१५.प्रश्न : वेदान्त दर्शन का मूल विषय क्या है ?
उत्तर : वेदान्त दर्शन का मूल विषय जानने के पहले यह जानना आवश्यक है कि वेदान्त कहते किसे हैं? '
वेद ' शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान. आमतौर पर ऋषियों ने अपनी अनुभूति के
द्वारा जिन सत्यों का अविष्कार किया है, उनको उन्होंने जिस प्रकार
अभिव्यक्त किया था, उसे ही वेद समझा जाता है.
पहले इसे गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार सुन सुन कर स्मृति में रख लिया जाता था, उन सबको बहुत बाद में ग्रन्थ का रूप दिया गया है. इसीलिए वेद का दूसरा नाम है-' श्रुति '. वेदों के अन्तिम भाग को वेदान्त कहा जाता है. वेद का अर्थ है ज्ञान, तथा जानने का जहाँ अन्त हो जाता हो, उस ज्ञान के अन्त या चरम ज्ञान को वेदान्त कहते हैं, फिर वेदों के अन्तिम भाग को भी वेदान्त कहा जाता है।
पहले इसे गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार सुन सुन कर स्मृति में रख लिया जाता था, उन सबको बहुत बाद में ग्रन्थ का रूप दिया गया है. इसीलिए वेद का दूसरा नाम है-' श्रुति '. वेदों के अन्तिम भाग को वेदान्त कहा जाता है. वेद का अर्थ है ज्ञान, तथा जानने का जहाँ अन्त हो जाता हो, उस ज्ञान के अन्त या चरम ज्ञान को वेदान्त कहते हैं, फिर वेदों के अन्तिम भाग को भी वेदान्त कहा जाता है।
वेदों के दो भाग हैं-एक को कर्मकाण्ड दूसरे को ज्ञानकाण्ड कहते हैं. कर्म-काण्ड में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं, या हवन-यज्ञ आदि की विधि दी गयी है. तथा ज्ञान-काण्ड में वास्तविक ज्ञान की, दर्शन की, तत्व की बात कही गयी है.वेद के सबसे अन्तिम भाग में ज्ञान-काण्ड के तत्वों का उल्लेख है. इसीलिए यह भी कहा जाता है कि वेदान्त या उपनिषद ही वेद के ज्ञान-काण्ड है. व्यासदेव ने युक्ति-तर्क के आधार पर वेदान्त या उपनिषदों के दार्शनिक तत्वों को संकलित करके ' वेदान्त-सूत्र ' कि रचना कि है. वेदान्त-दर्शन का यही मूल ग्रन्थ है. व्यासदेव के द्वारा रचित सूत्रों के उपर शंकर, रामानुज जैसे आचार्यों ने भाष्य या व्याख्या लिखे हैं.
वेदान्त का कथन है,कि जगत का मूल उपादान कोई भौतिक पदार्थ नहीं है, यह जगत अचेतन जड़-प्रकृति की स्वतः परिणति मात्र नहीं है, या किसी अचेतन (Unconscious) या बेजान जड़वस्तु के उपर किसी सचेतन-वस्तु (यथा ईश्वर ) की क्रिया मात्र भी नहीं है। जगत की मौलिक वस्तु एक से अधिक नहीं हो सकती है, एवं वह मूल वस्तु है-ब्रह्म. इसीलिए यह समस्त जीव -जगत भी ब्रह्म के सिवा अन्य कुछ नहीं है.इसीलिए प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः ब्रह्म ही हैं.
देखने
की एक विशेष शैली को दर्शन कहते हैं. वेदान्त-दर्शन का अर्थ है- वेदान्त
किस दृष्टि से देखता है,या वेदान्त इस समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड को देखने से
क्या देख पता है, उसी को वेदान्त-दर्शन कहते हैं. इस विषय को अधिक विस्तार
से समझने के लिये महामंडल की - ' भारतीय संस्कृति एवं सनातन भावधारा ' तथा ' भारत की सांस्कृतिक विरासत ' एवं ' स्वामी विवेकानन्द एवं हमारी सम्भावनाएं ' नामक पुस्तकों की सहायता ली जा सकती है।
वेदान्त
दर्शन का सारांश है- समस्त सृष्टि एक और अखण्ड है। सबों के भीतर एक ही मूल
वस्तु अनुस्यूत हैं, अन्तर्निहित हैं, कण-कण में व्याप्त हैं, इस जगत में
जो कुछ भी (नाम-रूप) है, सब उन्हीं का आवास है।
' ईशा वास्यम इदम सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत '
-वह वस्तु स्थावर-जंगम सभी में परिव्याप्त है, सभी कुछ के
भीतर अनुप्रविष्ट है। केवल इतना ही नहीं , इन समस्त दृष्टिगोचर वस्तुओं के
परे भी वही है। हमलोग जो कुछ भी देख पा रहे हैं, सबकुछ बनकर वे ही
दृष्टिगोचर हो रहे हैं, पुनः वही एक वस्तु उसके बाहर भी हैं. उसको ही
ब्रह्म या आत्मा कहा जाता है. सबकुछ के भीतर प्रविष्ट होने के साथ साथ उसके
बाहर भी वे ही हैं. वे सभी वस्तुओं में अन्तर्निहित हैं, इसीलिए सभीकुछ वस्तुतः एक है, तथापि नाम-रूप में विभिन्नता रहने के कारण एक ही सत्ता विभिन्न रूपों दिखाई देती है।
इसीलिए
वेदान्त कहता है, मेरा शत्रु कोई नहीं है. सभी मेरे लिये मित्र हैं- ' हे
प्रभु, मुझे इतनी शक्ति दो कि मैं सबों को मित्र की दृष्टि से देख सकूँ '.
कितनी सुंदर प्रार्थना है ! वेदान्त की जो दृष्टि है, उसे सामान्य धर्म की
भाषा में व्यक्त करते हुए कह दिया जाता है कि-(' तुम में, मुझमें खड्ग-खम्भ में सब कुछ में नारायण हैं.' या) भगवान सभी कुछ में विद्यमान हैं.इस दृष्टि से तुम्हारे भीतर भी नारायण हैं, मेरे भीतर भी नारायण हैं. तुम भी अल्ला की सन्तान हो, मैं भी अल्ला की सन्तान हूँ.इसीलिए
मैं और तुम दोनों परस्पर भाई-भाई हैं, कोई पराया नहीं हैं.वेदान्त इसी
ऐक्य बोध को हमें प्रदान करता है. यही वेदान्त का मूल बिन्दु है।
वेदान्त
मानव-मात्र को यह उपदेश देता है कि-तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान
है. उसे जानने का प्रयत्न करो. तुम इस विश्व-ब्रह्माण्ड से अभिन्न हो. कोई
तुम्हारा शत्रु नहीं है. सभी तुम्हारे मित्र या अपने आदमी हैं. अपने यथार्थ
स्वरुप को जानने से ही यह बात समझ में आ जाएगी. तुम स्वरूपतः अनन्त शक्ति,
ज्ञान एवं आनन्द या प्रेम के अधिकारी हो !
पुनः
जब सभी एक हैं, तो कोई विशेषाधिकार का भोग कैसे कर सकता है? वैसा करना
बहुत अनुचित है. इसीलिए भेदभाव मिथ्या है,बहुत गलत बात है. स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- हिन्दू-मुसलमान,
ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, विद्वान-मुर्ख, स्वदेशी-विदेशी इत्यादि जितने भी
अलगाव का व्यवहार करते हैं, वह सब गलत या भ्रामक है, मिथ्या है. इसीलिए जिन
समस्त विशेष अधिकार को भोग किया जाता है, वह ठीक नहीं है, वेदान्त उसको
तोड़ देने की बात कहता है।
वेदान्त
की दृष्टि में कोई अलग नहीं है. यह सिद्धान्त की बात है, एवं व्यवहार की
दृष्टि से - तुम अनन्त ज्ञानसम्पन्न हो, तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति है; तथा
अनन्त पवित्रता है, प्रेम है.इसी बल से बलवान हो जाओ. तुम्हारा शत्रु कोई
नहीं है, सभी तुम्हारे मित्र हैं. तुमलोगों के बीच कोई अन्तर नहीं है, तुम
सभी वास्तव में एक हो. इसीलिए किसी के पास कोई विशेषाधिकार नहीं रह सकता,
इस भेद-भाव की मानसिकता को मिटा देने की आवश्यकता है, वेदान्त की यही
असाधारण शिक्षा है !
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