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शनिवार, 26 मई 2012

दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।[28]परिप्रश्नेन

२८. प्रश्न : जब परिवार में घोर दरिद्रता के साथ युद्ध करके सबों का भरण-पोषण करना पड़ता हो, वहाँ स्वामीजी के विचारों को कार्यान्वित करके अपना जीवन-गठन करना, क्या कभी  संभव हो सकता है ? यदि संभव हो, तो ऐसा किस प्रकार हो सकता है ? क्या परिवार के अन्य सभी सदस्यों को इसी भावधारा में लाये बिना, अकेले ही इस आदर्श के अनुसार जीवन -गठन किया जा सकता है ?

उत्तर : हमलोग तो यह मानते हैं, कि यह बिल्कुल सम्भव है. परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस भावधारा में ला सकने से अच्छा ही है, किन्तु यदि सभी नहीं आ सकें तो मैं भी नहीं करूँगा, इसके पीछे कोई तर्क नहीं मिलता है. परिवार में केवल दरिद्रता ही क्यों, और भी कितने ही प्रकार के संघर्ष करने पड़ते हैं. किन्तु इन समस्त संघर्षों के बीच यदि हमलोग जीवन-गठन के संग्राम से मुख मोड़ लें, तो पारिवारिक दुःख-कष्ट, गृहस्ती के कई झंझटों से निज़ात तो नहीं ही मिलेगा, उल्टे उसमें वृद्धि भी हो सकती है.

 इसीलिए विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझते हुए ही, यदि हम जीवन-गठन का संग्राम भी लड़ते रहें, तो वे सब दुःख तो रह सकते हैं, किन्तु वे अब हमको दुःखी नहीं कर सकेंगे.घरेलू-जीवन जैसा है, वैसा ही रहेगा. किन्तु उसमें अपने को फंसा देखकर, जैसे अभी निराश-हताश हो जाता हूँ, यदि अपने अभ्यन्तर को सक्षम तरीके से गठित कर लूँ, तो फिर वैसी हताशा कभी नहीं होगी. उसी की तो आवश्यकता है. 

घर-परिवार का संसारी जीवन तो हमेशा दुःखमय ही है. संसार के दुःख कभी दूर न हो सकेंगे. किन्तु क्या दूर हो सकता है ? हमलोग तब हम उन दुःखों को दुःख के रूप में देखना छोड़ देंगे. अब वह हमें कष्ट दे ही नहीं सकेंगे. हमलोग जान जायेंगे कि समाज की प्रकृति ही इस प्रकार की है. संसार का नियम ही ऐसा है.
संसार में दुःख तो है. किन्तु यदि हम अपने अभ्यन्तर को मजबूती से गठित कर लें, तो हमलोगों का कष्ट कम हो सकता है, और यदि दूसरों को भी यह समझा सकें, और दुसरे भी इस सत्य को समझ जाएँ, तो उनका भी दुःख दूर हो सकता है. किन्तु यदि इस बात को वे समझने को भी तैयार न हों, तो उनको थोडा अधिक कष्ट झेलना पड़ेगा; अन्य कोई उपाय ही नहीं है.
यह हो सकता है, कि मैं अपने अभ्यंतर को कठोर रूप से गठित कर, उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकूँ. हो सकता है, वे मुझे देख देख कर सीख जाएँ. तो उनका कष्ट कम हो जायेगा. नहीं हो सका,तो उनके कष्ट में गिरा देखने से मुझे कुछ कष्ट अवश्य होगा, बचने का कोई उपाय नहीं है.घर-परिवार के बीच रहने, या जगत में रहने से कष्ट तो स्वीकार करना ही होगा. एक प्रकार का कष्ट होता है, अपने दुःख के लिए स्वयं कष्ट भोगना. और एक प्रकार का कष्ट होता है, दूसरों को कष्ट में पड़ा देख कर अपने हृदय में दुःख महसूस करना. 
अपने दुःख से दुखित होने की अपेक्षा, दूसरों के लिए कष्ट पाना बहुत अच्छा है.

 स्वामीजी ने कहा है न - " जत उच्च तोमार हृदय, तत दुःख जानीय निश्चय ।" -अर्थात ' जितना ही विस्तृत तुम्हारा हृदय होगा, निश्चित जानना कि उतना ही अधिक दुःख भी भोगना होगा !' तुम यदि यह सोचते हो कि बहुत महान हृदयवत्सल व्यक्ति बन जाओगे, तो तुम्हारा दुःख दूर भाग गया है, वैसा नहीं हो सकता. दूसरों को दुःख में गिरा देखने से अपने हृदय में जिस दुःख का अनुभव होता है, वह स्वीकार्य और उत्कृष्ट होता है. यह दुःख हमारे अभ्यन्तर को कष्ट नहीं देता. अपने दुःख से दुखी होकर मुँह लटकाये रहने की अपेक्षा दूसरों के दुःख से दुःखी होना श्रेयस्कर है।

बहार में कष्ट है, उसके प्रति हृदय में सहानुभूति है. किन्तु मेरी अन्तरात्मा को उससे कष्ट का अनुभव नहीं होता. मेरा अभ्यान्तर उससे पथभ्रष्ट नहीं होता, कभी निरानन्द नहीं होता. भीतर से कभी थकावट का अनुभव नहीं होता है. संसार में सामान्यतः दुःख-कष्ट मेरे भीतर एक प्रकार की थकान पैदा करती है, किन्तु दूसरों के दुःख से दुःखबोध रहने से वह दुःख अभ्यन्तर में किसी थकान या निरानन्द का संचार नहीं कर पाता. यही अंतर रहता है।

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