३१.प्रश्न : ' सच्ची-शिक्षा ' किस प्रकार अर्जित की जा सकती है ?
उत्तर : चिन्तन-मनन के द्वारा पहले यह समझने की चेष्टा करनी होगी, कि
शिक्षा कहते किसे हैं ? (क्या डिग्री लेने को ?) स्कुल
-कॉलेज में दी जाने वाली शिक्षा तथा सच्ची शिक्षा या
चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा में अंतर को समझने के बाद, सच्ची शिक्षा प्राप्त करने के उपाय (अपने भीतर से ज्ञान को प्रकट करने की विधि) को जान लेना चाहिए।
फिर दृढ संकल्प एवं धैर्य के साथ अध्यवसायपूर्वक उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए सर्वप्रथम जीवन में पवित्रता
(मन की पवित्रता और दृष्टि की पवित्रता ) होनी चाहिए, यदि हमलोगों का जीवन पवित्र न बन सके, तो सूक्ष्म वस्तुओं को समझा नहीं जा सकता, तृप्त नहीं हुआ जा
सकता है, किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। फिर उसके
साथ साथ धैर्य और अध्यवसाय भी जरुरी है।
""""""धैर्य, अध्यवसाय एवं उसके साथ पवित्र जीवन (3P) " की
सहायता से हमलोग जो कुछ भी पाने का प्रयत्न करेंगे- उसमें हमलोग अवश्य ही
सफल होंगे. सच्ची शिक्षा का अर्थ क्या है ?
जिस शिक्षा को प्राप्त करके जीवन सही रूप में विकसित हो, जीवन सुन्दर रूप में गठित हो जाये- इसे जान लेना ही वास्तविक शिक्षा है। सच्ची शिक्षा वह शिक्षा है, जिससे जीवन सर्वोत्कृष्ट रूप में निर्मित हो जाये, जीवन पूर्ण हो जाये। जैसे श्रीरामकृष्ण के जीवन को देखो- वहाँ शिक्षा की सम्पूर्ण पराकाष्ठ है ! ओहो, कैसा सुन्दर जीवन है ! अपनी कल्पना में ऐसे पूर्ण जीवन को आदर्श के रूप में सामने रखो।
तुम बहुत अधिक पढ़-लिख लिए, कई पुस्तकों को
कंठस्थ कर लिए,- प्रकृत शिक्षा या वास्तविक शिक्षा के उपर प्रश्न पूछा गया,
लिख कर पास हो गये, किन्तु वास्तविक शिक्षा क्या है ? उससे थोडा भी परिचय
नहीं हो सका। किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण देव के चित्र को देख कर, ठाकुर-देव
के जीवन की बातों पर चिन्तन करो. कैसा असाधारण जीवन था-इसी को कहते हैं,
शिक्षा !अच्छा सोचो, वास्तविक शिक्षा प्राप्त हो जाने पर कोई व्यक्ति कैसा
हो जाता है ?
मैक्स मुलर ने कहा था, स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है - " इनके (श्रीरामकृष्ण के ) भीतर केवल भगवान ही हैं,
मनुष्य सम्पूर्ण रूप से मर चूका है ! " किंतनी अनुपम उक्ति है. ' मनुष्य
मर चूका है।'- इसका अर्थ क्या हुआ ? सामान्य मनुष्यों में जो संकीर्णता,
दीनता और दरिद्रता रहती है, उसका पूर्ण अवसान हो चूका है।
सामान्य मनुष्य कितना दीन होता है ! कितना
बेवश होता है. केवल आर्थिक रूप से गरीब व्यक्ति को ही दीन नहीं कहते, मन से
भी कोई व्यक्ति अति दीन होता है, यदि उसका मन अति संकीर्ण हो, केवल
कामना-वासना का दास हो, केवल बाहरी-आन्तरिक प्रकृति का दासत्व करता हो, जगत
का दास हो, यह भी दीनता है, दरीद्रता है।
स्वामीजी ने कहा है न - ' हमलोग जगत के दास
हैं, प्रकृति के दास हैं, जीवन के दास हैं, एक मधुर वाणी के दास हैं, एक
अपशब्द के गुलाम हैं, हमलोग अति हीन हो चुके हैं। इस हीन अवस्था को त्याग
कर अपनी महिमा में उन्नत हो जाना होगा। ' वह क्या है ? यही कि समस्त प्रकार
की गुलामी के बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेना होगा। मैं किसी भी बाहरी
व्यक्ति या परिस्थिति के द्वारा संचालित नहीं होता हूँ, मैं
अपने ' स्वभाव
' के अनुसार चलता हूँ, मेरे भीतर जो मेरा भाव
है, ' स्व-भाव '- जिसको ठाकुर देव
' पाका आमी ' या वास्तविक ' मैं ' कहते
थे, उस ' मैं ' को मैंने प्रस्फुटित कर लिया है।
वैसा हो जाने से ही हमलोग सच्ची शिक्षा
प्राप्त कर सकते हैं. ठाकुर-माँ- स्वामीजी का जीवन और उपदेश, अर्थात हमारा
वही सनातन आदर्श, हमारी अपनी सनातन संस्कृति की जो भावधारा है- उसी चिरन्तन
प्रवाह में स्नान कर लेना होगा। वैसा करने में सक्षम होने से ही हमलोग
वास्तविक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। हमें ठाकुर-माँ-स्वामीजी के रूप को ही
हमेशा ध्यान में रखना होगा, उन्हीं के जैसा बनना होगा, उन्हीं के साँचे में
अपने को ढालना होगा- वे ही हमारे आदर्श हैं !
" The ideal if reached or not- makes great the life. "
कोई
बहुत बड़ा आदर्श (या लक्ष्य) अपने सामने रखना चाहिए-हो सकता है, या मान लो
मैं वहाँ तक पहुँच नहीं सका, और जीवन की शाम हो आई- किन्तु किसी आदर्श-जीवन को अपने सामने
रखने से क्या होता है ? हमलोग क्रमशः थोड़ा आगे तो अवश्य बढ़ जाते हैं। जीवन में कोई बहुत बड़ा आदर्श अवश्य रखो !
सच्ची शिक्षा को प्राप्त करके जिस सुन्दर जीवन को गठित करने की बात कह रहे हो, उस वास्तविक शिक्षा को प्राप्त करने के लिए, पहले अपने जीवन्त आदर्श के रूप में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपने सामने रखो। उसके बाद हमलोगों में से जो जितना आगे बढ़ सकता हो, उसके लिए प्रयत्न करता रहे !
सच्ची शिक्षा मनुष्य को श्रीरामकृष्णदेव बना सकती है।परिप्रश्नेन सच्ची शिक्षा को प्राप्त करके जिस सुन्दर जीवन को गठित करने की बात कह रहे हो, उस वास्तविक शिक्षा को प्राप्त करने के लिए, पहले अपने जीवन्त आदर्श के रूप में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपने सामने रखो। उसके बाद हमलोगों में से जो जितना आगे बढ़ सकता हो, उसके लिए प्रयत्न करता रहे !
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