परिच्छेद ~ २६ [श्रीरामकृष्ण वचनामृत (11 मार्च 1883)
*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]
*परिच्छेद ~ २६*
*दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव*
(१)
*अपने आदर्श -उद्देश्य के प्रति -लज्जा ,घृणा , भय -तीन थाकते नये *
कालीमन्दिर में आज श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव है । फाल्गुन की शुक्ल द्वितीय है, दिन रविवार, 11 मार्च 1883 ई. । आज श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त उन्हें लेकर जन्मोत्सव मनायेंगे ।
सबेरे से भक्त एक एक करके एकत्र हो रहे हैं । सामने माता भवतारिणी का मन्दिर है । मंगलारती के बाद ही प्रभाती रागिणी में मधुर तान लगाती हुई नौबत बज रही है । वसन्त का सुहावना मौसम है, लता-वृक्ष नये कोमल पल्लवों से लहराते हुए दीख पड़ते हैं । इधर श्रीरामकृष्ण के जन्मदिन की याद करके भक्तों के हृदय में आनन्द-सिन्धु उमड़ रहा है । चारों और आनन्द-समीरण बह रहा है । मास्टर ने देखा, इतने सबेरे ही भवनाथ, राखाल, भवनाथ के मित्र कालीकृष्ण आ गये हैं ।
श्रीरामकृष्ण पूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए इनसे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं । मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया ।
[কালীবাড়িতে আজ শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মমহোৎসব — ফাল্গুন শুক্লা দ্বিতীয়া, রবিবার, ১১ই মার্চ, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ। আজ ঠাকুরের অন্তরঙ্গ ভক্তগণ সাক্ষাৎ তাঁহাকে লইয়া জন্মোৎসব করিবেন।
প্রভাত হইতে ভক্তেরা একে একে আসিয়া জুটিতেছেন। সম্মুখে মা ভবতারিণীর মন্দির। মঙ্গলারতির পরই প্রভাতী রাগে নহবতখানায় মধুর তানে রোশনচৌকি বাজিতেছে। একে বসন্তকাল, বৃক্ষলতা সকলই নূতন বেশ পরিধান করিয়াছে; তাহাতে ভক্তহৃদয় ঠাকুরের জন্মদিন স্মরণ করিয়া নৃত্য করিতেছে। চতুর্দিকে আনন্দের সমীরণ বহিতেছে। মাস্টার গিয়া দেখিতেছেন; ভবনাথ, রাখাল, ভবনাথের বন্ধু কালীকৃষ্ণ বসিয়া সহাস্যে আলাপ করিতেছেন। মাস্টার পৌঁছিয়া ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন।
It was Sri Ramakrishna's birthday. Many of his disciples and devotees wanted to celebrate the happy occasion at the Dakshineswar temple garden.
From early morning the devotees streamed in, alone or in parties. After the morning worship in the temples sweet music was played in the nahabat. It was springtime. The trees, creepers, and plants were covered with new leaves and blossoms. The very air seemed laden with joy. And the hearts of the devotees were glad on this auspicious day.
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से)- “तुम आये हो ! (भक्तों से) लज्जा, घृणा, भय इन तीनों के रहते काम सिद्ध नहीं होता। आज कितना आनन्द होगा ! परन्तु जो लोग भगवन्नाम में मत्त होकर नृत्य-गीत न कर सकेंगे, उनका कहीं कुछ न होगा । ईश्वरी चर्चा में कैसी लज्जा और कैसा भय? अच्छा, अब तुम लोग गाओ ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তুমি এসেছ। (ভক্তদিগকে) লজ্জা, ঘৃণা, ভয় — তিন থাকতে নয়। আজ কত আনন্দ হবে। কিন্তু যে শালারা হরিনামে মত্ত হয়ে নৃত্য-গীত করতে পারবে না, তাদের কোন কালে হবে না। ঈশ্বরের কথায় লজ্জা কি, ভয় কি? নে, এখন তোরা গা।
(To the devotees) "One cannot be spiritual as long as one has shame, hatred, or fear. Great will be the joy today. But those fools who will not sing or dance, mad with God's name, will never attain God. How can one feel any shame or fear when the names of God are sung? Now sing, all of you."]
भवनाथ और कालीकृष्ण गा रहे हैं---"Thrice blessed is this day of joy! May all of us unite ! "
[https://www.facebook.com/RamakrishnaMathandMissionPuja/videos/263979628706413]
धन्य धन्य धन्य आजि दिन आनन्दकारी,
सब मिले तोमार सत्यधर्म भारते प्रचारी ।
हृदये हृदये तोमारी धाम, दिशि दिशि तव पुण्य नाम ;
भक्तजन समाज आजि स्तुति कोरे तोमारी।
नाही चाहि प्रभु धन जन मान , नाहि प्रभु अन्य काम ;
प्रार्थना करे तोमारे आकुल नरनारी।
तव पदे प्रभु लोइनु शरण , की भय बिपदे की भय मरने ;
अमृतेर खनि पाइनु जखन जय जय तोमारी।
ধন্য ধন্য ধন্য আজি দিন আনন্দকারী,
সব মিলে তব সত্যধর্ম ভারতে প্রচারি।
হৃদয়ে হৃদয়ে তোমারি ধাম, দিশি দিশি তব পুণ্য নাম;
ভক্তজনসমাজ আজি স্তুতি করে তোমারি।
নাহি চাহি প্রভু ধন জন মান, নাহি প্রভু অন্য কাম;
প্রার্থনা করে তোমারে আকুল নরনারী।
তব পদে প্রভু লইনু শরণ, কি ভয় বিপদে কি ভয় মরণ,
অমৃতের খনি পাইনু যখন জয় জয় তোমারি।
गीत इस आशय का है :
“हे आनन्दमय ! आज का दिन धन्य है ! हम सब तुम्हरे सत्य-धर्म का भारत में प्रचार करेंगे । (भारत के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में ) हर एक हृदय में तुम्हीं विराजित हो, चारों ओर तुम्हारे ही पवित्र नाम की ध्वनि गूँजती है, भक्त-समाज तुम्हारी स्तुति करते हैं । हे प्रभो, हमें धन, जन और मान न चाहिए, दूसरी कामना भी नहीं है, विकल जन तुम्हारी प्रार्थना कर रहे हैं । हे प्रभो, तुम्हारे चरणों के शरण ली तो फिर न विपत्ति में भय है, न मृत्यु में; मुझे तो अमृत मिल गया । तुम्हारी जय हो !”
[Thrice blessed is this day of joy! May all of us unite, O Lord, To preach Thy true religion here , In India's holy land! Thou dwellest in each human heart; Thy name, resounding everywhere, Fills the four corners of the sky. Today Thy devotees proclaim Thy boundless majesty. We seek not wealth or friends or fame, O Lord! No other hope is ours. For Thee alone Thy devotees, Long with unflagging love. Safe at Thy feet, what fear have we Of death or danger? We have found, The Fount of Immortality. To Thee the victory, O Lord! To Thee the victory!
{ श्री रामकृष्ण के जीवनकाल में ही उनके सत्य धर्म का प्रचार उनके जनमोत्स्व पर 11 मार्च 1883 को प्रारम्भ हुआ था ! श्रीठाकुर देव सत्यधर्म की विशेषता-नरेन्द्र नाथ निर्विकल्प समाधि की प्रार्थना करते हैं , किन्तु गुरु खुश नहीं होते। साधारण वेदांती गुरु प्रसन्न हो जाते है। तुम तो गाते हो जो कुछ है सो -तू ही है ! तब तुम क्यों केवल अपने लिए सोचते हो ? ईश्वरमय बनो। विज्ञानमयता - बिना तर्क के स्वीकार मत करो। मनुस्मृति में भी कहा है -युक्ति-तर्क पर आधारित धर्म ही धर्म है। श्रीठाकुरदेव के सत्य धर्म की घोषणा -- ईश्वर ही वस्तु , और सब अवस्तु। सत्य को जानने की व्याकुलता से ही सत्य-लाभ ईश्वर लाभ होगा। नए युग में केवल व्याकुलता से होगा। स्वाति नक्षत्र में खोपड़ी में बून्द पड़े , सब व्यवस्था भगवान कर दिए। सांप का विष खोपड़ी में पड़ा उससे दवा बना लिया। तीन आकर्षण हो तब तब ईश्वर लाभ। ईश्वर लाभ ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य। जिसका नित्य है उसकी लीला है। जीव ही शिव है। संसार तुम्हारी छाया मात्र है। संसार में ही ईश्वर ओतप्रोत हैं। मानवकल्याण -भारत कल्याण ही जीवन का उद्देश्य है। भक्तियोग ही युगधर्म है ! ईश्वर का अनन्त नाम -उनका नाम संकीर्तन अनुराग के साथ करें। नाम का महत्व है पर व्याकुलता चाहिए। टुटा मकान में बीज पड़े तो एक दिन वृक्ष होगा। तन्मयता चाहिए। ईश्वरपरायणता धर्म। ]
हाथ जोड़कर बैठे हुए मन लगाकर श्रीरामकृष्ण गाना सुन रहे हैं । गाना सुनते सुनते आपका मन सीधे भावराज्य में पहुँच गया है । श्रीरामकृष्ण का मन सूखी दियासलाई है । एक बार घिसने से उद्दीपना होती है । प्राकृत मनुष्यों का मन भीगी दियासलाई है, कितनी ही घिसो पर जलती नहीं, क्योंकि वह विषयासक्त है । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक ध्यान में लगे हुए हैं । कुछ देर बाद कालीकृष्ण भवनाथ से कुछ कह रहे हैं ।
[ঠাকুর বদ্ধাঞ্জলি হইয়া বসিয়া একমনে গান শুনিতেছেন। গান শুনিতে শুনিতে মন একেবারে ভাবরাজ্যে চলিয়া গিয়াছে। ঠাকুরের মন শুষ্ক দিয়াশলাই — একবার ঘষিলেই উদ্দীপন। প্রাকৃত লোকের মন ভিজে দিয়াশলাইয়ের ন্যায়, যত ঘষো জ্বলে না — কেন না মন বিষয়াসক্ত। ঠাকুর অনেকক্ষণ ধ্যানে নিমগ্ন। কিয়ৎক্ষণ পরে কালীকৃষ্ণ ভবনাথের কানে কানে কি বলিতেছেন।
As Sri Ramakrishna listened to the song with folded hands, his mind soared to a far-off realm. He remained absorbed in meditation a long time. After a while Kalikrishna whispered something to Bhavanath. Then he bowed before the Master and rose. Sri Ramakrishna was surprised. He asked, "Where are you going?"
*पहले हरिनाम या मजदूरों की शिक्षा*
कालीकृष्ण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उठे । श्रीरामकृष्ण ने विस्मित होकर पूछा, “कहाँ जाओगे?”
भवनाथ- कुछ काम है, इसीलिए वे जा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण- क्या काम है?
भवनाथ- श्रमजीवियों के शिक्षालय में (Baranagore Workingmen’s Institute) जा रहे हैं । (कालीकृष्ण का प्रस्थान )
श्रीरामकृष्ण- भाग्य ही में नहीं है । आज हरिनाम-कीर्तन में कितना आनंद होता है, देखा नहीं । उसके भाग्य ही में नहीं था ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওর কপালে নাই। আজ হরিনামে কত আনন্দ হবে দেখত? ওর কপালে নাই!
"It's his bad luck. A stream of bliss will flow here today. He could have enjoyed it. But how unlucky!"]
(२)
* भक्तों के प्रति दृष्टि -अण्डे सेती हुई चिड़िया जैसी अन्तर्मुखी चितवन *
दिन के साढ़े-आठ या नौ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण ने आज गंगा में स्नान नहीं किया, शरीर कुछ अस्वस्थ है । घड़ा भरकर पानी बरामदे में लाया गया । भक्त उनको स्नान करा रहे हैं । नहाते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा, “एक लोटा पानी अलग रख दो ।” अन्त में वही पानी सिर पर डाला । आज आप बड़े सावधान हैं, एक लोटा से ज्यादा पानी सिर पर नहीं डाला ।
स्नान के बाद मधुर कण्ठ से भगवान् का नाम ले रहे हैं । धोया हुआ कपड़ा पहने, एक-दो भक्तों के साथ आँगन से होते हुए कालीमाता के मन्दिर की ओर जा रहे हैं । मुख से लगातार नाम उच्चारण कर रहे हैं। "चितवन बाहर की ओर नहीं है-'अण्डे को सेते समय चिड़िया की दृष्टि जिस प्रकार अन्तर्मुखी दृष्टि (indrawn) होती है 'उसी के सदृश हो रही है । (तंत्रों में गुप्त वैष्णवीमुद्रा कहते हैं)
[ His eyes had an indrawn look, like that of a bird hatching her eggs.]
कालीमाता के मन्दिर में आकर आपने प्रणाम और पूजा की । पूजा का कोई नियम न था-गन्ध-पुष्प कभी माता के चरणों में देते हैं और कभी अपने सिर पर । अन्त में माता का निर्माल्य सिर पर रख भवनाथ से कहा, “डाब लो रे *।” (*कच्चा नारियल) । माता का प्रसादी डाब था ।
[মা-কালীর মন্দিরে গিয়া প্রণাম ও পূজা করিলেন। পূজার নিয়ম নাই — গন্ধ-পুষ্প কখনও মায়ের চরণে দিতেছেন, কখনও বা নিজের মস্তকে ধারণ করিতেছেন। অবশেষে মায়ের নির্মাল্য মস্তকে ধারণ করিয়া ভবনাথকে বলিতেছেন, “ডাব নে রে।” মার প্রসাদী ডাব।
On entering the temple, he prostrated himself before the image and worshipped the Divine Mother. But he did not observe any ritual of worship. Now he would offer flowers and sandal-paste at the feet of the image, and now he would put them on his own head. After finishing the worship in his own way, he asked Bhavanath to carry the green coconut that had been offered to the Mother, He also visited the images of Radha and Krishna in the Vishnu temple.
*नित्यगोपाल को स्त्री-भक्त से सावधान रहने का उपदेश*
फिर आँगन से होते हुए अपने कमरे की तरफ आ रहे हैं । साथ में भवनाथ और मास्टर हैं । भवनाथ के हाथ में डाब है । रास्ते की दाहिनी ओर श्रीराधाकांत का मन्दिर है, जिसे श्रीरामकृष्ण ‘विष्णुघर’ कहा करते थे । इन युगलमूर्तियों को देखकर आपने भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । बायीं ओर बारह शिवमन्दिर थे। शिवजी को हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे ।
अब श्रीरामकृष्ण अपने डेरे पर पहुँचे । देखा कि और भी भक्त आए हुए हैं । राम, नित्यगोपाल, केदार चटर्जी आदि अनेक लोग आए हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भुमिष्ठ हो प्रणाम किया । आपने भी उनसे कुशल-प्रश्न पूछा।
नित्यगोपाल को देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “तू कुछ खाएगा?” ये भक्त उस समय बालक के भाव में थे । इन्होंने विवाह नहीं किया था, उम्र तेईस-चौबीस वर्ष की होगी । ये सदा भावराज्य में रहते थे और कभी अकेले, कभी राम के साथ प्रायः श्रीरामकृष्ण के पास आया करते थे । श्रीरामकृष्ण इनकी भावावस्था को देखकर इनसे बड़ा प्यार करते हैं-और कभी कभी कहते हैं कि इनकी परमहंस की अवस्था है । इसलिए आप इनको गोपाल जैसे देख रहे हैं ।
भक्त ने कहा, खाऊँगा ।” उनकी बातें ठीक एक बालक की सी थीं।
खिलाने के बाद श्रीरामकृष्ण उनको गंगा की ओर कमरे के गोल बरामदे में ले गए और उनसे बातें करने लगे । एक परम भक्त महिला, जिनकी उम्र कोई इकतीस-बत्तीस वर्ष की होगी, श्रीरामकृष्ण के पास अक्सर आती हैं और उनकी बड़ी भक्ति करती हैं । वे भी इन भक्त की अद्भुत भावावस्था को देखकर इन्हें अपने लड़के के भाँति प्यार करती हैं और इन्हें प्रायः अपने घर लिवा ले जाती हैं ।
[একটি স্ত্রীলোক পরম ভক্ত, বয়স ৩১।৩২ হইবে, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে প্রায় আসেন ও তাঁহাকে সাতিশয় ভক্তি করেন। সেই স্ত্রীলোকটিও ওই ভক্তটির অদ্ভুত ভাবাবস্থা দেখিয়া তাঁহাকে সন্তানের ন্যায় স্নেহ করেন ও তাঁহাকে প্রায় নিজের আলয়ে লইয়া যান।
A certain woman, about thirty-one years old and a great devotee, often visited Sri Ramakrishna and held him in high respect. She had been much impressed by Nityagopal's spiritual state and, looking upon him as her own son, often invited him to her house.]
*नित्यगोपाल को उपदेश-भावी संन्यासियों के लिए स्त्रियों से सम्पर्क का पूर्ण निषेध है *
श्रीरामकृष्ण (भक्त से)- क्या तू वहाँ जाता है?
नित्यगोपाल (बालक की तरह)- हाँ, जाता हूँ । मुझे लिवा ले जाती है ।
श्रीरामकृष्ण- अरे सन्त सावधान ! एक-आध बार जाना, बस । ज्यादा मत जाना, नहीं तो गिर पड़ेगा ! . कामिनी और कंचन ही माया है । Maya is nothing but 'woman and gold' साधु को स्त्रियों से बहुत दूर रहना चाहिए । वहाँ सब डूब जाते हैं । उस भँवर में जीवन के लिए ब्रह्मा और विष्णु तक को संघर्ष करना पड़ता है। भक्त ने सब सुना ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — ওরে সাধু সাবধান! এক-আধবার যাবি। বেশি যাসনে — পড়ে যাবি! কামিনী-কাঞ্চনই মায়া। সাধুর মেয়েমানুষ থেকে অনেক দূর থাকতে হয়। ওখানে সকলে ডুবে যায়। ওখানে ব্রহ্মা বিষ্ণু পড়ে খাচ্ছে খাবি।
"Beware, holy man! Go there once in a great while, but not frequently; otherwise you will slip from the ideal. Maya is nothing but 'woman and gold'. A holy man must live away from woman. All sink there. 'Even Brahma and Vishnu struggle for life in that whirlpool.'
" ভক্তটি সমস্ত শুনিলেন।" Nityagopal listened to these words attentively.]
मास्टर (स्वगत)- क्या आश्चर्य की बात है ! इन भक्त की परमहंस की अवस्था है- यह तो आप स्वयं ही कहते हैं। इतनी उच्च अवस्था होते हुए भी इनके पतन की आशंका है ! साधुओ के लिए आपने क्या ही कठिन नियम बना दिये हैं ! स्त्रियों के साथ अधिक मिलने-जुलने से साधु का पतन होने की सम्भावना रहती है । यह उच्च आदर्श सामने न रहे तो भला जीवों का उद्धार कैसे हो? वह स्त्री तो भक्त ही है । फिर भी भय है ! अब समझा, श्रीचैतन्यदेव ने छोटे हरिदास को इतनी कठोर सजा क्यों दी थी । महाप्रभु के मना करने पर भी हरिदास ने एक भक्त विधवा से वार्तालाप किया था । परन्तु हरिदास संन्यासी थे । इसलिए महाप्रभु ने उन्हें त्याग दिया । कितनी कठोर सजा ! संन्यासी के लिए कितना कठिन नियम ! फिर इन भक्त पर आपका कितना प्रेम है ! आगे चलकर की विपत्ति न आ पड़े, इसलिए पहले ही से इन्हें सचेत कर रहे हैं । भक्तगण निःस्तब्ध होकर बादलों की गड़गड़ाहट में गूंजती गम्भीर वाणी ‘साधु सावधान’ सुन रहे हैं ।
{মাস্টার (স্বগত) — কি আশ্চর্য! ওই ভক্তটির পরমহংস অবস্থা — ঠাকুর মাঝে মাঝে বলেন। এমন উচ্চ অবস্থা সত্ত্বেও কি ইঁহার বিপদ সম্ভাবনা! সাধুর পক্ষে ঠাকুর কি কঠিন নিয়মই করিলেন। মেয়েদের সঙ্গে মাখামাখি করিলে সাধুর পতন হইবার সম্ভাবনা। এই উচ্চ আদর্শ না থাকিলে জীবের উদ্ধারই বা কিরূপে হইবে? স্ত্রীলোকটি তো ভক্তিমতী। তবুও ভয়! এখন বুঝিলাম, শ্রীচৈতন্য ছোট হরিদাসের উপর কেন অত কঠিন শাসন করিয়াছিলেন। মহাপ্রভুর বারণ সত্ত্বেও হরিদাস একজন ভক্ত বিধবার সহিত আলাপ করিয়াছিলেন। কিন্তু হরিদাস যে সন্ন্যাসী। তাই মহাপ্রভু তাঁকে ত্যাগ করিলেন। কি শাসন! সন্ন্যাসীর কি কঠিন নিয়ম! আর এ-ভক্তটির উপর ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কি ভালবাসা! পাছে উত্তরকালে তাঁহার কোন বিপদ হয় — তাড়াতাড়ি পূর্ব হইতে সাবধান করিতেছেন। ভক্তেরা অবাক্। “সাধু সাবধান” — ভক্তেরা এই মেঘগম্ভীরধ্বনি শুনিতেছেন।
M.(to himself): "How strange! This young man has developed the state of a paramahamsa. That is what the Master says now and then. Is there still a possibility of his falling into danger in spite of his high spiritual state? What an austere rule is laid down for a sadhu! He may slip from his ideal by associating intimately with women. How can an ordinary man expect to attain liberation unless such a high ideal is set by holy men? The woman in question is very devout; but still there is danger. Now I understand why Chaitanya punished his disciple, the younger Haridas, so severely. In spite of his teacher's prohibition, Haridas conversed with a widow devotee. But he was a sannyasi. Therefore Chaitanya banished him. What a severe punishment! How hard is the rule for one who has accepted the life of renunciation! Again, what love the Master cherishes for this devotee! He is warning him even now, lest he should run into danger in the future."
"Beware, holy man!" These words of the Master echoed in the hearts of the devotees, like the distant rumbling of thunder.
* अनाहत शब्दब्रह्म ॐ (शाश्वत स्पंदन) के प्रतिपाद्य हैं अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव *
*नाम (शब्द) के साथ रूप (Form) अनिवार्य है !*
अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे के उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में आ गए हैं । भक्तों में दक्षिणेश्वर के रहनेवाले एक गृहस्थ भी बैठे हैं; वे घर पर वेदान्त की चर्चा करते हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने वे केदार चटर्जी से शब्दब्रह्म पर बातचीत कर रहे हैं ।
दक्षिणेश्वरवाले- यह अनाहत (शाश्वत) शब्द सदैव अपने भीतर और बाहर हो रहा है ।
("This Eternal Word, the Anahata Sabda, (ॐ का शाश्वत स्पंदन) is ever present both within and without."
श्रीरामकृष्ण- केवल शब्द होने से ही तो सब कुछ नहीं हुआ । शब्द का एक प्रतिपाद्य विषय (indicated या परिचायक ) भी तो होना चाहिए । तुम्हारे नाम ही से मुझे थोड़े ही आनन्द होता है । बिना तुमको देखे सोलहों आने आनन्द नहीं होता ।
{"But the Word is not enough. There must be something indicated by the Word. Can your name alone make me happy? Complete happiness is not possible for me unless I see you."
दक्षिणेश्वरवाले- वह शब्द ही ब्रह्म है- अनाहत शब्द।
श्रीरामकृष्ण (केदार से)- ओह, तुम नहीं समझे ? इनका ऋषियों का-सा मत है । ऋषियों ने श्रीरामचन्द्र से कहा, ‘राम, हम जानते हैं कि तुम दशरथ के पुत्र हो । भारद्वाज आदि ऋषि भले ही तुम्हें अवतार जानकर पूजें, पर हम तो अखण्ड सच्चिदानन्द (the Indivisible Existence-consciousness-Bliss Absolute.' को चाहते हैं ।’ यह सुनकर राम हँसते हुए चल दिए ।
केदार- ऋषियों ने राम को अवतार नहीं जाना । तो वे नासमझ थे ।
{"Those rishis could not recognize Rama as an Incarnation of God. They must have been fools."
श्रीरामकृष्ण (गम्भीर भाव से)- तुम ऐसा मत कहना ! जिसकी जैसी रुचि ! और जिसके पेट में जो चीज पचे !
“ऋषि ज्ञानी थे, इसीलिए वे अखण्ड सच्चिदानन्द ('the Indivisible Existence-Consciousness-Bliss Absolute.') को चाहते थे । किन्तु भक्त अवतार को चाहते हैं, भक्ति का स्वाद चखने के लिए । ईश्वर (माँ काली के अवतार) के दर्शन से मन का अन्धकार हट जाता है । पुराणों में लिखा है कि जब श्रीरामचन्द्र सभा में पधारे, तब वहाँ मानो सौ सूर्यों का उदय हो गया ! तो प्रश्न उठता है कि सभा में बैठे हुए लोग जल क्यों नहीं गए? इसका उत्तर यह है कि उनकी ज्योति जड़ ज्योति नहीं है । *सभा में बैठे हुए सब लोगों के हृदयकमल खिल उठे । सूर्य के निकलने से कमल खिल जाते हैं* ।”
{"The rishis followed the path of jnana. Therefore they sought to realize Brahman, the Indivisible Existence-Knowledge-Bliss Absolute. But those who follow the path of devotion seek an Incarnation of God, to enjoy the sweetness of bhakti. The darkness of the mind (मृत्यु का भय) disappears when God (माँ काली ) is realized. In the Purana it is said that it was as if a hundred suns were shining when Rama entered the court. Why, then, weren't the courtiers burnt up? It was because the brilliance of Rama was not like that of a material object. As the lotus blooms when the sun rises, so the lotus of the heart of the people assembled in the court burst into blossom."
श्रीरामकृष्ण खड़े होकर भक्तों से कह रहे थे कि एकाएक उनका मन बाहरी जगत् को छोड़ भीतर की ओर मुड़ गया । *“ सूर्य के निकलने से -हृदयकमल खिल उठे”*- ये शब्द कहते ही आप समाधिमग्न हो गये ।
{Be and Make a Man by looking whom "the lotus of the heart burst into blossom !" अर्थात सूर्य जैसा मनुष्य जिसको देखने से लोग जल नहीं जाये उनके हृदयकमल खिल उठे - अतः नवनीदा जैसे मनुष्य (नेता =अवतार = पैगम्बर - चार में एक जो दीवाल के उस पार नहीं कूदा जो वापस लौट आया को देखने से) 'बनो और बनाओ ' जिनको को देखने से हृदयकमल खिल उठे! )
श्रीरामकृष्ण उसी अवस्था में खड़े हैं । क्या भगवान् के दर्शन से आपका हृदयकमल खिल उठा? बाहरी जगत् का कुछ भी ज्ञान आपको नहीं है । मूर्ति की तरह आप खड़े हैं । मुँह उज्जवल और सहास्य है । भक्तों में से कुछ खड़े और कुछ बैठे ही, सभी निर्वाक् होकर टकटकी लगाए प्रेमराज्य की इस अनोखी छबि को-इस अपूर्व समाधिदृश्य को-देख रहे हैं ।.
*साधारण लोग नेता (अवतार) के आगमन को नहीं जान सकते *
बड़ी देर बाद समाधि टूटी । श्रीरामकृष्ण लम्बी साँस छोड़कर बारम्बार रामनाम उच्चारण कर रहे हैं । नाम के प्रत्येक वर्ण से मानो अमृत टपक रहा है । श्रीरामकृष्ण बैठे । भक्त भी चारों तरफ बैठकर उनको एकटक देख रहे हैं ।
{After a long time he returned to the normal consciousness of the world. He drew a long breath and repeatedly chanted the name of Rama, every word (मानो रामनाम द्वारा अपना ही परिचय दे रहे हैं) showering nectar into the hearts of the devotees. The Master sat down, the others seating themselves around him.
श्रीरामकृष्ण(भक्तों से)- जब अवतार आते हैं, तो साधारण लोग उनको नहीं जान सकते । वे छिपकर आते हैं । दो ही चार अन्तरंग भक्त (शिष्य या लीलापर्षद) उनको जान सकते हैं । राम पूर्णब्रह्म थे, पूर्ण अवतार थे, यह बात केवल बारह ऋषियों को मालुम थी । अन्य ऋषियों ने कहा था, ‘राम, हम तो तुमको दशरथ का बेटा ही समझते हैं ।’
{ "Ordinary people do not recognize the advent of an Incarnation of God. He comes in secret. Only a few of His intimate disciples can recognize Him. "That Rama "चौथा राम , जो सबसे न्यारा और जगत पसारा दोनों एक साथ हैं !was both Brahman Absolute and a perfect Incarnation of God in human form was known only to twelve rishis. The other sages said to Him, 'Rama, we know You only as Dasaratha's son.'
*नेता नित्य को पहुँचकर विलास के उद्देश्य से लीला लेकर रहता है *
“अखण्ड सच्चिदानन्द ( अविभाज्य Existence-Consciousness-Bliss) को सब कोई थोड़े ही समझ सकते हैं । परन्तु भक्ति उसी (विज्ञानी) की पक्की है, जो नित्य को पहुँचकर विलास के उद्देश्य से लीला लेकर रहता है । विलायत में क्वीन (रानी) को जब देखकर आओ, तब क्वीन की बातें, क्वीन के कार्य, इन सब का वर्णन हो सकता है । क्वीन के विषय में कहना तभी ठीक उतरता है । भरद्वाज आदि ऋषियों ने राम की स्तुति की थी और कहा था, ‘हे राम, तुम्हीं वह अखण्ड सच्चिदानन्द हो ! हमारे सामने तुम मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हुए हो । सच तो यह है कि माया के द्वारा ही तुम मनुष्य जैसे दिखते हो ।’ भरद्वाज आदि ऋषि राम के परम भक्त थे । उन्हीं की भक्ति पक्की है ।”
{ "Can everyone comprehend Brahman, the Indivisible Existence-Knowledge-Bliss Absolute? He alone has attained perfect love of God who, having reached the Absolute, keeps himself in the realm of the Relative in order to enjoy the divine lila. A man can describe the ways and activities of the Queen (Queen Victoria.) if he has previously visited her in England. Only then will his description of the Queen be correct. Sages like Bharadvaja adored Rama and said: 'O Rama, You are nothing but the Indivisible Satchidananda. You have appeared before us as a human being, but You look like a man because You have shrouded Yourself with Your own maya.' These rishis were great devotees of Rama and had supreme love for God.माँ काली का यथार्थ भक्त वह 'विज्ञानी ' है जो नित्य को पहुँचकर विलास के उद्देश्य से लीला लेकर रहता है । अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करके 'Be and Make ' आंदोलन के प्रचार-प्रसार में आजीवन लगा रहता है ! "]
(४)
*श्रीरामकृष्ण और अवतारवाद *
भक्त निर्वाक् होकर वह अवतार-तत्त्व सुन रहे हैं । कोई कोई सोच रहे हैं, ‘क्या आश्चर्य है ! वेदान्त अखण्ड सच्चिदानन्द-जिन्हें वेद ने मन-वचन से परे बताया है- क्या वे ही हमारे साढ़े-तीन हाथ का मनुष्य-शरीर लेकर आते हैं? जब श्रीरामकृष्ण कहते हैं तो वैसा अवश्य ही होगा । यदि ऐसा न होता तो ‘राम राम’ कहते हुए इन महापुरुष को क्यों समाधि होती? अवश्य इन्होंने हृदयकमल में राम का रूप देखा होगा ।’
थोड़ी देर में कोन्नगर से कुछ भक्त मृदंग और झाँझ लिए संकीर्तन करते हुए बगीचे में आए । मनमोहन, नबाई आदि बहुत से लोग नामसंकीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के पास उसी उत्तरपूर्ववाले बरामदे में पहुँचे । श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर उनसे मिलकर संकीर्तन कर रहे हैं ।
नाचते नाचते बीच बीच में समाधि हो जाती है । तब संकीर्तन के बीच में निःस्पन्द होकर खड़े रहते हैं । उसी अवस्था में भक्तों ने उनको फूलों की बड़ी बड़ी मालाओं से सजाया । भक्त देख रहे हैं मानो सामने ही श्रीगौरांग खड़े हैं । गहरी भावसमाधि में मग्न हैं ।
{ Three moods of divine consciousness :the inmost, when he completely lost all knowledge of the outer world; the semi-conscious, when he danced with the devotees in an ecstasy of love; and the conscious, when he joined them in loud singing.}
श्रीगौरांग की तरह श्रीरामकृष्ण की भी तीन दशाएं हैं; कभी अन्तर्दशा-तब जड़ वस्तु की भाँति आप बेहोश और निःस्पन्द हो जाते हैं; कभी अर्धबाह्य दशा-तब प्रेम से भरपूर होकर नाचते हैं; और फिर बाह्य दशा-तब भक्तों के साथ संकीर्तन करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो खड़े हैं । गले में मालाएँ हैं । कहीं गिर न पड़े इसलिए एक भक्त आपको पकड़े हुए हैं । चारों ओर भक्त खड़े होकर मृदंग और झाँझ के साथ कीर्तन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की दृष्टि स्थिर है । श्रीमुख पर प्रेम की छटा झलक रही है । आप पश्चिम की ओर मुँह किए हैं । बड़ी देर तक सब लोग यह आनन्दमूर्ति देखते रहे ।
समाधि छूटी । दिन चढ़ गया है । थोड़ी देर बाद कीर्तन भी बन्द हुआ । भक्तगण श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए व्यग्र हैं ।
कुछ देर विश्राम के पश्चात् श्रीरामकृष्ण एक नया पीला वस्त्र पहने अपनी छोटी खाट पर बैठे । आनन्दमय महापुरुष की उस अनुपम ज्योतिर्मय रूपछबि को भक्त देख रहे हैं; पर देखने की प्यास नहीं मिटती । वे सोचते हैं की इसे देखते ही रहें, इस रूपसागर में डूब जायें ।
श्रीरामकृष्ण भोजन करने बैठे । भक्तों ने भी प्रसाद पाया ।
(५)
*श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्मसमन्वय*
भोजन के उपरान्त श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर आराम कर रहे हैं । कमरे में लोगों की भीड़ बढ़ रही है । बाहर के बरामदे भी लोगों से भरे हैं । कमरे के भीतर जमीन पर भक्त बैठे हैं और श्रीरामकृष्ण की ओर एकदृष्टि से ताक रहे हैं । केदार, सुरेश, राम, मनोमोहन, गिरीन्द्र, राखाल, भवनाथ, मास्टर आदि बहुत लोग वहाँ पर मौजूद हैं । राखाल के पिता आए हैं, वे भी वहीँ बैठे हैं ।
एक वैष्णव गोसाई भी उसी स्थान पर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे बातें कर रहे हैं। गोसाइयों (Vaishnava goswami ) को देखते ही श्रीरामकृष्ण सिर झुकाकर प्रणाम करते थे- कभी कभी तो उनके सामने साष्टांग प्रणाम करते थे ।
*नाममाहात्म्य अथवा अनुराग*
[बिच्छू के काटने पर सिर्फ नाम ( magic words) काफी नहीं माँ काली में अनुरागअनिवार्य]
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, तुम क्या कहते हो? उपाय क्या है ? "Well, what do you say? What is the way?"
गोसाई- जी, नाम से ही सब कुछ होगा । कलियुग में नाम की बड़ी महिमा है ।
श्रीरामकृष्ण- हाँ, नाम की बड़ी महिमा तो है, पर बिना अनुराग के क्या हो सकता है? ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होने चाहिए । सिर्फ नाम लेता जा रहा हूँ, पर चित्त कामिनी और कांचन में है इससे क्या होगा ?
“बिच्छू या मकड़ी के काटने पर खाली मन्त्र से वह अच्छा नहीं होता-उसके लिए कण्डे का ताप भी देना पड़ता है ।”
{ "Yes, there is no doubt about the sanctity of God's name. But can a mere name achieve anything, without the yearning love of the devotee behind it? One should feel great restlessness of soul for the vision of God. Suppose a man repeats the name of God mechanically, while his mind is absorbed in 'woman and gold'. Can he achieve anything? Mere muttering of magic words doesn't cure one of the pain of a spider or scorpion sting. One must also apply the smoke of burning cow-dung." (A primitive medicine used by the villagers for scorpion bites.)
गोसाई- तो अजामिल का क्यों हुआ ? वह महापातकी था, ऐसा पाप ही न था जो उसने न किया हो; पर मरते समय अपने लड़के को ‘नारायण’ कहकर बुलाने से ही उसका उद्धार हो गया ।
গোস্বামী — তাহলে অজামিল? অজামিল মহাপাতকী, এমন পাপ নাই যা সে করে নাই। কিন্তু মরবার সময় ‘নারায়ণ’ বলে ছেলেকে ডাকাতে উদ্ধার হয়ে গেল।
{"But what about Ajamila then? He was a great sinner; there was no sin he had not indulged in. But he uttered the name of Narayana on his death-bed, calling his son, who also had that name. And thus he was liberated."
*पुत्रैषणा , वित्तैषणा और लोकैषणा में आसक्ति को कम करने की प्रार्थना*
श्रीरामकृष्ण- शायद अजामिल पूर्वजन्म में बहुत कर्म कर चुका था । और यह भी लिखा है कि उसने बाद में तपस्या भी की थी ।
“अथवा यों कहो कि उस समय अन्तिम क्षण आ गए थे । हाथी को नहला देने से क्या होगा, फिर धूल-मिट्टी लिपटाकर वह ज्यों का त्यों हो जाता है । पर हाथीखाने में घुसने के पहले ही अगर कोई उसकी धूल झाड़ दे और उसे नहला दे तो फिर उसका शरीर साफ रह सकता है ।
[ শ্রীরামকৃষ্ণ — হয়তো অজামিলের পূর্বজন্মে অনেক কর্ম করা ছিল। আর আছে যে, সে পরে তপস্যা করেছিল।“এরকমও বলা যায় যে, তার তখন অন্তিমকাল। হাতিকে নাইয়ে দিলে কি হবে, আবার ধূলা-কাদা মেখে যে কে সেই! তবে হাতিশালায় ঢোকবার আগে যদি কেউ ঝুল ঝেড়ে দেয় ও স্নান করিয়ে দেয়, তাহলে গা পরিস্কার থাকে
"Perhaps Ajamila had done many spiritual things in his past births. It is also said that he once practised austerity; besides, those were the last moments of his life. What is the use of giving an elephant a bath? It will cover itself with dirt and dust again and become its former self. But if someone removes the dust from its body and gives it a bath just before it enters the stable, then the elephant remains clean.
“मान लिया कि नाम से जीव एक बार शुद्ध हुआ, पर वह फिर तरह तरह के पापों में लिप्त हो जाता है । मन में बल नहीं; वह प्रण नहीं करता कि फिर पाप नहीं करूँगा । गंगास्नान से सब पाप मिट जाते हैं सही, पर सब लोग कहते हैं कि वे पाप एक पेड़ पर चढ़े रहते हैं । जब वह मनुष्य गंगाजी से नहाकर लौटता है, तो वे पुराने पाप पेड़ से कूदकर फिर उसके सिर पर सवार हो जाते हैं । (सब हँसे) उन पुराने पापों ने उसे फिर घेर लिया। दो-चार कदम चलते ही उसे धर दबोचा ।
{“নামেতে একবার শুদ্ধ হল, কিন্তু তারপরেই হয়তো নানা পাপে লিপ্ত হয়। মনে বল নাই; প্রতিজ্ঞা করে না যে, আর পাপ করব না। গঙ্গাস্নানে পাপ সব যায়। গেলে কি হবে? লোকে বলে থাকে, পাপগুলো গাছের উপর থাকে। গঙ্গা নেয়ে যখন মানুষটা ফেরে, তখন ওই পুরানো পাপগুলো গাছ থেকে ঝাঁপ দিয়ে ওর ঘাড়ের উপর পড়ে। (সকলের হাস্য) সেই পুরানো পাপগুলো আবার ঘাড়ে চড়েছে। স্নান করে দু-পা না আসতে আসতে আবার ঘাড়ে চড়েছে!
"Suppose a man becomes pure by chanting the holy name of God, but immediately afterwards commits many sins. He has no strength of mind. He doesn't take a vow not to repeat his sins. A bath in the Ganges undoubtedly absolves one of all sins; but what does that avail? They say that the sins perch on the trees along the bank of the Ganges. No sooner does the man come back from the holy waters than the old sins jump on his shoulders from the trees. (All laugh.) The same old sins take possession of him again. He is hardly out of the water before they fall upon him.
“इसलिए नाम भी करो और साथ ही प्रार्थना भी करो कि ईश्वर पर अनुराग हो, और जो चीजें दो दिन के लिए है-जैसे धन, मान, देहसुख आदि-उनसे आसक्ति घट जाय ।
[“তাই নাম কর, সঙ্গে সঙ্গে প্রার্থনা কর, যাতে ঈশ্বরেতে অনুরাগ হয়, আর যে-সব জিনিস দুদিনের জন্য, যেমন টাকা, মান, দেহের সুখ; তাদের উপর যাতে ভালবাসা কমে যায়, প্রার্থনা কর।”
"Therefore I say, chant the name of God, and with it pray to Him that you may have love for Him. Pray to God that your attachment to such transitory things as wealth, name, and creature comforts-पुत्रैषणा , वित्तैषणा और लोकैषणा may become less and less every day.
*तालिबानी सोंच या धर्मान्धता (dogmatism )ठीक नहीं *
(गोसाई से)-“यदि आन्तरिकता हो तो सभी धर्मों से ईश्वर मिल सकते हैं । वैष्णवों को भी मिलेंगे तथा शाक्तों, वेदान्तियों और ब्राह्मों को भी, मुसलमानों और ईसाइयों को भी । हृदय से चाहने पर सब को मिलेंगे । कोई कोई झगड़ा कर बैठते हैं । वे कहते हैं कि हमारे श्रीकृष्ण को भजे बिना कुछ न बनेगा; या हमारी कालीमाता को भजे बिना कुछ न होगा; अथवा हमारे ईसाई धर्म को ग्रहण किए बिना कुछ न होगा ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ (গোস্বামীর প্রতি) — আন্তরিক হলে সব ধর্মের ভিতর দিয়াই ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। বৈষ্ণবেরাও ঈশ্বরকে পাবে, শাক্তরাও পাবে, বেদান্তবাদীরাও পাবে, ব্রহ্মজ্ঞানীরাও পাবে; আবার মুসলমান, খ্রীষ্টান, এরাও পাবে। আন্তরিক হলে সবাই পাবে। কেউ কেউ ঝগড়া করে বসে। তারা বলে, “আমাদের শ্রীকৃষ্ণকে না ভজলে কিছুই হবে না”; কি, “আমাদের মা-কালীকে না ভজলে কিছুই হবে না।”
(To the Goswami) With sincerity and earnestness one can realize God through all religions. The Vaishnavas will realize God, and so will the Saktas the Vedantists, and the Brahmos. The Mussalmans and Christians will realize Him too. All will certainly realize God if they are earnest and sincere.
"Some people indulge in quarrels, saying, 'One cannot attain anything unless one Worships our Krishna', or, 'Nothing can be gained without the worship of Kali, our Divine Mother', or, 'One cannot be saved without accepting the Christian religion.'
“ऐसी बुद्धि का नाम धर्मान्धता (dogmatism) है, अर्थात् मेरा ही धर्म ठीक है और बाकी सब का गलत । यह बुद्धि खराब है । ईश्वर के पास हम बहुत रस्तों से पहुँच सकते हैं ।”
[“এ-সব বুদ্ধির নাম মাতুয়ার বুদ্ধি; অর্থাৎ আমার ধর্মই ঠিক, আর সকলের মিথ্যা। এ-বুদ্ধি খারাপ। ঈশ্বরের কাছে নানা পথ দিয়ে পৌঁছানো যায়।
This is pure dogmatism. The dogmatist says 'My religion alone is true, and the religions of others are false.' This is-a bad attitude. God can be reached by different paths.
“फिर कोई कोई कहते हैं कि ईश्वर साकार हैं, निराकार नहीं । यह कहकर वे झगड़ने लग जाते हैं ! जो वैष्णव हैं वह वेदान्ती से झगड़ता है ।”
[“আবার কেউ কেউ বলে, ঈশ্বর সাকার, তিনি নিরাকার নন। এই বলে আবার ঝগড়া। যে বৈষ্ণব, সে বেদান্তবাদীর সঙ্গে ঝগড়া করে।
"Further, some say that God has form and is not formless. Thus they start quarrelling. A Vaishnava quarrels with a Vedantist.
“यदि ईश्वर के साक्षात् दर्शन हों, तो सब हाल ठीक ठीक बताया जा सकता है । जिसने दर्शन किये है वह ठीक जानता है कि भगवान् साकार भी हैं और निराकार भी । वे और भी कैसे कैसे हैं, यह कौन बताए ।”
[“যদি ঈশ্বর সাক্ষাৎ দর্শন হয়, তাহলে ঠিক বলা যায়। যে দর্শন করেছে, সে ঠিক জানে ঈশ্বর সাকার, আবার নিরাকার। আরও তিনি কত কি আছেন তা বলা যায় না।
"One can rightly speak of God only after one has seen Him. He who has seen God knows really and truly that God has form and that He is formless as well. He has many other aspects that cannot be described.]
“कुछ अन्धे some blind men एक हाथी elephantके पास गए थे । एक ने बता दिया, इस चौपाये का नाम हाथी है । तब अन्धों से पूछा गया, हाथी कैसा है? वे हाथी की देह छूने लगे । एक ने कहा, हाथी खम्भे के आकार का है ! उसने हाथी का पैर छुआ था । दूसरे ने कहा, हाथी सूप के तरह है उसके हाथ हाथी के कान पड़े थे । इसी तरह किसी ने पेट पकड़कर कुछ कहा, किसी ने सूँड़ पकड़कर कुछ कहा । ऐसे ही ईश्वर के सम्बन्ध में जिसने जितना देखा है, उसने यही सोचा है कि ईश्वर बस ऐसे ही हैं, और कुछ नहीं ।”
[“কতকগুলো কানা একটা হাতির কাছে এসে পড়েছিল। একজন লোক বলে দিলে, এ-জানোয়ারটির নাম হাতি। তখন কানাদের জিজ্ঞাসা করা হল হাতিটা কিরকম? তারা হাতির গা স্পর্শ করতে লাগল। একজন বললে, ‘হাতি একটা থামের মতো!’ সে কানাটি কেবল হাতির পা স্পর্শ করেছিল। আর-একজন বললে, ‘হাতিটা একটা কুলোর মতো!’ সে কেবল একটা কানে হাত দিয়ে দেখেছিল। এইরকম যারা শুঁড়ে কি পেটে হাত দিয়ে দেখেছিল তারা নানা প্রকার বলতে লাগল। তেমনি ঈশ্বর সম্বন্ধে যে যতটুকু দেখেছে সে মনে করেছে, ইশ্বর এমনি, আর কিছু নয়।
"Once some blind men chanced to come near an animal that someone told them was an elephant. They were asked what the elephant was like. The blind men began to feel its body. One of them said the elephant was like a pillar; he had touched only its leg. Another said it was like a winnowing-fan; he had touched only its ear. In this way the others, having touched its tail or belly, gave their different versions of the elephant. Just so, a man who has seen only one aspect of God limits God to that alone. It is his conviction that God cannot be anything else.
“एक आदमी शौच के लिए गया था । लौटकर उसने कहा, ‘मैंने पेड़ के नीचे एक सुन्दर लाल गिरगिट देखा ।’ दूसरे ने कहा, ‘तुमसे पहले मैं उस पेड़ के नीचे गया था; परन्तु वह लाल क्यों होने लगा? वह तो हरा है । मैंने अपनी आँखों से देखा है ।’ तीसरे ने कहा, ‘मैं तुम दोनों से पहले गया था, उसको मैंने भी देखा है परन्तु वह न लाल है; न हरा; वह तो नीला है ।’ और दो थे, उनमें से एक ने बताया पीला, और एक ने, खाकी । इस तरह अनेक रंग हो गए । अन्त में सब में झगड़ा होने लगा । हर एक का यही विश्वास था कि उसने जो कुछ देखा है, वही ठीक है । उनकी लड़ाई देख एक ने पूछा, ‘तुम लड़ते क्यों हो?’ जब उसने कुल हाल सुना तब कहा, ‘मैं उसी पेड़ के नीचे रहता हूँ; और उस जानवर को मैं खूब पहचानता हूँ । तुममें से हर एक का कहना सच है । वह कभी हरा, कभी नीला, कभी लाल इस तरह अनेक रंग धारण करता है । और कभी देखता हूँ, कोई रंग नहीं निर्गुण है !’
(Sri Ramakrishna's birthday :11 मार्च 1883)
*ईश्वर नित्य -साकार हैं अथवा नित्य -निराकार ?*
(गोस्वामी से)- “ईश्वर को सिर्फ साकार कहने से क्या होगा ! वे श्रीकृष्ण (श्रीठाकुरदेव-माँ सारदा -स्वामीजी ) की तरह मनुष्यरूप धारण करके आते हैं, यह भी सत्य है; अनेक रूपों से भक्तों को दर्शन देते हैं, यह भी सत्य है; और फिर वे निराकार अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, यह भी सत्य है । वेदों ने उनको साकार भी कहा है, निराकार भी कहा है; सगुण भी कहा है और निर्गुण भी ।”
(গোস্বামীর প্রতি) — “তা ঈশ্বর শুধু সাকার বললে কি হবে। তিনি শ্রীকৃষ্ণের ন্যায় মানুষের মতো দেহধারণ করে আসেন, এও সত্য, নানারূপ ধরে ভক্তকে দেখা দেন, এও সত্য। আবার তিনি নিরাকার, অখণ্ড সচ্চিদানন্দ, এও সত্য। বেদে তাঁকে সাকার নিরাকার দুই বলেছে, সগুণও বলেছে, নির্গুণও বলেছে।
(To the goswami) "How can you say that the only truth about God is that He has form? It is undoubtedly true that God comes down to earth in a human form, as in the case of Krishna. And it is true as well that God reveals Himself to His devotees in various forms. But it, is also true that God is formless; He is the Indivisible Existence-Knowledge-Bliss Absolute. He has been described in the Vedas both as formless and as endowed with form. He is also described there both as attributeless and as endowed with attributes.
“किस तरह, जानते हो । सच्चिदानन्द मानो एक अनन्त समुद्र है । ठण्डक के कारण समुद्र का पानी बर्फ बनकर तैरता है । पानी पर बर्फ के कितने ही आकर के टुकड़े तैरते हैं । वैसे ही भक्तिहिम के लगने से सच्चिदानन्द-सागर में साकार मूर्ति के दर्शन होते हैं । वे भक्त के लिए साकार होते हैं । फिर जब ज्ञानसूर्य का उदय होता है तब बर्फ गल जाती है, फिर वही पहले का पानी ज्यों का त्यों रह जाता है। ऊपर-नीचे जल ही जल भरा हुआ है । इसीलिए श्रीमद्भागवत में सब स्तव करते हैं, हे देव, तुम्हीं साकार हो, तुम्हीं निराकार हो । हमारे सामने तुम मनुष्य बने घूम रहे हो, परन्तु वेदों ने तुम्हीं को वाक्य और मन से परे कहा है ।”
“কিরকম জান? সচ্চিদানন্দ যেন অনন্ত সাগর। ঠাণ্ডার গুণে যেমন সাগরের জল বরফ হয়ে ভাসে, নানা রূপ ধরে বরফের চাঁই সাগরের জলে ভাসে; তেমনি ভক্তিহিম লেগে সচ্চিদানন্দ-সাগরে সাকারমূর্তি দর্শন হয়। ভক্তের জন্য সাকার। আবার জ্ঞানসূর্য উঠলে বরফ গলে আগেকার যেমন জল, তেমনি জল। অধঃ ঊর্ধ্ব পরিপূর্ণ। জলে জল। তাই শ্রীমদ্ভাগবতে সব স্তব করেছে — ঠাকুর, তুমিই সাকার তুমিই নিরাকার; আমাদের সামনে তুমি মানুষ হয়ে বেড়াচ্ছ, কিন্তু বেদে তোমাকেই বাক্য-মনের অতীত বলেছে।
Do you know what I mean? Satchidananda is like an infinite ocean. Intense cold freezes the water into ice, which floats on the ocean in blocks or various forms. Likewise, through the cooling influence of bhakti, one sees forms of God in the Ocean of the Absolute. These forms are meant for the bhaktas, the lovers of God. But when the Sun of Knowledge rises, the ice melts; it becomes the same water it was before. Water above and water below, everywhere nothing but water. Therefore a prayer in the Bhagavata says: 'O Lord, Thou hast form, and Thou art also formless. Thou walkest before us, O Lord, in the shape of a man; again, Thou hast been described in the Vedas as beyond words and thought.'
* ईश्वर देहधारी है, निराकार भी और इससे परे भी ~ उनकी इति नहीं हो सकती !*
[माँ सारदा (उमा हैमवती, हिमशैल-आइसबर्ग ) अपने पुत्र के लिये नित्य साकार रहती हैं !]
श्रीरामकृष्ण - “परन्तु यह कह सकते हो कि किसी किसी भक्त के लिए वे नित्य साकार हैं । समुद्र में ऐसा भी स्थान है जहाँ बर्फ गलती नहीं, स्फटिक ^* का आकार धारण करती है ।”
{बर्फ-का- स्फटिक ^* quartz > " हिमशैल (आइसबर्ग - Iceberg) मीठे जल के ऐसे बड़े टुकड़े को कहते हैं जो किसी हिमानी (ग्लेशियर) या हिमचट्टान (आइस-शेल्फ़) से टूटकर खुले पानी में तैर रहा हो। उत्प्लावन बल के कारण किसी भी हिमशैल का लगभग दसवाँ हिस्सा ही समुद्री पानी के ऊपर नज़र आता है जबकि उसका बाक़ी नौ-गुना बड़ा भाग जल के नीचे होता है। (तबतक टाइटेनिक फिल्म नहीं बनी थी।) }
[ “তবে বলতে পার, কোন কোন ভক্তের পক্ষে তিনি নিত্য সাকার। এমন জায়গা আছে, যেখানে বরফ গলে না, স্ফটইকের আকার ধারণ করে।”
{But you may say that FOR CERTAIN DEVOTEES GOD ASSUMES ETERNAL FORMS for certain devotees God assumes eternal forms. There are places in the ocean where the ice doesn't melt at all. It assumes the form of quartz (स्फटिक)-
केदार- श्रीमद्भागवत में व्यासदेव* ने तीन दोषों के लिए परमात्मा से क्षमाप्रार्थना की है । एक जगह कहा है, हे भगवन् तुम मन और वाणी से दूर हो, किन्तु मैंने केवल तुम्हारी लीला, तुम्हारे साकार रूप का वर्णन किया; अतएव अपराध क्षमा करो ।
KEDAR: আজ্ঞে, শ্রীমদ্ভাগবতে ব্যাস১ তিনটি দোষের জন্য ভগবানের কাছে ক্ষমা প্রার্থনা করেছেন। এক জায়গায় বলেছেন, হে ভগবন্ তুমি বাক্য মনের অতীত, কিন্তু আমি কেবল তোমার লীলা — তোমার সাকাররূপ — বর্ণনা করেছি, অতএব অপরাধ মার্জনা করবেন।
"It is said in the Bhagavata that Vyasa asked God's forgiveness for his three transgressions. He said: 'O Lord, Thou art formless, but I have thought of Thee in my meditation as endowed with form; Thou art beyond speech, but I have sung Thee hymns; Thou art the All-pervading Spirit, but I have made pilgrimages to sacred places. Be gracious, O Lord, and forgive these three transgressions of mine.'"
{ *रूप रुपविवर्जितस्य भवतो ध्यानेन यत् कल्पितं
स्त्युत्यनिर्वाचनीयताऽखिलगुरो दृरोकृता यन्मया ।
व्यापित्वंच निराकृतं भगवतो यतीर्थयात्रादिना,
क्षन्तव्यं जगदीश ! तद्विकलतादोषत्रयं मत्कृतम् ।।
(भागवत 1-4-29-3)
अर्थात , हे भगवान ,तुम अरूप हो किन्तु मैंने अपने ध्यान में तुम्हें रूप दे दिया l हे अखिल जगत के गुरु ,तुम अवर्णनीय हो ,पर अपनी स्तुतियों में मैंने इस सत्य का उल्लंघन कर दिया है l तीर्थयात्रा करके मैंने तुम्हारी सर्वव्यापिता से इंकार किया l हे जगदीश ,मेरे इन तीन दोषों को क्षमा करना l }
श्रीरामकृष्ण- हाँ, ईश्वर साकार (देहधारी corporeal) भी हैं और निराकार (formless) भी, फिर साकार-निराकार के भी परे हैं । उनकी इति नहीं की जा सकती ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, ঈশ্বর সাকার আবার নিরাকার, আবার সাকার-নিরাকারেরও পার। তাঁর ইতি করা যায় না।
MASTER: "Yes, God has form and He is formless too. Further, He is beyond both form and formlessness. No one can limit Him."
(६)
[Sri Ramakrishna's birthday :11 मार्च 1883)]
*विषयी पिता के यहाँ भी नित्यसिद्ध श्रेणी के होमापक्षी जन्म ग्रहण कर सकते हैं *
राखाल के पिता बैठे हुए हैं । राखाल आजकल श्रीरामकृष्ण के पास ही रहते हैं । राखाल की माता के गुजर जाने पर उनके पिता ने अपना दूसरा विवाह कर लिया है । राखाल यहीं रहते हैं; इसलिए उनके पिता कभी कभी आया करते हैं । राखाल के यहाँ रहने में इनकी ओर से कोई बाधा नहीं है । ये श्रीमान् और विषयी मनुष्य हैं । सदा मुकदमों की पैरवी में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण के पास कितने ही वकील और डिप्टी मैजिसट्रेट आया करते हैं । राखाल के पिता इनसे वार्तालाप करने के लिए कभी कभी आ जाते हैं । उनसे मुकदमों की बहुत सी बातें सूझ जाती हैं ।
[Rakhal's father was sitting in the room. At that time Rakhal was staying with the Master. After his mother's death his father had married a second time. Now and then he came to Dakshineswar because of Rakhal's being there. He did not raise much objection to his son's living with the Master. Being a wealthy man of the world, he was always involved in litigation. There were lawyers and deputy magistrates among Sri Ramakrishna's visitors. Rakhal's father found it profitable to cultivate their acquaintance, since he expected to be benefited by their counsels in worldly matters.
श्रीरामकृष्ण रह-रहकर राखाल के पिता को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की इच्छा है, राखाल उन्हीं के पास रह जाएँ ।
श्रीरामकृष्ण (राखाल के पिता और भक्तों से)- अहा, आजकल राखाल का स्वभाव कैसा हुआ है ! उसके मुँह पर दृष्टि डालने से देखोगे, उसके होंठ रह-रहकर हिल रहे हैं । अन्तर में ईश्वर का नाम जपता है, इसलिए होंठ हिलते रहते हैं ।
“ये सब लड़के नित्यसिद्ध की श्रेणी के हैं । ईश्वर का ज्ञान लेकर पैदा हुए हैं । कुछ उम्र होते ही ये समझ जाते हैं कि संसार की छूत देह में लगी तो फिर निस्तार न होगा । वेदों में ‘होमा’ पक्षी की कहानी है । वह चिड़िया आकाश में ही रहती है; जमीन पर कभी नहीं उतरती । आकाश ही में अण्डे देती है । अण्डे गिरते रहते हैं, पर वे इतनी ऊँचाई से गिरते हैं कि गिरते ही गिरते बीच में वे फूट जाते हैं । तब बच्चे निकल आते हैं । वे भी गिरने लगते हैं । उस समय भी वे इतने ऊँचे पर रहते हैं कि गिरते ही गिरते उनके पंख निकल आते हैं और आँखें भी खुल जाती हैं । तब वे समझ जाते हैं कि अरे हम मिट्टी में गिर जाएँगे, और गिरे तो चकनाचूर ! मिट्टी देखते ही एकदम अपनी माता की ओर उड़ जाते हैं । माता के निकट पहुंचना ही उनका लक्ष्य हो जाता है ।
[“এ-সব ছোকরারা নিত্যসিদ্ধের থাক। ঈশ্বরের জ্ঞান নিয়ে জন্মেছে। একটু বয়স হলেই বুঝতে পারে, সংসার গায়ে লাগলে আর রক্ষা নাই। বেদেতে হোমাপাখির কথা আছে, সে পাখি আকাশেই থাকে, মাটির উপর কখন আসে না। আকাশেই ডিম পাড়ে। ডিম পড়তে থাকে; কিন্তু এত উঁচুতে পাখি থাকে যে, পড়তে পড়তে ডিম ফুটে যায়। তখন পাখির ছানা বেরিয়ে পড়ে, সেও পড়তে থাকে। তখনও এত উঁচু যে পড়তে পড়তে ওর পাখা উঠে ও চোখ ফোটে। তখন সে দেখতে পায় যে, আমি মাটির উপর পড়ে যাব! মাটিতে পড়লেই মৃত্যু! মাটি দেখাও যা, অমনি মার দিকে চোঁচা দৌড়। একবারে উড়তে আরম্ভ করে দিল। যাতে মার কাছে পৌঁছতে পারে। এক লক্ষ্য মার কাছে যাওয়া।
"Youngsters like him belong to the class of the ever-perfect. They are born with God-Consciousness. No sooner do they grow a little older than they realize the danger of coming in contact with the world. There is the parable of the homa bird in the Vedas. The bird lives high up in the sky and never descends to earth. It lays its egg in the sky, and the egg begins to fall. But the bird lives in such a high region that the egg hatches while falling. The fledgling comes out and continues to fall. But it is still so high that while falling it grows wings and its eyes open. Then the young bird perceives that it is dashing down toward the earth and will be instantly killed. The moment it sees the ground, it turns and shoots up toward its mother in the sky. Then its one goal is to reach its mother.
“ये सब लड़के ठीक वैसे ही हैं । बचपन ही में संसार देखकर डर जाते हैं । इनकी एकमात्र चिन्ता यही है कि किस तरह माता के निकट जाएँ, किस प्रकार ईश्वर के दर्शन हों ।
[“এ-সব ছোকরারা ঠিক সেইরকম। ছেলেবেলাই সংসার দেখে ভয়। এক চিন্তা — কিসে মার কাছে যাব, কিসে ঈশ্বরলাভ হয়।
"Youngsters like Rakhal are like that bird. From their very childhood they are afraid of the world, and their one thought is how to reach the Mother, how to realize God.
“यदि यह कहो कि ये रहे विषयी मनुष्यों में, पैदा हुए विषयी के यहाँ, फिर इनमें ऐसी भक्ति, ऐसा ज्ञान कैसे हो गया, तो इसका भी अर्थ है । मैली जमीन पर यदि चना गिर जाय, तो उसमें चना ही फलता है । उस चने से कितने अच्छे काम होते हैं । मैली जमीन पर गिर गया है, इसलिए उसमें कोई दूसरा पौधा थोड़े ही होगा ।
[ ”যদি বল, বিষয়ীদের মধ্যে থাকা, বিষয়ীদের ঔরসে জন্ম, তবে এমন ভক্তি — এমন জ্ঞান হয় কেমন করে? তার মানে আছে। বিষ্ঠাকুড়ে যদি ছোলা পড়ে, তাহলে তাতে ছোলাগাছই হয়। সে ছোলাতে কত ভাল কাজ হয়। বিষ্ঠাকুড়ে পড়েছে বলে কি অন্য গাছ হবে?
"You may ask, 'How is it possible for these boys, born of worldly parents and living among the worldly-minded, to develop such knowledge and devotion?' It can be explained. If a pea falls into a heap of dung, it germinates into a pea-plant none the less. The peas that grow on that plant serve many useful purposes. Because it was sown in dung, will it produce another kind of plant?
“अहा, राखाल का स्वभाव आजकल कैसा हो गया है ! और होगा भी क्यों नहीं । यदि सूरन अच्छा हुआ, तो उसके अंकुर भी अच्छे होते हैं । (सब हँसते हैं) जैसा बाप, वैसा उसका बेटा ।”
[“আহা, রাখালের স্বভাব আজকাল কেমন হয়েছে। তা হবে নাই বা কেন? ওল যদি ভাল হয়, তার মুখিটিও ভাল হয়। (সকলের হাস্য) যেমন বাপ, তার তেমনি ছেলে!”
"Ah, what a sweet nature Rakhal has nowadays! And why shouldn't it be so? If the yam is a good one, its shoots also become good. (All laugh.) Like father like son."
मास्टर (गिरीन्द्र से अलग से)- साकार और निराकार की बात कैसी समझायी इन्होंने ! जान पड़ता है, वैष्णव केवल साकार ही मानते हैं ।
[“মাস্টার (একান্ত গিরীন্দ্রের প্রতি) — সাকার-নিরাকারের কথাটি ইনি কেমন বুঝিয়ে দিলেন। বৈষ্ণবেরা বুঝি কেবল সাকার বলে?
"How well he has explained God with and without form! Do the Vaishnavas believe only in God with form?"
गिरीन्द्र- होगा । They are one-sided. वे एक ही भाव पर अड़े रहते हैं ।
मास्टर- the 'eternal form' of God? That 'quartz'? I couldn't grasp it well."
‘नित्य साकार’ क्या हुआ ... आप समझे ? स्फटिकवाली बात । मैं उसे अच्छी तरह नहीं समझ सका ।
মাস্টার — “নিত্য সাকার”, আপনি বুঝেছেন? স্ফটিকের কথা? আমি ওটা ভাল বুঝতে পারছি না।
M: "Did you understand what he meant by the 'eternal form' of God? That 'quartz'? I couldn't grasp it well."
श्रीरामकृष्ण- (मास्टर से)-क्यों जी, तुम लोग क्या बातचीत कर रहे हो ।
मास्टर और गिरीन्द्र जरा हँसकर चुप हो गए ।
वृन्दा दासी (रामलाल से)- रामलाल, अभी इस आदमी को मिठाइयाँ दो, हमें बाद में देना ।
श्रीरामकृष्ण- वृन्दा को अभी मिठाईयाँ नहीं दी गयीं?
(७)
[Sri Ramakrishna's birthday :11 मार्च 1883]
*पंचवटी में कीर्तनानन्द*
दिन के तीसरे पहर भक्तगण पंचवटी में कीर्तन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भी उनमें मिल गये; भक्तों के साथ मातृनामसंकीर्तन (काली -कीर्तन) करते हुए आनन्द में मग्न हो रहे हैं :
श्यामापद- आकाशेते मन घुड़िखान उड़ते छिलो।
कलूसेर कूबातास पेये गोप्ता खेये पोड़े गेलो।।
मायाकान्नी होलो भारि, आर आमि ऊठाते नारि।
दारासूत कलेर दड़ी , फाँस लेगे शे फेँसे गेलो।।
ज्ञान-मुण्ड गेछे छिंडे , उठिये दिलो एमनी पोड़े।
माथा नेई शे आर कि उड़े, संगेर छय जन जयी होलो।।
भक्ति डोरे छिलो बाँधा, खेलते एशे लागलो धाँधा।
नरेशचन्द्रेर हासा काँदा, ना आशा एक छिलो भालो।।
(गीत का भावार्थ)- ‘श्यामा माँ के चरणरूपी आकाश में मन की पतंग उड़ रही थी । कलुष की वायु से वह चक्कर खाकर गिर पड़ी । माया का कन्ना भारी हुआ, मैं फिर उसे उठा नहीं सका । स्त्री-पुत्रादि के तागे में उलझकर वह फट गयी । उसका ज्ञानरूपी मस्तक(ऊपर का हिस्सा) अलग हो गया है । उठाने से ही वह गिर पड़ती है । जब सिर ही नहीं रह गया तो वह उड़ कैसे सकती है । साथ के छः आदमियों की (कामक्रोधादि की) विजय हुई । वह भक्ति के तागे से बँधी थी । खेलने के लिए आते ही तो यह भ्रम सवार हो गया । ‘नरेशचन्द्र’ को इस हँसने और रोने से तो बेहतर आना ही न था ।”
[High in the heaven of the Mother's feet, my mind was soaring like a kite, When came a blast of sin's rough wind that drove it swiftly toward the earth. Maya disturbed its even flight by bearing down upon one side, And I could make it rise no more. Entangled in the twisting string of love for children and for wife, Alas! my kite was rent in twain. It lost its crest of wisdom soon and downward plunged as I let it go; How could it hope to fly again, when all its top was torn away? Though fastened with devotion's cord, it came to grief in playing here; Its six opponents (The six passions.) worsted it. Now Nareschandra rues this game of smiles and tears, and thinks it better, Never to have played at all.
जो मैं न था -तो खुदा था , जो मैं न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने , जो मैं न होता तो क्या होता ?]
फिर दूसरा गाना होने लगा। (वेदान्त के भ्रमर-कीट न्याय की व्याख्या करने वाला भजन ) गीत के साथ ही मृदंग-करताल बजने लगे । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ नाच रहे हैं ।
मजलो आमार मनभ्रमरा कालिपद नीलकमले।
(श्यामापद नीलकमले, कालीपद नीलकमले)
(जतो) विषयमधू तूच्छ होलो कामादि कुसूम सकले l
चरण कालो भ्रमर कालो, कालोय कालो मिशे गेलो।।
पंचतत्व प्रधान मत्त, रंग देखे भंग दिले।
कमलाकांतेर मने आशा पूर्ण एतो दिने।
ताय सुख-दुःख समान होलो आनंद-सागर उथले।।
(गीत का भावार्थ)-‘मेरा मन-मधुप श्यामापद-नीलकमल में मस्त हो गया । कामादि पुष्पों में जितने विषय-मधु थे, सब तुच्छ हो गए । चरण काले हैं, मधुप काला है, काले से काला मिल गया । पंचतत्त्व यह तमाशा देखकर भाग गए । ‘कमलाकान्त’ के मन की आशा इतने दिनों में पूर्ण हुई । सुख-दुःख दोनों बराबर हुए, केवल आनन्द का सागर उमड़ रहा है ।’
[The black bee of my mind is drawn in sheer delight, To the blue lotus flower of Mother Syama's feet, The blue flower of the feet of Kali, Siva's Consort; Tasteless, to the bee, are the blossoms of desire. My Mother's feet are black, and black, too, is the bee; Black is made one with black! This much of the mystery, My mortal eyes behold, then hastily retreat. But Kamalakanta's hopes are answered in the end; He swims in the Sea of Bliss, unmoved by joy or pain.
कीर्तन हो रहा है, और भक्त गा रहे हैं ।
श्यामा माँ कि एक कल कोरेछे।
(काली माँ कि एक कल कोरेछे)
चोद्यपोया कलेर भितरी, कल घुराय धोरे कलडूरि,
कल बोले आपनी घूरि , जाने ना के घुरातेछे।
जे कले जेनेछे तारे, कल होते होबे ना तारे,
कोन कलेर भक्तिडोरे आपनी श्यामा बाँधा आछे।
[https://www.facebook.com/watch?v=2557647187808114]
(भावार्थ)- “श्यामा माँ ने एक कल बनायी है । साढ़े-तीन हाथ की कल के भीतर वह कितने ही रंग दिखा रही है । वही स्वयं कल के भीतर रहकर कल की डोर पकड़कर उसे घुमाया करती है । कल कहती है, मैं खुद घूमती हूँ । वह यह नहीं जानती कि कौन उसे घुमा रहा है । जिसने कल (Automatic machine) को पहचान लिया है, उसे कल (machine) न होने होगा किसी किसी कल (machine) की भक्तिरूपी डोर में श्यामा माँ स्वयं बँधी हुई है ।”
[O Mother, what a machine (The human body.) is this that Thou hast made! What pranks Thou playest with this toy, Three and a half cubits high! Hiding Thyself within, Thou boldest the guiding string; But the machine, not knowing it, Still believes it moves by itself. Whoever finds the Mother remains a machine no more; Yet some machines have even bound, The Mother Herself with the string of Love.
भक्त लोग आनन्द करने लगे । जब उन्होंने थोड़ी देर के लिए गाना बन्द किया तब श्रीरामकृष्ण उठे । इधर उधर अभी अनेक भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण पंचवटी से अपने कमरे की ओर जा रहे हैं । मास्टर साथ हैं । बकुल के पेड़ के नीचे जब वे आये तब त्रैलोक्य से भेंट हुई । उन्होंने प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण(त्रैलोक्य से)- पंचवटी में वे लोग गा रहे हैं, एक बार चलकर देखो ।
त्रैलोक्य- मैं जाकर क्या करूँ ?
श्रीरामकृष्ण- क्यों, देखने का आनन्द मिलता ।
त्रैलोक्य- एक बार देख आया ।
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, ठीक है ।
(८)
$$$$(Sri Ramakrishna's birthday :11 मार्च 1883)
* गृहस्थ लोकशिक्षक का कार्यक्षेत्र "शीक्षा" और संन्यासी लोकशिक्षक का कार्यक्षेत्र -"दीक्षा"*
साढ़े-पाँच या छः बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए हैं । भक्तों को देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (केदार आदि भक्तों से)- जो संसारत्यागी है वह तो ईश्वर का नाम लेगा ही । उसको तो और दूसरा काम ही नहीं । वह यदि ईश्वर का चिन्तन करता है तो उस में आश्चर्य की बात क्या है ! वह यदि ईश्वर की चिन्ता न करे, यदि ईश्वर का नाम न ले, तो लोग उसकी निन्दा करेंगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (কেদারাদি ভক্তদের প্রতি) — সংসারত্যাগী সাধু — সে তো হরিনাম করবেই। তার তো আর কোন কাজ নাই। সে যদি ঈশ্বরচিন্তা করে তো, আশ্চর্যের বিষয় নয়। সে যদি ঈশ্বরচিন্তা না করে, সে যদি হরিনাম না করে তাহলে বরং সকলে নিন্দা করবে।
"A holy man who has renounced the world will of course chant the name of God. That is only natural. He has no other duties to perform. If he meditates on God it shouldn't surprise anybody. On the other hand, if he fails to think of God or chant His holy name, then people will think ill of him.
“ संसारी मनुष्य (गृहस्थ) यदि ईश्वर का नाम जपे, तो समझो उसमें बड़ी मर्दानगी है । देखो, राजा जनक बड़े ही मर्द थे। वे दो तलवारें चलाते थे, एक ज्ञान की और एक कर्म की । एक और पूर्ण ब्रह्मज्ञान था, और दूसरी ओर वे संसार का कर्म (गृहस्थधर्म का पालन) कर रहे थे । बदचलन स्त्री घर के सब कामकाज बड़ी खूबी से करती है, परन्तु वह सदा अपने यार की चिन्ता में रहती है ।”
[ সংসারী লোক যদি হরিনাম করে, তাহলে বাহাদুরি আছে। দেখ, জনক রাজা খুব বাহাদুর। সে দুখানি তরবার ঘুরাত। একখানা জ্ঞান ও একখানা কর্ম। এক দিকে পূর্ণ ব্রহ্মজ্ঞান, আর-একদিকে সংসারে কর্ম করছে। নষ্ট মেয়ে সংসারের সব কাজ খুঁটিয়ে করে, কিন্তু সর্বদাই উপপতিকে চিন্তা করে।
"But it is a great deal to his credit if a householder utters the name of the Lord. Think of King Janaka. What courage he had, indeed! He fenced with two swords, the one of Knowledge and the other of work. He possessed the perfect Knowledge of Brahman and also was devoted to the duties of the world. An unchaste woman attends to the minutest duties of the world, but her mind always dwells on her paramour.
*मार्गदर्शक नेता की संगत में निरंतर रहने की अनिवार्यता*
“साधुसंग की सदा आवश्यकता है । साधु (नेता / जीवनमुक्त शिक्षक /C-IN-C/ नवनीदा) ईश्वर से मिला देते हैं ।”
[“সাধুসঙ্গ সর্বদা দরকার, সাধু ঈশ্বরের সঙ্গে আলাপ করে দেন।”
"The constant company of holy men is necessary. The holy man introduces one to God."
केदार- जी हाँ, महापुरुष ( नेता /अवतार) जीवों के उद्धार के लिए आते हैं । जैसे रेलगाड़ी के इंजन के पीछे कितनी ही गाड़ियाँ बँधी रहती हैं, परन्तु वह उन्हें घसीट ले जाता है । अथवा जैसे नदी या तड़ाग कितने ही जीवों की प्यास बुझाते हैं ।
[কেদার — আজ্ঞে হাঁ! মহাপুরুষ জীবের উদ্ধারের জন্য আসেন। যেমন রেলের এঞ্জিন, পেছনে কত গাড়ি বাঁধা থাকে, টেনে নিয়ে যায়। অথবা যেমন নদী বা তড়াগ, কত জীবের পিপাসা শান্তি করে।
"Yes, sir. The great soul is born in the world for the redemption of humanity. He leads others to God, just as a locomotive engine takes along with it a long train of carriages. Or again, he is like a river or lake that quenches the thirst of many people."
क्रमशः भक्तगण घर लौटने लगे । सभी ने श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ प्रणाम किया । भवनाथ को देखकर श्रीरामकृष्ण बोले, “तू आज न जा, तुझ जैसों को देखते ही उद्दीपना हो जाती है ।”
भवनाथ अभी संसारी नहीं हुए (अविवाहित हैं) । उम्र उन्नीस-बीस होगी । गोरा रंग, सुन्दर देह । ईश्वर के नाम से आँखों में आँसू आ जाते हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें साक्षात् नारायण देखते हैं ।
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* तन्त्रोक्त गुप्त वैष्णवी मुद्रा -नेता की अण्डे सेती हुई चिड़िया जैसी अन्तर्मुखी चितवन *
अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता।
एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥
( शाण्डिल्योपनिषद् 1.14)
बाहर की ओर निर्निमेष दृष्टि (निमेष-उन्मेष) अर्थात् पलक झपकने से विहीन या स्थिर दृष्टि हो , और भीतर की तरफ लक्ष्य हो, उसको सब तंत्रों में गुप्त वैष्णवीमुद्रा कहते हैं, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।}
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