[(13 मई, 1883) परिच्छेद ~ 33, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) *साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]
परिच्छेद ३३
* हरिभक्ति-प्रदायिनी सभा में भक्तो के साथ *
(१)
श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ता कँसारीपाड़ा की " हरिभक्ति-प्रदायिनी सभा" (कोडरमा के हरिसभा ?) में शुभागमन किया है । रविवार, वैशाख शुक्ल सप्तमी, संक्रान्ति, 13 मई, 1883 ई. । आज सभा में वार्षिकोत्सव हो रहा है । मनोहर साँई का कीर्तन हो रहा है ।
'श्रीराधाकृष्ण-प्रेम' का पाला -गान (Turn song) हो रहा है । सखियाँ श्रीमती राधिका से कह रही हैं:-
मान केनो कोरली , तोबे तुई बुझी कृष्णेर सुख चास न।
‘तूने मान (प्रणयकोप) क्यों किया? तो क्या तू कृष्ण का सुख नहीं चाहती ?’
श्रीमती कहती हैं, -“চন্দ্রাবলীর কুঞ্জে, যাবার জন্য নয়। সেখানে যাওয়া কেন? সে যে সেবা জানে না!”
‘ मैंने उनके चन्द्रावली (नामक गोपी) के कुंज में जाने के लिये कोप नहीं किया । आखिर वहाँ उन्हें जाना ही क्यों चाहिए था ? चन्द्रावली तो सेवा नहीं जानती !’
( "I am not angry at His going to Chandravali's grove. But why should He go there? She doesn't know how to take care of Him."
(२)
दूसरे रविवार को (20 मई, 1883) रामचन्द्र के मकान पर फिर कीर्तन हो रहा है । श्रीरामकृष्ण आए हैं । वैशाख शुक्ल चतुर्दशी । श्रीमती राधिका श्रीकृष्ण के विरह में बहुत-कुछ कह रही हैं- “जब मैं बालिका थी उसी समय से श्याम को देखना चाहती थी । सखि, दिन गिनते गिनते नाखून घिस गया । देखो, उन्होंने जो माला दी थी वह सूख गयी है, फिर भी मैंने उसे नहीं फेंका ।
कृष्णचन्द्र का उदय कहाँ हुआ ? वह चन्द्र मान (प्रणयकोप) रूपी राहू ^ के भय से कहीं चला तो नहीं गया ! हाय ! उस कृष्णमेघ का कब दर्शन होगा ? क्या फिर दर्शन होगा !
प्रिय, प्राण खोलकर तुम्हें कभी भी न देख सकी ! एक तो कुल दो ही आँखें, उसमें फिर पलक, उसमें फिर आँसूओं की धारा । उनके सिर पर मोर का पंख मानो स्थिर बिजली के समान है । मोरगण उस मेघ को देख पंख खोलकर नृत्य करते थे ।
“सखि ! यह प्राण तो नहीं रहेगा - मेरी देह तमाल वृक्ष की शाखा पर रख देना और मेरे शरीर पर कृष्णनाम लिख देना ।”
{Radha said to her friends: "I have loved to see Krishna from my childhood. My finger-nails are worn off from counting the days on them till I shall see Him. Once He gave me a garland. Look, it has withered, but I have not yet thrown it away. Alas! Where has the Moon of Krishna risen now? Has that Moon gone away from my firmament, afraid of the Rahu2 of my pique? Alas! Shall I ever see Krishna again? O my beloved Krishna, I have never been able to look at You to my heart's complete satisfaction. I have only one pair of eyes; they blink and so hinder my vision. And further, on account of streams of tears I could not see enough of my Beloved. The peacock feather on the crown of His head shines like arrested lightning. The peacocks, seeing Krishna's dark-cloud complexion, would dance in joy, spreading their tails. O friends, I shall not be able to keep my life-breath. After my death, place my body on a branch of the dark tamala tree and inscribe on my body Krishna's sweet name."
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं : “वे और उनका नाम अभिन्न हैं । इसीलिए श्रीमती राधिका इस प्रकार कह रही हैं । जो राम वही नाम है ।”
{ "God and His name are identical; that is the reason Radha said that. There is no difference between Rama and His holy name."
श्रीरामकृष्ण भावमग्न होकर यह कीर्तन का गाना सुन रहे हैं । गोस्वामी कीर्तनिया इन गानों को गा रहा हैं। अगले रविवार को फिर दक्षिणेश्वर मन्दिर में वही गाना होगा । उसके बाद के शनिवार को फिर अधर के मकान पर वही कीर्तन होगा ।
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