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शनिवार, 26 मई 2012

' समस्त संचय भीतर विपदा भी छुपी हुई है '[19] परिप्रश्नेन

१९.प्रश्न : वैराग्य किसे कहते हैं ? वैराग्य की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर : वैराग्य का अर्थ है, राग या आसक्ति का आभाव. आसक्ति को कम करते जाना ही मुख्य बात है. किसी विषय का सुख भोगने की प्रबल आकांक्षा हमलोगों में होती है, किसी वस्तु को पाने की बहुत तीव्र इच्छा होती है, उसे ही आसक्ति कहते हैं; तथा इस लालच को कम करने का नाम वैराग्य है. हमलोगों में सामान्यतौर से सभी वस्तुओं के प्रति एक आकर्षण होता है, प्राप्त करने की इच्छा रहती है. जैसे, खाने के लिए अच्छा-अच्छा पकवान मिलना चाहिए. जैसे अच्छी मिठाई खाऊंगा, अच्छे कपड़े पहनूंगा, अच्छे मकान में रहूँगा, अच्छी गाड़ी में घुमुंगा. 
इसप्रकार की जितनी इच्छाएँ मन में उठती रहती हैं, उसे कम उम्र में समझा नहीं जा सकता, जब हमारी उम्र थोड़ी बढ़ जाएगी, तो हम सभी लोग यह समझ जायेंगे, कि हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है, एवं जो चाहता हूँ, वह यदि प्राप्त भी हो जाता है, तोभी संतोष नहीं होता, बहुत कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी, और मिलना चाहिए की प्यास बनी रहती है.
 इसीप्रकार बहुत कुछ प्राप्त करने की इच्छा करते करते एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब यह समझ में आ जाता है, कि जिसे पाना चाहता हूँ, वह तो मिला ही नहीं. ऐसा प्रतीत हो जरुर रहा था कि यही प्राप्त कर रहा था, यही तो प्राप्त कर रहा था, यही प्राप्त कर रहा था. और जब कोई घोर-अपेक्षित वस्तु प्राप्त नहीं होती, तब मन में दुःख होता है, एक प्रकार की वेदना की अनुभूति होती है. जिस आनंद को पाना चाहता था, उसे नहीं प्राप्त कर सका, -ऐसा होने से मन में अशान्ति, बेचैनी रहने लगती है.
इसीबीच यह भी दिखाई देगा कि मुझमें अच्छा कार्य करने की जो क्षमता थी, वह सब बहुत कुछ पाने की इच्छा से नष्ट हो गयी है, मैंने अच्छे कार्यों में अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सका हूँ, एवं उसके चलते मेरा सुख नहीं बढ़ सका, असुखी ही रह गया, उल्टा बेचैनी बढ़ गयी है. जैसे किसीको मिठाइयाँ खाना बहुत पसंद है,उसने बहुत ज्यादा मिठाई खा लिया है. हमलोग अपने बचपन में सुनते थे, चीनी खाने से हड्डी मोटी हो जाती है. चीनी खाने में बहुत अच्छा लगता है, अब भी सभी जानते हैं, डाक्टर लोग भी जानते हैं, शरीर में यदि कमजोरी लग रही हो, और कुछ नहीं हो, तो जैसे ग्लूकोज पीया जाता है, थोड़ी सी चीनी घोल कर पी लो.
  अभी हाल ही में विदेशों में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है, कि अधिक चीनी खा लेने से, हमलोगों में कुछ बुरी प्रवृत्तियां जाग जाती हैं. हमलोगों के भीतर एक अनुचित या गलत शक्ति को उपयोग में लाने का भाव जाग उठता है.हमलोग समाजविरोधी कार्य करने पर उतारू हो जाते हैं. विदेशों में कुछ युवकों एवं किशोरों के उपर परिक्षण करके देखा गया है, वे असामाजिक कार्यों में संलग्न रहते थे, उनको सुधारने के लिए विभिन्न स्थानों में भेजा गया. 
पहले उन स्थानों को जेल कहा जाता था, आजकल उसे जेल नहीं कह कर सुधारगृह या इसी प्रकार के नाम से पुकारा जाता है, जहाँ उनको सुधारने के लिए रखा जाता है. वहां उनको सुधरने का मौका दिया जाता है, वहां उनको कुछ शिक्षा देने की चेष्टा की जाती है, खाने-पीने की व्यवस्था रहती है. वहाँ लडकों के एक समुदाय को इस प्रकार का भोजन परोसा जाने लगा, जिसमें चीनी नहीं रहती थी, बाद में देखा गया कि उनके आचरण में बहुत सुधार आ गया था. उसके बाद कुछ दिनों तक लगातार उनके सभी भोजन सामग्रियों में चीनी मिलाया जाने लगा, और कई दिनों के बाद यह पाया गया कि वे लोग फिर से शरारती बन गये थे. यह बात एक उदाहरण के रूप में रखा गया है. 
इसीप्रकार हमलोग देखेंगे कि, हम अभी जिसे बहुत आनन्ददायक या मधुर समझते हैं, किन्तु वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करने पर पाते हैं कि उसका दुष्परिणाम भी होता है. उसी तरह अभी हमलोग जिन वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं, वे सभी अच्छी हों यह नहीं होता. समस्त प्रकार के संचय भीतर विपदा भी छुपी हुई है, वह कब प्रकट होगी, अभी हमें ज्ञात नहीं है. इस प्रकार से विचार करते करते यह पता चलता है कि केवल चाहिए चाहिए करते जाने से अंतिम परिणाम अच्छा नहीं हुआ क्योंकि इसका अंतिम परिणाम कभी अच्छा नहीं होता.  इसीलिए प्राचीन काल से हमलोगों के देश में उपदेश दिया जाता रहा है कि अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाओ, कामनाओं को कम करते रहो, आशा-तृष्णा को कम करते रहो.
 हर समय यह चाहिए, वह चाहिए- केवल चाहिए चाहिए मत करते रहो. परिवार चलाने तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए कुछ आवश्यकताएँ होती हैं. किन्तु जितना मिल जाने से काम चल जाता हो, उतने से संतुष्ट रहो. इसीलिए कहा जाता है आशा-तृष्णा को कम करके संतोष लाने का प्रयत्न करो.जितना मिल गया है, उतने से संतुष्ट रहो. 
अच्छा जीभ उतना तृप्त नहीं हुआ हो, किन्तु पेट तो भर गया; फिर जीभ यदि तृप्त न भी हुआ तो उसकी जरूरत क्या है ? जीभ के अच्छा लगने न लगने से मुझे क्या प्रयोजन है, मेरी आवश्यकता पौष्टिक आहार लेना है. अपने शरीर को स्वस्थ रखना मेरी जरूरत है. वह जितना भोजन करने से हो जाता हो, मेरे लिए उतना ही यथेष्ट है. यदि ऐसा विचार बन जाये तो कुछ कल्याण होता है. क्योंकि कामनाओं को बहुत अधिक बढ़ा लेने से, ही भावनात्मक बेचैनी शुरू हो जाती है. यह स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ, कि जितना प्राप्त हो गया है, उसी से बहुत हानी हो रही है. जिन वस्तुओं को पाना चाहता हूँ, उसका जो कुछ भी है, वह सब हमलोगों को सुख नहीं देता, भला नहीं करता, मंगल नहीं करता, उससे अमंगल भी प्राप्त होता है, हमलोगों को हानी पहुँचाता है. 
इसीलिए जो व्यक्ति चिन्तनशील होगा, जो दूरदर्शी या विवेकी होगा, भले-बुरे का विचार करने में सक्षम होगा, जो स्वयं के द्वारा चालित होगा, वह कहेगा- नहीं, उस वस्तु के भीतर यह झूठ है फरेब है, वह ठीक नहीं है. इस प्रकार विवेक-विचार करके जो अपनी जरूरतों को कम करता रहता है, उसे ही वैराग्य का अभ्यास करना कहते हैं. इस वैराग्य की चरम सीमा कहाँ है ? वह कुछ भी नहीं चाहता. वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है. अपनी आत्मा में ही स्वयं संतुष्ट रहता है. हमलोगों के शास्त्र में कहा गया है- मैं अपनी आत्मा में ही संतुष्ट हूँ. मुझे बहार की कोई भी वस्तु नहीं चाहिए, यही है चरम वैराग्य.
किन्तु हमलोगों के लिए इस कठोर वैराग्य का पालन करने या वैराग्य की चरम-सीमा तक जाने की जरूरत नहीं है. हमलोगों के लिए वैराग्य का इतना ही अर्थ है कि हमलोग अपनी आकाँक्षाओं को, अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने की चेष्टा करेंगे. किसी भी असम्भव को पाने की इच्छा नहीं करेंगे, क्योंकि उससे दुःख की मात्र ही बढ़ने वाली है, उससे पीड़ा होती है, उससे अंत में हमलोगों का अकल्याण ही होता है. इसी को वैराग्य कहा जाता है. इसे मनुष्य कैसे प्राप्त कर सकता है? इसीप्रकार की चर्चा में भाग लेकर, इसी प्रकार से विवेक-विचार करने से.  
चर्चा करने का अर्थ प्रवचन सुनना नहीं है. यदि हम स्वयं इसी प्रकार से चिन्तन करते रहें, बार बार मनको इस प्रकार सुनाते रहें- ' दुखी मन मेरे, सुन मेरा कहना, बहुत से लोगो के जीवन में इस प्रकार का सुख देखा गया है, मैंने स्वयं भी थोडा बहुत जाना है कि इच्छाओं को बहुत अधिक बढ़ाते जाने का परिणाम अच्छा नहीं होता. ' इसप्रकार से मन को समझाते समझाते एवं उसके साथ साथ जीवन-गठन की चेष्टा करते रहने से, देखोगे कि मन अब एकाग्र रहने लगा है, नियन्त्रण में आ जायेगा, समायोजित होने लगेगा, तब कामना-वासना को कम करने में सफलता मिल रही है, तथा मन भी यह सहमती दे रहा है, कि हाँ सचमुच इन भोगों में तो कोई सुख नहीं है. इस प्रकार अभ्यास करते करते यह देखोगे कि जीवन में वैराग्य का भाव आ रहा है.

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