2.योगी अभेदानन्द
उस समय स्वामी अभेदानन्द थे कालीप्रसाद. उनमे योग-साधना करने की प्रबल ईच्छा थी. एक दिन वे कालेज-स्ट्रीट स्थित अलबर्ट-हाल में उपस्थित हुए. उस दिन वहाँ ' पातन्जल-योगसूत्र ' के उपर चर्चा हो रही थी. वक्ता थे, उस समय के विख्यात पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि. वक्ता ने इतने सहज-सरल भाषा में ज्ञान-गर्भित व्याख्यान दिया कि उसने कालीप्रसाद के ह्रदय को छू लिया.
बिना देरी किये अपनी जेब-खर्च के पैसों को इकट्ठा करके एक पातन्जल-दर्शन खरीद लिए. खरीदने का उद्देश्य था, योग-सूत्र पढ़ कर और अच्छी तरह से समझना होगा, और भी गहराई में उतर कर इसे जानना होगा.
{Swami Abhedananda was born on 2 October 1866 as Kaliprasad Chandra. He was a direct disciple of Sri Ramakrishna and was known as "Kali Tapaswi" to his fellow discipiles. His father was Rasiklal Chandra and his mother was Nayantara Devi. After the passing away of Sri Ramakrishna, he formally became a Sanyasi along with Swami Vivekananda and others, and came to be known as "Swami Abhedananda".
During his life as a monk he travelled extensively throughout India, depending entirely on alms. During this time he met several famous sages like Paohari Baba, Trailanga Swami and Swami Bhaskaranand. He went to the sources of the Ganga and the Yamuna, and meditated in the Himalayas. He was a forceful orator, prolific writer, yogi and intellectual with devotional fervor. Swami Vivekananda asked him to propagate the message of Vedanta in the West, which he did with great success. He went to USA in 1897 and preached messages of Vedanta and teachings of his Guru for about 25 years. In 1921, he returned to India.
In 1922, he crossed the Himalayas on foot and reached Tibet, where he studied Buddhistic philosophy and Lamaism. In Hemis Monastery, he discovered a manuscript on the unknown life of Jesus Christ[citation needed], which has been incorporated in the book Swami Abhedananda's Journey Into Kashmir & Tibet published by the Ramakrishna Vedanta Math, Kolkata. He formed the 'Ramakrishna Vedanta Society' in Kolkata in 1923, which is now known as Ramakrishna Vedanta Math. In 1924, he established Ramakrishna Vedanta Math in Darjeeling in West Bengal. In 1927, he started publishing Visvavani, the monthly magazine from 'Ramakrishna Vedanta Society', which is published today as well.
He died on 8 September 1939.}
During his life as a monk he travelled extensively throughout India, depending entirely on alms. During this time he met several famous sages like Paohari Baba, Trailanga Swami and Swami Bhaskaranand. He went to the sources of the Ganga and the Yamuna, and meditated in the Himalayas. He was a forceful orator, prolific writer, yogi and intellectual with devotional fervor. Swami Vivekananda asked him to propagate the message of Vedanta in the West, which he did with great success. He went to USA in 1897 and preached messages of Vedanta and teachings of his Guru for about 25 years. In 1921, he returned to India.
In 1922, he crossed the Himalayas on foot and reached Tibet, where he studied Buddhistic philosophy and Lamaism. In Hemis Monastery, he discovered a manuscript on the unknown life of Jesus Christ[citation needed], which has been incorporated in the book Swami Abhedananda's Journey Into Kashmir & Tibet published by the Ramakrishna Vedanta Math, Kolkata. He formed the 'Ramakrishna Vedanta Society' in Kolkata in 1923, which is now known as Ramakrishna Vedanta Math. In 1924, he established Ramakrishna Vedanta Math in Darjeeling in West Bengal. In 1927, he started publishing Visvavani, the monthly magazine from 'Ramakrishna Vedanta Society', which is published today as well.
He died on 8 September 1939.}
बिना देरी किये अपनी जेब-खर्च के पैसों को इकट्ठा करके एक पातन्जल-दर्शन खरीद लिए. खरीदने का उद्देश्य था, योग-सूत्र पढ़ कर और अच्छी तरह से समझना होगा, और भी गहराई में उतर कर इसे जानना होगा.
योग-सूत्र पढ़ना तो सहज है, किन्तु केवल पढ़ कर क्या इसके गूढ़ मर्मार्थ को भी समझ लेना संभव है ? इसीलिए इस विषय के अधिकारी पुरुष ' शशधर तर्कचूड़ामणि महाशय ' के साथ मुलाकात किये. उनके निकट पूरे विनय के साथ अपने मन की इच्छा प्रकट किये; --' दया कर के यदि आप पातन्जल-दर्शन के सूत्रों की व्याख्या कर देंगे, तो मेरी बहुत दिनों की ईच्छा तो पूर्ण होगी ही, मेरा आपके निकट आना भी सफल हो जायेगा. '
बालक कालीप्रसाद की ईच्छा सुनकर, पण्डित महाशय अति प्रसन्न हुए, बोले- ' अच्छी बात है, तुम्हारी इस सदिच्छा को साधुवाद देता हूँ. किन्तु देखो, बेटे देखता हूँ की तुम्हारी आयु अभी बहुत कम है. इसी आयु में तुमको योग-सूत्र पढ़ने की ईच्छा हुई है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. किन्तु अभी मेरे पास समय की बहुत कमी है, क्योंकि मुझे अक्सर विभिन्न स्थानों में व्याख्यान आदि देने में बहुत व्यस्त रहना पड़ता है. पर तुम यदि एक काम करो तो लगता है, तुम्हारा उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. '
कालीप्रसाद ने विनम्र स्वर में कहा- ' आप आदेश दीजिये पण्डित महाशय.'
' देखो, तुम एकबार ' कालीवर वेदान्तवागीश ' के पास जाओ, मैं सोचता हूँ कि वे तुम्हारे लिए थोडा समय अवश्य निकाल पाएंगे. उनसे कहना कि, मैंने तुमको उनके पास भेजा है. तब वे तुमको ना नहीं कर पाएँगे, तथा नीश्चय ही तुमको आनन्द के साथ पढ़ाएंगे. '
पण्डित महाशय के इस निर्देशानुसार कालीप्रसाद, कालीवर वेदान्तवागीश के साथ मिलने के लिए चल पड़े. उनसे भी विनम्रता के साथ मन कि इच्छा कह सुनाये. वेदान्तवागीश महाशय ने विशेष आग्रह के साथ कालीप्रसाद के आवेदन को सुना, एवं अपने समयाभाव की बात इस प्रकार कहे- " इस समय मैं पातन्जल-योगदर्शन का बंगला में अनुवाद कर रहा हूँ और मेरे पास, थोडा भी समय नहीं है. किन्तु तुम एक काम कर सकते हो, स्नान करने के पहले थोडा अवकाश मिलता है, इस समय एक सेवक मेरे शरीर पर तेल मालिश करता है, यदि उस समय आ सको तो, योग-सूत्र का कुछ अर्थ तुमको समझा सकता हूँ. फिर स्नान करने के उपरान्त भी लिखना पड़ता है, इसीलिए बस उतना ही समय है, अब तुम सोचो क्या करना चाहोगे ?"
कोई उपाय न देख कर कालीप्रसाद को अपने आशैशव आकांक्षित योगशिक्षा अर्जित करने के लिए इसी शर्त पर राजी होना पड़ा. और कालीप्रसाद प्रतिदिन प्रातः ८-९ बजे पातन्जल-योगसूत्र का पाठ करने, कालीवर वेदान्तवागीश महाशय के घर जाना शुरू कर दिए.इस ग्रन्थ में हठयोग, कुण्डलिनी योग, प्राणायाम और राजयोग की साधन-पद्धति को बहुत सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है.
[अष्टांग योगमहर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है | उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है | अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं: १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणयाम, ५) प्रत्यहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि
१. यम: पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचा
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना।
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६ . धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !}
२. नियम: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६ . धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !}
पूरे पुस्तक को अच्छी तरह से पढ़ कर पण्डित महाशय ने सुन्दर तरीके से समझा दिया. कालीप्रसाद को वह सब अच्छा ही लगा, मन तो भरा किन्तु प्राण नहीं भरा. तत्वतः योगशिक्षा तो मिल गयी, किन्तु कार्यतः व्यवहारिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई. इस इच्छा ने मन में उथल-पुथल मचा दिया. योगियों के समान उनका मन-प्राण हर समय योग-साधना में निमग्न रहना चाहता था. योगी लोग जिस प्रकार खेचरी-मुद्रा का अभ्यास करके जड़-समाधि में तल्लीन हो कर रहते हैं, उसीप्रकार कालीप्रसाद की इच्छा भी योग-साधना में डूबे रहने की थी.
किन्तु योगशिक्षा हो कैसे,- शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है. पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध योगिगुरु का पता खोजा जाय. आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी ' .
इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
' देखो, मित्र मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ
मिल सकते हैं ? '
मिल सकते हैं ? '
कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-
' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. '
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.
एकदिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे.
दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए.
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.'
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे.
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
-----------------( ' वर्तमान ' २२ सितम्बर २०००, स्वामी अभेदानन्द जन्मतिथि के उपलक्ष पर प्रकाशित
======================================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें