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मंगलवार, 22 मई 2012

[***1]परिप्रश्नेन


प्रकाशक का कथन 
' तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
                     उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः॥' (गीता :४: ३४)
भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं - ' वह ज्ञान श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके (प्रणिपातेन ), आत्मविषयक प्रश्नों के द्वारा - अर्थात आत्मा और अनात्मा के विषय में, मैं कौन हूँ, संसार-बन्धन क्या है, उससे मुक्ति का उपाय क्या है, इस प्रकार विविध प्रश्नों के द्वारा (परिप्रश्नेन ); तथा गुरुसेवा के द्वारा प्राप्त होता है। तत्वदर्शी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे। ' 

श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। " 
महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में अक्सर परिचर्चा-समूह की बैठकें (पाठ-चक्र)  हुआ करती हैं। इन समस्त पाठ-चक्रों, विभिन्न युवा प्रशिक्षण शिविरों में, तथा पत्रों के माध्यम से श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के साथ साथ अन्य विषयों के संबन्ध में असंख्य प्रश्न लगातार आते रहते है। इसीलिए महामंडल में अनेकों आवश्यक प्रश्नों के उपर अनवरत चर्चाएँ होती रहती हैं। कई व्यक्तियों के प्रश्न ऐसे होते हैं, जो स्वाभाविक रूप से अनेकों व्यक्तियों के मन में अनुत्तरित ही रह जाया करते हैं। इसीलिए बहुत से लोग इस प्रश्नोत्तरी को प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे।

सभी स्थानों में होने वाली  परिचर्चाओं को संग्रहित करना संभव नहीं होता, फिर भी जितनी संग्रहित है, उन्हीं  सबको प्रकाशित करने में कई हजार पृष्ठ लग जायेंगे, इसीलिए १९८३ के जनवरी अंक से महामण्डल के मासिक मुखपत्र  ' विवेक-जीवन ' के प्रत्येक अंक में इसके कुछ कुछ अंशों को प्रकाशित किया जा रहा है. किन्तु महामण्डल के मुखपत्र 'VIVEK- JIVAN ' में पूर्वप्रकाशित बंगला प्रश्नोत्तरी को परिप्रश्नेन शीर्षक से बंगला भाषा में  ' प्रथम-खण्ड ' एवं ' द्वितीय-खण्ड ' का प्रकाशन हो चूका है.
 
इसके बावजूद बहुत से लोग इसको हिन्दी में प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे. किन्तु प्रकाशन खर्च में लगातार  वृद्धि होते रहने के कारण हिन्दी भाषा में प्रकाशित करना संभव नहीं हो पा रहा था.
प्रथम-खण्ड का हिन्दी अनुवाद ' जिज्ञाषा और समाधान ' नाम से प्रकाशित हुई है. ' विवेक-जीवन ' के अंग्रेजी भाग में जो प्रश्नोत्तरी प्रकाशित हुए थे उन्हें भी पुस्तक के रूप में ' By Questioning ' के नाम से प्रकाशित किया जा चूका है.बंगला में ' परिप्रश्नेन-द्वितीय खण्ड ' का प्रकाशन १९९० ई० में ही हो गया था;  किन्तु कतिपय कारणों से उसका हिन्दी अनुवाद ' परिप्रश्नेन अद्भुत प्रश्नों के 
अद्भुत उत्तर '  के नाम से अभी (२०१२ में ) प्रकाशित किया जा रहा है.

यदि हमलोग सचमुच अपने देश का पुनर्निर्माण करना चाहते हों, भारतवर्ष को एक महान देश के रूप में गढ़ना चाहते हों तो स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को कार्य में उतार कर दिखाना ही होगा. केवल अपने देश के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण मनुष्य-समाज की उन्नति के लिए उनके उपदेश कितने मूल्यवान हैं, यह अब देश-विदेश के अनेकों विचारशील व्यक्तियों के समक्ष क्रमशः स्पष्ट से स्पष्टतर होता जा रहा है. किन्तु वर्तमान परिवेश में उनके किस उपदेश को सबसे पहले कार्य में रूपायित करना अनिवार्य है, इस बात को पहले भली-भांति समझ लेना आवश्यक है.

जो लोग स्वामी विवेकानन्द के भावधारा के अनुरूप देश का निर्माण करने के आग्रही हैं, या जो महामण्डल केंद्र यह कर रहे हैं, वे यदि इस पुस्तक से भारत पुनर्निर्माण के लिए अनिवार्य प्राथमिक कार्य की प्रयोजनीयता को थोडा भी समझ सकें; तो हमलोग समझेंगे कि इस पुस्तक को प्रकाशित करना सार्थक हुआ है।
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 १. प्रश्न : महामण्डल का मुख्य कार्य क्या है ?
उत्तर : इसके उपर पहले भी कई बार चर्चा हो चुकी है. युवाओं को " जीवन-गठन " में सहायता करना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है. जीवन-गठन से तात्पर्य है- ' चरित्र-गठन ', अर्थात 'धर्म की प्राप्ति ', 
या ' आध्यात्मिकता की प्राप्ति '. क्योंकि धर्म-प्राप्ति, आध्यात्मिकता-प्राप्ति,चरित्र निर्माण या जीवन गठन - ये सभी अलग अलग वस्तुएं नहीं है.

 किसी चरित्र-हीन मनुष्य को धार्मिक या आध्यात्मिक मनुष्य कैसे कहा जा सकता है ? अपना ' जीवन-गठन ' करने में समर्थ व्यक्ति को ही ' धार्मिक, आध्यात्मिक या चरित्रवान मनुष्य ' इत्यादि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जा सकता है, किन्तु ये सब एक ही बात है। 

स्वामीजी की शिक्षाओं एवं विचारों का अध्यन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि देश के जनसाधारण  के व्यक्ति-जीवन को एक चरित्रवान मनुष्य के रूप में गठित नहीं किया गया, तो अन्य किसी कल्याणकारी योजना (मनरेगा इत्यादि ) को लागु करने से भी देश का यथार्थ कल्याण कभी सम्भव न हो सकेगा.

 क्योंकि यदि किसी व्यक्ति का जीवन सुंदर ढंग से निर्मित नहीं हुआ हो तो वह अपने व्यक्तिगत जीवन में तो सफल नहीं ही हो पाता, बल्कि उसके अनगढ़े चरित्र के कारण ही देश में भी भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है. इसीलिए यदि हमलोग सचमुच अपने देश को महान बनाना चाहते हों, तो  देश के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुंदर ढंग से गठित करना ही शिक्षा-प्रणाली की प्राथमिक अनिवार्यता होनी चाहिए.

जनसाधारण के जीवन को उन्नत करने का तात्पर्य केवल उन्हें आर्थिक दृष्टि से उन्नत करना ही नहीं है, बल्कि उनके चरित्र को इस प्रकार उन्नत करना है कि वह न्यायोचित-पथ से कभी विचलित नहीं होगा, उसकी आर्थिक परिस्थिति चाहे जैसी भी क्यों न हो, वह धर्म-मार्ग से कभी नहीं डिगेगा. यहाँ तक कि मृत्यु के मुख में जा कर भी वे लोग सत्य के मार्ग का त्याग नहीं करेंगे, ईमानदारी से जीवन यापन करना नहीं छोड़ेंगे. उनके सामने चाहे जैसा भी प्रलोभन या दबाव क्यों न लाया जाये, वे किसी भी हाल में अपने चरित्र का परित्याग नहीं करेंगे, चरित्र-भ्रष्ट नहीं किये जा सकेंगे. ऐसा मनुष्य गढ़ना बहुत कठिन कार्य है, किन्तु सभी देश-भक्त नेताओं का यही एकमात्र आवश्यक कर्तव्य है.

इस सर्वाधिक आवश्यक कार्य पर किसी की दृष्टि नहीं है, इसीलिए आज के समाज में इतनी गन्दगी, इतना भ्रष्टाचार, अधर्म,  एवं मनुष्य की इतनी उपेक्षा, मनुष्य होकर भी दूसरे मनुष्य के प्रति इतनी घृणा का भाव, उनके ' मनुष्यत्व ' प्रति कोई श्रद्धा न दिखा कर उनके प्रति घोर उपेक्षा का भाव देखा जा रहा है. समाज के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाने से यही दृश्य दिखाई दे रहा है.प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों हो रहा है?
 इसका कारण यही है कि हमलोग अभी तक चरित्रवान मनुष्य नहीं बन सके हैं, हमलोगों के जीवन में सच्ची आध्यात्मिकता नहीं आ सकी है. हमलोग स्वयं सच्चे मनुष्य नहीं बन सके हैं, इसीलिए दूसरों
 के ' मनुष्यत्व ' को हृदय से सम्मान नहीं देते हैं.

 केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए जितना आवश्यक प्रतीत होता है, उसीके अनुपात में दूसरों को खुश करने की चेष्टा करते हैं, या झूठी विनयशीलता और मधुर स्वाभाव व्यक्ति होने का दिखावा करते हैं, किन्तु स्वयं को (अपने यथार्थ स्वरुप को ) जान लेने के बाद ही दूसरों को जाना जा सकता है.

और
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यह कार्य केवल आध्यामिकता के द्वारा ही संभव है, अन्य किसी उपाय से अपने या दूसरों के सच्चे स्वरुप को नहीं जाना जा सकता. आध्यात्मिकता के बिना जीवन की सच्चाई को जानने 
 (Temporary and Eternal के बीच अंतर को समझने ) का अन्य कोई उपाय नहीं है. क्योंकि पुस्तक को पढना एक बात है, और अपने सच्चे स्वरुप को अनुभव से जान लेना बिल्कुल अलग बात है. इन दिनों सारी परियोजनाएँ पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर ही बनाई जा रही हैं. बैठे बैठे पुस्तकों को पढ़ने या लिखने से ही सत्य ( जो कभी नहीं बदलता, जो शाश्वत और सनातन है ) को पकड़ा नहीं जा सकता.

 उसके लिए पहले चरित्र गठन करना होगा, या सच्ची आध्यात्मिकता अर्जित करनी होगी. भारतवर्ष में प्राचीन काल में सच्ची आध्यात्मिकता थी तथा उसे समाज के कल्याण में प्रयोग भी किया जाता था. किन्तु अभी हमलोग यह सब भूल गए हैं, तथा ऐसा मानते हैं कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान सही नहीं था.  सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान बन गए है, किन्तु जब अपनी बुद्धि से किसी समस्या को हल नहीं कर पाते तो बुद्धि लाने के लिए विदेशों में जाते हैं. किन्तु जो लोग इस समय सम्पूर्ण विश्व की जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि विश्व के अन्यान्य देशों ने - जिस प्रकार यथार्थ बुद्धि (ज्ञान)का अन्वेषण पहले इसी भारतवर्ष में आकर किया था, ठीक उसी प्रकार अब भी उन्हें यदि जीवन के उद्देश्य
को समझना है, तो पुनः यहीं आना होगा. 

महामण्डल के विविध कार्यक्रमों में उसी जीवन-गठन की शिक्षा को बचपने से या तरुण अवस्था से ही देने, की चेष्टा की जाती है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति (अपने यथार्थ स्वरुप को पहचान कर) 
यथार्थ ' मनुष्य ' बन सके. जिस प्रकार मिट्टी सूख कर कड़ी हो जाये तो उसको इच्छानुसार रूप नहीं दिया जा सकता, उसी प्रकार उम्र बढ़ जाने के बाद, समय निकल जाने के बाद, नए सीरे से जीवन-गठन करना भी उतना आसान नहीं रह जाता है.

 इसीलिए महामण्डल में कम उम्र में ही अपना चरित्र-निर्माण करने की चेष्टा की जाती है. कम उम्र से ही इसका प्रयास करने से जीवन गठन सहज होता है, इसीलिए ' विवेक-वाहिनी ' के नाम से महामण्डल का बाल-विभाग भी कार्य करता है, जहाँ बचपन से ही उनके जीवन को सुंदर रूप से गढ़ने की चेष्टा की जाती है. नियमित प्रयास के द्वारा अपना चरित्र गढ़ने में बालकों-तरुणों-युवाओं की सहायता करना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है.                              

 इसके अतिरिक्त महामण्डल के द्वारा अन्य जितने भी समाज-सेवा के कार्यक्रम चलाए जाते हैं, वे महामण्डल के वास्तविक कार्य या उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि सभी प्रकार के समाज-सेवा मूलक कार्यों को हमलोग अपने चरित्र-गठन के मुख्य कार्य में सहायक मान कर ही करते हैं. जिनकी सेवा की जा रही है, उनको धन्य करना महामण्डल द्वारा की जाने वाली समाज-सेवा का उद्देश्य नहीं है, बल्कि इन समाजसेवा-मूलक कार्यों के माध्यम से महामंडल के कार्यकर्ता स्वयं अपना चरित्र गठन करने के उपादानों को संग्रहित करते है. 

क्योंकि कोई भी सिद्धान्त या ज्ञान तब तक व्यक्तिगत चरित्र में प्रविष्ट नहीं हो सकता जब तक उसे कार्य में परिणत करने, या बार बार उसको अनुष्ठानिक रूप में दुहरा कर अभ्यास न किया जाय. इसीलिए महामण्डल में विविध कार्यक्रमों के माध्यम से अच्छे सिद्धान्तों पर आधारित जीवन-गठन की व्यावहारिक पद्धति का प्रशिक्षण दिया जाता है. महामण्डल की समाज-सेवा का लक्ष्य और उद्देश्य है अपने सच्चे
 स्वरुप को जान लेना।
अतः किसी भी समाज-सेवा मूलक कार्य में कूद पड़ने के पहले समाज-सेवा का लक्ष्य तथा उद्देश्य को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है.इसके लिए महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में नियमित रूप से पाठचक्र, सामूहिक परिचर्चा, स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढ़ने तथा अन्य सेवामूलक कार्यों का अनुष्ठान किया जाता है.
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