सोमवार, 20 जुलाई 2020

माण्डूक्य उपनिषद,गौड़पादीय कारिका , शंकर भाष्य सहित , आनन्दगिरि टीका.


प्रणाम मन्त्र :  

शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् |
सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ||
अर्थात् ब्रह्मसूत्र के रचयिता भगवान् बादरायण (वेदव्यास) , जो भगवान् केशव (विष्णु) हैं और उस सूत्रों के भाष्यकार भगवान् आद्यशंकराचार्य (जो भगवान् शिव हैं) उन ऐश्वर्यादिे से युक्त भगवद् चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है। 

"दक्षिणामूर्ति"  **भगवान शिव का वह रूप् हैं जिन्हें संसार के युवा गुरु के रूप् में जाना जाता है, जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं।  उन्हें दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका मुंह दक्षिण की ओर है। दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ कुशल-उपदेशक भी होता है। इसलिए दक्षिणामूर्ति वैसे गुरु हैं जो कठिनतम विचारों को भी (ॐ के अर्थ को भी) कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं।मानवजाति के मार्गदर्शक युवा नेता-दक्षिणामूर्ति का यह रूप  गुरुओं के गुरु (दादा-गुरु)  के रूप में भगवान शिव को दर्शाता है। 
    दक्षिणामूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। यहाँ भगवान शिव युवा हैं , और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है की आत्म-ज्ञान सदा तरोताजा रहता है ! हिंदू गांवों में दक्षिण दिशा में शमशान भूमि का होना आम बात है। यहां मृतकों के शरीर को भी दक्षिण दिशा की ओर रखा जाता है। यहां दक्षिण दिशा मृत्यु और परिवर्तन को दर्शाती है। यहां वैतरणी नदी बहती है। यह नदी जीवित लोगों की भूमि को मृतकों की भूमि से अलग करती है। बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणामूर्ति कहा जाता है। बरगद का पेड़ भारत के साधु परंपराओं (आचार्य परम्परा) के साथ जुड़ा हुआ है और ये तपस्वी आचार्य भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं। 
      बरगद का पेड़ भारत के गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परंपरा के- साथ जुड़ा हुआ है।  और ये तपस्वी (गुरु,जीवन्मुक्त शिक्षक,नेता) भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं। ये तपस्वी गुरु बताते हैं कि " ब्रह्मांड एक दर्पण जैसा शहर है"  जिसमें सब कुछ समाहित है। लेकिन भ्रम के कारण (Hypnotized होकर) हम इस जगत को दर्पण से बाहर होने के रूप में देखते हैं। लेकिन सब कुछ भ्रमपूर्ण है। यदि हम अपने स्वरुप के प्रति जाग्रत हो जाएँ , यदि हम अपने अनुभव से यह जान जाएँ कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं , तो हमारी सभी विचार प्रक्रियाएँ सदैव विवेकपूर्ण ही रहेंगी।
Mandukya Upanishad Aagam Prakarana talk 1 of 5 @ Kanpur 2018 (Hindi) :
        भूमिका : किसी भी शास्त्र का अध्यन करने के पहले, इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है ? इसका निर्णय करना आवश्यक माना गया है। शास्त्राध्यन का अधिकारी वो है , जो जगत की आसक्ति से उपरत हो गया है। जिसने जगत की वस्तुस्थिति का चिंतन किया है, और इसकी नश्वरता को समझकर इससे उपरत हो गया है , वो उपनिषद का अध्यन करने का अधिकारी है।  हाथ में भविष्य दिखाने वाले , मन्नत माँगने वाले इस ग्रन्थ को पढ़ने के अधिकारी नहीं है। पुत्रार्थी या धनार्थी अधिकारी नहीं हैं। जिम में स्वस्थ लोग जाते है। यह संसार भी व्यायाम शाला है, यहाँ स्वस्थ शरीर के व्यक्ति ही उपनिषद को समझ सकते हैं। यहाँ अधिक भीड़ नहीं होती, क्योंकि अधिकारी ही अधिक नहीं होते । शास्त्र कहने का अर्थ स्पष्ट रूप से गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र ही होता है यहाँ Secularity नहीं चलती। किसी भी ग्रन्थ को शास्त्र नहीं कहते। उपनिषदों के अर्थ को समझने के लिये Be and Make आचार्य-परम्परा में प्रशिक्षित श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ नेता/जीवनमुक्त शिक्षक, जिन्होंने इसके ज्ञान को अपने जीवन में उतारा है, ऐसे नेता  के पास जाना पड़ता है। क्योंकि जो वास्तव में नवनीदा जैसे {C-IN-C} होते हैं , वे अपने को Leader नहीं समझते , वे सदैव अपने को युगनायक विवेकानन्द के दास या 'Follower' समझते हैं। और जो अपने भावी दास -नेता बनने योग्य अपना जीवन गठित नहीं करते वे टाइम पास करने वाले चेले होते हैं।   यहाँ कहते हैं -  
 
" यह विश्व त्रिआयामी है, किन्तु आत्मा चतुष्पाद (Quadruped) है ! "  
   भगवान भाष्यकार की इच्छा है कि यह जो 'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका' के व्याख्यान रूप भाष्य का लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है , उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो। और इसके साथ -साथ भारत के युवाओं में  गीता, उपनिषद आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता और अभिरुचि भी पर्याप्त मात्रा में हो। 
 
   जैसे किसी कामी -लोभी में किसी भी प्रकार की इच्छा (लोकेषणा आदि) होगी , वह उसको पूर्ण करने के लिए किसी न किसी व्यक्ति या वस्तु के सहयोग के द्वारा उसको पूर्ण करने की चेष्टा करता रहेगा। वैसे ही 'मुमुक्षु ' में भी मुक्त होने की इच्छा तो अवश्य रहेगी। वैसा 'मुमुक्षु ', जिज्ञासु या सत्यार्थी मुक्ति की साधनों को माँगता रहेगा , या सत्य के अनुसन्धान में लगा रहेगा। मुमुक्षु व्यक्ति आम भोगासक्त व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक बलवान तो है , लेकिन मोक्ष के प्रति, ज्ञान के प्रति - अपने को दुर्बल समझता है ,इसलिए  अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ बलवान मार्गदर्शक नेता/ अध्यापक की माँग, कामना अवश्य करता रहेगा। 
   
     भाष्यकार भगवान ने इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो श्लोकों के माध्यम से जो मंगलाचरण किया है - उसके मूल उद्देश्य को और उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य में लिखित अनुबन्ध को 'मंदबुद्धि वाले ' भी आसानी से समझ सकें , इसके लिए ही आनन्दगिरि जी ने उस पर टीका लिखी है।
         भाष्यकार भगवान ने भी इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर दो श्लोकों के माध्यम से मंगलाचरण किया है - एवं उनके मूल उद्देश्य को तथा उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य में लिखित अनुबन्ध को 'मंदबुद्धि वाले ' भी आसानी से समझ सकें , इसके लिए ही आनन्दगिरि जी ने उस पर टीका लिखी है।
उपनिषदों में सबसे छोटी उपनिषद है -माण्डूक्य उपनिषद।  इसमें   केवल 12 मंत्र हैं। ईशावास्योपनिषद में 18 मंत्र हैं। आदिगुरु शंकराचार्य के गुरू के गुरूजी (दादा गुरु) गौड़पादाचार्य जी ने माण्डूक्य उपनिषद के 12 मंत्रों की व्याख्या करते  हुए जिन 215 श्लोकों की रचना की है उस ग्रन्थ का नाम है -माण्डूक्य कारिका। कारिका कहते हैं , श्लोकबद्ध  व्याख्या  को। इस ग्रन्थ के  चार प्रकरण हैं - पहला आगम प्रकरण , दूसरा है वैतथ्य अर्थात मिथ्यात्व प्रकरण, इसमें युक्ति या तर्क के द्वारा द्वैत के मिथ्यात्व को  दिखलाया गया है। तीसरा है, अद्वैत प्रकरण और अलातशान्ति प्रकरण चौथा प्रकरण है।
     माण्डूक्य कारिका के उन चारो प्रकरणों पर तथा मूल माण्डूक्य उपनिषद पर शंकराचार्य जी ने  व्याख्या की है , उसका नाम है भाष्य। दोनों ग्रन्थ पर आनन्दगिरि जी ने टीका लिखी है।
माण्डूक्य उपनिषद अथर्ववेद के अन्तर्गत आता है, जिसका  प्रथम मंगला चरण है - 
" ॐ भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः, 
भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः। 
 स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः,
 वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः।    
               स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः,
               स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदाः।  
               स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट नेमिः,
               स्वस्ति नो बृहस्पतिर द धातु।।  
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥ 

  अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद का स्वाध्याय करने के लिये जो जिज्ञासु जन और आचार्य बैठे हैं।  इस शान्तिमन्त्र में ये दोनों मिलकर प्रार्थना कर रहे हैं - 'ॐ भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः।' जिज्ञासुजन 'हे देवा !' कह कर देवताओं को सम्बोधित करते हुए प्रार्थना कर रहे हैं। 
आध्यात्म उपाधि युक्त कार्य-करण संघात रूप ये जो हमारा स्थूल -शरीर है, यह कार्य -शरीर है। कार्य कहा जाता है स्थूल शरीर को , और करण कहा जाता है -सूक्ष्म शरीर को। सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत है 5 ज्ञानेन्द्रियाँ , 5 कर्मेन्द्रियाँ,  5 प्राण और मन -बुद्धि , इन 17 तत्वों के समूह या संघात को कहा जाता है -सूक्ष्मशरीर। सूक्ष्मशरीर का दूसरा नाम लिंगशरीर भी है। सूक्ष्मशरीर कहो, लिंग शरीर कहो ,इन्हीं को 'करण' भी कहा जाता है। 
    और कार्य-शरीर याने यह स्थूलशरीर जिसको Body कहते हैं। गाड़ी में भी जैसे गाड़ी की एक 'Body' होती है और उसके अन्दर engine (कलपुर्जे) होते हैं। उसी प्रकार इस Body का इन्जन है - सूक्ष्म शरीर। और उस engine  का Body है स्थूल शरीर। तथा ये जो सूक्ष्मशरीर के 17 अलग अलग तत्व हैं, इनके इस स्थूल शरीर के अंदर तत्‌विषयक अलग अलग गोलक होते हैं।सूक्ष्मशरीर के ज्ञानेन्द्रिय आदि जो अंग जहाँ पर रहती हैं ,  उसे शास्त्रीय भाषा में इन्द्रियों का गोलक कहा जाता है। जैसे जो चक्षुइन्द्रिय (मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र Optic Nerve) है , वो नहीं दिखती। क्योंकि सभी इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं। अतीन्द्रिय शब्द का अर्थ होता है , जो इन्द्रिय से ग्रहण न हो। इन्द्रिय से जिसका ज्ञान नहीं होता , उसे कहा जाता है अतीन्द्रिय।
     जैसे अपनी ही किसी इन्द्रिय को आप अपने इन्द्रियों के माध्यम से देख नहीं सकते हैं। उनका अनुमान किया जाता है। जैसे दूर से दिखने वाले धुऐं को देखकर भी न दिखने वाले अग्नि का भी अनुमान से निश्चय होता है। जिसका ज्ञान अनुमान से होता है , अनुमान से अग्नि के निश्चय को न्यायदर्शन  में कहा जाता है -अनुमिति प्रमाण -अग्नि का अनुमान प्रमाण ! अनुमान से जिसका ज्ञान होता उसे अनुमिति या अनुमान प्रमाण कहा जाता है। तो अग्नि का अनुमान हुआ धुएँ को देख करके। 
जैसे बिना अग्नि के धुआँ नहीं हो सकता। वैसे ही बिना आँख के (बाह्य नेत्र-गोलक) तथा उसकी चक्षु-इन्द्रिय के रहते रूप का तथा रूपवानवस्तु का ज्ञान हो नहीं सकता।  ये जो नाम-रूपवान पदार्थ हमें दीख रहे हैं , हम उन्हें  बिना आँख के दीख नहीं सकते थे। और यदि रूप का तथा रूपवान वस्तु का ज्ञान हमें हो रहा है, तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि जिससे रूप-रंग का ज्ञान होता है वह नेत्र-इन्द्रिय (उसका स्नायु केन्द्र) हममें है।
जैसे रूप-रंग को आप आंख से देख रहे हैं , वैसे त्वक को शब्द या वाक् को आप आँख से नहीं देख सकते हैं। चक्षुइन्द्रिय से वो ग्रहण नहीं होते है। वैसे ही श्रवण के स्नायुकेन्द्र (इन्द्रिय) भी बाह्य कानों में या त्वचा में नहीं, मस्तिष्क की तत्सबंधित नाड़ियों में होते हैं, इसीलिये उन्हें अतीन्द्रिय कहा जाता है। ये सब इन्द्रियाँ अपना -अपना कार्य करती हैं, किन्तु ये सभी इन्द्रियाँ स्वयं 'जड़' है, इसलिए इनको operate करने वाला कोई न कोई 'चेतन' भी होना चाहिए।
     इन्द्रियाँ सबकी सब भौतिक हैं , अर्थात भूतों से उत्पन्न हुई हैं। आकाश,वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी ये पंचभूत हैं। ये सभी जड़ हैं, और इनसे उत्पन्न इन्द्रियाँ भी जड़ हैं। इन जड़ इन्द्रियों को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त कराने वाला कोई न कोई  इनका चेतन प्रवर्तक चाहिए। जो चेतन प्रवर्तक है, उनको कहा जाता है अनुग्राह्क देवता। 
 चक्षु इन्द्रिय रूप का ग्रहण कर रही है , वाक् इन्द्रिय वचन रूप व्यापर कर रही है , बोल रही है। हाथ लेन -देन कर रहा है। त्वग इन्द्रिय स्पर्श का अनुभव ग्रहण कर रहा है। घ्राण इन्द्रिय गन्ध की ग्राहक है। ये सब इन्द्रिय अपना अपना कार्य कर रहे हैं , किन्तु ये बिना operator के कर नहीं सकते। और अलग अलग जड़ इन्द्रियों को operate करने वाले चेतन operator को उन उन इन्द्रियों का अनुग्राहक देवता कहा जाता है
      जैसे नेत्र-इन्द्रिय के अनुग्राह्क देवता माने जाते हैं आदित्य (सूर्य) , वाग इन्द्रिय के अनुग्राहक देवता माने जाते हैं अग्नि ,वाणी के देवता हुए अग्नि।  वैसे त्वग (त्वचा) इन्द्रिय के अनुग्राह्क देवता हैं वायु।  श्रवण इन्द्रिय भी शब्द को ग्रहण करती है तो कान के देवता हैं दिशा। नासिका घ्राण को ग्रहण करती हैं, नासिका के देवता हैं -अश्विनीकुमार। हाथ के इंद्र आदि , इसी प्रकार अलग अलग अंगों के अलग अलग देवता माने गए हैं। 
प्रत्येक इन्द्रिय की अनुग्राह्क देवता अलग अलग है न ?  इसलिए सभी जिज्ञासुजन (गुरु-शिष्य) उन सभी इन्द्रियों के अनुग्राहक देवताओं को सम्बोधित करके  प्रार्थना कर रहे हैं- कि 'हे देवा !' यहाँ पर देव शब्द से लेना इन्द्रियों के अनुग्राह्क देवता उन सब इन्द्रियों के अनुग्राहक देवताओं को एक साथ 'हे देवा !' ऐसा सम्बोधित करके प्रार्थना की जा रही है कि - 'भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः '-भद्र शब्द का अर्थ है कल्याणप्रद वाक्य  या कल्याण सम्पादक वचन। तो हम केवल  भद्र वाक्यों के ही श्रवणकर्ता बने। 
        भगवान ने जब कर्ण दियें हैं , तो ये शब्दों को तो ग्रहण करेंगे ही। लेकिन शब्द दो प्रकार के होते हैं ,  एक जिससे अहित होता है, एक श्रवण अनर्थ उपस्थित करने वाला है, और दूसरा श्रवण हैं, जिससे हित होता है श्रेय की प्राप्ति होती है , या जो शब्द कल्याण प्रदान करने वाले हैं । तो कैसे वाक्यों को सुनने वाले बने ? दोनों प्रकार के शब्दों श्रवण हो सकता जय , इसलिए यहाँ विशेषण लगाया  'भद्रं '- अर्थात जिन शब्दों का श्रवण करने से हमारा मानव-जीवन सार्थक हो जाये। हमारे जीवन का जिससे कल्याण हो -ऐसे वाक्यों के हम श्रोता बने। हमें केवल ऐसे कल्याणप्रद वाक्य ही सुनने को मिले यह प्रार्थना करते हैं।  हे देवताओं! हम अपने  कानों से हम केवल वैसे वाक्यों का ही श्रवण करने वाले बनें, जिन वाक्यों के जिन शब्दों के श्रवण करने से हमारा कल्याण होगा। 
          दूसरा वाक्य बनेगा - हे देवा ! भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः। चक्षु इन्द्रिय की अनुग्राहक देवता हैं -आदित्य। यहाँ आदित्य को भी 'हे देवा ' शब्द से सम्बोधित किया जा रहा है। और प्रार्थना की जा रही है -अक्षभिः' इसका अर्थ है नेत्र इन्द्रिय। तो अर्थ निकलेगा इन चक्षुओं से - भद्रम् पश्येम ! केवल कल्याणकारी दृश्यों को ही देखें। 
क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय से होने वाले व्यापार दो प्रकार के होते हैं -एक कल्याणप्रद है , जिससे हमारा कल्याण सम्पादित होता है। और दूसरा अनर्थ सम्पादक , जिससे हमारा अहित होता है। तो प्रार्थना की जाती है कि  केवल कल्याणप्रद दृश्य के ही द्रष्टा हम बनें। ऐसा ही दृश्य हम देखें जिससे हमारा कल्याण हो। और यदि ग्रन्थ के माध्यम से स्वाध्याय करना हो तो, पढ़ने के लिए हमारी  चक्षु इन्द्रिय भी पंक्ति के अक्षरों को ठीक ठीक पढ़ने योग्य होनी चाहिए? अतः यहाँ प्रार्थना की जा रही है कि  श्रेय-सम्पादक ग्रन्थ में ,छपी हुई पंक्तियों को ठीक ठीक पढ़ने में मेरे नेत्र सक्षम बने रहें। प्रार्थना करते हुए ये कहा गया कि  - " वयं भद्रं पश्येम अक्षभिः यजत्राः!"  हमलोग भद्र-दर्शन  का अभ्यास करने वाले  बने !  यजत्र कहा जाता है यज्ञ करने वाले को और यज धातु से यज्ञ शब्द बना है। 
हमारे ऋषि-मुनियों ने 'यज' धातु से निष्पन्न यज्ञ शब्द के तीन अर्थ- १. देवपूजन, २. संगतिकरण और ३. दान बताए है। अर्थात हम आस्तिक बने, सत्संगी बने और हम दानी बने। 
1. देव पूजन : यानी - 'Be and Make ' अपने इष्ट -देव के सदगुणों का अनुगमन कर, उनके चरित्र के गुणों को अपने जीवन में उतारकर परिष्कृत व्यक्तित्व का 'मनुष्य ' बनना और बनाना। 
2. संगतिकरण :  अर्थात  एक विचारधारा के लोगों का सोउदेश्य मिलन संघबद्धता, सहकारिता और एकता। याने 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर- विवेकानन्द युवा पाठचक्र ) की स्थापना। 
3. दान : यानी उदार सहृदयता, समाज परायणता और विश्व कौटुंबिकता।  सर्वश्रेष्ठ दान है 'Be and Make 'आचार्य-परम्परा में ज्ञान-दान, युवाओं को मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -शरीर,मन और हृदय (3H) को विकसित करने के महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास - प्रार्थना , मनःसंयोग , व्यायाम ,स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण देने के लिए भारत के गाँव -गाँव में महामण्डल के युवा -प्रशिक्षण शिविर को आयोजित करनाइस प्रकार इन तीनों सत्प्रवत्तियों का प्रतिनिधित्व यज्ञ के माध्यम से होता है। इस ज्ञान-यज्ञ के जरिए युवाओं की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति द्वारा उनके आरोग्य की रक्षा होती है।यहाँ तक - " ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥" की व्याख्या सम्पन्न हुई। 
अब आगे "स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥" पद की व्याख्या शुरू होती है। अब इसे आसानी से ऐसे पढ़ते हैं : " स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः। वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः।।"  अर्थात हे देवा ! चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय की बात तो हुई, किन्तु इनके आलावा हमारी बाकी तीन ज्ञान इन्द्रिय रस , घ्राण और त्वक इन्द्रिय भी कल्याणप्रद हो।
स्थिर शब्द का अर्थ हुआ सशक्त ज्ञान इन्द्रियों तथा अंग शब्द से बाकी समस्त कर्मेन्द्रियों का व्यापार भी भद्र हो या कल्याण प्रदायक हो जाय।  हम आप देवताओं की स्तुति करने वाले तुष्टुवांसः बन जाएँ। फिर बलशाली इन्द्रिय और बलशाली शरीर (तनूभिः) से हम वही जीवन जियें जो देवताओं का हित सम्पादक आयु हो।
      देवताओं के रहने का स्थान है देवलोक या स्वर्गलोक और मनुष्यों के रहने का स्थान है मनुष्यलोक या पृथ्वी लोक। देवलोक में देवताओं के खूब बड़े बड़े महल हैं, किन्तु उन महलों में कहीं पर भी  किचन नहीं बना हुआ है। देवताओं का रसोईघर नहीं है। उनके यहाँ रसोई बनती नहीं है ,वो रसोई बनाना जानते ही नहीं हैं। ऐसा माना जाता है कि देवलोक (स्वर्गलोक) भी  भोजन के लिए मनुष्यलोक के आश्रित है। देवता लोग भी भोजन के लिए मनुष्यों पर आश्रित हैं।  हम जो यहाँ पर जो भोजन बनाते हैं, वो देवताओं को भोग लगाते हैं। और फिर उसको प्रसाद रूप में ग्रहण करने से हमारा भी कल्याण होता है और भोजन निवेदन करने मात्र से ही देवता भी तृप्त हो जाते हैं। 
इसीलिए  भारत में गृहस्थों के घरों में भी भोजन बनने के बाद तुरंत- तुरंत खुद खाना शुरू नहीं करते हैं। पहले भोग आदि लगाते हैं , देवताओं को निवेदित करते हैं न ? उससे ही देवता को तृप्ति हो जाती है। और देवता की तृप्ति ही देवता का हित है।  छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है - देवता लोग कुछ भी अन्न खाते-पीते नहीं हैं । आप देवता के सामने बने भोजन को थाली में सजाकर रख देते हैं, तो देवता केवल देख लेते  हैं, और दर्शन मात्र से ,  देखने से ही देवगण तृप्त हो जाते हैं। और इतना करने से ही देवता तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। 
 गीता में कहा है-  परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।। अर्थात  तुमलोग इस यज्ञ द्वारा इन्द्रादि देवों को बढ़ाओ अर्थात् उनकी उन्नति करो। वे देव वृष्टि आदि द्वारा तुम लोगों को बढ़ावें अर्थात् उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए ( तुमलोग ) ज्ञानप्राप्ति द्वारा मोक्ष (भ्रममुक्ति) रूप परमश्रेय को प्राप्त करोगे। अथवा स्वर्गरूप परमश्रेय को ही प्राप्त करोगे। निःसन्देह मनुष्य के भीतर कर्म करने या निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है,  उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। और मनुष्य में अन्तर्निहित परिश्रम करने की इस अव्यक्त क्षमता को ही देव कहते हैं। यज्ञ कर्म से इन देवों को  प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी का यह दिव्य उद्देश्य बताया कि इस प्रकार यज्ञ भावना से , परस्पर उन्नति करते हुए मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त करेगा। 
इस सेवाधर्म-विधान का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता हुआ दिखाई देता है। समस्त जीवों में एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है। इस सार्वभौमिक सेवाधर्म 'Be and Make ' का पालन यज्ञ भावना - करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है। परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से (तीनों ऐषणाओं में किसी एक से भी ) प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि वैसा कर्म प्रकृति के सामंजस्य-धर्म  में  विरोध उत्पन्न करता है। यहाँ हमलोग देवताओं का हित आदर-सत्कार करते हैं , तो देवता भी हमारा हित करते हैं। हमारा भी कल्याण है और उनकी भी तृप्ति है। इसलिए हम जितने समय तक इस पृथ्वी पर रहें, अपने स्वस्थ शरीर और प्रबल इन्द्रियों से ऐसा जीवन जियें, जिससे जो हमारी आयु है वो पूर्णतया देवहित में, देवता की सेवा में, अर्थात भारत माता की सेवा में ही व्यतीत हो।
'न्याय-दर्शन' का एक नाम तर्कशास्त्र (Logic) भी है। तर्कशास्त्र के अनुसार जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है। न्यायदर्शन  में किसी घटना या वस्तु की सही पहचान करने के लिये प्रमाण के चार प्रकार हैं : -
1. प्रत्यक्ष प्रमाण :गौतम ऋषि ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। प्रमाण की वह विधि जो प्रत्यक्ष रूप से सामने मौजूद हो या आंखों के सामने स्पष्ट, अलग और साक्ष्य हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जो यथार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त हो प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है। यह धारणा विभिन्न इन्द्रियों जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद, गंध और मन द्वारा अनुभव की जाती है।
 2 . अनुमान प्रमाण : प्रमाण की वह विधि जो केवल अनुमान पर आधारित हो अनुमान कहलाती है।  एक अनुमान को मान्य होने के लिये कुछ अन्य आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। इसके अनुसार दो वस्तुओं की उपस्थिति के बीच संबंध भी होना चाहिए अर्थात सभी परिस्थितियों में जहां एक मौजूद है वहीं दूसरे को भी उपस्थित होना चाहिए। उदाहरण के लिये कोई पहाड़ी जल रही है क्योंकि वहां धुंआ दिखाई दे रहा है। या यू कहें कि पहाड़ी में धुंआ दिखाई दे रहा है इसका मतलब वहां आग लगी है। या यूँ कहें .... जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा
3.  उपमान प्रमाण (देखी गयी वस्तुओं का तुलनात्मक वर्गीकरण):   किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। वह वस्तु जिससे उपमा दी जाय । वह जिसके समान कोई दूसरी वस्तु बतलाई जाय । वह जिसके धर्म का आरोप किसी वस्तु में किया जाय । जैसे,—'उसका मुख कमल के समान है' इस वाक्य में 'कमल' उपमान है ।  प्रमाण की वह विधि जिसमें यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति तुलना के माध्यम से हो या वह प्रमाण जो किसी नाम और वस्तु के बीच संबंध स्थापित करने से प्राप्त हो उपमान प्रमाण कहलाता है। 
4.  आप्तवाक्य या शब्द प्रमाण  : किसी वस्तु की पहचान स्थापित करने का चौथा तरीका है विश्वसनीय गवाही। आप्त पुरुष द्वारा किए गए उपदेश को "शब्द" प्रमाण मानते हैं। जैसे तपस्वी गौतम बुद्ध बोधी वृक्ष  के नीचे अपने शिष्यों को ज्ञान देते हुए, सभी जीवों पर दया और करुणा का उपदेश देते थे।  विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा कथित वचन को प्रामाणिक कथन माना जाता है। निर्लिप्त ,मन्त्रद्रष्टा ऋषियों व आप्त ( स्व ) जनों द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है , वह शब्द प्रमाण माना गया है ।अर्थात् कथित और अप्रमाणित वस्तुओं का ज्ञान जो आधिकारिक स्रोतों के बयान जैसे वेद या संतों और ऋषियों के कथनों  ( चार महावाक्य) से व्युत्पन्न होता है। 
  पश्चिमी विद्वानों द्वारा ज्ञान के इस स्रोत 'आप्त -प्रमाण ' की  बहुत आलोचना की गई, क्योंकि पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति में शिक्षित लोग (और लार्ड मैकाले की- सरकारी नौकरी देने या क्लर्क उत्पन्न करने वाली शिक्षा को ही सम्पूर्ण शिक्षा समझने वाले लोग)  यह नहीं जानते हैं ,कि वेदों के चार महावाक्यों के मर्म को प्राचीन भारीतय संस्कृति के वेदान्त गुरु-शिष्य वेदान्त -शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा "Be and Make" में ही समझा जा सकता है। (और आधुनिक युग में  "विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित और "C-IN-C चपरास प्राप्त शिक्षक नवनीदा के चरणों में बैठकर ही सीखा जा सकता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति  के बाद  पाश्चात्य शिक्षा में उच्च डिग्री प्राप्त किन्तु थोथे ज्ञान रखने वाले कुछ सेक्युलर राजनीतिज्ञ लोग वेदान्त ऋषियों द्वारा आविष्कृत  चार महावाक्यों के अधिकार की सम्पूर्ण स्वीकृति देने को भी ,  वैज्ञानिक सोच या उचित तर्क के विकास में एक बाधा समझते थे । किंतु यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे ऋषियों द्वारा आविष्कृत वैदिक सिद्धांत और वेदान्त दर्शन केवल अकादमिक डिग्री प्राप्त करने के लिये ही नहीं थे , हमारे ऋषि-मुनि वास्तव में उन 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के विचारधाराओं को अपने दैनन्दिन जीवन में भी लागु करते थे। वे मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा को ही सम्पूर्ण शिक्षा समझते थे, और उन्हें अपने दैनंदिन व्यावहारिक विज्ञान-जैसे कृषि-विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान (Agronomy and Space Sciences) में भी लागू करने की पद्धति जानते थे । 
इसलिए आजाद भारत में जब 20 वर्ष बीत जाने पर भी स्वार्थी और 'सेक्युलर' राजनेताओं के कारण -भारतीय शिक्षानीति लागु नहीं सकी तब 1967 में " Swami Vivekananda-Captain Sevier Vedanta Be and Make Leadership Training Tradition" में प्रशिक्षित समर्थ योग्य शिक्षकों का निर्माण करने के उद्देश्य से, श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के नेतृत्व में  महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा ! 
अब हमलोग माण्डूक्य उपनिषद के शान्ति मन्त्र के दूसरे चरण का अनुसन्धान करते हैं - 
  स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः,  
 स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदाः।  
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट नेमिः,
स्वस्ति नो बृहस्पतिर द धातु।।
 'श्रव' कहते हैं , यश को प्रतिष्ठा को कीर्ति को। जितने भी देवता हैं , उन सब में सर्वाधिक कीर्ति इन्द्र की फैली हुई है। सबसे ज्यादा यश इन्द्र का फैला हुआ हुआ है, और जिनकी प्रतिष्ठा वृद्ध है - अर्थात बहुत लम्बे समय से फैली हुई है, ऐसे इन्द्र का एक विशेषण है - 'वृद्ध श्रवाः इन्द्रः'! 
और  'नः ' का तात्पर्य यहाँ हमलोगों से है ,वह इन्द्र 'स्वस्ति' माने कल्याण , हमारे लिए कल्याणकर हों। 
फिर कहते हैं - स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदाः - 'पूषा' यानि सूर्य , सबको जानने वाले सर्वज्ञ सूर्य , उनसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है , वे हमारे लिए कल्याकारी बनें। पूरे ब्रह्माण्ड के प्रकाशक सूर्य हैं न ? इसलिए आदित्य सबके ज्ञाता हैं। वे हमारे कल्याण-सम्पादक हो जाएँ। चार पुरुषार्थों में अंतिम पुरुषार्थ है- मोक्ष , तो हम भी मुक्त होना चाहते हैं।  [ अभी भ्रम से और अंत में जन्म-मृत्यु के चक्र से ?] अतः वे इंद्र और सूर्य देवता भी हमारी इस मुक्ति में सहायक बनें। 
          और ऐसा कहा जाता है कि-" श्रेयांसि बहुविघ्नानि सम्भवन्ति पदेपदे॥" [गरुड़ पुराण : प्रेत काण्ड]  जो श्रेय का मार्ग होता है , वह अनेको विघ्नों से युक्त होता है। महान् कार्य करने जब चलेंगे तो विघ्न तो आयेंगे ही - जो व्यक्ति संकल्प लेकर श्रेय मार्ग पर चलना शुरू कर देता है, उसके सामने हर कदम पर , पग -पग पर विघ्न आते हैं ,  पदे-पदे  बाधाएँ उपस्थित होती हैं । जरा-सा विघ्न आया और आप विचलित हो जायेंगे, तो दृढ़-व्रती कैसे बनेंगे ? इसलिए उन बाधाओं -विघ्नों को दूर करने के लिए कोई न कोई सशक्त सहायक चाहिए न ? 
इसलिए  यहाँ शांतिमंत्र में भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ जी की प्रार्थना में आगे कहते हैं - ' स्वस्ति नः ताक्षर्यः अरिष्ट नेमिः' गरुड़ जी का नाम तार्क्ष्य ही क्यों है  जैसे अर्जुन का 'पार्थ' ही नाम क्यों है?  क्योंकि अर्जुन की माता कुंती का एक नाम 'पृथा' था , इसलिए पृथा का जो पुत्र है -वह कौन्तेय अर्जुन। वैसे ही गरुड़ जी के माता का नाम 'तृक्षा' था , उनका पुत्र होने से गरुड़ जी को 'ताक्षर्य' कहते हैं। (गरुड़ के पर्यायवाची शब्द हैं - ताक्षर्यः,वैनतेयः,खगेश्वरः, नागान्तकः) गरुड़ जी का एक और विशेषण है अरिष्टनेमि।  जैसे इन्द्र का विशेषण था -'वृद्धश्रवा', सूर्य का विशेषण था 'विश्ववेदाः' यहाँ  गरुड़ जी का विशेषण है 'अरिष्टनेमि। ' 
अरिष्ट कहते हैं विघ्नो को और नेमि कहते हैं -चक्र को। चक्र माने सुदर्शन चक्र।  जब भी भगवान विष्णु के भक्तों पर कोई बाधा आती है , तो भगवान विष्णु स्वयं जाते हैं,  चक्र को भेज देते हैं। चक्र उन बाधाओं को दूर कर देता है। जैसे वो सुदर्शन चक्र भक्तों की सुरक्षा करता है , बाधाओं को दूर कर देता है।  ऐसे ही ये गरुड़ जी भी अरिष्ट - याने विघ्नों के लिए सुदर्शन चक्र की तरह हैं। 
 शिशुपाल एक तरह से श्रेय कार्य करने में आने वाले विघ्न का प्रतीक है। शिशुपाल भगवान कृष्ण के बुआ का लड़का था। श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव जी की दो बहने थीं एक तो पृथा या कुन्ती और दूसरी शिशुपाल की माँ सुतासुभा थीं। जैसे कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ हैं, वैसे ही शिशुपाल भी श्रीकृष्ण के बुआ का लड़का था। 
 शिशुपाल की कुण्डली में था कि वो श्रीकृष्ण का वरोधी होगा। तब उसकी माँ ने श्रीकृष्ण से वर माँगा कि देखो ये तुम्हारा भाई लगेगा, इसलिए यदि अपराध करे तो तुम उसको क्षमा करते रहना। तब श्री कृष्ण ने कहा था अपराध करने की भी कोई सीमा होनी चाहिए ,यदि यह एकसाथ 100 अपराध भी कर दे तो मैं उसको क्षमा कर दूंगा किन्तु उसके बाद यदि 101 गालियाँ हो जाएँगी तो माफ़ी नहीं मिलेगी। सभा में 100 गालियाँ सुनकर भी क्षमा कर दिया क्योंकि उसकी माँ को वचन दिया था , जैसे ही 101 गाली निकली कि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल की तरफ नेमि अर्थात सुदर्शनचक्र भेज दिया और शिशुपाल का सर-छेदन कर दिया। 
      तो चक्र को नेमी कहते हैं ,और नेमि क्या करता है ? विघ्नों का सिर काटता है। अर्थात विघ्नो को समाप्त कर देता है , तो श्रेय-मार्ग में जो अनेकों प्रकार के विघ्न आते हैं, और गरुड़ जी उन विघ्नो का सिर -छेदन करने वाले हैं। विघ्नों का नाश करने वाले ये जो तार्क्ष्य या गरुड़जी हैं, वे अरिष्टनेमि हैं - अर्थात विघ्न-विनाशक हैं। इसलिए  इस वाक्य से प्रार्थना हैं -' स्वस्ति नः ताक्षर्यः अरिष्ट नेमिः' । अर्थात अरिष्ट के विनाशक गरुड़जी हमारे कल्याण के मार्ग में कदम कदम पर आने वाले विघ्नों को बार बार दूर करते हुए हमारा कल्याण सम्पादक बने। 
अब अंतिम वाक्य है -  स्वस्ति नो बृहस्पतिर द धातु।। और बृहस्पति हैं समस्त देवताओं के गुरु , तो उनके लिए भी प्रार्थना है कि वे देवगुरु भी हमारा लिए कल्याणप्रद बने। तो इस प्रकार अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद के शांतिमन्त्र की व्याख्या सम्पन्न होती है।
 इसका हम यदि अर्थ-अनुसन्धान पूर्वक पाठ करेंगे , तो हमारी यह प्रार्थना देवताओं के कानों तक पहुँच जाएगी न ! अर्थानुसंधानपूर्वक किये गए मंत्रोच्चार का विशेष लाभ होता है। नहीं तो अर्थ समझे बिना ही हम यदि प्रार्थना करें , तो भी वाणी तो अवश्य शुद्ध होगी किन्तु मंत्रों का उच्चारण करते समय यदि उसका अर्थ भी मन में उपस्थित हो जाये , समझ में आ जाये तो मन भी पवित्र हो जाता है न
[ महामण्डल का स्वपरामर्श सूत्र " चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा ! " ही उपरोक्त शांतिमंत्र में उल्लेखित 'अरिष्ट नेमिः'  सुदर्शनचक्र है , जो हमारे 'Be and Make ' मार्ग या " मनुष्य बनने और बनाने"  के मार्ग में आने वाले समस्त विघ्नों को समाप्त कर देगा।]  
इस सूत्र का नियमित अभ्यास करने से आपके अन्दर सहिष्णुता आ जायेगी और नियम पालन के लिए आत्मबल आयेगा। मनोबल आयेगा। 
स्वामी विवेकानन्द की इसी उक्ति को ध्यान में रखकर हमलोगों ने अभी माण्डूक्य उपनिषद के शांतिमंत्र का अर्थ-अनुसन्धान किया। 
हमलोगों ने अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद के मंगलाचरण रूप में लिखे शांतिमन्त्र पर विचार किया है। अब  माण्डूक्य उपनिषद तथा उसकी व्याख्या के रूप में लिखित माण्डूक्य कारिका पर आचार्यशंकर द्वारा लिखित भाष्य की आनन्दगिरि जी द्वारा विरचित टीका के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक पर विचार प्रारम्भ होता  है : 
परिपूर्णपरिज्ञानपरितृप्तिमते सते ।
विष्णवे जिष्णवे तस्यै कृष्णनामभृते नमः ॥१॥
शुद्धानन्दपदाम्भोजद्वन्द्वमद्वन्द्वतास्पदम् ।
नमस्कुर्वे पुरस्कर्तुं तत्त्वज्ञानमहोदयम् ॥२॥
गौडपादीयभाष्यं हि प्रसन्नमिव लक्ष्यते ।
तदर्थतोऽतिगम्भीरं व्याकरिष्ये स्वशक्तितः ॥३॥
पूर्वे यद्यपि विद्वांसो व्याख्यानमिव चक्रिरे ।
तथाऽपि मन्दबुद्धीनामुपकाराय यत्यते ॥४॥
अब  आनन्दगिरि जी द्वारा रचित भाष्य की टीका के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक - पर विचार प्रारम्भ होता  है। इसमें आनन्दगिरी जी 'कृष्ण' नामधारी जो नित्यानन्द स्वरुप परमात्मा हैं ,उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। क्योंकि भगवान के नाम हमें बहुत कुछ सिखाते हैं और उनके कोई कोई नाम तो कठिन समय में कई बार बड़ा सहारा भी देते हैं। 

  यहाँ श्रीकृष्ण के विभिन्न विशेषणों पर विचार रखने का अवसर तो मिलेगा ही, साथ ही ईश्वर का ध्यान भी हो जायेगा। जो लोग कहते हैं भगवान के नाम का कोई अर्थ नहीं होता, हो सकता है उन्हें भी कुछ लाभ हो।  यहाँ आनंदगिरी जी शास्त्रों में वर्णित भगवान कृष्ण के नाम का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं कि - तस्यै कृष्णनामभृते नमः !
जैसे प्राण को धारण करने वाले को कहा जाता है - प्राणभृत। शरीरभृत कहा जाता है शरीर को धारण करने वाले को। उसी प्रकार नामभृत कहा जायेगा नाम को धारण करने वाले को। और कौन सा नाम ? तो कृष्ण नाम। तो कृष्ण नामधारी जो परमात्मा हैं , उसे हम नमस्कार करते हैं। उनकी क्या विशेषता है ? कृष्ण नाम का अर्थ क्या है ?
अर्थ को कहा जाता है -अभिध्येय। और अभिध्येय का नाम हुआ करता है , जो उस नामवाला हो जाता है- अभिध्येय। किसी व्यक्ति का नाम देवदत्त हो , तो उस व्यक्ति को कहा जायेगा -'देवदत्त नामधारी ', याने देवदत्त इस नाम का अर्थ।  

   कृष्ण नाम में एक है प्रकृति अंश, और एक है प्रत्यय अंश। प्रकृति है कृष और प्रत्यय है 'ण', इसमें कृष का अर्थ है -नित्य , सत्य, और ण -का अर्थ है आनन्द। दोनों को मिलाकर के अर्थ निकलेगा, नित्य +आनन्द। कृष्ण शब्द में कृष का अर्थ और ण का  अर्थभूत जो आनन्द है , इन दोनों को मिलाते हैं , तो " नित्यान्द" - उस आनन्द को बताने वाला शब्द है 'कृष्ण।' तथा नित्यानन्द को कहा जायेगा, कृष्ण-नामभृत। वैसे 'कृष्ण नामभृत' शब्द का अर्थ निकलेगा -कृष्ण जो इस नाम का अर्थ है। उसे कहा जायेगा -कृष्ण नामभृत। तो कृष्ण नाम का अर्थ क्या है? नित्यानन्द , सदानन्द। वही सदानन्द इस कृष्णनामभृत शब्द का अर्थ निकलेगा। नित्यानन्द का ही नाम है कृष्णनामभृत। और उस नित्य-आनन्द को हम नमस्कार करते हैं। परमात्मा का स्वरुप नित्य आनन्द ही आनन्द है
तस्मै - यानि उस परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं , उस याने किस ? तो तस्मै शब्द से बताई जाने वाली चार विशेषताओं को बताने वाली यह विशेषण है। चार अलग अलग विशेषताएं हैं -विष्णवे, जिष्णवे, सते और परिपूर्णपरिज्ञानपरितृप्ति मते ।     
   तो वे कृष्णनामभृत तत्व कौन हैं ? क्या विशेषता है उनकी? तो एक विशेषता यह बताई कि जिसका कृष्ण नाम है वो परिपूर्णपरिज्ञानवान हैं। अर्थात जिसका कृष्ण नाम है, वो सर्वज्ञ है। श्रुति में नित्य आनन्दस्वरुप परमात्मा को ही बताया गया -सर्वज्ञ , सर्ववित् । तो 'परिपूर्णपरिज्ञानवते कृष्णनामभृते नमः ' शब्द का अर्थ निकलेगा सर्वज्ञ, सर्ववित्, नित्य आनन्दस्वरुप परमात्मा (ब्रह्मविद) को नमस्कार है। 
      और उनकी सर्वज्ञता भी कैसी है ? जब कोई साधक ईश्वर का ध्यान (अवतारवरिष्ठ इष्टदेव का ध्यान) करते हैं, उन्हें ईश्वर का ध्यान करते करते करते, किसी -किसी को दूर में घटित घटनाओं के अर्थ को भी जानने की योग्यता आ जाती है। जैसे कई सौ -हजार किलोमीटर घटित घटना , उसे बिल्कुल आँख के सामने घटित हुई घटना के तरह देख सकता है। ऐसी योग्यता कुछ कुछ भगवान के भक्तों में आ जाती है। तो ऐसे लोगों को भी कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति तो सर्वज्ञ हैं। कई बार ऐसा हो जाता है, कि हम जो कुछ सोंच रहे होते हैं ,कुछ लोग  ऐसे होते हैं जो हमारे मन में उठने वाले विचारों को भी जान लेते हैं , और बता देते हैं कि तुम ये सोंच रहे हो !  तो उन्हें भी हमलोग सर्वज्ञ कहते हैं। ईश्वर के अनुग्रह से (माँ काली की कृपा से) उनके अंदर थोड़ी ये योग्यता आ जाती है। कुछ देवताओं में भी ये योग्यता रहती है , तो वे भी सर्वज्ञ कहलाते हैं
ईश्वर के अनुग्रह से दूर-दर्शन-श्रवण  की योग्यता कुछ भक्तों/योगिओं में भी आ जाती है। 
लेकिन परिपूर्ण परिज्ञान एक मात्र परमात्मा में होती है। ईश्वर के अनुग्रह से दूर घटित हुई घटना आदि को , या किसी के मन में उठने वाले विचारों को जानने की योग्यता जिन्हें प्राप्त है,  इन लोगों में भी परिज्ञान तो होता है, ऐसे जीवों में भी थोड़ी-बहुत परिज्ञानवत्ता होती है। वे परिज्ञानवान होते हैं, सर्वज्ञ कहलाते हैं। लेकिन परिपूर्ण परिज्ञानवान, उन्हें नहीं कहा जायेगा।  परिपूर्ण परिज्ञान तो मात्र एक परमात्मा (अवतारवरीष्ठ ठाकुरदेव) में ही है
    वही कृष्ण परमात्मा हैं , ब्रह्म हैं , इसलिए उनको कहा जायेगा निरतिशय सर्वज्ञ। तो उनकी सर्वज्ञता में निरतिशयता दिखाने के लिए। निरतिशय का अर्थ होता है , जिस सर्वज्ञता में ये नहीं कि किसी की अपेक्षा सर्वज्ञ हैं। निरतिशय का अर्थ होता है-निरपेक्ष सर्वज्ञता। जिसका नाम श्रीकृष्ण है वे नित्यानन्द स्वरुप परमात्मा निरपेक्ष सर्वज्ञ हैं। परमात्मा की उस  निरतिशय सर्वज्ञता को बताने के लिए ये विशेषण दिया -परिपूर्ण। 'परिपूर्णपरिज्ञानवते कृष्णनामभृते नमः '-कृष्णनामभृत का एक विशेषण ये हुआ
        दूसरा विशेषण होगा -परिपूर्णपरितृप्तिमते कृष्णनामभृते नमः '।  परितृप्तिमान का अर्थ है - आप्तकाम। परितृप्तिमान वे हैं जो आप्तकाम होते हैं। आप्तकाम वो होता है - जिसको सब कुछ प्राप्त है, उसके अंदर कोई इच्छा नहीं रहेगी

और  किसी व्यक्ति के अन्तःकरण में जितनी अधिक इच्छायें होती हैं, उस व्यक्ति को उतना दुर्बल माना जाता है। और वह व्यक्ति जितना अधिक इच्छारहित होता जायेगा , निष्काम होगा उसी अनुपात में वह शक्तिमान होता जायेगा। और जिसके अंदर बिल्कुल एक भी इच्छा न हो वह सबसे अधिक शक्तिशाली होगा।  (नेता होगा या जीवनमुक्त शिक्षक होगा)।
    भोग की इच्छायें मनुष्य को दुर्बल बना देती हैं।  और इच्छा का बीज है अज्ञान ,अध्यास  अविद्या या देहाध्यास ! जो अध्यास -वान (अज्ञानी?) हैं और संसार के भोगों में आसक्त हैं ,वे अपने-आप को बहुत कमजोर समझते हैं। इसलिये यदि किसी सत्संग/या कैम्प  में भी जाते हैं, तो जिन विषयों के प्रति उनमें राग या आसक्ति है, उन उन वस्तुओं की खोज या माँग वहां भी करते रहते हैं।
   और वैसे व्यक्ति जो संसार की विषय-भोगों की कामना से विरक्त तो हो गए हैं ,जिसके अंदर सांसारिक इच्छा का 'बीज' तो नहीं है ; लेकिन ईश्वर की कृपा से जो अभी तक अध्यास-मुक्त (D-Hypnotized) नहीं हो सके हैं।  तब उनमें भी इच्छा रहेगी मुक्त होने की, मुक्ति के साधनरूप ज्ञान की। ऐसी कोई न कोई कामना या इच्छा तो उनमें रहेगी। 
तो ऐसे लोगों को कहा जायेगा मुमुक्षु। वो मुमुक्षु भी माँगता रहेगा। इच्छा है तो उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए पदार्थ में प्रस्ताव रखती ही रखती है। इच्छावान व्यक्ति अभीष्ट पदार्थ को प्राप्त करने में जब अपनेआप को कमजोर देखता है , तब उस पदार्थ को प्राप्त करने में किसी न किसी का सहयोग लेना चाहता है। तब वो देखता/सुनता है कि 'अमुक व्यक्ति' (नवनीदा) अधिक बलवान है। उसके अंदर सामर्थ्य है कि वो मेरे अभीष्ट को उपलब्ध करा सकता है
 इसलिए जो सच्चा मुमुक्षु -जिज्ञासु या एथेंस का सत्यार्थी - होगा वह सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान परमात्मा से प्रार्थना करता है , कि हमें किसी ऐसे नेता के पास ले चलो जिनसे हमें अध्यास-रोग से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान (मनःसंयोग का प्रशिक्षण) प्राप्त हो।  गुरु खोजने के लिए 1986 में कुम्भ मेला भी चला जाता है, लौटकर 1987 में देखता है कि असली बलवान नेता तो C-IN-C -नवनीदा हैं। 

    तो जो बिल्कुल संसाराशक्त होते हैं उनकी अपेक्षा तो  मुमुक्षु अवश्य बलवान है , लेकिन मोक्ष के प्रति,  ज्ञान के प्रति (परम् सत्य को जानने के प्रति) अपने आप को दुर्बल समझता है। इसलिए वह जो मुक्त हुए हैं , और जो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं , उनसे अपेक्षा करता है , कि वे हमें मुक्ति दिलाने वाली विद्या या ज्ञान प्रदान करो ! किसी जिज्ञासु (सत्यार्थी) की ऐसी प्रार्थना होती है न ?
    और जिस परमात्मा कृष्ण के अंदर यह जो कामना का बीज है  - 'अज्ञान और अध्यास' -  वह  स्वभावतः ही बिल्कुल नहीं है । जो स्वयं नित्य आनंदस्वरूप ,परमात्मा है, उन्हें अपने स्वरुप का अज्ञान भी नहीं है। और स्वरुप-विषयक भ्रान्ति (भेंड़त्व का मिथ्याभिमान) भी नहीं है, अध्यास भी नहीं है। और इच्छा का बीज तो यही है। इसलिए माना जायेगा कि इच्छा के बीज से भी सर्वथा रहित होने से , वह कृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं। उसमें परिपूर्ण परितृप्ति है , क्योंकि इच्छाएं ही अतृप्ति कहलाती हैं। इच्छा से ही अतृप्ति रहती है , और जिसमें इच्छाएं रहती हैं , वो दुर्बल होता है। 
      यहाँ परिपूर्ण-परितृप्तिमान का अर्थ निकलेगा सर्वशक्तिमान। इसलिए परमात्मा का एक विशेषण होता है न -सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान ! सर्वशक्तिमान होने से वे (सगुणसाकार कृष्ण) संसार चाहने वाले को संसार भी उपलब्ध करवा सकते हैं ; और मोक्ष चाहने वाले को मोक्ष भी उपलब्ध करा सकते हैं ! क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं। यही दिखाने के लिए 'कृष्णनामभृत परमात्मा' का एक विशेषण -परिपूर्णपरितृप्तिमान यहाँ दिया गया है। की वे परिपूर्ण -परितृप्तिमान हैं , याने कि सर्वशक्तिमान हैं। तो जो सर्वज्ञ (Omniscient) हैं और सर्वशक्तिमान (Omnipotent) हैं, ऐसे 'कृष्ण'-नामधारी परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं। 
       और वे कैसे हैं ? तो वे जगत के अधिष्ठान हैं। साध्य-साधनात्मक समस्त संसार उन्हीं में अध्यस्त है ! इसे दिखाने के लिए उनका एक विशेषण है - सते ! 'सत ' शब्द अर्थ होता है अबाधित सत्य ! बाध का अर्थ होता है , मिथ्यात्व-निश्चय अर्थात जिसका कभी भी बाध न हो ! जिसके मिथ्यात्व का निश्चय होता है , उसे कहा जाता है, बाधित होने वाला पदार्थ । जो प्रकृति और प्राकृत जगत है , इनका तो बाध होता है। यानि मिथ्यात्व निश्चय होता है।  जिसका जिसका मिथ्यात्व निश्चय होगा उसे कहा जायगा अध्यस्त !  जिस अधिष्ठान का बाध नहीं होता है , उसे कहा जाता है सत्य ! सत् या अबाधित !       
 इसलिए वेदान्त का सिद्धान्त कि -" ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः !" वेदान्त के सारे ग्रन्थ यही बता रहे हैं ! 'ब्रम्ह सत्यं' - में जो सत्य है , उसको निर्देशित करने वाला शब्द है - सत्। वो कौन है ? -ब्रह्म !
        और वो कैसा है ? तो देशतः अपरिच्छिन्न है ! यह दिखाने के लिए ये कहा गया कि विष्णवे।  ' विष्णवे जिष्णवे तस्यै कृष्णनामभृते नमः '-- कहकर नमस्कार किया जा रहा है, विष्णु शब्द का अर्थ होता है व्यापनशील ! अर्थात जिसका शील याने स्वाभाव व्याप्त होना, या व्यापक होना है। इसलिए आकाश को भी  विष्णु कहा जाता है। ['विश्' (विश्प्रवेशने) धातुसे नुक् (कृत्) प्रत्यय का योग होने पर 'विष्णु' तथा 'विष्णु' शब्द में 'अण्'. (तद्धित) प्रत्यय जुड़ने पर 'वैष्णव' शब्द की व्युत्पत्ति हुई।] विष्णवे का अर्थ निकलेगा व्यापनशील जो परमात्मा हैं, कृष्ण नामधारी उसे हम नमस्कार करते हैं। 
    फिर कहते हैं -जिष्णवे , तो जैसे विष्णवे वैसे जिष्णवे।  और जिष्णु शब्द का अर्थ होगा विजयशील , जो कभी पराजित नहीं होता। जिसका स्वाभाव  पराजित होना है ही नहीं ! जीतना ही जीतना जिसका स्वभाव है। तो जो कभी भी किसी से भी पराजित नहीं होता हमेशा जीतता ही हो ! उसे कहा जाता है जिष्णु ! तो परमात्मा का कभी भी किसी से पराभव नहीं होता है , वह जीतता ही है , इसलिए उन्हें कहा गया -जिष्णु ! तो ' विष्णवे जिष्णवे' - अर्थात जो व्यापक है , और कभी किसी से पराजित नहीं होता है , अपितु सबको जीतता ही है। तो आप ही विष्णु (व्यापक), जिष्णु (विश्व-विजेता)  विजय प्राप्त करनेवाला। जेता हैं । ऐसे  कृष्ण नामधारी परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं। 
      इस प्रकार - दो पदों की प्रार्थना के द्वारा यहाँ परमात्मा कृष्ण की ये पाँच विशेषतायें बताई गयी हैं।  पहले पद में भगवान की दो विशेषताओं - परिपूर्णपरिज्ञानवते और  परिपूर्णपरितृप्ति मते '  हैं।  और दूसरे में दो विशेषता। तो ठाकुरदेव की 5 विशेषताएं - सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , अबाधित, व्यापनशील और विजयशील कृष्ण नामधारी परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं। ये प्रथम श्लोक का अर्थ निकलेगा।
     यदि कृष्ण  खाली वृन्दावन में होंगे , हरिद्वार में नहीं होंगे तो उनको विष्णु कैसे कहा जायेगा ? विष्णु का अर्थ है व्यापक। इसलिए कृष्ण को कहा जाता है -नित्यानन्द। तो यदि नित्य आनन्द केवल वृन्दावन में ही रहेगा , तो केवल वृन्दावन में रहने वालों को ही वो नित्य आनंद मिलेगा।  काशी में रहनेवालों को जगन्नाथपुरी में रहने वालों को , बद्रीनाथ में रहने वालों को , हरिद्वार में रहने वालों को नित्यानन्द नहीं मिलता है क्या ? इसलिए  नित्यानन्द का अर्थ है आत्मा , प्रत्यग आत्मस्वरूप !  सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान है -उसी को सत् शब्द बताया गया न ! वो हैं आत्मा या ब्रह्म, और वही ब्रह्म-नामधारी कृष्ण नामधारी भी है
उसीप्रकार श्रीरामकृष्णदेव नामधारी जो परमात्मा है, उन्हें हम नमस्कार करते हैं।  और श्रीरामकृष्णदेव देशतः अपरिच्छिन्न हैं - माने Beyond Time and Space ,समय और स्थान से परे हैं ! उनके इस विशेषत्व को दिखाने के लिये उन्हें कहा -  परिपूर्णपरिज्ञानपरितृप्तिमते सते
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माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य पर आनन्द गिरी जी द्वारा विरचित टीका के मंगला चरण के दूसरे श्लोक का उच्चारण कर लें - 
शुद्धानन्दपदाम्भोजद्वन्द्वमद्वन्द्वतास्पदम् ।
नमस्कुर्वे पुरस्कर्तुं तत्त्वज्ञानमहोदयम् ॥२॥
      जो कृष्णनामभृत या कृष्ण नाम वाले परमात्मा हैं, उसमें कृष्ण शब्द का अर्थ ये निकला नित्य आनंद , विशुद्ध आनंद। इसलिये शुद्धानन्द का अर्थ होगा नित्य आनन्द। और पदाम्भोज का अर्थ निकलेगा चरणकमल। पद कहते हैं चरण को , और अम्भोज याने कमल। तो 'शुद्धानन्द पदाम्भोज ' का अर्थ निकलेगा विशुद्ध आनन्द स्वरुप परमात्मा के पदार्विन्द। और वे 'द्वन्द्व' हैं - दो चरणकमल हैं। ' शुद्धानन्द पदाम्भोज द्वन्द्व' याने चरणकमल द्वय। 
          अर्थात जो कृष्ण नाम वाले आनन्दस्वरूप परमात्मा हैं उनके दो चरण कमल। और वे चरणकमल द्वय कैसे हैं ? तो कहते हैं - 'अद्वन्द्वता स्पदम '। अद्वन्द्वता कहते हैं , अद्वैत को। ब्रह्म को।  और वे हैं आस्पद जिनका -याने आश्रय जिनका।  नित्यानन्द, शुद्धानन्द स्वरूप परमात्मा के चरणाम्भोज का यह  जो आश्रय-ग्रहण करना है, वो है द्वन्द्वता -याने अद्वैत ब्रह्म 
       आगे चलकर जब हमलोग भाष्य के मंगलाचरण का विचार करेंगे , तब उसमें यह बताया जायेगा कि परमात्मा के सोपाधिक दो स्वरुप हैं। एक है कारण-उपाधिक जिन्हें 'कारणब्रह्म' कहा जाता है। और एक कार्य-उपाधिक जिनको 'कार्यब्रह्म' कहा जाता है, वह ब्रह्म का सगुण सोपाधिक (साकार) स्वरुप है। तो ब्रह्म का सगुण-साकार स्वरूप और ब्रह्म का सगुण-निराकर स्वरूप - ये दोनों कैसे हैं?
   सगुणस्वरूप को एक प्रकार से कहा जा रहा है - ' शुद्धानन्द पदाम्भोज द्वन्द्व !' और दूसरा है -जो 'तुरीय स्वरुप' है। जब आगे चलकर 'चतुष्पाद आत्मा' का वर्णन होगा न, वहाँ चतुर्थ या तुरीय के विषय में बताया है। उसमें से प्रथम तीन जो स्वरुप है -[विश्व , तैजस और प्राज्ञ ] उनमें से दो है , एक (विश्व) कार्य-उपाधिक ब्रह्म। और दूसरा (तैजस और प्राज्ञ)  कारण-उपाधिक ब्रह्म। और ये तीनों -जो चतुर्थ है, या जो तुरीय परमात्मा हैं-अधिष्ठान हैं ,उनमें कल्पित है। वो जो तुरीय परमात्मा हैं - जिनको पहले श्लोक में  सत् शब्द से कहा गया था, वे हैं  -अधिष्ठान। आस्पद कहा जाता है अधिष्ठान को , आश्रय को तो द्वन्द्वता शब्द से वह अद्वैत ब्रह्म ग्राह्य हैं
और  जिस शुद्ध आनन्द स्वरुप परमात्मा के पदार्विन्द द्वन्द्व का, याने पदार्विन्द द्वै का आस्पद याने आश्रय अर्थात अधिष्ठान है - वह द्वन्द्वता अद्वैत परमात्मा में कल्पित जो परमात्मा के दो सगुणस्वरूप हैं, उन्हें हम -नमस्कुर्वे। नमस्कार करते हैं
और नमस्कार किस लिए  करते हैं ? तो नमस्कार का उद्देश्य बताया जा रहा है कि- " तत्त्वज्ञान महोदयम् पुरस्कर्तुं।" महोदय शब्द का अर्थ होता है - समृद्ध, महान जैसे राष्ट्रपति महोदय ! बड़े लोगों के लिए महोदय शब्द कहा जाता है न ? महोदय शब्द का अर्थ होता है -बड़ा , समृद्ध।  और यहाँ सबसे समृद्ध कौन है ? - तो जो परमात्मा की उपलब्धि कराने वाला ज्ञान है; उसे महोदय कहा जा रहा है । तो  तत्वज्ञान रूपी जो महोदय हैं, उस तत्वज्ञान रूपी समृद्ध पदार्थ को पुरस्कर्तुं - अर्थात सामने रखकर के। इसका मतलब उसे प्राप्त करने के लिए। तत्वसाक्षात्कार के उद्देश्य से हम शुद्धानन्द जो परमात्मा हैं , उनके चर्णारविन्द द्वन्द्व को नमस्कार करते हैं। " तत्त्वज्ञान महोदयम् पुरस्कर्तुं।" का ये अर्थ निकलेगा। 
     क्योंकि तत्वज्ञान के बिना मोक्ष नहीं है। "ज्ञानदेव तु कैवल्यम्‌।" ज्ञान के कारण ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।'' और सिंहशावक को भेंड़त्व के भ्रम से ' -  मोक्ष दिलाने वाले ज्ञान, या ज्ञान से होने वाले मोक्ष का अर्थ है सभी प्रकार के भ्रान्तियों की समूल निवृत्ति या अध्यास की समूल निवृत्ति।  और जो ज्ञान अध्यास की निवृत्ति कराने वाला है (भेंड़त्व के सम्मोहन से विसम्मोहित कराने वाला जो ज्ञान -Janan है), केवल उस ज्ञान को ही तत्वज्ञानमहोदय कहा जा सकता है
   क्योंकि दुर्गासप्तसती में आता है ,ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।1।।  ऐसा कोई प्राणी नहीं है जिसको ज्ञान न हो। सबको ज्ञान है -किन्तु वह सब ज्ञान अनात्म-पदार्थों का है। और उस अनात्म-पदार्थ के ज्ञान से तो संसार की ही प्राप्ति होती है। वह संसार में ही बना रहता है, संसारी ही बना रहता है। 
       लेकिन तत्वज्ञान जो भ्रममुक्त कर दे, (माँ काली  की कृपा से) किसी किसी को होता है। इसीलिए तत्वज्ञान को कहा जा रहा है - महोदय ! तो दो प्रकार के ज्ञान हो गए न - एक तत्वज्ञान। दूसरा अनात्म वस्तुओं का ज्ञान। तत्वज्ञान में भी  तत्त्व शब्द का अर्थ है -वास्तविक स्वरुप। हमारे वास्तविक स्वरुप का नाम है तत्व। तत्व शब्द का अर्थ होता है -ब्रह्म , और तत्व शब्द का अर्थ होता है याथार्थ। 
   "तत्त्वं ब्रह्मणि याथार्थे" ऐसा ये कोश की पंक्ति है।  तो तत्त्व शब्द का अर्थ हुआ वास्तविक स्वरुप। और जीवमात्र का वास्तविक स्वरुप क्या है ? - ब्रह्म ! इसलिए तत्त्व शब्द का अर्थ निकलेगा ब्रह्म। और तत्वज्ञान हुआ ब्रह्मज्ञान।अर्थात ब्रह्म का आत्मरूप से ज्ञान। और ब्रह्म का यह आत्मरूप से ज्ञान (अपनी आत्मा के रूप से बोध),अनात्म-पदार्थों की ज्ञान के अपेक्षा श्रेष्ठ है न ? 
  इसलिए गीता 6.22 में कहा - " यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।" जिसे प्राप्त करने के बाद , दूसरा  उससे बढ़कर के और कोई भी लाभ होगा ? ऐसा  ज्ञानी नहीं मानता।  [ यम्‌ लाभम्‌ लब्ध्वा, ततः अधिकम्‌ अपरम्‌ न मन्यतेवह तो ब्रह्म ज्ञान से ही कृत-कृत्य हो जाता है, आत्मज्ञान से ही उसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है। [ उस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।] यम्‌ लाभम्‌ लब्ध्वा, ततः अधिकम्‌ अपरम्‌ न मन्यते-  में यम्‌ लब्ध्वा - माने आत्मज्ञानं लब्ध्वा, ततः अधिकम्‌ अपरम्‌ न मन्यते ; उससे बढ़करके कोई परम् लाभ समझता ही नहीं है। आत्मज्ञान ही सबसे महान लाभ (शुभलाभ) है ! 
        इसलिए महोदय शब्द का अर्थ हुआ -दो प्रकार के ज्ञानों में से जो श्रेष्ठ ज्ञान है!  एक है विषय का ज्ञान और एक है ब्रह्म ज्ञान।  ब्रह्म है विषयी और संसार है विषय। तो संसार का ज्ञान विषय का ज्ञान हुआ और ब्रह्मज्ञान है विषयी का ज्ञान। इन दोनों में कौन ज्ञान श्रेष्ठ है ? जिस ज्ञान से सारे अनर्थ की निवृत्ति हो , और जो कृष्ण शब्द का अर्थ है - नित्य आनन्द। और जिस ज्ञान से ,वह नित्यानन्द हमें हमेशा-हमेशा  के लिए उपलब्ध हो जाये उस ज्ञान को ही कहा जायेगा महोदय। 
   दो ज्ञानों में से श्रेष्ठ ज्ञान है ब्रह्मज्ञान। उसी श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए- हम  पुरस्कर्तुं - अर्थात सामने रखकर के नमस्कुर्वे - नमस्कार करते हैं, किसको ? जो अद्वैत ब्रह्म में ही परिकल्पित ब्रह्म के सगुण स्वरुप है, सोपाधिक स्वरुप है - कृष्ण (ठाकुरदेव) , उनको हम नमस्कार करते हैं। सोपाधिक स्वरुप का चिंतन भी किस लिए है ?  निरुपाधिक ब्रह्मभाव को प्राप्त कराने के लिए। 
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अब तीसरे श्लोक में आनंदगिरी यह बतला रहे हैं कि आगे वे माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य की व्याख्या करने जा रहे हैं - 
 गौडपादीयभाष्यं हि प्रसन्नमिव लक्ष्यते । 
तदर्थतोऽतिगम्भीरं व्याकरिष्ये स्वशक्तितः ॥३॥  
- 'भाष्यं स्वशक्तितः व्याकरिष्ये। ' व्याकरिष्ये का अर्थ निकलता है व्याख्यान करूँगा। कौन कह रहे हैं ? तो आनन्दगिरि जी कह रहे हैं, कि व्याख्यान करूँगा ।  किसका व्याख्यान करोगे ? व्याख्या किसकी लिखोगे ? तो - तद , यानि भाष्यं। यानि भाष्य की व्याख्या करूँगा। कैसी व्याख्या करोगे ? तो कहा - स्वशक्तितः, अपनी सामर्थ्य के अनुसार भाष्य की व्याख्या करूँगा। स्वशक्तितः अपने सामर्थ्य के अनुसार मैं 'तद' यानि भाष्य की व्याख्या करूँगा।
      भाष्य कैसा है ? तो भाष्य की दो विशेषतायें बताते हैं। कि गौड़पादीयभाष्यं प्रसन्नमिव लक्ष्यते। एक विशेषता बताई।  गौड़पादीय शब्द का अर्थ निकलेगा - माण्डूक्यकारिका। गौड़पादीय शब्द का अर्थ निकलेगा कारिका। गौड़पादाचार्य जी के द्वारा माण्डूक्य उपनिषद का जो श्लोकबद्ध व्याख्यान हुआ , जिन श्लोकों से व्याख्यान हुआ वे श्लोक, कारिका के नाम से जाने जाते हैं। उन श्लोकों को यहाँ पर गौड़पादीय शब्द से कहा जा रहा है। और कारिका नाम का ग्रन्थ क्या है ? माण्डूक्य उपनिषद का श्लोकबद्ध व्याख्यान। 
किसी ने आनंदगिरि जी से प्रश्न किया यदि आप समझते हैं कि भाष्य के अर्थ अत्यंत गंभीर हैं , जिसकी व्याख्या करना आपके बूते से बाहर की बात है , तो आप उसकी व्याख्या करने की चेष्टा ही क्यों कर रहे हैं? पहले भी तो इस भाष्य के व्याख्यान हो चुके  हैं, उसी व्याख्यान से अर्थ समझ लिया जायेगा। आप क्यों प्रयत्न कर रहे हैं ? तो इसका उत्तर देते हुए आनन्द गिरिजी कहते हैं - मुझसे पहले के विद्वानों ने भी गौड़पादीय भाष्य पर व्याख्यान किया है । ऐसी बात नहीं है कि मैं कोई पहली बार उस भाष्य की व्याख्या करने जा रहा हूँ। 
पूर्वे यद्यपि विद्वांसो व्याख्यानमिव चक्रिरे ।
तथाऽपि मन्दबुद्धीनामुपकाराय यत्यते ॥४॥  
        लेकिन पूर्व विद्वानों के द्वारा भाष्य की जो व्याख्या की गयी है, उस व्याख्या को केवल वे व्यक्ति ही समझ सकते हैं , जो तीव्र बुद्धिवाले विद्वान् लोग हैं। पूर्व विद्वानों के द्वारा भाष्य के गंभीर अर्थ की जो व्याख्या की गयी है, उसे समझने के लिए विशिष्ट बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। उन पूर्व विद्वानों द्वारा की गयी व्याख्या के माध्यम से गौड़पादीय भाष्य का अर्थ  सामान्य बुद्धि वाले लोग समझ नहीं पाते, विशिष्ट बुद्धि वाले तो समझ लेंगे। जो लोग गौड़पादीय भाष्य के अतिगम्भीर अर्थ को पूर्व व्याख्यानों से ही समझने में सक्षम हैं , उनके लिए यह आनन्दगिरि टीका रूपी भाष्य के अर्थ पर व्याख्यान नहीं लिख रहे हैं। तो फिर किनके लिए लिख रहे हैं ? तो कहते हैं - तथाऽपि मन्दबुद्धीनामुपकाराय यत्यते। 
     ताकि जो मन्दबुद्धि जिज्ञासु हैं , उन्हें भी समझ में आ जाय, उन जिज्ञासुओं की सहायता करने के लिए हम प्रयत्न कर रहे हैं। मया यत्यते - आनन्दगिरि टीका लिखने के रूप में मेरे द्वारा प्रयत्न किया जा रहा है। जो पूर्व में लिखित टीकाओं से ही समझ सकते हैं, उन विद्वान् पर उपकार करने के लिए यह नहीं लिखा जा रहा है। पूर्व में लिखित टीकाओं को समझना जिनके लिए कठिन है , ऐसे मन्दबुद्धि लोग भी इस टीका के माध्यम से गौड़पादीय भाष्य के गहन अर्थ को समझ जायें , तो इसे माना जायेगा , उस मंदबुद्धि पर हुआ उपकार। और इसी उपकार के लिए हम प्रयत्न कर रहे हैं। 
 
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माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ को प्रगट करने वाले जो श्लोक हैं , वे 215 श्लोक गौड़पादाचार्य जी के द्वारा रचित हैं। और गौड़पादाचार्य जी ऐसे सुंदर श्लोकों की रचना किसकी कृपा से करने में समर्थ हुए ? तो कहा कि  - नारायण प्रसादतः प्रतिपन्नान् ! नारायण कौन हैं ? श्रीमत नारायण जो ब्रह्मविद्या-परम्परा के प्रथम आचार्य हैं। 'नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं ' ये भारत की ब्रह्मविद्या -सम्प्रदाय की गुरु-शिष्य परम्परा है न ? यह नारायण भगवान विष्णु से प्रारम्भ हुई। 
 हमारे सनातन वैदिक धर्म में वेदान्त दर्शन की गुरु परम्परा भगवान् नारायण से प्रारम्भ होती है। परम पुरुष नारायण ही आदि गुरु हैं। 
गुरु पूजन के स्तोत्र में कहा गया है कि 
‘नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं, शक्तिं च तत्पुत्र पराशरं च। 
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं, गोविन्दयोगीन्द्र मथास्यशिष्यम् ॥ 
 श्रीशंकराचार्य मथास्य पद्मपादं च हस्तामलकम् च शिष्यान्।
 तं त्रोटकं वार्तिककारमन्यान्, अस्मद् गुरून्सन्तत मानतोस्मि।’  
अर्थात् आदि गुरु नेता भगवान् नारायण के पुत्रशिष्य  हुए स्वयम्भू ब्रह्माजी, ब्रह्माजी के पुत्रशिष्य  हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पुत्रशिष्य हुए  महर्षि शक्ति, महर्षि शक्ति के पुत्रशिष्य हुए महर्षि पराशर, महर्षि पराशर के पुत्रशिष्य हुए ब्रह्मसूत्र के रचनाकार श्रीकृष्ण द्वैपायन बादरायण महर्षि वेदव्यास, महर्षि व्यास के पुत्रशिष्य हुए ब्रह्मरात शुकदेवजी, ब्रह्मरात शुकदेवजी के शिष्य हुए गौड़पाद, गौड़पाद के शिष्य हुए महायोगी गुरु गोविन्दपाद, गुरुगोविन्दपाद के शिष्य हुए भगवत्पाद शंकराचार्य,  जगद्गुरु भगवत्पाद आदि शंकराचार्य के चार शिष्य हुए: 1. पद्मपाद 2. वार्तिककार सुरेश्वर 3. हस्तामलक 4. त्रोटक ॥
 'अविघ्न परिसमाप्ति आदि ' में आदि शब्द का अर्थ यह समझना होगा कि उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्यकारिका की व्याख्यान रूप "भाष्य- ग्रन्थ" का भारत के गाँव -गाँव में उस  खूब प्रचार-प्रसार हो। इसके अध्यनकर्ता और अध्यापक बहुत बड़ी संख्या में हों। सम्पूर्ण भारतवर्ष में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में इसका अध्यन -अध्यापन होता रहे।
      फिर चुकी भगवान भाष्यकार शंकराचार्य जी की यह इच्छा थी कि भारत के गाँव-गाँव में रहने वाले साधारण गृहस्थों में भी 'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका ' के भाष्यग्रंथ में वर्णित ब्रह्म-विद्या का खूब प्रचार -प्रसार हो।   
       पिछले लेख में जो बताया गया था कि हमारे सनातन वैदिक धर्म में वेदान्त दर्शन की गुरु परम्परा भगवान् नारायण से प्रारम्भ होती है। इसलिए भारत की ब्रह्मविद्या -सम्प्रदाय की गुरु-शिष्य परम्परा को 'नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं ' कहा जाता है। एवं परम पुरुष भगवान नारायण ( विष्णु ) को ही आदि गुरु माना जाता है। और इसी कार्य को करने के लिए नारायण भगवान हर युग में अवतरित होते रहते हैं। इसके लिए ही उन्होंने गीता में प्रतिज्ञा की है- सम्भवामि युगे युगे !
 गुरु परम्परा स्तोत्र  में कहा गया है -  'नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं ' गुरु-पूजन में 'नारायण पद्मभवं' से तात्पर्य है मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता भगवान - विष्णु। तो गौड़पादाचार्य जी ने क्या किया कि 'नारायण परम्परा ' से उन्होंने माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ को समझ लिया। और फिर ईश्वर की कृपा या नारायण भगवान की कृपा से ही   वे इन श्लोकों को लिखने में समर्थ हो गए। 

       गौड़पादाचार्य जी ने क्या किया है ?  गौड़पादाचार्य जी ने  माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ की अविष्कार करने वाले 215 श्लोकों की रचना की। अर्थ को प्रगट करने की चेष्टा को कहा जाता है -अर्थ अविष्करण ! अर्थ-अविष्करण का अर्थ होता है, अर्थ का प्राकट्यकरण। किसके अर्थ को प्रकट करना ? तो माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ को। तो माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ का अविष्कार, याने प्राकट्य जिज्ञासु के सामने प्रस्तुत करना। प्रगट करके दिखाना। ताकि जिज्ञासु माण्डूक्य उपनिषद के 12 मन्त्रों के गहन अर्थ को आसानी से समझ सके। इस उद्देश्य से ऐसे श्लोकों की रचना करना, इसको माना जाता है - कि माण्डूक्य उपनिषद अर्थ अविष्करण हुआ।  
और वह एक शुभ कार्य है। गौड़पादाचार्य के श्लोकों के अर्थ को प्रकट करने वाला भाष्य लिखना , रूपी शुभ कार्य करने जा रहे हैं। और केवल कारिका के श्लोकों का ही अर्थ नहीं समझना है, बल्कि साथ में माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ को भी अपने भाष्य-रचना में प्रकट करने जा रहे हैं। तो " श्रेयांसि बहुविघ्नानि —अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। ' इस सिद्धान्त के अनुसार इस कार्य की समाप्ति तक अनेकों विघ्न आ सकते हैं। उन विघ्नों की निवृत्ति के लिए , और भाष्य की पूर्ण निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण कर रहे हैं। 

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"ब्रह्म का व्यवहारिक और वास्तविक स्वरुप "
 नियम है कि जिस समास में अनेक प्रथमान्तपद गौण होकर किसी अन्य पद के विशेषण हो जाते हैं उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं। 
       "परदेवतातत्त्वानुस्मरणपूर्वकं"  -यहाँ 'परदेवतात्मक तत्त्व ' हैं ब्रह्म। तत्त्व का अर्थ है - ब्रह्म। उसीको छान्दोग्य उपनिषद में - परदेवता शब्द से भी कहा है। ( " मनः प्राणे प्राणस् तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम्।।" – छान्दोग्य 6-8-६, मरने वाले पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परमदेवता में लीन हो जाते हैं।] वहाँ पर परदेवता शब्द से ब्रह्म को कहा गया है। इसलिये लिखते हैं,-"परदेवता तत्त्व अनुस्मरणं" - परदेवता शब्द का अर्थ हुआ ब्रह्म और उस ब्रह्म का जो तत्व , अर्थात उनका जो वास्तविक स्वरुप है।

        और बृहदारण्यक उपनिषद में ब्रह्म के दो स्वरुप होते हैं ऐसा कहा है - 'द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च ।' एक हैं सोपाधिक ब्रह्म, जिसे सगुणब्रह्म कहा जाता है, और एक हैं निरुपाधिक ब्रह्म जिन्हें निर्गुणब्रह्म कहा जाता है। इसलिये ब्रह्म दो प्रकार के हुए।  उसमें से जो ब्रह्म का सगुणस्वरूप है , उसको चाहे सगुणब्रह्म कहो, या सोपाधिक ब्रह्म कहो, ये ब्रह्म का व्यावहारिक स्वरुप है। वास्तविक स्वरुप नहीं है
          जैसे अभिनेता के दो स्वरुप होते हैं - एक अभिनय करते समय वह जिस पात्र का अभिनय कर रहा है। उस पात्र के अनुसार मेकअप करके बनाया गया स्वरूप, वो नाट्कीयस्वरूप बनाया गया है, नाटक करने के लिए। और एक उसका व्यावहारिक स्वरुप होता है , जो वास्तविक जीवन जीते समय जैसा रहता है, जैसे कपड़े पहनता है। बैठता उठता है, वेशभूषा रहती है; वो एक स्वरुप उसका वास्तविक माना जायेगा। और एक अभिनय के लिए धारित स्वरुप, को ब्रह्म का व्यावहारिक स्वरुप माना जायेगा ।   वैसे ही ब्रह्म का जगत में व्यवहार  करने के लिए जो धारित किया हुआ स्वरुप है वह सगुणस्वरूप है। सोपाधिक स्वरुप है या व्यावहारिक स्वरुप है। और व्यवहार है अभिनय। और उस व्यवहार का निर्वहन करने के लिये जो मेकअप करके धारण किया हुआ स्वरुप है , वो है व्यावहारिक स्वरुप। वो ब्रह्म का सगुणस्वरूप है। (अभिनय करने के लिए ब्रह्म ने इस सगुणस्वरूप को धारण किया है।) 
       और एक स्वरुप है -निर्गुणस्वरूप, ब्रह्म का जो निरुपाधिक स्वरुप है, वह 'तत्त्व' शब्द से ग्राह्य है। तो भाष्यकार भगवान ब्रह्म के तात्त्विक स्वरूप , याने पारमार्थिक स्वरुप, निरुपाधिक स्वरुप  का अनुस्मरण करते हैं, याने ब्रह्म के तात्त्विक स्वरूप (existence-consciousness-bliss) का स्मरण करते हैं। और ब्रह्म के उस तात्त्विक स्वरूप का स्मरण करने के पश्चात्,  फिर भाष्यकार भगवान ब्रह्म के उस तात्त्विक स्वरूप को नमस्कार करते हैं। 
 और उन शिष्टों का जो आचरण है , उसको ही कहा जाता है - शिष्टाचार ! जिनको वेद के द्वारा उक्त साध्य-साधन भाव में कोई संशय -भ्रान्ति नहीं है। और वेद में बताये हुए साधनों को ही अपनाते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। "जिनका जीवन केवल दूसरों के कल्याण के लिए है" जिनका जीवन केवल परहित के लिए ही है - उन्हें कहा गया शिष्ट और उनके आचरण को माना गया- शिष्टाचार। याने शिष्टों का आचरण। 
       और शिष्टों के द्वारा किया गया आचरण है, वैसे लोगों के लिए प्रमाण होता है जो शास्त्रों को नहीं जानते हैं।  अर्थात जो लोग अभी तक गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र  को नहीं जानते हैं, उनके लिए वैसे शिष्टों का आचरण ही प्रमाण होता है। इसलिये गीता (3.21) में भगवान ने कहा - 
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते। 
अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं। यहाँ शिष्ट लिखा है , वहाँ श्रेष्ठ लिखा है। तो श्रेष्ठ और शिष्ट का एक ही अर्थ है। यानि शिष्ट पुरुष जैसा -जैसा आचरण करते हैं   , उनके अनुयायी भी, अपने श्रेष्ठ जनों के आचरण को प्रमाण मान करके वैसा ही आचरण करते हैं।  तो श्रेष्ठ लोगों का शिष्टाचार भी साधारण लोगों के लिए प्रमाण होता है।  और भगवान भाष्यकार से पूर्ववर्ती  जो शिष्ट लोग हुए हैं , जैसे गौड़पादाचार्य जी हैं , व्यासदेव हैं  , पराशर जी हैं , वशिष्ठ जी हैं - ये सब भगवान भाष्यकार के लिए शिष्ट लोग हैं। 
     जैसे हमलोगों के लिए भगवान भाष्यकार शिष्ट हैं , वैसे भाष्यकार भगवान के लिए शिष्ट माने जायेंगे व्यास -वशिष्ट आदि। और उन शिष्ट लोगों का आचरण हो जायेगा , भाष्यकार भगवान के लिए प्रमाण।  [जैसे हमलोगों के लिये "C-IN-C नवनीदा" शिष्ट हैं, वैसे नवनीदा के लिये उनके पितामह-श्री शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय, स्वामी सम्बुद्धानन्द जी (जो श्रीरामकृष्णदेव और माँ सारदादेवी के विश्वस्तरीय शतवार्षिकी कमिटी के सचिव थे ) और स्वामी रंगनाथानन्द जी आदि शिष्ट माने जायेंगे। ]
      तो भाष्यकार भगवान के पूर्ववर्ती  शिष्ट लोगों ने क्या किया है ? हम देखते हैं कि व्यास आदि ने जब भी कोई ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया , तो शुरू में मंगलाचरण किया है। जो भी व्यास-आदियों के ग्रन्थ हैं ,उन ग्रंथों के प्रारम्भ में उनके द्वारा किया गया मंगलाचरण दीखता है।  तो इसका अर्थ यह हुआ कि शिष्ट लोग जब कोई शुभ कार्य करते हैं, तो कार्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हैं। ये देखा गया उनके ग्रन्थादि में।
    और किसी भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण क्यों करते हैं ? ताकि उस ग्रन्थ के लेखन में आने वाले विघ्नों का नाश हो , मैं स्वयं इस ग्रन्थ पूरा कर सकूँ , और इस ग्रन्थ के सन्देशों का खूब प्रचार-प्रसार भी हो। इस उद्देश्य से व्यासादि ने पहले भी मंगलाचरण किया हुआ है। ये उनका आचरण है , वो  शिष्टाचार है। 
     और उसे प्रमाण मानते हुए भगवान भाष्यकार भी माण्डूक्य उपनिषद तथा माण्डूक्यकारिका के भाष्य रूप ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ कर रहे हैं , तो वे भी मंगलाचरण करते हैं।  क्योंकि उनके पूर्ववर्ती शिष्टों ने भी वैसा किया है। और जैसा शिष्टों ने किया है , वैसा ही उत्तरवर्ती साधकों को करना चाहिए। [पूर्ववर्ती शिष्टों (नेता /जीवनमुक्त शिक्षक) ने किया है , वैसा ही आचरण उत्तरवर्ती साधकों को (Would be Leaders) को भी करना चाहिए। ] 
      इसी दृष्टि यहाँ कहा जा रहा है कि - " शिष्टाचारप्रमाणकं  मंगलाचरणं  मुखतः समाचरण !" मुखतः  अर्थात शब्दतः समाचरण। लेकिन 'मंगलाचरण' तो हृदय की भावना है , यह मन का विषय होता है। जिनको हम श्रेष्ठ (अवतारवरिष्ठ) और श्रद्धेय मानते हैं, जिनको हम यह मानते हैं, कि वे हम पर अहैतुकी कृपा करने वाले-हमारे सहयोगी भी हैं। और हमारे ये इष्टदेवता सर्वशक्तिमान हैं ,इसलिये मेरे इष्टप्राप्ति के मार्ग में जो भी विघ्नादि आदि आयेंगे,  उन सभी प्रकार के विघ्नादियों का निराकरण करने का सामर्थ्य इनमें (ठाकुर-माँ -स्वामीजी में) है ! तो शुभकार्य करने से पहले उनका स्मरण करना - ये माना जाता है , मंगलाचरण। और स्मरण करने का कार्य मनुष्य के किस अवयव से होता है ? स्मरण करना - ये विषय किसका है ?  मन का। स्मरण या चिंतन मन का धर्म है। 
    और हृदय के अंदर उमड़ने वाले भावनाओं को, या मन में उठने वाले उन विचारों को मुख से  शब्दों के रूप में  बहार निकालना, मुख से बोलना या फिर ग्रन्थ में लिखना - ये होता है अंदर के स्मरणात्मक मंगलाचरण को शिष्य-शिक्षार्थ बाहर प्रकट करना। उसका उद्देश्य होता है कि आने वाले साधकों को (भावी नेताओं को भी ) ऐसा ही करने की प्रेरणा मिले, -ऐसी ही प्रेरणा मिले। उस दृष्टि से लिखते हैं- 'मुखतः समाचरण'  मुखतः  अर्थात शब्दतः समाचरण। 
     और भाष्यकार भगवान को अवतरित हुए तो 1200 वर्ष से भी अधिक हो गए हैं। हमलोग तो उनके सामने थे नहीं, फिर हमलोगों को अभी यह कैसे ज्ञात होगा , कि उन्होंने पहले आँखों को मूँदकर ब्रह्म का ध्यान किया और फिर भाष्य लिखना प्रारम्भ किया होगा ? ये हमलोगों को ज्ञात तो होता है , उन्होंने अपने भाष्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में जो दो श्लोक बनाकर लिखा है- इसके द्वारा। (इस बात की जानकारी हमें मिलती हैं -उनके द्वारा मंगलाचरण के रूप में लिखित दो  श्लोकों से।) इससे ये शिक्षा मिलती है कि भाष्यकार भगवान ने भी मंगलाचरण किया था। तो ये उत्तरवर्ती लोगों को भी ये शिक्षा मिले, ऐसा  बोध हो जाये कि  अपने द्वारा प्रारम्भ किये जाने वाले कार्य के शुरू में मंगलाचरण करना चाहिए। इस उद्देश्य से- मुखतः समाचरण।
       और टीकाकार कहते हैं कि , यहाँ  मंगलाचरण लिखते हुए, "अपेक्षितं अभिधेय आदि अनुबन्धं अपि सूचयति" मंगलाचरण से ही उनके भाष्य ग्रन्थ का अनुबन्ध -चतुष्टय भी शब्दतः प्रकट हो रहा है। क्योंकि जो  प्रौढ़ ग्रंथकर्ता (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) होते हैं न , वैसे ग्रंथकर्ता के ग्रन्थ में -एक अनुबन्ध होता है। अनुबंध कहा जाता है - अधिकारी , विषय , प्रयोजन और सम्बन्ध को , इन चार को। अधिकारी , विषय , प्रयोजन और सम्बन्ध, इन चार को कहा जाता है -अनुबन्ध। 
   क्योंकि इन चारो का ज्ञान होने के बाद ही कोई बुद्धिमान व्यक्ति -ग्रन्थ के अध्यन में प्रवृत्त होता है।  ग्रन्थ कोई भी सामने आया , और बुद्धिमान व्यक्ति , विवेकी व्यक्ति उसको झट से उठाकर के पढ़ना प्रारम्भ नहीं करता है। पहले वो यह जानना चाहता है कि किसी भी ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है ? ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय क्या है ? ग्रन्थ का प्रयोजन क्या है ? सम्बन्ध क्या है?  ये समझने के बाद ही विवेकी -लोगों की ग्रन्थ के अध्यन में प्रवृत्ति होती है। 
    और जिन ग्रंथों के विषयादि ज्ञात नहीं हैं , केवल time pass करने के लिए कोई बुद्धिमान व्यक्ति  ग्रन्थ को नहीं पढता है। पहले वह यह जानना चाहता है कि उस ग्रन्थ में बताया क्या गया है ? उसका विषय क्या है ,उसका फल क्या है , उसको पढ़ने का अधिकारी कौन है ? और सम्बन्ध क्या है ? इन चार का ज्ञान हो जाने पर ही बुद्धिमान व्यक्ति में ग्रंथ अध्यन की प्रवृत्ति होती है। इसलिये अनुबन्ध का लक्षण है - ग्रन्थ अध्यन प्रवृत्ति अनुकूल 'ज्ञान विषयत्वं अनुबन्धतत्वं। ' ग्रन्थ के अध्यन में प्रवृत्ति के हेतुभूत  ज्ञान का जो विषय होगा , याने जिसको जानने से बुद्धिमान की ग्रन्थ अध्यन में प्रवृत्ति होती है , उसे कहा जाता है -अनुबन्ध। 
       तो भाष्यकार भगवान बुद्धिमानों के द्वारा इस -माण्डूक्य उपनिषद तथा माण्डूक्यकारिका के व्याख्यान रूप भाष्य के अपेक्षित अनुबन्ध को भी बता रहे हैं।  ये लिखते हैं - "अर्थाद अपेक्षितम, अभिधेयआदि अनुबन्धं अपि  सूचयति " अपेक्षित यानी विवेकी अध्यन के द्वारा, बुद्धिमान व्यक्ति भाष्य ग्रन्थ के अध्यन में प्रवृत्त होने से पहले अपेक्षा करता है, भाष्य के अनुबन्ध आदि को जानने की। अधिकारी आदि को जानने की -किसलिए ? 
    'अभिधेय आदि' , इसमें अभिधेय शब्द का अर्थ होता है -विषय। और आदि शब्द से बाकी तीन को लेना। अभिधेय यानि विषय और बाकी तीन हुए फिर - अधिकारी, प्रयोजन और सम्बन्ध। तो 'अभिधेयआदि' शब्द का अर्थ निकला - विषयादि अनुबन्ध-चतुष्टय। और इसी प्रथम श्लोक में  भाष्यकार भगवान उसे भी बताते हैं, अर्थात  सूचित करते हैं । इस मंगलाचरण में विषय भी बताया जायेगा , और अधिकारी , प्रयोजन और सम्बन्ध को भी सूचित किया जायेगा। इस प्रकार ये जो सम्बन्ध बताने वाली टीका है , अवतरण टीका या सम्बन्ध ग्रन्थ भी इसको कहा जाता है। इसका विचार पूरा होता है। 
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" नमस्कार का अर्थ है- ब्रह्म का मैं के रूप में अनुसन्धान करना !"

     प्रज्ञानांशुप्रतानैः.... इत्यादि से यहाँ भाष्यकार भगवान मंगलाचरण के प्रथम दो श्लोकों में यह प्रार्थना करते हैं कि भाष्य ग्रन्थ लेखन करते समय आने वाले विघ्नों का नाश हो। भाष्य ग्रन्थ की समाप्ति उनके द्वारा ही हो, और माण्डूक्य उपनिषद पर लिखित उनके भाष्य का खूब प्रचार -प्रसार भी हो। इसका अध्यन- अध्यापन खूब होता रहे।  तो  इस मूल उद्देश्य से उपरोक्त पहला श्लोक से , और दूसरा जो बाद में आएगा दो श्लोकों से मंगलाचरण करते हैं। [यो विश्वात्मा विधिजविषयान् प्राश्य भोगान् स्थविष्ठान्-बाद में आएगा।] 
      तो उपरोक्त श्लोक के चौथे पाद में अंतिम वाक्य है - यद् ब्रह्म तन् नतोऽस्मि -ऐसा अन्वय करिये।  तद ब्रह्म याने उस ब्रह्म के प्रति मैं नत-मस्तक हूँ ! उस ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। कौन से ब्रह्म को नमस्कार करते हैं? वह ब्रह्म जो "यद् ब्रह्म अमृतं अजं"  ऐसा अन्वय कीजिये। उस ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। 
    और नमस्कार शब्द का अर्थ निकलता है , 'एकत्व' का स्मरण करना। उपनिषदों के अनुसार तो जीव और ब्रह्म तो एक ही है न ? 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्य तो यही  बताते हैं कि ब्रह्म में और जीव में कोई भेद नहीं है। दोनों एक है। तो दोनों एक होते हुए , फिर भेद क्यों दीख रहा है ? ब्रह्म में और हम में भेद का निमित्त क्या है ? [आखिर ब्रह्म (ठाकुरदेव) में और हममें भेद का निमित्त क्या है ?] 
       यहाँ यह कहा जा रहा है कि, ब्रह्म और जीव के एक होते हुए भी दो दीखने का मुख्य कारण है -  'अहंकार' !  अहंकार शब्द का अर्थ होता है अनात्मा  शरीर आदि में (तीनो शरीर)  में आत्मअभिमान -ये अहंकार है ! और जब तक जीव में अहंकार रहेगा, अहं -अभिमान रहेगा , तभी तक जीव ब्रह्म से भिन्न है। नहीं तो ब्रह्म में और जीव में कोई अन्तर नहीं है। जीव और ब्रह्म का मूल अंतर यही है - ब्रह्म का किसी भी अनात्मा पदार्थ में आत्मा-अभिमान नहीं होता है।  याने ब्रह्म अहंकाररहित है ! अर्थात ब्रह्म निर-अहंकार है।  और जीव में अहंकार है
       किन्तु जीव में यह अहंकार  स्वतः ही नहीं है , 'अविद्या' (माया) के कारण है। लेकिन अनात्मा शरीर आदि को जीव 'मैं' क्यों मान रहा है ? क्योंकि अविद्या के कारण अहं -अध्यास (देहाध्यास) हुआ है! अनात्मा शरीर आदि को 'मैं ' समझना ये अहंकार है  और जीव भला अनात्म-शरीर आदि में आत्म -अहंकार क्यों कर रहा है ? अपने वास्तविक स्वरुप के अज्ञान के कारण, या अपने वास्तविक स्वरुप को भूल जाने के कारण।अपने वास्तविक स्वरुप के अज्ञान को कहा जाता है -मूल अविद्या ! 
       और ये अज्ञान कब से है ? कब से जीव अपने वास्तविक स्वरुप को नहीं जान रहा है ? ब्रह्म का अज्ञान कब से है? अनादि है वो ! यह कोई नहीं कह सकता कि इतने अरब वर्ष पहले हम अपने ब्रह्मस्वरूप को जानते थे ; और इतने अरब वर्ष पश्चात से नहीं जानते है ! अभी नहीं जान रहे हैं , पर पहले जानते थे-ऐसा तो नहीं है। ये अज्ञान अनादि है।
          अज्ञान (Ignorance) का ही दूसरा नाम प्रकृति (Nature) है। इसलिये भगवान ने  गीता (13.20) में दो वस्तुओं को अनादि कहा है! किसको -किसको अनादि कहा? - प्रकृति को और पुरुष को! 

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।। 
[प्रकृतिं पुरुषं च एव विद्धि अनादी उभौ अपि।  विकारान् च गुणान् च एव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ १९ ॥] प्रकृति कहते हैं अज्ञान को और पुरुष कहते हैं आत्मा को ! तो पुरुष याने आत्मा और प्रकृति याने अज्ञान। आत्मा का अर्थ है पूर्ण ब्रह्म ! ये दोनों अनादि हैं। 
       और जीव तो आगन्तुक है। जीव तो बीच में आया है, प्रारम्भ में तो पुरुष याने ब्रह्म , आत्मा या पूर्णब्रह्म हैं। और ब्रह्म और प्रकृति अनादि हैं ! प्रकृति का अर्थ है - माया , अविद्या , अज्ञान।  इसीलिए भगवान कहते हैं - प्रकृति और पुरुष इन दोनों को ही तुम अनादि जानो। अनादि का अर्थ है , जो उत्पन्न नहीं होता है, पहले से ही है ! और तुम यह भी जानो कि सभी विकार और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं। जैसे ही इस प्रकृति के कारण संसार बन जाता है , शरीर आदि जब बन जाता है , तब जीव उसमें आत्माभिमान कर लेता है। 
          ब्रह्म ने ही प्रकृति के द्वारा रचित याने अज्ञान के द्वारा रचित- 84 लाख प्रकार के कार्य-करण संघातों में, याने शरीरों में जब आत्माभिमान कर लिया;  तो अहंकार के कारण वह हो गया जीव ! अज्ञान के कारण अहंकार के कारण। यह अहंकार ही जीव को ब्रह्मरूप होते हुए भी ब्रह्म के रूप में अभिव्यक्त नहीं होने देता। यदि यह अहंकार छूट जाये , अनात्मा शरीर आदि से यदि अहंकार हट जाये , तो फिर जीव ही ब्रह्मरूप है यह बोध हो जाता है। जीव भी ब्रह्मरूप ही है न ! 
      जब अपने यहाँ नमस्कार करने की पद्धति होती थी, उसमें  जिसको नमस्कार किया जाता है, उसको कहा जाता है - नमस्कार्य **। तो नमस्कार का अर्थ होता है - अर्थात जिसको हम नमस्कार कर रहे हैं , वे हुए "नमस्कार्य" ! किसको नमस्कार करते हैं? हमलोग सबको तो नमस्कार नहीं करते हैं। जो मिले, उसी को तो हमलोग नमस्कार नहीं करते हैं। अपने से छोटे या निकृष्ट व्यक्ति को तो नमस्कार नहीं करते हैं। जो अपने से उत्कृष्ट हैं , उनको नमस्कार करते हैं। 
[ ** नमस्कार्य कौन है ?:  अनेक प्रकार के जीवों का निर्माण कर लेने के बाद जब ब्रह्म ने 'मनुष्य' का निर्माण कर लिया , तो उनको बहुत ख़ुशी - 'ब्रह्मवलोकधिषणं पुरुषं बिधाय मुदमाप देवा 'मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! उन्होंने सभी देवदूतों को बुलवाकर कहा - तुम लोग इसको नमस्कार करो , इसके सामने सिर को झुकाओ, इब्लीस को छोड़ सबने वैसा किया -अल्ला ने कहा दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया ! इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सब प्राणियों की अपेक्षा, यहाँ तक देवताओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है। क्योंकि जाति-धर्म का भेद-भाव किये बिना प्रत्येक मनुष्य में, मनुष्यमात्र में ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने की सम्भावना निहित है।  ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ” (ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है।)  ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ” एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? (मुण्डकोपनिषद्)   ]  
           अपने से उत्कृष्ट व्यक्ति को जब नमस्कार करते हैं, तो अपना सिर उनके चरणों में रखते हैं। जब साष्टांग नमस्कार करते हैं तो पूरा उनके चरणों में लेट जाते हैं। सिर का चरणों से स्पर्श होता है , और बाकी शरीर से लेट जाते हैं। ये शरीर तो उपाधि है न ?  उसको नमस्कार्य महापुरुष के चरणों में लेटा दिया। इसका मतलब है की अपने अहंकार को उनके चरणों में रख दिया , समर्पित कर दिया। उपाधि को तो गिरा दिया। अब जो अहं बचेगा ,उपाधि को छोड़कर के,  वो क्या रहेगा ? - अहंकार को गिरा देने के बाद जो रहेगा , वो ब्रह्म होता है। 
         इसलिए नमस्कार का अर्थ होता है अहंकार का समर्पण। अहं जब तक उपाधि को पकड़ करके रखता है , तब तक अंहकार है। और फिर जब 'उपाधि' मात्र छूट जाती है ; अर्थात तीनों शरीरों को जब नमस्कार्य महापुरुष के (गुरुदेव) के चरणों में लेटा दिए। तो जब अहंवृत्ति ने अपने आलंबन के रूप में - स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर-  तीनों शरीर छोड़ दिए।  [केवल स्थूल शरीर को ही लेटा दिये या - विश्व, तैजस और प्राज्ञ को भी लेटा दिये ?] तब वो अहं वृत्ति कहाँ समर्पित होगी ? नमस्कार्य महापुरुष में । अहंवृत्ति नमस्कार्य महापुरुष में समर्पित हुई का अर्थ है, उसने नमस्कार्य को आलंबन बनाया (अहंवृत्ति ने गुरुदेव या आचार्यदेव, नेता, C-IN-C, को आलंबन बनाया)। तो यहाँ  'तत नतोस्मि ' - में तत शब्द से लेना होगा तदर्थ ब्रह्म। 
      और कौन सा ब्रह्म ? निरुपाधिक ब्रह्म ! जो उपाधि थी उसको तो  लेटा दिया। जब साष्टांग प्रणाम किया का अर्थ है लेटा दिया ,अर्थात अपने अहं वृत्ति के आलंबन के रूप में छोड़ दिया। अब जो अहं वृत्ति रही, उस अहं वृत्ति को ब्रह्माश्रित कर दिया , ब्रह्म को समर्पित कर दिया। अहं वृत्ति जब ब्रह्माश्रित हो जाएगी , ब्रह्म को आलंबन बनाएगी, तब ब्रह्म का 'मैं ' के रूप में अनुसन्धान होगा या नहीं होगा ?
      हमारी अहं वृत्ति जिसको अपना आलंबन बनाएगी , वही हमें अपने स्वरुप के रूप में भाषित होता है।  यदि हमारी अहं वृत्ति शरीर को 'मैं ' के रूप में आलंबन करेगी , तो शरीर 'मैं ' के रूप में भाषेगा।  यदि हमारी अहं वृत्ति मन को आलम्बन करेगी तो ,'मैं ' के रूप में फिर वो मन ही भाषेगा। और यदि हमारी अहं वृत्ति समस्त उपाधियों को छोड़कर केवल निरुपाधिक ब्रह्म को ही हमारी अहं वृत्ति अपना आलम्बन बनाएगी तो फिर 'मैं' के रूप में कौन भाषित होगा ? वो ब्रह्म (सच्चिदानन्द) ही 'मैं ' के रूप में भाषित होगा। तो वास्तविक नमस्कार का अर्थ है अपनी अहं वृत्ति को अनात्मा मात्र में से निकाल करके (तीनों शरीरों में से निकाल कर के) ब्रह्म में समर्पण। तो नमस्कार है, ये वास्तविक नमस्कार है , ये ज्ञान रूप ही है। 
         तो अवतरण में टीका में ये कहा गया था न - परदेवतातत्व अनुस्मरण पूर्वकं तत नमस्कार रूपं मंगलाचरणं शिष्टाचारप्रमाणकं समाचरण ! अवतरण टीका जिस ग्रन्थ का अवतरण लिख रहे हैं , उसका पूरा सार बता देती है। तात्पर्य बताती है। यहाँ ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि/ तन नतोस्मि का अर्थ है नमस्कार करता हूँ ! और नमस्कार करने का अर्थ है - अपनी अहं वृत्ति के आलंबन के रूप में (तीनों शरीरों की) जो जो उपाधियाँ है , उन सभी उपाधियों को अहं वृत्ति के आलंबन के रूप में छोड़ देना।
        अहं वृत्ति को वहां से हटा दो , उन उपाधियों को छोड़ दो , अहं वृत्ति के रूप में उसको लेटा दो। शरीर खड़ा तभी होता है ,जब उस शरीर को 'मैं ' के रूप में पकड़ते हैं। वैसे ही लेटाये रखें ,जैसे मूर्दे में जो अहं छोड़कर चला गया न मृत हो गया। जैसे उस मूर्दे में अहं वृत्ति नहीं होती है , इसलिए वह अपने आप कभी उठ ही नहीं सकता, लेटा ही रहेगा ! मूर्दा शरीर जहाँ गिर गया वहीं पड़ा रहता हैं। उसको दूसरे को उठाना पड़ता है। 
      वैसे ही इस शरीर को - यदि 'मुर्दावत' करें , इसमें से अहं वृत्ति हटा दें; और अहंवृत्ति को ब्रह्म में स्थापित कर दें। (और ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं , माँ सारदा देवी के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में स्थापित करें। ) तब हमें ब्रह्म के तत्व का स्मरण होगा [existence-consciousness bliss का स्मरण होगा।] इसीको ब्रह्मतत्त्व -अनुस्मरण कहा जाता है। यही नमस्कार है। ब्रह्म का 'मैं' के रूप में स्मरण -ब्रह्म का मैं के रूप में अनुसन्धान - यही नमस्कार कहलाता है । और ये नमस्कार मैं कर रहा हूँ - अर्थात ब्रह के तत्व का 'मैं के रूप में' स्मरण कर रहा हूँ। ये नमस्कार हो जायेगा। 
         ऐसा करने से, अनुबन्ध चतुष्टय में 'अभिधेय' आदि अनुबन्ध है (भिधेयाद्यनुबन्धमपि सूचयति) कहा था न ,तो अभिधेय शब्द का अर्थ हुआ विषय, ब्रह्मात्म-एकत्व रूप जो विषय है, वही इस वेदान्त ग्रंथ का विषय है। तो वेदान्त का विषय क्या है ? वेदान्त का अभिधेय है - यही ब्रह्म और आत्मा के एकत्व की अनुभूति। तन नतोस्मि ( यत्तन्नतोऽस्मि) से ब्रह्मात्मैकत्व का विषय भी बताया गया।  और उसका मैं के रूप में स्मरण रूप मंगलाचरण भी हो रहा है। और साथ में, अर्थात ब्रह्मात्म-एकत्व रूप विषय भी सूचित हो रहा है। इसलिए ये कहा कि- तद ब्रह्म नतोस्मि।  
     अब वो ब्रह्म कैसा है ? जिस ब्रह्म को अपनी अहं वृत्ति समर्पित की जा रही है , अर्थात जिसको अहंवृत्ति का आलंबन बनाया जा रहा है , वो ब्रह्म कैसा है ? तो उसकी विशेषतायें बताने के लिए कहा गया कि - अमृतं अजं ! वो अमृत है अज है। उपनिषदों में उस ब्रह्म को अमृत और अज कहा गया है। अज कहते हैं - न जायते इति अजः ! जिसका जन्म नहीं होता, ब्रह्म का स्वरूपतः जन्म नहीं होता।  गीता और कठोपनिषद में कहा गया - न जायते म्रियते वा कदाचित् ( न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे।) उसका जन्म भी नहीं होता ,और  उसकी मृत्यु भी नहीं होती। ब्रह्म स्वभावतः जन्मादि षड्विकारों से रहित है , निर्विकार है। अमृतं, अजम शब्द से ये ये बताया गया कि जन्म-मरण रूप संसार धर्म से रहित है। 
          जन्म-मरण को ही संसार कहा गया है। संसार का अर्थ जन्म-मरण है। और जन्म-मरण रूप संसार का स्वाभाव ब्रह्म में स्वरूपतः ही नहीं है।  तो पुरुष अर्थात ब्रह्म न कभी जन्म लेता है , न कभी नष्ट होता है। वो अनादि -अनन्त है। लेकिन प्रकृति , अनादि तो है लेकिन सान्त है। सान्त कहते हैं , जिसका अन्त होता है , विनाश होता है ! विनाश किसका होता है ? अज्ञान का ! जैसे ही अज्ञान का विनाश होगा वैसे ही 'अहं ब्रह्मास्मि' का बोध होगा! आपकी अहंवृत्ति उपाधिमात्र को छोड़ेगी और ब्रह्म को ही मैं रूप में ग्रहण करेगी। इस अवस्था को आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है। 
       इस विवेकज-ज्ञान से अपनी ब्रह्मस्वरूपता का अज्ञान जो अनादिकाल से है , अपनी ही ब्रह्मरूपता का अज्ञान , वो समाप्त हो जाता है। उसका नाश हो जाता है। अज्ञान के नाश होने को कहा जाता है -ज्ञान। उस ज्ञान से अज्ञान समाप्त हुआ, अर्थात प्रकृति का अन्त हो गया , इसलिए प्रकृति सान्त हुई न ? तो प्रकृति अनादि है लेकिन सान्त है। और ब्रह्म अनादि है, लेकिन अनन्त है। 
    और जो अनन्त होता है उसे अमृत कहते हैं , जो अनादि होता है उसे अज कहते हैं। अज का अर्थ है अनादि। तो ब्रह्म और प्रकृति दोनों अनादि है , लेकिन प्रकृति अमृत नहीं है।  अमृत कहते है जिसका मरण नहीं होता, मृत्यु नहीं होती , नाश नहीं होता, वो अमृत अविनाशी है । तो  परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि अमृतं अजं यद् ब्रह्म तत नतोस्मि' में नमस्कार करने का अर्थ ये निकलेगा कि जो ब्रह्म अनादि और अनन्त हैं,उस अनादि अनन्त ब्रह्म का मैं आत्मरूप से अनुसन्धान करता हूँ !  

     माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका का जो  भाष्य लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है , उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो और  भविष्य के भारत में  शास्त्रों का, अर्थात  गीता,  उपनिषद और ब्रह्मसूत्र आदि वेदान्त ग्रंथों का  अध्यन -अध्यापन करने की अभिरुचि  पर्याप्त मात्रा हो।  इस उद्देश्य से भाष्यकार भगवान शंकर ने दो श्लोकों के माध्यम से जो मंगलाचरण किया है, उस पर आनन्दगिरि जी ने टीका लिखी है। 
इसके पूर्व निबंध में हमलोग मंगलाचरण के निम्नोक्त प्रथम श्लोक पर विचार कर रहे थे। इस श्लोक में भगवान भाष्यकार ने मंगलाचरण करने के साथ साथ इस वेदान्त ग्रन्थ के अनुबन्ध -चतुष्टय को भी सूचित किया है   
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
 मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ 
         तो  प्रथम श्लोक के अन्तर्गत चतुर्थ पाद में जो अंतिम वाक्य है - 'यत ब्रह्म तन्न नतोस्मि' , इस वाक्य का अर्थ हुआ कि जो ब्रह्म हैं , उसको हम नमस्कार करते हैं। संस्कृत में 'यत' शब्द प्रसिद्द अर्थ का परामर्शक हुआ करता है। संस्कृत में यत शब्द बताता है प्रसिद्द अर्थ को। तो कहा गया कि 'ब्रह्म ' प्रसिद्द है! वह ब्रह्म जिसको हम नमस्कार कर रहे हैं , वह कहाँ पर प्रसिद्द है ? उस शब्द का उल्लेख बार बार किन ग्रंथों में हुआ है ? 
     उपनिषदों में ! अर्थात वेदों का जो अंतिम भाग - ज्ञानकाण्ड रूप उपनिषद हैं , उनमें प्रसिद्द जो ब्रह्म हैं, 'यत ब्रह्म' से उन्हीं को निर्दिष्ट किया जा रहा है। तो उपनिषद प्रसिद्द जो ब्रह्म हैं , उन्हें हम नमस्कार करते हैं। और नमस्कार करने का अर्थ होता है , ब्रह्म का अभेदरूप से स्मरण ! सांसारिक जीव अविद्यावशात ( माया के वशीभूत होकर) अहंकार रूप अविद्या से ग्रस्त होने के कारण - जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक स्वरुप का अर्थात ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। 
       अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। जीव के अहंकार ग्रस्त रहते हुए भी , उसमें  चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इस अहंकार-ग्रस्त अवस्था में  उसे जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। यह भ्रम (सम्मोहन -hypnotized अवस्था) उसे अविद्या के कारण होता है, और वह एक ही सत्य को अनेक नाम-रूपों में देखता है,  एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि कहकर उन्हें ही सत्य समझकर, उनके साथ व्यवहार करता है। 
     अविद्यावशात जब तक मनुष्य की  'अहं इत्याकारिका वृत्ति  ' [ 'Aham Vritti ' or  'I' thought) 'अहम् अस्मि ' विचित्रा: विभिन्ना: इति इत्याकारिका: वृत्ति ] अनात्मा उपाधि स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर में से किसी को भी अपना आलंबन बनाकर के रहती है, तब तक उस  अहंवृत्ति में वृत्तिस्थ चिदाभास रूप जीव ब्रह्म से अलग सा प्रतीत होता है। यद्यपि  वह उस समय भी ब्रह्म से अलग नहीं है , किन्तु अलग सा प्रतीत होता है। 
और जब वह अपनी अहंवृत्ति के आलंबन के रूप से उपाधि मात्र को छोड़ देता है। स्थूल शरीर को भी , सूक्ष्म शरीर को भी , कारण शरीर को भी। लेकिन अहम् वृत्ति बिना आलंबन के रहती नहीं है। निरालम्बा अहम् वृत्ति नहीं होती, उसे कोई न कोई आश्रय चाहिए। उसका कोई न कोई विषय होना चाहिये। जब उपाधि मात्र को आलंबन नहीं बनने देंगे , जब अनात्मा मात्र से अहम् वृत्ति को निकाल लेंगे , तो बचेगा एक ही आत्मा। यानि ब्रह्म। तब अहम् वृत्ति उस ब्रह्म को ही आलंबन बनाएगी। तब 'अहं ब्रह्मास्मि ' - ये उस वृत्ति का स्वरुप रहेगा। लेकिन जब तक हमारी अहम् वृत्ति शरीर आदि को आलंबन बनाती रहेगी तब तक यह अनुभव होगा कि -'अहं मनुष्यो अस्मि' मैं मनुष्य हूँ।
      क्योंकि हमारे "अहम् -वृत्ति" का आलंबन जो भी  उपाधि बनेगी , या तादात्म्य की उपाधि जो भी वृत्ति बनेगी (नाम-रूप-पद आदि), आत्मा उसी 'अहं-अर्थ' वाला प्रतीत होता है। और जब हमारी अहं-वृत्ति अनात्मा मात्र को आलंबन बनाना बंद कर देती है , और ब्रम्ह मात्र को अपना आलंबन बनाती है।  तब यह माना जाता है - उस वृत्ति का स्वरुप होगा - 'अहं ब्रम्हास्मि ' ऐसा ! और वह वृत्ति बताएगी कि हम ब्रह्म-रूप हैं। ब्रह्म का और हमारा अभेद है - तब उस अहम् वृत्ति को अभेद-विषयनि वृत्ति कहा जाता है। 
 एक प्रकार से इसी अभेद- विषयनि वृत्ति का नाम है -नमस्कार। इसलिए जब वैदिक रीति से अपने आचार्य को नमस्कार करते हैं , तो नमस्कर्ता अपने नमस्कार्य के चरणों में अपने उपाधिमात्र का उपलक्षक जो यह सिर है ; उसे रख देता है। नेता/गुरु के चरणों में रख दिया अर्थात उसे छोड़ दिया , समर्पित कर दिया। फिर उसकी अहं वृत्ति कहाँ जाएगी ?  वो वृत्ति रहेगी ब्रह्म में। तो यह हुआ नमस्कार। 
  जो उपनिषद प्रसिद्द ब्रह्म हैं , उन्हें मैं नमस्कार कर रहा हूँ , इसका अर्थ हुआ उन्हें में आत्मरूप से अनुसन्धान कर रहा हूँ (स्मरण कर रहा हूँ)। 'मैं ' के रूप में ब्रह्म या आत्मा को ग्रहण कर रहा हूँ। ये हुआ नमस्कार का अर्थ।   और जिस ब्रह्म को नमस्कार किया जा रहा है ,उस ब्रह्म का उपनिषद प्रसिद्द विशेषण है - अमृतं,अजं ! कठोपनिषद का मंत्र है - 
" न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्‌। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ 
यह बताता है कि ब्रह्म अज है -न जायते। जिसकी उत्पत्ति नहीं होती , जन्म नहीं होता उसे अज कहा जाता है। तो ब्रह्म अज हैं , अनादि हैं। अज्ञान (अविद्या, माया) की भी उत्पात्ति नहीं होती , इसलिए अज्ञान भी अज है। किन्तु अज्ञान अमृत नहीं है। और ब्रह्म अमृत हैं। नष्ट होने वाले को 'मृत ' कहा जाता है, जिसका नाश हो जायेगा, जो नश्वर है उसे मृत कहा जाता है। अमृत का अर्थ हो जायेगा जिसका विनाश नहीं होता जो अविनाशी है। अज्ञान का तो ज्ञान से नाश हो जाता है, निवृत्ति होती है। और ब्रह्म का नाश किसी से भी नहीं होता है। इसलिए ब्रह्म हैं अमृत। 
तो जो अनादि हो और अनन्त हो - ऐसी वस्तु एकमात्र ब्रह्म ही हैं ! क्योंकि अज्ञान भी अनादि तो है , किन्तु अनन्त नहीं है। इसलिए अनादि अनन्त जो उपनिषद प्रसिद्द ब्रह्म हैं - वह ब्रह्म मैं हूँ - I am He! उसे  हम नमस्कार करते हैं ! याने 'अमृतं अजं ब्रह्म यत तन्न नतो अस्मि'  - का ये अर्थ निकलेगा कि हम उस ब्रह्म को अपने "रूपान्तरित मैं " रूप में ग्रहण करते हैं , जो अज और अविनाशी हैं।
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 मुक्ति के दो प्रकार -'निर्वाणप्रदामुक्ति और हरिभक्तिप्रदा मुक्ति! 
'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका' का जो  भाष्य लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है , उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो और  भारत के युवाओं में  गीता,  उपनिषद और ब्रह्मसूत्र आदि वेदान्त ग्रंथों का  अध्यन -अध्यापन करने की अभिरुचि  पर्याप्त मात्रा में हो। 
और यह तभी संभव होगा जब 'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित,  गीता,  उपनिषद और ब्रह्मसूत्र आदि वेदान्त ग्रंथों का  अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता रखने वाले भावी अध्यापकों  (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) का बहुत बहुत बड़ी संख्या में निर्माण होगा। ताकि इनके प्रयास से  भारत के गाँव-गाँव में पुनः  इस " मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा"  का  प्रचार-प्रसार हो सके। 
     और वे निरुपाधिक ब्रह्म ही  बाकी जो 'भोक्ता, भोग्य और भोजयिता' की त्रिपुटी है, वह भी हुए हैं । भोग कराने वाली (भोजन खिलाने वाली) शक्ति को भोजयिता कहा जाता है। जो हमको सुखी -दुःखी बना देता है , वो भोजयिता है। और जो सुखी -दुःखी होता रहता है वो भोक्ता कहलाता है। और जिसे देख करके, या अनुभव करके सुख-दुःख का अनुभव किया जाता है -वो है भोग्य। 
        तो भोग्य है जगत , कयोंकि जगत को ही देख करके -प्रमाता , याने जगत को देखने वाला जो जीव है , वो सुखी- दुःखी होता रहता है।
 [ प्रमाता :  १. आत्मा या चेतन पुरुष जिसे या जिससे ज्ञान होता है। २.वह जो विषय से भिन्न और द्रष्टा या साक्षी हो। ३. न्यायाधीश। ४.प्रमाणों को मानने अर्थात् उनके आधार पर न्याय करनेवाला अधिकारी। "हे महाबाहो ! प्रकृति के दो विभाग होते हैं- गुण विभाग और कर्म विभाग। और इन विभागों को तत्व से जानने वाला, स्वयं को कर्ता नहीं मानता। गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, यह जानता है। वह प्रमाता है ॥गीता 3-28॥ ] 
       अपने अज्ञान के कारण जीव जगत में दो विभाग करता है। ऐसा मान लेता है कि जगत अन्तःपाती कुछ पदार्थ उसके अनुकूल हैं, तब उनके प्रति राग करता है , उन्हें प्रिय समझता है। और कुछ को प्रतिकूल समझता है , उनके प्रति द्वेष करता है। वो उसको अप्रिय लगते हैं।  तो प्रिय पदार्थों के दर्शन से , प्राप्ति से , उपलब्धि से ,भोग से माना जाता है कि वो सुखी होता है। सुख का अनुभव करता है। और प्रतिकूल पदार्थों को देख कर , या संयोग होने पर दुःखी हो जाता है।  वो भी भोग है। सुख-दुःख का अनुभव ही भोग कहलाता है। और ये अनुभव जिसको हो रहे हैं , उसको कहा जाता है, भोक्ता। सुख-दुःख अनुभव करने वाला। 
       और अनुकूल -प्रतिकूल पदार्थों की जो उपलब्धि कराता है - वह है भोजयिता। भोजयिता वह प्रेरक शक्ति है जो अनुकूल -प्रतिकूल वस्तुओं के साथ भोक्ता का संयोग करा दे। जो संयोग में निमित्त बने उसे कहा जायेगा -भोजयिता। वो हैं परमेश्वर ! जीवों के प्रारब्ध-गत पुण्य कर्मों का फल उपभोग कराने के लिए जीवों को अनुकूल पदार्थों की उपलब्धि कराता है। उपभोग कराता है। और प्रारब्धगत पाप कर्मों का फल उपभोग कराने के लिए प्रतिकूल पदार्थों का संयोग कराता है वो कौन है ? परमेश्वर ! माँ भवतारिणी !इसलिए उनको कहा जाता है भोजयिता। जगत अंतःपाती याने जगत के मध्यवर्ती अनुकूल- प्रतिकूल पदार्थों का संयोग-वियोग कराने वाला। 
        और अनुकूल पदार्थ के संयोग से सुख होता है, और प्रतिकूल पदार्थ के संयोग से दुःख होता है। अनुकूल पदार्थ के वियोग से दुःख होता है , प्रतिकूल पदार्थ के वियोग से सुख होता है। ईश्वर (माँ जगदम्बा) ही जीवों के कर्म के अनुसार अनुकूल -प्रतिकूल पदार्थों का संयोग-वियोग कराता है। जब ईश्वर पुण्यकर्मों का फल देना चाहेंगे तब अनुकूल पदार्थों से संयोग करवा देंगे। जब पाप फलोन्मुख होगा तब प्रतिकूल पदार्थों का संयोग कराएगा, या अनुकूल पदार्थों का वियोग करायेगा। इसलिए ईश्वर को कहा जाता है भोजयिता। [भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥ -  'भोक्ता, भोग्य तथा आनन्द की प्रेरक शक्ति'  ब्रह्म के ये तीन पक्ष हैं। (श्वेताश्वतर उपनिषद् १.१२.)] 
     तो भोजीयिता हुए ईश्वर , भोक्ता है जीव और भोग्य है जगत। ये त्रिपुटी तीनों के तीनों भी पारमार्थिक नहीं हैं। ये तीनो के तीनो भी, वो जो अनादि अनन्त ब्रह्म है उनमें अध्यस्त हैं। रस्सी के अज्ञान से जैसे रस्सी में कल्पित सर्प की तरह कल्पित हैं। जगत भी , जीव भी और भोजयिता रूप ईश्वर भी ब्रह्म में ही कल्पित हैं!  (देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०९/अध्यायः २८/सावित्र्युपाख्याने-यमसावित्रीसंवादवर्णनम्) यम -सावित्री संवाद  में कहा गया है -
भोक्ता भोजयिता को वा को वा भोगश्च निष्कृतिः । 
को जीवः परमात्मा कस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥
 कर्म करने वाला जीव देही है। वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दु:ख के साक्षात् स्वरूप वैभवका ही दूसरा नाम भोग है। मुक्ति को ही निष्कृति कहते हैं। श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बतायी गयी है, जो सर्वसम्मत है। एक को 'निर्वाणप्रदा' मुक्ति कहते हैं और दूसरी को 'हरिभक्तिप्रदा' मुक्ति कहते हैं।  मनुष्य इन दोनों प्रकार की मुक्ति के अधिकारी हैं। वैष्णव पुरुष " हरिभक्तिप्रदा मुक्ति"  चाहते हैं।      
  और अपनी मुक्ति चाहने वाले अन्य साधु-जन जो निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं, उन्हें निर्वाण प्राप्त होता है। कर्म का जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करने वाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप है। वे भगवान् प्रकृति से परे हैं। कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतु रूप हैं। जीव कर्म का फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है। "नाहं भोक्ता भोजयिता न च भोज्यम्" -- यह विषय ज्ञानियों के लिये परम ज्ञानमय है। अब तुम सुखपूर्वक लौट जाओ। 
साभार bhartdiscovery.org }    
      और इन तीनों को ही ब्रह्म में अध्यस्त या कल्पित माना जाता है। इसलिए ईश्वर में भी माया शक्ति रहने से ही फल-दातृत्व आता है। ईश्वर स्वतः किसी को भी न सुख देता है न दुःख देता है। न किसी को अनुकूल पदार्थ का संयोग कराता है , न प्रतिकूल पदार्थ का संयोग कराता है। वो मायोपाधिक चैतन्य जिसे कर्मफल दाता कहा जाता है, वो है भोजयिता। 
   और फिर प्रत्येक दिन के जाग्रत का प्रारब्ध भी निश्चित है, जिसे भोग करके क्षय करना पड़ता है।  प्रत्येक जीव का ,  हरेक दिन का जो प्रारब्ध है , वह अपना-अपना  अलग-अलग है।  जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध जब तक भोग करना शेष रहेगा , तब तक वो नींद में नहीं जायेगा। वो ('विश्व' नामक जीव) सो नहीं सकता। जब तक उस दिन के सुख-दुःख का भोग का पूरा नहीं होगा , जब तक उस दिन का प्रारब्ध क्षय नहीं होता , तब तक उसको नींद नहीं आएगी। और जैसे ही उस दिन के जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध फल भुगवा कर के समाप्त हो जाता है , तो फिर नींद आ जाती है, सो जाता है।       
       जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध फल भोग समाप्त हुआ और नींद आ गयी। लेकिन सो जाने के बाद भी , अगर स्वप्न अवस्था में फल उपभोग कराने वाला उस दिन के स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध, फल उपभोग कराने के लिए फलोन्मुख हो जाये। तो फिर वह सो नहीं सकता। स्वप्नावस्था फल उपभोग कराने वाला प्रारब्ध, मन को (अहम् वृत्ति को) जो अज्ञान अवस्था में लीन था ; सुषुप्ति में लय हो चुका था , उस अहम् वृत्ति (मन) को जो सुषुप्ति अवस्था में लीन था, उसको फिर से अभिव्यक्त कर देगा। 
        और मन में उस दिन का स्वप्नावस्था का प्रारब्ध - यदि पुण्यात्मक है, केवल देवादि शरीरों से ही भोगने योग्य है। तो वही प्रारब्ध क्या करेगा ? अपना फल उपभोग जिन-जिन पदार्थों से सम्भव हो सकता है, उन- उन पदार्थ विषयक जो अन्तःकरण गत वासना है या चित्त पर पड़े हुए कर्म -संस्कार है , वह अन्तःकरण की उन-उन संस्कारों को उद्बुद्ध करेगा, उन्हें प्रगट करेगा । और वह प्रारब्ध जैसे प्रगट होगा, तो ये उद्भुत वासनायें भी प्रगट हो जाएँगी, और स्वप्न में वे वासनाएं ही सारे जगत के रूप में दिखेंगी। वे वासनाएं ही स्वप्न-जगत के रूप में दिखेंगी।  [ क्योंकि स्वप्न का जगत व्यावहारिक सत्ता वाला नहीं होता  , उस समय वासनाएं ही अपने विषय के रूप में भाषित होती हैं।] 
      जैसे जाग्रत अवस्था में जो जगत होता है , भोक्ता से भिन्न व्यावहारिक सत्ता वाला जगत स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। स्वप्न का जगत वैसा नहीं होता। अपितु  स्वप्न अवस्था में  प्रारब्ध अपना फल भोगने योग्य फल का उपभोग जिन वासनात्मक विषयों के माध्यम से होना है, वह उन उन वासनाओं को उद्बुद्ध कर देता है।  और वासनाएं ही अपने विषय के रूप में भाषित होती हैं। और वहां वासनामय पदार्थ भी निर्मित हो जाते हैं , और भोग्य पदार्थों वाला स्वप्न -जगत निर्मित हो जाता है। तब उस स्वप्न अवस्था में उनका अनुभव करने के लिए,  उस समय शरीर भी और इन्द्रियाँ भी, वासनामय ही अभिव्यक्त होती हैं , प्रगट होती हैं। और  उस समय वासना से प्रगट हुआ जो कार्य-करण संघात है , उन शरीरों में जो वासनात्मक इन्द्रियाँ और शरीर है, जीव  उनमें ही आत्माभिमान कर लेता है । 
    जब तक स्वप्नावस्था का फल-उपभोग होना है ,तब तक भोक्ता के अहम् - वृत्ति का आलंबन वह वासनामय रूप शरीर ही रहता है। स्वप्नावस्था में उस वासनामय शरीर को धारण करने वाले जीव को 'तैजस' कहा जाता है। स्वप्नावस्था में 'तैजस' जीव उस शरीर को धारण करके रहता है। और स्वप्न के वासनामय अनुकूल- प्रतिकूल पदार्थों का अनुभव कर लेता है। उनसे सुखी - दुखी होता है। एक प्रकार से वो स्वप्न अवस्था में भी भोग हो रहा है। 
    और स्वप्न अवस्था में जो सुख-दुःख हो रहा है , वो सब  वासनात्मक विषयों से ही हो रहा है। अन्तःकरण की जो वासनात्मक वृत्ति है , उस वृत्ति से अलग वहां कोई अन्य विषय नहीं है। अन्तःकरण की वासनात्मक अहम् वृत्ति ही विषयों के रूप में दीख रही है। और जब स्वप्न का प्रारब्ध भी समाप्त हो जाता है , (भोग करके क्षय हो जाता है) तब उस समय , फिर उस दिन के जाग्रत का प्रारब्ध भी फलोन्मुख नहीं हुआ। स्वप्न का प्रारब्ध भी भोग करके जब समाप्त हो गया , तो वह सुषुप्ति में चला जायेगा। गहरी नींद में चला जायेगा। गहरी नींद की अवस्था में लीन जीव को 'प्राज्ञ' कहा जाता है। 
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"जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में एक ही जीव के तीन अलग अलग नाम " 
   भगवान भाष्यकार की इच्छा है कि 'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका' के व्याख्यान रूप भाष्य का, जो लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है , उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो और  भारत के युवाओं में  गीता, उपनिषद आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की अभिरुचि भी पर्याप्त मात्रा में हो। 
      और यह तभी संभव होगा जब 'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित,  गीता,  उपनिषद और ब्रह्मसूत्र आदि वेदान्त ग्रंथों का  अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता रखने वाले भावी अध्यापकों  (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) का बहुत बहुत बड़ी संख्या में निर्माण होगा। ताकि इनके प्रयास से  भारत के गाँव-गाँव में पुनः  इस " मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा"  का  प्रचार-प्रसार हो सके। 

     इस उद्देश्य से भाष्यकार भगवान ने जिन दो श्लोकों के माध्यम से जो मंगलाचरण किया है, उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य को और मंगलाचरण के मूल उद्देश्य को 'मंदबुद्धि वाले ' भी आसानी से समझ सकें , इसके लिए ही आनन्दगिरि जी ने उस पर टीका लिखी है।
     इसी चर्चा पर आधारित पिछले निबंध में हमने देखा था कि जब उस दिन के स्वप्न का प्रारब्ध भी समाप्त हो जाता है , और उस समय जब उस दिन के जाग्रत का प्रारब्ध भी फलोन्मुख नहीं हुआ। और स्वप्न का प्रारब्ध भी भोग करके समाप्त हो गया , तो वह जीव सुषुप्ति में चला जायेगा। गहरी नींद में चला जायेगा। 
       और वहाँ गहरी नींद में अन्तःकरण में कोई विशेष वृत्ति भी नहीं रहेगी। उस समय जो एक सामान्य अहम् वृत्ति रहेगी , वो आलम्बन करेगी कारण शरीर को। तो , गहरी निद्रा में अहम् वृत्ति कारण शरीर को अपना विषय बनाकर रहेगी। सुषुप्ति के समय अज्ञान रूप (अविद्या ) जो कारण शरीर है , वह अहं वृत्ति का आलंबन बनता है। [तो अज्ञान (Ignorance-अनभिज्ञता, जहालत ,बेखबरी, जड़ता) ही हमलोगों का कारण -शरीर या 'Causal Body 'है। ] और सुषुप्ति के समय यही अज्ञान रूप  जो कारण शरीर है , वो अहं वृत्ति का आलंबन बनता है। गहरी निद्रा में कारण शरीर अहम् वृत्ति का आलम्बन बनेगा। और सुषुप्ति की अवस्था में उस अज्ञान उपाधिक आत्मा के साथ अन्तःकरणस्थ प्रतिबिम्ब का 'oneness' एकी-भाव (Uniqueness-अद्वितीयता का भाव) रहेगा
     लेकिन चुकी वह सुषुप्तावस्था अज्ञान की अवस्था है। इसलिए उस समय जाग्रत अवस्था के ये सब विषय, जाग्रत अवस्था में जिन इन्द्रियों के द्वारा इन विषयों का ग्रहण होता है , वे सभी  बाह्य इन्द्रियाँ; और स्वप्न अवस्था में जिन -जिन वासनाओं से अन्तःकरण युक्त हो गया था , वह अन्तःकरण सब के सब  अपने अपने व्यापारों से रहित हो जाते हैं।
       उस समय अहं वृत्ति का आलम्बन न तो स्थूल शरीर है , न सूक्ष्म शरीर है। उस समय कारण शरीर ही अहम् वृत्ति का एक मात्र आलम्बन रहता है। अर्थात - वहां अज्ञान ही अहम् वृत्ति का आलंबन है। इसलिए वो जो अज्ञान की अवस्था है, वो सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। वहां जीव कारण रूप से अवस्थित होता है। वो जीव के अहम् वृत्ति की कारण अवस्था है।  सुषुप्ति में , वहाँ कोई अनुकूल दर्शन (विवेक-दर्शन) या प्रतिकूल दर्शन (विषय-दर्शन) का निमित्तभूत प्रारब्ध न होने से जीव प्रारब्ध का फल उपभोग नहीं कर रहा होता है। 
      अपितु आनंदस्वरूप आत्मा का जो अनंदाभास है , सुखाभास है उसीका वो अनुभव करता है। इसलिये उसे (जीव के उस समय की अहम् वृत्ति को) कहा जाता है - मधुरभुक। मधुर कहते हैं , उस अनंदाभास को, जो सुषुप्ति के समय भासित होने वाला जो आनन्द है , वो अनंदाभास है। मधुर शब्द का अर्थ वो अनंदाभास ही है । और उस मधुर का जो अनुभव करता है ,अनंदाभास का जो अनुभव करता है , उसे कहा जायेगा - " मधुरभुङ्ग " -जो शब्द मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के निम्नोक्त तीसरे पाद में दिया गया है-
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
 मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥  
 और  'मधुरभुक' में  'भुक' कहते हैं भोक्ता को।  तो मधुरभुक है -प्राज्ञ। तैजस है स्वप्न अवस्था का भोक्ता जीव। और जाग्रत अवस्था के भोक्ता का नाम (जाग्रत अवस्था के अहम् वृत्ति का नाम) है विश्व। इस प्रकार ये तीन अवस्थायें हैं , और तीन अवस्थाओं में एक ही जीव को अलग-अलग तीन अलग -अलग नामों से व्यवहार होता है। 
    जाग्रत में उस जीव को जिसे विश्व कहा जाता है , और उसका स्थान माना जाता है -नेत्र इन्द्रिय में। नेत्र इन्द्रिय का जो गोलक है , जाग्रत अवस्था में वह विश्व वहां अवस्थित रहता है। स्वप्न अवस्था में, जो तैजस है, वह अवस्थित होता है -कण्ठ में। (इसीलिये जीव जब कोई दुःस्वप्न देखता है, तो स्वप्न में ही बड़बड़ाने लगता है।)  और सुषुप्ति अवस्था में प्राज्ञ नामक जीव का स्थान ह्रदय-देश में होता है। लेकिन वहां , सुषुप्ति अवस्था में अहम् वृत्ति  मात्र अज्ञान-आश्रित है । उस समय अहंवृत्ति का एकमात्र  आलम्बन अज्ञान ही होता है।
      इस प्रकार ये जो तीन अवस्थायें हैं, और इन तीन अवस्थाओं के कारण एक ही जीव के तीन अलग अलग नाम हो रहे हैं। इन तीन अवस्थाओं को लेकर के एक ही जीव के तीन अलग अलग नाम हो रहे हैं। तो ये तीन अवस्थायें और तीन अवस्था वाला जीव , और इन तीनो अवस्थाओं में जिसकी प्रेरणा से वो भोक्ता बनता है। वह ईश्वर। ये तीनों के तीनों - जो अमृत और अज ब्रह्म है , उसमें रस्सी में कल्पित सर्प की तरह कल्पित है। इसी रहस्य को उद्घाटित किया जा रहा है , मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के उपरोक्त तीन पादों में। 
       इसलिये वहां ब्रह्म को कहा जा रहा है - 'भोजयन', भोजयत और भोजयन। भोजयत - ये ब्रह्म का विशेषण है। यहाँ 'नः' शब्द से लिया जा रहा है - अस्मान्। 'नः' शब्द का अर्थ निकलता है -अस्मान्। ( मुझे, हमें, माम्, आवाम्, अस्मान्) --- अस्मान् याने हमलोगों को। हमलोगों को याने जीवों को , जो अपने आप को भोक्ता समझते हैं। उन भोक्तओं को "भोजयन", भोजयन का अर्थ है भोग कराता हुआ। नो भोजयन। नो भोजयत-ऐसा। भोजयन्न -में न, न संयुक्त है न। तो नः एक पद भोजयन निकलेगा और एक पद निकलेगा भोजयत। तो ब्रह्म भोजयत है। इसका अर्थ हुआ ब्रह्म भुगवाने वाला है। 
       इसीलिए 'भोजयत' - ये ब्रह्म का विशेषण हुआ।  और भोगनेवाला है जीव। भोगनेवाले जीव को नः शब्द से लिया गया। नः याने अस्मान्,  " भोक्तृण भोजयन् ब्रह्म वर्तते "। ब्रह्म हमलोगों को भुगवाता हुआ अपने आनन्द में स्थित है। क्या वह ब्रह्म , हम जीवों को केवल जाग्रत अवस्था में ही भोग करवाता है ? तो कहा , नहीं तीनों अवस्थाओं में भोग करवाता है। उसमें से जाग्रत अवस्था में और स्वप्न-अवस्था में कर्मफल का अनुभव करवाता है ; और सुषुप्ति में आनन्दाभास का भोग करवाता है। जो कि कर्म का फल नहीं है, बल्कि स्वरूपानन्द का आभास है। यह जीव उसका अनुभव करता है। स्वरूपानन्द का आभास अनुभव करता है। 
इसे बताया जा रहा है , प्रथम जाग्रत अवस्था तथा तद -अभिमानी (विश्व नामक जीव) को बताया जा रहा है। ..... नहीं , नहीं माया से ही करता है। कार्य-करण संघात अभिमानी चैतन्य को जीव कहा जाता है। कार्य-करण संघात में 'कार्य' का अर्थ हुआ स्थूल शरीर , तथा 'करण' याने सूक्ष्म शरीर।  अन्तःकरण = (अन्तः+करण= अन्तः=भीतरी, करण=साधन) अर्थात भीतरी साधन। और ये जो कार्य-करण हैं , ये हैं माया का ही परिणाम रूप (विवर्त-रूप ?) जो पाँचों भूत हैं , उनका परिणाम। बिना माया के तो जीव ही सिद्ध नहीं होगा। 
       माया (महत तत्त्व ? आकाश और प्राण) के परिणाम हैं सूक्ष्म पंचभूत (तन्मात्रा?) और उनका परिणाम है -स्थूल पंचभूत। सूक्ष्म भूतों से बना है सूक्ष्म शरीर। और स्थूल पंचभूतों से बना है -स्थूल शरीर। और इन तीनों के बिना जीव की क्या कल्पना हो सकती है ? ये जो कार्य-करण संघात (Body Mind Complex) है उसके बिना , क्या जीव  की कल्पना भी की जा सकती है? 
     तो परमेश्वर (परमात्मा, ब्रह्म) निमित्त कारण मात्र हैं। वैसा निमित्त कारण है जैसे खेत में किसान बीज बो देता है। खेत बिल्कुल सूखा हो,  मिट्टी बिल्कुल ही गीली न हो। और उसमें बीज डाल दें , तो उगता है क्या? नहीं उगता। हरेक बीज को अंकुरित होने के लिए, मिट्टी का गीला होना जरुरी है। यानि जल से संयोग होना जरुरी है। तो जल ने ही किसान के द्वारा बोये गये बीज को अंकुरित कर दिया। यदि पृथ्वी में जल नहीं होता तो बीज भी अंकुरित नहीं हो सकता था।
      लेकिन किसी बीज  का अंकुर ऐसा होता है, जो मीठा फल देता है। लेकिन नीम के बीज से निकला अंकुर कड़वा होता है। करैला के बीज का जो फल होगा , वो कड़वा होगा। मीर्च तीखी होगी। और बिना पानी के कोई भी बीज अंकुरित नहीं हो सकता। तो क्या पानी ने किसी को तीखा बना दिया , किसी को मीठा बना दिया , किसी को खट्टा बना दिया ? किसी को कसैला बना दिया। ये पानी ने बना दिया? या बीजों में अन्तर होने से , प्रत्येक बीज में जो विशिष्ट शक्ति है। उसके कारण किसी का फल मीठा तो किसी का तीखा हुआ ? अनुसंधानात्मक दृष्टि से देखें , तो पता चलेगा कि कार्य में जो अवान्तर भेद पैदा हुआ , वह हुआ बीजगत विशिष्ट शक्ति के कारण हुआ । 
       तो पानी को क्या कहेंगे? पानी को साधारण कारण (Common-Cause या सर्वनिष्ठ कारण) कहेंगे।  कोई व्यक्ति यदि खेत में मीठे फल का बीज बोयेगा , तो उसे मीठा फल मिलेगा। खट्टे फल का बीज बोयेगा तो उसे खट्टा फल ही प्राप्त होगा। तीखे फल का बीज बोयेगा तो उसे तीखा ही फल मिलेगा। किसी भी प्रकार की विशिष्टता वाले बीजों के साथ पानी का कोई राग-द्वेष नहीं है। पानी किसी किसान को तीखा फल दे रहा है, किसी किसान को मीठा फल दे रहा है , किसीको कड़वा फल दे रहा है। इसमें पानी ने किसी भी किसान के प्रति राग-द्वेष नहीं रखा है। वो सभी बीजो के लिए एक सामान्य कारण है, साधारण कारण है।
 वैसे ही सब प्राणियों के कर्म करने में और सुख-दुःख भोगने में- ईश्वर भी साधारण कारण है। (तो विवेक-प्रयोग करने में भी, ईश्वर ही Common-Cause या सर्वनिष्ठ कारण है ?) और मनुष्य के सुख-दुःख भोगने में मुख्य कारण है उनका अपना -अपना कर्म। तो विगत जन्मों में जो  पुण्य-पापात्मक कर्म किया हुआ है न ? उन पुण्य-पापात्मक कर्मों को ही बीज की तरह माना जाता है । तथा परमेश्वर को पानी की तरह साधारण कारण माना जाता है। किसान के खेत के पानी की तरह परमेश्वर जगत के साधारण कारण (common cause  या सर्वनिष्ठ कारण) हैं।  और असाधारण कारण (Exceptional reason) हैं -कर्म ! इसलिए कर्मानुसार सुख-दुःख भोगना पड़ेगा। सुख-दुःख होगा। और उसमें साधारण निमित्त बनेगा ईश्वर !
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पिछले निबंध में हमने देखा था कि जब स्वप्न का प्रारब्ध भी समाप्त हो जाता है , (भोग करके क्षय हो जाता है) उस समय जब उस दिन के जाग्रत का प्रारब्ध भी फलोन्मुख नहीं हुआ। और स्वप्न का प्रारब्ध भी भोग करके समाप्त हो गया , तो वह जीव सुषुप्ति में चला जायेगा। गहरी नींद में चला जायेगा। 
    और वहाँ गहरी नींद में अन्तःकरण (मन) में कोई विशेष वृत्ति नहीं रहेगी। उस समय जो एक सामान्य अहम् वृत्ति रहेगी , वो आलम्बन करेगी कारण शरीर को। गहरी निद्रा में अहम् वृत्ति कारण शरीर को अपना विषय बनाकर रहेगी। 
सुषुप्ति के समय अज्ञान रूप (अविद्या माया) जो कारण शरीर है , वो अहं वृत्ति का आलंबन बनता है। गहरी निद्रा में कारण शरीर अहम् वृत्ति का आलम्बन बनेगा। और उस अज्ञान उपाधिक आत्मा के साथ अन्तःकरणस्थ प्रतिबिम्ब का एकी-भाव (Uniqueness-अद्वितीयता) रहेगा। लेकिन अज्ञान वहाँ है , उस समय जाग्रत अवस्था के ये विषय , जाग्रत अवस्था में जिन इन्द्रियों के द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है , वे इन्द्रियां ; बाह्य इन्द्रियाँ। और स्वप्न अवस्था में जिन -जिन वासनाओं से अन्तःकरण युक्त हो गया था , वह अन्तःकरण सब के सब  अपने अपने व्यापारों से रहित हैं। उस समय अहं वृत्ति का आलम्बन न तो स्थूल शरीर है , न सूक्ष्म शरीर है। उस समय अहम् वृत्ति का मात्र कारण शरीर, अर्थात - अज्ञान ही आलंबन है। इसलिए वो जो अज्ञान की अवस्था है, वो सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। वहाँ जीव कारण रूप से अवस्थित होता है। वो जीव के अहम् वृत्ति की कारण अवस्था है। सुषुप्ति में , वहाँ कोई अनुकूल दर्शन (विवेक-दर्शन) या प्रतिकूल दर्शन (विषय-दर्शन) का निमित्तभूत प्रारब्ध न होने से जीव प्रारब्ध का फल उपभोग नहीं कर रहा होता है। अपितु आनंदस्वरूप आत्मा का जो अनंदाभास है , सुखाभास है उसीका वो अनुभव करता है। इसलिये उसे (जीव के उस समय की अहम् वृत्ति को) कहा जाता है - मधुरभुक। मधुर कहते हैं , उस अनंदाभास को, सुषुप्ति के समय भासित होने वाला जो आनन्द है , वो अनंदाभास है। वो अनंदाभास है मधुर शब्द का अर्थ। और उस मधुर का जो अनुभव करता है ,अनंदाभास का जो अनुभव करता है , उसे कहा जायेगा - " मधुरभुङ्ग " -

  ---- अर्थात 'मधुरभुक', 'भुक' कहते हैं भोक्ता को।  तो मधुरभुक है -प्राज्ञतैजस है स्वप्न अवस्था का भोक्ता जीव। और जाग्रत अवस्था के भोक्ता का नाम (जाग्रत अवस्था के अहम् वृत्ति का नाम) है विश्व। इस प्रकार ये तीन अवस्थायें हैं , और तीन अवस्थाओं में एक ही जीव को अलग-अलग तीन अलग -अलग नामों से व्यवहार होता है। {सुषुप्ति अवस्था के उस मधुरभुक जीव को प्राज्ञ कहते हैं , स्वप्नावस्था के जीव को तैजस कहते हैं ,और जाग्रत भोक्ता का नाम है विश्व। } जाग्रत में उसे विश्व कहा जाता है , और उसका स्थान माना जाता है -नेत्र इन्द्रिय में। नेत्र इन्द्रिय का जो गोलक है , जाग्रत अवस्था में वह विश्व वहां अवस्थित रहता है। स्वप्न अवस्था में वह अवस्थित होता है -कण्ठ में। [इसीलिये जीव स्वप्न में कभी -कभी बड़बड़ाने लगता है। ] और सुषुप्ति अवस्था में ह्रदय-देश में होता है। और वहां सुषुप्ति अवस्था में अहम् वृत्ति मात्र अज्ञान-आश्रित है। उस समय अहंवृत्ति का एकमात्र अज्ञान ही आलम्बन है।
      इस प्रकार ये जो तीन अवस्थायें हैं, और इन तीन अवस्थाओं के कारण एक ही जीव के तीन अलग अलग नाम हो रहे हैं। इन अवस्थाओं को लेकरके एक ही जीव के तीन अलग अलग नाम हो रहे हैं। तो ये अवस्थायें और अवस्था वाला जीव , और इन अवस्थाओं में जिसकी प्रेरणा से वो भोक्ता बनता है। वह ईश्वर। ये तीनों के तीनों - जो अमृत अज ब्रह्म है , उसमें रस्सी में कल्पित सर्प की तरह कल्पित है। इसी रहस्य को उद्घाटित किया जा रहा है , मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के तीन पादों में। 
इसलिये वहां ब्रह्म को कहा जा रहा है - 'भोजयन', भोजयत और भोजयन। यहाँ 'नः' शब्द से लिया जा रहा है - अस्मान्। 'नः' शब्द का अर्थ निकलता है -अस्मान्। अस्मान् याने हमलोगों को। हमलोगों को याने जीवों को , जो अपने आप को भोक्ता समझते हैं। उन भोक्तओं को "भोजयन", भोजयन का अर्थ है भोग कराता हुआ। नो भोजयन। नो भोजयत-ऐसा। भोजयन्न -में न, न संयुक्त है न। तो नः एक पद निकलेगा और एक पद निकलेगा भोजयत। भोजयत - ये ब्रह्म का विशेषण है। तो ब्रह्म भोजयत है। इसका अर्थ हुआ ब्रह्म भुगवाने वाला है। और भोगनेवाला है जीव। भोगनेवाले जीव को नः शब्द से लिया गया। नः याने अस्मान् भोक्तृण भोजयन ब्रह्म वर्तते। ब्रह्म हमलोगों को भुगवाता हुआ अपने आनन्द में स्थित है। 
   क्या वह ब्रह्म , जीवों को केवल जाग्रत अवस्था में ही भोग करवाता है ? तो कहा , नहीं तीनों अवस्थाओं में भोग करवाता है। उसमें से जाग्रत और स्वप्न में कर्मफल का अनुभव करता है ; और सुषुप्ति में आनन्दाभास का भोग करवाता है। जो कि कर्म का फल नहीं है, बल्कि स्वरूपानन्द का आभास है। उसका अनुभव करता है। स्वरूपानन्द का आभास अनुभव करता है। 
     इसे बताया जा रहा है , प्रथम जाग्रत अवस्था तथा तद -अभिमानी को बताया जा रहा है। ..... नहीं , नहीं माया से ही करता है। ... बिना माया के तो जीव ही सिद्ध नहीं होगा। कार्य-करण संघात अभिमानी चैतन्य को जीव कहा जाता है। कार्य-करण संघात में 'कार्य' का अर्थ हुआ स्थूल शरीर , तथा 'करण' याने सूक्ष्म शरीर। और ये जो कार्य-करण हैं , ये हैं माया का ही परिणाम रूप (विवर्त-रूप ?) जो पाँचों भूत हैं , उनका परिणाम। 8.19  

 [ माया (ईश्वर -माँ काली) स्वयं अनादि रूप से ब्रह्म में कल्पित है , और जगत की भी कल्पना कराती है , और जीव की भी कल्पना कराती है। ] माया के परिणाम हैं, सूक्ष्म पंचभूत (तन्मात्रा?) और उनका परिणाम है -स्थूल पंचभूत। सूक्ष्म भूतों से बना है सूक्ष्म शरीर। और स्थूल पंचभूतों से बना है -स्थूल शरीर। और इन तीनों के बिना जीव की क्या कल्पना होगी ? ये जो कार्य-करण संघात है उसके बिना , क्या जीव की कल्पना भी की जा सकती है ?  इसलिये माया के बिना तो जीव ही सिद्ध नहीं होता। जीव -ये माया ही , स्वयं ब्रह्म में कल्पित है। अनादि रूप से।  ये माया स्वयं जीव के रूप में ब्रह्म में कल्पित है। और जगत की भी कल्पना कराती है। जीव की भी कल्पना कराती है। 
     तो परमेश्वर (परमात्मा, ब्रह्म) निमित्त कारण मात्र हैं। वैसा निमित्त कारण है जैसे खेत में किसान बीज बो देता है। खेत बिल्कुल सूखा हो,  मिट्टी बिल्कुल ही गीली न हो। और उसमें बीज डाल दें , तो उगता है क्या ? नहीं उगता। हरेक बीज को अंकुरित होने के लिए, मिट्टी का गीला होना जरुरी है। यानि जल से संयोग होना जरुरी है। तो जल ने ही किसान के द्वारा बोये गये बीज को अंकुरित कर दिया। यदि पृथ्वी में जल नहीं होता तो बीज भी अंकुरित नहीं हो सकता था।
      लेकिन कोई अंकुर ऐसा होता है, जो मीठा फल देता है। लेकिन नीम बीज से निकला अंकुर कड़वा होता है। करैला के बीज का जो फल होगा , वो कड़वा होगा। मीर्च तीखी होगी। और बिना पानी के कोई भी बीज अंकुरित नहीं हो सकता। तो पानी ने किसी को तीखा बना दिया , किसी को मीठा बना दिया , किसी को खट्टा बना दिया। किसी को कसैला बना दिया। ये पानी ने बना दिया ? कि बीजों में अन्तर होने से , प्रत्येक बीज में विशिष्ट शक्ति है। तो जो कार्य में अवान्तर भेद हुआ , वह हुआ बीजगत विशिष्ट शक्ति के कारण। 
और पानी ? ये तो साधारण कारण है। कोई व्यक्ति यदि खेत में मीठे फल का बीज बोयेगा , तो उसे मीठा फल मिलेगा। खट्टे फल का बीज बोयेगा तो उसे खट्टा फल ही प्राप्त होगा। तीखे फल का बीज बोयेगा तो उसे तीखा ही फल मिलेगा। किसी भी प्रकार की विशिष्टता वाले बीजों के साथ पानी का कोई राग-द्वेष नहीं है। किसी किसान को तीखा फल दे रहा है, किसी किसान को मीठा फल दे रहा है , किसीको कड़वा फल दे रहा है। इसमें पानी ने किसी भी किसान के प्रति राग-द्वेष नहीं रखा है। वो सभी बीजो के लिए एक सामान्य कारण है, साधारण कारण है।  
{ कार्य में जो अवान्तर भेद हुआ वह बीजगत शक्ति के कारण और ,पानी साधारण कारण है। वैसे ही ईश्वर भी सब प्राणियों के सुख-दुःख भोगने में साधारण कारण हैं।} 
        वैसे ही ईश्वर भी सब प्राणियों के सुख-दुःख भोगने में साधारण कारण है। कर्म करने में (विवेक-प्रयोग करने में ?) और मुख्य है उनका अपना -अपना कर्म। जो कर्म किया हुआ है न ? पुण्य-पापात्मक ?  वह पुण्य-पापात्मक कर्म ही माना जाता है बीज की तरहपानी की तरह माना जाता है परमेश्वर परमेश्वर --साधारण कारण हैं। और असाधारण कारण हैं -कर्म ! इसलिए कर्मानुसार सुख-दुःख भोगना पड़ेगा। सुख-दुःख होगा। और उसमें साधारण निमित्त बनेगा ईश्वर ! (प्रभु जी तुम चंदन हम पानी ?)
           
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संत रविदास के संदर्भ में यह प्रसिद्ध है कि इनकी निर्धनता को देखकर भगवान स्वयं साधु का रूप लेकर इनके पास आए। उन्होंने इन्हें अप्राप्य पारस पत्थर दिया और उससे जूता सीने के इनके लोहे के एक औजार को सोना बनाकर दिखा भी दिया। रविदास जी ने पारस को लेने से इनकार कर दिया लेकिन वह साधु नहीं माना और उसने पारस को सौंपने का बडा हठ किया। लाचार होकर रविदास जी ने कहा-आप यदि नहीं मानते हो तो इसे छप्पर में खोंस दो। एक वर्ष के बाद वही साधु जब इनके पास वापस आया और इनसे पारस का हाल पूछा तो रविदास जी ने बडी उदासीनता के साथ कहा-आप उसे छप्पर में जहां खोंस गए थे वहीं से निकाल लें। मैंने उसे छुआ तक नहीं है। साधु इनकी बात सुनकर दंग रह गया और वह संत रविदास की निस्पृहताका कायल हो गया। उनके भाव उनकी इन पंक्तियों से स्वयं स्पष्ट हो जाते हैं-
हरि-सा हीरा छाडि के, करै आन की आस। 
ते नर जम-पुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास॥

जो नर के नियत भावी उत्कर्ष में विश्वास करेगा, वही नारायण में भी विश्वास करेगा, क्योंकि 'नराणां नरोत्तम' और नारायण दोनों वंदनीयता की समान कोटि में आते हैं। 'नार' का अर्थ पुराणों और स्मृतियों में जल अर्थात आदि सृष्टि कहा गया है, इस आदि सृष्टि में अभिव्याप्त सत्ता का नाम ही नारायण कहा गया है। इसलिए नरों में जो नरोत्तम होना चाहता है, उसे स्वभावत: नारायाणा भिमुख होना ही पड़ता है, क्योंकि नर का अर्थ ही है अपने में सिमटा हुआजिन लोगों ने मनुष्य मात्र को नमो नारायण कहकर प्रणाम करने की परंपरा चलायी, वे मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति के सबसे बड़े दृष्टा थे, वे मनुष्य के विस्तार शील रूप को आवाहित करना जानते थे, इसलिए सामान्य से सामान्य जन को देखकर वे यही कहते थे, नारायण को नमस्कार है, तुम्हारे अंदर जो विश्व-भावना तत्त्व है, उसे नमस्कार करता हूँ ताकि वह तत्त्व तुम्हारी क्षुद्रता और संकीर्ण्ता के बहिर-आवरण को फोड़कर बाहर आए।
 इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधान बनाकर घिसो।  तब तक घिसो , जब तक नख न घिस जाएँ। "चंदन घिसत-घिसत घिस गयो नख मेरो, वासना न पूरत माँग को सँवार।" तानसेन के इस ध्रुपद की यह पुकार है कि जब तक वासना न पूरे तब तक नख घिस भी जाए, घिसने की प्रक्रिया न रुके।  वासना पूरी तरह से जब तक इस चंदन के साथ घिसकर उतर न आए, तब तक वह चंदन अर्पणीय कैसे होगा! 

  गणपति भगवान का वाहन ‘मूषक’ है।  ‘मुष स्तेये’ इस धातु से मूषक शब्द बनता है। मूषक जैसे प्राणियों की सर्वभोग्य वस्तुओं को चुराकर भी पुण्य-पापों से विवर्जित ही रहता है, वैसे ही मायागूढ़ सर्वान्तर्यामी भी सर्व भोग्य को भोगता हुआ पुण्य-पापों से विवर्जित है। वह सर्वान्तर्यामी ईश्वर ही गणपति की सेवा के लिये मूषक रूप धारण कर वाहन बना।  ‘मूषक’ सर्वान्तर्यामी, सर्वप्राणियों के हृदयरूप बिल में रहने वाला, सर्वजन्तुओं के भोगों को भोगने-वाला ही है। वह चोर भी है, क्योंकि जन्तुओं के अज्ञात सर्वस्व को हरने वाला है। उसको कोई जानता नहीं, क्योंकि माया से गूढ़रूप अन्तर्यामी ही समस्त भोगों को भोगता है। नामरूपात्मकं सर्व तत्रासद् ब्रह्म वर्तते।।” इसीलिये “भोक्तारं सर्वतपसाम्” कहा है।  
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 भगवान भाष्यकार की इच्छा है कि 'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका' के व्याख्यान रूप भाष्य का, जो लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है, उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो और  भारत के युवाओं में  गीता, उपनिषद आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की अभिरुचि भी पर्याप्त मात्रा में हो।      
    भाष्यकार भगवान ने इसी  उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो श्लोकों के माध्यम से जो मंगलाचरण किया है, उनके मूल उद्देश्य को और उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य को  'मंदबुद्धि वाले ' भी आसानी से समझ सकें , इसके लिए ही आनन्दगिरि जी ने उस पर टीका लिखी है।
         और यह तभी संभव है जब गीता,  उपनिषद  आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता रखने वाले,  'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित,  भावी अध्यापकों  (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण हो। ताकि इनके प्रयास से  गीता , उपनिषदों में आधारित महामण्डल के  " मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन "  का  प्रचार-प्रसार भारत के गाँव-गाँव में हो सके। इसी विषय पर विगत 12 निबंधों में चर्चा चल रही है। 
प्रकृष्ट ज्ञान है -परमात्मा , निर्विकार ज्ञान। निर्विकार ज्ञान कहा जाता है विज्ञान को, और विज्ञान का अर्थ है विशुद्ध ज्ञान " विज्ञानं आनंदम ब्रह्म।"  इसमें विज्ञानं का अर्थ हुआ विशुद्ध ज्ञान निर्विकार ज्ञान। वह ज्ञान जो उत्पन्न भी नहीं होता, और नष्ट भी नहीं होता। 
              तैत्तरीय उपनिषद (२.१ ) में  " सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म " उस ज्ञान को ही ब्रह्म कहा गया है। जो उत्पन्न न हो, और नष्ट भी न हो। ऐसा जो ज्ञान है - वो ब्रह्म है।  ये जो तैत्तिरीय उपनिषद में आया हुआ ये जो श्रुति वाक्य है, वह बता रहा है कि,  ब्रह्म कौन है ? वह सत्य है -अर्थात  जो त्रिकाल से अबाधित ज्ञान है , और अनन्त है।  यानि जो ज्ञान अविनाशी है। सजातीय-विजातीय और स्वगत भेद रहित जो ज्ञान है।  तीनों भेदों से रहित जो सच्चिदानन्द-रूप वस्तु है , उसे ' अद्वय - ज्ञान ' कहते हैं । 
    
         देश-काल, वस्तु से अपरिच्छिन्न ज्ञान।  जो भी वस्तु  है वह अपने आकार से बँधी हुई है । परमात्मा किसी भी आकार से सीमित नहीं है । परमात्मा सब आकारों में है और उसके परे भी है । देश , काल , वस्तु तीनों से वह अपरिच्छिन्न है । जो अबाधित सत्य है, वो हैं ब्रह्म। जो तीनों काल में टिके ; त्रिकाल - अबाधित ; कभी भी जिसका खंडन न हो ; जो पहले भी था , अभी भी है और बाद में भी रहेगा। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है । अतः तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है ।  श्रुति कहती है– इह चेद् अवेदीद् अथ सत्यम् अस्ति “उसे यहीं इसी जीवन में जान लिया तो जीवन सफल है, सार्थक है और उसे इस जीवन में नहीं जाना तो महान् विनाश हुआ।' अत: उसे ढूंढो। जो अबाधित सत्य है, वही नित्य है।उसी को ब्रह्म कहा गया।  

           उसी तरह  " विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" ~ ये बृहदारण्यक उपनिषद् (३, ९, २८) का वाक्य है । वो बताता है कि विज्ञान है, याने विशुद्ध ज्ञान- यही ब्रह्म है। और आनन्द है , अर्थात निरतिशय आनन्द है,  परम आमोद है। यही निरतिशय आनन्द सभी साधनाओं का लक्ष्य है।  ब्रह्म निरतिशय आनन्द है और भूमा अथवा निरतिशय आनन्द की प्राप्ति के पश्चात् कोई इच्छा शेष ही नहीं रह जाती । विषयानन्द तो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। किन्तु जो आनन्द उत्पन्न भी न हो और नष्ट भी न हो उस आनन्द को ब्रह्म कहा जाता है। वो निरतिशय आनन्द है।  ज्ञान शब्द का अर्थ होता है -चेतन। तो "निर्विकार चिदानन्द" ---- चैतन्य और आनन्द स्वरूप होने से उसे ही चिदानन्द कहते हैं ।  तीनों अवस्थाओं ( जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति ) का साक्षी तथा निर्विकार और निरञ्जन यह ब्रह्म है । यही ब्रह्म का स्वरुप है। 
        इस प्रज्ञान शब्द से जुड़ा हुआ ऋग्वेद का महावाक्य है - " प्रज्ञानं ब्रह्म"| - प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है... यह महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है।  " प्रज्ञानं ब्रह्म" --उस महावाक्य में प्रज्ञान शब्द का जो अर्थ है , वही यहाँ भी प्रज्ञान शब्द का अर्थ है। और प्रज्ञान शब्द का अर्थ है प्रकृष्ट ज्ञान अर्थात विशुद्ध ज्ञान। और उस प्रज्ञान के जो अंशु हैं-- उन्हें  कहा जायेगा, 'प्रज्ञान अंशवः'
अंशु कहते हैं -आभास को रश्मियों को। किरणों को।  जैसे सूर्य हैं प्रकाश। और उसके अंशु हैं किरणें। चन्द्रमा को सुधांशु कहा जाता है न। अंशु का अर्थ हुआ किरणें। जिसके रश्मि में सुधा याने अमृत है। उसे कहा जाता है सुधांशु। और ऐसा माना जाता है कि चन्द्रमा के किरणों में अमृत है। 
        इसलिये चन्द्रमा को कहा जाता है -सुधांशु। और वे चन्द्रमा जिनके सिर में आभूषण के रूप में हैं -उनको कहा जाता है -सुधांशु शेखर। सुधांशु शेखर कौन है ? चंद्रशेखर। चंद्रशेखर याने भगवान शिव। चन्द्रमा को अपने सिर के आभूषण के रूप में धारण किया है न उन्होंने ? इसलिए वे सुधांशुशेखर हैं। और सुधांशु हैं चन्द्रमा। और अंशु शब्द का अर्थ है किरणें। 
        वैसे ही यहाँ पर भी अंशु शब्द का प्रयोग है न ? तो प्रज्ञान का तो अर्थ हुआ विशुद्ध ज्ञान। प्रकृष्ट ज्ञान।{ प्रज्ञान अंशवः = किरणा एव जलं तस्य प्रवाहः = प्रस्रवः तेन ... प्रज्ञा = बुद्धिः तस्याः प्रतानः प्रसारः , अंशवः रश्मयः अस्य अस्ति। } और उस प्रकृष्ट ज्ञान के जो अंशु हैं -किरणे हैं , वे किरणे कौन हैं ? ब्रह्म की किरणें हैं जीव ! याने चिदाभास। अन्तःकरणस्थ चिदाभास।  तो प्राज्ञानांशु शब्द का अर्थ निकलेगा जीव। जैसे सूर्योदय होता है तो सूर्य की किरणें सर्वत्र फैली हुई रहती हैं न ? जगत में व्याप्त होती हैं , सूर्योदय होता है तो। और जब सूर्यास्त होता है, तो वे सब जाकरके सूर्य में विलीन हो जाती हैं न ? तो ऐसे ही ये जो जीव है , वह प्रज्ञान शब्दित ब्रह्म के अंश की तरह अंशु है। चिदाभास *** रूप जीव। उन्हें कहा गया प्रज्ञानांशु। तो प्रज्ञानांशु है जीव। 
      { *** बुद्धिवृत्ति में आभासित होने वाले 'चिदाभास' (Reflected Consciousness) तथा उसके अधिष्ठान अर्थात  बिंबरूप आत्मा या 'शुद्ध चैतन्य' (Pure Consciousness) की भिन्नता। देह से बाहर जैसे चिदाभास और ब्रह्म का विवेचन किया वैसे ही देह के भीतर भी चिदाभास और कूटस्थ का विवेक-प्रयोग करना चाहिए। स्फटिक में प्रतिबिम्बित जावा कुसुम की लालिमा , स्फटिक के साथ तादात्म्यापन्न होने के कारण , स्फटिक से भिन्न रूप में गृहीत नहीं है।  वैसे अविद्या रूप उपाधि में स्थित  साक्षी और चिदाभास का विवेक सुगम नहीं क्योंकि एक ही अंतःकरण यदि साक्षी की ' उपाधि ' है तो चिदाभास ( जीव) का वही ' विशेषण ' भी है । } 

         सबसे उत्कृष्ट शरीर माना जाता है -हिरण्यगर्भ का शरीर।और प्राणियों में सबसे निकृष्ट शरीर  माना जाता है स्तम्ब नामका शरीर। सबसे छोटा है , एक पेशी वाला है , जिसको अमीबा कहा जा सकता है। वह है सबसे निकृष्ट शरीर है,  लेकिन उसमें भी अन्तःकरण है। और सारे शरीर। स्वर्गीय , नरकीय जितने भी शरीर हैं उन सारे शरीरों का एक समूह है। और उस समूह में  "स्थिर-चर-निकर व्यापी"  ये प्रतान का विशेषण है
      'प्रज्ञानांशुप्रतान' पहले आया है न ? ये 'प्रज्ञानांशुप्रतान'  कैसे हैं ? प्रज्ञानांशु याने जीव और उनका  प्रतान याने - विस्तार, वो कैसा है ? तो वो स्थिर-चर -निकर व्यापी है। जीवों का जो विस्तार है वह स्थिर-चर -निकर व्यापी है। व्यापी कहा जाता है व्यापनशील को।  व्याप्त करना जिसका शील है याने स्वाभाव है। तो  'प्रज्ञानांशुप्रतान' -स्थिर-चर -निकर व्यापी हैं !  इसका मतलब स्थावर -जंगम सारे , शरीरों में व्याप्त होना, इनका स्वभाव है। 'प्रज्ञानांशुप्रतान ' का। 
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* ब्रह्म का ट्रिपल रोल *
            जैसे किसी किसी फिल्म , सिनेमा या नाटक आदि में  एक ही व्यक्ति कहीं कहीं - double role करता है न ?  दोहरी भूमिका निभाता है। वैसे ही वह कभी कभी Triple Role भी तो कर सकता है न ? कभी -कभी रामलीला आदि में एक ही व्यक्ति तीन-तीन पात्र की भूमिका निभाता है। वैसे ही ये ब्रह्म (ठाकुरदेव) भी अपनी मायाशक्ति के द्वारा जगत रूपी भोग्य का भी पात्र (अभिनय) कर रहा है , भोक्ता जीव  का भी पात्र कर रहा है -अभिनय कर रहा है, और भोजयिता (माँ काली ) का भी अभिनय कर रहा है । लेकिन ये सब के सब कौन हैं? ये सब के सब ब्रह्म (बहुरुपिया -ठाकुरदेव **) ही बने हैं ! 
स्थावर -जंगम 84 लाख प्रकार के शरीर समूह में ब्रह्म ही परिव्याप्त हो रहा है , लेकिन ब्रह्म रूप से नहीं जीव रूप से। और वह ब्रह्म ही जिव रूप से सभी शरीरों में व्याप्त होकर के क्या कर रहा है ? भोक्ता बना है ? लेकिन वेदान्त मत के अनुसार एक मात्र ब्रह्म को छोड़कर दूसरा कुछ तो है नहीं।  और जब ब्रह्म एकमेवाद्वितीय है;  तो भोक्ता (जीव) , भोग्य (जगत) , भोजयिता (ईश्वर) ये त्रिपुटी कहाँ से आ गयी ?  जब सामने सिर्फ रस्सी ही रस्सी है , तो किसी को वो रस्सी सर्प के रूप में क्यों दीख रही है ? किसी को माला के रूप में क्यों दीख रही है  ? किसी को दण्ड के रूप में क्यों दीख रही है ? 
        तो वो सर्प कहाँ से आया वहां पर ? या दण्ड किसने रखा ? या माला किसकी छूट गयी वहां पर ? वास्तव में वहां न तो सर्प है, न दण्ड है , न माला है ; वह रस्सी ही उन रूपों में विवर्तित हो रही है। रस्सी के अज्ञान से रस्सी ही उन रूपों में भास रही है। और जब रस्सी का ज्ञान होता है , तब ये निश्चय होता है कि रस्सी ही अपने अज्ञानवशात सर्पादि रूप से भास रही थी। वस्तुतः वह रस्सी ही थी , रस्सी को छोड़कर और कोई दूसरी वस्तु थी ही नहीं ! उसी प्रकार प्रज्ञान भी ब्रह्म है और परज्ञानांशु भी ब्रह्म है। जैसे सूर्य प्रकाश है , और प्रकाश ही सूर्य है। और किरणें क्या हैं ? किरणे भी तो प्रकाश ही हैं। ऐसे ही प्रज्ञान भी ब्रह्म है और परज्ञानांशु भी ब्रह्म है , याने जीव भी ब्रह्म ही है। 
   और ये जिनको व्याप्त कर रहा है। स्थिर-चर-निकर को। वह स्थिरचरनिकर- शब्दित कार्य-करण संघात समूह (देह-समूह ), वो भी तो ब्रह्म से अलग नहीं है ब्रह्म में ही कल्पित है। एक ब्रह्म ही इन रूप से विवर्तित हो रहा है , जैसे रस्सी सर्प रूप से विवर्तित हो रही थी। वैसे ही ब्रह्म ही जगत रूप से भी , जगत के अनुभविता जीव के रूप से भी और अनुभव कराने वाले भोजयिता के रूप से भी- भास रहा है। उपाधि को लेकर एक ब्रह्म ही अनेक रूपों में भास् रहा है। 
    ब्रह्म ही अपनी माया शक्ति से इन तीनों रूपों में विवर्तित हो रहा है। लेकिन वस्तुतः वो एक ही व्यक्ति है न?  ऐसे तत्व की दृष्टि से देखेंगे तो वह एक अखण्ड सच्चिदानन्द है(Existence-Consciousness-Bliss)। और माया को लेकर के देखते हैं, (शक्ति के साथ देखते हैं) तो वही इन तीनों रूपों से प्रतीत होता है। 

[ये सबके सब बहुरुपिया ** ठाकुरदेव -श्रीरामकृष्ण ही हैं , जब परिस्थिति वश स्वामी विवेकानन्द अन्त में माँ काली के अस्तित्व को स्वीकार कर, ठाकुर कहने पर उनसे धन-दौलत माँगने के लिए दक्षिणेश्वर काली मंदिर में गए थे , तो वहाँ उन्होंने क्या देखा था? दादा कहते थे -यह रहस्य उनके साथ ही चला गया , उन्होंने इस विषय में बताने से इंकार क्यों किया इसका उत्तर तुम स्वयं खोजो !]

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इसी विषय पर विगत 14 निबंधों में चर्चा चल रही है। चार पादों में कथित उपरोक्त मंगला चरण  के प्रथम श्लोक को देखें - 
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
 मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ 
अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद तथा माण्डूक्य कारिका के व्याख्यान रूप भाष्य पर आनन्द गिरी जी ने जो टीकाएँ लिखी हैं , माण्डूक्य कारिका के व्याख्यान रूप भाष्य का विचार हमलोग कर रहे हैं। भाष्य में भाष्यकार भगवान - दो श्लोकों के द्वारा भाष्य लेखनात्मक कार्य की निर्विघ्न समाप्ति हो , और इसका अध्यन -अध्यापन भी प्रचूर हो इस उद्देश्य से मङ्गलाचरण कर रहे हैं। 
उनमें से प्रथम श्लोक की चर्चा हमलोग कर रहे हैं। प्रथम श्लोक में ब्रह्म का आत्मरूप से स्मरण रूप नमस्कार करते हुए एक अनुबन्ध चतुष्टय अंतःपाती विषय रूप अनुबन्ध को बता दिया गया है। चौथे पाद के अंत में - तद ब्रह्म नतोस्मि ' द्वारा इसे सूचित किया गया है। इसके माध्यम से अनुबन्ध का विषय भी सूचित हुआ और ब्रह्म का आत्मरूप से स्मरण रूप करते हुए नमस्कारात्क मंगलाचरण भी सम्पन्न हुआ। 
     और जिस ब्रह्म का आत्मरूप से अनुसन्धान रूप मंगलाचरण किया जा रहा है , वह ब्रह्म उपनिषदों से  प्रसिद्द ब्रह्म है। उपनिषदों में उन्हें अनादि , अनन्त के रूप बताया रही  है। यहाँ भी उन्हें -अमृतं अजं यद ब्रह्म ' कहा गया। जं हैं अनादि , और अमृत है अनन्त।
     तो जो उपनिषद प्रसिद्द अनादि अनन्त ब्रह्म हैं, उसका हम आत्मरूप से अनुसन्धान करते हैं। ये कहा गया। और इसी ब्रह्म में अनादि जो प्रकृति है ,वो अनादि रूप से कल्पित है , लेकिन सान्त है। जबकि ब्रह्म अनादि है अनन्त है।  लेकिन प्रकृति अनादि है और सान्त है। उस अनादि रूप से कल्पित जो प्रकृति है, उससे युक्त ब्रह्म के दो स्वरुप हैं। सोपाधिक ब्रह्म,  भोक्ता (जीव) तथा भोजयिता (ईश्वर) रूप से संसार अवस्था में प्रतीत होता है। जो प्रकृति ब्रह्म की उपाधि है , उसके अवान्तर दो भेद हैं - कार्यात्मिका प्रकृति और कारणात्मिका प्रकृति।
      कारणात्मिका प्रकृति और कार्यात्मिका प्रकृति के भी फिर समष्टि और व्यष्टि की दृष्टि से अवान्तर दो- दो भेद हैं। समष्टि कारणात्मिका प्रकृति है विद्यामाया शाब्दिक , और वह मात्र उपाधि है - जब ब्रह्म की, तो वह ईश्वर (माँ काली) कहलाता है। उसे ईश्वर कहते हैं। मायोपाधिक चैतन्य या ब्रह्म को 'ईश्वर' कहते हैं। 
          और अविद्यामाया उपाधिक जो ब्रह्म हैं - वे हैं जीव। उस समय उनको 'प्राज्ञ' नामक जीव कहते हैं वह प्राज्ञ नामक जीव जो सुषुप्ति अवस्था में होता है। प्राज्ञ नामक जीव की उपाधि होती है केवल अविद्या।          अविद्या और माया ये दोनों प्रकृति की ही दो अलग अलग अवस्थायें हैं अज्ञान को ही प्रकृति कहा जाता है। अज्ञान त्रिगुणात्मक है। और त्रिगुणों की जो साम्य -अवस्था है , अर्थात जब सत्व , रज , तम ये तीनों गुण समान अवस्था में हो। कोई किसी से न्यून अधिक न हो। कम अधिक न हो , बराबर -बराबर हो। वैसा केवल प्रलय काल में संभव है। 
       प्रलयकाल में तीनों गुण एक समान अवस्था में होते हैं। प्रलयकाल में तीनों गुणों का graph एक जैसा होता है। और जब सृष्टि बननी होती है, तब सबसे पहले प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है। तब प्रकृति की जो प्रथम अवस्था अभिव्यक्त होती है, वह सत्त्व गुण प्रधान होती है। वह जो शुद्ध सत्त्वगुण प्रधान प्रकृति की अवस्था है - उसे माया कहा जाता है। वो ईश्वर की उपाधि है।
         उस मायारूप उपाधि को जो ब्रह्म धारण करता है , उस ब्रह्म को  ईश्वर कहा जाता है। और जब उसी प्रकृति की मलिन सत्त्वगुण प्रधान अवस्था-विशेष होती है तो वो अविद्या कहलाती है। दोनों में सत्त्वगुण है , लेकिन जो माया नामक प्रकृति की अवस्था है , उसमें प्रधान है शुद्ध सत्त्वगुण। 
      और अविद्या में मलिन सत्त्वगुण प्रधान है। मलिन सत्त्वगुण प्रधान प्रकृति की अवस्था अविद्या और शुद्ध सत्त्व प्रधान प्रकृति की अवस्था माया कहलाती है। 
       शुद्ध सत्त्व प्रधान प्रकृति की अवस्था जो माया शब्दित है , तद उपाधिक ब्रह्म को कहा जायेगा ईश्वर। और मलिन सत्त्व प्रधान प्रकति की अवस्था जिसे अविद्या कहते हैं , तद उपाधिक ब्रह्म को कहा जायेगा 'प्राज्ञ ' नामक जीव। वो ब्रह्म ही प्राज्ञ नामक जीव बना है। 
        और फिर कार्य उपाधि में भी अवान्तर दो भेद है , सूक्ष्म कार्य और स्थूल कार्य। जो सूक्ष्म भूत है अपंचीकृत पंचमहाभूत, और उनसे बना हुआ सूक्ष्म शरीर। समष्टि - व्यष्टि सूक्ष्म शरीर, इन्हें कहा जाता है , सूक्ष्म कार्य-उपाधि। 
       तो जो समष्टि सूक्ष्म शरीर है , उसे भी शुद्ध सत्त्व प्रधान प्रकृति --- जो माया नामक है। और तद उपाधिक ब्रह्म , उसे एक और उपाधि के रूप में ब्रह्म और स्वीकार कर लेता है। 
        तो माया उपाधि के साथ साथ 'समष्टि सूक्ष्म शरीर उपाधिक' भी हो जाता है। दो उपाधि वाला हो जाता है। दो उपाधि वाला ब्रह्म हिरण्यगर्भ कहलाता है। उसे हिरण्यगर्भ कहा जायेगा। 
       और जो प्राज्ञ नामक जो  जीव है, मलिन सत्त्व प्रधान प्रकृति की अवस्था अविद्या उपाधिक वह अपनी इस उपाधि के साथ साथ 'व्यष्टि सूक्ष्म शरीर रूप उपाधि' को भी स्वीकार कर लेता है। अविद्या तथा व्यष्टि सूक्ष्म शरीर इन दो उपाधि वाला जो ब्रह्म है -वो जीव कहलाता है। 
      फिर स्थूल कार्य , उन स्थूल कार्यों में भी अवान्तर दो भेद हैं , समष्टि और व्यष्टि। स्थूल कार्य कहलाता है स्थूल पंचमहाभूत तथा उनसे बने हुए शरीर। स्थूल पंचभूत और स्थूल भूतों का कार्य उसे कहा जायेगा स्थूल कार्य। स्थूल पंच भूत कहलाते हैं, पंचीकृत पंचभूत। 
       वो जो पंचीकृत पंचभूत हैं,  स्थूल और उनका कार्य यह स्थूल शरीर। इनके भी अवान्तर दो भेद हैं - समष्टि , व्यष्टि। समष्टि स्थूल कार्य है -ये पूरा ब्रह्माण्ड। और उसे भी अपनी पूर्व दो उपाधि के साथ साथ, स्थूल समष्टि कार्य-- विश्व ब्रह्माण्ड को भी तीसरी उपाधि के रूप में स्वीकार कर लेता है। तो ईश्वर जो शुरू में था माया मात्र उपाधिक , माया के साथ जब सूक्ष्म का समष्टि कार्य उपाधिक हुआ तब हिरण्यगर्भ कहलाया। 
         और वही जब समष्टि स्थूल कार्य उपाधि को भी ले लेता है , इन दोनों उपाधि के साथ , तो वीड़ाड़ कहलाता है। वैश्वानर इस नाम से कहा जाता है। वैश्वानर ,वीड़ाड़ , विश्वरूप इस नाम से उसे कहते हैं। छान्दोग्य में एक वैश्वानर उपासना आती है न ? वो यही है -वीड़ाड़ की उपासना। गीता में भगवान ने अर्जुन को इसी विश्वरूप का दर्शन कराया था। वैश्वानर का दर्शन। 
      और जब जीव इन दो उपाधि के साथ साथ व्यष्टि स्थूल शरीर को भी स्वीकार कर लेता है , तब उसे विश्व नामक जीव कहा जाता है। अविद्या और व्यष्टि सूक्ष्म कार्य (शरीर) उपाधिक  जीव का नाम है तैजस। और मात्र अविद्या उपाधिक जीव का नाम है प्राज्ञ। 
      जीव एक ही है लेकिन अलग अलग उपाधि को लेकर उसके तीन नाम हो जाते हैं। केवल अविद्या उपाधि वाला हुआ तो उसको प्राज्ञ कहते हैं। अविद्या उपाधि के साथ साथ यदि व्यष्टि सूक्ष्म शरीर की उपाधि वाला होगा तो उसको तैजस कहेंगे। और इन दोनों उपाधि के साथ जब व्यष्टि स्थूल शरीर की उपाधि को स्वीकार करेगा , तो उसको विश्व कहेंगे। जो जाग्रत अवस्था का भोक्ता कहलाता है। ये तीनों भोक्ता व्यष्टि उपाधि वाले जीव हैं।
       ये हैं भोक्ता रूप ब्रह्म। यदि तीनों उपाधि को छोड़ दे तो जो उपहित मात्र रहता है - चैतन्य , वो तो ब्रह्म ही है। और जब उसको उपाधि से युक्त देखेंगे तब भोक्ता नाम से कहा जायेगा। और इन तीनों भोक्ताओं के भोग्य विषय भी अलग अलग हैं।
[अनुबन्ध चतुष्टय : प्रत्येक ग्रन्थ में चार बातें होती हैं- ग्रन्थ का विषय, उसका प्रयोजन, उसका अधिकारी और प्रतिपाद्य–प्रतिपादक का सम्बन्ध। इन चारों को ‘अनुबन्धचतुष्टय’ नाम से कहा जाता है। वेदांत शास्त्र का विषय जीव और ब्रह्म की एकता है। वेदांत शास्त्र का प्रयोजन ब्रह्म और जीव की एकता  के सम्बन्ध में अज्ञान की निवृत्ति, अपने वास्तविक स्वरूप  "आनंद" की प्राप्ति है।  वेदांतदर्शन में ब्रह्म को ही जगत की उत्पत्ति ,स्थिति और प्रलय का कारण माना गया है। ब्रह्म के अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी नहीं है "सर्व खल्विदं ब्रह्म,नेह नानास्ति किञ्चन " अर्थात इस जगत में ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की भी वास्तविक सत्ता नहीं है। शुद्ध चैतन्य ब्रह्म इस दर्शन का मूल प्रतिपाद्य (विषय) है और वेदान्त उसका प्रतिपादक प्रमाण है अतः दोनों के बीच प्रतिपाद्य- प्रतिपादक का का संबंध है।  वेदान्त शास्त्र (गीता , उपनिषद , ब्रह्मसूत्र आदि ग्रंथ) को पढ़ने का अधिकारी साधन चतुष्टय सम्पन्न व्यक्ति ही हो सकता है। साधन चतुष्टय क्या है? ---- विवेकवैराग्य, शमदम आदि षट् सम्पत्तियो से युक्त, मोक्ष का इच्छुक- 'मुमुक्षु'  ये चारो साधन साधन चतुष्टय कहलाते है। अर्थात इन गुणों से संपन्न व्यक्ति ही वेदान्तदर्शन को जानने का अधिकारी है । माया क्या है?- इसके लिए वेदान्त में अज्ञान, अविद्या, अध्यास, विवर्त आदि शब्दो का प्रयोग  पर्यायवाची  के रूप में हुआ है।  माया या अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं -1. आवरण शक्ति  2. विक्षेप शक्ति।  अज्ञान की आवरणशक्ति हमारे ज्ञान को ढक लेती है, और विक्षेप शक्ति के कारण हमें वास्तविक वस्तु के स्थान पर अवास्तविक वस्तु की प्रतीति होती है भोक्ता, भोग्य और भोजयिता अर्थात जीव , जगत और ईश्वर,  माया  अर्थात अज्ञान के कारण हमें  वास्तविक प्रतीत होते हैं।  जिस प्रकार रज्जु को (रस्सी) अज्ञानवश हम सर्प  समझ लेते हैं  लेकिन जब हमें दीपक के प्रकाश से " यह तो रज्जु (रस्सी) है , सर्प नहीं है " इस प्रकार का बोध होता है। उसी प्रकार  अविद्या, माया के कारण जीव, जगत और ईश्वर को सत्य समझने लगता है।  लेकिन जब यह माया रूपी पर्दा हमारी आँखो से हट जाता है तो मनुष्य को ब्रह्मात्मैक्य स्वरुप का बोध होता है। ] 
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16. * "स्वप्नस्थ पदार्थों में अहं -अध्यास और मम-अध्यास ही अविद्या (ignorance) है। "('Be and Make' - 'मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन' तथा माण्डूक्य उपनिषद)
Mandukya Upanishad 0.20 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर/
भगवान भाष्यकार की इच्छा है कि यह जो 'माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका' के व्याख्यान रूप भाष्य का लेखनात्मक कार्य प्रारम्भ हुआ है , उसकी निर्विघ्न परिसमाप्ति हो। और इसके साथ -साथ भारत के युवाओं में  गीता, उपनिषद आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता और अभिरुचि भी पर्याप्त मात्रा में हो। 
      लेकिन यह तभी संभव है जब गीता , उपनिषदों की शिक्षाओं पर आधारित महामण्डल के " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन "  का प्रचार-प्रसार भारत के गाँव-गाँव में हो सके। और इसके लिये सर्वप्रथम 'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित, गीता , उपनिषद आदि वेदान्त ग्रंथों का अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता रखने वाले भावी अध्यापकों (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना आवश्यक है
        भाष्यकार भगवान ने इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो श्लोकों के माध्यम से जो मंगलाचरण किया है - उसके मूल उद्देश्य को और उस माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका के भाष्य में लिखित अनुबन्ध को 'मंदबुद्धि वाले ' भी आसानी से समझ सकें , इसके लिए ही आनन्दगिरि जी ने उस पर टीका लिखी है।
       भोक्ता, भोग्य और भोजयिता अर्थात जीव , जगत और ईश्वर की त्रिपुटी,  माया  अर्थात अज्ञान के कारण हमें  वास्तविक प्रतीत होते हैं।  जिस प्रकार रज्जु को (रस्सी) अज्ञानवश हम सर्प  समझ लेते हैं  लेकिन जब हमें दीपक के प्रकाश से " यह तो रज्जु (रस्सी) है , सर्प नहीं है " इस प्रकार का बोध होता है। उसी प्रकार  अविद्या, माया के कारण जीव, जगत और ईश्वर को सत्य समझने लगता है।  लेकिन जब यह माया रूपी पर्दा हमारी आँखो से हट जाता है तो मनुष्य को ब्रह्मात्मैक्य स्वरुप का बोध होता है।  इन्हीं सब विषयों पर विगत 15  निबंधों में चर्चा चल रही है।  अब आज के स्वाध्याय में चार पादों में कथित उपरोक्त मंगला चरण  के प्रथम श्लोक को पुनः देखते हैं - 
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
 मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ 
पिछले निबन्ध 15 में हमने देखा था कि तीनों 'भोक्ताओं' के  (विश्व , तैजस और प्राज्ञ के ) भोग्य विषय भी अलग अलग प्रकार के होते हैं।  मङ्गलाचरण के दूसरे पद  में कहा जा रहा है - भुक्त्वा भोगान स्थविष्ठान।   इस पद में तीनों उपाधि से विशिष्ट जो "विश्व " नामक जीव  है , वो  जाग्रत अवस्था का भोक्ता है, और उसका भोग्य विषय बताया जा रहा है -  स्थविष्ठ भोग। 
       जो भोग्य विषय अत्यंत स्थूल हों उसे स्थविष्ठ कहा जाता है। बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य जो रूप-रस आदि विषय है -और उन रूप आदि विषयों के ग्रहण निमित्तक जो सुख -दुःख आदि का अनुभव। वह है स्थूलतम भोग।  और यह स्थूलतम विषयों का भोग जाग्रत अवस्था में ही होता है। और इस भोग का कर्ता है विश्व नामक जीव। वो भोक्ता है, इसलिए कहा -स्थविष्ठान भोगान भुक्त्वा। और इसका अन्वय जायेगा, स्वपिति के साथ। क्योंकि जाग्रत अवस्था के प्रारब्ध को भोगने के बाद वह जीव स्वपिति, याने सुषुप्ति अवस्था में चला जायेगा। जाग्रत अवस्था में स्थूल पदार्थों से सुखी-दुःखिता का अनुभव करते करते विश्व नामक जीव जब थक जाता है। या उस दिन के जाग्रत अवस्था का फल उपभोग करवाकर के, उस दिन का प्रारब्ध जब शान्त हो जाता है तो फिर -स्वपिति याने जीव सो जाता है
         तो फिर ऐसा एक वाक्य बनेगा - " स्थिरचरनिकर व्यापिभिर प्रज्ञानांशुप्रतानैः लोकान् व्याप्य स्थविष्ठान  भोगान भुक्त्वा स्वपिति। " ऐसा वाक्य बनाइये।  तो यहाँ जिसको प्रज्ञानांशुप्रतान कहा जा रहा है - उसमें प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ है जीव। और प्रज्ञान शब्द का अर्थ है ब्रह्म और अंशु शब्द का मुख्यार्थ होता है-  किरणें, रश्मियाँ। किन्तु , ब्रह्म कोई सूर्य , चन्द्रमा या दीप की तरह साअवयव नहीं है, अर्थात वस्तुतः रश्मि वाला नहीं है । किन्तु उपाधि (नाम-रूप) को लेकर के वह साअवयव के जैसा प्रतीत होता है। और उसके अंश की तरह, अंशु प्रतीत होते हैं - जीव।      
       तो  ब्रह्म (प्रज्ञान)  के अंशु याने किरण जैसे किरण हैं, वे प्रज्ञानांशु हैं जीव और उनका प्रतान याने विस्तार। याने वे जीव कितने प्रकार के हैं ? क्या वे एक ही प्रकार के हैं ? नहीं अनेक प्रकार के जीव होते हैं । ये हुआ प्रतान , जीवों का विस्तार। तो प्रज्ञानांशु-प्रतान कैसा है ? तो  84 लाख प्रकार के शरीरों के अवांतर दो भेद हैं - स्थावर और जंगम।  और उन स्थावर-जंगम समस्त शरीरों में व्याप्त होना ही जीवों का स्वभाव है-शील (चरित्र) है; ऐसे जो जीवों का प्रतान
             और उससे - "लोकान व्याप्य", अर्थात विषयों को व्याप्त करके। लोक शब्द का अर्थ है विषय -लोक्यमान अनुभूयमान, ये जो रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि 5 विषय हैं। लोक शब्द से श्रोत्र आदि बाह्य इन्द्रीओं के माध्यम से ग्राह्य जो शब्द आदि स्थूल विषय हैं , उनको ही बताया जा रहा है। जाग्रत अवस्था में श्रोत इन्द्रिय से ग्राह्य स्थूल शब्द , आँखों से ग्राह्य रूप , त्वक इन्द्रिय से ग्राह्य स्पर्श , ये सभी हैं लोक शब्दित। और इन लोकों में व्याप्य होना जीव का स्वभाव है । इसलिये वह इनको व्याप्त कर लेता है। इनके साथ सम्बन्ध कर लेता है। और इनके सम्बन्ध होने से उसको विषयों की अनुकूलता -प्रतिकूलता का ज्ञान होता है। उसके कारण ही फिर यह विश्व नामक जाग्रत अवस्था का जीव सुखी -दुखी होता रहता है। और विषयों की अनुकूलता -प्रतिकूलता को देखकर के सुखी -दुखी होना - यही है भोग भोगना। तो - स्थविष्ठान  भोगान भुक्त्वा ' अर्थ हुआ बाह्य इन्द्रियग्राह्य विषयों के ज्ञान से होने वाले सुख-दुःख का अनुभव करना।
             और सुखी-दुःखी होने का अनुभव कब तक करता है ? जब तक सुख-दुःख का निमित्तभूत उस दिन का  जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध, फल देने के लिए फलोन्मुख रहता है। फल देने के लिए उद्यत रहता है। तब तक तो वो सुखी दुखी होता रहता है। और वाह्य विषयों का ग्रहण करते करते , जैसे ही उस दिन के जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध जब शांत हो जाता है, भोग भुगवाकर समाप्त हो जाता है तब माना जाता है कि थक गया। फिर जब थक गया तो -स्वपिति , वो चला जाता है नींद में। 
         लेकिन यदि थक जाने के बाद भी यदि उसे आराम सोने न देने वाला प्रारब्ध अभी शेष ही हो , तो वो कौन सा प्रारब्ध है ? वह उस दिन के स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध है , वह फलोन्मुख हो जाता है। जब स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख होता है, तब बाह्य इन्द्रियों को तो शांत रखता है। और केवल मन को उद्भूत कर देता है, सोने नहीं देता। और जिन वासनामय विषयों के माध्यम से, अपना सुख-दुःखात्मक फल उसे भुगवाना है , वो प्रारब्ध ही उसके मन को उन वासनाओं से युक्त कर देता है। उन वासनाओं का उद्बोधक बन जाता है। उद्बोधक बनने का अर्थ है वासनाओं को प्रकट करने में निमित्त बनना। अर्थात स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध उन वासनाओं के उद्भव का निमित्त बन जाता है। 
          और फिर, उस प्रारब्ध के साथ साथ स्वरुप विषयक जो अज्ञान है , और वासना से उद्भूत ये जो अनेक स्वप्न पदार्थ हैं , उनमें से एक कार्य-करण संघात (देह) विशेष में आत्म -अभिमान कर लेता है। (कभी अपने को तितली समझने लगता है ?)  ये जो अहं-अध्यास है, वो भी अविद्या कहलाती है। और स्वप्नस्थ बाकी वासनामय पदार्थों में मम-अध्यास।  (जैसे तितली के लिए फूलों में मम -अध्यास ?) ये भी अविद्या कहलाती है । लेकिन यह अविद्या जो ममास्पद है ,उसे ये मेरे पदार्थ (फूल) हैं - इस रूप में प्रतीत हो रहे हैं। जिनको वह ममास्पद समझता है, उनमें से भी कुछ अनुकूल कुछ प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। जो अनुकूल प्रतीत होते हैं , उनके संयोग से सुख और वियोग से दुःख का अनुभव होता है। 
       जैसे जाग्रत में सुख दुःख का अनुभव करता है ,वैसे ही वह स्वप्न में भी अनुभव करता है। लेकिन वहां बाह्य इन्द्रियां नहीं हैं, क्योंकि जाग्रत अवस्था के स्थूल भोग्य विषय आदि नहीं हैं। वासनामय ही विषय हैं, वासनामय ही इन्द्रियाँ हैं, वासनामय ही शरीर है । और उन वासनामय स्वप्न पदार्थों का वासनामय कार्य-करण संघात से (तितली देह से ?) अनुभव करता है। 
           स्वप्नावस्था में जो अनुभूयमान विषय हैं वे मात्र वासनात्मक होने से, उन्हें सूक्ष्म कहा जा रहा है। इस बात को लिखा है- "पुनरपि धीषणो उद्भासितान काम जन्यान् - 'भुक्त्वा' और 'भोगान' इन दो पदों का इधर भी अन्वय करना। 'भोगान' जाग्रत अवस्था के भोग का पहले विशेषण था का 'स्थविष्ठान'। और यहाँ स्वप्न अवस्था के भोगों का विशेषण है -धीषणो उद्भासितान काम जन्यान् भोगान भुक्त्वा।' 
          और पुनरपि - इसमें पुनः शब्द का अर्थ है, जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध शांत होने पर। पुनः शब्द का अर्थ है, शान्त होने के बाद। और अपि शब्द बताता है , स्वप्नावस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख होने पर। जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध तो फल उपभोग कराकर शांत हुआ।  और उस दिन के स्वप्नावस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख हुआ। ये अपि शब्द बताएगा।
       ऐसी अवस्था में - जो 'धीषणो उद्भासित ' विषय हैं ,  भोग हैं। धीषणा शब्द का अर्थ होता है बुद्धि। बुद्धि याने पूरा अन्तःकरण , मन। 'धीषणो उद्भासित ' याने बुद्धि से उद्भासित जो भोग है। तो धीषणा शब्द से लेंगे वासनायुक्त बुद्धि। स्वप्न प्रारब्ध के द्वारा जो उद्बोधित वासनायें हैं, संस्कार हैं , उन संस्कारों से युक्त बुद्धि या संस्कारित बुद्धि - वो हुई धीषणा। और उससे उद्भासित -याने उस वासना से भासित होने वाले स्वप्न के वासनामय पदार्थ।  ये अर्थ निकलेगा -धीषणो उद्भासितान का। 
          और प्रारब्ध के आलावा स्वप्न अवस्था का  एक निमित्त और है , वह दूसरा निमित्त है कामान - काम जन्यान्। और अविद्या का ही एक उपलक्षण है काम ! और अविद्या का अर्थ है - अहं अध्यास , मम अध्यास। जो वासनामय कार्य-करण  संघात है उसमें और कार्य-करण सम्बन्धी में अहं-मम अध्यास।  और फिर स्वप्न में भी कामनायें होती हैं न ? वो कामनायें। काम शब्द के ये दो अर्थ निकलते हैं।
        स्वप्नस्थ इच्छाएं और स्वप्न में होने वाले वासनामय पदार्थों में मम अध्यास , और स्वप्न के वासनामय शरीर में अहं अध्यास। अविद्या का भी उपलक्षण होने से काम शब्द का ये अर्थ निकलेगा। उनसे जन्य --- याने उनसे अभिव्यक्त , उनसे प्रतीत होने वाले जो स्वप्न के भोग हैं , याने सुख दुःख के अनुभव हैं। फिर  फल उपभोग करा करके स्वप्न का प्रारब्ध भी जब शांत हो जाता है , तब स्वपिति **। वो सो जाता है
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 {** एकपुत्र - न्यायः 
" एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । 
सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति रासभी॥
शेरनी का एक पुत्र हो तो (भी) वह निर्भयता से सो जाती है; पर दस दस पुत्र होने पर भी गदर्भी (गधी) भार ही उठाती है ।  
(दुर्गुणवतां शतपुत्राणाम् अपेक्षया सुगुणः एकः एव पुत्रः वरम् । संख्यामात्रेण कस्यापि स्वीकार्यता निश्चिता न भवति । गुणानाम् एव महत्त्वं भवति । तथा गुणवन्तः अल्पसंख्यया भवन्ति चेदपि न हानिः । एतस्मिन् अर्थे अस्य न्यायस्य प्रयोगः भवति । }
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Mandukya Upanishad 0.20 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर
 तीनों उपाधि से विशिष्ट जो विश्व नामक जाग्रत अवस्था का भोक्ता जीव है ......उसका भोग्य बताया गया स्थविष्ठ भोग। हमलोगों ने दूसरे पद 'भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान्' में सुना था भुक्त्वा भोगान स्थविष्टान। जो अत्यंत स्थूल हो उसे स्थविष्ट कहा जाता है। बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य जो रूप आदि विषय है -और उन विषयों के अनुभव निमित्तक जो सुख -दुःख आदि का अनुभव। वह है स्थूलतम अनुभव जो जाग्रत अवस्था में होता है। और इस भोग का कर्ता है विश्व नामक जीव। वो भोक्ता है -इसलिए कहा -स्थविष्टान भोगान भुक्त्वा। जाग्रत अवस्था का जीव (विश्व) जब सुखी-दुःखिता का अनुभव करते करते थक जाता है , सुख-सुख के अनुभव से  उस दिन के जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध जब क्षय हो जाता है। उस दिन का फल उपभोग करवाकर के उस दिन का प्रारब्ध शान्त हो जाता है तो फिर -स्वपिति याने सो जाता है। (पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो) तो फिर एक ऐसा वाक्य बनेगा - प्रज्ञान शब्द का अर्थ है ब्रह्म , और उसका अंशु। अंशु का मुख्यार्थ है किरणें, रश्मियाँ। और ब्रह्म सूर्य , चन्द्रमा या दीप की तरह सा-अवयव नहीं है, अर्थात वस्तुतः रश्मि वाला नहीं है । किन्तु उपाधि (नाम-रूप) को लेकर के वह सा-अवयव सा प्रतीत होता है।  [ब्रह्म ही मनुष्य की उपाधि को लेकर तीन अवयवों -शरीर, मन और हृदय (3-H) से युक्त प्रतीत होता है।] और उसके अंश जीव के रूपों में प्रतीत होते हैं। प्रज्ञान के अंशु हैं जीव और उनका प्रतान याने विस्तार कैसा है ? 84 लाख प्रकार के शरीरों के अवांतर दो भेद हैं - स्थावर और जंगम। और उन स्थावर-जंगम सभी शरीरों में व्याप्त होना जिनका स्वभाव है -शील (चरित्र) है; ऐसे जो जीवों का प्रतान। उससे लोकान व्याप्य। से कहा जा रहा है - विषयों को व्याप्त करके। लोक शब्द का अर्थ है विषय -लोक्यमान अनुभूयमान ! ( जगत्‌ की अनुभूयमान स्थिति ) अर्थात श्रोत्र आदि बाह्य इन्द्रीओं के शब्द आदि विषय। जाग्रत अवस्था में बाह्य इन्द्रियों के माध्यम से गृह्यमान स्थूल पाँचों विषय। आँखों से ग्राह्य रूप , त्वक इन्द्रिय से ग्राह्य स्पर्श , ये सभी लोक शब्द से बताया गया है। इनको व्याप्त कर लेता है। इनके साथ सम्बन्ध कर लेता है , उससे इनके अनुकूलता -प्रतिकूलता का ज्ञान होता है। उससे फिर विश्व नामक जाग्रत अवस्था का जीव सुखी -दुखी होता है। और यही है भोग भोगना। तो - स्थविष्टान भोगान भुक्त्वा ' अर्थ हुआ बाह्य इन्द्रियग्राह्य विषयों के ज्ञान से होने वाले सुख-दुःख का अनुभव करना। यह कब तक करता है ? जबतक उस दिन का जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख रहता है। और वाह्य विषयों के सुख-दुःख के अनुभव करते करते उस दिन के जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध जब भोग भुगवाकर समाप्त हो जाता है ,शांत हो जाता है ; तब माना जाता है कि थक गया। तो थक करके -स्वपिति , वो चला जाता है नींद में। फिर यदि उसे आराम सोने न देने वाला प्रारब्ध यदि शेष है , वो कौन सा प्रारब्ध ? उस दिन के स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध फिर फलोन्मुख हो जाता है , तो बाह्य इन्द्रियों को तो शांत रखता है। और केवल मन को उद्भूत कर देता है, सोने नहीं देता। और वो प्रारब्ध ही जिन वासनामय विषयों के माध्यम से अपना सुख-दुःख जितना भुगवाना है , मन को उन वासनाओं से युक्त कर देता है। उन वासनाओं का उद्बोधक बन जाता है। अर्थात स्वप्न अवस्था का प्रारब्ध उन वासनाओं को प्रकट करने में निमित्त बन जाता है। फिर स्वरुप विषयक अज्ञान वश स्वप्न पदार्थों में आत्म -अभिमान कर लेता है। ये अहं-अध्यास , वो भी अविद्या कहलाती है। और स्वप्न विषयक पदार्थों में मम-अध्यास। यह अविद्या ममास्पद है , ये मेरे पदार्थ हैं इस रूप में प्रतीत हो रहे हैं। उनमें से भी कुछ अनुकूल कुछ प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। जो अनुकूल प्रतीत होते हैं , उनके संयोग से सुख और वियोग से दुःख का अनुभव होता है। जैसे जाग्रत में सुख दुःख का अनुभव करता है ,वैसे स्वप्न में भी करता है। लेकिन वहां बाह्य इन्द्रियां नहीं हैं, क्योंकि जाग्रत अवस्था के स्थूल भोग्य विषय आदि नहीं हैं। वासनामय ही विषय हैं, वासनामय ही इन्द्रियाँ हैं, वासनामय ही शरीर है । वासनामय पदार्थों का अनुभव करता है। स्वप्नावस्था में जो अनुभूयमान विषय हैं वे मात्र वासनात्मक होने से उन्हें सूक्ष्म कहा जा रहा है। इस बात को लिखा है- पुनरपि धीषणो उद्भासितान काम जन्यान् भोगान भुक्त्वा । और पुनरपि - इसमें पुनः शब्द का अर्थ है, जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध शांत होने पर। और अपि शब्द का अर्थ है , स्वप्नावस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख होने पर। जाग्रत अवस्था का प्रारब्ध तो फल उपभोग कराकर शांत हुआ , और उस दिन के स्वप्नावस्था का प्रारब्ध फलोन्मुख हुआ। ये अपि शब्द बताएगा। ऐसी अवस्था में जो 'धीषणो उद्भासित ' भोग हैं। धीषणा शब्द का अर्थ होता है बुद्धि। बुद्धि याने पूरा अन्तःकरण , मन। 'धीषणो उद्भासित ' याने बुद्धि से उद्भासित जो भोग है। तो धीषणा शब्द से लेंगे वासनायुक्त बुद्धि। स्वप्न प्रारब्ध के द्वारा जो उद्बोधित वासनायें हैं, संस्कार हैं , उन संस्कारों से युक्त बुद्धि या संस्कारित बुद्धि - वो हुई धीषणा और उससे उद्भासित -याने उस वासना से भासित होने वाले स्वप्न के वासनामय पदार्थ।  ये अर्थ निकलेगा -धीषणो उद्भासितान का। और प्रारब्ध के आलावा उसका एक निमित्त और है , वह है कामान - काम जन्यान्और अविद्या का ही एक उपलक्षण है काम ! और अविद्या का अर्थ है - अहं अध्यास , मम अध्यास। जो वासनामय कार्यक्रम संघात है उसमें और कार्यक्रम सम्बन्धी में अहं-मम अध्यास।  और फिर स्वप्न में भी कामनायें होती हैं न ? वो कामनायें। काम शब्द के ये दो अर्थ निकलते हैं। स्वप्नस्थ इच्छाएं और स्वप्न में होने वाले पदार्थों में मम अध्यास , और स्वप्न के वासनामय शरीर में अहं अध्यास। अविद्या का भी उपलक्षण होने से काम शब्द का ये अर्थ निकलेगा। उनसे जन्य याने उनसे अभिव्यक्त , उनसे प्रतीत होने वाले जो स्वप्न के भोग हैं , याने सुख दुःख के अनुभव हैं। फिर जब फल उपभोग करा करके स्वप्न का प्रारब्ध भी शांत हो जाता है , तब स्वपिति। वो सो जाता है। जीव विश्व नाम वाला हो करके जाग्रत का भोग करता है , उस समय तीन उपाधि वाला है -स्थूल कार्य उपाधिक स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर अर्थात अविद्या । 
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17.* "स्वामी विवेकानन्द का प्रायौगिक व्यावहारिक वेदान्त (Applied Practical Vedanta) "('Be and Make' - 'मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन' तथा माण्डूक्य उपनिषद)
Mandukya Upanishad 0.21 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर/

     पिछले निबन्ध 16 में हमने जीव की तीन अवस्थाओं पर चर्चा की थी। अब टीकाकार आगे बता रहे हैं कि जीव जब 'विश्व' - नाम वाला हो करके जाग्रत का भोग करता है , उस समय तीन उपाधि वाला है -स्थूल कार्य उपाधिक स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर अर्थात अविद्या । 
    और वही जीव जब  स्थूल शरीर और बाह्य इन्द्रियों के साथ अपने तादात्म्य को छोड़ देता है, तब केवल दो उपाधि से युक्त रहता है - पहला अन्तःकरण और दूसरा अविद्या - जब केवल इन दो उपाधियों से युक्त हो जाता है, तो दो उपाधि वाला  'तैजस' नाम वाला कहलाता है। तब वही जीव वह स्वप्न अवस्था का भोक्ता बन जाता है। उस स्वप्न अवस्था के भोक्ता रूप तैजस का नाम तभी तक 'तैजस' रहता है , जब तक वह अन्तःकरण (Mind) की उपाधि को स्वीकार किया हुआ है। और अन्तःकरण की उपाधि से तैजस नामक जीव कब तक तादात्म्य स्वीकार किये हुए रहता है ? जब तक वह स्वप्न अवस्था में उस दिन का फल प्रदान कराने वाला प्रारब्ध, अपना फल भोगवाने के लिए उद्बुद्ध रहता है। तभी तक उसकी उपाधि -अन्तःकरण, उसके साथ रहती है। उस वासना से युक्त अन्तःकरण-विशेष का जो कार्य-करण संघात है , उसमें अहं अभिमान रहता है।
      लेकिन बाद में जब स्वप्न का प्रारब्ध शान्त हो जाता है , तब उसमें से भी अहं-अभिमान छूट जाता है। तब उसका उस वासनामय शरीर में अहं अभिमान, या अहं-अध्यास भी नहीं रहेगा ,और स्वप्न के पदार्थों में मम -अध्यास भी नहीं रहेगा। तो फिर वो स्वपिति में चला जायेगा। स्वपिति में जाने का अर्थ है, कि उस समय तैजस ने अन्तःकरण रूप उपाधि (Mind के साथ तादात्म्य) को भी छोड़ दिया। अन्तःकरण उपाधि को छोड़ने का अर्थ है - अन्तःकरण जो विशेष वासनाओं से युक्त था न, वह अविद्या भी छूट गयी।  उन वासनामय कार्य-करण संघात रूप दोनों उपाधि को छोड़ दिया। 
           लेकिन सुषुप्ति में भी अन्तःकरण तो रहेगा ही। यह अन्तःकरण (मन) तो तीनों अवस्थाओं में रहेगा, जाग्रत में भी , स्वप्न में भी और सुषुप्ति में भी । जाग्रत अवस्था में उस अन्तःकरण के साथ बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने में सहयोगी- बाह्य इन्द्रियाँ भी होती हैं। उस समय बाह्य - इन्द्रियों के सहयोग से सव्यापार मन ही जाग्रत अवस्था के विषयों का अनुभव करता है। इसलिए जाग्रत अवस्था में अन्तःकरण या मन तो होता ही है। 
      और स्वप्न अवस्था में क्या होता है ? वहाँ बाह्य इन्द्रियाँ नहीं हैं ,इसलिए बाह्य जाग्रत के भोग भी नहीं हैं। स्वप्न में विषय भी वासनामय होते हैं और उन विषयों का अनुभविता कार्य-करण संघात भी वासनामय  है, लेकिन उस कार्य-करण संघात में जिस जीव का अभिमान रहता है - वो तैजस है। और स्वप्न अवस्था के भोग में निमित्तभूत प्रारब्ध (destiny-भाग्य) के फलोन्मुख होने से मन में जो वासनाएं हैं, वे अभिव्यक्त होने लगती हैं। तब तैजस नामक जीव स्वप्न के प्रारब्ध का भोक्ता होता है।  
        परन्तु जैसे ही उस दिन के स्वप्न का प्रारब्ध शांत होगा , उस समय वो सारी वासनाएं भी शांत हो जाएँगी।  कोई भी उद्भूत वासना मन में नहीं रहेगी। स्वप्नावस्था में मन का जो व्यापार था , वासनात्मक ही था न ? जब वह व्यापार भी शांत हो गया ,क्योंकि व्यापार का निमित्त जो उस दिन का जो प्रारब्ध था वो शांत हुआ। इसलिये अब कोई वासनात्मक व्यापार भी नहीं रहेगा। और निर्व्यापार होने से अन्तःकरण या मन सुषुप्ति (Deep Sleep) में चला जायेगा
      किन्तु जो मुर्दा (Dead Body) होता है - उसमें वह निर्व्यापार मन भी नहीं रहेगा। मृत शरीर या मुर्दा  में अहम् अभिमान नहीं होता, अर्थात अन्तःकरण या मन नहीं होता।  परन्तु सुषुप्ति अवस्था में मन रहता है, क्योंकि चिदाभास याने शुद्ध चैतन्य (pure  consciousness) का प्रतिबिम्ब  अन्तःकरण में या मन (reflected consciousness) में ही पड़ता है। जो समस्त जगत का अधिष्ठान भूत सामान्य चेतन या जो ब्रह्म है, वह सर्वव्यापक होने के कारण मुर्दे में या शव में भी है या नहीं ? तो अधिष्ठान रूप सामान्य चेतन या ब्रह्म तो उस मुर्दे में भी है, लेकिन चिदाभास (अहं अभिमान या मन) नहीं है। जहाँ पर अन्तःकरण रूप उपाधि रहेगी, वहीँ पर चिदाभास रहता है। वही व्यावहारिक चेतन कहलाता है। 
      लेकिन मुर्दे में से अन्तःकरण निकल जाता है। तभी वह देह मृत देह हो जाता है। सुषुप्ति में पड़े किसी देह को कोई मृत या मुर्दा (Lifeless Body) कहता है क्या ? नहीं कहता है ; कहते हैं कोई सो रहा है। देह मृत नहीं है और चेतना (consciousness) है। और चेतना (consciousness) तो बिना अन्तःकरण के नहीं होती। इसलिए मानना पड़ेगा कि सुषुप्ति में भी अन्तःकरण होता है। इसलिए गहरी नींद से उठने पर कहता है, आज मैं अच्छी नींद सोया।  
          जब तीनों ही अवस्था में अन्तःकरण होता है। तो फिर बाकी दो अवस्थाओं की अपेक्षा सुषुप्ति की क्या विशेषता मानी जाएगी ? उसे अलग कैसे किया जायेगा ? सुषुप्ति को स्वप्न और जाग्रत अवस्था से अलग कैसे माना जायेगा ? विशेषता इतनी ही है कि , स्वप्न का मन उद्भूत वासनाओं से युक्त मन है , सव्यापार मन , और जाग्रत अवस्था में भी सव्यापार मन है। लेकिन जाग्रत अवस्था में बाह्य इन्द्रिय समूह भी उस मन के सहयोगी बन जाते हैं। वह बाह्य इन्द्रिय समूह सहयोग -निरपेक्ष अकेला मन ही  स्वप्न में सव्यापार रहता है। और बिल्कुल अपना व्यापार भी नहीं रहता मन का , सुषुप्ति में अन्तःकरण बिल्कुल निर्व्यापार रहता है। और उस निर्व्यापार मन में जो चिदाभास होता है , वो सामान्य चिदाभास है। उस सामान्य चिदाभास का नाम है -प्राज्ञ। वो प्राज्ञ है। 

        सुषुप्ति में मन की जो मात्र सामान्य अहं वृत्ति रहेगी उसका आलंबन कौन होगा ? वो होगा कारण शरीर अविद्या (अज्ञान) ! तो उस सुषुप्ति की अवस्था में जो अहं-वृत्ति रहती है , वह अविद्या को आलंबन बनाकर रहती है। और स्वप्न में अहं-वृत्ति वासनामय कार्य-करण संघात (सूक्ष्म शरीर) को आलंबन बनाकर रहती है। और जाग्रत अवस्था में (अर्थात जीवित अवस्था में) अहंवृत्ति (मन या अन्तःकरण)  व्यावहारिक सत्ता वाला जो कार्य-करण संघात या स्थूल शरीर है , उसे आलंबन बनाकर स्थित होती है। 

        और तुरीय अवस्था में भी अहम् अभिमान  (अन्तःकरण या मन) रहता है , परन्तु उस समय अहं का आलंबन कौन होगा ? वो होगा -अहं ब्रह्मास्मि ! वहां, तुरीय अवस्था में अविद्या और माया ये कोई उपाधि नहीं रहेगी। निरुपाधिक ब्रह्म को ही तुरीय कहते हैं न ? यदि हमारी अहं-वृत्ति का आलंबन वो "अहं ब्रह्मास्मि!" (ब्रह्माकारा वृत्ति) बन गया तो हम हैं -असंसारी ! वहाँ कोई संसार नहीं होगा ; संसार का बीज (कामना) भी नहीं होगा। 

      और सुषुप्ति अवस्था में जब अविद्या अहंवृत्ति का आलम्बन बनेगी , तो संसार के बीज को अर्थात कारण (कामना) को आलम्बन बना रही है। इसलिए सुषुप्ति के समय - 'प्राज्ञ ' नामक जीव साक्षात् संसारी तो नहीं है , लेकिन उस समय भी 'प्राज्ञ' संसार के निमित्त (कारण) से अवश्य युक्त रहता है! प्राज्ञ ने भी कारण उपाधि को धारण किया है न , कारण किसका ? कार्य का ! और स्वप्न में जो संसार है , और जाग्रत में भी जो संसार है, वो कार्य रूप है। 
       { " दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत। सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी।। ":  यदि दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर , स्वप्न और जाग्रत के संसार को ब्रह्ममय देखने का प्रशिक्षण हमलोगों ने प्राप्त नहीं किया (अर्थात 'Be and Make' लीडरशिप प्रशिक्षण-परम्परा में 'मनःसंयोग का अभ्यास' करने का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया) तो, अहम् वृत्ति (मन या अन्तःकरण) की प्रवृत्ति कार्य रूप संसार के स्थूल और सूक्ष्म विषयों के भोग में आसक्त बनी रहेगी। जब तक अहं या मन संसार में आसक्त रहेगा , तो उसे संसार के खो जाने का भय (मृत्यु का भय ?) भी होगा। जगत में रहो तो ऐसे रहो जैसे जल में कमल का फूल रहता है। और जब ऐसा चरित्र-कमल खिल जाता है, जीवन गठित हो जाता है , तब भौंरे स्वतः चले आते हैं। }            

        तो ये कहा कि- पुनरपि धीषणो उद्भासितान काम जन्यान् भोगान भुक्त्वा । फिर स्वपिति - अर्थात जब स्वप्न अवस्था का भी प्रारब्ध शांत हो जाता है , तब सो जाता है। तो जब सो जाता है , उस समय क्या होता है ? तो सो जाने का अर्थ होता है  ... सर्वान् विशेषान् पीत्वा, स्वपिति ! तो सर्वान् विशेषान् -- इसमें विशेष शब्द का अर्थ है - अवस्था (Position) भेद।           
          अब , " माण्डूक्य उपनिषद , माण्डूक्य कारिका , तथा उनपर भगवान भाष्यकार द्वारा लिखित शंकर भाष्य तथा उन पर आनंदगिरि जी द्वारा लिखित संस्कृत टीका को आचार्य स्वामी विश्वात्मानन्द जी की हिन्दी व्याख्या के आलोक में समझने से, मेरे जैसे मन्दबुद्धि व्यक्ति के समक्ष भी (एथेन्स का सत्यार्थी के समक्ष भी) यह रहस्य उद्घाटित हो जाता है कि, आत्मा (ब्रह्म या ॐ) की  इन चारो अवस्थाओं में से ]  यह विश्व त्रिआयामी है, किन्तु आत्मा चतुष्पाद है ! {This world is three Dimensional, but the Soul is a Quadruped!}
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Mandukya Upanishad 0.21 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर
 जीव विश्व नाम वाला हो करके जाग्रत का भोग करता है , उस समय तीन उपाधि वाला है -स्थूल कार्य उपाधिक स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर अर्थात अविद्या । और स्थूल शरीर और बाह्य इन्द्रियों के साथ अपने तादात्म्य को जब छोड़ देता है, तब केवल अन्तःकरण और अविद्या- इन दो उपाधियों से युक्त हो जाता है, तो तैजस कहलाता है। और तैजस नाम वाला जीव स्वप्न अवस्था का भोक्ता बन जाता है। किन्तु उसका तैजस नाम तभी तक रहता है , जब तक वह अन्तःकरण की उपाधि को स्वीकार किया हुआ है। और अन्तःकरण की उपाधि से तैजस नामक जीव कब तक तादात्म्य स्वीकार किये हुए रहता है ? जब तक स्वप्न अवस्था में उस दिन का फल प्रदान कराने वाला प्रारब्ध, अपना फल भोगवाने के लिए उद्बुद्ध रहता है। तभी तक उसकी उपाधि -अन्तःकरण, उसके साथ रहती है। उस वासना से युक्त अन्तःकरण-विशेष का जो कार्य-करण संघात है , उसमें अहं अभिमान रहता है। बाद में जब स्वप्न का प्रारब्ध शान्त हो जाता है ,तब तब उसमें से भी अहं-अभिमान छूट जाता है। तब उसका अहं अभिमान उस वासनामय शरीर में भी नहीं रहेगा ,और स्वप्न के पदार्थों में मम -अध्यास भी नहीं रहेगा। तो फिर वो स्वपिति में चला जायेगा। स्वपिति का अर्थ है, उस समय तैजस ने अन्तःकरण रूप उपाधि को भी छोड़ दिया। अर्थात विशेष वासनामय कार्य-करण संघात रूप अन्तःकरण था , उससे अपने तादात्म्य को छोड़ दिया। लेकिन सुषुप्ति में भी अन्तःकरण रहता हैअन्तःकरण तीनों अवस्थाओं में रहेगा , जाग्रत में भी , स्वप्न में भी और सुषुप्ति में भी ।  
       जाग्रत अवस्था में उस अन्तःकरण के साथ बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने में सहयोगी- बाह्य इन्द्रियाँ भी होती हैं। उस समय मन ही सव्यापार इन्द्रियों के सहयोग से जाग्रत अवस्था के विषयों का अनुभव करता है। और स्वप्न अवस्था में बाह्य इन्द्रियाँ नहीं हैं ,इसलिए बाह्य जाग्रत के भोग भी नहीं हैं। स्वप्न में वासनामय ही विषय हैं , और उन वासनामय विषयों का अनुभविता कार्य-करण संघात भी है, और उस कार्य-करण संघात में जिस जीव का अभिमान रहता है - वो तैजस है। वो जो वासनाएं हैं स्वप्न अवस्था के भोग में निमित्तभूत प्रारब्ध से मन में अभिव्यक्त होती हैं। जैसे ही प्रारब्ध शांत होगा , उस समय वो सारी वासनाएं भी शांत हो जाएँगी। कोई भी उद्भूत वासना मन में नहीं रहेगी। स्वप्नावस्था में मन का व्यापार वासनात्मक ही रहता है। जब वह व्यापार भी शांत हो गया ,क्योंकि व्यापार का निमित्त उस दिन का जो प्रारब्ध था वो शांत हुआ। और निर्व्यापार मन सुषुप्ति (Deep Sleep) में चला जायेगा। 
     Dead Body: किन्तु जो मृत शरीर या मुर्दा होता है - उसमें वह निर्व्यापार (निष्क्रिय) मन भी नहीं रहेगा। सुषुप्ति मन रहेगा , क्योंकि चिदाभास याने शुद्ध चैतन्य (pure  consciousness) का प्रतिबिम्ब (reflected consciousness) अन्तःकरण में या मन में ही पड़ता है।
 चिदाभास स्थूल-सूक्ष्म-शरीर के महत्तत्व या अंत:करण में परिलक्षित होने वाला चैतन्य अहंकार है। अद्वैत-वादियों के मत से महततत्त्व या अंत:करण में ब्रह्म का आभास पड़ने से ही ज्ञान होता है । माया के संयोग से यह ज्ञान अनेक रूप विशिष्ट दिखाई पड़ता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार स्फटिक पर जिस रंग की आभा पड़ती है, वह उसी रंग का दिखाई पड़ता है । उपाधियुक्त ब्रह्म जीवात्मा है । ब्रह्म  जो कि एक है,  निराकार है, असंग है, अनन्त है।  परन्तु अज्ञान के फल से जब उपरोक्त कथित सर्व-विभू: ब्रह्म को, अहंकार से अलंकृत किसी स्थूल-सूक्ष्म-शरीर विशेष के गुण-धर्मों के साथ जोडा जाता है, तब जीवात्मा शब्द का प्रादुर्भाव होता है । शास्त्रों में जिस अहं -अभिमान की परिभाषा उपरोक्त वर्णित है, उस  अहंकार को ही चिदाभास शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है ।] 
    चेतन जो अधिष्ठान भूत सामान्य ब्रह्म है , वह सर्वव्यापक होने के कारण मुर्दे में या शव में (Dead Body में ) भी है या नहीं ? इसलिए मुर्दे का अधिष्ठान भी ब्रह्म है। इसलिए चेतन या ब्रह्म तो उस मुर्दे में भी है, लेकिन चिदाभास (अहं अभिमान) नहीं है। जहाँ पर अन्तःकरण रूप उपाधि रहेगी, वहीँ पर चिदाभास रहता है। वही व्यावहारिक चेतन कहलाता है। लेकिन मुर्दे में से अन्तःकरण निकल जाता है। तभी वह देह मृत देह हो जाता है। सुषुप्ति अवस्था में देह को मृत नहीं कहते हैं, कहते हैं कोई सो रहा है। देह मृत नहीं है और चेतना (consciousness) है। और चेतना (consciousness) तो बिना अन्तःकरण के नहीं होती। इसलिए मानना पड़ेगा कि सुषुप्ति में भी अन्तःकरण होता है। तो तीनों अवस्था में अन्तःकरण है। तो फिर बाकि दो अवस्थाओं की अपेक्षा सुषुप्ति की क्या विशेषता मानी जाएगी ? उसे स्वप्न और जाग्रत से अलग कैसे किया जायेगा ? स्वप्न का मन उद्भूत वासनाओं से युक्त मन है , सव्यापार मन (सक्रिय-मन है), और जाग्रत अवस्था में भी सव्यापार मन है। और जाग्रत अवस्था में बाह्य इन्द्रिय समूह भी उसका सहयोगी हो जाता है। स्वप्न में बाह्य इन्द्रिय समूह निरपेक्ष अकेला मन ही सक्रीय रहता है। और सुषुप्ति में मन बिल्कुल निर्व्यापार निष्क्रिय रहता है। और उस निष्क्रिय मन में जो चिदाभास होता है , वो सामान्य चिदाभास है। उस सामान्य चिदाभास का नाम है -प्राज्ञ। वहां पर मन की जो सामान्य अहं वृत्ति रहेगी उसका आलंबन कौन होगा ? वो होगा कारण शरीर अविद्या (अज्ञान) ! तो उस समय जो अहं-वृत्ति रहती है , वह अविद्या को आलंबन बनाकर रहती है। और स्वप्न में अहं-वृत्ति वासनामय कार्य-करण संघात (सूक्ष्म शरीर) को आलंबन बनाकर रहती है। और जाग्रत अवस्था में व्यावहारिक सत्ता वाला जो कार्य-करण संघात है , स्थूल शरीर में स्थित होती है अहंवृत्ति। और तुरीय अवस्था में भी अहं रहता है , उस समय अहं का आलंबन कौन होगा ? --वो होगा -अहं ब्रह्मास्मि !8.16/ 
         वहां अविद्या और माया ये कोई उपाधि नहीं रहेगी। निरुपाधिक ब्रह्म को ही तुरीय कहते हैं न ? यदि हमारी अहं-वृत्ति का वो आलंबन बन गया तो हम हैं -असंसारी ! वहाँ कोई संसार नहीं होगा ; संसार का बीज भी नहीं होगा। और जब सुषुप्ति अवस्था में अविद्या अहंवृत्ति का आलम्बन बनेगी , तो संसार के बीज को अर्थात कारण को आलम्बन बना रही है ,इसलिए उस समय - 'प्राज्ञ ' नामक जीव साक्षात् संसारी तो नहीं है , लेकिन संसार के निमित्त से युक्त रहता है ! कारण उपाधि है न , कारण किसका ? कार्य का ! और स्वप्न में संसार है , और जाग्रत में भी संसार है, वो कार्य रूप है। तो ये कहा कि-पुनरपि धीषणो उद्भासितान काम जन्यान् भोगान भुक्त्वा । फिर स्वपिति - अर्थात जब स्वप्न अवस्था का भी प्रारब्ध शांत हो जाता है , तब सो जाता है। तो जब सो जाता है , उस समय क्या होता है ? तो सो जाने का अर्थ होता है  ..सर्वान् विशेषान् पीत्वा, स्वपिति ! इसमें विशेष शब्द का अर्थ है -भेद।  
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18.* " कारण अवस्था भी अद्वैत अवस्था ही है !" 
"सुषुप्ति के 'मधुरभुक' की तीन अवस्थाएं हैं - प्राज्ञ , तैजस और वैश्वानर !"
(Mandukya Upanishad 0.22 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर/)
            माण्डूक्य उपनिषद , माण्डूक्य कारिका , तथा उनपर भगवान भाष्यकार द्वारा लिखित शंकर भाष्य तथा उन पर आनंदगिरि जी द्वारा लिखित संस्कृत टीका को आचार्य स्वामी विश्वात्मानन्द जी की हिन्दी व्याख्या के आलोक में समझने से, मन्दबुद्धि व्यक्ति के समक्ष भी (एथेन्स का सत्यार्थी के समक्ष भी) यह रहस्य उद्घाटित हो जाता है कि, आत्मा (ब्रह्म या ॐ) की  इन चारो अवस्थाओं में से यह जगत तीन अवस्थाओं वाला है , याने त्रिआयामी (three Dimensionalहै, किन्तु आत्मा या ब्रह्म चतुष्पाद (Quadruped) है ! और  सभी नाम-रूप तीन अवस्थाओं वाले होने से परिवर्तनशील हैं , इसलिये मिथ्या याने नाशवान हैं।  
        दिक् (Space, आकाश, देश =खाली जगह )*** जगह के उस विस्तार या फैलाव को कहते हैं जिसमें वस्तुओं का अस्तित्व होता है और घटनाएँ घटती हैं। मनुष्यों की साधारण दृष्टि  से दिक् (space) के तीन पहलू होते हैं, जिन्हें आयाम या डायमॅनशन भी कहते हैं - लम्बाई, चौड़ाई और गहराई  (या ऊपर-नीचे, आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ) । 
जगत को त्रिआयामी (three dimensional) कहते हैं। ऐसे तीन पहलूओं वाली (या "त्रिआयामी") दिक् में मौजूद किन्ही दो वस्तुओं की एक-दुसरे से आपेक्षिक स्थिति (Relative position) इन तीन पहलूओं के पर बताई जा सकती है। इन तीन पहलूओं के पर हम कह सकते हैं कि - " पहली वस्तु , दूसरी वस्तु से १० मीटर ऊपर है , ४ मीटर आगे और ६ मीटर दाएँ पर स्थित है। "  
       इसी तरह से द्विआयामी (दो पहलूओं वाले) दिक् में सिर्फ़ दो आयामों से दो वस्तुओं की एक-दुसरे से आपेक्षिक स्थिति का पता लगता है। भौगोलिक नक़्शों में इन आयामों (पहलूओं) को उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम का नाम दिया जाता है। किसी नक़्शे में दो वस्तुओं (या जगहों) को देखकर कहा जा सकता है के नक़्शे के द्विआयामी दिक् में पहला शहर दुसरे शहर से १०० किमी उत्तर और २०० किमी पूर्व में स्थित है।
          ठीक इसी तरह एक-आयामी दिक् भी एक लक़ीर या रेखा की सूरत में देखी जा सकती है। किसी भी रेखा पर स्थित दो बिन्दुओं की आपेक्षिक स्थिति बताने के लिए सिर्फ़ एक ही पहलू बताना काफ़ी है। उदाहरण से हम कह सकते हैं कि - "किसी लक़ीर पर स्थित एक लाल बिंदु किसी दुसरे नीले बिंदु से १० सेंटीमीटर बाएँ पर मौजूद है।"
       हालांकि मनुष्य दिक् में केवल तीन आयामों की ही कल्पना कर सकते हैं और उनकी बाह्य इन्द्रियाँ उन्हें बताती हैं के वे तीन आयामों वाले ब्रह्माण्ड में रहते हैं। लेकिन गणित में जितने चाहे उतने आयामों पर अध्ययन किया जा सकता है और किया जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है के ब्रह्माण्ड में 10 या उस से भी अधिक आयाम हैं। लेकिन मनाव इन्द्रियाँ और मस्तिष्क इनमे से केवल तीन ही को भांप पाती हैं।
       दिक्-काल या देश-काल (Space-Time) की सोच को अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपना सापेक्षिकता का सिद्धांत विकसित करते हुए प्रकाशित किया। इसके अनुसार समय या काल भी दिक् के तीन आयामों की तरह एक और आयाम है। इसलिये भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा के वास्तव में ब्रह्माण्ड की सारी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने ने यह भी कहा के कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं के अलग-अलग वस्तुओं को इन चार आयामों का अनुभव अलग-अलग प्रतीत होता है। मिसाल के लिए - जो चीज़ें तेज़ गति से चलती हैं, उनके लिए समय धीरे हो जाता है। भौतिकी के 'तार या रज्जु सिद्धांत' (String Theory ,स्ट्रींग सिद्धांत) में भी ऐसी ही कल्पना की गयी है। 
      अगर एक व्यक्ति स्थिर रहे और दूसरा व्यक्ति एक यान पर अपनी घड़ी के मुताबिक़ एक साल तक प्रकाश की ९९% रफ़्तार पर सफ़र करके वापस आ जाये, तो दुसरे व्यक्ति के लिए एक साल गुज़रा होगा लेकिन पहले व्यक्ति के लिए सात साल गुज़र चुके होंगे। ब्रह्माण्ड निरंतर फैल रहा है। इसका बड़ा कारण यह नहीं है के ब्रह्माण्ड की वस्तुएँ तेज़ी से एक दुसरे से दूर जा रहीं हैं, बल्कि यह है के उनके बीच का दिक् स्वयं ही खिच कर फैल रहा है। ब्रह्माण्ड में ब्लैक होल जैसी भारी वस्तुएँ दिक् (Space) को भी मरोड़ देती हैं ;  जिस से उस इलाक़े से निकलती हुई प्रकाश की किरणे वैसे ही मुड़ जाती हैं जैसे कोई लेंस उन्हें मोड़ता है - इसलिए ब्रह्माण्ड में गुरुत्वाकर्षक लेंस देखे जा सकते हैं।  

 तो  17 वें निबन्ध में हमलोग निम्नोक्त मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के तीसरे पाद में लिखित - ' सर्वान् विशेषान् पीत्वा, स्वपिति !' पर चर्चा कर रहे थे
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
                             मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि १॥
अद्वैत वेदान्त के सार-" जीवो ब्रह्मैव नापरः" -सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य की आत्मा एवं ब्रह्म मूल में एक ही है, दो नहीं।’’ पर चर्चा कर रहे थे।  जीव यदि वास्तव में अवस्था त्रैय से युक्त  होगा, त्रिआयामी (three dimensional) होगा, और ब्रह्म अवस्था -त्रय रहित रहित  (अर्थात चतुष्पाद Quadruped)  होगा तो जीव और ब्रह्म का  एकत्व (अद्वैत) कैसे सम्भव होगा ?  इसी व्यावहारिक वेदान्त पर चर्चा कर रहे थे। 
           वहाँ --17 वें निबन्ध में हमलोगों ने सर्वान् विशेषान् पीत्वा, स्वपिति !' की व्याख्या में समझा था कि, 'सर्वान् विशेषान्' वाक्य में 'विशेष' शब्द का अर्थ है -'भेद'। तो ये जो जाग्रत अवस्था के 'विशेष' (भोग) हैं - वे हैं स्थविष्ट भोग। और स्वप्न के जो विशेष हैं - वे हैं सूक्ष्म भोग। स्वप्न के उस विशेष को उपरोक्त श्लोक में - 'धीषणो उद्भासित काम जन्य भोग'  बताया गया है न ?  'विशेष शब्द' से वो भी लीजिये । और विशेष शब्द से जाग्रत अवस्था के जो स्थविष्ठ भोग हैं , उनको भी लीजिये। वे भोग, तथा जाग्रत एवं स्वप्न का 'भोक्ता' की उपाधि। जाग्रत तथा स्वप्न के भोग तथा जाग्रत स्वप्न के भोगों का भोक्ता की उपाधि । इन सबको 'पीत्वा' - यानि पी करके।  यहाँ पीने का अर्थ है - 'आत्मसात' (assimilate) कर लेना। (गाय जैसे चारा खाने के बाद पागुर करके पचा लेती है, वैसे पचा लेना।) 
     जिस प्रकार पानी जब तक ग्लास में रहता है, तब तक 'मैं ' के रूप से भासित नहीं होता। जब तक पानी को ग्लास में देखते हैं , तब तक 'मैं '(अहं) तो शरीर को मान लेते हैं, और ग्लास में दिखने वाले पानी को 'यह' मान लेते हैं। ग्लास के पानी को अपने से अलग 'इदं' मान लेते हैं। 'अहं' और 'इदं' -ये दो भेद रहते हैं न ? लेकिन 'इदं' और 'अहं' का भेद रहता कब तक है ?  जब तक पानी ग्लास  में है, तब तक। और पानी को जब पी लिया तो ? अभी तक  ग्लास में जो पानी 'इदं' के रूप में दीख रहा था, 'यह'  के रूप में भास रहा था , वो कहाँ जाता है ? वह आत्मसात हो जाता है
      पानी जब 'पेट' में गया तो ? यह स्थूल शरीर (कार्य-करण संघात या पूरा शरीर), जिसमें हमारी अहंता है , जो हमारी अहं-वृत्ति का आलम्बन है , पानी उसके अंदर समा गया।  तो वो माना गया कि आत्मसात हो गया, अहं-आस्पद हो गया। इस प्रकार गिलास में रखा हुआ पानी 'इदं' हैं , और पीया हुआ पानी 'अहं' है। तो पीने का अर्थ हुआ उसे आत्मसात कर लेना , उसे अहं बना लेना। 
       उसी प्रकार सुषुप्ति में भी जाग्रत और स्वप्न अवस्था के जितने भी विशेषण हैं, वे सभी भेद क्या हो जाते हैं ? वे सभी भेद अविद्या (अज्ञान) में विलीन हो जाते हैं। आत्मसात हो जाते हैं। तो सुषुप्ति अवस्था में अहं-वृत्ति ने किसको आलम्बन बना लिया ? अविद्या को। और ये सभी (स्थूल और सूक्ष्म शरीर) अविद्या  के ही कार्य हैं , अविद्या (या माया) कारण है, इसलिए ये सभी अविद्या (अज्ञान) में ही समा गए। जैसे खाया हुआ अन्न , पीया हुआ पानी -- वह पेट के अंदर गया तो - 'अहं' हो गया। अहं-आस्पद हो गया। वैसे ही सुषुप्ति के समय हमारी अहं-वृत्ति ने जैसे ही केवल 'कारण शरीर' (Causal body) को - यानि अविद्या को अपना आलम्बन बना लिया। तो उस समय सूक्ष्म शरीर (subtle body) भी और स्थूल शरीर (gross body) भी अविद्या से अलग नहीं है।
         कारण (Cause) से अतिरिक्त (effect) कार्य नहीं होता है न ? जिन धागों से वस्त्र बना हुआ है, उन धागों से वस्त्र अलग है नहीं। यदि अलग होता तो उन धागों को निकाल लेने के बाद भी वस्त्र को रहना चाहिए था। अथवा एक 'स्वेटर' में से एक एक करके सभी 'ऊन' को निकाल लेंगे ,तो स्वेटर (नाम-रूप) भी नहीं रहेगा। उसी प्रकार अविद्या  ही जब जगत का कारण है, तब उस कारण से अलग ये सूक्ष्म तथा स्थूल कार्य है नहीं , उसी में समाया हुआ है। 
         हमारी अहं-वृत्ति जैसे ही 'कारण' को आलंबन बना लेती है , तब वह 'कार्य' को छोड़कर के कारणास्पद हो जाती है। तो माना जाता है कि कारण ने कार्य को पी लिया -आत्मसात कर लिया। तो सो जाने का अर्थ होता है- 'सर्वान् विशेषान् पीत्वा', सारे विशेषों को पीकर के,याने आत्मसात करके- स्वपिति! स्वपिति का अर्थ है 'स्वयं' में अवस्थित हो जाता है। अविद्या उपाधिक जो ब्रह्म हैं , अपना जो अज्ञात ब्रह्मस्वरूप है , उस अज्ञात ब्रह्म में  अवस्थित हो जाता है। अविद्या उपाधिक ब्रह्म का ही नाम है -- अज्ञात ब्रह्म ! (ब्रह्म की शक्ति माँ काली !) और उस अज्ञात ब्रह्म में स्थित हो जाता है। स्वपिति का यही तात्पर्य है
          इसलिए वहाँ कोई भेद प्रतीत नहीं होता। वह जो कारण-अवस्था है न ? वह भी अद्वैत अवस्था है ! तो स्वपिति का अर्थ हुआ -  कारणात्मना स्थितो भवति - स्वपिति ! उस समय यह  'प्राज्ञ' नामक जीव एक उपाधि वाला , ये कारण-रूप उपाधि वाला हो जाता है।तो वह जो कारणावस्था है , वह भी अद्वैत अवस्था है, इसलिये उस समय उस 'प्राज्ञ' नामक जीव को कोई दुःख नहीं रहता। सुषुप्ति में कभी किसी को दुःख होता है ? नहीं होता ! तो दुःख न होने से उसे माना जाता है आनन्द -भूक , मधुर भुङ्ग इस नाम से कहा जा रहा है। मधुरभुक को ही,  'मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो' वाक्य में  मधुर भुङ्ग ऐसा लिखा है ,वहाँ 'क' का ही 'ग ' हो गया। 'मायया ' ऐसा शब्द आ आ गया है न, इसलिये मधुर भुङ्ग में 'क -वर्ग' का पंचम वर्ण लिखा है। व्याकरण के नियमानुसार उत्तर में जब पाँचवा वर्ण होगा, पूर्व का जो अक्षर है , वो हो जाता है -पंचम वर्ण। तो मधुरभुक में 'क' था , और जब उसका अन्वय स्वरों का ध्वनि गुण के साथ करते हैं , तो उसी वर्ग का पंचम वर्ण 'ग ' हो जाता है। 

      किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया  ...लेकिन स्वप्न में कभी कभी ऐसा दृश्य क्यों दीखता है, जबकि इस जन्म के जाग्रत अवस्था में उस प्रकार का कभी कोई अनुभव ही नहीं हुआ हो ?   उस दिन के या वर्तमान जीवन के जागरण अवस्था में जिसका कभी अनुभव नहीं हुआ हो, लेकिन स्वप्न दूसरे प्रकार का अनुभव हो सकता है।  क्योंकि स्वप्न में केवल एक ही जन्म का संस्कार नहीं दीखता है।  स्वप्न में किसी को यदि सचमुच 'गजराज' को ग्राह से रक्षा करते हुए भगवान दीख पड़ते हैं तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसने पहले के  किसी जन्म में इस रूप में ही भगवान का चिंतन किया है। 
        क्योंकि चिंतन-मनन करने से ही संस्कार बनता है न ? यदि अजब-गजब चिंतन करेंगे तो , अजब-गजब ही संस्कार भी बनता है। और जैसा संस्कार बनेगा वह फिर कभी न कभी उद्भूत हो जाता है। इसलिए वैसा स्वप्न दीखता है। याने इस जन्म के या पूर्व जन्म के संस्कार के बिना स्वप्न नहीं दीखता। इस जन्म के या पूर्व जन्म के उद्भुत संस्कार ही, स्वप्न में अपने विषयों को दिखाते हैं। और वो संस्कार चाहे  जाग्रत अवस्था में एक ही विचार का बार -बार चिंतन करने से बने हों , मन से निर्मित हुई मन की कोई वृत्ति हो , चाहे  जाग्रत अवस्था में बाह्य इन्द्रियों के सहयोग से बार बार किये अभ्यास की  चित्त पर गहरी लकीर या छाप पड़ी हुई हो , उसी को संस्कार कहते हैं। इसलिए चित्त में जैसे संस्कार रहते हैं, वे चाहे मन से निर्मित हुए हों , चाहे  बाह्य इन्द्रियों के सहयोग से बने हों; स्वप्न में वैसा ही दीखता है। कोई यदि ऐसा -वैसा चिंतन बहुत अधिक कर लेता है , तो वैसा संस्कार बन जाता है , और उस संस्कार को उद्बुध करने वाला कोई प्रारब्ध कभी जब प्रकट होता है , तब ऐसा-वैसा कुछ स्वप्न में दीखता है।
        लेकिन तैजस नाम वाला जीव स्वप्न के प्रारब्ध का भोग कर लेने के बाद जब गहरी नींद में चला जाता है , तब उस प्राज्ञ नामक जीव के लिए 'मधुरभुक' ये नाम आ जाता है। सुषुप्ति में जो पहुँचा है , उसका नाम मधुरभुक हो जाता है। व्यष्टि उपाधिक ब्रह्म, जो जीव है वो भोक्ता बना और वो 'स्वपिति मधुरभुङ्ग ' भोग रहा है।  (वो मधुरभुक क्या अज्ञान या बेहोशी के अद्वैत आनन्द को - कारणानन्द को भोग रहा है ?) 
          और उस सुषुप्ति के 'मधुरभुक' की ही ये तीन अवस्थाएं- प्राज्ञ , तैजस और वैश्वानर बताईं। और ये तीन अवस्थयायें यदि 'वास्तविक जीव' की होंगी भोक्ता की होगी,  तब तो उसको भी सचमुच  त्रय-अवस्था युक्त या त्रिआयामी मानना पड़ेगा। लेकिन  ब्रह्म तो अवस्था त्रैयातीत हैं- तुरीय हैं (चतुष्पद हैं) ! और जीव यदि वास्तविक रूप में अवस्था त्रैय से युक्त (three dimensional) होगा, तो फिर अवस्था त्रैय-रहित (या चतुष्पाद या Quadruped) ब्रह्म के साथ उसका एकत्व कभी सम्भव नहीं होगा।
       क्योंकि 'ब्रह्म' और 'जीव' में से  एक यदि वास्तव में 'अवस्था वाला' हो , और दूसरा 'अवस्था रहित' हो , तब तो अंधकार और प्रकाश की तरह इन दोनों का आपस में विरोध होगा न ? और अंधकार -प्रकाश का कभी एकत्व नहीं हो सकता। क्योंकि इनका विरुद्ध स्वभाव है,  विपरीत स्वाभाव है। ऐसे ही जीव की ये तीनों अवस्थाएं यदि वस्तुतः होतीं , तो जीव कहलाता अवस्था-त्रय वाला -अवस्थी ! और जबकि ब्रह्म तो हैं अन-अवस्थी ! [क्या जीव सचमुच अवस्था-त्रय वाला -अवस्थी है,  और ब्रह्म अन-अवस्थी हैं ? तब तो जीव को क्या कहना होगा - अवस्थीजी ?😂]  
          तो ये अवस्थी और अन-अवस्थी, ये दोनों वैसे ही विपरीत स्वभाव वाले माने जायेंगे , जैसे अंधकार और प्रकाश।** तो इनका कभी एकत्व नहीं हो पायेगा। इसलिये ये कहा गया , ये जो तीनो अवस्था हैं ,  उसमें से सुषुप्ति में मधुरभुक  शब्दित प्राज्ञ  जब आनन्द का अनुभव कर रहा होता है, तब  उस समय उसे  मधुरभुक कहा जाता है। और जाग्रत और स्वप्न अवस्था में वही सुख -दुःख का अनुभव कर रहा है। वह  भोक्ता जीव, उसकी तीनो अवस्थाएं और उन अवस्थाओं में होने वाले जो सुख-दुःख के अनुभव आदि यदि वास्तविक ही होंगे तो फिर, असंसारी ब्रह्म के साथ उसका अभेद नहीं हो पायेगा।

        [**तुलसीदास जी कहते है–जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।। जहाॅं काम,वसाना,इच्छा हो वहाॅं प्रभु नहीं रहते और जहाॅं प्रभु रहते है वहाॅं काम,वासना,इच्छा नहीं रह सकते। इन दोनों का मिलन असंभव है जैसे सुर्य एंव रात्रि का मिलन नहीं हो सकता।  जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रह्म  के चिन्तन या ध्यान की गुंजाइश ही नहीं है । फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है ।]  
         यह दिखाने के लिए यह कहा कि - " मायया नः भोजयन् !"  भोजयत शब्द है , उसमें  मायया नः (नो) शब्द का अर्थ है -अस्मान् (जीवान)। यहाँ 'मायया भोजयन' में भोजयत शब्द है , जैसे उधर पहले मधुरभुक था। तो जैसे आगे 'म' होने से 'क' का 'ग' हो गया। वैसे यहाँ भोजयत शब्द है , जिसमें 'त' का 'न' हो गया। क्योंकि 'नो ' में 'न' है न- 'त'-वर्ग का पंचम वर्ण ? तो नः शब्द का अर्थ है - 'अस्मान् भोक्त्रीन जीवान्' अर्थात हम जो भोक्ता जीव हैं। हम सभी जीवों को 'मायया भोजयत' -याने अपनी माया से भुगवा रहा है।  वे सुख-दुःख ब्रह्म ही अपनी माया से भोगवा रहा है।
        इसका अर्थ ये हुआ कि, ये तीनों अवस्थायें वस्तुतः हमारी न होते हुए भी , हमें इन तीन अवस्थाओं के स्वामी सा , इनके साथ सम्बन्धीत जैसा , इन अवस्थाओं वाले के रूप में - ब्रह्म दिखला जरूर रहा है। लेकिन वास्तव में हमलोग इन तीनो अवस्थाओं में से - किसी भी अवस्था वाले नहीं हैं। ठीक वैसे ही जैसे ब्रह्म -इन तीनो अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था का अभिमानी नहीं है। उसी तरह इन तीनो अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था के साथ हमारा भी वस्तुतः " अहं -मम " करके अभिमान हो नहीं सकता; किन्तु भास रहा है।  
         भास रहा है , तो वो कैसा है ? तो 'मायया' ! वो ब्रह्म अपनी माया से इन तीन अवस्थाओं को हमारे साथ संलग्न सा जुड़ा हुआ सा दिखा रहा है। यही भोग कराना है। और यदि हमारा इन तीनो अवस्थाओं में से किसी के साथ अभिमान न हो , तो तीनो अवस्था का भोग - न तो हम जाग्रत के स्थूल विषयों के भोक्ता हैं , न स्वप्न के सूक्ष्म विषयों के भोक्ता हैं , और न तो सुषुप्ति अवस्था में होने वाला जो 'आनन्दाभास' होता है , उसके 'अनुभविता' भी हम नहीं हैं। यदि हम माया से सम्मोहित होकर इन - इन उपाधि [प्राज्ञ , तैजस और विश्व] में आत्माभिमान न कर लें। जब हम  इन उपाधियों में आत्माभिमान कर लेते हैं , तब इन इन उपाधियों के धर्मों को अपना धर्म मान लेते हैं। और इन उपाधियों में अभिमान करवा कौन रहा है ? तो कहा - " मायया ब्रह्म भोजयत अस्ते।" ये ब्रह्म ही  ब्रह्म की जो अनादि, अनिर्वचनीय शक्ति रूपा माया है , उस माया (माँ काली) से हमें अवस्था त्रय-युक्त सा दिखा रहा है। लेकिन वास्तव में हम अवस्था त्रय-युक्त हैं नहीं, अपनी माया से अवस्था त्रय-युक्त सा दिखा रहा है।
       जैसे आकाश वस्तुतः नीला नहीं है , लेकिन नीला सा दीखता है। वस्तः आकाश कहीं पृथिवी पर टिका हुआ नहीं है। लेकिन खुले विस्तृत मैदान से जब हम देखते हैं , तो ऐसा लगता है कि कुछ निश्चित दूरी के बाद आकाश  पृथ्वी पर उल्टी रखी हुई बड़ी कड़ाही के जैसा आकाश टिका हुआ है। भूतलता की भ्रान्ति आकाश में होती है।
      ऐसे ही आकाश में धूल नहीं है , लेकिन  कभी- कभी जब धूलि-भरी आँधी आ जाती है, वो आँधी पृथ्वी के धूलिकण को लेकर के उड़ाती है। और कहते हैं, कहीं कहीं तो रेगिस्तान में (राजस्थान के शंकरगढ़ में) रेती के कण इतनी मात्रा में उड़ जाती है, ऐसी आँधी आ जाती है कि दिन में कभी -कभी अँधेरा सा छा जाता है।  तो उस समय आकाश मलिन सा दीखता है। वस्तुतः उस समय भी वह मलीन नहीं है। वह हुई मलता की भ्रान्ति। ***

{ मलता की भ्रान्ति। ***चित्त को मलीन करने वाले 12 दुर्गुणों में से 6 ठा दुर्गुण है - " आत्म संतुष्टि (नहीं) " जिन्हें सभी सदस्यों को अपने  चरित्र से निकाल कर अपने आदर्श स्वामी विवेकानंद  की विशेषअर्ध्य द्वारा पूजा करनी होगी। गोस्वामी तुलसीदास जी विनयपत्रिका में कहते है - 
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई । 
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥  
   
इसलिए गीता (8.13) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।। 
 जो साधक  'ॐ' इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ जो 'शरीर को छोड़कर जाता है', वह परमगति को प्राप्त होता है। यहाँ " देह त्याग कर जो जाता है" -  इसके कहने का तात्पर्य है कि  " ॐ  के उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ"  पर मनन करने के फलस्वरूप  (अर्थात स्वामी विवेकानन्द के छवि पर मन को एकाग्र करने या मनःसंयोग करने के फलस्वरूप) साधक तीनों अवस्थाओं की मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है।  जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है।  देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग। यही वास्तविक मृत्यु है। प्रणव के लक्ष्यार्थ पर ध्यान करते हुये साधक परम गति को प्राप्त होता है क्योंकि उसका लक्ष्यार्थ है सम्पूर्ण विश्व का वह अधिष्ठान (ब्रह्मपद)   जिस पर जन्म और मृत्यु का मनः कल्पित नाटक खेला जाता है।}
              ठीक ऐसे ही ब्रह्म (जादूगर-Magician) की जो अपनी अनादि अनिर्वचनीय शक्ति रूपा जो माया है , उस माया (जादू-Magic, इन्द्रजाल) से हमलोगों को अवस्था त्रय-युक्त सा दिखाता है। इसलिए आचार्य शंकर ने ये कहा गया कि- " जीवो ब्रह्मैव नापरः" - मनुष्य की आत्मा एवं ब्रह्म मूल में एक ही है, दो नहीं। वस्तुतः हम भी ब्रह्म ही हैं ! अतएव हमलोग भी अवस्था -त्रय से रहित हैं। (वास्तव में हम ब्रह्म के जैसे अनवस्थि ही हैं ,अवस्थी जैसा दीखना केवल भ्रान्ति है।) तातपर्य निकला कि यह सब के सब - " भोक्ता जीव, भोग्य जगत और भोजयिता ईश्वर " (समष्टि उपाधि वाला ब्रह्म-माँ जगदम्बा !को त्रिआयामी (three dimensional) जैसा दीखना केवल भ्रान्ति है। वास्तव में वो अज्ञातब्रह्म ही ये सब के सब, माया उपाधिक ईश्वर और अविद्या उपाधिक प्राज्ञ , इन दोनों के साथ साथ जब सूक्ष्म और स्थूल को भी लेते हैं , तो क्रमशः हिरण्यगर्भ और वीड़ाड़ (विराट पुरुष) ये बन जाते हैं। ये तीनो प्रकार का ईश्वर -सोपाधिक ब्रह्म है। और तीनो प्रकार का विश्व , तैजस , प्राज्ञ नामक तीनों उपाधि वाला जीव। और ये सबका सब और जीव का भोग्य जगत ये सब के सब ब्रह्म में कल्पित है
{ सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है। ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के १२१वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहते हैं, "हिरण्यगर्भ सूक्त" में कहा गया है - हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्। यहाँ  हिरण्यगर्भ से  ईश्वर का अर्थ लगाया जाता है - यानि वो गर्भ जहाँ हर कोई वास करता हो।सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है। ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं। ब्रह्म अव्यक्त (तुरीय)अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है। ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं। ब्रह्म (ॐ) की 4 अवस्थाएँ हैं प्रथम अवस्था *अव्यक्त (तुरीय) है, जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। दूसरी *प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है। इसे हिरण्य कह सकते हैं। क्षीर सागर में नाग शय्या पर लेटे श्री हरि विष्णु इसी का चित्रण है। मनुष्य की सुषुप्ति इसका प्रतिरूप है। शैवों ने इसे ही शिव कहा है। तीसरी अवस्था * तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है। ब्रह्म की चौथी अवस्था *वैश्वानर है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है।
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         प्रश्न --किसी जिज्ञासु ने पूछा यदि जीव की तीनों अवस्थायें कल्पित हैं, तो ज्ञान तो जाग्रत अवस्था में मन से या अहंवृत्ति से ही होता है। तो क्या जाग्रत अवस्था में हमारी यह जो 'अहंवृत्ति' है वो भी कल्पित है ? इसके उत्तर में सद्गुरु विश्वात्मानन्द पूरी (अध्यक्ष, कैलाश आश्रम , हरिद्वार।) कहते है -  " तो अहं वृत्ति कोई कल्पित नहीं है क्या ? ये वृत्ति भी तो कल्पित ही है। " तो क्या कल्पित जीव को ही ज्ञान होता है ? .... हाँ ,हाँ  क्यों नहीं?  कल्पित को ही ज्ञान होता है, अन्तःकरण की वृत्ति को ही तो ज्ञान कहते हैं न ? यदि हमारा 'अन्तःकरण' ही उसके अधिष्ठान ब्रह्म में कल्पित है , तो अन्तःकरण की 'वृत्ति' कल्पित नहीं होगी? ज्ञान अन्तःकरण में ही होगा , यदि ज्ञान को अन्तःकरण में न मानकर चेतन ब्रह्म में मानेंगे , तो चेतन ब्रह्म परिणामी नहीं हो जायेगा ? चेतन ब्रह्म तो निर्विकार है। उसमें कोई वृत्यात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। वृत्ति का अर्थ ही होता है , परमा रूपा अन्तःकरण की वृत्ति। जब वह ब्रह्माकारा वृत्ति उत्पन्न होती तो सारी उपाधियों को बाधित कर देती है ! 
      जैसे चिता की लकड़ी , वह स्वयं भी जल जाती है और मुर्दे (Dead Body) को भी जला देती है। चिता की लकड़ी जैसे मुर्दे को जलाकर स्वयं भी जल जाती है। वैसे ही {स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' Leadership Training tradition में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे  [C-IN-C] के मुख से } 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों के श्रवण-मनन -निदिध्यासन से अन्तःकरण में उत्पन्न हुई- अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति (ब्रह्माकारा वृत्ति) ही अज्ञान की निवर्तक है। और अज्ञान निवृत्त हुआ तो अज्ञान का कार्य सारा जगत भी निवृत्त हो जाता है। और वो वृत्ति बनी रहती हो, ऐसा नहीं होता।    
          उस "अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति" से अज्ञान का भी नाश होता है, मन  का भी नाश होता है, और वो स्वयं भी निवृत्त हो जाती है। (मन का नाश अर्थात कल्पित अन्तःकरण की वासनाओं का नाश होता है।)  चिता की लकड़ी की तरह , जैसे चिता की लकड़ी ने मुर्दे को जलाकर राख कर दिया , और स्वयं भी जल कर राख बन गयी। मुर्दे को जला देने के बाद लकड़ी बचती थोड़े ही है, वह भी राख हो जाती है। और मुर्दे की भी राख हो जाती है। उपाधि मात्र को शांत करके वह वृत्ति भी चली जाती है , फिर रहता है -केवल तुरीय ब्रह्म। ऐसा हो जाता है न ? [..... ?] 
   इसलिए कहा गया- " नः मायया भोजयन ! "  तो अविद्या अवस्था में -  " नः " हम  प्रतीयमान जीवों को भोक्ता के रूप में, वह ब्रह्म ही अपनी मायाशक्ति से तीनो अवस्था में जोड़ देता है। तीनों में से  किसी न किसी अवस्था के साथ अभिमानी बनाकर के रखता है। वो कैसे तो माया से। (माया की आवरण और विक्षेप शक्ति से)  इस प्रकार से ये बताया गया कि वह ब्रह्म अधिष्ठान है और अपनी अनादि अनिर्वचनीय शक्ति रूपा माया से सारे जगत को "भोक्ता" , "भोग्य" और "भोजयिता" रूप से प्रतीति कराता है। दिखाता है , कल्पना कराता है, लेकिन वह स्वयं अधिष्ठान है। 
        { [..... ?] जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत्‌ में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति (मधुरभुक) जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत्‌ से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत्‌ में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता।
       यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत्‌ में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत्‌ जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत्‌ को अपने से पृथक्‌ समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत्‌ का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। 
        परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत्‌ का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। 
       जीव की तुरीयावस्था भेद-ज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। 'तत्व' असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि हम ब्रह्म को या 'तत्व' को अविनाशी (अनश्वर) मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य (pure -consciousness , 'existence-consciousness -bliss') मानना ही होगा। 
       ऐसे 'तत्व' को मानकर जगत्‌ की अनुभूयमान स्थिति का हमें 'विवर्तवाद' के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत्‌ न तो सत्‌ है, न असत्‌ है। सत्‌ होता तो इसका कभी नाश न होता, असत्‌ होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत्‌ असत्‌ से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति-नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है
       अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत्‌ का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर (माँ काली) कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टि-क्रम चालू हो जाता है।
         ईश्वर को (माँ जगदम्बा को) अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत्‌ को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत्‌ को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष (D-Hypnotized अवस्था) कहते हैं। [ फिर उस विसम्मोहित हो चुके सिंह-शावक को माँ जगदम्बा की कृपा से अपने भेंड़ होने का भ्रम कभी नहीं होता। गीता (13.17) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
   भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 
 वह ज्ञेय (अज्ञात ब्रह्म या परमात्मा ही) प्रत्येक शरीर में आकाश के समान अविभक्त और एक है। तो भी समस्त प्राणियों में विभक्त हुआ सा स्थित है।  क्योंकि उसकी प्रतीति शरीरों में ही हो रही है। तथा वह ज्ञेय स्थितिकाल में भूतभर्तृ --अर्थात सभी भूतों का धारण-पोषण करनेवाला है।  प्रलयकाल में ग्रसिष्णु -- सब का संहार करनेवाला। और उत्पत्ति के समय प्रभविष्णु -- सब को उत्पन्न करने वाला है।  जैसे कि मिथ्या-कल्पित सर्पादि के उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण रज्जु आदि होते हैं।} 
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[स्ट्रींग सिद्धांत ब्रह्माण्ड के अध्ययन और व्याख्या की एक क्रांतिकारी विधि है। यह हमारे ब्रह्माण्ड के हर पहलू की व्याख्या करती है।   स्ट्रींग सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा के अत्यंत सुक्ष्म तंतु या तंतुवलय इस ब्रह्माण्ड के छोटे परमाण्विक कणो से लेकर विशालकाय आकाशगंगा के व्यवहार तथा संरचना को समझने की मुख्य कुंजी है। लेकिन विशालाक्षी नदी के भंवर की गहराई को यदि नापने की कोशिश करोगे तो उसी में खींच लिये जाओगे।]
[ Sri Ramakrishna Kathamrita in Bengali./চতুর্বিংশ পরিচ্ছেদ/১৮৮৬, ২৩শে এপ্রিল/মাস্টার, নরেন্দ্র, শরৎ প্রভৃতি/
https://www.ramakrishnavivekananda.info/kathamrita/unicodekathamrita/53_x_masternarendra_1058_1059.হত্ম্য ]
 {সাধু সাবধান! কামিনী-কাঞ্চন থেকে সাবধান! মেয়েমানুষের মায়াতে একবার ডুবলে আর উঠবার জো নাই। সংসার যেন বিশালাক্ষীর দ, যে একবার পড়েছে সে আর উঠতে পারে না! কথামৃত৭৬৫/ বিশালাক্ষীর দ, নৌকা দহে একবার পড়লে আর রক্ষা নাই। সাধুর মেয়েমানুষ থেকে অনেকদূরে থাকতে হয়। ওখানে সকলে ডুবে যায়। ওখানে ব্রহ্মা-বিষ্ণু পড়ে খাচ্ছে খাবি। কথামৃত ১৪৭/ সংসার যেন বিশালাক্ষীর দ, নৌকা দহে একবার পড়লে আর রক্ষা নাই। সেকুল কাঁটার মতো এক ছাড়ে তো আর একটি জড়ায়। গোলকধান্দায় একবার ঢুকলে বেরুনো মুশকিল। মানুষ যেন ঝলসা পোড়া হয়ে যায়।"যে রাম, যে কৃষ্ণ, সে-ই ইদানীং রামকৃষ্ণ"
{Best Translation of Ramkrishna Vachanamrit [http://www.vivekananda.net/PDFBooks/katha2.pdf }

সংসারে কিরকম ভাবে থাকতে হয়? " गृहस्थ लोगों को परिवार में कैसे रहना चाहिये" - इस विषय पर श्री रामकृष्ण के उपदेश क्या हैं ? श्री रामकृष्ण वचनामृत से इस विषय पर दिए गए उनके मुख्य उपदेशों तथा उदाहरणों को, संक्षेप में लिखकर पहले एक स्थान पर संकलित किया गया है। तत्पश्चात श्री रामकृष्ण वचनामृत के उद्धरणों को तारीख और वर्ष के अनुरूप उद्धरित किया गया है। माण्डूक्य श्रृंखला के बाद इसे प्रकाशित किया जायेगा।   
http://onudhyan.blogspot.com/2016/10/blog-post_27.html 
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Mandukya Upanishad 0.22 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर/
तो सो जाने का अर्थ होता है  ... सर्वान् विशेषान् पीत्वा, स्वपिति ! इसमें विशेष शब्द का अर्थ है -भेद। जैसे जाग्रत के विशेष हैं -स्थविष्ट भोग। स्वप्न के जो विशेष हैं -सूक्ष्म भोग। जिसको उपरोक्त श्लोक में - धीषणो उद्भासित काम जन्य भोग बताया गया है, वो भी विशेष शब्द के अंतर्गत आ गया। जाग्रत तथा स्वप्न के भोग तथा जाग्रत स्वप्न के भोगों का भोक्ता की उपाधि । इन सबको 'पीत्वा' - यहाँ पीने का अर्थ है आत्मसात कर लेना। जैसे जब तक पानी ग्लास में है, तब तक मैं रूप से भासित नहीं होता। मैं (अहं) तो शरीर को मान लेते हैं, और ग्लास में दिखने वाले पानी को देखते हैं। तो उसको 'यह' मान लेते हैं- 'इदं'! जब तक पानी ग्लास  में है, तब तक अहं और इदं -ये दो भेद रहते हैं न ? और जब पानी को पी लिया ,तो अभीतक जो ग्लास में यह , इदं या पानी के रूप में दीख रहा था वो कहाँ जाता है ? वह आत्मसात हो जाता है।
 पेट में गया तो , जिसमें हमारी अहंता है , जो हमारी अहं-वृत्ति का आलम्बन है , पूरा शरीर। उसके अंदर समा गया, तो वो माना गया कि आत्मसात हो गया, अहं-आस्पद हो गया। तो गिलास में रखा हुआ पानी 'इदं' हैं , और पीया हुआ पानी 'अहं' है। तो पीने का अर्थ हुआ उसे आत्मसात कर लेना , उसे अहं बना लेना। 
तो सुषुप्ति में जाग्रत और स्वप्न अवस्था के जितने भी विशेषण हैं, वे सभी भेद क्या हो जाते हैं ? वे सभी भेद अविद्या में विलीन हो जाते हैं। आत्मसात हो जाते हैं। यहाँ अहं-वृत्ति ने किसको आलम्बन बना लिया ? अविद्या को। ये सभी अविद्या के ही कार्य हैं , अविद्या कारण है, इसलिए अविद्या में ही समा गए। जैसे खाया हुआ अन्न , पीया हुआ पानी पेट के अंदर गया तो - अहं हो गया। वैसे सुषुप्ति के समय हमारी अहं-वृत्ति ने जैसे ही केवल कारण शरीर को - यानि अविद्या को अपना आलम्बन बना लिया। उस अविद्या से अलग सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर भी नहीं है। कारण से अतिरिक्त कार्य नहीं होता है न ? जिन धागों से वस्त्र बना हुआ है, उन धागों वस्त्र अलग है नहीं। यदि अलग होता तो उन धागों को निकाल लेने के बाद भी वस्त्र को रहना चाहिए था। स्वेटर में से एक एक करके सभी उन निकाल लेंगे तो स्वेटर नहीं रहेगा।  वैसे अविद्या कारण है, तब उस कारण से अलग ये सूक्ष्म तथा स्थूल कार्य है नहीं ! उसीमें समाया हुआ है। हमारी अहं-वृत्ति जैसे ही कारण को आलंबन बना लेती है ,कार्य को छोड़कर के कारणास्पद हो जाती है। तो माना जाता है कि कारण ने कार्य को पी लिया -आत्मसात कर लिया। तो सो जाने का अर्थ होता है  ... सर्वान् विशेषान् पीत्वा, सारे विशेषों को पीकर के , याने आत्मसात करके ,स्वपिति ! स्वपिति का अर्थ होता है , स्वयं में अवस्थित हो जाता है। अविद्या उपाधिक जो ब्रह्म हैं , अपना जो अज्ञात ब्रह्मस्वरूप है , उसमें अवस्थित हो जाता है। अविद्या उपाधिक ब्रह्म का ही नाम है अज्ञात ब्रह्म ! और उस अज्ञात ब्रह्म में स्थित हो जाता है। स्वपिति का यही तात्पर्य है। इसलिए वहाँ कोई भेद प्रतीत नहीं होता। वह भी कारण-अवस्था है , न अद्वैत अवस्था है ! तो स्वपिति का अर्थ हुआ -  कारणात्मना स्थितो भवति -स्वपिति ! उस समय प्राज्ञ नामक जीव कारण रूप से अवस्थित होता है। यह प्राज्ञ नामक जीव कारण-रूप उपाधि वाला है। और उस समय उस प्राज्ञ नामक जीव को कोई दुःख नहीं रहता। सुषुप्ति में कभी किसी को दुःख होता है ? नहीं होता ! तो दुःख न होने से उसे माना जाता है आनन्द -भूक , मधुर भुङ्ग इस नाम से कहा जा रहा प्राज्ञ को , जो सुषुप्ति में पहुँचा है। [क का ग हो जाता है उसी वर्ग का पंचम वर्ण (मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो) 6.16, अजब-गजब चिंतन करने से अजबगजब संस्कार बनता है , वैसा कभी उद्भूत हो जाता तब वही स्वप्न में दीखता है। इस जन्म के या पूर्व जन्म के उद्भूत संस्कार के बिना स्वप्न नहीं दीखता। वो संस्कार या तो जाग्रत अवस्था के चिंतन से होते हैं। ]  और जाग्रत अवस्था में वो चिंतन यानि, मन वृत्ति चाहे केवल मन से बने , या बाह्य इन्द्रियों के सहयोग से बने। जो जैसा चिंतन बहुत अधिक कर लेता है , वैसा संस्कार बन जाता है , और उस संस्कार को उद्बुध करने वाला  कोई प्रारब्ध कभी जब प्रकट होता है , तब वैसा स्वप्न में दीखता है।] स्वपिति मधुर भुङ्ग , व्यष्टि उपाधिक जीव जो भोक्ता बना वो भोग रहा है। उसकी ये तीन अवस्थाएं बताईं। और ये तीन अवस्थयायें वास्तविक जीव की होंगी भोक्ता की होगी , क्योंकि ब्रह्म तो अवस्था त्रैयातीत हैं- तुरीय हैं ! और जीव यदि वास्तविक रूप में अवस्था त्रैय से युक्त होगा , तो फिर अवस्था त्रैय-रहित ब्रह्म के साथ कभी उसका एकत्व सम्भव नहीं होगा। क्योंकि एक यदि अवस्था वाला हो , और दूसरा अवस्था रहित हो , तब तो अंधकार और प्रकाश की तरह इन दोनों का आपस में विरोध होगा न ? और अंधकार -प्रकाश का कभी एकत्व नहीं हो सकता। क्योंकि इनका विपरीत स्वाभाव है। ऐसे ही जीव की ये तीनों अवस्थाएं यदि वस्तुतः होतीं , तो जीव कहलाता अवस्था-त्रय वाला -अवस्थी !(जी-😂) और ब्रह्म तो हैं अन-अवस्थी
          तो ये दोनों अवस्थी और अन-अवस्थी वैसे ही विपरीत स्वभाव वाले माने जायेंगे , जैसे अंधकार और प्रकाश। तो इनका कभी एकत्व नहीं हो पायेगा। जो जीव सुषुप्ति अवस्था में आनन्द का उपभोग करने से मधुर भुक कहलाता है , और जाग्रत स्वप्न अवस्था में वही सुख -दुःख का अनुभव कर रहा है। उस भोक्ता जीव की तीनो अवस्थाएं और उन अवस्थाओं में होने वाले सुख-दुःख के अनुभव यदि वास्तविक ही होंगे, तो फिर, असंसारी ब्रह्म के साथ उसका अभेद नहीं हो पायेगा। यह दिखाने के लिए कहा कि -मायया नः भोजयन ! नः शब्द का अर्थ है -अस्मान भोक्त्रीन जीवान। अर्थात हम जो भोक्ता जीव हैं, हमें वे सुख-दुःख ब्रह्म ही अपनी माया से भोगवा रहा है - मायया भोजयन। अर्थात वस्तुतः ये तीनों अवस्थाएं हमारी न होते हुए भी , हमें इन तीन अवस्थाओं का सम्बन्धी जैसा , स्वामी के जैसे रूप में दिखा रहा है। वास्तव में हम तीनो अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था वाले नहीं हैं। ठीक वैसे ही जैसे ब्रह्म -इन तीनो अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था का भी अभिमानी नहीं है। वस्तुतः इन तीनो अवस्थाओं के साथ हमारा भी अहं -मम करके  अभिमान हो नहीं सकता; किन्तु भास रहा है। वो ब्रह्म अपनी माया से इन तीन अवस्थाओं को हमारे साथ जुड़ा हुआ सा दिखा रहा है। यही भोग कराना है।  यदि हमारा इन तीनो अवस्थाओं में अभिमान न हो , तो तीनो अवस्था का भोग - न तो हम जाग्रत के स्थूल विषयों के भोक्ता हैं , न स्वप्न के सूक्ष्म विषयों के भोक्ता हैं , और न तो सुषुप्ति अवस्था में होने वाला आनन्दाभास होता है , उसके अनुभविता भी हम नहीं हैं। यदि हम माया से सम्मोहित होकर इन इन उपाधि [प्राज्ञ , तैजस और विश्व] में आत्माभिमान न कर लें। इन उपाधियों में आत्माभिमान कर लेते हैं , तब इन इन उपाधियों के धर्मों को अपना धर्म मान लेते हैं। और इन उपाधियों में अभिमान करवा कौन रहा है ? तो कहा - मायया ब्रह्म भोजयन। ब्रह्म की जो अनादि, अनिर्वचनीय शक्ति रूपा माया है , उस माया (माँ काली) से हमें अवस्था त्रय-युक्त सा दिखा रहा है। वास्तव में हम अवस्था त्रय-युक्त हैं नहीं , अपनी माया से अवस्था त्रय-युक्त सा दिखा रहा है। जैसे आकाश वस्तुतः नीला नहीं है , लेकिन नीला सा दीखता है। वस्तः आकाश कहीं पृथिवी पर टिका हुआ नहीं है ,लेकिन खुले विस्तृत मैदान से जब हम देखते हैं , तो ऐसा लगता है कि कुछ निश्चित दूरी के बाद आकाश  पृथ्वी पर उल्टी रखी हुई बड़ी कड़ाही के जैसा आकाश टिका हुआ है। भूतलता की भ्रान्ति आकाश में होती है।आकाश में धूल नहीं है , जब धूलि का तूफान आ जाता है , कि दिन में अँधेरा सा छा जाता है। वस्तुतः आकाश उस समय भी मलिन नहीं है , वह मलता की भ्रान्ति से वैसा दीखता है। ऐसे ही ब्रह्म जो अपनी अनादि अनिर्वचनीय शक्ति रूपा माया है , उस माया से हमें अवस्था त्रय-युक्त सा दिखाता है। वस्तुतः हम भी ब्रह्म हैं, इसलिए हमलोग भी अवस्था -त्रय से रहित हैं। अतः भोक्ता जीव , भोग्य जगत और भोजयिता ईश्वर (समष्टि उपाधि वाला ब्रह्म) ये सब के सब, माया उपाधिक ईश्वर और अविद्या उपाधिक प्राज्ञ , इन दोनों के साथ साथ सूक्ष्म और स्थूल को भी लेते हैं , तो हिरण्यगर्भ और वीड़ाड़ ये बन जाते हैं। ये तीनो प्रकार का ईश्वर -सोपाधिक ब्रह्म है। और तीनो विश्व , तैजस , प्राज्ञ नामक उपाधि वाला जीव। और जीव का भोग्य जगत ये सब के सब ब्रह्म में कल्पित है। कल्पित को ही ज्ञान होता है, अन्तःकरण की वृत्ति को ही ज्ञान कहते हैं। यदि अन्तःकरण कल्पित है , तो अन्तःकरण की वृत्ति भी कल्पित होगी। यदि ज्ञान को अन्तःकरण में न मानकर चेतन में मानेंगे , तो चेतन परिणामी नहीं हो जायेगा ? चेतन तो निर्विकार है। उसमें कोई वृत्यात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। वृत्ति का अर्थ ही होता है , परमा रूपा अन्तःकरण की वृत्तिजब वह ब्रह्माकारा वृत्ति उत्पन्न होती तो सारी उपाधियों को बाधित कर देती है ! जैसे चिता की लकड़ी , वह स्वयं भी जल जाती है और शव (Dead Body) को भी जला देती हैचिता की लकड़ी जैसे मुर्दे को जलाकर स्वयं भी जल जाती है , वैसे ही तत्त्वमसि आदि महावाक्यों से अन्तःकरण में उत्पन्न हुई- अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति (ब्रह्माकारा वृत्ति) ही अज्ञान की निवर्तक है। और अज्ञान निवृत्त हुआ तो अज्ञान का सारा जगत भी निवृत्त हो जाता है। और वो वृत्ति बनी रहती हो, ऐसा नहीं होता। उस वृत्ति से अज्ञान का भी नाश होता है,मन का भी नाश होता है , और वो स्वयं भी निवृत्त हो जाती है। चिता की लकड़ी की तरह , जैसे चिता की लकड़ी ने मुर्दे को जलाकर राख कर दिया , और स्वयं भी जल कर राख बन गयी। लकड़ी बचती थोड़े ही है, वह भी राख हो जाती है। उपाधि मात्र को शांत करके वह वृत्ति भी चली जाती है , फिर रहता है -केवल तुरीय ब्रह्म। तो - नः मायया भोजयन !  तो हम अविद्या अवस्था में भोक्ता के रूप में प्रतीयमान जीवों को -तीनो अवस्था में , माया से ही किसी न किसी अवस्था के साथ अभिमानी बनाकर के रखता है। वो कैसे तो माया से।  इस प्रकार से ये बताया गया कि वह अधिष्ठान है और अपनी अनादि अनिर्वचनीय शक्ति रूपा माया से सारे जगत को भोक्ता , भोग्य और भोजयिता रूप से प्रतीति कराता है। कल्पना कराता है, लेकिन वह स्वयं अधिष्ठान है। 

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           ॐ की इन चारो अवस्थाओं को समझने के लिए,  हमलोग माण्डूक्य उपनिषद , माण्डूक्य कारिका , तथा उनपर भगवान भाष्यकार द्वारा लिखित शंकर भाष्य तथा उन पर आनंदगिरि जी द्वारा लिखित संस्कृत टीका की आचार्य स्वामी विश्वात्मानन्द जी द्वारा की गयी हिन्दी व्याख्या पर चर्चा कर रहे थे। उस   18 वें निबन्ध में हमलोग निम्नोक्त मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के तीसरे पाद के मधुरभुक की चर्चा कर रहे थे।   
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो
 मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥
वहाँ हमने देखा था कि  " चिता की लकड़ी जैसे मुर्दे को जलाकर स्वयं भी जल जाती है। वैसे ही {स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' Leadership Training tradition में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे  [C-IN-C] के मुख से } 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों के श्रवण-मनन -निदिध्यासन से अन्तःकरण में उत्पन्न हुई- अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति (ब्रह्माकारा वृत्ति) ही अज्ञान की निवर्तक है। और अज्ञान निवृत्त हुआ तो अज्ञान का कार्य सारा जगत भी निवृत्त हो जाता है। और वो वृत्ति बनी रहती हो, ऐसा नहीं होता।   उस "अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति" से अज्ञान का भी नाश होता है, मन  का भी नाश होता है, और वो स्वयं भी निवृत्त हो जाती है।
      मन का नाश अर्थात कल्पित अन्तःकरण की वासनाओं ( तीनो ऐषणाओं)  का नाश होता है।  चिता की लकड़ी की तरह , जैसे चिता की लकड़ी ने मुर्दे को जलाकर राख कर दिया , और स्वयं भी जल कर राख बन गयी। मुर्दे को जला देने के बाद लकड़ी बचती थोड़े ही है, वह भी राख हो जाती है। और मुर्दे की भी राख हो जाती है। उपाधि मात्र को शांत करके वह वृत्ति भी चली जाती है फिर रहता है -केवल तुरीय ब्रह्म। ऐसा हो जाता है न?
अब हमलोग उपरोक्त मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के अंतिम पाद पर चर्चा करके यह समझेंगे कि ब्रह्म के साथ 'तुरीय ' विशेषण क्यों जोड़ा गया है ? जो ब्रह्म हमें भोक्ता , भोग्य और भोजयिता रूप से प्रतीति कराता है, कल्पना कराता है। वो स्वयं कैसा है ? तो कहते हैं- तुरीयं ! मायासंख्यातुरीयं - वो तुरीय है। तुरीय कहा जाता है - चतुर्णां पूर्णं तुरीयं चतुर्थ को। याने तीन हैं, और चौथी संख्या को पूरा करने वाला।  चार संख्या का जो आश्रय है , उसे तुरीय कहा जाता है। जो चतुर्थ संख्या का आश्रय बनेगा , तो मानना पड़ेगा कि, जो चतुर्थ संख्या का आश्रय बना है , 'तुरीय ' -याने चौथा ; उससे पहले और तीन हैं।  वह 'एकत्व' संख्या , 'द्वित्व' संख्या और 'त्रित्व' संख्या के आश्रय हैं। ये तीन नहीं होंगे तो चौथा कैसे हो सकता है ? तीन के बिना चतुर्थ की कल्पना नहीं होती। चतुर्थ है - कहने से यही अर्थ निकलेगा और तीन हैं। 
       तब तो उसको कहना पड़ेगा -सद्वितीय ब्रह्म। और अगर सद्वितीय हो जायेगा तो फिर वह 'संसारी' हो जायेगा। सद्वितीय का अर्थ होगा कि उससे अलग भी और तीन हैं; और- 'ये' चौथा है। तुरीय का अर्थ है, चौथा। तो सद्वितीय होने से ब्रह्म में संसारित्व की आपत्ति आएगी। 
      इस प्रकार की शंका का निराकरण करने के लिए कहा गया कि, "माया-संख्या-तुरीयं।"  कहते है, वो जो पहले तीन हैं न ? वे तीनों कैसे हैं ? स्वतः सत्तात्मक हैं ? या प्रातिभासिक हैं, कल्पित है ?  वास्तविक तो नहीं है ,  विश्व, तैजस , प्राज्ञ, ईश्वर, हिरण्यगर्भ , वीड़ाड़  - प्रातिभासिक है, कल्पित है। जिनके नाम विश्व, तैजस ,प्राज्ञ , ईश्वर, हिरण्यगर्भ ,वीड़ाड़ - वे उपाधि के कारण तीन बने हैं।
      तीन उपाधि को लेकर के। तीन अवस्थायें हैं, और तीन अवस्थाओं का अभिमानी; और उन अभिमानियों के - शासक तीन ! ये जो त्रित्व संख्या के आश्रय, ये जो तीन हैं -ये मायिक हैं। और मायिक 'तीन' में रहने वाली जो 'त्रित्व संख्या ' है वो है -मायासंख्या ! और उस माया संख्या, जो त्रित्व संख्या है , और उस त्रित्व संख्या के आश्रयभूत जो तीन हैं ,उनकी अपेक्षा से यहाँ पर तुरीय शब्द का प्रयोग है
           वस्तुतः उसे तुरीय भी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि उसमें कोई संख्या नहीं है। माया के कारण ही पहले तीन की सत्ता है , इसलिए मायिक तीन की अपेक्षा से ये चौथा, कहा जा रहा है। उसमें स्वरूपतः चतुर्थत्व नहीं है। वह स्वरूपतः चतुर्थ नहीं बना , चार संख्या का आश्रय नहीं बना। वो बना, मायिक तीन पदार्थों की अपेक्षा से सिद्ध जो, चौथी संख्या , चार संख्या -उसका आश्रय चतुर्थ। वस्तुतः उसमें तुरीयत्व नहीं है। इसी बात को यहाँ पर माया-संख्या -तुरीयं से कहा। 
           तो उसमें वस्तुतः 'साद्वितीयत्व' क्यों न माना जाय ? तो कहते हैं, इसलिए कि 'तुरीय संख्या' को मायिक संख्या मान रहे हैं। तुरीयत्व मायिक है - ऐसा कहते हैं।  ऐसा क्यों कहते हैं कि तुरीयत्व मायिक है ? तो कहते हैं इसलिए की वह - 'परम्' है।  वह संख्यातीत है ! वह संख्या रहित है। वह माया से भी परे है। माया से भी असंश्लिष्ट है ! उसका वस्तुतः माया के साथ भी स्वरूपतः कोई संसर्ग नहीं है। जो कुछ भी संसर्ग है , वो मायिक संसर्ग है। 
        तीन के साथ जो सम्बन्ध बना है वो माया से बना है , इसलिए चतुर्थ संख्या कल्पित  है, वास्तविक तो वह स्वयं ही है। उसे न तो एक , न तो दो , न तो तीन , न तो चार कहा जाता है। वो वही है ! शब्दातीत है न ? इसलिए उसमें संख्या भी नहीं है। कोई दूसरा हो तब उसकी अपेक्षा से उसको द्वितीय , तृतीय , चतुर्थ कहा जा सकता था। वह जिस पारमार्थिक सत्ता वाला है , वैसी पारमार्थिक सत्ता वाली कोई दूसरी वस्तु होगी और तीन, तो उसे वास्तविक तुरीय कहा जा सकता था।
            लेकिन ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं। इसलिए उसमें वस्तुतः तुरीयत्व नहीं है। ये दिखाने के लिए ब्रह्म का एक विशेषण है - तुरीयं ब्रह्म। परम् ब्रह्म ! याने वो 'पर' है। याने उपाधि से असंश्लिष्ट है। मायारूप उपाधि (Bh) के साथ भी उसका वस्तुतः संसर्ग नहीं हुआ है। कल्पित सर्प के साथ, रस्सी का वस्तुतः कोई सम्बन्ध कभी बना ही नहीं है। वास्तविक सम्बन्ध।  
    कल्पित समान सत्ताक पदार्थों में ही सम्बन्ध होता है। [कल्पित नाम-रूप धारी पदार्थों में ही क्रिया-प्रतिक्रिया हो सकती है।] तो ब्रह्म की तरह कोई दूसरा समान सत्ताक पदार्थ रहता, तब तो उसमें वास्तविक संसगता आ सकती थी। और 'एक' में सम्बन्ध रहता नहीं है , सम्बन्ध को कहा ही जाता है -द्विष्ठ ! द्विष्ठ कहते हैं -दो में रहने वाले को। सम्बन्ध हमेशा दो पदार्थों में बनता है, एक में नहीं। [प्रेमगली अति साँकरी या में दो न समाये !] 

      और ब्रह्म जिस पारमार्थिक सत्ता वाला है , उस सत्ता वाली कोई दूसरी वस्तु होगी, तब ब्रह्म का वास्तविक संसर्ग फिर उस वस्तु के साथ हो सकता है। उसे ससंग कहा जा सकता है , फिर वो सद्वितीय होगा। लेकिन वेद बताता है कि ब्रह्म के सिवा कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं। जगत के मूल कारण को श्रुति  ब्रह्म बताती है। इसका सिद्धांत है- 
" सत एव सौम्य इदम् अग्र आसीत् एकं एव अद्वितीयं" (छान्दोग्य ६.२.१)
 (In the beginning, there was only Sat.)  प्रारम्भ में केवल ‘सत्’ ही था। ‘सत्’  का अर्थ है परब्रह्म नारायण (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) ! और वो अद्वितीय है। इसलिए वो परम् है। 
         याने ब्रह्म किसी भी 'उपाधि' से वस्तुतः असंश्लिष्ट है। दूसरे से कोई संसर्ग उसका होता ही नहीं है। जब दूसरे से वास्तविक संसर्ग ही नहीं होगा तो फिर उसमें तुरीयत्व कहाँ से आएगा ? तो इसलिए उसमें तुरीयत्व भी कल्पित है। मन्यन्ते यानि ऐसा माना जाता है, वास्तव में वो चतुर्थ नहीं है। 'तीन ' की अपेक्षा से 'चौथा ' उसे माना जाता है। 
इसलिए कहा -  मायासंख्यातुरीयं ** परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ इस प्रथम श्लोक की चर्चा यहाँ सम्पन्न होती है। इस श्लोक की टीका पर हमलोग आगे विचार करेंगे। ..... 
    वह ब्रह्म जो मायसंख्या तुरीयं है ,जिसको भगवान भाष्यकार मंगलाचरण में नमस्कार कर रहे हैं , वह कौन है ? आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र (ब्रह्मांड का निर्माण-1.1.2) " ।। जन्माद्यस्य यतः।। के भाष्य में इस कार्य-कारण भाव की चर्चा करते हुए लिखा है - 'जन्माद्यस्य यतः'   जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय ) , अस्य = इस जगत के , यतः = जिससे होते हैं , वह ब्रह्म है । अर्थात ~संसार की जिससे उत्पत्ति होती है, चराचर प्रपंच जिससे उत्पन्न होता है, वह परब्रह्म (परमात्मा या परम् सत्य) है। 
         इस पद की सामान्य व्याख्या यह है की जो जड़ - चेतनात्मक जगत सर्वसाधारण के देखने , सुनने और अनुभव में आ रहा है। जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंश पर भी विचार करने से बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य-चकित होना पड़ता है। इस विचित्र विश्व के जन्म आदि जिससे होते हैं अर्थात जो सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्ति से इस सम्पूर्ण जगत की रचना कर्ता है, तथा इसका धारण पोषण तथा नियमित रूप से संचालन कर्ता है।  एवं फिर प्रलयकाल आने पर जो इस समस्त विश्व को अपने में विलीन कर लेता है , वह आत्मा ही ब्रह्म (परम् सत्य) है ।
  
      महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय की आत्मकथा "जीवन नदी के हर मोड़ पर" के लेख- 26. ' सत्य क्या है ' में कहते हैं - " जिस एकमात्र उद्गमस्थान (Source) से सब कुछ अस्तित्व में आया है, उस मूल को ही सत्य वस्तु कहते हैं।  'वही'  जो - 'एकमेवाद्वितीयं  वस्तु' है वही पूरी सृष्टि के सभी ' नाम-रूपों' में समाया हुआ है। बृहदारण्यक उपनिषद में  उस पुरुषोत्तम (सर्वानुस्यूत सत्य वस्तु)  के विषय में कहा गया है - " पुरः स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष आविशत्। "  (बृ. उ. २। ५ । १८) -- आविशत् = प्रवेश किया
मानो सृष्टि के पहले ही वह ब्रह्म वस्तु (वह पुरुष रूप आत्मा या पुरुषोत्तम) मानो पक्षी के जैसे बन कर सभी कुछ में  (पूरे विश्व ब्रह्माण्ड के समस्त शरीरों मेंप्रविष्ट हो गये थे। इस भौतिक जगत में  जिस प्रकार बाहर से भीतर घुसा जाता है,  सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होने को  उस अर्थ में नहीं समझना चाहिये। तैत्तरीय उपनिषद में कहा गया है- 
तत् सृष्ट्वा तत् एव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत्। विज्ञानं च अविज्ञानं च सत्यं च अनृतं च अभवत् । यत् इदं किं च सत्यम् अभवत् तत् सत्यम् !" 
( तैत्तरीय उपनिषद : वल्ली :2 : अनुवाक :6)
[ आत्मा वा इदमेकं एवाग्र आसीत्।  (ऐतरेय उपनिषद 1.1.1) सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति। तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति (छान्दोग्य  6.2.1)He (the Self) wished, ‘ Let me be many, let me be born.’] 
सर्ग के आदि में परम् ब्रह्म पुरुषोत्तम ने - यह विचार किया कि मैं नाना रूपों में उत्पन्न होकर बहुत हो जाऊँ ! यह विचार करके उन्होंने तप किया अर्थात जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिये संकल्प किया।  संकल्प करके यह जो कुछ भी देखने, सुनने और समझने में आता है, इसी जड़-चेतनमय सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की, अर्थात अपने ही संकल्पमय स्वरूप को बाहर प्रकट कर दिया।  उसके बाद स्वयं भी उसमे प्रविष्ट हो गये। 
फिर जिसका वर्णन किया जा सकता है (स्थूल) और नहीं किया जा सकता (सूक्ष्म) ; ऐसे विभिन्न नाना पदार्थों के रूप में हो गये।  इसी प्रकार आश्रय देने वाले और आश्रय न देने वाले, चेतन और जड़ - इन सब के रूप में वे एकमात्र पुरुषोत्तम  ही बहुत से नाम- रूप धारण करके व्यक्त हो गये। 
नारायण उपनिषद में भी कहा गया है -
 "यच किञ्चिज्जगत्यस्मिन् दृश्यते श्रूयतेऽपि वा । 
अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥" 
    वे एक सत्यस्वरूप परमात्मा  ही सत्य और मिथ्या के रूप में प्रकट हुए।  इसीलिये ज्ञानीजन कहते हैं कि-
 " यह जो कुछ देखने, सुनने और समझने ' में आता है, वह सब-का-सब [लोकवत्तु लीला कैवल्यम्
राम या  कालनेमि भी ] सत्यस्वरूप परमात्मा या नारायण ही हैं ! वही ब्रह्म वस्तु सम्पूर्ण सृष्टि में अनुस्यूत य़ा ओत-प्रोत है। अतः वही एकमात्र वस्तु है, और बाकि नाम -रूप अवस्तु है ! जिस प्रकार स्वर्ण के विभिन्न आभूषणों में स्वर्ण ही एक मात्र वस्तु है! 
{मंगलाचरण का सगुण -निर्गुण-परक अर्थ हो सकता है। क्रिया और लीला में अन्तर है। जिस कार्य में कर्तुत्व का अभिमान नहीं होता,वह है लीला। केवल जीवों को परमानन्द का दान करने के लिए प्रभु लीला करते है। यही कारण है कि मक्खन -चोरी,रास आदि सभी को व्यासजी लीला कहते है। प्रभुजी करे वह है “लीला” और जीव करे वह “क्रिया-प्रतिक्रिया ”। क्रिया-प्रतिक्रिया  बन्धनरूप है,कारण उसके साथ कर्ता की आसक्ति स्वार्थ और अहंकार का सम्बन्ध होता है। ईश्वर की लीला बंधन से मुक्त करती है। कारण ईश्वर को स्वार्थ और अभिमान नहीं छू सकते। इष्टदेव में पूर्णतः विश्वास रखकर ऐसा विश्वास रखो कि जगत के जड़ (कालनेमि ) और चेतन (राम) सभी पदार्थों में प्रभु का वास है। ज्ञान मार्ग का लक्ष्य है, ज्ञान से भेद को दूर करना। भक्ति से भेद को दूर करना भक्ति मार्ग का लक्ष्य है।ध्येय एक ही है। सो - भागवत का अर्थ ज्ञानपरक और भक्तिपरक हो सकता है। मार्ग और साधन भिन्न-भिन्न है -किन्तु ध्येय तो एक ही है। इसी कारण सगुण और निर्गुण दोनों की आवश्यकता है। बिना मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग एक अभ्यास किये (राम और कालनेमि दोनों में)   ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। व्यासजी ब्रह्मसूत्र (२.१.३३) में लिखते है; “लोकवत्तु लीला कैवल्यम्।" जीवों के कल्याण करने के लिए भगवान लौकिक जीवों जैसी लीला करते है। जगत की उत्पत्ति लीला है,स्थिति लीला है और विनाश भी लीला है।}    
     उस  तुरीयं (अव्यक्त परमात्मा या ब्रह्म) को देखने तथा अनुभव करने का उपाय श्रीकृष्ण -अर्जुन वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " परम्परा में कथित गीता (17/23) में भगवान् श्री कृष्ण ने उस ब्रह्म के तीन नाम -  ॐ  तत् सत् के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है। " तत्वमसि " – वह तुम हो, "अहं ब्रह्मास्मि" -मैं ही ब्रह्म हूँ, "प्रज्ञानं ब्रह्म" –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, "अयमात्मा ब्रह्म " – यह आत्मा ही ब्रह्म है। श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
           ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।। (17. 23)
(अन्वय - ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः। ब्राह्मणाः तेन वेदाः च यज्ञाः च विहिताः पुरा ॥निर्देशः = उच्चारणम्,ब्रह्मणः = परब्रह्मणः,स्मृतः = प्रसिद्धः,पुरा = पूर्वम्,विहिताः = निर्मिताः ।)
जिससे कोई वस्तु बतलायी जाय उसका नाम निर्देश है। वेदों में ॐ, तत् और सत् - इन तीन शब्दों के द्वारा ब्रह्म का निर्देश हुआ है। इनमें से प्रत्येक शब्द ब्रह्म का ही संकेतक है। वास्तव में ये ब्रह्म के ही तीन प्रकार का नाम है। इसी से सृष्टि के आदि काल में यज्ञकर्ता, वेदविद ब्राह्मण , [यज्ञ के कारण ] वेद और यज्ञ रूप क्रिया की सृष्टि हुई है।   
       प्रत्येक कर्म, चाहे वह अन्नदान , वस्त्रदान या ज्ञान -दान जैसे कर्म ही क्यों न हों ; अपना फल देता है। परन्तु वह फल केवल कर्म पर ही निर्भर न होकर कर्ता के उद्देश्य की शुद्धता की भी अपेक्षा रखता है। प्रत्येक दान की ही दो दिशायें हैं -आत्मकल्याण और परोपकार। वही दान श्रेष्ठ है , जिससे दाता और ग्रहीता दोनों का कल्याण हो। वही दान जिसके माध्यम से अपना कल्याण और परोपकार एक ही साथ साधित होता हो, वही दान सार्थक होता है। क्योंकि दान ग्रहण करने वाले में और दान देने वाले दोनों में चैतन्य रूप से एक ही ब्रह्म (या भगवान श्री रामकृष्ण) विराजमान हैं। लेकिन इस संसार रूपी रंगमंच पर दान देने वाले से दान ग्रहण करने वाला ज्यादा महान होता है। क्योंकि  वह दाता को अपने हृदय को विकसित करने का सुयोग प्रदान करता है।  
      कोई व्यक्ति कितने ही परिश्रमपूर्वक किसी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान क्यों न करे, यदि उसका उद्देश्य  (motive-अभिप्रेरणा)  हीन स्तर का है, तो वह अनुष्ठान उस कर्ता को श्रेष्ठ फल प्रदान करने में असमर्थ होता है। हम सब के कर्म एक समान प्रतीत हो सकते हैं,  तथापि एक व्यक्ति को प्राप्त फल दूसरे से भिन्न होता है। इसका कारण कर्ता के उद्देश्य का गुणधर्म ही हो सकता है। जिस मात्रा में हमारे कर्म निस्वार्थ होंगे उसी मात्रा में प्राप्त पुरस्कार भी शुद्ध होगा। अहंकार के नाश के लिए साधक को अपनी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का बोध होना आवश्यक है।    
     ईश्वर के स्मरण के द्वारा हम अपने उद्देश्यों की आभा को और अधिक तेजस्वी बना सकते हैं। यज्ञ, दान और तप आदि को सद्गुण सम्पन्न बनाने के लिये यह उपदेश दिया जाता है -- ओम् तत् सत् -- यह तीन प्रकार का ब्रह्मका निर्देश है। प्राय कर्मकाण्ड के विधान में कर्म करते समय इस प्रकार के निर्देश के स्मरण और उच्चारण का उपदेश दिया जाता है।  जिसके फलस्वरूप कर्मानुष्ठान में रह गयी अपूर्णता या दोष की निवृत्ति हो जाती है।अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने से ही हम अपने परमात्म स्वरूप में स्थित हो सकते हैं।   
        आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा (सच्चिदानन्द) के जो तीन नाम हैं - ‘ॐ’, ‘तत्’, ‘सत्’ ; उनमें से ' ॐ ' परमात्मा का मूल नाम है। ॐ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। ॐ कोई ध्वनि नहीं है। ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है।  इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था  जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी। इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है। 'अ ' की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, 'उ ' की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है 'म' की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है। यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है।  इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है। 
     परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। तत् शब्द परब्रह्म का सूचक है। उपनिषदों के प्रसिद्ध महावाक्य 'तत्त्वमसि ' में 'तत्' उसी परम सत्य को इंगित करता है, जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म को ही 'तत् ' शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। 
        परमात्मा का तीसरा नाम है सत्, 'सत्' का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। जिससे अज्ञान नष्ट हो जाता है इस प्रकार, " ॐ तत्सत् " इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत, विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही, (मिथ्या उपाधियों को त्यागकर) उसके साथ तादात्म्य करना है। ईश्वर (ठाकुरदेव -माँ सारदा स्वामी विवेकानन्द का) स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। ॐ तत्सत् द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्म से ही समस्त वर्ण, धर्म, वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए हैं। परमात्मा के इन तीन नाम ॐ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है। 
        इस प्रकार ॐ उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा, अविनाशी, सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है सनातनी हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है। बाइबिल भी कहती है की जब 'सृष्टि' नहीं थी तब "शब्द" था। अध्यस्त सृष्टि का कारण उसका अधिष्ठान ही होता है। इसलिए यहाँ "शब्द" का अर्थ 'ध्वनि' से न होकर ॐ का 'ज्ञान' है। भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता में अन्यत्र कहा है - " ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्म। " ॐ ही ब्रह्म है र इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परम् सत्य , परमात्मा या ब्रह्म का अनुसन्धान करते रहना चाहिए। 
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।24।
इस कारण ( ॐ के अर्थ नहीं जानने वाले-'मार्क्सवादी' लोग नहीं, बल्कि सात्त्विक जिज्ञासु ), "ब्रह्मवादी " लोग शास्त्रविधान के अनुसार 'ॐ' इस ब्रह्मवाचक प्रणव या प्रथम शब्द का उच्चारण कर के ही यज्ञ , दान और तपस्या आदि कर्म का अनुष्ठान करने में प्रवृत्त होते हैं। अपने सभी कर्मों में परमात्मा का स्मरण रखने से ही ब्रह्मवादी लोगों को (मार्क्सवादियों की अपेक्षा) श्रेष्ठता, शुद्धता और दिव्यता प्राप्त होती है। परमात्मा के स्मरण में ही अहंकार और उसके बन्धनों (अनात्म उपाधियों से तादात्म्य) का विस्मरण है। अहंकार के अभाव में, साधक अपने तपाचरण में अधिक कुशल, यज्ञ कर्मों में निस्वार्थ और दान में अधिक उदार बन जाता है।
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षि।।17.25।।
(तत् इति अनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः दानक्रियाः च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥)
'तत्' शब्द का उच्चारण कर, फल की इच्छा नहीं रखते हुए, मुमुक्षुजन यज्ञ, तप, दान आदि विविध कर्म करते हैं।
          'तत् इति अनभिसंधाय फलम् '  उत्पत्तिविनाशशील फल या नाशवान् होने से मिथ्या फल की अभिसंधि अर्थात् 'इच्छा' बिलकुल नहीं रहनी चाहिये। बल्कि नित्य-निरन्तर रहने वाले तत्त्व की स्मृति रहनी चाहिये। आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है, और सबका साक्षी होकर सब में व्याप्त भी है, जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। इसका अर्थ है- " I am He - वह मैं हूँ ! " 'तत्वमसि – वेदान्त महावाक्य में ‘तत् नाम वाला जो ब्रह्म है-- वह तुम हो ' के लिए आया है। उस तत् स्वरूप परब्रह्म को या उसके निमित्त  तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण करने से समस्त कर्म निष्काम हो जाते हैं। अतः महामण्डल के प्रशिक्षित नेता / जीवनमुक्त शिक्षक को (अन्नदान , वस्त्रदान या विद्यादान-Be and Make ) समाज सेवा करते समय स्वास-प्रश्वाँस के  साथ 'ततोऽहं'  का चिंतन करते हुए समाज-सेवा का कार्य करना चाहिए। 
     जो पुरुष स्वयं को अपनी आसक्तियों, स्वार्थी इच्छाओं,  अहंकार और उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों के बन्धनों से मुक्त होकर केवल परम् सत्य का अनुसन्धान करने लगे रहते हैं, उसे मुमुक्षु कहते हैं। ऐसे मुमुक्षुओं को यह श्लोक एक उपाय बताता है,  जिसके द्वारा समस्त साधक स्वयं को अपनी वासनाओं के बन्धन से मुक्त कर सकते हैं। मुमुक्षुओं को चाहिए कि वे फलासक्ति को त्यागकर और तत् शब्द के द्वारा परमात्मा का स्मरण करके अपने कर्तव्यों का पालन करें। तत् शब्द भी जगत्कारण ब्रह्म का वाचक है। जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। इस प्रकार, यह शब्द भूतमात्र के आत्मैकत्व का भी सूचक है। यह परम् पवित्र और चित्तशुद्धिकारक भी है ; अतः कोई भी कर्म 'तत्' शब्द का उच्चारण कर किया जाय , वह शुभ होता है। 
      अपने कुटुम्ब के कल्याण के स्मरण रहने पर व्यक्तिगत लाभ विस्मरण हो जाता है।  समाज के लिए कार्य करने में परिवार के लाभ का विस्मरण हो जाता है।  और भारत भक्ति की भावना का उदय होने पर केवल अपने समाजमात्र के लाभ की कामना नहीं रह जाती, तथा विश्व और मानवता के लिए कर्म करने में राष्ट्रीयता की सीमायें टूट जाती हैं। इसी प्रकार, आत्मैकत्व के भाव में चित्त को समाहित करके यज्ञदानादि कर्मों के आचरण से, अहंकार के अभाव में, अन्तःकरण की पूर्वार्जित वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होती। यही मुक्ति है। [व्यष्टि अहं (काचा आमी ) का सर्वव्यापी और विराट अहं (पाका आमी) में रूपांतरित हो जाना ही भ्रममुक्त या d-hypnotized होना है।) 
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।17.26।।
(सद्भावे साधुभावे च सत् इति एतत् प्रयुज्यते प्रशस्ते कर्मणि तथा सत् शब्दः पार्थः युज्यते ॥)
हे अर्जुन ! सदभाव और साधुभाव अर्थात किसी वस्तु का अस्तित्व और श्रेष्ठत्व दिखाने के लिये शास्त्रों में परमात्मा के 'सत्' --इस  नाम का प्रयोग किया जाता है, तथा विवाह आदि प्रशंसनीय (श्रेष्ठ, शुभ) कर्मों में भी 'सत्' शब्द का व्यवहार होता है।। आचार्य शंकर के अनुसार 'सदभाव' पद का अर्थ - 'असतः सद्भावे यथा अविद्यमानस्य पुत्रस्य जन्मनि '---- 'असत् का सद्-भाव' जैसे पुत्र नहीं था अब पुत्र का जन्म होने से पुत्र का जन्म होने से पुत्र का सद्भाव हुआ है , ऐसा लोग कहते हैं। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, और यथार्थ स्वरूप के दर्शन होते हैं।  जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है। यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए  विवाह, उपनयन संस्कार आदि प्रशंसनीय (श्रेष्ठ, शुभ) कर्मों में सत् का प्रयोग किया जाता है। 
           वेदान्त के अन्य तीन महावाक्य "अहं ब्रह्मास्मि" -मैं ही ब्रह्म हूँ, "प्रज्ञानं ब्रह्म " –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, "अयमात्मा ब्रह्म" – यह आत्मा ही ब्रह्म है।  एक सत् को ही बताते हैं। इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें। इसका अर्थ है सत् या आत्मा ही परमात्मा (अस्तित्व और श्रेष्ठ ब्रह्म) है, ऐसा जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ 
             इस प्रकार, " ॐ तत्सत् " शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है; इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है। इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत, विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही, मिथ्या उपाधियों को त्यागकर ब्रह्म (परम् सत्य) के साथ तादात्म्य करना है। 
       इसी कारण हिन्दू बच्चे का उपनयन संस्कार करते समय गायत्री मंत्र  के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं।  वास्तव में " ॐ तत्सत् " परमात्मा के ये तीन नाम ही गायत्री है। 

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माण्डूक्य उपनिषद के 12 मंत्र-  
ओं इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव ।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव ॥ १ ॥
ManU.1 ओम् इत्य् एतद् अक्षरम् इदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यद् इति सर्वम् ओं-कार एव। यच् चान्यत् त्रि-कालातीतं तद् अप्य् ओं-कार एव॥
सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ २ ॥
ManU.2 सर्वं ह्य् एतद् ब्रहायम् आत्मा ब्रह्म सोऽयम् आत्मा चतुष्-पात्॥
जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ ३ ॥
ManU.3 जागरित-स्थानो बहिः-प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोन-विंशति-मुखः स्थूल-भुग् वैश्वा-नरः प्रथमः पादः॥
स्वप्रस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥ ४ ॥
ManU.4 स्वप्न-स्थानोऽन्तः-प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोन-विंशति-मुखः प्रविविक्त-भुक् तैजसो द्वितीयः पादः॥
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवान्दमयो ह्यानन्दभुक्चेतोमुखः प्राज्ञः तृतीयः पादः ॥ ५ ॥
ManU.5 यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्। सुषुप्त-स्थान एकी-भूतः प्रज्ञान-घन एवानन्दमयो ह्य् आनन्द-भुक् चेतो-मुखः प्राज्ञस् तृतीयः पादः॥
एषः सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६ ॥
ManU.6 एष सर्वेश्वर एष सर्व-ज्ञ एषोऽन्तर्-याम्य् एष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्॥
नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते । स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ॥
ManU.7 नान्तः-प्रज्ञं न बहिः-प्रज्ञं नोभयतः-प्रज्ञं न प्रज्ञान-घनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृश्यम् अव्यवहार्यम् अग्राह्यम् अलक्षणम् अचिन्त्यम् अव्यपदेश्यम् एकात्म-प्रत्यय-सारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः॥
सोऽयमात्माध्यक्षरमोंकारः ।
अधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥ ८ ॥
ManU.8 सोऽयम् आत्माध्यक्षरम् ओं-कारोऽधि-मात्रं पादा मात्रा मात्राश् च पादा अ-कार उ-कारो म-कार इति॥
जागरितस्थानो वैश्वानरः अकारः प्रथमा मात्राप्तेरादिमत्त्वाद्वा ।
आप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥ ९ ॥
ManU.9 जागरित-स्थानो वैश्वा-नरोऽकारः प्रथमा मात्राप्तेर् आदिमत्त्वाद् वाप्नोति ह वै सर्वान् कामान् आदिश् च भवति य एवं वेद॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वा ।
उत्कर्षति ह वै ज्ञानसंततिम् ।
समानश्च भवति ।
नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥ १० ॥
ManU.10 स्वप्न-स्थानस् तैजस उ-कारो द्वितीया मात्रोत्कर्षाद् उभयत्वाद् वोत्कर्षति ह वै ज्ञान-सन्ततिं समानश् च भवति नास्याब्रह्म-वित् कुले भवति य एवं वेद॥
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारः तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा ।
मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥ ११ ॥
ManU.11 सुषुप्त-स्थानः प्राज्ञो म-कारस् तृतीया मात्रा मितेर् अपीतेर् वा मिनोति ह वा इदं सर्वम् अपीतिश् च भवति य एवं वेद॥
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैतः ।
एवमोंकार आत्मैव ।
संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद ॥ १२ ॥
ManU.12 अ-मात्रश् चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवम् ओङ्-कार आत्मैव संविशत्य् आत्मनात्मानं य एवं वेद॥
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भारत की वैदेशिक निति और घरेलू नीति (Foreign and Domestic Policy of India) / भारत की राष्ट्रीय और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा/  " भारत का - NARA "(National Ambition and Regional Aspirations of India)रविवार, 2 जून 2019 : महामण्डल ब्लॉग /उदयति दिशि यस्सां भानुम
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 6 . माया संतरण का अमोघ उपाय है कैम्प में (C-IN-C) के साथ 6 दिनों का निर्जनवास।                     
 ईश्वर (माँ जगदम्बा) से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ’ इस प्रकार का भ्रम-विपर्यय हो जाता है। विपर्यय माने अन्यथा भान या अन्य में अन्य बुद्धि है। अकर्ता में कर्तृत्वभाव, अभोक्ता में भोत्कृभाव, एक में नानात्वभाव विपर्यय है। फिर द्वितीय में अभिनिवेश हो जाता है- आग्रह हो जाता है। फिर भय हो जाता है। भय कैसे होता है? "चार प्रकार के जीव - बद्ध , मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त" (- ठाकुर देव !) जीव की अवस्था दो प्रकार की होती है—मुक्तावस्था और बद्धावस्था। मुक्तावस्था में जीव सब प्रकार के जड़ीय सम्बन्धों से मुक्त होकर स्व-स्वरूप अर्थात शुद्ध चित्स्वरूप में अवस्थित होता है। उस अवस्थामें कोई  उपाधि नहीं होती। एक ही श्लोक में बन्ध कैसे होता है। और मोक्ष कैसे होता है, यह बताया- ‘भयं द्वितीयाभिनिवेशत’ ! { भागवत का (11.2.37) कथन है- भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद् ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृति:। श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द भावना भावित व्यक्ति ही योग का (विवेक-दर्शन का) पूर्ण अभ्यास कर सकता है। और चूंकि योगाभ्यास का (मनःसंयोग का) चरम लक्ष्य, हृदय का विस्तार अर्थात  अंत:करण में भगवान का दर्शन पाना है, अत: श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा से भावना से भावित नेता (C-IN-C) नवनीदा समस्त योगियों में श्रेष्ठ होता है।}  परमेश्वर से विमुख प्राणी को भगवान की माया से स्वरूपविस्मृति होती है, स्वरूपविस्मृति से विपर्यय होता है, विपर्यय से द्वितीयाभिनिवेश होता है, द्वितीयाभिनिवेश से भय होता है। देहादि अन्य वस्तुओं में अभिनिवेश-तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेक भय होते हैं। 
इसलिये अपने गुरु/नेता को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये। 

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। 
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः प्रकाशन्ते महात्मन इति॥"
 - (श्वेताशतर उपनिषद ६. २२) 
(अन्वय : यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ तस्य महात्मनः कथिताः एते अर्थाः प्रकाशन्ते॥) 

-- अर्थात् जिसकी परात्पर परब्रह्म भगवान (श्रीरामकृष्ण) में अखण्ड भक्ति है और गुरुदेव (स्वामी विवेकानन्द) /या महामण्डल के नेता (C-IN-C) नवनीदा में अनन्य प्रीति है, वेद-वेदान्तार्थ , चार महावाक्यों का अर्थ  उसी की बुद्धि में अधिरूढ़ होते हैं, सबकी बुद्धि में आते नहीं। ऐसे 'महात्मा' पुरुष को जब ये महान् विषय (4 महावाक्य) बताये जाते हैं, वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस 'महात्मा' के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं।


       अर्थात जो एथेंस का सत्यार्थी ,अखण्ड, अनन्त, परात्पर परब्रह्म ईश्वर परमात्मा (परम् सत्य) का अखण्ड अनुसन्धान करता रहता है, और साथ-साथ ईश्वर का नाम भी जपता है;   उसे प्रत्यक चैतन्य का भी अधिगम होता है।  सर्व प्रकार के अन्तराय  का भी अभाव हो जाता है। इस तरह भगवान् के सम्मुख होने से अस्मृति निवृत्त हो जाती है।  'भगवत्स्वरूप’ का बोध हो जाता है, अतएव विपर्यय निवृत्त हो जाता है। विपर्यय के निवृत्त होने से द्वितीयाभिनिवेश खत्म हो जाता है। द्वितीयाभिनिवेश खत्म होने से भय खत्म हो जाता है। 
हरिः ॐ॥ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्‌। 
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ॥ (- ऐतरेयोपनिषद् १.१.१) 
( अन्वय :  अग्ने वै इदम् आत्मा एकः एव आसीत्। अन्यत् किञ्चन मिषत् न आसीत् । सः ईक्षत लोकान् नु सृजै इति॥ इदं जगत् पुरा आत्मैव आसीत् । चञ्चलं किमपि अन्यत् नासीत् । ‘अहम् इदानीं लोकान् सृजानि’ इति आलोचनं कृत्वा आत्मा इदं सर्वम् असृजत ॥)

इस जगत के प्रारम्भ होने के पहले केवल आत्मा ही था। अर्थात आरम्भ में 'एकमेव' 'परमात्म-चैतन्य' था। उसके अतिरिक्त कोई भी स्पंदन करने वाला नही था।  तथा यह सब (सम्पूर्ण जगत्) 'परमात्म-चैतन्य' ही था; इसके अतिरिक्त अन्य कोई द्रष्टा नहीं था। 'परमात्म-चैतन्य' ने विचार किया, ''अरे, मैं अपनी ही सत्ता में से स्वयं को लोकों के रूप में सृष्ट कर दूँ।''
उपनिषदों की प्रशिक्षण पद्धति : शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।। (-मुण्डक उपनिषद १.१.३)
 शौनक ने जब अंगिरस से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" (महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?), तो उन्होने उत्तर दिया- द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च । तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते ॥ - (मुण्डकोपनिषद्)
 दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है, परा विद्या और अपरा विद्या। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्द, ज्योतिष - ये अपरा विद्या हैं। और परा विद्या वह है जिसके द्वारा वह 'अक्षर' (नष्ट न होने वाला) जाना जाता है। " सत असत क्षरम अक्षरम "- (विष्णु सहस्त्रनाम, महाभारत) तथा गीता (१५.१६) में भगवान कहते हैं - 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।  
इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकारके पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।
 जिसे पूर्व के त्रयोदश अध्याय में क्षेत्र कहा गया था वह वस्तुतः परमात्मा से भिन्न वस्तु नहीं है। वह परमात्मा जब सूर्य का प्रकाश और ताप, चन्द्रमा का शीतल प्रकाश,  पृथ्वी की उर्वरा शक्ति, मनुष्य में ज्ञान,  समृति और विस्मृति की क्षमता आदि के रूप में व्यक्त होता है;  तब ये सब वस्तुतः परमात्मस्वरूप ही सिद्ध होते हैं। परन्तु,  इस प्रकार अभिव्यक्त होने में अन्तर केवल इतना होता है कि परमात्मा " क्षेत्र " के रूप में ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह भी विकारी और नश्वर है। 
उदाहरणार्थ-  स्वर्ण से बने सभी आभूषण (कार्य) स्वर्ण (कारण) रूप ही होते हैं।  परन्तु आभूषणों (कार्य) के रूप में वह स्वर्ण (कारण) परिच्छिन्न और परिवर्तनशील प्रतीत होता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण "क्षेत्र " को इस श्लोक में क्षर पुरुष कहा गया है। "क्षेत्र " (2-H) को जानने वाले क्षेत्रज्ञ आत्मा (3rd-'H') को ही यहाँ अक्षर पुरुष कहा गया है। 
उसका 'अक्षरत्व' इस चर (क्षर) जगत् की अपेक्षा से ही है। जैसे एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी की दृष्टि से 'पति' और पुत्र की दृष्टि से 'पिता' कहलाता है। इसी प्रकार, शरीर- मन और बुद्धि (2H) की परिवर्तनशील क्षर उपाधियों की अपेक्षा से इन सब के ज्ञाता आत्मा (3rd-H) को अक्षर पुरुष कहते हैं। पुरुष शब्द का अर्थ है पूर्ण। केवल निरुपाधिक परमात्मा ही पूर्ण है। उपर्युक्त "क्षर" और "अक्षर" तत्त्व उसी पूर्ण पुरुष के ही दो व्यक्त रूप होने के कारण उन्हें भी पुरुष की संज्ञा दी गयी है। इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं। 
कूट का अर्थ है निहाई, जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है, परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है। इसी प्रकार उपाधियों के समस्त विकारों में यह आत्मा अविकारी ही रहता है, इसलिये उसे कूटस्थ कहते है। पूर्ण पुरुष इन क्षर और अक्षर पुरुषों से भिन्न तथा इनके दोषों से असंस्पृष्ट नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव का है। 
 " इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ ऋ.वे. १.१६४.४६ ॥ भावार्थ: - " उस 'सत' को जो एक और अद्वितीय है , पंडित लोग उसको कई पदवी या उपाधि से पुकारते हैं , कोई उसे इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि , यम , मात्रिश्वा तो कोई उसे दिव्य पंखों वाला  'गरुत्मान्' कहता है। 
उद्दालक ने अपने उपदेश शुरू किए: सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।
तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं
तस्मादसतः सज्जायत ॥ छान्दोग्य ६.२.१॥

“ हे सौम्य (सोम यज्ञ द्वारा निर्मित सोम -रस का पान करने का अधिकारी है, उसे सौम्य कह रहे हैं), प्रारम्भ में यह ब्रह्माण्ड ' सत ' होने के कारण केवल एक और अद्वितीय ही था। "
“In the beginning, O Somya (who is fit to drink the Soma juice (prepared in Soma yagnya), this universe was Being (Sat) alone, one only without a second. Some say that in the beginning this was non−being (asat) alone, one only without a second; and from that non−being, being was born.”
{ असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। (तैत्तिरीय उपनिषद २.७.१) Meaning: In the beginning there was only ‘asat‘. From that ‘sat‘ manifested.
श्वेतकेतु को शंका हुई : कुतस्तु खलु सोम्यैवँ स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । उसने पूछा -अर्थ:  ’असत्’ से ’सत्’ कैसे अभिव्यक्त या विकसित हो सकता है?
उद्दालक उसकी शंका का निराकरण करने के लिए स्पष्ट करते हैं:
सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।। 6.2.2 ।।
तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत तस्माद्यत्र क्कच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यापो जायन्ते ।। 6.2.3 ।।
 प्रारम्भ में केवल 'सत्' ही था। उस एक "सत" ने इच्छा की मैं अनेक (स्थूल रूप से अभिव्यक्त हो जाऊँ।) जड़ (achit-अन्तःकरण रहित) और चेतन (chit-अन्तःकरण युक्त) ब्रह्माण्ड बन जाऊँ। और जैसे ही ब्रह्म ने संकल्प किया वो अनेक बन गया। यह 'सत्' का प्रथम संकल्प है।        
Meaning: Only ‘sat’ was in the beginning. The “Sat” wished that “I become the multitudinous (expanded-SthUla) chit and achit tatvas ie., the universe”. The “Sat” became many, as it wished. This is “Sat’s” first Sankalpam (Wish).
फिर उन्होंने 'तेज' (तैजस) को बनाया। 'तेज' ने सोचा मैं अनेक बन जाऊँ , उसने जल का निर्माण किया। 
तेज या अग्नि तो चेतन (sentient-अन्तःकरण युक्त) नहीं हैं, इसलिए वे इच्छा कैसे कर सकते हैं ? यहाँ श्रुति यह कहना चाह रही है कि 'तेज ' या अग्नि का भी अन्तर्यामी जो नारायण हैं, उन्होंने ही 'तेज ' को अपने शरीर के रूप में धारण किया है। उन्होंने इच्छा की और जल का निर्माण किया। इस प्रकार नारायण ने ही अग्नि (तेज), जल, पृथ्वी आदि पंचभूतों का निर्माण किया।       
He created ‘teja’. ‘teja’ desired may I become many, it created water. ( Non-sentient ‘teja’ can’t desire. What sruti means that the antaryaami of ‘teja’ i.e. Narayana, having teja as its body; desired and created water). Thus, Narayana created teja, water, earth etc.
पंचीकरण विद्या : भगवान जगत की सृष्टि करने के लिये इन पंचभूतों को विभिन्न अनुपात में मिश्रित करते हैं। वह पहले अग्नि, जल और पृथ्वी को दो भागों में विभाजित करते हैं। फिर प्रत्येक भाग के 3 भाग बनाते हैं। फिर वह उन्हें मिलाना शुरू करता है। इसे पंचीकरण प्रक्रिया कहते हैं। किसी भी तत्व में हम जो कुछ  लालिमा देखते हैं, वह अविभाजित तेजस के कारण है। किसी भी तत्व में हम जो भी धवलता (निर्मलता गोरापन) देखते हैं, वह अविभाजित जल के कारण है। किसी भी तत्व में हम जो भी कालापन देखते हैं, वह अविभाजित पृथ्वी के कारण है। (माँ काली क्या काली है ?) 
 Bhagwaan mixes the panchatattva in various proportions to evolve the world. He first divides tejas, water and earth into two parts. Then again makes 3 part of each part. Then he starts mixing them. This is called panchikaranam.Whatever redness we see in any element is due to undivided tejas.Whatever whiteness we see in any element is due to undivided aapah. Whatever blackness we see in any element is due to undivided prithvi.
     आगे सात्विक आहर की आवश्यकता पर बल दिया गया है: अन्नमयं  हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति तथा सोम्येति होवाच ।। 6.5.4 ।।
भावार्थ: " हे सौम्य , मन अन्न से बनता है (जैसा खाय अन्न वैसा बने मन) , प्राण जल से बना और वाणी तेजस से बनी।"
अन्नमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमया वागिति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति तथा सोम्येति होवाच ।। 6.6.5 ।।
अर्थ: " हे सौम्य , इस प्रकार मन को अन्नमय कहते हैं , प्राण में जल के साथ अनुकूलता होती है और वाणी में अग्नि के साथ अनुकूलता रहती है।
उद्दालक ऋषि पहले अचित (जड़) की सृष्टि का वर्णन करने के बाद, अब चित (जीवात्मा) के सृजन का वर्णन करते हैं। 
ॐ या अस्तित्व (existence) के 4 चरण हैं: जाग्रत अवस्था, स्वप्न-अवस्था, सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था) और तुरीय अवस्था। सुषुप्ति अवस्था या गहरी नींद की स्थिति में भी , व्यक्ति अपने नाम और रूप (name and form) से रहित होता है, तथा 'सत्’ के साथ तादात्म्य की स्थिति में होता है।
 " उद्दालको हारुणिः श्वेतकेतुं पुत्रमुवाच स्वप्नान्तं मे सोम्य विजानीहीति यत्रैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनं स्वपितीत्याचक्षते स्वँ ह्यपीतो भवति ।। 6.8.1।  अरुण ऋषि के पुत्र उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा: “ हे मेरे प्रिय सौम्य, निद्रा के सच्चे स्वरूप को जानो। जब कोई व्यक्ति गहरी नींद में प्रवेश करता है, तो उसे  'स्वपिति ' - ऐसा कहा जाता है, क्योंकि उस समय वह अपने 'स्व ' के साथ 'सत'(अज्ञात ब्रह्म) के साथ एकत्व की अवस्था का अनुभव करता है। 
{ Uddalaka the son of Aruna said to his son Svetaketu: “Learn from me, my dear, the true nature of sleep. When a person has entered into deep sleep, as it is called, then, my dear, he becomes united with  Sat. That is why they say he is in deep sleep (svapiti); it is because he has gone (apita) to his own (svam).} 
सुषुप्ति अवस्था कैसी है ? स्वपिति = स्व+ अपिति = स्व यानी जीव शारीरक परब्रह्म में प्रलीन (अपिति) हो जाना के कारण आत्मा को स्वपिति कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषद में सुषुप्ति अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया गया है: " तद्यथा प्रियया स्त्रिया सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नाऽऽन्तरमेवमेवायं पुरुषः प्राज्ञेनाऽऽत्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नाऽऽन्तरम् । (बृहदारण्यक उपनिषद ६.८.२) 
      सत्य हरिश्चन्द्र नाटक में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जैसा लिखा है ”टूट टाट घर टपकत खटियौ टूट। पिय कै बांह उसिसवां सुख कै लुट“। ’- घर टपक रहा है और खटिया भी टूटी हुई है पर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को इस प्रकार से आलिंगन में बाँधकर गहरी नींद में सोया है कि उसे भीतर या बाहर किसी चीज की जानकारी नहीं होती। ठीक उसी प्रकार सुषुप्ति की अवस्था में , अपनी अन्तर्यामी आत्मा  (नारायण श्रीरामकृष्ण) की गोद में सो जाने के बाद भीतर या बाहर की किसी चीज की जानकारी नहीं होती।   
(Just like a person embracing his loving wife is not aware of anything inside or Outside, similary after embracing antaryaami aatma (Narayana) during Susupti; the person is neither aware of anything outside, nor inside.) 
   जीवन क्या है ? स्वामी जी कहते हैं - " एक अन्तर्निहित शक्ति अपने आप को व्यक्त करना चाह रही है, किन्तु बाह्य परिस्थितियाँ और परिवेश का दबाव , उसके अभिव्यक्त होने में बाधक बन जाती हैं, महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास से ( मुख्यतः माँ सारदा देवी की कृपा से) बाह्य-परिवेश और परिस्थितियों के दबाव को हटाकर अपनी अंतर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त कर लेना ही जीवन है !"
 " हृदय को विस्तारित करते हुए , जिनसे तुम्हारा मत नहीं मिलता उनको भी अपना बना लेना जीवन है, और संकुचित हृदय करके दूसरों से घृणा करना मृत्यु है। " 
 { जीवित मनुष्य का प्रमाण :   What is Life? " Life is the unfoldment and development of a being under circumstances tending to press it down."  Expansion is life, contraction is death.• Love is life and hatred is death.• Strength is life, weakness is death.}

कारण अन्तरात्मा ही ‘सर्व भूतान्तरात्मा’ सभी की आत्मा होती है। एकत्व में सभी का समावेश रहता है। एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त होता रहता है। इस तरह जीवन की रहस्य कथा समझाते हुए यमराज कहते हैं:
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा।
एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।।
जिनकी प्रज्ञा जागृत हो गई वे धीर मानव अन्तरात्मा का सातत्यपूर्वक दर्शन करते रहते हैं। उन्हें यह स्पष्ट दिखता है कि जीवन की अनेकता में यह एक ही आत्मा विराजती है। फिर द्वैत-दुजापन कैसे टिक सकता है? और एकत्व को मृत्यु मार नहीं सकती। वह कालातीत होता है।  एकबारगी काल-विजयी अमृतत्व का सुखदायी ठिकाना पा लिया कि दुनिया की ओर देखने की अमृतानुभवी दृष्टि बदली हुई नजर से देखना प्रारम्भ करती है। इसलिये सामवेदी ऋषि को सभी ऋतुएँ रमणीय लगी हैं। क्योंकि जीवन की समग्रता पर वह समग्रता से सर्वाग्रता से प्रेम करता है। समग्रता में जीने वाले द्रष्टा ऋषि को एकांगी रहना कैसे सम्भव होगा? उसके लिये प्रत्येक दिन, हरेक क्षण मंगल है, महोत्सव है। जो अनेकता को सत्य मानकर उसका पीछा करते हैं, सुख के लिये व्यर्थ की दौड़ लगाते हैं, उन्हें मृत्यु आकर पकड़ लेती है। यह बात भी यमराज स्पष्ट शब्दों में बता देते हैं- " मृत्योः सर्वै मृत्युं गच्छति। य इह नानेब पश्यति।" 

      चिन्मय जीवन प्रारम्भ में, एकत्व-स्थित था-‘एकोSहम्’। परन्तु विशुद्ध एकात्मता में खेल नहीं हो सकता- ‘एकाकी ना रमत।’ इसलिये ‘बहुस्यांप्रजायेय’ अनेक में अभिव्यक्त होने की इच्छा प्रकट हुई। उपनिषदों ने अनेकता के जन्म की कहानी कहते समय एक रहस्य का उद्घाटन किया: प्रणव के ऊँकार के स्वर में से यह अनेकता जाग उठी। केवल वेदों ने ही नहीं, पवित्र बाइबिल भी यही गान गाता है- 'In the Beginning there was the word' प्रारम्भ में था शब्द। उर्दू भाषा में ‘अलीफ’ यानी एक-यहीं से प्रारम्भ होता है। और गुरु नानक देव भी ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के नाम को ‘एक ऊँकार सतनाम’ कहकर ही प्रणाम करते हैं। 
संपूर्ण चर्चा  में, ब्रह्म को जगत के कारण अर्थात्, केवल संकल्प मात्र से  सृष्टि के निर्माता के रूप में वर्णित किया गया है। इसे 'कार्य-कारण भाव' कहा जाता है।  वह 'तुरीयं ' हैं और  इन सब का  अधिष्ठान है। तुरीयं या पुरुषोत्तम अद्वितीय हैं, भोक्ता , भोग्य और भोजयिता (ईश्वर-माँ काली) का भी अधिष्ठान है, इसलिये वे (ब्रह्म के अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्ण) ईश्वर से भी ऊपर या परे हैं ! (Turiya or PuruShottama is the 'one ' even above, beyond. Ishwara.)]
        लेकिन हमारा शरीर जब तक है, तब तक जीवन की अभिव्यक्ति 'अनेकता' में जीना तो पड़ता ही है।
 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि , जीवन एक प्रकार के जुये (Gambling) जैसा है।  क्योंकि एक जीवन = 100 वर्ष का समय ? या पता नहीं कितना समय मिला है ? इसी जीवन (काल-खण्ड) में यदि जीत गए - अर्थात बाह्य परिस्थितियों और परिवेश (Bh) के दबाव को हटाकर , अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त कर लिए तो भव-पार उतर गया,  नहीं तो नहीं तो हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले चला गया। 

स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयत एवमेव खलु सोम्य तन्मनो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते प्राणबन्धनं हि सोम्य मन इति ।। 6.8.2 ।।
     भावार्थ: जिस प्रकार एक बहेलिया (पक्षी पकड़ने वाला) के हाथ की लम्बी डोर से बँधा हुआ बाज पहले तो हर दिशा में उड़ता फिरता है , लेकिन कहीं भी उसको आराम नहीं मिलता, तो अन्त में उस डोर को पकड़े बहेलिये के हाथ पर ही आकर बैठ जाता है। उसी प्रकार जाग्रत और स्वप्न अवस्था में जगत प्रपंच से आतंकित होकर प्राज्ञ नामक जीवात्मा (मन या अन्तःकरण) थक कर गहरी नींद में श्रीरामकृष्ण (माँ जगदम्बा) के शरण में सो जाना चाहता है। सन्त कवि सूरदास जी कहते हैं -  
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज़ की पंछी, फिरि जहाज़ पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
श्री कृष्ण (इस युग में - युगनायक विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण) ही जीव की और यह समस्त सृष्टि की आत्मा होने से एक मात्र आश्रय है।
जैसे सागर में तैरते जहाज पर बैठा पंछी मन की चंचलता से उड़ता तो है पर मध्य सागर में उसे कहीं ओर आश्रय नही मिलता, तो वह फिर आ कर जहाज पर बैठ जाता है।
जीव भी इस संसार सागर में अपनी विषयासक्ति के कारण यहाँ वहाँ भटकता है पर आत्मा श्री रामकृष्ण हौने से कहीं दूसरे विषय में उसका मन स्थायीरुप से लगता नही भटकता रहता है।
कमलनयन विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण के महात्म्य को जाने बिना जो "अन्य" का ( अर्थात tv पर प्रवचन देने वाले अधिकांश ढोंगी गुरुओं का) भजन करते है वे तो एसे मूढ है जो पास बहती गंगा को छोड कर कुँआ खोद कर प्यास बुझाने का सोचते है
कोई भँवरा एक बार यदि कमल का रस चख ले तो क्या फिर कभी करील जैसे कडवे फल को चाखेगा कभी  ??? नही, कदापि नहीं । 
      इस भाग-दौड़ की  जिंदगी में से कुछ समय यदि हम “हरि” नाम में (या भारत -भक्ति में)  लगा लें तो कुछ अंश सुख का हमारी झोली में आ गिरे,  लेकिन हम है कि इस मशीनी और बीजी जिंदगी से समय निकालना ही नहीं चाहते।  क्योंकि हम इतने ज्यादा भोगी हो चुके हैं कि भगवद -भजन में थोड़ा भी समय बिताना रास ही नहीं आता। लेकिन यदि हम, चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का दृढ़ संकल्प कर लें तब सरलता से समय भी निकाला जा सकता है। वर्तमान समय में यदि मोह माया से थोड़ा सा अलग कर के, सुबह -शाम केवल 5-5 मिनट मन को एकाग्र करने का अभ्यास (मनःसंयोग) करते हुए -" आत्ममूल्यांकन " किया जाय , स्वयं का आकलन किया जाए, आत्मसमीक्षा की जाय  तब शायद चक्षु खुलने में देर ना लगे। क्योंकि जब अपने ही मन को देखने का अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास)  भी ईश्वर (श्रीरामकृष्ण देव) की उपासना बन जाता है ; तब मंदिर और प्रयोगशाला का भेद समाप्त , मंदिर और खेल का मैदान , मन्दिर और खेती-गृहस्थी का भेद समाप्त हो जाता है। हर काम ईश्वर की उपासना बन जाता है। 
          लौकिक गुरू से अनेक विद्याएँ सीखकर आए श्वेतकेतू को अहंकार हो गया था अपनी विद्याओं का। इसलिये छांदोग्य उपनिषद में पिता आरुणी उद्दालक अपने बेटे श्वेत केतू को इस सर्व व्याप्ति की संकल्पना स्पष्ट करने के लिये उदाहरण देकर समझाने का कार्य कर रहे हैं। पिता आरुणी उद्दालक से उसने जीवन की एकात्म मूलभूत सत्ता का परिचय पाया।  जीवन जीने की कला और विज्ञान उसे सीखने को मिला। वह नम्र हो गया। जो भूत मात्र के लिये नम्र हो गया, उसने अनन्त तत्त्व को अपने में आत्मसात कर लिया।  आज की नई पीढ़ी को असन्तुलित पर्यावरण (कोबिड-19)  ही गुरु बनकर सिखा रहा है। उससे संयम, सादगी का पाठ पढ़कर नचिकेता के समान भोग-त्याग की हिम्मत, तथा  मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण  युवा वर्ग क्यों नहीं ले सकता ? तो स्वर्ग धरती पर उतारने के लिये नचिकेता ने यमराज से जैसे अग्नि विद्या सीख ली थी वैसे ही दूसरों के लिये जीने का, नये सिरे से उचित कर्मानुष्ठान करने का व्रत लिया जा सकता है। 
      कोविड -19 {COVID-19 lockdown } के कारण , जब सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों की यह भागदौड़ वाली जिंदगी जब एक दिन अचानक रुक जाती है,  तब हमें अहसास होता है कि प्रभु का भजन तो किया ही नहीं , इसलिए उनको तो पाया ही नहीं ?  इसलिए देर ना करते हुए यदि समय रहते (घुटनों के ऑपरेशन से पहले , शरीर से स्वस्थ रहते ही)  प्रभु भक्ति की अनिवार्यता का थोड़ा भी अहसास होता है तब अपना कुछ समय इसमें लगाना चाहिए। किसी भी मनुष्य के साथ ना माया जाएगी ना ही मोह (न टाका और न माटी) ही काम आएगा। यदि कुछ काम आएगा तो वह प्रभु की भक्ति ही होगी, बाकी सब तो यहीं धरा रह जाएगा।आज और अभी से हमें यह प्रण करना चाहिए कि भोगों में अधिक लालच को त्याग कर, थोड़ा कम करके,  मोह- माया का जाल भूलकर सत्संग में (श्री रामकृष्ण -विवेकानंद  वेदांत शिक्षण -प्रशिक्षण परम्परा के प्रचार -प्रसार में)  मन लगाएं। प्रभु श्री रामकृष्ण के कार्य - महामण्डल आंदोलन के साथ एक बार जो प्रीत लग गई तब किसी भी दूसरी चीज में कभी मन नहीं रमेगा। 
भक्ति की अनुभूति के आधार पर ही कोई जिज्ञासु , एथेंस का सत्यार्थी या साधक मेरा तत्त्वतः जो स्वरूप है उसे पहचान सकता है, जान सकता है। यह बात कृष्ण अर्जुन को गीता (१८/५५)  में समझाते हैं-
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ ॥
(भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः।  ततः मां तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥) 
 (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है।      
   भगवान् को तत्त्वतः  जानने का अर्थ है ,  उनके 'सर्वव्यापक' (मधुरभुक) एवं 'सर्वातीत' (तुरीयं)   इन दोनों ही स्वरूप को जानना। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने लिए जो मैं शब्द का प्रयोग करते हैं,  वह अपने परमात्म स्वरूप की दृष्टि से ही कहते हैं।  वसुदेव के पुत्र के रूप में नहीं। अत जब वे कहते हैं वह (साधक) मुझमें प्रवेश करता है,  तब उसका अर्थ किसी गृह में प्रवेश के समान न होकर साधक की आत्मानुभूति से है। भक्त का आत्मस्वरूप भगवान् के परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। यहाँ कथित प्रवेश ऐसा ही है;  जैसे स्वप्न द्रष्टा जाग्रत् पुरुष में प्रवेश करता है। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि एक साधन सम्पन्न उत्तम अधिकारी निदिध्यासन के द्वारा परमात्मा का अनुभव आत्मरूप से ही करता है उससे भिन्न रहकर नहीं। जगत् के प्राणियों की सेवा के बिना ईश्वर की सेवा पूर्ण नहीं होती। 
        इस ‘तत्त्वतः’ शब्द में सर्व व्याप्ति का रहस्य खुल गया है। लेकिन शब्द से इसे समझा देना सम्भव ही नहीं है। केवल इतना जान ले तो काफी है कि कृष्ण यानी सर्व व्याप्ति सबके साथ एकात्मता। ऐसी अवस्था में ऊंच- नीच का विभेद, अपना -पराया , ज्ञानी -अज्ञानी का भेद , स्त्री-पुरुषों के भिन्न स्तर यह द्वन्द्वात्मक अनुभव कैसे टिकेगा? 
    एकात्मता की यह आराधना अमृतत्व का साक्षात्कार कराती है। तब द्वैत, अनेकता के विभिन्न आकार-विकार, विराम पाते हैं। फिर श्रवण-मनन इत्यादि की आवश्यकता बचती ही नहीं। क्योंकि कौन किसका श्रवण-मनन करेगा? शेष रह जाता है केवल इस एकात्मता को जीकर व्यवहार में उसका रस सराबोर कर देना। ‘कर देना’ भी नहीं, हो ही जाता है सराबोर वह!
      ब्रह्मांड का निर्माण ब्रह्म के लिए केवल एक नाटक है, लेकिन इस दिव्य नाटक में, आत्मा को अपने कर्मों से पीछा छुड़ाने और  पूर्णत्व प्राप्त मनुष्य बनने और बनाने की लीला विभूति में प्रवेश करने का मौका मिलता है। (The creation of universe is just a play for the Brahman but in this divine play, aatmas gets chance to clear off its karma and enter leela vibhuti.)
 मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया में,  "Be and Make मनुष्य निर्माण आंदोलन "  में निःस्वार्थ भाव से जुड़े रहने पर  यह रहस्य उद्घाटित हो जाता है कि -" चाहे गोकुल (कामारपुकुर)  में रहो या मथुरा (दक्षिणेश्वर काली मंदिर ) में रहो, पर बंशी बजाते रहो कहीं न कहीं, रास रचाते रहो कहीं न कहीं , झलक दिखाते रहो कहीं न कहीं। .... "आदि - अन्त मेरा है राम !" 
         निवृत्ति-मार्ग 'ज्ञान योग' का लक्ष्य है, ज्ञान से अपना-पराया के भेद (ब्रह्म और जीव भेद या द्वैत भाव) को दूर करना। प्रवृत्ति मार्ग (कर्म योग और भक्ति योग) का लक्ष्य है निष्काम कर्म और इष्टदेव की भक्ति से भेद को दूर करना । सभी योग मार्गों  का ध्येय एक ही है। इसलिए अधिकारी भेद के अनुसार कोई चाहे प्रवृत्ति मार्गी हो या निवृत्ति मार्गी हो , दोनों का लक्ष्य एक ही है। मार्ग और साधन भिन्न-भिन्न है -किन्तु ध्येय तो एक ही है।

      इसी कारण सगुण और निर्गुण दोनों की आवश्यकता है। वैसे तो ईश्वर अरूप है किन्तु जिस रूप की भावना से वैष्णवजन तन्मय होते है, [विवेक-दर्शन या स्वामी विववेकानन्द की छवि पर प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास कर मन को तल्लीन कर सकते हैं.] वैसा स्वरुप ईश्वर धारण करते है। भागवत में सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का निरूपण है। निर्गुण स्वरूप में प्रभु सर्वत्र है और सगुणस्वरूप में प्रभु श्रीरामकृष्ण अपने रामकृष्ण लोक में विराजते है। अपने -अपने इष्टदेव में पूर्णतः विश्वास रखकर ऐसा विश्वास रखो कि जगत के जड़ और चेतन सभी पदार्थों में प्रभु का वास है। इसलिए भगवान भाष्यकार द्वारा रचित  मंगलाचरण के प्रथम श्लोक का सगुण -निर्गुण-परक दोनों अर्थ में हो सकता है।
      लेकिन चाहे व्यक्ति किसी भी मार्ग का अधिकारी क्यों न हो।  बिना एकाग्रता का अभ्यास (विवेक-दर्शन आधारित मनःसंयोग) किये " खुली आँखों से ध्यान" अर्थात मनुष्य मात्र में ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। क्रिया-प्रतिक्रिया करने और लीला करने में अन्तर है। प्रभुजी करे वह है “लीला” और जीव करे वह “क्रिया-प्रतिक्रिया ”। क्रिया-प्रतिक्रिया  (व्यष्टि अहं के स्वार्थ से प्रेरित कर्म) बन्धनरूप है, कारण कि उसके साथ कर्ता की आसक्ति स्वार्थ और अहंकार का सम्बन्ध होता है। 
      ईश्वर की लीला का स्वाध्याय (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग का स्वाध्याय)  बंधन से मुक्त करती है। कारण कि ईश्वर को स्वार्थ और अभिमान नहीं छू सकते। जिस कार्य में कर्तुत्व का अभिमान नहीं होता, वह है लीला। केवल जीवों को परमानन्द का दान करने के लिए प्रभु लीला करते है। यही कारण है कि मक्खन -चोरी, रास आदि सभी को व्यासजी लीला कहते है। श्रीकृष्ण मक्खन -चोरी , गाय चराने जाना , बंशी बजाना , झलक दिखाना अपने लिए नहीं-किन्तु अपने मित्रों के लिए, केवल लोक-शिक्षा के लिए करते है।
       इसलिये महर्षि व्यासदेव ब्रह्मसूत्र में लिखते है- 'लोकवत्तु लीला कैवल्यम्' (ब्रह्मसूत्र, 2/1/33) जगत (नाम-रूप) की उत्पत्ति लीला है, स्थिति लीला है और विनाश (लय) भी लीला है। लय भी भगवान की लीला ही है। लेकिन सामान्य जीव को उत्पत्ति और स्थिति भाती है परन्तु लय (मोक्ष?) नहीं। इसलिये जीवों के कल्याण करने के लिए नारायण स्वयं अवतार लेकर लौकिक जीवों जैसी लीला करते है।
इसलिए कहा -  मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ इस प्रथम श्लोक की चर्चा यहाँ सम्पन्न होती है। इस श्लोक की टीका पर हमलोग आगे विचार करेंगे। 

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        अर्थात, यह सारा दृष्टिगोचर जगत और हम स्वयं पहले 'सत' ही थे। जब यह सब कुछ पहले 'सत' ही था, जैसे ईंट, पत्थर, खपरैल सब कुछ पहले मिट्टी ही था, तो अभी भी मिट्टी ही है, बस मिट्टी से अलग जैसा लग रहा है।  यानी कि सोना और लोहा दोनों एक ही हैं, अलग जैसे लग रहे हैं। 
        लेकिन हम तो 'सोना' (Gold -Au) और 'लोहा' (Iron-Fe) को अलग ही मानते हैं और 'खुद' को भी इन दोनों से अलग मानते हैं। अर्थात हम 'श्रुति प्रमाण' से होने वाले वास्तविक ज्ञान (वेदान्त) के बिलकुल उल्टा मानते हैं। इसका अर्थ है कि हम अज्ञानी हैं। अर्थात यदि केवल Chemical Formula को ही जानते हैं, गीता और उपनिषद को नहीं जानते तो हमें पढ़ा-लिखा अज्ञानी ही कहा जायेगा। 
        इस अज्ञान अवस्था (Hypnotized अवस्था) में, हम जिस लोहा और सोना को एक दूसरे से अलग मानते हैं, वह लोहा और सोना वास्तव में है ही नहीं। लोहा और सोना का अन्तर हमारी बुद्धि में है, बाहर नहीं। बाहर रहने वाला 'लोहा और सोना' तो ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) से अभिन्न है। हमारी बुद्धि में दिखने वाला सोना और लोहा, ब्रह्म से भिन्न है। "टाका-माटी, माटी-टाका  " (पैसा और मिट्टी) एक ही है, लेकिन अलग जैसे लग रहे हैं। ऐसा श्रुति बताती है, और विवेकानन्द के गुरु  श्री रामकृष्ण ने इस महावाक्य का अपने जीवन में आत्मसातीकरण करके भी दिखाया है।
      इस प्रकार हमने देखा कि अज्ञानी के लिये दो जगत हैं।  एक ब्रह्म से भिन्न, उसके अज्ञान द्वारा कल्पित जगत और दूसरा उसके सामने रहने वाला ब्रह्म से अभिन्न जगत।  इसी को आचार्य  शंकर ने अपने  भाष्य में  'कार्य-कारण-अनन्यत्व' कहा है। 
    'कार्य ' कारण से अलग नहीं (पूर्वार्ध) पर 'कारण' कार्य से अलग है (उत्तरार्ध)।  इसी न्याय का विस्तार है: जगत ब्रह्म से अलग नहीं (पूर्वार्ध) पर ब्रह्म जगत से अलग है (उत्तरार्ध). पूर्वार्ध का जगत (कार्य) पंचभूतों से निर्मित है, और ब्रह्म से अभिन्न है। उत्तरार्ध का जगत (कार्य) ब्रह्म से भिन्न हमारी अविद्या से कल्पित मिथ्या जगत है, यह पंचभूतों से निर्मित नहीं है। 

       श्रुति  हमें इस अज्ञान अवस्था से (सम्मोहित अवस्था)  ज्ञान में (विसम्मोहित या भ्रममुक्त अवस्था,  D-Hypnotized अवस्था) ले जाना चाहती है, क्योंकि श्रुति अज्ञात-ज्ञापक है।  ब्रह्म जगत का अप्रत्यक्ष और मूल कारण है।  लेकिन हम ब्रह्म से भिन्न उत्तरार्ध जगत ही देखते हैं।  इसलिए श्रुति हमें इस प्रारंभिक अवस्था में मूल कारण का  उपाधित्वेन ज्ञान (भोक्ता , भोग्य , भोजयिता के उपाधि के माध्यम से) कराती है।
 भी हमें ब्रह्म के विषय में बताती है।  वस्तुत: नाम-रूप ब्रह्म से अभिन्न हैं क्योंकि सब कुछ पहले सत था और अभी भी सत है।  इसलिए नाम-रूप ब्रह्म से अभिन्न हैं।  इसलिए वे ब्रह्म की उपाधि बन ही नहीं सकते।  लेकिन  ब्रह्म के विषय में कुछ भी कहें, तो वह उपाधित्वेन ही कह सकते हैं। इसलिए श्रुति ब्रह्म का स्वरूपत: ज्ञान कराने के लिए उपाधि-कृत अध्यारोप का अपवाद करती है और नेति नेति का उपदेश देती है।
       इस प्रकार से हमने देखा कि ब्रह्म का ज्ञेय के रूप में ज्ञान हो ही नहीं सकता।  ब्रह्म में ज्ञाता, ज्ञेय और विशेष-ज्ञान की त्रिपुटी ही नहीं। वेदांत अध्ययन में यह अविस्मरणीय तथ्य है कि ‘नेति नेति’ के सिवा ब्रह्म के विषय में जो कुछ भी कहा जाता है वह उपाधित्वेन ही कहा जाता है।  यहाँ तक कि ‘ब्रह्म’ शब्द भी उपाधित्वेन ही प्रयुक्त है।  ब्रह्म को जगत्कारण कहना भी औपाधिक दृष्टि से ही है।
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Mandukya Upanishad 0.23 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर/
मायासंख्या तुरीयं !
जो ब्रह्म भोक्ता , भोग्य और भोजयिता रूप से प्रतीति कराता है। कल्पना कराता है, लेकिन वह स्वयं अधिष्ठान है। वो स्वयं कैसा है ? तो कहते हैं - तुरीयं ! मायासंख्यातुरीयं - वो तुरीय है। चतुर्णां पूर्ण तुरीयं -को तुरीय कहा जाता है। तीन हैं और चौथी संख्या को पूरा करने वाला। चार संख्या का जो आश्रय है , उसे तुरीय कहा जाता है। तो मानना पड़ेगा कि उससे पहले और तीन हैं। वह एकत्व संख्या , द्वित्व संख्या और त्रित्व संख्या के आश्रय हैं। ये तीन नहीं होंगे तो चौथा कैसे हो सकता है ? तीन के बिना चतुर्थ की कल्पना नहीं होती। चतुर्थ कहने से यही अर्थ निकलेगा और तीन हैं। तब तो उसको कहना पड़ेगा -सद्वितीय ब्रह्म। और अगर सद्वितीय होगा तो फिर वह संसारी हो जायेगा। सद्वितीय का अर्थ होगा कि उससे अलग और भी तीन हैं। और तुरीय का अर्थ है -ये चौथा है।
     तो सद्वितीय होने से ब्रह्म में संसारित्व की आपत्ति आएगी। इस प्रकार की शंका का निराकरण करने के लिए कहा गया कि -मायासंख्यातुरीयं। इसलिए कहते हैं वो जो पहले तीन हैं , वे वास्तविक सत्ता वाले हैं , या प्रातिभासिक हैं ? वास्तविक तो नहीं है , प्रातिभासिक है -कल्पित है। जिनके नाम विश्व, तैजस ,प्राज्ञ , ईश्वर, हिरण्यगर्भ ,वीड़ाड़ - वे उपाधि के कारण तीन बने हैंतीन अवस्थायें , तीन अवस्थाओं का अभिमानी; और उन तीन अभिमानियों के - तीन शासक ! तीन संख्या के आश्रय , ये जो तीन हैं -ये मायिक हैं। और मायिक त्रित्व में रहने वाली जो संख्या है वो है -मायासंख्या ! और उस माया संख्या जो त्रित्व संख्या है ,उस त्रित्व संख्या के आश्रयभूत जो तीन हैं ,उनकी अपेक्षा से यहाँ पर तुरीय शब्द का प्रयोग है। वस्तुतः उसे तुरीय भी नहीं कहा जाता , उसमें कोई संख्या नहीं है। माया के कारण ही पहले तीन की सत्ता है , इसलिए मायिक तीन की अपेक्षा से ये चौथा कहा जा रहा है। उसमें स्वरूपतः चतुर्थ नहीं है। वह स्वरूपतः चार संख्या का आश्रय नहीं बना। वो बना, मायिक तीन पदार्थों की अपेक्षा से, सिद्ध जो, चौथी संख्या , चार संख्या -उसका आश्रय चतुर्थ। वस्तुतः उसमें तुरीयत्व नहीं है। ये यहाँ पर मायासंख्या तुरीयं से कहा। 
      तो वस्तुतः उसमें सद्वितीयत्व क्यों न माना जाय ? तो कहते हैं, इसलिए कि तुरीय संख्या को मायिक संख्या मान रहे हैं। ऐसा क्यों ? तो कहते हैं इसलिए की 'परम्' ! वह वस्तुतः संख्या रहित है। वह ब्रह्म माया से भी परे है , माया से भी असंश्लिष्ट है ! उसका वस्तुतः माया (Bh) के साथ भी स्वरूपतः कोई संसर्ग नहीं है। जो कुछ भी संसर्ग है , वो मायिक संसर्ग है। माया से सम्बन्ध बना है , इसलिए कल्पित चतुर्थ संख्या है, वास्तविक तो वह स्वयं है। उसे न तो एक , न तो दो , न तो तीन , न तो चार कहा जाता है। वो वही है ! शब्दातीत है न ? इसलिए उसमें संख्या भी नहीं है। कोई दूसरा हो तब उसकी अपेक्षा से उसको द्वितीय , तृतीय , चतुर्थ कहा जा सकता था। वह जिस पारमार्थिक सत्ता वाला है , वैसी पारमार्थिक सत्ता वाली कोई दूसरी वस्तु होगी तीन, तो वास्तविक तुरीय उसे कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं। इसलिए उसमें वस्तुतः तुरीयत्व नहीं है। ये दिखाने के लिए ब्रह्म का एक विशेषण है - तुरीयं ब्रह्म। परम् ब्रह्म! याने वो 'पर' है। याने उपाधि से असंश्लिष्ट हैमायारूप उपाधि (Bh) के साथ भी उसका वस्तुतः संसर्ग नहीं हुआ है। कल्पित सर्प (Bh) के साथ, रस्सी का वस्तुतः कोई सम्बन्ध कभी बना ही नहीं है। वास्तविक सम्बन्ध। कल्पित समान सत्ता वाले पदार्थों में ही सम्बन्ध होता हैतो ब्रह्म की तरह कोई दूसरा समान सत्ता वाला पदार्थ हो तो उसमें वास्तविक सम्बन्धता आएगी। और एक में सम्बन्ध रहता नहीं है , सम्बन्ध को कहा ही जाता है -द्विष्ठ ! द्विष्ठ कहते हैं -दो में रहने वाले को। सम्बन्ध हमेशा दो पदार्थों में बनता है, एक में नहीं।[प्रेमगली अति साँकरी या में दो न समाये !] 
      और ब्रह्म जिस पारमार्थिक सत्ता वाला है , उस सत्ता वाली कोई दूसरी वस्तु होगी, तब ब्रह्म का वास्तविक संसर्ग भी उस वस्तु के साथ हो सकता है। उसे ससंग कहा जा सकता है , फिर वो सद्वितीय होगा। लेकिन वेद बताता है कि ब्रह्म के सिवा कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं। वही - सत एव सौम्य इदम् अग्र आसीत् एकं एव अद्वितीयं" (छान्दोग्य ६.२.१). वो अद्वितीय है। इसलिए वो परम् है। याने उपाधि से वस्तुतः असंश्लिष्ट है। दूसरे से कोई संसर्ग उसका होता ही नहीं है। जब दूसरे से वास्तविक संसर्ग ही नहीं होगा तो फिर उसमें तुरीयत्व कहाँ से आएगा ? तो इसलिए उसमें तुरीयत्व भी कल्पित है। मन्यन्ते यानि ऐसा माना जाता है, वास्तव में वो चतुर्थ नहीं है। तीन की अपेक्षा से चौथा उसे माना जाता है।  तो जो कहा -  मायासंख्यातुरीयं परममृतमजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ इस प्रथम श्लोक की चर्चा यहाँ सम्पन्न होती है। इस श्लोक की टीका पर हमलोग आगे विचार करेंगे। 

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  Mandukya Upanishad 0.24 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: तत्र विधिमुखेन वस्तुप्रतिपादनम्/
अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद भाष्य के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के मुख्य बिन्दुओं पर हमलोगों ने विगत 23 वीडियो में चर्चा कर चुके हैं। इस श्लोक पर आनन्दगिरी जी द्वारा लिखित टीका का विचार अब हम करने जा रहे हैं। भगवान भाष्यकार ने -प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, इत्यादि से उपनिषद प्रसिद्ध निर्विकार ब्रह्म का आत्मरूप से अनुसन्धान रूप मंगलाचरण करते हुए , इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय की भी सूचना प्रदान की। विषय को भी सूचित किया , ये सब चर्चा पहले हो चुकी है।        
 अब टीका को देखें  -प्रज्ञानेत्यादिना से पूर्ववर्ती टीका तो थी पूरे श्लोक की अवतरण टीका। मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के चतुर्थपाद में आया हुआ जो अंतिम वाक्य है - ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ इस वाक्य की जो अवतरण टीका है -अब उसे देखिये। वहां लिखा है - तत्र विधिमुखेन वस्तुप्रतिपादनमिति प्रक्रियां प्रदर्शयति – ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मीति तो वस्तु का प्रतिपादन , वस्तु कहते हैं विषय को। ग्रन्थ में जिस अर्थ  बताया जा रहा है , उस अर्थ को कहा जायेगा विषय-वस्तु। उस विषय-वस्तु का प्रतिपादन दो प्रकार से होता है एक विधिमुख से और एक निषेधमुख से।  
विधिमुख से प्रतिपादन का अर्थ है , प्रतिपाद्य पदार्थ में भावात्मक धर्मों को स्वीकार करके उसका प्रतिपादन करना। तो यहाँ प्रतिपाद्य हैं ब्रह्म। तो ब्रह्म में भावात्मक धर्मों को स्वीकार करके उसका प्रतिपादन किया जाय तो वो माना जायेगा विधिमुख से प्रतिपादन। और निषेधमुख से प्रतिपादन होता है ब्रह्म में अभावात्मक धर्मों को स्वीकार करके, ब्रह्म का प्रतिपादन। उसे निषेधमुख से प्रतिपादन कहेंगे। 
 ब्रह्म का विधिमुख से प्रतिपादन जिस प्रक्रिया से होता है, उस प्रक्रिया का नाम है -अध्यारोप प्रक्रिया। और जिस प्रक्रिया से निषेधमुख से प्रतिपादन किया जाता है, उस प्रक्रिया का नाम है -अपवाद प्रक्रिया। और दोनों प्रक्रिया से ब्रह्म का निरूपण होता है। ' अध्यारोप-अपवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते ' - प्रपञ्च यानि संसार , तो निष्प्रपञ्च का अर्थ निकलेगा असंसारी ब्रह्म , उस ब्रह्म का अध्यारोप और अपवाद द्वारा प्रतिपादन किया जाता है। यहाँ विधिमुख से ब्रह्म का प्रतिपादन हो रहा है। इसलिए टीकाकार कहते हैं - तत्र विधिमुखेन वस्तुप्रतिपादनमिति प्रक्रियां प्रदर्शयति – ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मीति । [यदि आपलोगों के पास कैलाश आश्रम की टीका वाली पुस्तक होगी , तो उसमें नंबर 2 टिप्पणी में विधिमुखेन का अर्थ बताते है।] वहां टिप्पणीकार ने विधिमुखेन का अर्थ प्रतिपादित किया है। भावरूपधर्म पुरस्कारेण वस्तु प्रतिपादनं विधिमुखं विधिमुख वस्तु प्रतिपादन का अर्थ क्या हुआ ? भावरूप धर्मों को प्रतिपाद्य अर्थ में स्वीकार करके प्रतिपाद्य वस्तु का प्रतिपादन। और निषेधमुख से प्रतिपादन किसको कहा जायेगा ? तो उसको 3 नंबर टिप्पणी में लिखते हैं - अभावरूप धर्म पुरस्कारेण वस्तु प्रतिपादनं तन निषेधमुखं उच्यते । याने अभावरूप धर्मों को स्वीकार करके वस्तु का प्रतिपादन करने को माना जाता है निषेधमुख से प्रतिपादन। (अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है।) तो नेति ,नेति से किया जाता है -निषेधमुख से प्रतिपादन।
यहाँ विधिमुख से प्रतिपादन किया जा रहा है , इस दृष्टि से प्रक्रिया के लिए 3 नंबर टिप्पणी में कहते हैं - अध्यारोप प्रक्रिया। यहाँ अध्यारोप और अपवाद रूप प्रक्रिया में से किस प्रक्रिया को अपनाया जा रहा है ? तो कहते हैं -अध्यारोप प्रक्रिया द्वारा ब्रह्म का प्रतिपादन किया जा रहा है।  ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मीति ! नतोस्मि में नमन क्रिया है न ? नमन का अर्थ बताते हुए कह रहे हैं - अस्मदर्थस्य तदैक्यस्मरणरूपं नमनं सूचयता ब्रह्मणस्तदर्थस्य प्रत्यक्त्वं सूचितमिति तत्त्वमर्थयोरैक्यं विषयो ध्वनितः। तो ब्रह्म यत तन नतोस्मि ' में नमन रूप अर्थ के परामर्शक नम धातु का प्रयोग करके। नम धातु का प्रयोग करने से कैसे ब्रह्मात्म-एकत्व रूप अर्थ ध्वनित होगा ? अस्मद शब्द का अर्थ होता है अहं। अर्थात तत्त्वमसि में 'त्वं' अर्थ। अस्मद एक सर्वनाम है। इसलिए मैं ब्रह्म को नमस्कार कर रहा हूँ। कौन से ब्रह्म को ? तो जो उपनिषद प्रसिद्द ब्रह्म हैं उनको। तदैक्य शब्द का अर्थ हुआ ब्रह्म के साथ प्रत्यक आत्मा के एकत्व का अनुभव करता हुआ। प्रत्यक आत्मा के साथ अभेद अनुभव का स्मरण , ऐक्य का स्मरण, ये है नमन शब्द का अर्थ ।
अनादि, अनिर्वचनीय अज्ञान से कहो या माया से कहो ,जीव अपने ब्रह्मस्वरूपता को भूल गया है। उसे ब्रह्मरूपता का oblivion या विस्मरण हुआ है। है ब्रह्मरूप ही लेकिन उसे उसकी स्मृति नहीं है। उसकी स्मृति कहीं खो गयी है  (सिंहशिशु की स्मृति जैसे खो गयी थी , तब वह अपने को भेंड़ समझ रहा था ?) भूल गया है अपनी ब्रह्मरूपता को। तो कोई वस्तु खो जाय , और फिर अचानक याद आ जाये कि फलाने जगह रखी है। तो उसे कहा जाता है, विस्मृत वस्तु का स्मरण हो गया। वैसे जीव को ब्रह्म के साथ जो अपना एकत्व है , उस एकत्व का हो गया है विस्मरण। और कब से हुआ है ? अनादि काल से हुआ है। क्यों हुआ है ? अनादि अविद्या के कारण। 
तो यह हुआ ऐक्य का स्मरण। (14 .4 .1992 को, 42 वर्ष की आयु में ?) विस्मृत ब्रह्मभाव का स्मरण हुआ ! ब्रह्म के साथ एकत्व का स्मरण। यही नमस्कार है। ये नमन का अर्थ है कि अपने ब्रह्म के साथ विस्मृत एकत्व को याद करना। नमनकर्ता ब्रह्मरूप होता हुआ भी , वह अपनी ब्रह्मरूपता को विस्मृत कर बैठा है। उसे स्मरण हुआ अपनी ब्रह्मरूपता का। तो माना गया कि ब्रह्म के साथ अपने एकत्व का स्मरण ही नमन है। तत्वमसि वाक्य में दो शब्द है - तत और त्वम्। तत का अर्थ हुआ ब्रह्म , उस ब्रह्म का त्वम् के साथ अभेद है। ब्रह्म प्रत्यक आत्मा है। प्रत्यगात्मा के साथ तदर्थ ब्रह्म का यदि अभेद होगा तो माना जायेगा कि ब्रह्म ही सबकी प्रत्यगात्मा हैप्रत्यक शब्द का अर्थ होता है अन्तर , अभ्यांतर। प्रत्यगात्मा का अर्थ निकलेगा -अन्तरात्मापंचकोशों से अभ्यंतर जो आत्मा। पंचकोश कहो या तीन शरीर कहो-स्थूल ,सूक्ष्म और कारण , वो है उपाधि। और इन तीनों शरीरों के जो अंदर है, उसे कहा जाता है -प्रत्यगात्मा। ये तीनो शरीर है अनात्मा , बाह्य , और जिससे अभ्यंतर दूसरा कोई न हो -उसे कहा जाता है ,सर्वान्तर ! तो प्रत्यगात्मा हैं सर्वान्तर , सबसे अभ्यांतर आत्मा। वो है अस्मद अर्थ। और उसके साथ ब्रह्म का एकत्व। यही तो नमस्कार है। एक प्रकार से ये सूचित किया गया कि ब्रह्म ही सबकी प्रत्यगात्मा है, अन्तरात्मा है। मनुष्य ही नहीं जीवमात्र की प्रयागात्मा ब्रह्म है। ये बताकर के वेदांत का जो प्रतिपाद्य विषय है- जीव-ब्रह्म एकत्व ! उसे यहाँ पर ध्वनित कर रहे हैं, सूचित कर रहे हैं। यत शब्द से उपनिषदों में प्रसिद्द ब्रह्म कहा गया है , ब्रह्म कहाँ पर ज्ञात हैं ? तो वेदांत से ज्ञात हैं। वेदांत प्रसिद्द हैं ब्रह्म , लौकिक प्रमाण से तो ब्रह्म की प्रसिद्धि नहीं है। केवल वेदांत प्रमाण से वह ब्रह्म ज्ञात होता है। वेदांत प्रसिद्द ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ - तन्न नतोस्मि से भाष्यकार भगवान अपने मंगलाचरण की निर्विघ्न समाप्ति की प्रार्थना भी कर रहे हैं।                    
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Mandukya Upanishad 0.25 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: ब्रह्मणः अद्वितीयत्वाद् एव जननमरण/
टीका में आगे है -ब्रह्मणः अद्वितीयत्वाद् एव जननमरणकारणाभावाद् अमृतम् अजम् इति उक्तम्। जननमरणप्रबन्धस्य संसारत्वात् तन्निषेधेन स्वतः असंसारित्वं दर्शयता संसारानर्थनिवृत्तिः इह प्रयोजनमिति द्योतितम्
प्रथम पंक्ति में - 'अमृतम् अजम्' द्वारा वेदान्त प्रसिद्ध ब्रह्म के दो विशेषण और बता रहे हैं कि वो अमृत है अज है ! अज कहने का मतलब है कि वो अनादि और अमृत कहने का अर्थ है कि वह अनन्त है। ब्रह्म इसलिए अज हैं , कि उनके जन्म का कोई निमित्त नहीं है। जीवों के जन्म-मरण का निमित्त होता है - अविद्या , काम और कर्म। अविद्या याने मूल-अविद्या -अज्ञान , और शरीर आदि में 'अहं' तथा शरीर सम्बन्धियों में 'मम' अध्यास वो है- कार्य-अविद्या ! अविद्या शब्द से मूल-अविद्या अज्ञान और कार्य-अविद्या 'अहं' अध्यास और 'मम' अध्यास, इन दोनों को लिया जाता है। और काम शब्द से संसार अंतःपाती इस लोक के और परलोक के विषय भोग की इच्छा। वो काम शब्द का अर्थ हुआ desire या कामनाएं। तो दो प्रकार की अविद्या और ऐहिक-पारलौकिक विषय भोग की इच्छा। भोग्य पदार्थों की इच्छा। और कर्म क्या है? कर्म शब्द से अर्थ निकलेगा - उसी विषय-भोग की कामना से प्रवृत्त होकर के किया गया पापात्मक तथा पुण्यात्मक कर्म। इसलिए प्रत्येक जीव अपने आप को अविद्या , काम और कर्म से युक्त समझता है। जीव है सूक्ष्म शरीर के साथ तदात्म्यापन्न चैतन्य । और ये तीनो -अविद्या , काम और कर्म रहते कहाँ हैं ? उसी सूक्ष्म-शरीर अंतःपाती जो बुद्धि है , उसीमें अविद्या , काम और कर्म रहते हैं। अविद्या या अध्यास अभी कहाँ है ? बुद्धि में है। उसका कारणभूत अज्ञान भी बुद्धि में है। और काम यानि इच्छायें वे भी बुद्धि में ही स्थित हैं।बुद्धि विशिष्ट चैतन्य ही भोक्ता है न , इसलिए जो भोक्ता होगा उसीमें भोग की इच्छायें रहेंगी। तथा शरीर, इन्द्रियों और मन से होने वाली शास्त्र-सम्मत और शास्त्र-निषिद्ध क्रियाएं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। शरीर-मन -इन्द्रियों से होने वाले शास्त्र-सम्मत क्रियाओं को पुण्यकर्म और शास्त्र-निषिद्ध क्रियाओं को पापकर्म कहा जाता है। और इनका जो सूक्ष्म रूप है , जिसे कहा जाता है , धर्माधर्म ,अदृष्ट ,अपूर्व इस नाम से। जो भी क्रियाएं शरीर -मन से होती हैं , उनका हमारे चित्त पर एक सूक्ष्म छाप पड़ जाता है, उसी को शास्त्रीय भाषा में धर्माधर्म , पाप-पुण्य, अदृष्ट , अपूर्व आदि नाम से कहा जाता है । ये सब अपूर्व , धर्माधर्म कहाँ रहते हैं ? बुद्धि में ही रहते हैं। और अविद्यावशात उस बुद्धि के साथ तादात्म्य करके अज्ञानी जीव बुद्धि को ही अपना स्वरुप समझता है। इसलिए बुद्धि के जो धर्म हैं -अविद्या , काम और कर्म,  को बुद्धि के साथ तादात्म्य करने वाला जीव अपना भी धर्म मान लेता है। अविद्या-काम-कर्म हैं बुद्धि के धर्म , समझता है अपना धर्म। क्योंकि अविद्या अवस्था में जीव अपने को बुद्धि से अलग नहीं मानता। [स्वयं बुद्धि का द्रष्टा बनाने का प्रशिक्षण , मनःसंयोग का अभ्यास नहीं करता। ?] अविद्या अवस्था में जीव अपने को बुद्धिरूप ही मानता है। और जन्म माना जाता है, स्थूल शरीर के साथ बुद्धि-प्रधान सूक्ष्म शरीर का कुछ समय के लिए संयोग। उसीका नाम है जन्म।  और मृत्यु है स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का हमेशा-हमेशा के लिए वियोग। स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का संयोग है , जन्म। और स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का हमेशा के लिए वियोग का नाम है मृत्यु। 
तो ये जो जन्म-मृत्यु होते रहते हैं , ये क्यों हो रहे हैं ? ये अविद्या , काम , कर्म से हो रहे हैं। और जब तक जीव बुद्धि के साथ तादतम्य करके -बुद्धि के धर्म अविद्या काम कर्म को अपना धर्म समझेगा , तब तक उसे जन्म-मरण रूप संसार-चक्र से कोई बचा नहीं सकता। उसका जन्म-मरण रूप संसार बना ही रहेगा। गंगा-प्रवाहवत अविच्छिन्न रूप से बना ही रहेगा। [उसका गंगालाभ होता ही रहेगा ?] और ब्रह्म में ये तीनो -अविद्या , काम, कर्म नहीं होते हैं। इनको कहा जाता है -जन्म-मरणआदि का बीज। याने हेतु -ये तीनो ब्रह्म में स्वभावतः ही नहीं हैं। ब्रह्म असङ्ग है न ? इस लिए इन तीनो के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध नहीं होगा। इसलिए स्वभावतः ही ब्रह्म का जन्म तथा मरण नहीं होगा। स्वभावतः ही ब्रह्म जन्म -मरण के हेतु भूत अविद्या , काम, कर्म से रहित होने से ब्रह्म स्वभावतः ही अज हैं और अमृत है। 
ब्रह्म के उस स्वाभाव को प्रगट करने के लिए भाष्यकार ने अमृतम् अजम् -ये दो विशेषण वेदान्त प्रसिद्ध ब्रह्म के बताये हैं। और यहाँ पर कहा - ब्रह्मणः अद्वितीयत्वाद् एव जननमरणकारणाभावाद् अमृतम् अजम् इति उक्तम्। ब्रह्म के अद्वितीय होने से, जन्म-मरण का जो कारण है -अविद्या ,काम , कर्म ; वो ब्रह्म में नहीं रहेगा -क्योंकि वो अद्वितीय है। जन्म -मरण के कारण का अभाव होने से ब्रह्म स्वभावतः ही अज और अमृत है, अर्थात अनादि और अनन्त हैं। बालावस्था , युवावस्था और वृद्धावस्था शरीर की अवस्थाएं हैं , किन्तु मृत्यु किसी भी अवस्था में हो सकती है। जब तक संसार के साथ बुद्धि का पूरा पूरा सम्पर्क नहीं होता ,अर्थात  पुरुषार्थ और वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं होता, तब तक बुद्धि का पूर्ण विकास नहीं होता , कर्म करने से ही चित्त-शुद्धि होती है। ज्यों -ज्यों 3-H के विकास के 5 अभ्यास द्वारा हम विकसित होते हैं ,और पूर्व जन्म के सभी संस्कार भी सभी के सभी इस जन्म में उद्भूत नहीं होते हैं। जो पूर्व जन्म में शरीर छोड़ते समय इस जन्म में स्वभाव बनकरके अभिव्यक्त होते हैं, वे संस्कार ही यहाँ पर कारण बनेंगे। और पहले जन्म में जितने भी कर्म किये , वे सब के सब इस जन्म के हेतु नहीं होते , उसमें से कुछ होते हैं। इसलिए कर्म का प्रारब्ध और संचित ये दो विभाग होता है। संचित कर्म सुप्त अवस्था में रहते हैं , वे इस जन्म में फल देने में मदत नहीं करते हैं। और सुप्त संस्कार भी यहाँ कारक नहीं बनते , जो उद्भूत संस्कार हैं ,वे कारक बनते हैं , उसी को कहा जाता स्वभाव-प्रकृति ।[nature and signature -प्रकृति और हस्ताक्षर ] और वे संस्कार उद्भूत होने या प्रगट होने में काल की अपेक्षा करते हैं। और जैसे जैसे समय व्यतीत होता है ,वैसे वैसे वो स्वभाव पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होता है। और फिर हम अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करते हैं। ये माना जाता है। 
तो ये जो ब्रह्म हैं , वे स्वभावतः ही जन्म-मरण के निमित्त से रहित होने के कारण, उसे अमृतम् अजम्  इन पदों से अनादि और अनन्त कहा गया। अब आगे कहते हैं , ' जननमरणप्रबन्धस्य संसारत्वात् तन्निषेधेन स्वतः असंसारित्वं दर्शयता संसारानर्थनिवृत्तिः इह प्रयोजनमिति द्योतितम् ।' पहले अमृतम् अजम् इन दो पदों के द्वारा अनुबन्ध -चतुष्टय अंतःपाती वेदान्त का जो प्रयोजन रूप एक अनुबंध विशेष है , उसे कहा गया। और  'ब्रह्म यत तन नतोस्मि' -इसके द्वारा बताया गया विषय को। विषय, अधिकारी , प्रयोजन और सम्बन्ध ये चार होते हैं न-इन चार को अनुबन्ध -चतुष्टय कहा जाता है। 
उसमें से अभिध्येय (उद्देश्य ????) रूप अनुबंध को, 'ब्रह्म यत तन नतोस्मि' से ध्वनित किया। अमृतम् अजम् -इन दो पदों से ध्वनित किया जा रहा है वेदान्त का प्रयोजनवेदान्त का प्रयोजन क्या है ? वेदान्त का प्रयोजन है संसार की निवृत्ति। ये है वेदान्त के ज्ञान मात्र से संसार की निवृत्ति। इस दृष्टि से यहाँ पर कह रहे हैं -जन्ममरणप्रबन्धस्य। प्रबन्ध कहते हैं प्रवाह को। प्रबन्ध याने प्रवाह -नैरन्तर्य, निरंतरता। तो जन्म-मरण की जो निरंतरता है, जन्म-मरण का जो प्रवाह है , इसी का नाम है संसार। जन्मना -मरणा , फिर जन्मना फिर मरना, ये जो प्रवाह चलता जा रहा है , इसीका नाम है संसार। और इस संसार का ब्रह्म में स्वतः अभाव है। क्योंकि संसार का निमित्त अविद्या , काम , कर्म ब्रह्म में नहीं है। अमृतम् अजम् पद ने बताया कि ब्रह्म में संसार का अभाव है , ब्रह्म असंसारी है। तो संसारत्वात्- तन् निषेधेन का अर्थ है जन्म-मरण प्रबन्ध निषेधेन।  अमृतम् अजम् पद के द्वारा-ब्रह्म में - स्वतः असंसारित्वं दर्शयता । भगवान भाष्यकार ने जन्म-मरण रूप संसार के निषेध के द्वारा संसारानर्थनिवृत्तिः इह प्रयोजनमिति द्योतितम्-यह प्रयोजन द्योतित किया कि जीव भी ब्रह्म ही है , ब्रह्म से भिन्न नहीं है। तो यह मानना पड़ेगा कि उसमें भी वस्तुतः जन्म-मरण के हेतुभूत अविद्या , काम , कर्म नहीं है। जैसे जल स्वभावतः शीतल है , उसमें उष्णता स्वभाविक नहीं है। लेकिन अग्नि के सम्पर्क से खौलते हुए जल में जलाने की शक्ति आ जाती है। जल में दाह तत्व कहाँ से आया ? वो तो स्वभावतः शीतल है। उसमें दाहक तत्व आया अग्नि के संसर्ग से। तो जैसे ब्रह्म में संसार के कारण भूत अविद्या , काम कर्म नहीं हैं ,वैसे ही जीव में भी वस्तुतः अविद्या ,काम कर्म नहीं हैं। स्वभावतः जीव भी इनसे रहित है ,तो फिर इसमें यह संसारत्व आया कहाँ से ? जैसे स्वरूपतः शीतल जल में दाहकत्व आया अग्नि के सम्पर्क से। वैसे ही अविद्या-काम -कर्म की जो आश्रय भूता बुद्धि है ,उसके साथ सम्पर्क करने से , उसके साथ तादात्म्य करने से जीव में भी बुद्धिगत संसार का कारण अविद्या , काम कर्म जीव में भास रहा है। नहीं तो वो भी ब्रह्म है न ? किन्तु अज्ञान से वह जीव बुद्धि के साथ अपना तादात्म्य कर बैठा है।  जैसे अग्नि का दाहिकत्व जल में भास रहा है , अग्नि के साथ सम्बन्ध करने से। 
      विवेक-दर्शन अभ्यास की अनिवार्यता :  इसको याने अविवेकी बुद्धि को इस तादात्म्य से अलग करने के लिए उपाय है -वेदान्त का विचार। [आचार्य परम्परा में श्रवण-मनन-निदिध्यासन ] ये विचार भी बुद्धि से ही करना पड़ेगा। इसलिए बुद्धि के दो प्रकार हैं। एक विवेकवती बुद्धि एक अविवेकी बुद्धि ! अविवेकी बुद्धि संसार में ही लगी रहती है। वह मोक्ष के साधनभूत श्रवण-मनन-निदिध्यासन में प्रवृत्त नहीं होती। जिससे बुद्धि के साथ सम्पर्क हमेशा हमेशा के लिए छूट जाये; उसका एकमात्र साधन है -ब्रह्मात्म एकत्व का साक्षात्कार ! अहंब्रह्मास्मि - ऐसा अनुभव हो जाय ! और उस अनुभव का साधन है -श्रवण , मनन , निदिध्यासन। अन्तरंग साधन ये माना गया है। 
    जब याज्ञवल्क्यजी गृहस्थाश्रम का त्याग करके , चौथे आश्रम में प्रवेश करने के लिए अपनी पत्नी मैत्रेयी का अनुमोदन माँगने के लिए गए थे। कह रहे थे कि अब मैं चौथे आश्रम में जाने वाला हूँ , तो अब तुम मुझे जाने की अनुमति देदो। तो मैत्रेयी ने कहा कि मैं आपको जाने की अनुमति तो दे देती , किन्तु आपको पहले मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी। याज्ञवल्क्यजी ने पूछा वो क्या है ?  तब मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य जी से कहा कि मैं असंसारी ब्रह्म भाव को प्राप्त करना चाहती हूँ , अमृत होना चाहती हूँ। क्योंकि ब्रह्म अमृत है न, जन्म-मरण से रहित है। तो मैं भी जन्म-मरण से रहित होना चाहती हूँ , और आप जन्म-मरण से रहित होने का साधन जानते हो। मैं D-Hypnotized होना, अर्थात मुक्त होना चाहती हूँ ! उस मुक्ति का साधन आप जानते हो , वो मुझे बताइये और आप जाइये। तो पहले आप मुझे वो साधन बताइये फिर उसके बाद आप संन्यासी बनने के लिए जाइये। तो याज्ञवल्क्यजी ने कहा ठीक है ! 
       फिर मैत्रेयि को मुक्ति का साधन बताया - आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । बृहदारण्यको-पनिषत् २-४-५/ अरे मैत्रेयि, आत्मा एव द्रष्टव्यः । आत्मा एव श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः॥ अरे मैत्रेयी -आत्मा अमूर्त होते हुए भी इसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, मन से यह अनुभव गम्य है तथा इसे अनुभव में लाने के लिए अभ्यास भी किया जा सकता है । तो याज्ञवल्क्यजी ने कहा आत्मदर्शन करो। आत्मदर्शन कैसे होगा ? आत्मदर्शन याने , अहंब्रह्मास्मि -इस प्रकार से अपरोक्षानुभूति प्राप्त कर लो। तो ब्रह्म असंसारी हैं ,और जब उस असंसारी ब्रह्म का तुमको आत्मरूप से अनुभव हो जायेगा , तो तुम भी असंसारी हो जाओगी। जन्म-मरण से मुक्त हो जाओगी। तो कहा असंसारी ब्रह्म का साक्षात्कार आत्मरूप से कैसे होगा? तब उपाय बताया - 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः !' अर्थात गुरुमुख से /नेता (C-IN-C) मुख से वेदान्त का (चार महावाक्यों का) श्रवण करो, वेदान्त अर्थ (I am He) का मनन करो , वेदान्त अर्थ का निदिध्यासन करो। उससे आत्मज्ञान होगा , और आत्मज्ञान से मुक्ति होगी। 
   इसलिए यहाँ कहते हैं कि बुद्धि के साथ सम्पर्क का विच्छेद मात्र ब्रह्म-साक्षात्कार से होता है। और वो साक्षात्कार श्रवण-मनन-निदिध्यासन से होगा। उससे पहले तक बुद्धि के साथ सम्पर्क या तादात्म्य बना रहेगा।  और बुद्धि के जो धर्म हैं - अविद्या ,काम , कर्म वो जीव में भी भासेंगे। जैसे जल का जबतक अग्नि के साथ सम्पर्क रहेगा तबतक अनुष्ण जल उष्ण ही भासित होगा। उसी तरह असंसारी जीव भी तबतक  संसारी ही प्रतीत होगा , जबतक उसका तादात्म्य विवेक के साथ न होकर, बुद्धि के साथ ही बना रहेगा। अविवेकी जीव तो संसारी के रूप में ही भासेगा। और उस संसार की निवृत्ति किससे होगी ? ब्रह्मज्ञान से !इसलिए  यही वेदान्त का फल है - वेदान्त का प्रयोजन है - ब्रह्मज्ञान से संसार की निवृत्ति ! तो 'अमृतम् अजम्' इन पदों से ये भी सूचित किया गया। इस बात को टीकाकार यहाँ कहते हैं कि - 'तन्निषेधेन स्वतः असंसारित्वं दर्शयता संसारानर्थनिवृत्तिः इह प्रयोजनमिति द्योतितम् ।' इह याने वेदान्त में -वेदान्ते; प्रयोजनं इति द्योतितम् ! वेदान्त में अनुबंध -चतुष्टय अंतःपाती प्रयोजन - याने फल क्या है ? संसार की निवृत्ति ! संसार ही अनर्थ है। तो संसार रूपी अनर्थ की आत्यन्तिक निवृत्ति ये वेदान्त में फल है।          
[विवेक-दर्शन अभ्यास से विवेक-स्रोत का उद्घाटित हो जाना , और उससे संसार की निवृत्ति हो जाना ये विवेक-दर्शन अभ्यास का फल है ! 18.29> 22.47और 'मनुष्य' जो अपने निर्माता ब्रह्म को भी जान लेने की पात्रता रखता है , वह मोक्ष के साधनभूत 'श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त आचार्य के पास विविक-प्रयोग का प्रशिक्षण प्राप्त करने नहीं जाता या 'Swami Vivekananda-Captain Savior Be and Make Vedanta Leadership training Tradition ' में लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त करने नहीं जाता।  अविवेकी बुद्धि के विवेक-स्रोत को विवेक-प्रयोग के 5 अभ्यास द्वारा उद्घाटित करना होगा।  जिसका सबसे आसान तरीका नवनीदा ने मनःसंयोग की कक्षा में पतंजलि योगसूत्र 1.12 पर व्यास-भाष्य को उद्धृत करते हुए कहा था - अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १.१२ ॥ चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराविवेकविषयनिंना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्य् उभयाधीनश् चित्तवृत्तिनिरोधः। १.१२  ] 
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Mandukya Upanishad 0.26 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि ब्रह्म
सर्वम काल्पनिकं : हमलोग अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद पर चर्चा कर रहे हैं। माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका पर आचार्य शंकर द्वारा लिखित भाष्य पर आनन्दगिरि जी ने टिकायें लिखी हैं। मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के प्रथम पाद के प्रज्ञानांशुप्रतानैः इत्यादि पर आनन्द गिरी टीका में उसके अवतरण में जो व्याख्या हुई है , उसके आलोक में अभी तक की चर्चा सम्पन्न हो गयी है। कितने की ? चौथे पाद में - अमृतं अजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि ॥१॥ इतने जो वाक्य हैं , शब्द हैं - यहाँ तक की व्याख्या हो गयी। चौथे पाद के केवल दो शब्द -मायासंख्यातुरीयं परम।  ये दो शब्द बचे हैं। उनकी व्याख्या बाद में होगी। जितने पदों की व्याख्या करना पहले आवश्यक समझा उतनों की कर दी। 
   अब टीकाकार क्रम से मंगलाचरण के पहले पाद, दूसरे पाद , तीसरे पाद की व्याख्या करते हुए आ रहे हैं -यद्यद्वितीयं स्वतोऽसंसारि ब्रह्म वेदान्तप्रमाणकं तर्हि कथमवस्थात्रयविशिष्टा जीवा भोक्तारोऽनुभूयन्ते, भोजयिता चेश्वरः श्रूयते, भोज्यं च विषयजातं पृथगुपलभ्यते । तदेतदद्वैते विरुध्येतेत्याशङ्क्य ब्रह्मण्येव जीवा जगदीश्वरश्चेति सर्वं काल्पनिकं सम्भवतीत्यभिप्रेत्याह – प्रज्ञानेति ।
तो पहले पाद की- प्रज्ञानांशुप्रतानैः इत्यादि की व्याख्या करने के लिए अवतरण में लिखते हैं - यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि ब्रह्म वेदान्तप्रमाणकं /यदि जो स्वतः असंसारी ब्रह्म हैं, अद्वितीय होने से। ब्रह्म असंसारी क्यों है ? अद्वितीय होने से। स्वतः असंसारी हैं। क्योंकि संसार का कारण दूसरा कोई है ही नहीं (ब्रह्म ही इसका निमित्त कारण भी है और उपादान कारण भी है।) तो अद्वितीय होने से ब्रह्म स्वतः असंसारी हैं, और वही वेदान्त प्रमाणक है ! ऐसा कौन बता रहा है, कि ब्रह्म अद्वितीय होने से स्वतः असंसारी है ? ऐसा कौन बता रहा है -तो वेदान्त याने उपनिषद। वेदान्त रूपी उपनिषद प्रमाणक हैं , ब्रह्म असंसारी। तब, ये जो हमें इस समय संसार अवस्था में अनुभव में आने वाली , जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति नामक तीनों अवस्थायें; और इन तीनों अवस्थाओं में अभिमान करने वाला भोक्ता जीव, भोग्य संसार , और भोजयिता ईश्वर का जो अनुभव हो रहा है। ये द्वैत कहाँ से आया ? यदि ब्रह्म अद्वितीय हैं ,तो ये द्वैत कहाँ से रहा है? यही तो संसार है। 
   और टीका में यही पूछा जा रहा है कि- 'तर्हि कथमवस्थात्रयविशिष्टा जीवा भोक्तारो ऽनुभूयन्ते' वेदान्त तो यही बता रहा है कि एक अद्वितीय ब्रह्म ही है , दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं ! ब्रह्म ही ब्रह्म हैं। तो फिर ये तीनो अवस्थाएं , और उनसे विशिष्ट भोक्ता जीवों का अनुभव कैसे हो रहा है ? --कथं अनुभूयन्ते जीवा भोक्तारः ?  वैसे ही - भोजयिता चेश्वरः कथं श्रूयते ? श्रुति तो यह बता रही है कि भोक्ता जीवों को भोग कराने वाले के रूप में ईश्वर (माँ काली) को बता रही है ,ही  भोग करा रहे हैं। कर्मफल विधाता ईश्वर हैं - ये बताने वाली श्रुति भोक्ता के रूप में जीवों का और भोजयिता के रूप में ईश्वर का प्रतिपादन कर रही है। और भोज्य यह विषयरूप जगत दीख रहा है। तो लिखते हैं - भोज्यं च विषयजातं कथं पृथग उपलभ्यते । कथं शब्द शुरू में है न ? उसका अन्वय तीनो के साथ होगा - यानि कथं अनुभूयन्ते,  कथं श्रूयते, और  कथं पृथग उपलभ्यते? याने भोक्ता जीवों का अनुभव कैसे हो रहा है ? और कथं श्रूयते ? अर्थात श्रुति के द्वारा भोजयिता के रूप में ईश्वर को कैसे बताया जा रहा है ? और भोज्य विषयरूप संसार की पृथक उपलब्धि कैसे हो रही है ? 'कथं ' शब्द का प्रयोग यहाँ आक्षेप के अर्थ में किया जा रहा है। यदि एक अद्वितीय ब्रह्म ही हैं , तब जीवों का अनुभव नहीं होना चाहिए , श्रुति को (उपनिषदों को) भी भोजयिता के रूप में या कर्मफल दाता ईश्वर का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए , और संसार की भी उपलब्धि नहीं होनी चाहिए। 'कथं ' शब्द को आक्षेप में लेने से ये अर्थ निकल आएगा। 
     लेकिन जो अनुभव हो रहा है , ये कैसे है ? टीकाकार कह रहे हैं - तद एतद अद्वैते विरुध्येत। तद एतद यानि ये -भोक्ता जीव , भोजयिता ईश्वर और भोग्य जगत' रूपी जो अनुभव में आनेवाला द्वैत है। इसका अद्वैत ब्रह्म (ईश्वर?) के साथ विरोध हैं। अद्वैते ब्रह्मणी विरुध्येत - ब्रह्म को अद्वैत मानने पर इन सब द्वैत प्रतीति  का विरोध होगा। तो---तदेतदद्वैते विरुध्येतेत्याशङ्क्य तद एतद अद्वैते विरुध्येत इति आशङ्क्य' इस प्रकार की आशंका हुई , इस आशंका का निराकरण-  प्रज्ञानांशुप्रतानैः आदि वाक्यों द्वारा जिस अभिप्राय से किया जा रहा है , उस अभिप्राय को टीकाकार बताते हैं कि (ब्रह्मण्येव जीवा जगदीश्वरश्चेति सर्वं काल्पनिकं सम्भवतीत्यभिप्रेत्याह – प्रज्ञानेति ।) -ब्रह्मणि एव जीवा जगदीश्वरः च इति सर्वं काल्पनिकं सम्भवति इति अभिप्रेत्य आह– प्रज्ञानेति कहते हैं ब्रह्म की दो अवस्थायें हैं - एक पारमार्थिक अवस्था और एक व्यावहारिक अवस्था। एक विद्या अवस्था एक अविद्या अवस्था। पारमार्थिक अवस्था है विद्या अवस्था। व्यावहारिक अवस्था है अविद्या अवस्था। अविद्या अवस्था को, व्यावहारिक अवस्था , संसार अवस्था कहते हैं।विद्या अवस्था में तो श्रुति कहती है - यत्र तु सर्वम् आत्मैव अभूत् तत् कः केन कं पश्येत् केन कं विजानीयात् .[ यत्र तु अस्य सर्वम् आत्मैवाभूत्, तत् केन कं जिघ्रेत्, पश्येत्, शृणुयात् अभिवदेत् ? - बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-१४ ] वहाँ द्वैत का निषेध है ,वहाँ अद्वैत ही अद्वैत है - कब ? विद्या अवस्था में। विद्या शब्द से लेना है -अहं ब्रह्मास्मि' इति आकारक साक्षात्कार ! जैसे ही आत्मसाक्षात्कार हुआ कि उससे अविद्या और अविद्या का कार्य-द्वैतमात्र निवृत्त हो गया। सारा का सारा अध्यस्थ जगत बाधित हो गया। तब केवल अधिष्ठान ही अधिष्ठान रह रहा है। तो वहां तो अद्वैत ही है फिर। वहां कोई द्वैत नहीं है। अद्वितीय ब्रह्म है - ये बताया जा रहा है, विद्या अवस्था के लिए, पारमार्थिक अवस्था के लिए। और यह बताया जा रहा है कि ब्रह्म की अज्ञान अवस्था , ब्रह्म विषयक अज्ञान अवस्था है व्यावहारिक अवस्था। उस व्यावहारिक अवस्था में द्वैत है। लेकिन वो द्वैत कल्पित द्वैत है। उस कल्पित द्वैत का अधिष्ठान कौन है ? पारमार्थिक ब्रह्म। ' सत्य '-जो ब्रह्म है। अबाधित सत्य जो ब्रह्म है। पारमार्थिक जो वस्तु होती है, उसका किसी भी अवस्था में बाध नहीं होता। और वही भ्रम का अधिष्ठान होती है , जैसे रस्सी का प्रकाश में ज्ञान होने पर भी रस्सी का बाध नहीं होता है न। रस्सी है अधिष्ठान और सर्प आदि का बाध होता है। बाध होता है का अर्थ है, उसके मिथ्यात्व का निश्चय होता है। वो बाधित हैं , वो कल्पित हैं। स्पष्ट प्रकाश में रस्सी का ज्ञान होने से , रस्सी ही रस्सी है। और मंद अंधकार में जबतक रस्सी का अज्ञान है , तब तक वह रस्सी किसी को सर्प के रूप में भासती है , किसी को माला के रूप में किसी को दण्ड के रूप में भासती है, किसी को भू रेखा के रूप में । रस्सी ही अनेक अध्यस्थ पदार्थ के रूप में भास् रही है। वे सर्प आदि विकल्प कब तक हैं ? जबतक रस्सी का ज्ञान नहीं होता , तब तक।ऐसे अद्वितीय ब्रह्म का अहं ब्रह्मास्मि - इस रूप में साक्षात्कार होने के पहले क्षण तक ,अविद्या अवस्था है। और इस अविद्या अवस्था में जीव भी , संसार भी और ईश्वर भी वैसे ही इस अद्वितीय ब्रह्म में कल्पित हैं , जैसे रस्सी में सर्पादि कल्पित है। सर्प , दण्ड , माला , भूरेखा आदि रस्सी में ही कल्पित है। ऐसे ही ब्रह्म में ईश्वर , जीव , जगत ये तीनों कल्पित हैं। सर्वम काल्पनिकं !  ये कहा। ये सब काल्पनिक हैं , कहने का अर्थ है - अध्यस्थ हैं। अध्यारोपित हैं। तो- सम्भवतीत्यभिप्रेत्याह – प्रज्ञानेति । /इति सर्वं काल्पनिकं सम्भवति इति अभिप्रेत्य आह – प्रज्ञानेति इस अभिप्राय से तीन पादों का वर्णन कर रहे हैं। ये तीनो अवस्थायें , तीनो अवस्थाओं का अभिमानी जीव ,और उनका प्रेरयिता ईश्वर - और तीनो अवस्था का जगत , ये सब अद्वितीय ब्रह्म में कल्पित हैं। इसे बताया जा रहा है। 
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  Mandukya Upanishad 0.27 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि ब्रह्म
 अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद के व्याख्यान रूप भाष्य के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक की व्याख्या रूप  आनन्द गिरी जी की टीका ग्रन्थ पर हमलोग चर्चा कर रहे हैं। इस श्लोक की व्याख्या करता हुए अपनी टीका में आनन्द गिरिजी महाराज कह रहे हैं -कि ये जो ब्रह्म हैं वे स्वतः संसार के बीज अविद्या , काम और कर्म से रहित होने के कारण असंसारी हैं। और जीव में भी वस्तुतः अविद्या काम कर्म नहीं है ; वह अविद्या,काम कर्म की आश्रयभूता बुद्धि के साथ , अपने असंसारी स्वरुप के अज्ञान वशात तादात्म्य कर लेता है। और बुद्धि के धर्म अविद्या , काम, कर्म को अपने मान लेता है। और ये अविद्या , काम , कर्म ही हैं संसार के बीज , तो जहाँ बीज होंगे वहां उनका अंकुर रूप संसार रहेगा ही। कारण हैं तो कार्य रहेगा ही। तो बुद्धि का जन्म-मरण रूप संसार है। वस्तुतः वे बुद्धि में ही रहते हैं , इसलिए। और बुद्धिगत संसार और उसके कारण अविद्या आदि को जीव बुद्धि से तादात्म्य करके अपना समझ रहा है। जैसे स्वभावतः शीतल जल अग्नि के साथ तादात्म्य करके अग्नीगत ताप को अपना समझ लेता है। गर्म हो जाता है , जलाने वाला बन जाता है।ऐसे ही संसार तथा उसके निमित्त बुद्धि से तादाम्य कर लेने से जीव संसारी बना हुआ है। और ब्रह्म में स्वभावतः उस संसार की निवृत्ति है। ब्रह्म संसार रहित है, नित्यमुक्त है। और जीव में जो आरोपित संसार है, उस संसार की निवृत्ति वेदान्त का प्रयोजन है। जीव में आरोपित जो कारण सहित जन्म-मरण आदि रूप संसार है, उसकी निवृत्ति वेदान्त शास्त्र का प्रयोजन है। 
और अभिध्येय है ब्रह्मात्म-एकत्व, अभिध्येय को बताया गया - ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि' से। और प्रयोजन को बताया गया -अमृतं अजं इन दो पदों का प्रयोग करके। अनुबंध चतुष्टय अंतःपाती विषय और प्रयोजन को इन दो शब्दों से बताकर के। अधिकारी और संबन्ध को अर्थात सूचित किया गया। अभिध्येय जो ब्रह्मात्म एकत्व है , वेदान्त शास्त्र का अभिध्येय होने से , वेदान्तरूप माण्डूक्य उपनिषद हो जायेगा उसका प्रतिपादक। और ब्रह्मात्म एकत्व हो जायेगा माण्डूक्य उपनिषद के द्वारा प्रतिपाद्य विषय। इस प्रकार ये ग्रन्थ तथा अभिध्येय का आपस में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बन्ध बनेगा। और जो अमृतं अजं पद के द्वारा बताया गया प्रयोजन है संसार की समूल निवृत्ति। संसार की समूल निवृत्ति का नाम है मोक्ष और संसार की समूल निवृत्ति चाहने वाला है 'मुमक्षु'। वो 'मुमक्षु' ही हो जायेगा वेदान्त ग्रन्थ पढ़ने का 'अधिकारी'। अमृतं अजं पद के द्वारा प्रदर्शित मोक्ष रूप प्रयोजन की अभिलाषा जिस मनुष्य को है , वह मनुष्य वेदान्त शास्त्र का अधिकारी है। वेदान्त शास्त्र के प्रयोजन को चाहने वाला। ये बताया गया अमृतं अजं ये फल सूचक पदों के द्वारा अर्थ सूचित हुआ। इस प्रकार अनुबन्ध चतुष्टय है -अभिध्येय , प्रयोजन और अधिकारी सम्बन्ध। इसे कहा जाता है अनुबंध चतुष्टय। इसे भगवान भाष्यकार ने अमृतं अजं ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि  ये जो प्रथम श्लोक के चतुर्थ पाद में प्रयुक्त पद है, इन पदों से सूचित किया। और अध्यारोप प्रक्रिया के माध्यम से निरूपण किया जा रहा है ब्रह्मात्म एकत्व रूप विषय का , इस मंगलाचरण में भी। ये बात प्रथम श्लोक के प्रथम पाद की अवतरण टीका में कही गयी थी।
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Mandukya Upanishad 0.28 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि ब्रह्म
$$$"तत्र वेदा अवेदा भवन्ति।"
हमलोग चर्चा कर रहे थे -  यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि ब्रह्म वेदान्तप्रमाणकं' यानि वेदान्त प्रमाण का प्रमेय या अभिध्येय यदि स्वतः असंसारी ब्रह्म है , तर्हि तब तो,  कथं अवस्थात्रय विशिष्टा जीवा भोक्तारः अनुभूयन्ते। तबतो संसार दशा में , अविद्या अवस्था में भोक्ता के रूप में जीवों की प्रतीति कैसे हो रही है ? और जीव भी एक नहीं अनेक है। और आप तो कह रहे हैं कि वेदान्त किसको बता रहा है ; एक अद्वितीय ब्रह्म को। वेदान्त का विषय है स्वतः असंसारी अद्वितीय ब्रह्म। तो वेदान्त प्रमाण से तो अद्वितीय ब्रह्म मात्र ही निश्चित होगा। तो ये जो अनुभव के रूप में आने वाला भोक्ता के रूप में जीव , और जगत की भी भोग्य रूप से प्रतीति हो रही है ,और भोजयिता के रूप में प्रतीति हो रही है -ईश्वर की। यदि वेदान्त प्रमाण मात्र एक वस्तु को ही बता रहा है , तो ये तीनों कैसे सिद्ध होंगे ? ये एक आशंका उठ रही है कि यदि वेदान्त प्रमाण मात्र एक वस्तु को ही बता रहा है , तो व्यवहार अवस्था में भोक्ता , भोग्य और भोजयिता का द्वैत प्रतीत हो रहा है , उसे दिखाने वाला जो प्रमाण है , उस प्रमाण के साथ , अद्वितीय ब्रह्म मात्र को बताने वाले वेदान्त प्रमाण के साथ विरोध होगा। बुद्धि में यह एक आशंका होती है। एक प्रमाण तो बता रहा है कि मात्र अद्वितीय असंसारी ब्रह्म ही है। वो वेदान्त प्रमाण बता रहा है। और संसार दशा में होने वाला ये जो अनुभव प्रमाण है , वो क्या बता रहा है कि जीव भी है , जगत भी है। और जगत के सब जीवों को एक जैसा ही भोग तो नहीं हो रहा है न । किसी को सुख हो रहा है , किसी को दुःख हो रहा है
 [किसी को कोरोना से मुक्ति मिल जाती है, किसी की मृत्यु हो जाती है ?] तो श्रुति बता रही है कि, ये सुख-दुःख भुगवाने वाला ईश्वर हैऐसा अनुमान और श्रुति प्रमाण से सिद्ध हैतो भोजयिता के रूप में ईश्वर को बताने वाला अनुमान प्रमाण ; तथा श्रुति प्रमाणतथा भोक्ता के रूप में और भोग्य के रूप में -जीव-जगत को बताने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण। इनके साथ विरोध होगा यदि वेदान्त शास्त्र का विषय मात्र अद्वितीय असंसारी ब्रह्म को ही मानेंगे तो। ये एक शंका हुई , इस शंका का समाधान अध्यारोप प्रक्रिया से करने के लिए , पूर्ववर्ती तीन पादों की रचना भगवान भाष्यकार ने की है। इसे बताया जा रहा कि- यद्यद्वितीयं स्वतोऽसंसारि ब्रह्म वेदान्तप्रमाणकं तर्हि कथमवस्थात्रयविशिष्टा जीवा भोक्तारोऽनुभूयन्ते ? तीनो अवस्था वाले ये जीव भोक्ता के रूप में कैसे प्रतीत हो रहे हैं ? और जो भोजयिता के रूप में ईश्वर का प्रतिपादन श्रुति कर रही है - वो भी कैसे सम्भव होगा ?[ भोजयिता चेश्वरः श्रूयते, भोज्यं च विषयजातं पृथगुपलभ्यते ।] और भोज्य के रूप में जगत की जो प्रतीति हो रही है , उस का निदान क्या होगा ? वेदान्त प्रमाण के साथ इन सब प्रमाणों का विरोध पैदा होगा। तद एतद अद्वैते विरुध्येत इति आशङ्क्य' वेदान्त प्रमाण से अद्वैत मात्र को स्वीकार करेंगे , तो इसका, सिद्ध अर्थ का प्रमाणान्तर विरोध होगा। तो किसको प्रमाण माना जाये ? प्रत्यक्ष , अनुमान तथा श्रुति ये जो तीन प्रमाण वे द्वैत को बता रहे हैं  तदेतदद्वैते विरुध्येतेत्याशङ्क्य ब्रह्मण्येव जीवा जगदीश्वरश्चेति सर्वं काल्पनिकं सम्भवतीत्यभिप्रेत्याह – प्रज्ञानेति। 
 यदि इनको प्रमाण मानेंगे , तो द्वैत ही यथार्थ होगा। प्रमाण तो उसे कहते हैं , जो 'प्रमा' का जनक होता है।और प्रमा कहते हैं यथार्थज्ञान को। और यथार्थज्ञान उसे कहते हैं जिस ज्ञान का विषय 'सत्य' होता है - अबाधित होता है । प्रमाणान्तर से अज्ञात और अबाधित अर्थ का ज्ञान कहलाता है ,प्रमाण। और जो उसका उत्पादक होता है ,उसे कहा जाता है प्रमाण। प्रमा माने ऐसा ज्ञान जिस ज्ञान के विषय को अन्य प्रमाणों से बाधित नहीं किया जा सके। किसी प्रमाणान्तर के द्वारा जिसका विषय बाधित न हो। ऐसा ज्ञान है प्रमाण। उस ज्ञान को उत्पन्न करने वाला ही प्रमाण कहा जाता है। तो ये प्रत्यक्ष प्रमाण,अनुमान प्रमाण और श्रुति प्रमाण, इन तीन में प्रामाण्य तभी माना जायेगा , जब इनसे उत्पन्न हुआ जो 'द्वैत-विषयक ज्ञान' है, जीव-जगत और ईश्वर का ज्ञान , यह ज्ञान प्रमा सिद्ध हो। याने यथार्थ सिद्ध हो -तब तो इनको प्रमाण मानेंगे। यथार्थ ज्ञान का उत्पादक होने से इनको प्रमाण मान लिया जायेगा। और ये यथार्थ ज्ञान कब सिद्ध हो पायेगा ? जब इनके विषय का बाध न हो , अर्थात इनका विषय मिथ्या सिद्ध न हो। तब प्रमाण माना जायेगा , नहीं तो अप्रामाण्य साबित हो जायेंगे ! 
और यदि ये जीव, जगत और ईश्वर अबाधित है , सत्य है ; तो फिर वेदान्त जिसको बता रहा है ,अद्वितीय, असंसारी, ब्रह्म, - है मात्र, दूसरा कोई नहीं है। यह जो वेदान्त प्रमाण का विषय है , वो बाधित हो जायेगा। तब उसे अप्रामाण्य मानना पड़ेगा। जब दो प्रमाण होंगे तो ऐसी स्थिति में किसी न किसी को तो अप्रमाण मानना ही पड़ेगा। जब दो प्रमाणों का आपस में विरोध हो रहा है ,एक बता रहा है द्वैत को , परस्पर बिल्कुल विपरीत अर्थ को, बताने वाले प्रमाणों का आपस में विरोध होगा। ये उठी विरोध की आशंका। 
        तब यहाँ बताया जा रहा है -प्रमाण दो प्रकार के होते हैं। और वेदान्त शास्त्र में 6 प्रमाण माना गया है।  वे छह प्रमाण है - प्रत्यक्ष, अनुमान , उपमान , अर्थापत्ति , अनुपलब्धि और शब्दछह प्रमाणों के अवांतर हैं -दो प्रकार। छह प्रमाणों में से फिर दो ही भेद किये जाते हैं , दो प्रकार के प्रमाण ही माने जाते हैं। एक व्यावहारिक प्रमाण और दूसरा तत्ववेद्क प्रमाण। तत्ववेद्क प्रमाण कहा जाता है -पारमार्थिक अर्थ को बताने वाला प्रमाण। 
व्यावहारिक प्रमाण : व्यवहार अवस्था में जो सत्य है (माँ काली)  -उस अर्थ को बताने वाले प्रमाण को कहा जाता है व्यावहारिक प्रमाण। व्यवहार अवस्था में जिस प्रमाण के विषय का बाध नहीं होता। उसे कहा जायेगा व्यावहारिक प्रमाण। तो ये जो प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण , उपमान प्रमाण, शब्द प्रमाणों में भी अवांतर दो भेद कर लो ! एक वेदान्त प्रमाण , बाकी वेदान्त से अतिरिक्त शब्द प्रमाण। वेदों में कर्मकाण्ड और स्मृति-ग्रन्थ आदि। वेदान्त से अतिरिक्त  द्वैत को बताने वाले स्मृति (पुराण ?) आदि, वे भी । और अर्थापत्ति तथा अनुपलब्धि भी। इनको कहा जायेगा व्यावहारिक प्रमाण। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का विषय है -जीव, जगत और भोजयिता के रूप में ईश्वर (माँ जगदम्बा)। इनका सत्यत्व व्यवहार अवस्था में है। जीव भी व्यावहारिक सत्य है , भोक्ता  के रूप में जीव (fnd) का बाध व्यवहार अवस्था में नहीं होता। व्यवहार अवस्था में जगत  का भी बाध नहीं होता। और भोजयिता ईश्वर का भी बाध व्यवहार अवस्था में नहीं होता। [16 जनवरी सरस्वती पूजा के दिन और कैम्प में अनेको बार के जगत की भोजयिता माँ जगदम्बा ही थीं ?] इसलिये इनमें व्यावहारिक सत्यत्व या व्यावहारिक सत्ता को अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा।  तत्ववेद्क प्रमाण :  वेदान्त बता रहा है ब्रह्म में पारमार्थिक सत्यत्व को ,पारमार्थिक अद्वितीयत्व को ,पारमार्थिक अद्वितीय कौन है ? ब्रह्म। असांसारिक ब्रह्म हैं पारमार्थिक अद्वितीय। तो वेदान्त प्रमाण अद्वैत में पारमार्थिकत्व बताता है। और बाकी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण बताते हैं -जीव , जगत और भोजयिता ईश्वर में व्यवहारिकत्व को। 
दोनों प्रमाणों में विवाद नहीं संवाद है : तो प्रमाणों का आपस में विरोध तब होगा जब यह माना जायेगा कि वेदान्त अद्वैत को जिस सत्ता में अद्वैत बता रहा है ; असंसारी ब्रह्म को अद्वितीय बता रहा है, जिस पारमार्थिक सत्ता में द्वैत का निषेध कर रहा है , ऐसा द्वैत भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से  पारमार्थिक सिद्ध हो। यदि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी- जीव , जगत और भोजयिता ईश्वर को पारमार्थिक सत्य बता रहे हों -तब तो इनका आपस में विरोध होगा। और यदि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण जीव-जगत-ईश्वर को व्यावहारिक सत्ता वाला बता दें ,और उनके पारमार्थिकत्व की कोई चर्चा न करें ,तो अद्वैत को पारमार्थिक बताने वाले वेदान्त प्रमाण का आपस में कोई विरोध नहीं होगा। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण का और वेदांत का परस्पर कोई विरोध नहीं होगा , क्योंकि अद्वैत वेदान्त बता रहा है पारमार्थिक है करके। वह द्वैत में व्यावहारिकत्व का निषेध नहीं कर रहा है। वेदांत केवल इतना बता रहा है कि द्वैत पारमार्थिक नहीं है। वेदान्त ये बताएगा कि द्वैत पारमार्थिक नहीं है ,पारमार्थिक तो केवल अद्वैत है। और द्वैत व्यावहारिक है। और प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी द्वैत को व्यावहारिक ही बता रहे हैं। तो दोनों में , द्वैत के जीव जगत और ईश्वर के व्यवहारिकत्व के विषय में विवाद नहीं है , संवाद है। संवाद और विवाद में संवाद कहते हैं , एक मत होने को। सहमति को संवाद कहा जाता है। इसमें दोनों की सम्मति है। किसमें ? ईश्वर , जीव और जगत के व्यावहारिकत्व को लेकर के अद्वैत वेदान्त और द्वैत में सम्मति ही है। इसमें प्रत्यक्ष आदि प्रमाण और वेदान्त की सम्मति है। कोई विरोध नहीं है। संवाद है। और विवाद होता है विरोध। विरोध नहीं है -ये कहा गया। 
इस बात को दिखाने के लिए - प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, इत्यादि तीन पादों से द्वैत का वर्णन तो हो रहा है , लेकिन कैसा ? व्यावहारिक रूप से। अध्यारोपित रूप सेद्वैत को अध्यारोपित ही कहा जाता है। जीव, जगत और ईश्वर को अध्यारोपित अर्थात कल्पित कहा जाता है।
    प्रातिभासिक और व्यावहारिक मनुष्य :    लेकिन किस रूप से कल्पित है ? परमार्थतः कल्पित -परमार्थ दृष्टया कल्पित है, लेकिन व्यावहारिक अवस्था के लिए बिल्कुल सत्य हैं वे तीनों। और व्यवहार अवस्था में ही जिसका बाध हो , उसे व्यवहार अवस्था में ही कल्पित कहा जाता है, जैसे रस्सी में दिखनेवाला सर्प ! रस्सी का ज्ञान होते ही उसका बाध हो जाता है। जो ब्रह्मज्ञान से बाधित किया जाता है ,उसे कहा जाता है -व्यावहारिक सत्ता वाला। और बिना ब्रह्मज्ञान के ही बाधित हो जाता है , वो प्रातिभासिक सत्ता वाला होता है। तो ये जो रस्सी में दिखने वाला सर्प है, उसे बाधित करने के लिए ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता नहीं है। सीप (अभ्रक) में दिखने वाली जो चांदी है , उसे बाधित करने के लिए मात्र सीप (झुमरीतिलैया के खदान से निकलने वाले अबरख-mica) के ज्ञान की आवश्यकता है। ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ये सब प्रातिभासिक सत्ता वाला है। 
     और केवल ब्रह्मज्ञान से जो बाधित होगा उसे कहा जायेगा व्यावहारिक सत्ता वाला। तो जीव , जगत और भोजयिता ईश्वर (माँ काली) का बाध केवल ब्रह्मज्ञान से होता है। इसलिए वे तीनो व्यावहारिक सत्ता वाले हैं। और वेदान्त भी उन्हें व्यावहारिक नहीं हैं - ऐसा नहीं कह रहा है ! वेदान्त भी स्वीकार करता है कि जीव , जगत , ईश्वर व्यावहारिक हैं। और प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी , व्यावहारिक सत्ता तक ही प्रमाण है।
       और जब आत्मबोध होता है , अद्वैत ज्ञान होता है , अहं ब्रह्मास्मि -ऐसा साक्षात्कार होता है ; तब ये सब प्रमाण भी अप्रमाण हो जाते हैं ! स्वयं वेद भी ये कहता है कि उस तुरीय अवस्था में तो - वेदा अवेदा भवन्ति ! ["तत्र वेदा अवेदा भवन्ति।" ईश्वर के दर्शन होने के बाद वेद भी विस्मृत हो जाते है।जिसमें माता अमाता हो जाती है, पिता अपिता हो जाता है, देवता अदेवता हो जाते हैं। वेद अवेद हो जाते हैं। वह सुषुप्ति है। तत्र माता अमाता भवति। पिता अपिता भवति। देवा अदेवा भवन्ति। वेदा अवेदा भवन्ति। सब छूट जाते हैं वह सुषुप्ति है।देवा अदेवाः वेदा अवेदाः । - बृहदारण्यकोपनिषत् ४-३-२२ अत्र सुषुप्तौ पिता अपिता भवति, माता अमाता भवति, लोकाः अलोका भवन्ति, देवा अदेवाः, वेदाश्च अवेदा भवन्ति ॥ केवलं जाग्रतस्वप्नयोरेव सर्वे द्वैतव्यवहारा भवन्ति ।]  हम भी जैसे सो जाते हैं , तो सोते समय - फिर अपने आप को जाग्रत अवस्था में किसी का पुत्र , किसी का शिष्य , किसी का गुरु , किसीका कुछ , किसीका कुछ समझने वाले जाग्रत अवस्था में जो हम होते हैं , वो न किसी के गुरु होते हैं , न किसी के शिष्य होते हैं , न किसी के पुत्र होते हैं , न किसी के पिता होते हैं। न और कुछ होते हैं जैसे श्रुति कहती है -तत्र माता अमाता भवति। पिता अपिता भवति। देवा अदेवा भवन्ति। वेदा अवेदा भवन्ति जैसे नींद में तो द्वैत का जो बीज है अज्ञान वो रहता है ,लेकिन कारण अवस्था में उसका सब कार्य अलग-अलग तो नहीं रहता है न ? तो फिर जाग्रत अवस्था में किसी के शिष्य के रूप में , किसी के गुरु के रूप में दिखाने वाले जो प्रमाण है ,वो प्रमाण सुषुप्ति में कहाँ चला जाता है ? 
   तब हम न किसी के गुरु होते हैं , न शिष्य होते हैं , उस समय तो - न जिज्ञासु है न मुक्त है! उस समय तो हम इन सबसे परे चले जाते हैं। तो उस समय फिर प्रमाण -प्रमेय व्यवहार ही जो  द्वैत में होता है। वो मिट जाता है।  कहाँ ? कारण अवस्था में भी। तो कारण अवस्था का भी जो अधिष्ठान है , सुषुप्ति का भी , जहाँ अज्ञान भी नहीं है। वो जो मात्र तुरीय चैतन्य है , चैतन्य ही चैतन्य है। वहां तो ये सब -प्रमाण -प्रमेय व्यवहार समाप्त हो जाता है। उस अवस्था में ये सब चर्चा ही समाप्त हो जाती है कि अद्वैत का इस प्रमाण के साथ विरोध होगा , उस प्रमाण के साथ विरोध होगा। इसलिए जो भी प्रश्नोत्तर इत्यादि होते हैं , वे द्वैत में होते हैं , और द्वैत है व्यावहारिक, वो व्यावहारिक अवस्था का वर्णन किया जा रहा है।
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Mandukya Upanishad 0.29 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: यदि अद्वितीयं स्वतः असंसारि/
हमलोग यह चर्चा कर रहे थे कि सुषुप्ति अवस्था में न कोई जिज्ञासु होता है , न कोई मुक्त होता है। यह वर्णन व्यावहारिक अवस्था का किया जा रहा है।  इसी लिए कहा जा रहा था -तदेतदद्वैते विरुध्येतेत्याशङ्क्य ब्रह्मण्येव जीवा जगदीश्वरश्चेति सर्वं काल्पनिकं सम्भवतीत्यभिप्रेत्याह – प्रज्ञानेति । इसके आगे की टीका में - प्रज्ञानांशुप्रतानैः आदि से जो प्रथम पद है न , टीकाकार इस प्रथम पद का अर्थ बता रहे हैं - प्रकृष्टं जन्मादिविक्रियाविरहितं कूटस्थं ज्ञानं ज्ञप्तिरूपं वस्तु – प्रज्ञानम् । तो पहले  प्रज्ञानांशुप्रतानैः में प्रज्ञान शब्द का अर्थ कर रहे हैं - " प्रकृष्टं जन्मादिविक्रियाविरहितं कूटस्थं ज्ञानं ज्ञप्तिरूपं वस्तु – प्रज्ञानम् ।तच्च ब्रह्म ।  “प्रज्ञानं ब्रह्मेति” हि श्रूयते । " 
 प्रकृष्टं = जन्मादिविक्रियाविरहितं  कूटस्थं 
ज्ञानं = ज्ञप्तिरूपं वस्तु – प्रज्ञानम्। तच्च 
ब्रह्म । " प्रज्ञानं ब्रह्म " इति हि श्रूयते। 
 'प्र' जो उपसर्ग है , इसका अर्थ कर रहे हैं - प्रकृष्टं। और ज्ञानं का अर्थ है -ज्ञानं। दूसरी पंक्ति में लिखा है न ज्ञानं ज्ञाप्तिरूपं। प्रज्ञानम् का ऐसा अन्वय होगा - प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञानं। वह प्रकृष्टता क्या है ? तो कहते हैं - जन्मादिविक्रियाविरहितं। ये प्र का ही अर्थ निकलेगा। प्र का अर्थ है -प्रकृष्ट। याने ज्ञान भी दो प्रकार का होता है - एक प्रकृष्ट ज्ञान और दूसरा अप्रकृष्ट ज्ञान (निकृष्ट ज्ञान।) प्रकृष्ट और निकृष्ट में निकृष्ट ज्ञान किसको कहेंगे ? जो ज्ञान उत्पन्न होगा और नष्ट होगा। उत्पत्ति-विनाश आदि विकारों से युक्त ज्ञान -उसे कहा जायेगा निकृष्ट ज्ञान। प्रकृष्ट ज्ञान उस ज्ञान को कहा जायेगा जो उत्तपत्ति आदि विकारों से रहित है। तो उत्त्पन्न होने वाला ज्ञान है - प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जो उत्पन्न होने वाले प्रमाण  - उसको वृत्त्यात्मक कहा जायेगा ,और वृत्ति साभास होती है, चिदाभास होती है। तो वो जो प्रमाणों से उत्त्पन्न होने वाला ज्ञान है, उसे कहा जायेगा विकारी ज्ञान। विकार है उत्त्पत्ति -जन्म , विनाश इनको विकार माना गया ,जिसका जन्म हो रहा है, नाश हो रहा है, उसे कहा जाता है विकारी। तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उत्पन्न होने वाला जो वृत्त्यात्मक ( Bh Milk Toffee) ज्ञान है ,वो है -निकृष्ट ज्ञान। 
और प्रकृष्ट ज्ञान वो ज्ञान है जो उत्पन्न नहीं होता। [40 साल बाद भी ?] नष्ट नहीं होता वह ज्ञान। अनादि अनन्त ज्ञानज्ञान का अर्थ होता है चेतन (होश) , तो ब्रह्म ज्ञान है कि नहीं ? "सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म "(तैत्तिरीय उप०, २.१ ) [ब्रह्म सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, अनन्त है। ब्रह्म स्थूल से भी स्थूल है और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। पढ़ने-सुनने एवं विचारने से श्री रामकृष्णदेव का अनुभव, मेरे गुरुजी का अनुभव, नवनीदा का अनुभव तुम्हारा अनुभव हो जाएगा और 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म' ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञान स्वरूप और अनंत है तथा मेरा ही स्वरूप है, ऐसा साक्षात्कार हो जाएगा।]
उसमें बताया कि ब्रह्म ज्ञान ही है। ज्ञान का ही नाम है ब्रह्म। कौन से ज्ञान का नाम ब्रह्म है ? उस ज्ञान का जो सत्य है और अनन्त है ! सत्य और अनन्त ज्ञान को ब्रह्म कहते हैं। 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म' -तो ब्रह्म का (याने श्रीराकृष्णदेव का) ज्ञान ही स्वरुप है ! लेकिन दो प्रकार के ज्ञान में से कौन सा ज्ञान ? निकृष्ट ज्ञान या प्रकृष्ट ज्ञान ब्रह्म है ? तो प्रकृष्ट ज्ञान ब्रह्म है। उस ज्ञान में विशिष्टता क्या है ? जन्मादि विकार राहित्य - जिसका जन्म न हो जिसका विनाश न हो। प्रज्ञानं -पद की ही व्याख्या चल रही है -प्रज्ञान शब्द कहाँ पर आया था ? मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के प्रथम पाद - प्रज्ञानांशुप्रतानैः उसमें जो 'प्र' उपसर्ग है उसकी व्याख्या कर रहे है -प्रकृष्टं। और प्रकृष्टं का अर्थ कर दिया - जन्मादि विकार रहितं। यानि जन्म आदि विक्रिया रहितं। याने जिसका जन्मादि विकार नहीं होता है। उसीको यदि एक शब्द से कहना हो तो , कहेंगे कूटस्थं ! कूटस्थ का अर्थ होता है -निर्विकार। जो कूट की तरह स्थित हो -उसे कूटस्थ कहते हैं। और कूट किसको कहते है ? लोहार के पास , सोनार के पास जो लोहे का एक बड़ा सा निहाई (anvil-धात्विक श्रमिकों का प्राथमिक औजार) रहता है न , जिस पर लाल गर्म किये हुए लोहे को लोहार उस पर रखता है , और दूसरा व्यक्ति घन आदि से लोहे को पीटता है। तो जो गर्म हुआ लोहा है , वो तो कभी फ़ैल जाता है, कभी सिकुड़ जाता है। उसमें विकार होता है। किन्तु जिस निहाई पर रखकर के लोहे को पीटा जा रहा है , वो निर्विकार रहता है। वो जैसा का तैसा रहता है , तो उसे कहा जाता है -कूट। और जो कूट की तरह स्थित है , उसे कूटस्थ कहते हैं। कूटवत तिष्ठ्ति इति कूटस्थः ! जो कूट की तरह स्थिर रहे , उसे कूटस्थ कहा जायेगा।[ कूट के समान अचल स्थित जो है वह कूटस्थ है। (कूटमिव तिष्ठति इति कूटस्थ:)] 
तो ये 'प्र' उपसर्ग का ही अर्थ निकला कूटस्थ। और प्रज्ञानम् में 'प्र ' तक का तो अर्थ कर दिया -कूटस्थ तक, फिर ज्ञानं -ऐसा जो ज्ञान है। निर्विकार ज्ञान। यहाँ ज्ञान का अर्थ करते हैं -ज्ञप्तिरूपं वस्तुज्ञप्ति ज्ञान का पर्यायवाचक शब्द है। ज्ञान और ज्ञप्ति ये जल और पानी की तरह पर्यायवाचक शब्द है। तो 'ज्ञप्तिरूपं वस्तु' अर्थात ज्ञानस्वरूप जो वस्तु है ,उसे कहा जाता है -प्रज्ञान। और वो ज्ञप्ति रूप वस्तु कौन है ? तब कहते हैं-तच्च ब्रह्म। वो ब्रह्म जन्मादि विकार से रहित ज्ञान ही हैं। ये आपको कैसे ज्ञान हुआ ? तो कहते हैं -“प्रज्ञानं ब्रह्मेति” हि श्रूयते। 'प्रज्ञानं ब्रह्म ' ये श्रुति ऐसा बता रही है कि प्रज्ञान ही ब्रह्म है। प्रज्ञान में प्र का अर्थ है जन्मादि रहित और ज्ञान का अर्थ है ज्ञान। तो जन्मादि रहित जो चेतन (pure consciousness) है , वो ब्रह्म है। तो प्रज्ञानांशुप्रतानैः इत्यादि में प्रज्ञान शब्द का अर्थ निकला ब्रह्म। 
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 Mandukya Upanishad 0.30 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: तस्य अंशवो रश्मयो जीवाः चिदाभासाः/ 
 ...... तो प्रज्ञानांशुप्रतानैः इत्यादि में प्रज्ञान शब्द का अर्थ निकला ब्रह्म। और तस्य अंशवो रश्मयो जीवाः  चिदाभासाः। तो तस्य याने ब्रह्मणः। तस्य याने प्रज्ञानस्य - प्रज्ञान शब्द का अर्थ हो गया। अब आगे प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ कर रहे हैं। प्रज्ञान हुआ ब्रह्म और -प्रज्ञानस्य अंशवः - प्रज्ञानअंशवः! प्रज्ञानांशु में षष्ठी तत्पुरुष समास है। तो अर्थ निकला प्रज्ञान के अंशु , और अंशु शब्द का अर्थ है , रश्मियाँ , किरणे। जैसे सूर्य की किरणें होती हैं ,चन्द्रमा की किरणें होती हैं -वैसे प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ निकलेगा ब्रह्म की किरणें। प्रज्ञान का अर्थ निकलेगा ब्रह्म , जो सूर्य है। और प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ निकलेगा सूर्य के किरणों की तरह, प्रज्ञान शब्दित ब्रह्म की किरणें। रश्मियाँ - वो कौन हैं? जो दृष्ट सूर्य हैं , उन्हीं की किरणें सर्वत्र फैली हैं। सारे जगत को प्रकाशित कर रही है। वैसे ही ब्रह्म रूपी सूर्य की किरणें या रश्मियाँ कौन हैं ? तो कहते हैं जीव। इसलिए प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ निकलेगा जीव। तस्य अंशवो रश्मयो जीवाः , और जीव क्या है ? तो कहा चिदाभासाः। जीव है चिदाभास , चिद है ब्रह्म और उसका आभास , चितवत आभासंते इति चिदाभासः  -जो स्वयं चेतन तो नहीं है , लेकिन चेतन की तरह दिखता है, उसे चिदाभास कहते हैं। जैसे जो हेतु जैसा दिखे उसे हेत्वाभास कहते हैं। कूट के जैसा स्थिर रहे उसे कूटस्थ कहते हैं , वैसे जो चित के जैसा भासित हो उसे चिदाभास कहते हैं। किस प्रकार ? तो टीकाकार कहते हैं जैसे - सूर्यप्रतिबिम्बकल्पा  कल्प शब्द का अर्थ होता है , जैसा -तरह। तो सूर्य के प्रतिबिम्ब सदृश। वर्षा होने के बाद पृथ्वी पर गड्ढों में स्थान-स्थान पर पानी जम जाता है , और फिर दोपहर में उस पानी पर सूर्य का प्रतिबिम्ब होता है। अनेक प्रतिबिम्ब दीखते हैं, लेकिन वे सूर्य नहीं हैं , सूर्याभास हैं। सूर्य के प्रतिबिम्ब हैं , ऐसे ही चितप्रतिबिम्ब वो है चिदाभास जीव। सूर्य का प्रतिबिम्ब बाह्य जल में पड़ा , वैसे चेतन का प्रतिबिम्ब किसमें पड़ता है ? अन्तःकरण में।  तो अन्तःकरण रूपी जल में चित रूप जो ब्रह्म या प्रज्ञान रूप जो ब्रह्म उसका  आभास होगा ,चिदाभास होगा , प्रतिबिम्ब होगा , उसे कहा जायेगा -जीव। तो अन्तःकरणस्थ चिदाभास वो है जीव। जैसे जलस्थ सूर्य को कहा जायेगा सूर्याभास, सूर्य प्रतिबिम्ब। वैसे अन्तःकरणस्थ चिदाभास को कहा जायेगा चित-प्रतिबिम्ब, जीव। वो प्रज्ञानांशु शब्द का अर्थ निकलेगा।
 तो टीकाकार ने प्रज्ञानांशु शब्द का उल्लेख करता हुआ कहा - सूर्यप्रतिबिम्बकल्पा। सूर्य-प्रतिबिम्ब के सदृश , कल्पा यानि सदृश। कल्प प्रत्य सदृश अर्थ में होता है। जैसे सूर्य के प्रतिबिम्ब अनेक हैं , अनेक गड्ढों में पानी जमा है , तो उन सभी गड्ढों में सूर्य का अलग अलग प्रतिबिम्ब दीखता है। तो बिंबरूप सूर्य तो एक है , और प्रतिबिम्ब रूप सूर्य अनेक हैं। वे सबके सब जब तक जल रूपी उपाधि है ,तब तक ही सूर्य से अलग प्रतीत होते हैं। जब तक उनकी उपाधि जल है , तबतक बिम्ब रूप सूर्य से अलग प्रतीत होते हैं। जैसे ही गर्मी के दिनों में जल सूख गया -तो प्रतिबिम्ब कहाँ गए ? तो फिर वो सूर्य रूप हो जाते हैं। सूर्य से अलग उस समय भी थे नहीं। वे केवल पानी के कारण अलग से दीख रहे थे। इस लिए कल्प प्रत्यय का प्रयोग किया है। जिस समय जल रूपी उपाधि के कारण वे अलग अलग दीख रहे हैं , इस समय भी वे बिम्ब ही हैं , सूर्य ही हैं। एक ही सूर्य अनेक रूपों  भास रहा है। ऐसे ही जल-स्थानीय अन्तःकरण रूप उपाधि जब तक है , तब तक बिम्ब रूप ब्रह्म से, प्रज्ञान से --अलग से भासते हैं , वे अलग नहीं होते। सूर्य प्रतिबिम्ब जैसे सूर्य से अलग हैं नहीं, केवल भासते मात्र हैं, वस्तुतः हैं नहीं। वैसे ही जलस्थानीय अन्तःकरण रूप उपाधि जब तक है , तब तक बिम्ब रूप ब्रह्म से , या प्रज्ञान से अलग से भासते हैं , वे अलग होते नहीं हैं। सूर्य-प्रतिबिम्ब जैसे सूर्य से अलग नहीं है , वैसे ही अन्तःकरण रूपी उपाधि के रहते हुए , प्रज्ञान से अलग से -प्रज्ञान के अंशु रूप जीव भासते हैं। लेकिन उस समय भी अलग होते नहीं हैं।
 इसे दिखाने के लिए टीकाकार लिखते हैं - निरूप्यमाणा बिम्बकल्पाद् ब्रह्मणो भेदेन असन्तः !निरूप्यमाणा -का अर्थ है विचार करने पर। जब विचार करते हैं , निरूपण करते हैं कि उनकी अपनी अलग सत्ता है , वो ब्रह्म से अलग ही है ? क्या ये सभी जीव वस्तुतः ब्रह्म से अलग ही हैं ? या फिर ब्रह्मरूप ही हैं ? ब्रह्म से अलग इनका कोई अस्तित्व नहीं है ? ऐसा जब विचार करते हैं , तब विचार करने पर जो बिम्ब कल्प ब्रह्म हैं, याने बिम्ब रूप सूर्य जैसा दृष्टान्त गत ब्रह्म है, और प्रतिबिम्ब स्थानीय हैं जीव। तो विचार करने पर जैसे सूर्य के प्रतिबिम्ब सूर्य से अलग नहीं हैं ,सूर्य ही हैं। ऐसे ब्रह्म के प्रतिबिम्ब स्थानीय जो जीव हैं , वे उनके बिम्ब स्थानीय ब्रह्म से अलग नहीं है। निरूप्यमाणा बिम्बकल्पाद् ब्रह्मणो भेदेन असन्तः में भेदेन का अर्थ है -ब्रह्म से अलग , ब्रह्म से स्वतंत्र रूप से जीव हैं नहीं। जैसे ब्रह्म अपनी स्वतंत्र सत्ता वाला है , वैसे ही जीवों की ब्रह्म की सत्ता से निरपेक्ष अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। ब्रह्म की सत्ता से ही जीव भी सत्तावान से दीखते हैं। वस्तुतः उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यदि सूर्य के प्रतिबिम्बों की ,सूर्य से भिन्न - उनकी कोई अपनी स्वतंत्र सत्ता होती, तो सूर्यास्त के बाद भी वे जल में रहते। लेकिन जैसे ही सूर्यास्त हो जाता है , वो सूर्य के प्रतिबिम्ब कहाँ जाते हैं ? दीखता नहीं है , इसलिए की होता ही नहीं है। सूर्य ही जब था तब उपाधि के कारण वैसा भास् रहा था। यदि प्रतिबिम्बों का अलग अस्तित्व होता तो सूर्यास्त के बाद भी जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब  वैसा का वैसा होता। यदि सूर्य अलग होता ; यदि प्रतिबिम्ब बिम्ब से अलग होता तो सूर्यास्त के बाद भी प्रतिबिम्ब रहता। ऐसे ब्रह्म से अलग यदि जीव होंगे , तो बिना ब्रह्म के भी , उनकी स्वतंत्र सत्ता भासती। लेकिन बिना ब्रह्म के उनकी स्वतंत्र सत्ता होती ही नहीं है। इसलिए कहा कि -निरूप्यमाणा बिम्बकल्पाद् ब्रह्मणो भेदेन असन्तः | इस प्रकार ये 'प्रज्ञानांशु'  इतने पद की व्याख्या हुई। लेकिन इसके बाद एक और प्रतान शब्द भी है। प्रतान के साथ भी प्रज्ञानांशु पद का एक समास है। 
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Mandukya Upanishad 0.31 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: तस्य अंशवो रश्मयो जीवाः चिदाभासाः
अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद के व्याख्यानरूप भाष्य के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के व्याख्या रूप आनन्दगिरी जी की टीका पर हमलोग विचार कर रहे हैं। टीका में टीकाकार इस मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के प्रथम पाद की व्याख्या कर रहे हैं। जो चतुर्थ पाद में- ' ब्रह्म यत तन्न नतोस्मि' वाक्य है , इसके द्वारा ग्रन्थ के विषय को सूचित किया , और ब्रह्म का जो वेदान्त प्रसिद्ध अमृतं अजं दो विशेषण है ,उसे देकर के वेदान्तशास्त्र का प्रयोजन भी सूचित किया है। और इस प्रयोजन की प्राप्ति इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को को ही इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी माना गया। और सम्बन्ध है - प्रयोजन , मोक्ष और अधिकारी मुमुक्षु में प्राप्य-प्रापक भाव सम्बन्ध। ग्रन्थ और विषय में प्रतिपाद्य -प्रतिपादक भाव सम्बन्ध। इस प्रकार मंगलाचरण के प्रथम श्लोक के चतुर्थ पाद में अनुबन्ध चतुष्टय को सूचित कर दिया गया। 
   जो वेदान्तशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है , जिसे अभिध्येय कहा जाता है , वो है ब्रह्मात्म -एकत्व ब्रह्मात्म -एकत्व में आत्मा शब्द का अर्थ है -'त्वं' अर्थ- जो 'मैं ' के रूप में भास् रहा है ! अविद्या दशा में यह जनन-मरण आदि संसार से युक्त प्रतीत होता है। इसमें यह जनन-मरण आदि स्वतः नहीं है , अपितु उपाधि संसर्ग से अध्यारोपित है। इसे अध्यारोप -प्रक्रिया को अपनाते हुए बताया जा रहा है। जैसे तदर्थ जो ब्रह्म है ,वह  संसार का हेतु अविद्या , काम और कर्म से स्वतः रहित होने से वह ब्रह्म स्वतः असंसारी है। वैसे ही जीव भी संसार का हेतुभूत अविद्या -काम-कर्म; तथा उसका कार्य संसार (जगत) से रहित है, इसलिये जीव भी स्वरूपतः ब्रह्म ही है। आत्मा का ब्रह्म के साथ स्वतः ही अभेद है ! [लेकिन 'मैं' का अर्थ आत्मा को लेना होगा नामरूप में अहं को नहीं ! आत्मज्ञान आत्मा को होता है , अहं को नहीं ] उपाधि के साथ संसर्ग कर लेने के कारण असंसारी ब्रह्म ही संसारी जीव के रूप में भास् रहा है। 
लेकिन ब्रह्म तो कभी उपाधि से संसर्ग करता ही नहीं , वो तो असंश्लिष्ट रहता है। और जीव का उपाधि के साथ अविद्यावशात तादात्म्य हो जाता है। इसलिए बुद्धि उपाधि का जो धर्म है -अविद्या , काम और कर्म ; तथा उसका कार्य जन्म-मरण आदि रूप संसार , यह धर्म जीव में उसी प्रकार भासता है , जैसे शीतल जल में दहक अग्नि के साथ संसर्ग होने से उष्णता प्रतीत होती है, गर्मी आ जाती है। 
ऐसे ही जीव में संसार हेतु अविद्या-काम -कर्म जिसका आश्रय है बुद्धि, उस बुद्धि उपाधि के संसर्ग कर लेने से जीव में भी बुद्धि उपाधि के गुणधर्म परिलक्षित होने लगते हैं। वे जीव में स्वतः नहीं हैं , आरोपित हो रहे हैं। लेकिन जीव भी ब्रह्म के तरह ही मुक्त हैं , इस सिद्धान्त का निरूपण करना है। इसे बताने के लिए भगवान भाष्यकार अध्यारोप -अपवाद प्रक्रिया को अपनाते है। 
प्रथम श्लोक में अध्यारोप प्रक्रिया को अपना रहे हैं। और द्वितीय श्लोक में अपवाद प्रक्रिया को अपनाएंगे।अध्यारोप प्रक्रिया मानी जाती है , विधिमुख से वस्तु का याने ग्रन्थ प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन। उसको कहेंगे अध्यारोप प्रक्रिया से किसी वस्तु का प्रतिपादन। तो यहाँ बुद्धि उपाधि के साथ संसर्ग कर लेने से ही आत्मा में भावात्मक संसार, अविद्या -काम-कर्म तथा उसका कार्य जन्म-मरण आदि आरोपित है , ये दिखाया जा रहा है।
 इसके लिए प्रथम श्लोक का जो प्रथम पाद है - प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकर-व्यापिभिर्व्याप्य लोकान्' इसमें प्रज्ञानांशुप्रतानैः में प्रज्ञान शब्द का अर्थ बताया गया -प्रकृष्ट ज्ञान। और प्रकृष्ट ज्ञान की प्रकृष्टता है - जन्मादिविक्रियाविरहितं कूटस्थं ज्ञान , जो ज्ञान जन्मरूप और मरणरूप विकार से रहित है। उस ज्ञान को कहा जाता है -प्रकृष्ट ज्ञान है ब्रह्म । अनादि अनन्त चेतन। ज्ञान याने चेतन (होश।) और अनादि अनन्त जो चेतन है उसे यहाँ प्रज्ञान शब्द से कहा जा रहा है। प्रज्ञान हैं ब्रह्म और उनके अंशु की तरह हैं जीव। अंशु शब्द का अर्थ होता है -रश्मियाँ , किरणें। तो ये जो अन्तःकरणस्थ प्रतिबिम्ब है चिदाभास, याने चेतन का प्रतिबिम्ब है - वो प्रतिबिम्ब ही अंशु शब्द का अर्थ है। वो प्रतिबिम्ब किसका है ? तो वो है जीव का प्रतिबिम्ब। इसलिए जीव को कहा गया -प्रज्ञानांशु। 
और जीव कितने हैं ? जितने शरीर।  उतने ही जीव। और उन प्रज्ञानांशु शब्दित जीवों का प्रतान -याने विस्तार कहाँ तक है ? वे मृत्युलोक में भी हैं ,अंतरिक्ष लोक में भी हैं , स्वर्गलोक में भी हैं। पूरे ब्रह्माण्ड में जीव हैं न ? तत -तत लोकनिवासी के रूप में। वो प्रकृष्ट ज्ञान या ब्रह्म ही प्रत्येक जीव के शरीर में जीव रूप से व्याप्त है। वे जीव कौन हैं ? तो कहा - स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, स्थिर हैं स्थावर शरीर और चर हैं जंगम शरीर ! तो स्थावर-जंगम शरीरों का जो निकर है - अर्थात समूह है , वर्तमान में पूरे संसार में विद्यामन जो 84 लाख प्रकार के जो शरीर हैं - वे सभी स्थूल-सूक्ष्म शरीर स्थिरचरनिकर शब्द के अंतर्गत आएंगे। सभी शरीरों में अन्तःकरण है , इसलिए सब शरीरों में जीव हैं। जहाँ जहाँ अन्तःकरण होगा , वहां वहां प्रज्ञान शब्दित जो सर्वत्र व्याप्त सामान्य चैतन्य हैं , उसका प्रतिबिम्ब पड़ता है। जैसे जहाँ जहाँ पर पृथ्वी में गड्ढे में जल जमा हुआ है , वहां वहां उनमें सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है। वैसे ये जो जलस्थानीय शरीरस्थ अन्तःकरण है , उनमें चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पड़ता है। वे हैं जीव। 
अर्थात जब प्रत्येक शरीर में बुद्धि है (मन) तो , प्रत्येक शरीर में जीव है -वो है प्रज्ञानांशु। और वो प्रज्ञानांशु अर्थात जीव सब शरीरों में व्याप्त है। ये कहा गया - स्थिरचरनिकर - इन दो पदों से। और आगे है- लोकान व्याप्य , लोक शब्द का अर्थ है विषय। - लोक्यन्ते अनुभूयन्ते इति लोकाः , जब इस प्रकार लोक शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं , तो लोक शब्द का अर्थ निकलता है -जिनका अनुभव हो रहा है। तो शब्दादि विषयों का अनुभव हो रहा है , तो शब्दादि विषयों को कहा जायेगा लोक। और उन लोकों को व्याप्य -व्याप्त करके ,याने अपने लिए भोग्य मानकर के। 
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Mandukya Upanishad 0.32 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic:
लोका लोक्यमाना विषयास्तान् व्याप्येति विषयसम्बन्धोक्तिस्तत्फलं कथयति – भुक्त्वेति । भोगाः सुखदुःखादिसाक्षात्कारास्तेषां स्थविष्ठत्वं स्थूलतमत्वं देवतानुगृहीतबाह्येन्द्रियद्वारा बुद्धेस्तत्तद्विषयाकारपरिणामजन्यत्वं तान्भुक्त्वा स्वपितीति सम्बन्धः। एतेन जागरितं ब्रह्मणि कल्पितमुक्तम् । 
लोका = लोक्यमाना विषयाः,  तान् व्याप्येति। विषय सम्बन्धोक्तिः तत्फलं कथयति -भुक्तवेति।  
लोका लोक्यमाना विषयाः तान् व्याप्य- यहाँ तक की  व्याख्या उन लोकों को व्याप्य करके अर्थात शब्दादि को अपना भोग्य मानकर के, ये व्याख्या हो गयी। 
अब आगे है - भुक्त्वा भोगान स्थविष्ठान अब टीकाकार इसकी व्याख्या कर रहे हैं। लोका शब्द का अर्थ कर दिया विषया, भोक्ता जीवों का विषयों के साथ सम्बन्ध है। विषयों के साथ भोक्ता जीवों का सम्बन्ध होगा तो क्या होगा ? विषयों का ज्ञान होगा, अनुभव होगा। इसलिए तत्फलं-में तत का अर्थ हुआ विषय और उसके साथ प्रमाता का सम्बन्ध। जिस विषय के साथ प्रमाता का सम्बन्ध होगा उस विषय का ज्ञान हो जायेगा। अन्तःकरण जिन विषयों के साथ युक्त होता है, तब उन विषयों का ज्ञान होता है।   जैसे ही विषयों का ज्ञान होगा तो भोग होगा। 
यानि विषय ज्ञान से सुख या दुःख का भोग होता है। अनुकूल विषय का ज्ञान हुआ तो सुख होगा , प्रतिकूल विषय का ज्ञान हुआ तो दुःख होगा। और ये जो सुख-दुःख का अनुभव है ,इसीका नाम है भोग। भोग शब्द का अर्थ बताते हुए टीकाकार आगे कह रहे हैं -  भोगाः सुखदुःखादिसाक्षात्कारा याने सुख-दुःख के अनुभव का नाम है भोग। सुख-दुःख साक्षात्कार में -स्थविष्ठत्वं स्थूलतमत्वं है ,स्वप्न में हो जाग्रत या में अनुभव हो सुख-दुःख अन्तःकरण की वृत्ति है।
 [गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर:* ममता दादु कण्डु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥ पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥ भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥
 रोग डमरुआ : * अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥ तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥ भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
 जाग्रत अवस्था में बाह्य इन्द्रियां अपने अपने देवताओं  से अनुग्रह प्राप्त करके स्थूल सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। स्वप्न अवस्था का सुख-दुःख सूक्ष्म भूत का ग्रहण स्थूल इन्द्रियों से नहीं होते। अन्तःकरण से ग्रहण होते हैं। तेषां स्थविष्ठत्वं स्थूलतमत्वं देवतानुगृहीतबाह्येन्द्रियद्वारा बुद्धेस्तत्तद्विषयाकारपरिणामजन्यत्वं तान्भुक्त्वा स्वपितीति सम्बन्धः। जाग्रत अवस्था में उन बाह्य इन्द्रियों से विषयों से सम्पर्क होने से स्थूल सुख-दुःख का अनुभव होता है। स्थूल सुख दुःख के अनुभव को भोग कह रहे हैं। स्वप्न अवस्था में अंदर के वासनामय मानस पदार्थ ही सुख-दुःख के निमित्त हैं , उसको सूक्ष्म सुख -दुःख कहेंगे। प्रसंशा सुनकर सुख और निंदा सुनकर दुःख हुआ तो स्थूल सुख-दुःख होंगे। तान्भुक्त्वा स्वपितीति सम्बन्धः याने अन्वय है सुषुप्ति में चला जायेगा। उस दिन के फलोन्मुख स्थूल-सूक्ष्म प्रारब्ध भोग कर जीव  सुषुप्ति में चला जायेगा। 

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Mandukya Upanishad 0.33 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: तत्रैव स्वप्नकल्पनां दर्शयति/
     जाग्रत अवस्था में बाह्य विषयों का ग्रहण श्रोत्र आदि बाह्य इन्द्रियों से होता है। और उनको लेकर के ये जीव सुखी दुःखी होता है। और उस दिन का स्थूल-सूक्ष्म प्रारब्ध भोग करने के बाद में फिर -स्वपिति ! जैसे ही उसदिन का प्रारब्ध शांत हो जाता है, तब फिर वह अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है। तो प्रत्येक दिन का प्रारब्ध ही उसे स्वरुप से प्राच्युत करता है। प्रारब्ध ही कार्य-कारण संघात में (तीनों शरीरों में) आत्म अभिमान कराता है। और जिन विषयों के माध्यमों से फल भुगवाना है , उन विषयों के प्रति श्रोत्र आदि इन्द्रियों के माध्यम से प्रमाता की उपाधिभूत बुद्धि को भेज देता है। और बुद्धि फिर बाह्य विषयाकार बन जाती है। और स्वप्न के पदार्थों में भी सुख-दुःख का अनुभव होता रहता है। ये कबतक चलता है ? जबतक कि उसका उस दिन का प्रारब्ध पूरा भोग करके शांत (क्षय) नहीं होता। तब तक वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में होता रहता है। और फिर जैसे ही उस दिन का प्रारब्ध क्षय हो जाता है, वह फिर स्वपिति, माने निद्रा में चला जाता है। 
निद्रा में जाने का मतलब , अब जाग्रत अवस्था नहीं रही। जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था का भी अभाव हो जाता है। फिर तीसरी अवस्था आ गयी कारण अवस्था, नींद। लेकिन जो अहं अर्थ अभिमानी विश्व और तैजस नामक जीव अपने को भोक्ता समझ रहा था, अपने को जागा हुआ ,या स्वप्न देखने वाला समझ रहा था, वही अब अभिमान करता है कि मैं सो रहा हूँ। तो सुषुप्ति में पहुंचा तो जाग्रत और स्वप्न के जीव का अभाव हो गया। 
इसे कहा जाता है व्यतिरेक , अभाव का दूसरा नाम है व्यतिरेक। तो । एतेन जागरितं ब्रह्मणि कल्पितमुक्तम्। में एतेन का शब्द का अर्थ है - 'जाग्रत अवस्था व्यतिरेक कथनेन' - याने जाग्रत अवस्था का व्यतिरेक बता करके,  ये कहा कि जाग्रत अवस्था ब्रह्म में कल्पित है। जाग्रत अवस्था नहीं रही , लेकिन उस अवस्था का अभिमानी जीव तो स्वप्न में भी है। फिर स्वप्न का अभाव हो गया तो सुषुप्ति उसके अभिमान विषय बन गयी। एक को छोड़ दिया , फिर दूसरे को अभिमान के विषय के रूप में पकड़ लिया। जिसको छोड़ा उसका तो व्यतिरेक हुआ , और जिसने छोड़ा वो दूसरे के साथ अन्वित हुआ। 
जाग्रत अवस्था में मनुष्य को अपने शरीर का अभिमान रहता है कि मैं शरीर हूं, तो जाग्रत अवस्था के भोक्ता को 'विश्व' नामक जीव कहा जाता है। सुषुप्ति में जाग्रत का भोक्ता 'विश्व ' अब नहीं रहता। क्योंकि उसकी उपाधि स्थूल शरीर और बाह्य इन्द्रियाँ थीं। उपाधि के न रहने से उपाधि अभिमान भी बदल गया। अभिमान बदलने से माना जाता है कि विश्व नहीं रहा। जाग्रत अवस्था का अभिमानी नहीं रहा , वो अब हो गया सुषुप्ति अभिमानी। सुषुप्ति अभिमानी भी तभी तक रहता है , जबतक उस दिन कोई स्वप्न अवस्था में फल भुगवाने वाला प्रारब्ध बाकि नहीं बचा हो। और यदि स्वप्न अवस्था में फल भुगवाने वाला प्रारब्ध उद्बुद्ध हो जाता हो, फलोन्मुख होता हो , तो फिर वो स्वप्न में चला जाता है। सो नहीं सकता , उसे कर्म सोने नहीं देता। उसे स्वप्न दिखायेगा। तो जो स्वप्न अवस्था का निमित्तभूत प्रारब्ध है, वह जिन वासनामय विषयों के माध्यम से प्रमाता को सुखी दुःखी करना है, तैजस को , वह उन वासनाओं को उद्बुद्ध करेगा , उसके मन में। और वह मन प्रगट होगा -और वासनामय जगत के रूप में दिखेगा। उन उन विषयों की वासना उसमें पहले से है। जो सुप्त थी उसे प्रारब्ध उद्बुद्ध करेगा। और उद्भूत वासना होते ही स्वप्न जगत दिखने लगेगा। उसको देखकरके तैजस नाम वाला जीव सुखी -दुखी होने लगेगा। स्वप्न जगत के पदार्य सूक्ष्म हैं , क्योंकि वासनात्मक मात्र हैं , और वासनायें मन ही है। तो मनोमय होने के कारण उसे कहा गया सूक्ष्म, और तद विषयक अनुभव को कहा गया सूक्ष्म भोग। इसे द्वितीय पाद के अवशिष्ट पदों--पुनरपि धिषणोद्भासिता-न्कामजन्यान्' से बताया जा रहा है। 
अब टीकाकार उसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं - [तत्रैव स्वप्नकल्पनां दर्शयति – पुनरपीति । जाग्रद्धेतुधर्माधर्मक्षयानन्तर्यं पुनः शब्दार्थः । स्वप्नहेतुकर्मोद्भवे च सतीत्यपिनोच्यते । न च तत्र बाह्यानीन्द्रियाणि स्थूला विषयाश्च सन्ति; किं तु धिषणाशब्दितबुद्ध्यात्मानो वासनात्मनो विषया भासन्ते, ताननुभूय स्वपितीत्यर्थः ।तेषां प्रापकमुपन्यस्यति – कामजन्यानिति । कामग्रहणं कर्माविद्ययोरुपलक्षणार्थम् । ] तत्रैव स्वप्नकल्पनां दर्शयति' तत्र एव में तत्र शब्द का अर्थ है -ब्रह्म। तत्र याने ब्रह्मणी। तो जैसे ब्रह्म में जाग्रत अवस्था कल्पित है ,यह बताई गयी स्वप्न में और सुषुप्ति में व्यतिरेक दिखा करके, ऐसे स्वप्न अवस्था भी ब्रह्म में ही कल्पित है।स्वप्न अवस्था का अधिष्ठान भी ब्रह्म है। तो तत्र शब्द ब्रह्म का परामर्शक है। तत्र एव याने ब्रह्मणी एव! स्वप्न-कल्पनां दर्शयति' स्वप्न की कल्पना दिखा रहे हैं 
मंगलाचरण के दूसरे पाद में कथित - पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान्' की व्याख्या हुई। पुनः शब्द का अर्थ टीकाकार आनंदगिरि जी करते हैं -जाग्रद्धेतुधर्माधर्मक्षयानन्तर्यं पुनः शब्दार्थः - जो प्रथम श्लोक के द्वितीय पाद में पुनरपि में जो पुनः शब्द आया , वह बताता है जाग्रत अवस्था का निमित्तभूत प्रारब्ध कर्म शांत /भोग कर क्षय हो जाने पर। 
आगे कहते हैं और स्वप्न का जो हेतुर्भूत कर्म है- स्वप्नहेतुकर्मोद्भवे च सती - इति अपिना उच्चयते।  उसका उद्भव हो जाने पर , याने स्वप्न कब होता है ? जब उस दिन के जाग्रत का प्रारब्ध भोग करके क्षय हो जाये, और उस दिन के स्वप्न का प्रारब्ध उद्भूत हो जाये -तब स्वप्न दिखने शुरू हो जाते हैं। ये पुनरपि में जो अपि शब्द है , उसके द्वारा बताया जा रहा है-अपिना उच्चयते। जैसे पुनः शब्द से बताया गया उसदिन के जाग्रत अवस्था के प्रारब्ध का भोग करके क्षय हो जाने के बाद। अपि शब्द का अर्थ निकलेगा - स्वप्नहेतुकर्मोद्भवे च सती।  
अब टीकाकार - धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् का अर्थ करते हुए कह रहे हैं - न च तत्र बाह्यानीन्द्रियाणि स्थूला विषयाश्च सन्ति;  ताननुभूय स्वपितीत्यर्थः । न सन्ति - में सन्ति का अर्थ है -न विद्यन्तेस्वप्न अवस्था में न तो बाह्य इन्द्रियाँ व्यापार युक्त होती है, और न तो स्थूल विषय होते है। बाह्य स्थूल विषय milk chocolate etc भी नहीं होते, और उनका ग्रहण करने वाली बाह्य इन्द्रियां भी नहीं होतीं। तो फिर क्या रहता है ? कहते हैं - किं तु धिषणाशब्दितबुद्ध्यात्मानो -वासनात्मनो विषया भासन्ते, तो धिषणा शब्द से बताई गयी जो बुद्धि है, वो स्वप्न के प्रारब्ध के द्वारा उद्भूत संस्कारों से संस्कारित बुद्धिबुद्धि शब्द से लेना होगा (विवेक)-संस्कारित बुद्धि। और जो बुद्धि में उद्भूत वासनाएं हैं , संस्कार हैं ,उसीके अनुरूप स्वप्न अवस्था के सभी विषय भी होते हैं।  स्वप्न में वासनात्मक विषय ही भासित होते हैं, बाह्य विषयों की तरह भौतिक नहीं होते । [4 जुलाई 2020 के रात 3 .58 पर नींद में हम पहली बार सुने drive gateway का अर्थ डिक्सनरी में खोजते हैं। ] फिर,  'तान अनुभूय स्वपितीत्यर्थः' याने उन वासनात्मक विषयों का अनुभव करके क्या करता है फिर ? -स्वपिति , नींद में चला जाता है। जब स्वप्न का प्रारब्ध भी अपना फल उपभोग करा करके क्षय हो जाता है ,तो फिर स्वपिति। 
नींद के समय -निद्रा का तो वर्णन आएगा तीसरे पाद में। उससे पहले एक विशेषण है - कामजन्यान। इसका अवतरण लिखते हैं टीकाकार - तेषां प्रापकमुपन्यस्यति – कामजन्यानिति । तेषां याने स्वप्न में जो वासनात्मक विषय प्रतीत हो रहे हैं , उनका कारण केवल बुद्धि ही है या और भी कुछ कारण है ? तो कहते हैं और भी है -निमित्त कारण ! वो कौन ? कामजन्यान पद से निमित्त कारण को बताया जा रहा है - अविद्या , काम और कर्म। 
यद्यपि यहाँ केवल 'काम' शब्द ही लिखा गया है , लेकिन इसको अविद्या और कर्म का भी उपलक्षण माना जाता है। जैसे जाग्रत के पदार्थ अविद्या , काम कर्म से उत्पन्न होते हैं ; वैसे ही स्वप्न में वासना का उद्भव केवल कर्म मात्र से नहीं होता। वो अविद्या और काम के कारण भी होता है। इसलिए लिखते हैं -  कामग्रहणं कर्माविद्ययो : उपलक्षणार्थम् ।   कामजन्यान में काम शब्द अविद्या तथा कर्म का भी उपलक्षण है। इसलिए काम शब्द का ही अर्थ निकलेगा ये तीनो , 'काम ' शब्द का वाच्यार्थ तो होगा इच्छा। और उपलक्ष्यार्थ हो जायेगा कर्म तथा अविद्याउपलक्षण होने से कर्म और अविद्या को भी लक्ष्यार्थ माना जायेगा। उपलक्षण शब्द की परिभाषा ही है - स्वार्थ बोधकत्वे सती अन्यार्थ बोधकत्वं उपलक्षणं।' जो शब्द अपने अर्थ को बताते हुए अन्य पद के अर्थ को भी बता दे उसे उपलक्षण कहते हैं। याने जो शब्द अपने अर्थ को बताते हुए अन्य शब्दार्थ को भी बताता है , उसे उपलक्षण कहेंगे। कामजन्यान में काम शब्द का जो मुख्यार्थ है , वो है इच्छा , उसे भी बताता है वो , और अन्य है अविद्या तथा कर्म शब्द , उनके अर्थ को भी यही काम शब्द बता रहा है। इसलिए उपलक्षण हो गया वो दो को बताएगा , अपने अर्थ को भी बताएगा , और अन्यार्थ को भी बताएगा। स्वप्न अवस्था में भी तभी तक रहता है जब तक कर्म भोग नहीं होता। फल भोग होते ही उस दिन का प्रारब्ध क्षय हो जायेगा , तो फिर स्वपिति -निद्रा में चला जाता है। याने स्वप्न अवस्था को त्याग देता है, स्वप्न अवस्था का आभाव हो जाता है। उसके अभिमान की विषयभूत स्वप्न अवस्था नहीं रहती। इस प्रकार यहाँ पर स्वप्न अवस्था का व्यतिरेक बताया गया। 
तो जैसे जाग्रत का व्यतिरेक बताने से ये सिद्ध हुआ कि जाग्रत अवस्था ब्रह्म में कल्पित है , वैसे ही स्वप्न अवस्था का व्यतिरेक बताने से ये सिद्ध हो गया कि जैसे जाग्रत अवस्था की तरह स्वप्न अवस्था भी ब्रह्म में कल्पित है। क्योंकि स्वमप्नावस्था का अभिमानी जीव तैजस स्वप्न अवस्था को त्याग देता है तब स्वप्नावस्था का भी अभाव हो जाता है।  
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Mandukya Upanishad 0.34 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| Topic: अवस्थाद्वयकल्पनां ब्रह्मणि/तत्राऽऽनन्दप्राधान्यमभिप्रेत्य विशिनष्टि – मधुरभुगिति ।
तो यहाँ स्वप्न अवस्था का व्यतिरेक बताया गया। जैसे जाग्रत का व्यतिरेक बताने से जाग्रत अवस्था ब्रह्म में कल्पित है , वैसे ही स्वप्नावस्था का व्यतिरेक बताने से स्वप्न अवस्था भी जाग्रत की तरह ब्रह्म में कल्पित बताया गया। फिर मंगला चरण के तीसरे पाद में कहा गया है - पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्म' मायया भोजयन्नो। इसके अवतरण टीका में टीकाकार लिखते हैं - अवस्थाद्वयकल्पनां ब्रह्मणि दर्शयित्वा तत्रैव सुषुप्तिकल्पनां दर्शयति – पीत्वेति । तो अवस्था द्वय का तात्पर्य हुआ जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था। माण्डूक्य कारिका भाष्य के मंगलाचरण के दो पादों के द्वारा
प्रज्ञानांशुप्रतानैः स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोकान्, 
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजन्यान् ।
 भगवान भाष्यकार शंकर ने ये बताया कि जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था दोनों ब्रह्म में कल्पित हैं। श्लोक के प्रथम पाद से जाग्रत अवस्था को ब्रह्म में कल्पित बताया , दूसरे पाद से स्वप्न अवस्था को ब्रह्म में कल्पित बताया। अब टीकाकार कहते हैं - 'तत्र एव सुषुप्तिकल्पनां दर्शयति' - माने सुषुप्ति अवस्था भी ब्रह्म में ही , जाग्रत और स्वप्न की तरह कल्पित है यह दीखलाते हैं। 
अब मंगलाचरण के तीसरे पाद -पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो/ में' सर्व विशेष ' शब्द का अर्थ कर रहे हैं -  सर्वे विशेषाः सर्वे विषयाः स्थूलाः सूक्ष्माश्च जागरितस्वप्नरूपास्तान् याने सर्वे विषयाः स्थूलाः सूक्ष्माश्च --इसके द्वारा मंगलाचरण के तीसरे पाद - पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो के मधुर-भुङ्ग तक का अर्थ कर रहे हैं।
सर्वान् विशेषान् शब्द से किसको लेंगे ? विशेष शब्द का अर्थ है -विषय। उन विषयों के अवांतर दो भेद हो गए , जाग्रत के विषय और स्वप्न के विषय। जाग्रत के विषय हैं स्थूल विषय , स्वप्न के विषय हैं -सूक्ष्म विषय। इस प्रकार सर्वान् विशेषान् शब्द से जो ग्राह्य जाग्रत और स्वप्न के विषय को लेंगे।  जागरितस्वप्नरूपा -विषया  तान् पीत्वा - याने उनको पीकर के।  तो विषयों को पीना क्या है ? तो (भगवान शंकर के नीलकण्ठ का स्मरण कराते हुए) ,पीत्वा का अर्थ कर दिया - पीत्वा स्वात्मनि अज्ञाते प्रविलाप्य / स्वात्मनि यानि स्व-स्वरूपे/ आत्मा शब्द का अर्थ होता है स्व-स्वरुप। स्वात्मा या स्व -स्वरुप है दो प्रकार का - एक है ज्ञात स्व-स्वरूप और दूसरा है अज्ञात स्व-स्वरूपज्ञात कहते हैं ज्ञान का विषयभूत स्व-स्वरूप। और स्वात्मा का अज्ञात स्व-स्वरूप कहा जायेगा - अज्ञान का विषयभूत जो स्वरुप है। उसे कहा जायेगा अज्ञात स्वात्मातो सुषुप्ति के स्वात्मा याने स्व-स्वरुप ज्ञात होता है कि अज्ञात रहता है अज्ञात रहता है। इसलिए वो जो अज्ञात स्वात्मा है , स्व-स्वरूप है --उसी में प्रविलाप -याने विलय। 
तो जब गंगाजी आदि नदियाँ अपने-अपने नाम-रूप को छोड़कर सागर में मिल जाती हैं - तो तदात्मक हो जाती हैं वैसे ही अज्ञात आत्मा में ये सब विशेष , याने जाग्रत अवस्था के और स्वप्न अवस्था के विषयों में जो भी भेद हैं , वे सारे अज्ञात आत्मा में एकीभूत होते हैं। जैसे नदियाँ जब सागर से मिल जाती हैं , तब सागर से अलग नहीं दिखती हैं न ? सागरात्मना अवस्थित होती हैं। सागर-रूप से अवस्थित हो जाती हैं। वैसे ही सुषुप्ति के समय ये जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं के विषय , जो अपने से अलग जैसे प्रतीत होते थे , भोक्ता से भोग्य विषय (Milk Chocolate) अलग प्रतीत होते थे न ? जाग्रत में भी और स्वप्न में भी। लेकिन सुषुप्ति के समय केवल अज्ञात स्वरुप ही रहता है, स्वात्मा ही रहता है ,स्व-स्वरूप ही रहता है। जैसे सागर से नदियां जब मिल जाती हैं , तो फिर अलग प्रतीत नहीं होतीं। मिलने से पहले तक तो अलग-अलग प्रतीत होती हैं। ये गंगा है, ये नर्मदा है -ऐसी पहचान उनकी रहती है। लेकिन जैसे ही सागर मिल गयी तो सागररूप ही हो जाती है, उससे अलग प्रतीत नहीं होती। वैसे ही जाग्रत -स्वप्न में भासित होने वाला जो भेद हैं , वो सारे भेद सुषुप्ति के समय स्वरुपभूत हो जाते हैं। अज्ञात स्व-स्वरूप में अवस्थित हो जाते हैं। अज्ञात स्वात्मा के साथ एकीभूत हो जाते हैं। ये सर्वान् विशेषान् तान् पीत्वा का अर्थ निकलेगा-जाग्रत-स्वप्न के भासमान भेद को आत्मसात करके। पीत्वा सर्वान् विशेषान् स्वपिति  सभी भेद को पी करके वो निद्रा में लीन रहता है, का अर्थ है -कारणात्मना अवतिष्ठति। 
जो अज्ञात स्वात्मा है , उसे कारणरूप आत्मा कहा जाता हैकारण-ब्रह्म कहा जाता है। जाग्रत स्वप्न का कारण है वो - कौन ? अज्ञात आत्मा ! स्वात्मा शब्द का अर्थ है स्व-स्वरूप।  और वो स्व-स्वरूप कौन है ? ब्रह्म ! तो अज्ञान के विषयभूत ब्रह्म को कहा जाता है - जगत का कारण। तो कहा - कारणात्मना अवतिष्ठति , जैसे सागर से मिल जाने के बाद नदियाँ सागरात्मना अवस्थित है। वैसे ही जाग्रत-स्वप्न में भासमान सारा भेद , वह अपने कारण के रूप से सुषुप्ति अवस्था में रहता है। इसीको टीकाकार लिखते हैं - स्वपिति कारणभावेन तिष्ठतीत्यर्थः  अर्थात कारण रूप से रहता है। 
सुषुप्ति में विश्व और तैजस नहीं है , ऐसा नहीं होता। विश्व और तेजस भी रहते हैं और उनकी उपाधि भी है , लेकिन स्व-स्वरूप से रह रही थी उन अवस्थाओं में , वो अब कारणात्मना है। कार्यात्मना अब नहीं है। कारण रूप से अवस्थित है , जैसे नदियां सागर से मिलने के बाद --नदियाँ नहीं हैं ? ऐसा नहीं होता। नदियाँ हैं , लेकिन नदी रूप से नहीं हैं ,सागर-रूप से हैं। वैसे ही जाग्रत स्वप्न में जैसा जगत था -वैसा जगत सुषुप्ति में नहीं है--कारण रूप से है। 
प्रश्नोत्तरीcoma अवस्था में पहुँचने से पहले , या प्रगाढ़ बेहोशी की अवस्था में पहुँचने से पहले जिस स्थिति में मन था -उसी स्थिति वाला बना रहता है। यदि दुःखी होकर के coma में पहुँचा है तो दुःखी रहेगा। मूर्छावस्था से पहले यदि दुखी होकर के मूर्छित हुआ है , तो जबतक मूर्छा अवस्था में है, तब तक उसके चित्त में वैसी ही वृत्ति रहेगी। दुःख की ही वृत्ति रहेगी। कभी कभी कोई आनन्द से भी मूर्छित हो जाते हैं, वैसी ही वृत्ति रहेगी उसमें। मूर्छा का ही एक प्रकार है coma | 
अब मंगलाचरण के तीसरे पाद में मधुरभुक की बात आयी है -मधुरभुङ्मायया भोजयन्नो। उसके अवतरण की टीका में टीकाकार लिखते हैं - तत्राऽऽनन्दप्राधान्यमभिप्रेत्य विशिनष्टिमधुरभुक इति (मधुरभुगिति) । तत्र शब्द सुषुप्ति का परामर्शक है। तो सुषुप्ति अवस्था में प्रारब्ध कर्म का फलोपभोग तो नहीं होता। आनन्द-स्वरूप आत्मा का जो आनन्दाभास है वह सामान्य चित्तवृत्ति पर पड़ता है। सुषुप्ति अवस्था में भी सामान्य अन्तःकरण तो रहता ही है न ? अन्तःकरण किसी कार्य विशेष को आलंबन बनाकरके नहीं रहता , कारण उपाधि जो अविद्या है , उसको कारण बनाकरके अन्तःकरण सुषुप्ति में भी रहता है। तो उसमें भी चिदाभास पड़ेगा न ? चिदाभास भी रहेगा और अनंदाभास रहेगा।  
ये जो आनन्दाभास है , वह जाग्रत और स्वप्न में जब पुण्य का फल-उपभोग होता है, तबतो आनन्द स्वरुप आत्मा भासता है। और जब पाप का फल-उपभोग करना होता है, तब उस समय तो विपरीत वृत्तियों के द्वारा जो अनंदाभास है , वह अवरुद्ध रहता है। वो जो अनंदाभास है ,उसकी आवरक वृत्तियाँ -अवरोधक वृत्तियाँ सुषुप्ति के समय नहीं रहती। जो पाप जन्य विपरीत वृत्तियाँ हैं ,वे नहीं रहती इसलिए सुषुप्ति के समय अनंदाभास स्पष्ट होता है। और उस समय के आनंद प्रचूरता को देखकरके , भगवान भाष्यकार ने विशेषण जोड़ दिया -मधुरभुक ! इसे टीकाकार कहते हैं -तत्राऽऽनन्दप्राधान्यमभिप्रेत्य मधुरभुक वि-शिनष्टि। अर्थात सुषुप्ति के समय आनंद की प्रधानता रहती है , आनंदाभास रहता है, इसे दिखाने के लिए , ये विशेषण है-मधुरभुक वी -शिनष्टि। सुषुप्ति अभिमानी प्राज्ञ का ही एक विशेषण है बताते -आनन्दभुक। वह आनन्द का भोग करता है, ऐसा नहीं।  आनन्दभुक का अर्थ है - वह आनंद-प्रधान है। उस समय आनंद की प्रधानता रहती है। वह कर्मफल भोग के जैसा भोग नहीं है , कर्मफल भोगने के लिए तो आवश्यक होता है -भोगायतन स्थूल शरीर भी। और भोगोपकरण इन्द्रियाँ भी चाहे वे वासनामय सूक्ष्म हों या स्थूल व्यावहारिक सत्त्ता वाली हों। स्थूलभूतों का कार्य स्थूल शरीर हो या सूक्ष्मभूतों का कार्य सूक्ष्म इन्द्रियाँ हो ,इनसे जब विषयों का ग्रहण होगा , और उससे सुख-दुःख होगा -तब उसे भोग कहा जायेगा।  वो कर्मफल उपभोग है। बिना भोगायतन स्थूल शरीर के , और स्थूल-सूक्ष्म भोगोपकरण इन्द्रियों के बिना नहीं होता। और सुषुप्ति में तो केवल सामान्य अन्तःकरण होता है , न तो वासनात्मक इन्द्रियां हैं न तो व्यावहारिक इन्द्रियां है। और न तो विषय हैं। कर्म तो अपना फल उपभोग कराने के लिए -भोगायतन स्थूल शरीर , भोगोपकरण इन्द्रियाँ और भोग्य विषयों के सम्बन्ध से , होता है। इनके बिना नहीं करा सकता। इसलिए सुषुप्ति में होने वाला जो अनंदाभास है , उस अनंदाभास को कर्मफल नहीं समझना चाहिए। वो कर्मफल नहीं है, ये तो कारण अवस्था है न ? कर्मफल अवस्था तो होती है कार्य-अवस्था। इसलिए तो पहले यहाँ पर स्वपिति का अर्थ करते हुए लिखा - स्वपिति कारणभावेन तिष्ठतीत्यर्थः  अर्थात कारणात्मना तिष्ठति - कारण रूप से रहता है। कारण अवस्था से विद्यमान रहने से वहां कोई कर्मफल भोग नहीं है। अपितु आनंद की प्रधानता मात्र है। ये दिखाने के लिए मधुरभुक शब्द का प्रयोग है। भुक शब्द का तो अर्थ होता है भोगने वाला। लेकिन वो वाच्यार्थ यहाँ पर विवक्षित नहीं है। बस आनंद भास् रहा है। इतना मात्र विवक्षित है। वहां आनन्दाभास की अभिव्यक्ति है। ये आनन्दभुक शब्द का अर्थ निकलेगा। सुषुप्ति का सुख सबको एक जैसा- मनुष्य को , देवताओं को , पशुओं को , पक्षियों को , 84 लाख प्रकार के यौवनिस्ठ प्रत्येक प्राणी को सुषुप्ति का जो अनुभव है -एक जैसा है। सभी को एकजैसा ही आनन्दा भास् होगा। और स्वप्न में और जाग्रत में जो होनेवाला सुख-दुःख है, उसमें तो अंतर रहेगा , क्योंकि वो कर्मफल है। कर्म सबका अपना अपना अलग अलग है ,इसलिए अलग अलग सुख दुःख होगा।  बाकि की चर्चा करते हैं हमलोग।  
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 [स्वामी श्री विश्वात्मानन्द पुरीजी महाराज, (अध्यक्ष , साधना सदन , हरिद्वार , उत्तराखण्ड) द्वारा अथर्ववेदीय माण्डूक्योपनिषद , गौड़पादीय कारिका , शंकर भाष्य सहित , आनन्दगिरि टीका समेत परिचर्चाSadhana Sadan से संपर्क करें/फोन:  01334 240 604/वेबसाइट: sadhanasadan.org/ईमेल: swamivpuri2@yahoo.in/पता-Canal Rd, Mayapur, Mayapur, Haridwar, Uttarakhand 249408, India] 

[ माण्डूक्य उपनिषद् में कुल 12 मंत्र हैं तथा इनमें बहुत गम्भीरता है इनकी गम्भीरता तो तब ज्ञात हो जब गोड़पादाचार्य (शंकराचार्य के दादा गुरु) की कारिका (श्लोकों में व्याख्या) देखी जाये । कारिका को चार भागों में बाँटा गया है। आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण तथा अलातशान्ति प्रकरण ।आगम प्रकरण में वस्तु का निर्देश, तथा प्रपंच का मायामयत्व स्थापित किया गया है । वैतथ्य प्रकरण में आगम में कही हुई बात (द्वैत का अभाव) को ही तर्क पूर्वक समझाया गया है । अद्वैत प्रकरण में अद्वैततत्त्व को युक्ति द्वारा सिद्ध किया गया है एवं अलातशान्ति प्रकरण में आचार्य ने अन्य मतावलम्बियों के पारस्परिक मतभेद दिखलाते हुए उन्हीं की युक्तियों के द्वारा उनका खन्डन किया है ।शंकराचार्य जी ने देखा कि माण्डूक्य तो आसानी से लोगों को समझ में आयेगा नहीं और गौड़पदाचार्य की कारिका भी गम्भीर है इसलिए उन्होंने उपनिषद् एवं कारिका दोनों पर व्याख्या लिखी । इसे पढ़ कर कुछ प्रकाश होता है । परन्तु बिना गुरु/नेता के प्रशिक्षण परम्परा से समझे सही अर्थ समझ में नहीं आता ।]
                       
भगवान् भाष्यकार शङ्कर भगवद्पादाचार्य : अद्वैत परम्परा के आचार्यगौड़पाद :गौड़पाद की कारिका माण्डूक्य उपनिषद के श्लोकों पर टिप्पणी मात्र नहीं, अपितु वेदान्त शिक्षा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है ( "वेदान्त-सार-संग्रह-भूतम्" कहा है)। ग्रन्थ 215 श्लोकों और 4 अध्यायों में निबद्ध है।
 अथर्ववेदीय माण्डूक्य उपनिषद यद्यपि अति संक्षिप्त है किन्तु इसमें वेदान्त का सार समाहित है।  जो मोक्ष चाहते हैं, उनकी मुक्ति के लिए मुक्तिकोपनिषद् कहता है कि अकेले माण्डूक्य ही पर्याप्त है (मुक्तिका, I, 26)।  माण्डूक्य उपनिषद इस समीकरण के साथ आरम्भ होता है - 'ओम् = सर्व = ब्रह्म = आत्मा ' और आत्मा की तीन स्थितियां  जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तथा चौथी तुरीय जो कि जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के क्रम में कोई स्थिति नहीं है अपितु, आत्माकी अनुभवातीत प्रकृति है- द्वैत रहित शान्ति है, स्वयं में स्वयं है। द्वैतरहित वास्तविकता तुरीय है। इसका कोई विशिष्ट नाम नहीं है, इसलिए इसे "चतुर्थ" (तुरीय) कहते हैं - ( पुनः यहां उल्लेखनीय है कि "वास्तविक" को अनुभवात्मक दृष्टि से "चतुर्थ" कहते हैं, वस्तुतः संख्यात्मक श्रेणी इस पर लागू नहीं होती)। विश्व, तैजस्, और प्रज्ञा वह नाम है जिनके द्वारा आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओ में जाना जाता है। विश्व, तैजस एवं प्राज्ञ  यह तीनों अलग अलग नहीं हैं। एक ही और वही आत्मा तीन प्रकार से प्रतीत होता है ( I, i, एक एव त्रिधा स्मृतः )। यह दर्शित करने के लिए कि जाग्रत में तीनों अवस्थाएं विद्यमान हैं गौड़ पाद उनके स्थान निर्धारित करते हैं। और यह तीनों आत्माके तीन ब्रह्माण्डीय रूप-  विराट, हिरण्यगर्भ, और अव्याकृत या ईश्वर भी समझे जाने चाहिए।
पारमार्थिक दृष्टि से द्वैत नहीं है,वे मोहग्रस्त हैं जो अनेकात्मक संसारको वास्तविक समझते हैं। द्वैत का बीज अज्ञान है । जब वास्तविक का ज्ञान हो जाता है तो द्वैत का संसार नहीं रहता।ज्ञाता और ज्ञेय तथा बुद्धि और पदार्थ में अंतर का अनुभव माया का परिणाम है। द्वैत केवल भ्रम है, अद्वैत ही परम सत्य है ( I, 17, माया मात्रं इदं द्वैतं अद्वैतं पर्मार्थतः)। यह माया अनादि है और अनिर्वचनीय है -कैसे उत्पन्न होता है, कोई इसका स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। किन्तु परीक्षण करने पर ये वास्तविकता से रहित पाये जाएंगे। माया दो प्रकार से कार्य करती है ; यह "एक" पर आवरण डाल देती है (तत्त्व प्रतिबन्ध) और "अनेक" की प्रतीति (अन्यथा ग्रहण) करा देती है।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में छान-बीन के फलस्वरूप यह सिद्ध होता है कि विविधतापूर्ण संसार भ्रमपूर्ण है और केवल आत्मा  वास्तविक है। जाग्रत में जिस संसारको हम वास्तविक समझते हैं, वह भ्रम है। आचार्यगौड़पाद इस बात को वैतथ्य प्रकरण में स्वप्न-संसार के सादृश्य से सिद्ध करते हैं। स्थान और समय के नियम , जिनसे जाग्रत संसार नियंत्रित होता है, उनसे भी स्वप्न की घटनाएं मेल नहीं खातीं। जाग्रत की चेतना अंततः एक सीमित घटना चक्र है, यह पाँचों इन्द्रियों की तात्कालिकता द्वारा संकुचित और पल पल में चलायमान  एक किन्तु विन्दु पर केंद्रित होता है। स्वप्न में हम  सामान्य जीवन के भयों और बंधनों से मुक्त एक  बृहद् राज्य में प्रवेश करते हुए दिख सकते हैं, वह एक ऐसा क्षेत्र होता है जहाँ धरती की शक्तियां और नियम निष्क्रिय हो जाते हैं और  जहां अवचेतन की बृहद शक्ति अधिक स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करती है और चढ़ते हुए ज्वार की भाँति हमारे दैनिक जीवन के छुद्र तर्कों को  विलीन कर लेती है।जाग्रत वाले अत्यल्प समय में स्वप्न में कोई अत्यंत दूर की यात्रा कर लेता है। किन्तु,  स्वप्न वाले स्थान पर वास्तव में जाना नहीं होता क्योंकि जागने पर वह व्यक्ति अपने को वहां नहीं पाता।  शुद्ध स्वाभाव वाला स्वप्नद्रष्टा स्वप्न में अपने ही सिर को अलग हुआ देख सकता है।  स्वप्न में अनुभव की गयी वस्तुएं भी वास्तविक नहीं होती क्योकि स्वप्न भंग होने पर वे नहीं दिखतीं (॥,2) । चूंकि, स्वप्न में देखे गए रथ इत्यादि अस्तित्वहीन हैं, इसलिए वे भ्रम हैं ( ॥,3; देखें, बृहदारण्यक, IV, 3, 10) । स्वप्न और जाग्रत दोनों में मन ही माया द्वारा प्रेरित होकर भ्रमण करता है और विविधता की प्रतीति का निर्माण करता है। आत्मा की ही भाँति मन भी द्वैत-रहित है। किन्तु अज्ञान के कारण द्वैत का चित्रण करता है और परिणामस्वरूप संसार है।  (III, 29, 30; IV, 61,62)। 

भ्रामकता के उदाहरण जाग्रत में भी पाये जाते हैं। जिस प्रकार अँधेरे में एक अज्ञात रस्सी में सर्प की या जल की वर्णरेखा की कल्पना हो जाती है, ठीक उसी प्रकार अज्ञान के माध्यमसे आत्मा ही संसार के रूपमें कल्पित हो जाता है। जैसे ही रस्सी का ज्ञान होता है, कल्पित सर्प इत्यादि लुप्त हो जाते हैं , ठीक उसी प्रकार जब आत्मा के द्वैत-रहित होनेका  ज्ञान हो जाता है तो अनेकसत्मक संसार लुप्त हो जाता है ( II, 17,18)। स्वप्न अवस्था में काल्पनिक गन्धर्व नगर की भांति ब्रह्माण्ड दिखता है, किन्तु वास्तव में है नहीं (II, 31)। संसार की वस्तुओं के होने का विश्वास किया जाता है क्योंकि उनका ग्रहण होता है (उपालम्भात्) और क्योंकि वे कुछ व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं ( समाचारात्) । किन्तु यह दो कारण उन्हें वास्तविक नहीं बना सकते; क्योंकि, जादूगर द्वारा बनाये गये जादू के हाथी देखे जाते हैं और व्यावहारिक रूपसे प्रभावकारी भी होते हैं (?) किन्तु वास्तविक नहीं होते।  ( IV, 44)।  

गौड़ पाद द्वारा चौथे अध्याय में दिया गया एक और उदाहरण है - अलात या स्फुल्लिंग । जब स्फुलिंग निकलता है तो यह सीधा या वक्र प्रतीत होता है और जब इसकी गति रुक जाती है तो इसकी प्रतीति लुप्त हो जाती है। वास्तवमें वे गतिमान स्फुलिङ्ग से नहीं निकलते न ही इसके बुझने पर इसमें समाते हैं। स्फुल्लिंग की गति के साथ अग्नि की जो रुझानें प्रतीत होती हैं वे भ्रामक हैं , उनमें कोई सार नहीं है। इसी प्रकार मायाके कारण चेतना विविध रूपों में  प्रतीत होती है। ये रूप वास्तव में  इसमें से निःसृत नहीं होते और न ही इसमें वापस होते हैं , क्योंकि ये कुछ हैं ही नहीं (IV, 47 -52)। सुषुप्ति अवस्था में  न  विलय है न उत्पत्ति है, न कोई बंधन में है, न कोई ऐसा है जिज्ञासु या मुमुक्षु है , जो मुक्ति चाहता हो, न कोई ऐसा है जो मुक्त हो गया हो - यही परम सत्य है ( II, 32. न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बंधो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्तः इत्येषा परमार्थतः ।।) इसी प्रकार जब अनुभव कर लिया जाता है कि जीव माया के प्रक्षेपण हैं तो केवल आत्मा बचता है। जिस प्रकार बच्चे धूल इत्यादि को गलतीसे आकाश की गन्दगी समझते हैं , उसी प्रकार अज्ञानी लोग निर्विकार आत्मा में जन्म मृत्यु सुख दुःख इत्यादि अध्यारोपित कर लेते हैं। किन्तु यह परिवर्तन वास्तविक नहीं हैं और आत्मा को स्पर्श नहीं करते। जीवों के जन्म-मृत्यु,  आने-जाने से आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। वे न तो आत्मा के उत्पाद हैं न उसके अंश। द्वैत-रहित आत्मा भागरहित है; यह न किसी चीज को उत्पन्न करता है न किसी चीज के द्वारा उत्पन्न होता है ; न किसी चीज का कारण है न परिणाम (III, 3-9)।
तैत्तिरीय उपनिषद् ( द्वितीय वल्ली)  आत्मा को आवृत्त करने वाले पंचकोशों के विश्लेषण के माध्यम से आत्माको द्वैत-रहित चेतना के रूपमें दर्शित करता है, जिसमें हटाये जा सकने वाले आवरणों का भ्रम नहीं किया जाना चाहिए। बृहदारण्यक  उपनिषद्  के 'मधु खण्ड' (II, V) में ब्रह्माण्डीय तत्वों के पीछे जो सिद्धांत हैं उन्हें आत्मा के रूप में चिन्हित करता है जो शरीर और इसकी क्रियाओं का सार या आधार है। (आत्मा ही अमृत है, आत्मा ही ब्रह्म है, आत्मा ही यह सब कुछ है - बृ. 2.5.1)। जो बाहर है वह भीतर भी है। एक ही मधु समस्त अस्तित्ववान् चीजों अर्थात् चराचर जगत में व्याप्त है। यह अमृत है, आत्मा है, ब्रह्म है, सब कुछ है। जिस प्रकार  पहिये की धुरी से तीलियाँ गुंथी होती हैं, उसी प्रकार सारा जगत आत्मा से गुंथा हुआ है।इस प्रकार शास्त्र आत्मा से जीव के अभेद की घोषणा करता है और अनेकता की निंदा करता है।भेद तो भ्रमात्मक है। "माया के माध्यमसे एक ही अनेक के रूप में प्रतीत होता है। यहां अनेकता नहीं है" (बृ. IV, iv, 19)। "माया के माध्यमसे इंद्र विविध रूपोंमें प्रतीत होता है" (ऋ.वे. VI, 47, 18; बृ. II, v, 19)।"अजन्मा होने पर भी वह विभिन्न प्रकारसे जन्म लेता हुआ प्रतीत होता है" ( तै. आ. III, 13, 1.)। ईशावास्य उपनिषद ( मन्त्र 12) आत्मा के जन्म को अस्वीकार करता है  और बृहदारण्यक पूछता है, "उसे  कौन उत्पन्न कर सकता है?" (III,9 28)। 

स्वप्न के दृश्यों और जाग्रत की वस्तुओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर इन दोनों  के बीच  एक अनिवार्य समानता है । स्वप्नावस्था में द्रष्टा अपने भीतर ही कुछ विचारों की कल्पना करता है और कुछ चीजोंको बाहर देखता है ; और वह विश्वास करता है कि कल्पना तो अवास्तविक है जबकि दृश्य वास्तविक। किन्तु जैसे ही वह स्वप्नसे जागता है उसे ज्ञात होता है कि जिन वस्तुओं को उसने स्वप्न में बाहर की भांति देखा वे अवास्तविक हैं। इसी प्रकार जाग्रत में भी हम ऐसी कल्पनायें करते हैं जिन्हें हम जानते हैं कि वे अवास्तविक हैं  और हम ऐसे तथ्यों का अनुभव करते हैं जिन्हें हम वास्तविक मानते हैं। किन्तु जब द्वैत का भ्रम मिट जाता है तो बाह्य जगत के तथाकथित तथ्य भ्रामक प्रतीति लगने लगते हैं ( ॥, 9&10, IV, 63-66 )। इसलिए बुद्धिमान् व्यक्ति जाग्रतको भी स्वप्न की श्रेणी में रखता है (II, 5. स्वप्न-जागरिते स्थाने हि एकमाहुर्मनीषिणः ।)

किसी  प्राचीन चीनी संत च्वांगत्सु ने कहा है  : "पिछली रात मैंने स्वप्न में देखा कि मैं एक तितली हूँ,  और अब मैं यह नहीं जानता कि मैं ही वह  मनुष्य हूँ जिसने तितली होने का स्वप्न देखा था , या अभी भी मैं एक तितली हूँ जो स्वप्न देख रही है कि वह मनुष्य है।"।  [अगर आदमी सपने में तितली हो सकता है, तो तितली भी तो सपने में आदमी हो सकती है? तो च्वांगत्सु कहने लगा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं कि मैं असली में आदमी हूं जिसने तितली का सपना देखा या तितली हूं जो आदमी का सपना देख रही है। और कैसे तय करूं कि क्या सही है?]

मन के भीतर निर्मित वस्तुएं और उसके बाहर संसार में एकत्र की गयी वस्तुएं - यह दोनों ही आत्मा की भ्रामक कल्पनायें हैं। इन दोनों प्रकार की वस्तुओं में अंतर केवल इतना है कि स्वप्न की वस्तुएं तभी तक रहती हैं जब तक द्रष्टा का मन उनकी कल्पना करता है (चित्तकालः), जबकि बाह्य संसार की वस्तुएं अन्य विषयों (जो परम आत्मा की स्थितियां भी हैं) द्वारा भी अनुभव की जाती हैं (द्वैकालः) और इन्द्रियों द्वारा ग्रहण की जाती हैं। यद्यपि भ्रामकता (वैतथ्य) दोनों में रहती है (II, 11-15)। 
ऐसा कहा जाता है कि स्वर्ग में/देवलोक में रहने वालों की अपनी विशिष्टताएं होती हैं जो हमारे लिए असामान्य हैं। जैसे देवलोक के महलों में किचेन या रसोईघर नहीं होते। इसी प्रकार , जाग्रत की ओर से स्वप्न के दृश्य असामान्य दिख सकते हैं; किन्तु अपने आप में वे पूर्णतया सामान्य हैं।
कारण-कार्य सिद्धांत :आत्मा अजन्मा है, और अन्य ऐसा कुछ नहीं है जो जन्म लेता हो, इस बात को  गौड़ पाद चौथे अध्याय में कार्य कारण सिद्धांत के तर्कशास्त्रीय आलोचना के माध्यमसे सिद्ध करते हैं। अन्य संबंधों की भाँति कार्य-कारण सम्बन्ध भी अज्ञान के क्षेत्र में आता है क्योंकि, विश्लेषण करने पर यह अबोधगम्य सिद्ध होता है। कार्य-कारण सिद्धांत के दो प्रतिद्वंदी मत हैं जो एक दूसरेसे पूर्णतया विरुद्ध हैं। सांख्य सिद्धांत कहता है कि कार्य पहले से कारण में विद्यमान रहता है और सर्वथा नया नहीं उत्पन्न होता। न्याय वैशेषिक मत के अनुसार उत्पत्ति से पूर्व कार्य का अस्तित्व नहीं होता। इन दोनों में से किसी भी परिकल्पना के आधार पर कार्य-कारण घटित नहीं होगा। यदि कार्य पहले से विद्यमान है तो किसी कारणात्मक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है; यह कहना निरर्थक है कि जो  था उसी ने जन्म लिया। यदि कार्य का अस्तित्व नहीं है तो यह कभी उत्पन्न नहीं किया जा सकता (IV, 4. भूतं न जायते किंचिदभूतं नैव जायते) । इस प्रकार सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद दोनों  अनजाने में ही अ-रचना या अनारम्भ का समर्थन करते हैं (IV, 3-5)। कारण और कार्य की श्रृंखला अनादि है , यह बीज और अंकुर की भांति एक दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। यहाँ हमारे समक्ष पुनः दुर्लंघ्य कठिनाइयाँ आती है। यदि कार्य कारण का पूर्ववर्ती है और कारण कार्य का पूर्ववर्ती है तो कार्य और कारण दोनों आरम्भ होते हैं। वे आरम्भरहित कैसे हो सकते हैं ? इसके अतिरिक्त इस सिद्धांत में ही एक विरोधोक्ति है। यह कहना कि कारण का पूर्ववर्ती कार्य है वैसा ही है जैसे पुत्र से पिताका उत्पन्न होना कहा जाय ( IV, 15, पुत्रज जन्म पितुर्यथा ) ।  कारण और कार्य के बीच मान्य निश्चित क्रम अवश्य होना चाहिए। दोनों  एक दूसरे पर आश्रित हैं, ऐसा विश्वास करने का कोई अर्थ नहीं है। यदि कारण और कार्य अनिश्चित रूपसे पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती हो सकते हैं, तो उन दोनों में कोई अंतर नहीं होगा, और एक को कारण तथा दूसरे को कार्य कहना पूर्णतया मनमाना और निरर्थक होगा।
यह तर्क लिया जा सकता है कि बर्तन मिट्टी से उत्पन्न होता है। किन्तु बर्तन मिट्टी से कैसे सम्बंधित है? क्या यह इससे अभिन्न है अथवा भिन्न है  अथवा भिन्न अभिन्न दोनों है? यदि बर्तन मिट्टी से अभिन्न है तो इसे उससे उत्पन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि मिट्टी पहले से ही अस्तित्वमें है। यदि यह भिन्न है तो कोई कारण नहीं कि इसे दूसरे बर्तन से या कपड़े से भी उत्पन्न न किया जा सके जो उससे भिन्न हैं । और यह भिन्नाभिन्न दोनों हो नहीं सकता क्योंकि दोनों विरोधी हैं। इसी प्रकार न तो अस्तित्ववान् न ही अनस्तित्ववान और न ही अस्तिववान और अनस्तित्ववान दोनों उत्पन्न किये जा सकते हैं। यह कहना निरर्थक है कि जो विद्यमान है उसे उत्पन्न किया जाता है। अनस्तित्ववान को इसके अनस्तित्व के कारण उत्पन्न किया नहीं जा सकता । तीसरा विकल्प हमें विरोधाभासमें धकेलता है ( IV, 22)। 
व्यावहारिक जगत् : आचार्य गौडपाद व्यवहारिक स्तर पर जगत रचना- भोक्ता (जीव) , भोज्य (जगत) और भोजयिता (ईश्वर)  को स्वीकार करते हैं। किन्तु उनके अनुसार रचना न तो सर्वथा नवीन है नही मूल का रूप परिवर्तन। यह माया का स्वभाव है ,भ्रामक प्रक्षेपण  या रूपान्तरण है। संसार आत्मा के साथ न तो धागे से  कपड़े की भाँति सम्बद्ध है न दही से दूध की भाँति। वस्तुतः कोई भी सम्बन्ध बोधगम्य नहीं है, यद्यपि एक ही वास्तविकता बहुविध संसार के रूप में इसकी स्वयं की माया (आत्म-माया) के रूप में प्रतीत होती है। जंजाल, जो संसार का गठन करते हैं,  स्वप्न के चित्रों की भाँति आत्मा के भ्रम द्वारा किये गए प्रक्षेपण हैं (III, 10. संघातः स्वप्नवत् सर्वे आत्म-माया-विसर्जितः)। वस्तुओं का जन्म केवल व्यावहारिक सत्य  (संवृति-सत्य) की दृष्टि से कहा जाता है; अतः इनमें स्थायित्व नहीं है। जैसे भ्रमात्मक बीज से भ्रमात्मक अंकुर निकलता है ठीक उसी प्रकार सभी चीजें मायासे निकलती हैं (IV, 57 -59)।
विधुशेखर भट्टाचार्य द्वारा संपादित 'गौड़पाद का आगमशास्त्र', पृष्ठ 30-37) । आत्मा केवल एक ही है जो आत्म-भ्रान्ति के माध्यमसे अनेक रूप में प्रतीत होती है।  (II, 19. मायैषा तस्य देवस्य ययाsयं मोहितः स्वयं )। पहले जीवों की कल्पना होती है उसके बाद आतंरिक और बाह्य अनेक वस्तुओं की। जीवात्माओं और वस्तुओं का संसार आत्मा पर अध्यारोपित आभास है, जैसे अँधेरे में रस्सी में सर्प का आभास हो जाता है (II, 16, 17)। 

द्वैत और अद्वैत में विवाद नहीं है संवाद है : वितण्डा विवाद करने वाले उसके जन्म का प्रतिपादन करते हैं जो वस्तुतः अजन्मा है। किन्तु यह तो विरोधाभास के ही नियम का स्पष्ट उल्लंघन है। जो अजन्मा और अमर है , वह मरणशील कैसे हो सकता है? अमर मरणशील नहीं हो सकता और मरणशील अमर नहीं हो सकता, क्योंकि किसी वस्तु के लिए अपने स्वभाव को बदलना संभव नहीं है। जो स्वभावसे अमर है वह यदि मरणशील हो जाय तो वह अपरिवर्तनशील नहीं रह जायेगा और बनावटीपन तथा भ्रामक स्वाभाव वाला हो जाएगा। किन्तु जो स्वभावसे अमर है उसके लिए यह असंभव है। सांख्य सोचता है कि अजन्मा और आरम्भरहित प्रकृति अपनेआपको ही अनेक रूपों में विकसित करती है जो ब्रह्माण्ड का गठन करते हैं। किन्तु यह मत तर्क के किसी भी नियम द्वारा न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। यदि प्रकृति संसार बन जाती है तो यह अजन्मा (अजा) और शाश्वत नहीं हो सकती। सांख्य एक और भ्रम जोड़ता है कि, कार्य (परिणाम) कारण से अभिन्न है। तो फिर कार्य क्या जन्म लेता है ? या अजन्मा है? यदि यह जन्म लेता है, तो यह कारण से अभिन्न नहीं हो सकता जो अजन्मा है। यदि यह अजन्मा है तो इसे कार्य (परिणाम)  नहीं कह सकते क्योंकि कार्य तो वही होगा जिसे उत्पन्न किया जा सके। और यदि कार्य को उत्पन्न किया जाता है और कारण से अभिन्न है तो कारण स्थायी और अपरिवर्तनशील नहीं हो सकता। ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि कोई कार्य अजन्मा कारण से उत्पन्न हुआ है। इस कठिनाई की अनदेखी करने के लिए यदि कहा जाय कि कारण का भी जन्म हुआ तो फिर उस कारण का भी कोई कारण होना चाहिए, फिर उस कारण का भी कोई कारण होना चाहिए ...इस प्रकार कारणता की अनंत श्रृंखला होगी (IV, 6-8, 11-13)।
ध्यान विधि - प्रणवयोग और अस्पर्शयोग :उपदेश शास्त्र के रूप में गौड़पाद कारिका प्रत्येक अध्याय के अन्त में व्यावहारिक उपदेश देती है। शास्त्र का उद्देश्य है साधक को संसारसागर पार करने में समर्थ बनाना और  परमानंद के किनारे पहुंचाना, जो मानव का सर्वोच्च  लक्ष्य (परम -पुरुषार्थ ) है। कारण कार्य के नियम पर आधारित व्यवहारिक जीवन-मरण का कष्टदायक चक्र ही अशुभ या अनर्थ है। फिलहाल, यह , जैसाकि पिछली कड़ियों में कहा जा चुका है, अविद्या या माया का उत्पाद है। जब तक कारणता में हठपूर्ण विश्वास है जोकि अविद्यात्मक है, जन्म और मृत्यु का चक्र समाप्त नहीं होगा। 
जब वह झूठा विश्वास ज्ञान के द्वारा नष्ट हो जाता है तब संसार समाप्त हो जाता है ( IV, 56)। परमसत्य ,जो कारणरहित है, की दृष्टि से जन्म और मृत्यु का कारण अज्ञान है । जब इस बात का अनुभव हो जाता है तो पुनर्जन्म का चक्र नहीं रह जाता और हमें मोक्ष प्राप्त हो जाता है , हम दुःख, इच्छा, और भय से स्वतंत्र हो जाते हैं। अवास्तविक लगाव ही संसार रूपी जंगल में भ्रमात्मक भटकाव के लिए उत्तरदायी है। जो ज्ञान के द्वारा लगाव से रहित हो जाता है, वह अवास्तविक की मिथ्या तलाश से विमुख होकर अद्वैत वास्तविकता में पहुँच जाता है जो सबके लिए समान और अजन्मा है ( IV, 78 -80)।

वास्तविक मुक्ति ढंकी हुयी है और अवास्तविक दुःख भ्रमात्मक अनेकता की प्रवीणता के कारण प्रक्षेपित होता है। अज्ञानान्धकार से ढके होकर अपरिपक्व ज्ञान वाले (बालिशः) उसके बारे में विवाद करते हैं जिसे वे वास्तविकता की प्रकृति समझते हैं। कुछ कहते हैं, यह है; कुछ कहते हैं, यह नहीं है; कुछ कहते हैं, यह है भी और नहीं भी है;  दूसरे कहते हैं, यह न तो है, न नहीं  है ( IV, 82-84)। ये सभी कृपण, संकीर्ण मन वाले, निर्भय में भय देखने वाले और भेदमार्ग के अनुयायी हैं जो स्वयं उसमें डूबे हुए हैं। इसके विपरीत महाज्ञानी (महाजनाः) हैं,  जो अज और अपरिवर्तनीय वास्तविकता में स्थिर हो गए हैं (IV, 94, 95)।

ज्ञान जो रक्षा करता है, मात्र सैद्धांतिक समझ नहीं है, अपितु वह है जो सीधा अनुभव हुआ है। शास्त्रों का अध्ययन, नैतिक अनुशासन, इंद्रियोंके विषयोंसे विमुखता और मुक्ति के लिए तीव्र ललक - ये आत्मानुभूति के लिए आवश्यक हैं। मुमुक्षु को वेदों के तात्पर्य का अध्ययन करना और मोह, भय, क्रोध जैसे आवेगों से/निषिद्ध कर्मों से ,  छुटकारा  (वीत-राग-भय-क्रोधः) पाना चाहिए; और उसे अपने विचारों को अद्वैत वास्तविकता पर केंद्रित करना चाहिए (॥,35, 36)।  गौड़पाद अद्वैत में (अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव) मन को केंद्रित करने की दो विधियां बताते हैं - पहले अध्याय में प्रणवयोग और तीसरे अध्यायमें अस्पर्शयोग। ये निरपेक्ष के ज्ञान में सहायक हैं और अज्ञान की गाँठ को ढीला करने की विधियां हैं।   अस्पर्शयोग या मनःसंयोग : अस्पर्शयोग ज्ञानातीतत्व का योग है, जिसके द्वारा साधक परा-सम्बन्धात्मक वास्तविकता का अनुभव करता है। सङ्कल्प क्रिया और बंधन की जड़ है। मन विषयों का चिंतन करता है और जब परिणाम में  शान्ति और प्रसन्नता नहीं मिलती तो उदास होता और टूटता है। ग्रहण और त्याग चिन्तन प्रक्रिया की अपकेंद्रीय प्रवृत्ति से प्रेरित होते है। बहिर्गामी मन को वापस खींचकर नियंत्रित करना चाहिए। यद्यपि मन को नियंत्रित करना बहुत कठिन है, उतना ही कठिन जितना कुशा की नोंकसे बूँद बूँद पानी निकालकर समुद्र को सुखाना। 
किन्तु, यह असम्भव कार्य नहीं है; इसके लिए केवल निरंतर अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास) और वैराग्य की आवश्यकता है। गुणावगुण का विवेक, नित्य-अनित्य  करके यदि मन को रोक लिया जाय तो निश्चय ही लक्ष्य पर पहुंचा जा सकता है। 
वैराग्य के लिए : सर्वप्रथम स्मरण करने की बात है कि इच्छायें और भौतिक सुख दुःखप्रद हैं, अतः इनसे विमुख होना आवश्यक है। बाहर भागने वाले मन को एकाग्र किया जाना चाहिए। किन्तु इस प्रक्रिया में यह सावधानी आवश्यक है कि यह निद्राग्रस्त न होने पाये। जब मन (?) सोने लगे तो इसे जगाना चाहिए; जब यह बाहर भागे तो इसे शांत करना चाहिए। ( मूल लेखक ने mind शब्द का प्रयोग किया है । शंका होती है कि सोता कौन है - मन या मस्तिष्क या और कोई ?

जब मन का तूफान शांत हो जाता है तब शान्तिका रोमांच होता है। किन्तु इस समाधि का भी आनंद नहीं उठाना चाहिए। कोई भी चीज जिसका आनंद लिया जाता है वह द्वैत से ही सम्बंधित होगा और यह असीमित या अक्षय आनंद नहीं हो सकता।
मन को अ-मन (अमनीभाव) होना चाहिए; भोग्य एवं भोक्ता , आनंद और आनंद लेने वाले में अंतर मिट जाना चाहिए। यह केवल अद्वैत आत्मा के ज्ञानसे हो सकता है। ज्ञान और आत्मा भिन्न नहीं हैं। ज्ञान ही ब्रह्म या आत्मा है। इसीलिए यह कहा जाता है कि अजन्मा (ज्ञान) के द्वारा ही अजन्मा  (ब्रह्म) को जाना जा सकता है ( III, 31-46, IV, 2)। 
 प्रणवयोग : ॐ पर ध्यान केंद्रित करने (प्रणवयोग) से भी वही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। ॐ ही ब्रह्म-आत्मा को इंगित करने वाला शब्द है । यह तीन मात्राओं, अ, उ, म् और चतुर्थ स्वररहित अमात्र से बनता है।विश्व का , उ तैजस का और म् प्राज्ञ का  द्योतक है । इन तीनों ध्वनियों के निहितार्थ पर क्रमशः ध्यान लगाने से आत्मा के तीन पक्षों की अनुभूति होती है। 
   ॐ ध्वनि अमात्र से निकलती और इसी में विलीन होती है। इसी प्रकार तुरीय निरपेक्ष है जो परिवर्तनरहित और द्वैत-रहित है किन्तु अनेक और परिवर्तनशील प्रतीत होता है। जब ॐ की ध्वनिरहित पराकाष्ठा के अर्थ की अनुभूति हो जाती है तो किसीभी चीज की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि तुरीय वास्तविक एवं केवल आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। इस प्रकार प्रणव ही ध्यातव्य और ज्ञातव्य है।  यही आरम्भ, मध्य और अन्त सब कुछ है। यही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित देव है। इससे पहले कुछ नहीं है ,  इसके बाद भी कोई चीज नहीं है ; न इसके बाहर कुछ है, न इसके अतिरिक्त कुछ है। इस प्रकारसे प्रणव को समझने वाला परम को प्राप्त करता है (I, 19-29)। 

मोक्ष या भ्रममुक्ति (D -Hypnotized) होना मरने के बाद की स्थिति नहीं आचार्य गौड़ पाद का उपदेश है कि, मोक्ष या मुक्ति मरने के बाद की स्थिति नहीं है। इसकी अनुभूति यहीं, इसी शरीर में हो सकती है ( IV, 69)। यह कहना भी कि इसकी प्राप्ति या अनुभूति होती  है,मात्र अलंकारिक है। यह आत्मा का शाश्वत और अवियोज्य स्वभाव है। जो इसे जानता है वह बंधनमुक्त है, जीवन-मुक्त है। क्योंकि उसने पूर्ण सर्वज्ञता प्राप्त कर लिया और द्वैत के भ्रम से स्वतंत्र है, उसके लिए ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी वह कामना करे (IV,85)। वह न तो प्रशंसा से प्रफुल्लित होता है, न निंदा से हताश। वह किसी के सम्मुख सिर नहीं झुकाता, वह कोई धार्मिक रीति संस्कार इत्यादि नहीं करता। उसका (नवनीदा के जैसा -भुवनभवन ) कोई स्थाई घर नहीं होता और जो भी उसे मिल जाता है उसी से निर्वाह करता है। वह चेतनहीन की भांति रहता है।, और जैसा चाहे वैसे रहता है (II, 36, 37)। यद्यपि उस पर कोई बाध्यता नहीं है, फिर भी उसके आचरण कभी अनैतिक नहीं हो सकते। नम्रता , धैर्य, शान्ति, और आत्म-नियंत्रण उसमें स्वाभाविक रूप से होते हैं (IV, 86)। वह सर्वत्र सत्य का दर्शन करता है। वह सत्यमें आनंदित रहता है और इससे भटकता नहीं है। वह स्वयं सत्य है (II, 38)।
 [1. ब्रह्म का 'मैं ' के रूप में स्मरण करना ही नमस्कार है : नमस्कार का अर्थ हुआ अहं मनुष्य न अस्मि , अहं ब्रह्मास्मि ! जो अज और अमृत है, उसको मैं - के रूप में ग्रहण करते हैं । आनन्दगिरि-टीका : ग्रन्थ की विषय-वस्तु  का प्रतिपादन अध्यारोप प्रक्रिया और अपवाद प्रक्रिया के द्वारा असंसारी ब्रह्म का प्रतिपादन। विधिमुख  प्रक्रिया - निषेधमुख (नेति -नेति) प्रक्रिया द्वारा ब्रह्म का प्रतिपादन । अस्मद = अहं (प्रत्यगात्मा) , मैं ब्रह्म को नमस्कार कर रहा हूँ। प्रत्यगात्मा की ब्रह्म के साथ अभेद, का स्मरण करना ही ब्रह्म को नमस्कार करना है। माया से ' hipnotized' होकर जीव ब्रह्म के साथ अपने एकत्व को अनादिकाल से भुला हुआ है। विस्मृत ब्रह्मत्व का स्मरण करना ही ब्रह्म को नमस्कार करना है। ब्रह्म के साथ अपने एकत्व का स्मरण ही नमन है। 'तत्त्वमसि ' आत्मा ही ब्रह्म है, या ब्रह्म ही सभी जीवों की अंतरात्मा है। जीव-ब्रह्म एकत्व प्रतिपादित किया जा रहा है। जो ब्रह्म वेदांत में प्रसिद्द हैं, उनके नमस्कार है।]

2.रज्जु सर्प के उदाहरण से अद्वैत को समझना : रस्सी में सर्प कहाँ से आया ? रस्सी ही सर्प के रूप में विवर्त हो रहा है।  वैसे ब्रह्म ही जीव के रूप में उपाधि को लेकर विवर्त हो रहा है। ब्रह्म ही अपनी माया शक्ति से डबल रोल कर रहा है। मायावी ब्रह्म ही हमें सुख-दुःख का अनुभव करवाता है।ब्रह्म में प्रकृति अनादि रूप से कल्पित है, किन्तु शांत है। ब्रह्म अनंत हैं ! समष्टि कारणात्मक प्रकृति हैं , माया शक्ति हैं ! अविद्या और माया,  'प्रकृति' की ही अलग अलग दो अवस्थाएं हैं। अज्ञान त्रिगुणात्मक है। सत्व-रज -तम जब समान अवस्था में हो , वो होता है प्रलय काल।  जब सृष्टि बननी होती है, तब प्रकृति में सबसे पहले क्षोभ होता है। प्रकृति की प्रथम अवस्था अव्यक्त होती है, सत्वगुण प्रधान।  उसे माया कहा जाता है।  पंचीकृत पंचभूत है स्थूल शरीर।  हिरण्यगर्भ से वैश्वानर की उपाधि।

         3. जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीय अवस्था : जाग्रत और स्वप्नावस्था को भोगावस्था कहते हैं।  सुषुप्ति को कारण रूप अवस्था कहते हैं।  सुषुप्ति के समय प्रारब्ध का फल भोगना नहीं पड़ता। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर : अन्तःकरण जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति तीनो अवस्थाओं में रहता है।  प्रारब्ध शांत होने पर स्वप्न में भी अहं अभिमान नहीं रहेगा, वासनाएं भी नहीं रहेंगी। सुषुप्ति में भी मन रहेगा, किन्तु निर्व्यापार मन में अहं वृत्ति रहेगी , नाख़ून ,केस बढ़ते रहेंगे , चेतना नहीं रहेगी। सुषुप्ति = जाग्रत और स्वप्न की उपाधि को आत्मसात कर लेना। ग्लास का पानी इदं है, पी लिया तो अहं हो गया। भेद अविद्या में विलीन हो जाते हैं। प्राज्ञ नामक जीव को दुःख नहीं होता,  अज्ञात ब्रह्म में लीन हो गया।  स्वप्न में इस जन्म के या पूर्वजन्म के संस्कार ही अपने विषयों को दिखाते हैं। सुषुप्ति में जो पहुंचा है उसका नाम आनन्दभूक , मधुरभुक हो जाता है। अवस्था-त्रय वाला भोक्ता जिव कहलाता है। मायया भोजयत -हमें भोक्ता दिखा रहा है, किन्तु ब्रह्म जैसा हम किसी अवस्था के अभिमानी नहीं है, किन्तु भास रहा है। अनादि अनिवर्चनीय शक्ति माया से दिखा रहा है। जैसे आकाश नीला दीखता है। ईश्वर माया उपाधिक ब्रह्म ही हमें दिखा रहा है। अन्तःकरण की वृत्ति भी कल्पित है। अज्ञान निवृत्ति से मन का भी नाश हो जाता है।  केवल तुरीय ब्रह्म रह जाता है। माया से हमें तीनो अवस्था से जोड़े रखता है।तीन से जो परे है -चार संख्या का आश्रय है वो तुरीय है। ये तीन के बिना चतुर्थ की कल्पना नहीं हो सकती। माया-संख्या  से पहले तीन की सत्ता है। ब्रह्म माया से भी परे है। उसमें संख्या-गुण नहीं है। वस्तु में तुरीयत्व नहीं है, वह परम् ब्रह्म है। कल्पित रस्सी के साथ सर्प कोई सम्बन्ध नहीं है। वो अद्वितीय है।  तुरीयत्व भी कल्पित है। वस्तुतः वो चतुर्थ नहीं है, वैसा माना जाता है।
         4. श्रवण, मनन और निदिध्यासन का फल क्या है : प्रज्ञान = प्रकृष्ट ज्ञान , जो आनन्द उत्पन्न भी न हो;  नष्ट भी न हो वही है -प्रज्ञान। चौरासी लाख प्रकार के शरीर में अन्तःकरण है, अतः सभी में चैतन्य का प्रकाश है। हिरण्यगर्भ के शरीर  से लेकर अमीबा तक में व्याप्त होना ब्रह्म का स्वभाव है। वेदांत प्रसिद्द ब्रह्म के दो और विशेषण - वे अज हैं और अमृत हैं। अर्थात ब्रह्म अनादि और अनन्त हैं ! इनका कोई माँ- बाप नहीं है , इसीलिए अज हैं।  जीव की बुद्धि में अविद्या , काम (इच्छाएं) और कर्म रहते हैं।  शास्त्र निसिद्ध को पाप, कर्म , अपूर्व, अज्ञानी जीव बुद्धि को ही अपना स्वरुप समझता है। स्थूल -शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का संयोग, जन्म है। स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का हमेशा के लिए वियोग है मृत्यु। ब्रह्म में अविद्या , काम और कर्म तीनो नहीं होते हैं। कर्म का प्रारब्ध भोगने के लिए यह जन्म मिला है। विषय , अधिकारी, वेदांत का प्रयोजन और सम्बन्ध -अनुबंध चतुष्टय। जन्म-मृत्यु की निरंतरता को समाप्त करना - इस संसार का ब्रह्म में स्वतः अभाव है। जीव भी ब्रह्म से भिन्न नहीं है।  जल स्वभावतः शीतल है, अग्नि के संसर्ग से उसमें उष्णता आ गयी।  वैसे ही जीव भी अविद्या से तादात्म्य करके अपने को नश्वर शरीर समझता रहता है। स्थविष्ठ = स्थूलतम इन्द्रियग्राह्य बाह्य विषयों का भोग करते करते थक कर सो जाता है। किन्तु स्वप्नावस्था में भी प्रारब्ध मन को सोने नहीं देता। धिषणा - वासनायुक्त बुद्धि से उद्भासित पदार्थों का निमत्त है काम। अविवेक पूर्ण बुद्धि -श्रवण मनन निदिध्यासन नहीं करती। याज्ञवल्क्य ने बताया आत्मावारे द्रष्टव्यं - कर लो , श्रवण, मनन और निदिध्यासन करो तो हे मैत्रेयि तुम भी आत्मसाक्षतकार कर लोगी।  यही वेदांत का प्रयोजन या फल है। 
          5. जीवत्व का अनुभव या भेंड़त्व के अनुभव का कारण क्या है : यदि अद्वितीय होने से ब्रह्म स्वतः असंसारी हैं। तब तीनो अवस्थाएं और उसके भोक्ता का अनुभव कैसे हो रहा है ? ब्रह्म को अद्वितीय मानने पर  ईश्वर और संसार की उपलब्धि भी नहीं होनी चाहिए थी। पारमार्थिक अवस्था है विद्यावस्था।  व्यावहारिक अवस्था , अविद्या अवस्था या अज्ञान अवस्था।  रस्सी है अधिष्ठान प्रकाश में सर्प का भास नहीं होता। आत्मसाक्षात्कार नहीं होने तक ब्रह्म में तीनो अवस्थाएं माने जीव, जगत और ईश्वर भी कल्पित है।
          6.****(ध्यान दें) वेदान्त को पढ़ने का अधिकारी कौन है : ब्रह्म में और जीव में भी अविद्या , काम्यकर्म आदि नहीं है, किन्तु अविद्या काम्यकर्म की आश्रयभूता बुद्धि के साथ तादात्म्य कर लेता है।  और यह अविद्या ही संसार की बीज है,  बीज रहने से अंकुरित होकर संसार भोग करना पड़ता है। कारण है तो कार्य भी रहेगा। बुद्धि का जन्म-मरण ही संसार है। बुद्धि के साथ तादात्म्य करना , जैसे शीतल जल अग्नि से तादात्म्य करके उबलता हुआ पानी बन जाता है। जीव बुद्धि के धर्म को अपना धर्म समझकर संसारी बन जाता है। जीव में आरोपित संसार की निवृत्ति वेदांत का प्रयोजन है। संसार की समूल निवृत्ति का नाम है 'मोक्ष ' (De-Hypnotized) हो जाना।  जो इसको चाहता है, या वि-सम्मोहित होना -  चाहता है , उसको कहा जाता है 'मुमुक्षु'।  वो हो जायेगा इस ग्रन्थ को पढ़ने का 'अधिकारी'। जो संसार का कुछ भी नहीं चाहता, जिसको केवल मोक्ष की अभिलाषा है  वही मनुष्य माण्डूक्य उपनिषद (या वेदान्त शास्त्र) को  पढ़ने का अधिकारी है ?  अध्यारोप प्रक्रिया के माध्यम से अद्वैत निरूपण किया जा रहा है।
         7. प्रत्यक्ष में तो द्वैत दीखता है, तो द्वैत को प्रमाण मानें या वेदांत के अद्वैत को प्रमाण मानें अनुभव प्रमाण बता रहा है जीव, जगत और ईश्वर तीनों हैं, तो क्या सुख -दुःख भोगवाने वाला ईश्वर है ? श्रुति प्रमाण कहती केवल ब्रह्म ही हैं। किसी को सुख हो रहा है, तो किसी को दुःख क्यों हो रहा है ?  इस विरोधाभास की शंका को मिटाने के लिए अध्यारोप प्रक्रिया से समझया जा रहा है।  प्रत्यक्ष द्वैत को प्रमाण मानें या वेदांत के अद्वैत को प्रमाण मानें ? जीव-जगत और ईश्वर का यथार्थ प्रमाण क्या है ? पारमार्थिक प्रमाण और व्यावहारिक प्रमाण। पारमार्थिक अद्वितीय है ब्रह्म।  द्वैत व्यावहारिक प्रमाण है , अद्वैत पारमार्थिक प्रमाण है। एकमत =संवाद, प्रत्यक्ष और वेदांती सहमति है ।  विवाद = विरोध नहीं है। जीव-जगत -ईश्वर के द्वैत को अध्यारोपित यानि कल्पित कहा जाता है। रस्सी का ज्ञान होते ही सर्प  का बाध  हो जाता है। सीप में जो चाँदी का भ्रम होता है, इसको बाधित करने के लिए ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता है। जीव-जगत और ईश्वर का ज्ञान व्यावहारिक सत्ता वाला है, आत्मसाक्षात्कार होने से व्यावहारिक प्रमाण का बाध हो जाता है। आत्मज्ञान , अद्वैतबोध जब होता है , तब व्यावहारिक प्रमाण भी अप्रमाण हो जाते हैं। सुषुप्ति में कोई गुरु -शिष्य नहीं रहता है।
       8. प्रकृष्ट और निकृष्ट ज्ञान में अंतर क्या है : प्रकृष्ट ज्ञान = जो उत्पत्ति आदि विकारों से रहित है  और निकृष्ट ज्ञान = विकारी ज्ञान जो उत्पन्न होगा और नष्ट होगा। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म। जो सत्य और अनन्त  ज्ञान है, उसका ही नाम ब्रह्म है। कूटस्थ यानि निर्विकार।  लोहार की निहाई को कूट कहते हैं। लोहा में विकार होता है, लेकिन निहाई कूटस्थ रहता है। प्रज्ञान ही ब्रह्म है। प्र = जन्मादि रहित , जो चेतन है वो ब्रह्म है।
       9 . जीव चिदाभास है - चेतन जैसा दीखता है : सूर्य प्रतिबिम्ब के जैसा। अंतकरण रूपी जल में ब्रह्म का आभास। विचार करने पर जीव भी जो  अन्तःकरण रूपी जल में बिम्ब है वह ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं। सूर्यास्त के बाद प्रतिबम्ब नहीं दीखता।  सूर्य से अलग अस्तित्व जीव का नहीं है। बिना ब्रह्म के जीव की स्वतंत्र सत्ता होती ही नहीं है।
       10. अनुबंध चतुष्टय :मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में ही वेदान्त का अधिकारी आदि अनुबंध चतुष्टय बताया गया। प्रतिपाद्य विषय है - ' ब्रह्मात्मएकत्व'।  आत्मा का ब्रह्म के साथ अभेद है। जीव बुद्धि के साथ संसर्ग से अविद्या का कार्य जन्म-मरण भासित हो रहा है। अध्यारोप प्रक्रिया से ब्रह्म निरूपण।  पूरे ब्रह्माण्ड में स्थावर -जंगम चौरासी लाख प्रकार के  जीव हैं।
       11. स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का प्रारब्ध प्रतिदिन भोगकर क्षय हो जाता है :  प्रमाता यानि अंतःकरण-विशिष्ट चैतन्य का विषयों के साथ जब सम्बन्ध होगा तो बुद्धि को विषयों का ज्ञान होगा।  विषय ज्ञान से ही सुख या दुःख होता है।  सुख-दुःख के अनुभव का नाम ही भोग है।  सुख०दुख के साक्षात्कार का नाम ही है भोग है।  जिसकी अनुभूति स्वप्न में भी होती है, जाग्रत में भी होती है। बाह्य इन्द्रियों के अनुभव से  घटाकर वृत्ति बनती है। चक्षु आदि इन्द्रियों से ग्राह्य विषय को माना जाता है, स्थूल विषय। जाग्रत अवस्था का सुख-दुःख है  स्थूल सुख-दुःख। जिसे स्थूल भोग कहते हैं,   सूक्ष्म-विषय ग्रहण योग्यता चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों में नहीं है।   सूक्ष्मभूत है अ-पंचीकृत 'पंचभूत। ' शब्द आदि का ग्रहण  सूक्ष्म अन्तःकरण द्वारा होता है। स्थूल विषय आदित्य देवता के अनुग्रह से अनुभूत ज्ञान है।  स्वप्नावस्था का सुख-दुःख है सूक्ष्म सुख-दुःख। स्थूल भय सूक्ष्म भय।  मानस पदार्थ से भिन्न  निमित्त बाहर हैं। प्रसंसात्मक शब्द या निंदात्मक शब्द बाह्य विषय का परिणाम हैं जाग्रत अवस्था का स्थूल सुख -दुःख।  जाग्रता अवस्था का प्रारब्ध उसी दिन भोग कर क्षय हो जाता है। उस दिन का प्रारब्ध शांत हो जाने पर वह फिर स्वप्न  से सुषुप्ति में जाकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाता है।
         12. सिंह शावक अपने को भेंड़ क्यों समझने लगता है :    प्रारब्ध ही जीव की बुद्धि को उसके स्वरूप से प्रच्युत करता है। कर्म में आत्मस्वाभिमान कराता है। जाग्रत अवस्था में  बुद्धि तब तक सुखी-दुखी होती रहती है, जबतक उस दिन का प्रारब्ध भोग करके शांत नहीं होती। प्रारब्ध शांत हो जाने पर जीव सो जाता है। निद्रा में जाग्रत का अभाव हो गया। जाग्रत अवस्था ब्रह्म में कल्पित है।  उसका अभिमानी निद्रा में भी रहता है। जाग्रत अवस्था का अभिमानी विश्व निद्रा में नहीं रहा। सुषुप्ति अभिमानी भी तबतक रहता है, जबतक स्वप्न अवस्था में उस दिन फल भोगवाने वाला कोई प्रारब्ध शेष न बचा हो।  स्वप्न में दिखने वाले जितने पदार्थ हैं, उसको देखने की वासना उसमें पहले से है।  [माला धारण की हुई विद्या और अविद्या दोनों देवियों को एक  साथ देखने की वासना ? ]  जाग्रत अवस्था की तरह स्वप्नावस्था भी ब्रह्म में ही कल्पित है। स्वप्न तब होता है, जब जाग्रत का प्रारब्ध समाप्त हो जाता है। धिषणा नाम वाली वासनात्मक बुद्धि ? से स्वप्न के प्रारब्ध का भोग ? काम से जन्मी हुई बुद्धि ? काम शब्द का मुख्यार्थ है इच्छा अविद्या  और कर्म  भी उपलक्षण है निमित्त हैं। स्वप्न अवस्था तभी तक रहता है जबतक कर्म का भोग नहीं होता। स्वप्न अवस्था भी जाग्रत की तरह ब्रह्म में कल्पित है।
         13.स्वप्न और जाग्रत का अनुभव अलग अलग किये हुए कर्मों का फल है :अवस्था  द्वय = जाग्रत और स्वप्न अवस्था ब्रह्म में कल्पित है। सुषुप्ति में जाग्रत के स्थूल विषय और स्वप्न के सूक्ष्म विषयों का अभाव हो जाता है। ज्ञात स्व-स्वरूप और अज्ञात स्व-स्वरूप।  नदियां जब सागर से मिल जाती हैं, तब सागर से अलग नहीं दिखतीं। गंगा नर्मदा की अलग पहचान नहीं रहती।  जाग्रत-स्वप्न के सारे भेद सुषुप्ति में स्वरुपभूत हो जाते हैं। कारण ब्रह्म में एकीभूत होकर रहती हैं। विश्व और तैजस भी सुषुप्ति में हैं, लेकिन कारण रूप से सागर रूप से  अवस्थित हैं। मूर्छित अवस्था में पहुँचने से पहले यदि दुखी अवस्था में था तो कोमा में भी दुखी अवस्था में रहता है। यदि कोई आनंद से मूर्छित हो गया तो उसमें वैसी ही वृत्ति रहेगी। सुषुप्ति में आनंद की प्रधानता रहती है - इसको मधुरभुक कहा है।  चौरासी लाख योनि में सुषुप्ति का सुख एक जैसा है। स्वप्न और जाग्रत का अनुभव अलग अलग कर्म फल है।
[Mandukya Upanishad 0.1 (in Hindi)| Swami Vishwatmananda| sadhana sadan ashram haridwar Topic: Bhadram and Shankaram Chanting.47 videos , 36 published ! मेरा प्रश्न ४७-३४ =१३ विडिओ अप्रकाशित क्यों हैं ?]
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