना, विचलित न होना बहुत कठिन है । 

भर्तृहरिजी लिखते हैं–

  विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो   वाताम्बुपर्णाशना-

     स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः ।

शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा-

   स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥

‘जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी सुन्दर स्त्रियों के मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दही के साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रिय का निग्रह कर सकें तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !’ 

मत्तेभकुम्भदलने भुवि  सन्ति शूराः

   केचित् प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः ।

किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य

    कन्दर्पदर्पदलने    विरला   मनुष्याः ॥

 ‘इस पृथ्वी पर कुछ लोग तो हाथी का मस्तक विदीर्ण करने में शूर हैं और कुछ लोग प्रचण्ड सिंह को मारनेमें दक्ष हैं । परन्तु ऐसे बलवान् पुरुषों के सामने मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि कामदेव के मदको चूर्ण करनेवाले पुरुष विरले ही हैं ।’

=====================



कोई टिप्पणी नहीं: