सोमवार, 28 मई 2012

' नाव को लंगर से बांध कर चप्पू चलाना ' [55] परिप्रश्नेन

55. प्रश्न : हमलोग ठाकुर, माँ, स्वामीजी के नजदीक क्यों नहीं जा पा रहे हैं ? या वे लोग स्वयं आगे बढ़ कर अपने चरण-कमलों में हमें स्थान क्यों नहीं देते हैं ?
उत्तर : जिस क्षण किसी व्यक्ति को यह अनुभव होगा कि उसने उनके चरणों में स्थान प्राप्त कर लिया
 है, उसी क्षण उसे प्राप्त हो जायेगा। वे लोग तो अपने चरण को बढ़ा कर के बैठे हुए हैं। यदि हमलोग 
स्वयं उनकी ओर अपने कदम नहीं बढ़ाएं, तो हम उनके उपर यह आरोप नहीं लगा सकते कि - उन्होंने मुझे अपने पाद-पद्मों में स्थान नहीं दिया ? क्या हमलोग उनके पादपद्मों में स्थान प्राप्त करने की प्रतीक्षा में आस लगाये बैठे हैं ? यदि हाँ, तो हमलोग आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं ?
संसार के अन्य प्रलुब्ध कर देने वाली वस्तुओं, मनोहर वस्तुओं, चित्ताकर्षक वस्तुओं के प्रति हमलोगों में जो आकर्षण बना हुआ है, उस आसक्ति को कम करने में सक्षम होने से हम उनकी ओर अग्रसर होने लगेंगे। अपने पैरों की जंजीर हमलोग स्वयं ही खोल सकते हैं।
 इसे ऐसे समझें कि हमलोगों ने नाव को लंगर से बांधे रखा है, और चप्पू चला रहे हैं, और हैरान होकर कह 
रहे हैं, नदी में मेरी नौका आगे क्यों नहीं बढ़ रही है ? दूसरे किनारे की ओर आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं? जबकि नदी के दूसरे तट (त्याग के तट ) पर बैठे हुए ठाकुर, माँ, स्वामीजी कह रहे हैं- तुमलोगों को  हम कितना प्यार करते हैं, मेरी ओर आते क्यों नहीं ? 
किन्तु हमलोगों  ने तो भोग वाले किनारे से अपने लंगर को बांध रखा है, इसीलिए लंगर खोले बिना नदी के दूसरे किनारे (त्याग वाले किनारे) पर पहुँच पाना इतना कठिन लग रहा है। यदि हमलोग स्वयं ही आत्मप्रवंचना करें, स्वयं को ही धोखा देने की चेष्टा करें, भाव के घर में चोरी करते रहें, तो उनलोगों के उपर आरोप लगाना क्या ठीक होगा? भाव के घर में चोरी तो नहीं कर रहे ?
" परिप्रश्नेन - अद्भुत प्रश्नों के अद्भुत उत्तर "        
    

श्रीरामकृष्ण अवतार-वरिष्ठ हैं ! [54]परिप्रश्नेन

54. प्रश्न : स्वामीजी की जीवनी में पढ़ा हूँ, ठाकुर कह रहे हैं-" अभी तक तुम्हें संदेह है ? जो राम, जो कृष्ण वही वर्तमान समय में रामकृष्ण हैं,  किन्तु तुम्हारे वेदांत की दृष्टि से नहीं। " - इस कथन का मर्म क्या है?
उत्तर : संक्षेप में कहने से हमलोग राम, कृष्ण आदि को भगवान का अवतार मानते हैं। ' तुम्हे अभी तक 
संदेह है ? ' का अर्थ है - उनके गुरु ' ठाकुर ' भी अवतार हैं, इस विषय में स्वामीजी के मन में अंतिम समय तक, संदेह रह गया है, उसे स्वामीजी अपने मुख से बोल नहीं रहे हैं,  किन्तु ठाकुर अपनी बोध-शक्ति से अनुभव कर लिए हैं। उनकी उसी शंका के विषय में अपनी बोध-शक्ति के द्वारा जानकर पूछते हैं-  'तुम्हें अभी 
तक संदेह है ? '
जो राम हुए थे, जो कृष्ण हुए थे, वे ही अभी एक आधार में रामकृष्ण हुए हैं। वे अभी इस शरीर में हैं-अर्थात
 वे लोग जिस प्रकार अवतार थे, वे भी उसी प्रकार अवतार हैं, ठाकुर अपने ही बारे में बता रहे हैं।
किन्तु इसके साथ थोडा जोड़ दे रहे हैं- ' किन्तु तेरे वेदांत की दृष्टि से नहीं।' क्योंकि वेदांत के मतानुसार 
प्रत्येक  मनुष्य ही ब्रह्म है।  शंकराचार्य के अनुसार वेदांत का संदेश, एक ही श्लोक में सिमटा हुआ है।
" ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः " 
 उसके आधार पर तुम्हारे राम जो हैं, कृष्ण भी वे ही हैं, इतना ही क्यों समस्त अवतार भी वे ही हैं। समस्त 
मनुष्य भी वे ही हैं। अवतार का अर्थ है- भगवान मनुष्य का रूप धारण कर स्वयं अवतार लिए हैं। नर रूप
 धारण करके अवतरित हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य भगवान का ही रूप है इसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु मनुष्य में वे भगवान या ब्रह्म परिपूर्ण रूप से प्रकशित नहीं हैं।
  ठाकुर के कथन ' वेदांत की दृष्टि से नहीं .' का अर्थ है- जिस अर्थ में राम को अवतार कहा जाता है, कृष्ण को
 अवतार कहा जाता है, जिस अर्थ में अवतार को अवतार कहकर स्वीकृत किया जाता है, उसी अर्थ में किसी 
मंगरा-बुधना-शुक्रा को भी अवतार नहीं कहा जाता,- वे उसी अर्थ में अवतार हैं ! वेदांत के मतानुसार जो कहा 
गया कि सबों के भीतर ब्रह्म हैं- उस अर्थ में नहीं।जिस अर्थ में श्रीराम और श्रीकृष्ण को अवतार कहा जाता है, श्रीरामकृष्ण भी उसी अर्थ में अवतार है।
सच्चिदानन्द का घनीभूत समुद्र क्या धरती पर अवतरित हो सकता है? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण को अवतार-वरिष्ठ कहा है।

' पढाई के साथ साथ चरित्र-गठन भी आवश्यक है '[52,53] परिप्रश्नेन

52.प्रश्न : व्यक्ति यदि समाज में नहीं  रहे, तो क्या उसका सामग्रिक विकास हो सकता है? 
ऊतर : यह एक काल्पनिक प्रश्न है। मनुष्य तो सामान्य रूप से समाज में ही वास करेगा, और कहाँ रहेगा ?
 समाज के बाहर तो वास करना संभव नहीं है। समाज के बाहर वास करने से भी किसी व्यक्ति  की उन्नति हो
 सकती है, किन्तु उसकी उन्नति तब तक परीक्षित नहीं हो सकती जब तक उस व्यक्ति का  जीवन परिवार 
या समाज के संस्पर्श में नहीं आता। इसीलिए, जो लोग समाज से कट कर, दूर बैठे नहीं रह सकते हैं, उनके  लिए स्वामीजी ने भी एक नये प्रकार का सन्यासी-संप्रदाय गठित किया था।
आशा है प्रश्न स्पष्ट हो रहा होगा। मैं घर-परिवार-समाज से कट कर जंगल में अकेले रहकर अच्छा बन 
गया। किन्तु मैं सचमुच अच्छा बन सका हूँ या नहीं,  उसको प्रमाणित कौन करेगा ? 
जब तक हम समाज के संस्पर्श में नहीं आते, तब तक ' मैं अच्छा हूँ '  उसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता. जंगल के कोने में बैठकर चरित्र पकाने की चीज नहीं है। मेरा चरित्र गठित हो गया है या नहीं, इस सच्चाई को सबसे पहले (मेरी पत्नी या ) मेरे परिवार के निकट सम्बन्धी और समाज के लोग ही प्रमाणित कर सकते हैं। इसलिये समाज से भागकर नहीं, घरगृहस्थी में और समाज में रहकर ही मेरे चरित्र की परीक्षा हो सकती है।  
53. प्रश्न : इस सुविधावादी युग में जहाँ सभी लोग अपने अपने सूरक्षित भविष्य का प्रबंध करने में व्यस्त हैं,
 ऐसे समय में भी कुछ युवक महामंडलके भाव एवं आदर्श के अनुसार अपना जीवन गठित करने की चेष्टा 
कर रहे हैं।किन्तु ये युवा अधिकांश क्षेत्रों में एवं अपने परिवार में भी उपहास के पात्र बन जाते हैं। मन के 
दुर्बलतम क्षणों में समाज और परिवार की यह मानसिकता उनके उपर भी अपना प्रभाव डालती है। क्या इस प्रभाव को दूर हटाकर महामंडल के भाव और आदर्श के अनुसार सुंदर जीवन-गठन की अनुप्रेरणा 
दी जा सकती है ? 
उत्तर : इस भोग-वादी युग में सभी लोग जहाँ अपने भविष्य को अधिक से अधिक सुरक्षित कर लेने के दौड़ में
 व्यस्त हो रहे हैं- वे लोग नहीं जानते कि भविष्य है क्या चीज ? जिसको वे अपना भविष्य समझ रहे हैं, वास्तव में वह भविष्य नहीं है, वह एक विराट शून्य है- भविष्य का छिलका है। वास्तव में भविष्य तो 
महामंडल के लड़के ही बना रहे हैं। भविष्य का छिलका  वे लोग ले रहे हैं, और भविष्य का रस तुमलोग ले रहे हो। इसीलिए सच्चा भविष्य तो तुम्हीं लोग बना रहे हो।
इस  भोग-वादी युग में जिसको वे लोग भोग समझ कर भोग रहे हैं, वह वास्तव में भोग नहीं रहे हैं। भोगों ने ही उनको भोग लिया है। वे लोग भ्रम वश असुविधा को ही सुविधा समझ रहे हैं। वे लोग जिसको  अपना 
मुस्तकबिल या भविष्य समझ रहे हैं,वह एक महा शून्य है, एक खोखला भविष्य। जो लोग अपनेजीवन
 गठन की चेष्टा कर रहे हैं, वे अभी थोड़े उपहासास्पद हो सकते हैं, किन्तु जो लोग उपहास कर रहे हैं, वे 
बिलकुल ही मूर्ख हैं। वास्तव में वे मंदबुद्धि या बगलोल किस्म के लोग हैं, किन्तु अपने को बहुत चतुर समझते हैं। वास्तव में जो अपना चरित्र नहीं गढ़ता वह नितांत मूर्ख हैं।
 इसीलिए उनके उपहास करने से हमलोग के कदम क्यों डगमगाने चाहिए ?  उनके उपर 'अपना प्रभाव विस्तार
 कर रहा है ' अर्थात प्रभाव विस्तार करने की चेष्टा कर रहा है। किन्तु हमलोग यदि सतर्क रहें, जो सत्य है, जिसको सुन रहे हैं, उसपर चर्चा करके यदि ठीक ठीक समझ सकें तो इसका प्रभाव हमलोगों पर नहीं पड़ेगा। हमलोग यदि मन की दृढ़ता, विवेक-विचार,इन सबको जाग्रत नहीं रख सकें, तभी प्रभावित होंगे।और 
प्रभावित करने की चेष्टा कोई करेगा, और हमलोग प्रभावित हो ही जायेंगे, यह कोई बात है? 
कोई कारण नहीं है, जो हमें प्रभावित कर सके,  दूसरा प्रभावित करने की चेष्टा करेगा, किन्तु मैं प्रभावित नहीं
 होऊंगा।मेरा संकल्प यदि अटल है, मेरा औचित्य बोध और विवेक बिलकुल स्पष्ट हो, जिसको सत्य के रूप में
 जाना है, उसको यदि भलीभांति समझ लिया जाय तो मैं प्रभावित नहीं होऊंगा। पढाई करने या कैरियर बनाने के साथ साथ ही जो चरित्र-गठन की चेष्टा नहीं करते वे नासमझ है।
इसके लिए अनुप्रेरणा कैसे प्राप्त हो सकती है ?महामंडल के शिविरों में भाग लो, पाठ-चक्र में नियमित रूप से 
जाओ। तब तुम्हारा मन कभी अवसाद ग्रस्त नहीं होगा।  मन जब दुर्बल होता है,तभी ये सब प्रभावित कर 
सकते हैं।सामान्यतः शरीर में एक रोग-प्रतिरोधक क्षमता होती है, जो रोग फ़ैलाने वाले जीवाणुओं से युद्ध 
करके उसको परास्त कर देने की शक्ति रखती है। यदि हमारा शरीर दुर्बल हो जाये, रोग-प्रतिरोधी जीवाणु 
यदि कमजोर हो जाएँ, तभी रोग बाहर दिखाई पड़ेगा। हजारों रोगों के जीवाणु हमलोगों के शरीर में हर समय 
रहते हैं। किन्तु हर समय रोग से हमलोग आक्रांत तो नहीं होते ? क्यों ? 
 हमारा शरीर स्वस्थ और सबल है,इसीलिए वह रोग के जीवाणुओं के साथ युद्ध करता जा रहा है। इसीलिए यदि हमलोग अपने मन को दुर्बल नहीं होने दें, तो यह जो आरोप हम  पर मढने की  कोशिश मूर्ख लोगो के द्वारा की जा रही है, उससे हमारे उपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा।

रामबाण औषधि है - 'चरित्र-निर्माण ' ! [51]परिप्रश्नेन

51. प्रश्न  :कृपा करके यह बताने का कष्ट करें, कि महामंडल के आदर्श से अनुप्राणित होने पर क्या आर्थिक  
समस्या का समाधान भी हो सकता है ?
उत्तर : आर्थिक समस्याओँ का मूल कारण है, समाज में चरित्र का आभाव। हमलोगों में मनुष्यत्व का आभाव। हमलोग भोगपारायण हैं, इसीलिए व्यक्तिगत सुख-भोग के लिए हमलोगों में झुकाव अधिक होता है। अर्थ उपार्जन के क्षेत्र में हमलोग अन्यायपूर्वक दूसरों का शोषण करके, अर्थ संग्रह करते हैं, इसीलिए  बहुत से लोग वंचित रह जाते हैं। वे लोग आर्थिक कष्ट में रहते हैं, एवं जैसा चल रहा है, उससे तो देश की आर्थिक  समस्या का समाधान होना मुश्किल ही दिखाई देता है। इसके पीछे और भी बहुत से कारण हैं। किन्तु मूल कारण समझ कर यदि हमलोग चरित्र गठन के व्रती बन जाएँ एवं देश के अधिकांश मनुष्य यदि 
चरित्रवान हों,  हृदयवान हों, मनुष्यत्व अर्जन करें,तो जिस अर्थनैतिक समस्या से आज भारत के करोड़ो करोड़
 मनुष्य दुःख भोग रहे हैं, उनका दुःख कम हो जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसीलिए अर्थनैतिक समस्या के समाधान के लिए कोई अलग से योजना या कार्य हमलोग नहीं चलाते, चलाना उचित भी नहीं है, और 
कारगर भी नहीं होगा।  65 वर्षों में स्वाधीन भारतवर्ष के उत्कृष्ट  मस्तिष्क वाले बहुत सोच-विचार करके भी कुछ कर नहीं सके। विदेशी ऋण के बोझ से भारत दब गया है।
केन्द्रीय सरकार अब यह समझ गयी है कि योजना आयोग अपना कार्य ठीकसे नहीं कर रहा है। सरकार को जैसे सुझाव देने से, योजना बनाने से सचमुच भारतवर्ष की उन्नति हो सकती थी, वह नहीं हो सकी है। अब 65 वर्ष बीत जाने के बाद यह समझ में आने लगा है कि 65 बर्षों से यह कार्य गलत दिशा में जा रहा था। इसीलिए 
इससे कोई लाभ नहीं होगा। भारत की समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है - 'चरित्र-निर्माण ' !
 व्यक्ति-चरित्र का निर्माण प्राथमिक आवश्यकता है, इसे पूरा किये बिना व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो 
सकता ! केवल सत्ता परिवर्तन से व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकता। पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक, या 
राजनीतिक समस्त प्रकार की व्यवस्था मनुष्यों के चरित्र पर ही निर्भर करती हैं। 
जबतक हृदयवान  मनुष्य, सहानुभूति सम्पन्न मनुष्य, मनुष्यत्व एवं चरित्र के अधिकारी मनुष्य तैयार नहीं होंगे,यथार्थ मनुष्यों का निर्माण जब तक बहुत बड़ी संख्या में नहीं होगा, तबतक चाहे जितनी भी योजना 
बनाई जाये, नये नये प्रोग्राम या कुछ भी कर लिया जाय, किसी भी उपाय से आर्थिक समस्या को दूर नहीं
 किया जा सकेगा। इस बात की गाँठ बांध लेनी चाहिए।
 इसीलिए चरित्र या जीवन-गठन के कार्य में सभी भारत-वासी कमर कस कर लग जाएँ तो,बहुत सी समस्याएं स्वतः ही मिट जायेंगी।स्वामीजी ने यही परामर्श दिया था। किन्तु आज तक हमलोग उनकी बातों को समझ नहीं सके हैं।
 ( भ्रष्टाचार : चरित्र-निर्माण से ही मिटेगा, लोकपाल बिल से नहीं,काला धन ले आने के बाद ? काला धन बनना कैसे रुकेगा ? )

' विवेक-प्रयोग का महत्व '[49,50]परिप्रश्नेन

49.प्रश्न: इस संगठन के प्रत्येक भाई के भीतर महामंडल की भावधारा को कैसे संचारित किया जा सकता है? 
उत्तर : जिस प्रकार कार्य करने को बताया गया है, उसी प्रकार कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। एक पद्धति 
बता दी गयी है। उस पद्धति को सही ढंग से जीवन में उतारने का प्रयास करना होगा। जो लोग इस संगठन को
 संचालित कर रहे हैं, उनको उस पद्धति के बारे में केवल दूसरों को बताना ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रत्येक 
सदस्य को उस पद्धति का प्रयोग अपने उपर करना होगा।
वैसा न करने से उस पद्धति को आत्मसात करना संभव नहीं होगा। आत्मसातीकरण स्वयम ही करना पड़ता है, बाहर से प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता। 
 इसीलिए कर्मियों को वैसा परिवेश बनाना होगा, ताकि सभी सदस्य इस पद्धति का प्रयोग करते रहें। सभी
 महामंडल इकाइयों को यह दायित्व है, कि सबों के लिए ऐसापरिवेश बन जाय जिससे वे अपने जीवन में
 परिवर्तन ला सकें, वैसे परिवेश में जो लोग मन लगाकर प्रयासकरेंगे, उनके भीतर महामंडल के भाव
 संचारित हो जायेंगे। विवेक-प्रयोग का महत्व 
उनको यह समझान पड़ेगा, कि इसकी आवश्यकता क्यों है ? यदि कोई महामण्डल के पांचो काम को जीवन में उतारने की अनिवार्यता को नहीं समझ पायेगा, तो कोई उसको आत्मसात भी नहीं कर पायेगा। पहले प्रत्येक सदस्य को इसकी अनिवार्यता समझनी होगी। इसको ठीक से समझ कर स्वयं चेष्टा करनी होगी। 
50.प्रश्न : महामंडल का कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत है। अपनी सीमा से बहार रहने से भी,भावुक होकर हम किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेते हैं, किन्तु उसमें सफल नहीं हो पाते हैं। या उसको सफल करने के  लिए जितनासमय देने की आवश्यकता होती है,उतना दे नहीं पाते, या देने से जिन दुसरे कार्यों को हमारे लिए करना उचित था, वह नहीं हो पाता है, हमलोग कहाँ गलती कर रहे हैं ?
उत्तर : कार्य बहुत से पड़े हैं, भावुक होकर अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का निर्णय करता हूँ- यही तो त्रुटी है।तुमको अपनी क्षमता का निर्णय तो करना ही पड़ेगा। तुम किस कार्य को कर सकते हो, इसे 
सोच-समझ कर ही किसी कार्य को हाथ में लोगे।जिसे नहीं का सको उसमें हाथ नहीं डालोगे। जिसको निश्चित ही कर सकूँगा, यह विश्वास हो, उसी कार्य को हाथ में लोगे। तथा यह भी देखना होगा कि जिस कार्य को मैं करूँगा उससे मेरा भला तो होगा, किन्तु दूसरों की क्षति न हो इसका ध्यान भी रखना होगा। 
 इस प्रकार से विचार न कर जैसे तैसे कार्य करते रहने को गीता में  तामसिक कर्म कहा गया है। महामंडल की पुस्तक A New Youth Movement में लिखा प्रथम लेख पढना,वहां इस बात को विस्तार से 
समझाया गया है। 
जो कमी है, वह है तामसिक कर्म करने की इच्छा। जिन कार्यों को हम तामसिक इच्छा के द्वारा संचालित 
होकर करेंगे, उसमें तो गड़बड़ी होगी ही। भावावेश में आकर कुछ कहने या करने से उसका फल अच्छा नहीं
 होगा।
विचार करके देखने से जो कार्य अपनी सीमा से बाहर लगता हो, उसे हाथ में मत लेना। जो कार्य तुम्हारी
 शक्ति-सीमा के भीतर हो, उसी में हाथ डालना। वैसा ही कार्य करना जो हमलोगों का भला करेगा, किन्तु दूसरों को उससे कोई हानी नहीं होगी। 
पहले इतना सोच-विचार करना चाहिए। उसके बाद देखना होगा, कि उस कार्य से मेरा भला होने के साथ साथ दूसरों
का भी मंगल होगा। किन्तु जिस कार्य से दूसरों का भला नहीं होता हो, उस कार्य को कभी मत करना। तुम कितना कार्य किये हो, वह बड़ी बात नहीं है, कार्य को कैसे किये हो, किस मनोभाव से किये हो वही  महत्वपूर्ण बात है। कार्य के पीछे जो उद्देश्य है, जिस मानसिकता से कर रहे हो, उसीसे तुमको कार्य का 
वस्तविक लाभ प्राप्त होगा। कितना कार्य कर चुके हो, उससे कोई लाभ नहीं होगा। 
जैसे मानलो कोई व्यक्ति ' इ......तना ' भात खा सकता है, और दूसरा आदमी है जो, उ......तना नहीं खा सकता। किन्तु कितना खा सकते हो, शरीर उस पर निर्भर नहीं करता, निर्भर करता है, कितना पचा सकते हो, उसके उपर। तुम बहुत अधिक खा लो पर वह यदि पचा नहीं सको, तो उससे शरीर को पौष्टिकता नहीं मिलेगी।पेट भी खराब हो सकता है। 
कार्य में भी वैसा ही होता है। जितना कार्य तुम सुंदर ढंग से कर सकते हो, ताकि उससे दूसरों का भी भला हो, या कम से कम दूसरों की हानि तो बिलकुल न हो, उतना ही और वैसा ही कार्य करना। इसीलिए कार्य के पीछे 
तुम्हारा मनोभाव में यदि स्वार्थ न हो, उसके पीछे सभी का कल्याण का मनोभाव हो,या जिसकार्य को करने से मैं अच्छा बनूंगा, पवित्र बनूँगा, चरित्रवान बनूंगा, मेरा हृदय उदार होगा, इसी उद्देश्य से यदि कार्य करो, 
तो वह कार्य छोटा होने से भी अच्छा फल देगा। इसीलिए ज्यादा बड़े बड़े कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म का रहस्य यही है।               

' पुनर्जन्म पर विश्वास रखने से मृत्यु का भय नहीं होता '[47,48]परिप्रश्नेन

47. प्रश्न : कुछ वस्तुएं उपरी तौर से, प्रतीयमानतः आनन्दप्रद  प्रतीत होती हैं, किन्तु वैसी चीजों को भोग करने से बाद में दुःख क्यों होता है ? 
उत्तर : कुछ ही क्यों, अधिकांश सांसारिक वस्तुएं पहले आनंदप्रद ही प्रतीत होती हैं, किन्तु बाद में पता चलता है, कि वे तो दुःखदायी थीं। इसीलिए 
संसार की अधिकांश वस्तुओं को त्याग देने योग्य वस्तु कहा जाता है। जो 
वस्तुएं पहले पहल उतनी आनन्दप्रद प्रतीत नहीं होती, बाद में उन्हीं में से अनेक वस्तुएं सच्चा सुख देती हैं। किन्तु हमारा मन आमतौर पर उन्हीं 
सांसारिक वस्तुओं की ओर अधिक आकर्षित होता है, जो उपरी तौर से सुख-भोग प्रदान करने वाले साधन दिखाई पड़ते हैं। हमारा मन इन्द्रिय सुखभोग के वस्तुओं की ओर  आकर्षित होते होते हमें भोग-परायण बना देता है, इसीलिए हमलोगों को जीवन में दुःख ही अधिक भोगना पड़ता है। 
तुमने पूछा है, वैसी चीजों (जो देखने में आपातमधुर प्रतीत होती हैं ) से 
दुःख होता ही क्यों है? इस क्यों का उत्तर है- ' माया नटी ' ही यह कर रही है ! माया ने जगत में भ्रम की उपत्ति कर रखी है, मोह- निद्रा में 
हमलोगों को अचेत बना दिया है, इसीलिए हमलोग आपातमधुर वस्तुओं 
की ओर बरबस आकृष्ट हो जाते हैं, और अंत में दुःख पाते हैं।
[ श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं- "Remember that dayA, compassion, and mAyA, attachment,are two different things. Attachment means the feeling of 'my-ness' towards one's relatives.  

Compassion is the love one feels for all beings of the world.It is an attitude of equality. MAyA also comes from God.
 Through mAyA, God makes one serve one's relatives.But one thing should be remembered: 

mAyA keeps us in ignorance and entangles us in the world, whereas dayA makes our hearts pure and gradually unties our bonds." ]
  इसीलिए हमें पहले अपने चरित्र में धैर्य के गुण को अपना कर, अपने मन को विवेकी बनाने का अभ्यास करना होगा। जो धीर (बुद्धिमान या सोच-विचार कर कार्य करने वाले ) विवेकवान हैं- वे पहले अपने
विवेक प्रयोग करके अपने औचित्य-बोध से देख लेते हैं, कि किस वस्तु से परिणाम में क्या मिलने वाला 
है?अंत में आनंद मिलेगा या दुःख मिलेगा ? इसी ' विवेक-प्रयोग ' की शक्ति को प्राप्त कर लेना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा  कर्तव्य है।
 यह प्राप्त कर लेने से उपरी तौर से मधुर लगने वाली वस्तुओं को दूर से ही पहचान कर, यदि उनको ग्रहण करने का प्रयास ही नहीं किया जाय, दूर से ही विष के समान जान कर उन्हें देखते ही त्याग दिया जाय तो बाद में दुःख पाने की सम्भावना नहीं रहेगी। 
विवेक-प्रयोग से ही ' माया-नटी ' भागती है।
48. प्रश्न: पुनर्जन्म में विश्वास करने के बाद भी, हममें से अधिकांश लोगों को  मृत्यु से भय क्यों  होता है ?         उत्तर : पुनर्जन्म में विश्वास करने - का तात्पर्य क्या है ? इस बात पर भरोसा नहीं है, इसीलिए कहते हैं, 
हम विश्वास करते हैं। बुढ़ापा आएगा, रोग आयेगा, उसके बाद मृत्यु आएगी। उससे भी छुटकारा नहीं होगा, 
फिर से जन्म लेना होगा। इसी पुनर्जन्म के भय को हर समय सिर पर लेकर घूमते रहते हैं। पुनर्जन्म में 
विश्वास करते हों, वैसी बात नहीं है।
मैं जन्म लूँगा, या मर जाऊंगा उसमे क्या रखा है ? मैं यह शरीर नहीं आत्मा हूँ - ऐसा विश्वास बहुत कम 
लोगों में रहता है। यह विश्वास जिसमें है,उसको मृत्यु का भय नहीं होता है। गीता में जिस प्रकार 
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं- कि तुम्हारे और मेरे इसके पहले भी कई जन्म हो चुके हैं, तुम्हें वह सब याद नहीं है, किन्तु मुझे वे सब जन्म याद हैं। फिर तुम भय क्यों करते हो ? यदि मरना निश्चित ही है, तो वीर की तरह मरो। और यदि जीवित रहना है, तो सम्मान से जीओ !
 यदि हमलोग सचमुच पुनर्जन्म में विश्वासी हों,तो हमलोग बिलकुल भिन्न श्रेणी के मनुष्य होंगे।हमलोग पुनर्जन्म मानते हों या नहीं, किन्तु 
यह तो सभी लोग जानते हैं कि जन्म लेने से एक दिन मरना भी होगा- यह जानते हैं, इसीलिए तो भय होता है। पुनर्जन्म की बात को छोड़ दें, और एक बार जन्म  लूँगा,  यह तो बाद की बात है।किन्तु अभी हमलोग हर
 समय इसी बात से चिंताग्रस्त हैं कि, जब जन्म लिया हूँ तो क्या सचमुच मुझे भी एक दिन यह सब धन-दौलत, स्त्री-पुत्र आदि छोड़ कर यहाँ से चला जाना पड़ेगा ?

 हाँ, यह और बात है, कि बीच बीच में इस बात को हमलोग भूल जाते हैं। मृत्यु को भूल जाने के कारण ही हमलोग यह सोचते रहते हैं कि चाहे जैसे भी हो, गलत-सही जिस उपाय से भी हो, रुपया-पैसा का ढेर खड़ा कर लिया जाये। जब धन-दौलत बहुत होगा, तभी तो छप्पन-भोग खाने को मिलेगा, खूब खाऊंगा, खूब भोग करूँगा जीवन के मजे लूट पाउँगा,यह होने से सबकुछ मिल जायेगा। ऐसा कब सोचता हूँ ?  जब यह भूल जाता हूँ  कि 
जन्म लेने से ही मरना पड़ता है।
इसी जीवन में अभयता प्राप्त की जा सकती है।  हमलोग आनन्द के साथ घोषणा कर सकते हैं, कि एक दिन यदि मर भी जाऊँगा - तो उसमें भय की
 क्या बात है !  यह कैसे हो सकता है ?जब हमलोग यह जान जायेंगे कि आखिर इस जगत में जीवन धारण करने का लक्ष्य क्या है ? समस्त जीवन-क्रम का तात्पर्य क्या है, इसका  वास्तविक उद्देश्य क्या है-
इसे समझ लेने से यह संभव हो सकता है। " मैं यह जानता हूँ कि
मैं शरीर-मन का जड़ पिंड नहीं, अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हूँ ! " यह विचार मन में दृढ़ता से बैठ जाये, तो मौत के भय को भी जीता जा सकता है।
 डार्विन के  क्रम-विकासवाद  को  यदि  भारतीय  आधयात्म के दृष्टि  से समझने  की चेष्टा करें  तो  उसमें  वर्णित जीवन-क्रम के उद्देश्य  की  व्याख्या  क्या होगी ? 
 
यही, कि मनुष्य क्रमशः उन्नत हो रहा है, उसका विकास क्रमशः होना ही संभव है, (क्योंकि सामान्य मनुष्य  भूलें करके ही सीखता है।) और इस प्रकार वह क्रमशः महान बनता जा रहा है, वह क्रमशः उत्कृष्टतर बनता जा रहा है। एवं यह क्रमविकास, या क्रमोन्नति एक ही जन्म में संभव नहीं होती  है। किन्तु इसमें डरने का कोई कारण नहीं है।{ महामंडल पुस्तिका " विवेकानन्द-दर्शनम " में कहा गया है - 


" After all, this world is a series of  pictures. this colourful conglomeration expresses one idea only. Man is marching  towards perfection ! 
That is 'the great interest running through.We are all watching the making of men, and that alone. "

-अर्थात यह जगत सतत परिवर्तनशील चित्रों की एक श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा केवल एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-' भ्रम और भूलों को त्यागता हुआ  ' मनुष्य ' क्रमशः' पूर्णता ' की ओर अग्रसर हो रहा है !' इस ' जगत और जीवन ' के चित्रों में यही महान-भाव 
छिपा हुआ है, हमलोग इसके माध्यम से केवल मनुष्य निर्माण होता हुआ 
देख रहे हैं। "

गीता (2/16) : स्वयं को मात्र एक ' शरीर-मन बद्ध जीव ' - मान कर, हमलोग जिसे जाग्रत अवस्था समझते हैं, वह ' तुरीय ज्ञान ' की अपेक्षा 
एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब हम ' सच्चिदानन्द ' से साक्षात्कार की 
अवस्था में ' ऐक्य ' की अनुभूति करते हैं, तब यह ठोस दिखने वाला संसार ' सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी ' सब कुछ असत ही प्रमाणित होता है। 
इसीलिए तो स्वामीजी कहते हैं- " हे सखे ! तुम रो क्यों रहे हो ? सब शक्ति तुम्हीं में है। हे भगवन ! अपना ऐश्वर्यमय स्वरुप विकसित करो। ये तीनो लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं प्रभाव तो आत्मा का ही होता है।"" हे नर-नारियों ! उठो ! आत्मा के साथ स्वयं की 
अभिन्नता को जानकर ' सत्य ' में अविचल रहने का साहस करो ! संसार 
को कई सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। "}  
  हमलोगों का पुनर्जन्म होता है, फिर एक जन्म ग्रहण करूँगा। इस जन्म 
में जहाँ तक उन्नत हुआ हूँ, वहां से और भी उत्कृष्ट जीवन गठित कर सकूँगा। इसके बाद वाले जन्म में इससे और अधिक उन्नति कर 
सकूँगा।
 
क्रमशः उन्नति करते करते पूर्णता प्राप्त कर लूँगा। यदि पुनर्जन्मवाद पर पक्का विश्वास हो, तो मृत्यु का भय नहीं रहता है। बल्कि हमारा 
हृदयअनिवार्य रूप से पूर्णता प्राप्त करने के उमंग से सदैव आल्हादित 
रहता है ! विवेक-प्रयोग से ही ' माया-नटी ' भागती है, और मनुष्य क्रमशः पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। 

" नया युग-नया धर्म, नया भगवान-नया वेद ! "[45,46]परिप्रश्नेन

45. प्रश्न : श्रीरामकृष्णजी तो स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे, फिर भी यहाँ विवेकानन्द के उपर ही अधिक जोर क्यों दिया जाता है ? 
उत्तर :   सुनो एक सच्ची घटना कहता हूँ। कोई युवक रामकृष्ण मिशन में भर्ती होने के लिए गया था। उससे प्रश्न किया गया-' क्या तुम इस विषय में कुछ जानते भी हो ? क्या पढ़े हो ? उत्तर में युवक ने कहा, रामकृष्ण-वचनामृत पढ़ लिया हूँ। तब उससे कहा गया, ' नहीं, केवल वचनामृत पढ़ लेने से कोई संत नहीं बन सकता है। तुम स्वामीजी की पुस्तकों को पढो।'  
वह युवक सोचने लगा- 'मैंने वचनामृत पढ़ लिया है, ये कहते हैं, ' वचनामृत पढने से भी संत नहीं बना जा सकता है,स्वामीजी की पुस्तकों को पढना होगा ? ' यह सुनकर उस लड़के के मन में जब बहुत संदेह हुआ, तो प्रश्न करने से वह समझ पाया कि ' वचनामृत ' पढने से तो सीधा ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है,संत बनने की आवश्यकता ही नहीं होती।
स्वामीजी की पुस्तकों को पढने से सन्यास शब्द का सच्चा अर्थ समझ में आता है। दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को न्योछावर करने की विधि सीखी जाती है। और मुक्ति ? ' कथामृत ' पढने से, ठाकुर के उपदेश का अनुशरण करने से, मुक्ति हो जाती है। और कोई साधना करने की आवश्यकता  नहीं होती।  
किन्तु इससे बढकर प्रभु-कृपा और कुछ भी नहीं कि मेरा जीवन जगत के  मनुष्यों के कल्याण के लिए समर्पित हो जाय। यही है स्वामीजी के संदेशों का सार।
हमलोग इतना अधिक  'स्वामीजी -स्वामीजी ' इसी लिए करते  रहते हैं, कि यदि उनके एक-दो संदेशों को भी हम अपने जीवन में उतार सकें,तो हमलोग  हँसते हँसते अपनेजीवन को आसानी से
 दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर कर  देंगे। स्वामीजी ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है- जो अपनी 
मुक्ति की चेष्टा करेगा, वह नरक में जायेगा। दूसरों की मुक्ति की चेष्टा करके नरक में जाना अपनी मुक्ति प्राप्त करने से अधिक श्रेयस्कर है। 
तुम लोग ऐसी बातों को सुन पा रहे हो, जिन लोगों ने स्वामीजी को पढ़ा है वे भी जानते हैं, किन्तु जगत के सामान्य मनुष्यों ने यह सब सुना ही नहीं है, धर्म के इतिहास को उन्होंने सुना ही नहीं है। क्योंकि  स्वामीजी का धर्म प्रचलित या पुराने ढंग का हिन्दू-धर्म नहीं है। प्रचलित धर्मों में बहुत हुआ तो इहलोक
 का भोग या संसार की वस्तुओं को पाने की बातें होती हैं। या परलोक (स्वर्ग-नरक) के भोग की बातें हैं।
 किन्तु यह नया (सनातन) धर्म सचमुच हमारी अन्तस्थ सत्ता (पक्का मैं) को खींच कर  बहार निकाल लाता है। यह धर्म (चरित्र )पशु को मनुष्य में तथा मनुष्य को देवता में परिणत 
कर देता है। अच्छा तुम यह बताओ कि तुम देवता किसे समझते हो ? 
 
 ठाकुर का जीवन,माँ के जीवन को देखो,क्या इनके जीवन से बढ़कर अन्य किसी भी देवता का जीवन हो
 सकता है ? जो अपनी अंतिम निःश्वास तक मनुष्य के कल्याण के लिए लिए हैं। माँ सारदा देवी ठाकुर के सम्बन्ध में कहती थीं- ' वे (ठाकुर) मनुष्यों के कल्याण के लिए अंतिम समय तक मुख से रक्त निकलने पर भी उपदेश दिया करते थे। सचमुच, देवता और किसको कहा जा सकता है ? 
इसका नाम है-धर्म। पशुभाव सम्पूर्ण रूप से चला जायेगा। सभी प्रकार की संकीर्णता सम्पूर्ण रूप से 
दूर हो जाएगी। इसीलिए स्वामीजी कहते हैं-  " नया युग-नया धर्म- नया भगवान-नया वेद ! "   सब कुछ पूरी तरह से नया बना लेने की आवश्यकता है।वर्तमान समाज और देश में परिवर्तन  लाने के लिए, आज  इसी स्वामीजी के जीवन और सन्देश की आवश्यकता है। ऐसा धर्म और कहीं सुने हो ? 
आज भी जो यह नहीं समझेंगे कि " जगत कल्याण "  के लिए, भगवान श्रीरामकृष्ण का ही कार्य स्वामीजी के माध्यम से हो रहा है, जो लोग यह नहीं समझेंगे (कि आज भी स्वामीजी ही ठाकुर के कार्य को करने के लिए हजारो हजार मनुष्यों को प्रेरित करने में लगे हुए हैं;) वे अभागे  मनुष्य हैं।
किन्तु उनकी निंदा न करें,उनको अपशब्द न कहें, उनके लिए संवेदना के दो बूंद आंसू बहाना चाहिए,
उनके लिए प्रार्थना करें क्योंकि ये हतभाग्य हैं, ये नहीं जानते कि जगत का कल्याण कैसे होता है ? किस अनमोल वस्तु को पा कर के भी उससे अनजाने हैं। और जिन लोगों ने उनकी पुकार को सुना है, उस अद्भुत आह्वान को सुना और समझा है, वे अब और चुप  होकर मत बैठे रहो। कम से कम तुम लोग तो काम में लग जाओ। स्वामीजी का काम है- अपने पशुभाव को बिलकुल त्याग कर, अपने जीवन  को गढ़ने में लगजाना. तुम्हारा हृदय पूरी तरह से निर्भीक होना चाहिए,किन्तु उसमें सहानुभूति भी भरी होनी चाहिए। ' वज्र के समान कठोर और फूल जैसा कोमल ' हृदय 'होना चाहिए। यही है आदर्श।यदि तुमलोग ऐसे चरित्र, ऐसे मन के अधिकारी बन सको, तो तुमलोग ही जगत की समस्त समस्याओं का समाधान कर सकोगे, एक नए भारतवर्ष का निर्माण कर सकोगे।
इसीलिए स्वामीजी के जो भी उपदेश तुम सुनते हो, वह सब ठाकुर के ही उपदेश हैं। स्वामीजी ने ऐसा
 कोई शब्द नहीं कहा है, जो उन्हों ने स्वयम ठाकुर से न सिखा हो। 
स्वामीजी के बातों को सुन कर आत्मविकास के कार्य ( मनुष्य बनो 
और बनाओ ) में लगे रहते हुए ही, ठाकुर के उपदेशों को समझने की 
चेष्टा करनी होगी। 
46. प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है, कि शरीर  से  कुछ दुर्बल होने से भी मैं अपनी मन की शक्ति से ही अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़
 सकता हूँ। यह क्या ठीक है? 
उत्तर : हाँ,यह बिलकुल सही है। यदि मन में साहस रखो, बल रखो,
उत्साह रखो, उद्द्य्म रखो, पर तुम्हारा शरीर यदि तुम्हारा शरीर दुर्बल
 भी रह गया हो, तो भी उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि मन का 
बल ही सबसे बड़ा बल है। मन ही देह में भी बल भर देता है। इसीलिए 
यदि तुम्हारे मन में सबलता हो, साहस हो, तो फिर शारीरिक दुर्बलता 
तुम्हारे मनुष्य बनने के पथ में बाधा नहीं होगी।

" ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । " [43,44]परिप्रश्नेन

४३. प्रश्न : श्रीरामकृष्ण के आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द के आदर्श के बीच  क्या कोई अन्तर था ?
उत्तर : नहीं, दोनों का एक ही आदर्श था, उनके आदर्श में थोड़ा भी अंतर नहीं था. स्वामीजी ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव् से ही शिक्षा प्राप्त की थी,तथा उन्हीं के द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर, उन्हीं की भावधारा का प्रचार-प्रसार भी किया था. 
स्वामीजी ने कहा है- ' यदि मन,वचन और कर्म से मैंने यदि कोई भी सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुख कोई ऐसी बात निकली हो, जिससे जगत के किसी व्यक्ति का थोड़ा भी उपकार हुआ हो, तो उसमें मेरा कोई गौरव नहीं है, वह सब उन्हीं का है। ' 
स्वामीजी जो कुछ भी किये हैं, या बोले हैं, वह सब श्रीरामकृष्ण के ही विचार थे, इसी बात को बलपूर्वक समझाने के लिए स्वामीजी को यह बात कहनी पड़ी थी।  दोनों के आदर्श में कोई अंतर नहीं था।
४४. प्रश्न : ' ध्यान ' क्या राजयोग के अन्तर्गत आने वाला कोई विषय है ? 
उत्तर : अष्टांग योग को ही राजयोग भी कहते हैं. इसी का एक अंग है ध्यान. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ध्यान केवल राजयोग का ही सहायक अंग है. ध्यान की क्रिया सभी योगों में सम्मिलित है, अर्थात सभी प्रकार के योग में ध्यान की आवश्यकता होती है. गीता के भक्तियोग (१२/१२ ) में भगवान कहते हैं- 
" ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । "43,44
 - अर्थात मुझ परमेश्वर (ठाकुर ) के स्वरूप को,  या आत्मतत्व को - शास्त्र और तर्क-वितर्क के द्वारा समझने की चेष्टा करने की अपेक्षा -  ध्यानम्, अर्थात ध्यान के द्वारा जानने की चेष्टा करना- विशिष्यते,  श्रेष्ठ है।ज्ञानयोग में इसीको निदिध्यासन कहा जाता है। अर्थात गहरे ध्यान में सर्वदा उसका चिन्तन करते रहना ज्ञान को (अर्थात ठाकुर के सच्चिदानन्द स्वरूप को या आत्मतत्व को ) सर्वदा जाग्रत रखना ही ध्यान है.
  भक्तियोगी देवपूजा करने के समय ध्यान करता है। अर्थात अपने हृदय में ' अष्टदल- रक्त- कमल ' के उपर अपने ' ईष्ट-देव ' को बैठाकर ध्यान-मन्त्र में बताये गये देवता के (नाम) रूप-गुण-लीला- धाम के चिन्तन में मग्न हो जाता है।
राजयोग में ध्यान के उपर कहा गया है, किसी वस्तु की धारणा या ज्ञान को कुछ समय तक,' तैल-धारवत ' अर्थात निर्विच्छिन्न भाव से मन में धारण किये रहना. 
इसीलिए ध्यान का प्रयोग हर योग में हो सकता है।
ज्ञानयोगी इसी ज्ञान को, कि सबकुछ ब्रह्म ही हैं- के निदिध्यासन को ध्यान के रूप में जानते हैं। भक्तियोगी भी अपने ईष्ट-देव का ध्यान करते करते सर्वत्र उसी देवता के दर्शन  का अभिलाषी हो जाता है। और राजयोगी परमात्मा के ध्यान से, समाधि में मग्न होकर आत्मा-परमात्मा के अभिन्नता की अनुभूति के आनन्द को प्राप्त करना चाहते हैं।
कर्मयोगी का भी ध्यान होता है। कर्मयोगी समस्त कर्मों के फल का त्याग करना चाहते हैं. इसीलिए गीता (१२/१२) में " ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । " कहने के तुरन्त बाद में कहते हैं-
"  ध्यानात् कर्मफलत्याग: त्यागात् (विशिष्यते) शान्ति: अनन्तरम् । "
 - अर्थात ध्यान की अपेक्षा कर्मफल में आसक्ति का त्याग: या सब कर्मोके फलका मेरे लिये त्याग करना; (विशिष्यते) = श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्मफल त्यागात् = त्यागसे; अनन्तरम् = तत्काल ही; शान्ति: = परम शान्ति होती है ! कर्मयोगी  अपने समस्त कर्मों को दूसरों के लिए (अर्थात अपने इष्ट-देव के लिए) करताहै।वह दूसरों की सेवा पूजा के भाव से करता है, क्योंकि वह जान चूका है कि परमात्मा या भगवान सर्वत्र हैं, इसी ध्यान या ज्ञान से यथार्थ कर्म हो सकता है।
इसीलिए हम कह सकते हैं, ध्यान में सारे योग मिलकर एकाकार हो जाते हैं। राजयोग से ध्यान की परिभाषा को समझ कर, ज्ञानयोग में उसका प्रयोग करने से यह उपलब्धी होती है कि आत्मा (भगवान ) सर्वत्र हैं।
 

 इस समझ को भक्तियोग में प्रयोग करने से उसे सर्वत्र अपने परमप्रिय देवता (इष्ट देव ) दिखाई देते  हैं, जिस कारण वह (वैष्णव) हर किसी से स्नेह करता है, उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से भरा रहता है। कर्मयोग में प्रयोग करने से वह सर्वत्र पूजा के भाव से सेवा करने के लिए वह अपने हाथों को बढ़ा देता है।
यदि केवल कुछ समय के लिए कोई व्यक्ति अपने मन में ज्ञान को धारण किये रहता हो, कोई भक्त केवल समदर्शन (सर्वत्र भगवान को निहारता रहता हो) या सर्वत्र स्नेह पूर्ण दृष्टि से देखता रहता हो, या कोई केवल सेवा ही करता रहता हो, या इनमें से कोई एक ही भाव की उपलब्धी कर पाता हो, तो वैसे प्रत्येक भाव
 को ' अधुरा 'ही कहना होगा.इन समस्त भावों का संयोजन ही ध्यान का परिणाम है
 यदि ध्यान करने से ऐसा परिणाम नहीं मिला तो, ज्ञान के वृक्ष पर उगा भक्ति का फूल और ध्यान की कली - सब व्यर्थ है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने केवल चार योगों का संकलन ही नहीं किया था, उनका सम्पूर्णत: एकीकरण ( Fusion) किया है। 
ऐसा नहीं है कि थोड़ी देर तक नाक दबा कर बैठ गये तो राजयोग हो गया, थोड़ी देर पूजा कर लिए तो भक्तियोग हो गया, जगत मिथ्या -फिथ्या कहते रहने से ज्ञानयोग हो गया, बाद में कहीं जाकर थोड़ी समाजसेवा कर आये तो कर्मयोग हो गया. ध्यान का सही अर्थ समझ लेने से ध्यान, ' ज्ञान, हाथ, हृदय '
-सब कुछ एक हो जायेगा, सब कुछ एकता के सुर में बंध जायेगा। ध्यान ज्ञान को जाग्रत कर देगा, हृदय के कपाट को खोल देगा,हाथ को प्रसारित एवं सेवा में नियोजित कर देगा।योग-चतुष्टय के प्रदीप को ध्यान एकीकृत कर देता है। 

यहाँ क्या है ' मेरा ' ?[42]परिप्रश्नेन

४२.प्रश्न : दया और माया में क्या अंतर है ? 
उत्तर : ठाकुर ने इस बात को बहुत सुंदर ढंग से समझा दिया है। 
["Remember that dayA, compassion, and mAyA, attachment,are two different things. Attachment means the feeling of 'my-ness' towards one's relatives.

Compassion is the love one feelsfor all beings of the world.It is an attitude of 'same-ness '  (equality). MAyA also comes from God.Through mAyA, God makes one serve one's relatives. 

But one thing should be remembered; mAyA keeps us in ignorance and entangles us in the world, whereas dayA makes our hearts pure and gradually unties our bonds."
 " देखो, दया और माया ये दो पृथक पृथक चीजें हैं। माया का अर्थ है, आत्मीयों के प्रति ममता -जैसे बाप,माँ,भाई,बहन,स्त्री,पुत्र,आदि पर प्रेम।दया का अर्थ है सर्व भूतों के प्रति प्रेम, समदृष्टि।किसी में यदि दया देखो,जैसे विद्यासागर में,तो उसे ईश्वर की दया जानो।दया से सर्वभूतों की सेवा होती है।
माया भी ईश्वर की ही है। माया के द्वारा वे आत्मीयों की सेवा करा लेते हैं। पर इसमें एक बात ध्यान देने की है- माया अज्ञानी बनाकर रखती है और बद्ध बनाती है। परन्तु दया से चित्तशुद्धि होती है, और क्रमशः बन्धनों से मुक्त कर देती है।" ॐ तत सत ]
केवल उसी से प्रेम करना- जो मेरा है, या अपना कोई ये लगता है, या वो लगता है, इसी कारण से  उनके कल्याण के लिए कुछ करने को -माया कहते हैं। एवं सबों से प्रेम करने, अपने-पराये का भेद किये बिना सबों के कल्याण के लिए कुछ करने को दया कहते हैं। ठाकुर ने बहुत सरल उदहारण से इसे समझा दिया है।
 हमलोग कहते हैं- ' माया में आसक्त जीव '. या माया को अच्छे भाव में भी प्रयोग करते हैं। ऐसा भी कहते हैं- ' आहा, उस व्यक्ति में कितना माया(स्नेह) है '. यह अच्छे अर्थ में प्रयोग किया गया. किन्तु जिस 
समय ' माया ' और ' दया ' दोनों शब्दों का अर्थ मन में याद रखते हुए व्यवहार करते हैं, उस समय माया शब्द को बहुत अच्छे अर्थ में प्रयोग नहीं करते हैं।
हमलोग बातचीत के क्रम में कहते रहते हैं- ' यह माया बद्ध जीव है ', या माया से बंधा हुआ व्यक्ति है. इसका अर्थ क्या हुआ ? ' मेरा मेरा ' करते रहना माया है. जैसे ये मेरे पिताजी हैं, ये मेरी पत्नी है, ये मेरे पती हैं, ये मेरा पुत्र है, ये मेरी पुत्री है, यह मेरी गाड़ी है, ये मेरा मकान है- इस तरह से ' मेरा मेरा ' - करते रहने को माया कहते हैं। क्योंकि जगत की वस्तुओं को हमलोग अपना मानकर इन सबके साथ जुड़े रहते हैं, यदि इसमें से कोई एक चीज या व्यक्ति हठात चला जाये- तो बड़ा जोर का धक्का लगता है, और हम चीत्कार कर उठते हैं- ' गया रे चला गया '. इसको माया कहते हैं।
 किन्तु सचमुच ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको ' मेरा ' कहा जा सकता हो. यहाँ क्या है ' मेरा ' ? जिसको मैं अपना समझ रहा हूँ, वह सब एक दिन मेरे हाथों से बाहर निकल जायेगा. मेरे हाथों में कुछ भी न रहेगा. यह बात ध्रुव सत्य है. यह जो सुखों के स्वप्न देख रहा हूँ, बड़े सूख से रहूँगा, कैसा घर बनाऊंगा, कैसा परिवार बसाऊंगा - यही सब सोचते रहना माया बद्ध होना है। यह बहुत बड़ी गल्ती है. इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता है।
किसी व्यक्ति ने ठीक ही कहा था- बंगला में मेरा मेरा को ' आमार आमार ' कहा जाता है, इसीको माया कहते हैं, इसके चंगुल बचने का रास्ता बिल्कुल सीधा है- ' सब आमार ' में से ' आ ' को मिटा दो, तो क्या 
बचेगा ? ' सब मार ' - अर्थात माँ के हैं ! मेरा मकान-दुकान-गाड़ी-स्त्री- पुत्र-पुत्री ' सब मेरे नहीं; मार - माँ के हैं। जन्म-मरण के नियम से बंधे हैं।
यह समझ लेने से हमलोग इस माया के बंधन से बच सकते हैं. पर इसे नहीं समझ सके और जिन्दगी भर ' मैं और मेरा  ' सोचते रह गये, तो क्या होगा ? इसमें कुछ भी हाथों से छूट गया तो, बड़ा भारी दुःख होगा.( ' हम तुमसे जुदा होके - मर जायेंगे, रो रो के ?  ' ) मुझे ऐसा प्रतीत होगा मानो मेरे सीने को चीर कर प्राण ही बाहर निकल गए हों. जबकि वास्तविकता यह है कि उसमें से कुछ निकला नहीं होता. मेरा क्या जा सकता है ? 
मेरे भीतर जो सच्ची वस्तु है, वह इस संसार ही नहीं पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर भी समाप्त नहीं होता, उसको अतिक्रम करके भी अवस्थित रहता है।  
जगत या विश्व-ब्रह्माण्ड कहने से जो समझा जाता है, वह चाहे जितना बड़ा भी क्यों नहो, वास्तव में वह सीमित है-ससीम है। किन्तु इस सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी को ही नहीं पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड के सीमा को पार करके भी मैं हूँ । यह मैं ही - ' पक्का-मैं ' या यथार्थ ' मैं ' है !
जिसको लेकर ' मैं और मेरा ' कह रहा था, वह सब ' कच्चा- मैं ' था, वास्तव में वह सब मरण-धर्मा था.
या ' मार ' यानि - माँ का था. जो पूरे जगत की माँ हैं, जिन्होंने सबकुछ को उत्पन्न किया है, या सृष्ट किया है, उसी के भीतर उसने मुझे भी पैदा किया है, या मेरी भी सृष्टि की है। 
 और उन्होंने ही मुझेसे कई स्थानों पर मकान-फ्लैट्स, गाड़ियाँ , रूपये-पैसे, नाते-रिश्ते - बनावाये हैं और उनके बीच मुझे भी रख दिया है। उसी जगन्माता ने यहाँ मुझे कुछ कर्म भी करने को दिए हैं. यह समझ लेने से- कि सारा जगत ' मार ' यानि माँ का है, मेरा नहीं मेरी माताजी का है- तब कोई चिन्ता नहीं रहती ।
यह जगत, विश्व-ब्रह्माण्ड किन्तु एक ही जगह से निकला है, जगत-जननी ने ही इसका प्रसव किया है, एक ही सत्ता सभी में हैं; इसीलिए यहाँ कोई पराया नहीं है. इसीलिए सबों से प्यार करना चाहिए. केवल अपने भाई-बहन, माँ-पिताजी, स्त्री-पुत्र, के लिए खटते रहना, केवल धन इकट्ठा करने में ही लगे रहना क्यों चाहिए?
 ठीक है, उनकी जिम्मेवारी मेरे उपर है, इसीलिए करता हूँ, यह भी गलत नहीं है, किन्तु सबों के लिए जितना कर सकता हूँ, कम सेकम उतना भी तो कर सकता हूँ. छोटे से सीमा में बद्ध रहने को त्याग कर बड़े सीमा में चले जाने को दया कहते हैं. छोटे से सीमा में बंधे रहने को माया कहते हैं. और छोटी से दायरे ' मैं और मेरा ' के हद को तोड़ कर, बड़े सीमा में - ' तूँ और तेरा ' - में जाने को दया कहते हैं.

' मनुष्य बनने के उपाय को योग कहते हैं ' [41] परिप्रश्नेन

४१. प्रश्न : योग का क्या अर्थ होता है ?
उत्तर : योग का अर्थ है- जितना है, उसमें वृद्धि हो जाये। योग के द्वारा हमलोग दूसरे मनुष्यों के साथ जुड़ जाते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है- 
विश्व  साथे योगे  जेथाय बिहारो, 
सेईखाने योग तोमार साथे आमारो ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में योग के विषय में शिक्षा दी है. उसके १८ अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय एक एक योग ही है। उसके द्वारा हमलोग अच्छी वस्तुओं के साथ किस प्रकार युक्त हो सकते हैं, उसका उपाय एवं उस मार्ग पर चलने या अच्छाई की दिशा में आगे बढ़ने का उपदेश दिया गया है। योग का अर्थ हुआ वृद्धि या लाभ, अच्छी वस्तु का लाभ।  भगवान के साथ या उत्कृष्टता के साथ जुड़ जाने के कौशल को योग कहा जाता है। तब हमलोग सभी मनुष्यों के साथ भी स्वयं को जोड़ पाने में सक्षम हो जाते हैं. 
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, अपने साथ तुलना करके देखो, कोई दूसरा व्यक्ति किस अवस्था में पड़ा हुआ है, और मैं किस अवस्था में हूँ, सबों के साथ अपनी तुलना करके देखो। पाओगे कि कोई व्यक्ति दुःख में है, कोई आनन्द में है।  जो व्यक्ति अन्य सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को बिल्कुल अपना सुख-दुःख जैसा देख सकता है, वही सबसे बड़ा योगी है।
 जो व्यक्ति अपने मन ही मन, अपनी आत्मा में दूसरों की आत्मा को, अपने प्राणों में दूसरों के प्राण को, भीतर ही भीतर दूसरों को और स्वयं में दूसरों को अनुभव कर पाने की योग्यता रखता है, वही सबसे बड़ा योगी है। यह केवल कहने भर की बात नहीं है, या किसी कवि की कल्पना नहीं है। सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ प्रेम किया जा सकता है। योगी के लिए - दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होना, करुणा का भाव रखना, दूसरों के आनन्द में आनन्द का अनुभव करना संभव है।  
इस प्रकार के योग के विषय में स्वमीजी ने चार प्रकार के योग का उल्लेख किया है। किसी मनीषी ने स्वामीजी की विचार-धारा को ही ' शक्ति-योग ' की संज्ञा दी है। अर्थात शक्ति के द्वारा सभी के साथ युक्त हो जाओ, स्वामीजी ने हमलोगों को इसी शक्ति-योग की शिक्षा दी है। शास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं है। गीता और भागवत में चार प्रकार के योगों के उपर ही चर्चा की गयी है।  योग से तात्पर्य यहाँ उपाय या पथ है। किस उपाय या मार्ग से चल कर हमलोग अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं, सच्चा ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं, सही बुद्धि कैसे प्राप्त होती है, सही रूप से मनुष्य कैसे बन सकते है ? उसी उपाय को योग कहा गया है।
एक मार्ग है-भक्तियोग. मन्दिर में भगवान की पूजा या उपासना की जाती है, वहाँ बैठकर कीर्तन-भजन, जप-ध्यान इत्यादि करते हैं, इसीको भक्ति कहते हैं। किन्तु जो भक्ति की पराकाष्ठ है, जिसको चरम-भक्ति कहते हैं, उसको स्वामीजी भी भक्ति कहते हैं- वह भक्ति केवल कल्पना में डूबे रहने से नहीं होती, या किसी भगवान की मूर्ति पर कुछ अर्पण करना ही पर्याप्त नहीं होता। यह भक्ति-मार्ग का प्रथम सोपान है. 
मन्दिर में जाकर भगवान को कुछ चढ़ाना या पूजा करना इत्यादि कार्य अच्छे कार्य हैं, किन्तु यही भक्ति की अन्तिम बात नहीं है। अन्तिम स्थिति में सर्वगत (ubiquitous) सर्वव्यापी बन जाने की आवश्यकता होती है। अर्थात जो मन्दिर में बैठे हैं, या बद्री-केदार में बिराजमान हैं- वही भगवान प्रत्येक मनुष्य के भीतर भी विद्यमान है- ऐसी दृष्टि प्राप्त कर लेने को ही सच्ची भक्ति कहते हैं।  मूर्ति में भगवान की उपासना तभी तक करनी है, जब तक हम स्वयं यह उपलब्धी नहीं कर लेते कि -समस्त प्रतिमाओं में, सर्वभूतों में नारायण ही निवास कर रहे है। ठाकुर की ही बात को स्वामीजीने इस प्रकार कहा है- 
' बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ी कोथा खूंजीछ ईश्वर ?
जीवे  प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर । 
भगवान केवल देवालय में ही नहीं विराजमान हैं, सभी शरीरों के भीतर भी वे ही विराज रहे हैं। सबों के भीतर जो भगवान विद्यमान हैं, उनको अस्वीकार करके, केवल देवालय के किसी कोने में भगवान को खोजना पर्याप्त नहीं है। जिसप्रकार से भक्ति करने का उपदेश स्वामीजी दे रहे हैं, उसी ढंग से यदि भक्ति की जाय, तो भक्ति योग के सच्चे पथ का अवलम्बन करने से वह एक अद्भुत आनंददायक पथ बन जायेगा। किन्तु सामान्य तौर पर यह भक्ति सबों के मन में उत्पन्न नहीं होती.
क्योंकि साधारण मनुष्यों का भीतरी भाग  (अभ्यन्तर या हृदय ) बिल्कुल सूख चूका है। जब उसका आन्तरिक प्रेम भगवान के प्रति प्रवाहित होने लगेगा, तभी वह साधारण मनुष्यों के कल्याण की दिशा में भी प्रवाहित होना सीख सकता है।  हमलोगों का शुष्क हृदय एवं कर्कश मन जबतक ऐसी भक्ति से भाव-विभोर नहीं हो जाता, तब तक स्वामीजी ने कहा है, तथा शास्त्रों में भी कहा गया है- जब तक हृदय और मन भक्ति से आप्लुत नहीं हो उठा हो, तब तक हमलोगों को कर्मयोग का आश्रय लेना चाहिये।
कर्मयोग के विषय में कुछ लोग अपने अपने ढंग से तर्क करने लगते हैं। जैसे गीता का मूख्य शिक्षा या मर्म क्या है- इस बात को लेकर कुछ लोग तर्क-वितर्क करने लगते हैं। किन्तु गीता की सहज शिक्षा है- कर्म।  इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- कार्य करते रहो, कार्य करते जाओ- इसी प्रकार कर्म करते करते तुमलोगों में एक दिन सच्चा ज्ञान जाग उठेगा।  इसप्रकार कर्म करते हुए, पहले चित्त को शुद्ध करना पड़ता है। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने या तत्वज्ञान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित करने के लिए पहले मन को स्वच्छ बना लेना पड़ता है। फिर मनुष्यों की सेवा करते करते एक मुक्ति का भाव मन में उत्पन्न हो जाता है, मनुष्यों के प्रति जो प्रेम उत्पन्न हो जाता है, उसी को कर्मयोग कहते हैं।
उसके बाद है-ज्ञानयोग। ज्ञानयोग के मार्ग में मन ही मन तर्क-वितर्क या विवेक-विचार करके यह निर्णय लेना पड़ता है कि कौन सी वस्तु शाश्वत है, कौन सी वस्तु क्षणभंगुर है ?  कौन सी वस्तु कल्याणकारी है, कौन सी वस्तु क्षतिकर है, कौन सी वस्तु नारकीय परिणाम में ले जाने वाली है, या किसमें सबकी भलाई छिपी हुई है ?  इस प्रकार से विवेचना करते करते यह समझ में आ ही जाता है कि जगत की समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर हैं। कोई भी वस्तु यहाँ हमेशा नहीं रहती, इसी प्रकार से निर्णय करते करते यह समझ में आने लगता है, कि प्रत्येक के भीतर ऐसा कुछ छुपा हुआ है, जो शाश्वत है, सनातन है, अविकारी, अविनश्वर है तथा उसका मानो जन्म भी नहीं होता है।  वही है वास्तविक वस्तु , वही हैं -सर्वगत ब्रह्म ! वे सबों में अनुस्यूत हैं। सबकुछ में ओतप्रोत हैं। यह तत्वज्ञान या बोध तर्क-विचार करते करते प्राप्त हो जाता है- इस मार्ग से भी जाया जाता है। किन्तु इस मार्ग पर चलना अत्यंत कठिन है. यह ज्ञान मार्ग है, विवेक-विचार करने का पथ है. 
किन्तु किसी भी कार्य को हम किस माध्यम से करते हैं ? वह माध्यम है- हमारा मन. यदि कर्मयोग ही करना हो, तो निष्काम होकर करना होगा, निष्काम कर्म का तात्पर्य है, जो कार्य अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए नहीं किया जाता हो, परार्थ के लिए किये गये कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। किन्तु इस प्रकार से कर्म करने की प्रेरणा कहाँ आ रही है ? मन में उठ रही है।  मन में ही मनुष्य की भलाई करूँगा- ऐसे विचार उठ रहे है. यदि दूसरों की सेवा करूँगा- यह विचार उठ रहा है, अब यह किये बिना मैं रह नहीं सकता। तो ऐसा कर्मयोग मन की सहायता से ही करना पड़ता है.
 उसी प्रकार भक्तियोग मन को प्रयोग में लाने से ही संभव है. सबों के भीतर भगवान हैं- उनके प्रति मेरे मन में भक्ति जाग्रत नहीं हो, भगवान के चरणों में आत्म-समर्पण करने की इच्छा उत्पन्न न होने से भक्ति योग कैसे होगा ? ऐसी प्रेरणा मन में उठेगी, तभी तो उनकी सेवा करूँगा.
 इसप्रकार हम देखते हैं कि कर्मयोग के लिए भी मन की आवश्यकता है, भक्तियोग के लिए भी मन की आवश्यकता है. सत-असत, शाश्वत-क्षणभंगुर, अच्छा-बुरा यह सब विवेक-विचार भी मन में ही करूँगा, तो फिर मन के बिना ज्ञानयोग भी नहीं हो सकता है. अब प्रश्न है कि मन अच्छा कार्य कैसे करेगा ?
 भक्ति का भाव मन के भीतर आएगा कैसे ? यदि विवेक-विचार करना है, तो कैसे कर पाउँगा, यदि मेरा मन ही चंचल और विक्षिप्त रहता हो, यदि मेरा मन संयमित न हो, तो यह सब नहीं हो सकेगा. इसीलिए पहले मन को अपने नियंत्रण में रखना होगा, उसको शान्त रखना होगा, एकाग्र रखना होगा. यह जो मन को एकाग्र करना, स्थिर रखना होता है, इसको राजयोग कहते हैं। इसीलिए राज का अर्थ है- श्रेष्ठ, उज्ज्वल, क्योंकि इसको नहीं करने से, कुछ भी करना संभव नहीं होता. इसीलिए यह श्रेष्ठ पथ है।
  यदि हमलोग अपने विक्षिप्त मन को शान्त कर सकें, उसको यदि अपने वश में ला सकें, एकाग्र करना सीख जाएँ, तब अन्य योग भी संभव हो जायेंगे. तथा यह बात भी कही गयी है कि यदि हम अपने मन को इसी प्रकार शान्त और स्थिर बना सकें, तो अन्य किसी योग का आश्रय लिए बिना ही हमलोग उसी एक सत्य पर उपनीत हो जायेंगे।अतः एकाग्रता का अभ्यास करना आत्मोन्नति का प्रथम सोपान है।

' चरित्र एक सामग्रिक-वस्तु है '[40] परिप्रश्नेन

४०.प्रश्न : आत्म-समीक्षा तालिका में जिन २४ गुणों का उल्लेख किया गया है, उसमें से कुछ गुणों को चुन कर केवल उन्हीं गुणों के विषय में यदि आत्म-समीक्षा करूँ तो क्या ठीक नहीं होगा ?
उत्तर : एकदम खराब नहीं होगा. सब गुणों को आत्मसात नहीं कर सके, पर जितने गुणों को कर सकोगे, उतने को ही आत्मसात करने की चेष्टा कर सकते हो। चरित्र एक सामग्रिक-वस्तु है, अनेक वस्तुओं को चरित्र नहीं कहते हैं। 
 हमलोग मन ही मन चरित्र को कई भागों में बाँटने की कोशिश करते हैं। जबकि चरित्र एक सामग्रिक वस्तु है। सामग्रिक वस्तुओं में, जैसे सत्य, या न्याय के लिए अपनी प्रतिबद्धता इत्यादि जो विभिन्न गुण हैं, उनमें से प्रत्येक गुण दूसरे गुण के साथ संयुक्त है। इसीलिए प्रारंभ में यदि केवल कुछ गुणों को ही धारण करने का अभ्यास करो, तो क्रमशः दूसरे गुण भी खींचे चले आयेंगे।
जिन जिन गुणों पर विशेष ध्यान दोगे, स्वाभाविक रूप से वे गुण अधिक विकसित होंगे. जैसे किसी व्यक्ति ने काफी हद तक, अच्छे तरीके से बहुत से गुणों को आत्मसात कर लिया है, किन्तु यह दिख रहा है कि समय निष्ठा के उपर उसका कोई ध्यान नहीं है। परन्तु जब उसका ध्यान इस कमी की ओर जायेगा, तो वह स्वयं निर्णय लेगा की - यदि वह punctuality या समय की पाबंदी पर ध्यान देता तो उसके लिए बहुत फायदेमन्द हो सकता था।
 इसीलिए यह परामर्श दिया जाता है, कि पहले जो मूख्य गुण (आत्मश्रद्धा,आत्मविश्वास आदि) हैं, उसकी ओर विशेष ध्यान दो, और धीरे धीरे स्वयं को मनुष्य कहलाने योग्य मनुष्य के रूप में विकसित करने की चेष्टा करते रहो, तथा समस्त गुणों पर ध्यान देने से वे सब भी क्रमशः बढ़ने लगेंगे।