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सोमवार, 28 मई 2012

अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है।[33] परिप्रश्नेन

३३.प्रश्न : हम जैसे युवाओं के लिए समाज कल्याण-मूलक बहुत से कार्यों को करने की जरूरत है। इन 
कार्य को हम सभी युवा संघबद्ध होकर कर सकते हैं, किन्तु इन सब कार्यों को करने के लिए धन की भी आवश्यकता है। अभी देश की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें रहते हुए हम धन कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर : समाज के कल्याण के लिए अनेको कार्य किये जा सकते हैं, किन्तु इस विषय के उपर हमलोग ज्यादा माथापच्ची नहीं करते हैं। समाज कल्याण-मूलक कार्य कहने से तुम क्या समझते हो, पता नहीं चलता है। 
' समाज कल्याण-मूलक ' कार्य करने का अर्थ आमतौर पर हमलोग - सड़क की सफाई करना, कोई दातव्य औषधालय खोलना, या निःशुल्क कोचिंग क्लास चलाना, कोई स्कूल खोल देना, कहीं बाढ़ आ गया, या कहीं भूकम्प से जान-माल की क्षति हो गयी हो तो वहाँ पहुँच कर रिलीफ वर्क में हिस्सा लेना इत्यादि कार्यों को हमलोग समाज कल्याण-मूलक कार्य समझते हैं। ये सभी अच्छे कार्य हैं, मौका पड़ने से हमलोग भी इन कार्यों को करते हैं। किन्तु इन्हीं कार्यों को सबसे मूल्यवान समाज कल्याण-मूलक कार्य समझ कर नहीं करते हैं। 
स्वामीजी की शिक्षा के अनुसार हमलोग भी यह मानते हैं, कि सर्वाधिक मूल्यवान समाज-सेवा है- मनुष्य के जीवन का निर्माण करना। इसी कार्य को हमलोग सबसे विलक्ष्ण और सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा का कार्य समझते हैं, जिससे उनका जीवन, उनका चरित्र सही रूप में गठित हो सके।
युवाओं का चरित्र यदि सुन्दर रूप में गठित हो जाये, उनका जीवन यदि एक योग्य नागरिक के रूप में गठित हो जाये, तो वे लोग स्वाभाविक रूप से ही देश से प्रेम करेंगे, देशवासियों को प्रेम करेगें, देश के मनुष्यों के दुःख को देखने से उनके हृदय में सहानुभूति जाग्रत होगी, तब वे स्वाभाविक रूप से देश के मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिए अपनी सीमित क्षमता के अनुरूप जितना संभव होगा उतना प्रयत्न करेंगे।
इसीलिए, सबसे पहले से रुपया इकट्ठा करना होगा, उसके बाद समाज कल्याण-मूलक कार्य करना चाहिए - इस बात को हमलोग स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा के आलोक में, बिलकुल गलत समझते हैं। हमलोग यह मानते हैं,कि हमारा प्रथम कर्तव्य है- अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित करना, अपने चरित्र का 
निर्माण करना। और इसके लिए रूपये की कोई समस्या अभी दिखाई नहीं देती है। अपना जीवन गठित कर लेने के बाद हमलोगों का जितना सामर्थ्य होगा, मनुष्य के यथार्थ कल्याण के लिए उतना कार्य हम अवश्य कर सकते हैं। 
क्योंकि सबों का कल्याण इस बात पर निर्भर करता है, कि मैंने स्वयं अपने चरित्र को या अपने जीवन को कितना गठित कर लिया है ? यदि अपने चरित्र को गठित किये बिना ही, मैं समाज कल्याण के कार्य करने लगूँ, फिर जैसा आज हजारों-हजार सामाजिक संगठन कर भी रहे हैं- ढेर सारा धन एकत्र कर लूँ, तो वैसा करना केवल राख़ में घी डालने जैसी समाज-सेवा बन कर रह जाएगी। उससे देश को हानी भी उठानी पड़ेगी। इसका कारण यह है, कि जिस संगठन में सदस्यों का चरित्र-निर्माण होने के पहले ही बहुत धन प्राप्त हो जाता है, वहाँ सामान्यतः चरित्र-भ्रष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
 उस प्रकार की समाज सेवा से बहुत से लोगों में अहंकार सीमा से बहुत अधिक बढ़ जाता है, तथा भ्रष्ट तरीके अपनाने से इनके चरित्र में भी गिरावट आ जाती है। इसीलिए बहुत सा धन इकट्ठा करके समाज-कल्याण करने का अर्थ ही अच्छा कार्य हो, ऐसी कोई बात नहीं है। स्वामीजी भी वैसा नहीं करना चाहते थे. हमारा प्रथम कार्य है, जीवन गठन- अपना सुंदर चरित्र गठन कर लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। 

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