४३. प्रश्न : श्रीरामकृष्ण के आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द के आदर्श के बीच क्या कोई अन्तर था ?
उत्तर : नहीं, दोनों का एक ही आदर्श था, उनके आदर्श में थोड़ा भी अंतर नहीं था. स्वामीजी ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव् से ही शिक्षा
प्राप्त की थी,तथा उन्हीं के द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर, उन्हीं की भावधारा
का प्रचार-प्रसार भी किया था.
स्वामीजी ने कहा है- ' यदि मन,वचन और कर्म से
मैंने यदि कोई भी सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुख कोई ऐसी बात निकली हो,
जिससे जगत के किसी व्यक्ति का थोड़ा भी उपकार हुआ हो, तो उसमें मेरा कोई
गौरव नहीं है, वह सब उन्हीं का है। '
स्वामीजी जो कुछ भी किये हैं, या बोले
हैं, वह सब श्रीरामकृष्ण के ही विचार थे, इसी बात को बलपूर्वक समझाने के
लिए स्वामीजी को यह बात कहनी पड़ी थी। दोनों के आदर्श में कोई अंतर नहीं
था।
४४. प्रश्न : ' ध्यान ' क्या राजयोग के अन्तर्गत आने वाला कोई विषय है ?
उत्तर : अष्टांग योग को ही राजयोग भी कहते
हैं. इसी का एक अंग है ध्यान. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ध्यान केवल
राजयोग का ही सहायक अंग है. ध्यान की क्रिया सभी योगों में सम्मिलित है,
अर्थात सभी प्रकार के योग में ध्यान की आवश्यकता होती है. गीता के भक्तियोग
(१२/१२ ) में भगवान कहते हैं-
" ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । "43,44
-
अर्थात मुझ परमेश्वर (ठाकुर ) के स्वरूप को, या आत्मतत्व को - शास्त्र और
तर्क-वितर्क के द्वारा समझने की चेष्टा करने की अपेक्षा - ध्यानम्,
अर्थात ध्यान के द्वारा जानने की चेष्टा करना- विशिष्यते, श्रेष्ठ है।ज्ञानयोग में इसीको निदिध्यासन कहा जाता है। अर्थात
गहरे ध्यान में सर्वदा उसका चिन्तन करते रहना ज्ञान को (अर्थात ठाकुर के
सच्चिदानन्द स्वरूप को या आत्मतत्व को ) सर्वदा जाग्रत रखना ही ध्यान है.
भक्तियोगी
देवपूजा करने के समय ध्यान करता है। अर्थात अपने हृदय में ' अष्टदल- रक्त-
कमल ' के उपर अपने ' ईष्ट-देव ' को बैठाकर ध्यान-मन्त्र में बताये गये
देवता के (नाम) रूप-गुण-लीला- धाम के चिन्तन में मग्न हो जाता है।
राजयोग में ध्यान के उपर कहा गया है, किसी
वस्तु की धारणा या ज्ञान को कुछ समय तक,' तैल-धारवत ' अर्थात
निर्विच्छिन्न भाव से मन में धारण किये रहना.
इसीलिए ध्यान का प्रयोग हर
योग में हो सकता है।
ज्ञानयोगी इसी ज्ञान को, कि सबकुछ ब्रह्म
ही हैं- के निदिध्यासन को ध्यान के रूप में जानते हैं। भक्तियोगी भी अपने
ईष्ट-देव का ध्यान करते करते सर्वत्र उसी देवता के दर्शन का अभिलाषी हो
जाता है। और राजयोगी परमात्मा के ध्यान से, समाधि में मग्न होकर
आत्मा-परमात्मा के अभिन्नता की अनुभूति के आनन्द को प्राप्त करना
चाहते हैं।
कर्मयोगी का भी ध्यान होता है। कर्मयोगी समस्त कर्मों के फल का त्याग करना चाहते हैं. इसीलिए गीता (१२/१२) में " ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । " कहने के तुरन्त बाद में कहते हैं-
" ध्यानात् कर्मफलत्याग: त्यागात् (विशिष्यते) शान्ति: अनन्तरम् । "
- अर्थात ध्यान की अपेक्षा कर्मफल में
आसक्ति का त्याग: या सब कर्मोके फलका मेरे लिये त्याग करना; (विशिष्यते) =
श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्मफल त्यागात् = त्यागसे; अनन्तरम् = तत्काल ही;
शान्ति: = परम शान्ति होती है ! कर्मयोगी अपने समस्त कर्मों को दूसरों के लिए
(अर्थात अपने इष्ट-देव के लिए) करताहै।वह दूसरों की सेवा
पूजा के भाव से करता है, क्योंकि वह जान चूका है कि परमात्मा या भगवान
सर्वत्र हैं, इसी ध्यान या ज्ञान से यथार्थ कर्म हो सकता है।
इसीलिए हम कह सकते हैं, ध्यान में सारे
योग मिलकर एकाकार हो जाते हैं। राजयोग से ध्यान की परिभाषा को समझ
कर, ज्ञानयोग में उसका प्रयोग करने से यह उपलब्धी होती है कि आत्मा (भगवान )
सर्वत्र हैं।
इस समझ को भक्तियोग में प्रयोग करने से उसे सर्वत्र अपने परमप्रिय देवता (इष्ट देव ) दिखाई देते हैं, जिस कारण वह (वैष्णव) हर किसी से स्नेह करता है, उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से भरा रहता है। कर्मयोग में प्रयोग करने से वह सर्वत्र पूजा के भाव से सेवा करने के लिए वह अपने हाथों को बढ़ा देता है।
इस समझ को भक्तियोग में प्रयोग करने से उसे सर्वत्र अपने परमप्रिय देवता (इष्ट देव ) दिखाई देते हैं, जिस कारण वह (वैष्णव) हर किसी से स्नेह करता है, उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से भरा रहता है। कर्मयोग में प्रयोग करने से वह सर्वत्र पूजा के भाव से सेवा करने के लिए वह अपने हाथों को बढ़ा देता है।
यदि केवल कुछ समय के लिए कोई व्यक्ति अपने मन में ज्ञान को धारण किये रहता हो,
कोई भक्त केवल समदर्शन (सर्वत्र भगवान को निहारता रहता हो)
या सर्वत्र स्नेह पूर्ण दृष्टि से देखता रहता हो, या कोई केवल सेवा ही करता
रहता हो, या इनमें से कोई एक ही भाव की उपलब्धी कर पाता हो, तो वैसे
प्रत्येक भाव
को ' अधुरा 'ही कहना होगा.इन समस्त भावों का संयोजन ही ध्यान का परिणाम है।
को ' अधुरा 'ही कहना होगा.इन समस्त भावों का संयोजन ही ध्यान का परिणाम है।
यदि ध्यान करने से ऐसा परिणाम नहीं मिला तो, ज्ञान के वृक्ष पर उगा भक्ति का फूल और ध्यान की कली - सब व्यर्थ है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने केवल चार
योगों का संकलन ही नहीं किया था, उनका सम्पूर्णत: एकीकरण (
Fusion) किया है।
ऐसा नहीं है कि थोड़ी देर तक नाक दबा कर बैठ गये तो राजयोग हो गया, थोड़ी देर पूजा कर लिए तो भक्तियोग हो गया, जगत मिथ्या -फिथ्या कहते रहने से ज्ञानयोग हो गया, बाद में कहीं जाकर थोड़ी समाजसेवा कर आये तो कर्मयोग हो गया. ध्यान का सही अर्थ समझ लेने से ध्यान, ' ज्ञान, हाथ, हृदय '
-सब कुछ एक हो जायेगा, सब कुछ एकता के सुर में बंध जायेगा। ध्यान ज्ञान को जाग्रत कर देगा, हृदय के कपाट को खोल देगा,हाथ को प्रसारित एवं सेवा में नियोजित कर देगा।योग-चतुष्टय के प्रदीप को ध्यान एकीकृत कर देता है।
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