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सोमवार, 28 मई 2012

' नाव को लंगर से बांध कर चप्पू चलाना ' [55] परिप्रश्नेन

55. प्रश्न : हमलोग ठाकुर, माँ, स्वामीजी के नजदीक क्यों नहीं जा पा रहे हैं ? या वे लोग स्वयं आगे बढ़ कर अपने चरण-कमलों में हमें स्थान क्यों नहीं देते हैं ?
उत्तर : जिस क्षण किसी व्यक्ति को यह अनुभव होगा कि उसने उनके चरणों में स्थान प्राप्त कर लिया
 है, उसी क्षण उसे प्राप्त हो जायेगा। वे लोग तो अपने चरण को बढ़ा कर के बैठे हुए हैं। यदि हमलोग 
स्वयं उनकी ओर अपने कदम नहीं बढ़ाएं, तो हम उनके उपर यह आरोप नहीं लगा सकते कि - उन्होंने मुझे अपने पाद-पद्मों में स्थान नहीं दिया ? क्या हमलोग उनके पादपद्मों में स्थान प्राप्त करने की प्रतीक्षा में आस लगाये बैठे हैं ? यदि हाँ, तो हमलोग आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं ?
संसार के अन्य प्रलुब्ध कर देने वाली वस्तुओं, मनोहर वस्तुओं, चित्ताकर्षक वस्तुओं के प्रति हमलोगों में जो आकर्षण बना हुआ है, उस आसक्ति को कम करने में सक्षम होने से हम उनकी ओर अग्रसर होने लगेंगे। अपने पैरों की जंजीर हमलोग स्वयं ही खोल सकते हैं।
 इसे ऐसे समझें कि हमलोगों ने नाव को लंगर से बांधे रखा है, और चप्पू चला रहे हैं, और हैरान होकर कह 
रहे हैं, नदी में मेरी नौका आगे क्यों नहीं बढ़ रही है ? दूसरे किनारे की ओर आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं? जबकि नदी के दूसरे तट (त्याग के तट ) पर बैठे हुए ठाकुर, माँ, स्वामीजी कह रहे हैं- तुमलोगों को  हम कितना प्यार करते हैं, मेरी ओर आते क्यों नहीं ? 
किन्तु हमलोगों  ने तो भोग वाले किनारे से अपने लंगर को बांध रखा है, इसीलिए लंगर खोले बिना नदी के दूसरे किनारे (त्याग वाले किनारे) पर पहुँच पाना इतना कठिन लग रहा है। यदि हमलोग स्वयं ही आत्मप्रवंचना करें, स्वयं को ही धोखा देने की चेष्टा करें, भाव के घर में चोरी करते रहें, तो उनलोगों के उपर आरोप लगाना क्या ठीक होगा? भाव के घर में चोरी तो नहीं कर रहे ?
" परिप्रश्नेन - अद्भुत प्रश्नों के अद्भुत उत्तर "        
    

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