३६.प्रश्न : ' सामान्य बुद्धि ' और ' उपयोग-बुद्धि ' में क्या अतर है ?
उत्तर : ' सामान्य बुद्धि ' का अर्थ है-
Common Sense या साधारण समझ। जैसे रास्ते में जा रहे हो, कहीं ईंट पड़ा हुआ
है, या गड्ढा है, समझ नहीं पाने से गड्ढे में पैर चला गया तो चोट लग सकता
है।
इसीलिए सड़क पर चलते समय अपनी आँखों को, तथा कान खुला रख कर सड़क पर चलना, या चलती
है।
इसीलिए सड़क पर चलते समय अपनी आँखों को, तथा कान खुला रख कर सड़क पर चलना, या चलती
गाड़ी से उतरते समय गाड़ी की दिशा में उसी गति से न दौड़ा जय तो गिर सकता हूँ, इस प्रकार हर समय बुद्धि को जाग्रत रखना (सतर्क रहना), सचेत रहना-
यह सब सामान्य बुद्धि का उपयोग है।
और उपयोग बुद्धि का तात्पर्य है व्यवहारिक बुद्धि, जो कुछ है, उसको काम में लगाना, व्यवहार में लाना। बहुत
से छोटे छोटे लड़के, जब कुछ भी पाते हैं, जैसे बैटरी, पुराने बल्ब, लोहा
के छर्रे, बेअरिंग आदि, तो सबको एक जगह एकत्र करके, उससे कुछ करने की
चेष्टा करते हैं।
हमलोगों के पास ज्ञान है, बुद्धि है, किन्तु उसको व्यवहार में नहीं ला सके, या समय आने पर मूर्ख की तरह कार्य किये। अर्थात मुझमें उपयोग बुद्धि नहीं है. जीवन को किस प्रकार कार्य में लगाया जाय ? स्वामीजी यही बात कहते हैं। उपयोग माने प्रयोग में लाना, जो कुछ भी जानते हैं,- उसका लाभ उठाना।
हमलोगों के पास ज्ञान है, बुद्धि है, किन्तु उसको व्यवहार में नहीं ला सके, या समय आने पर मूर्ख की तरह कार्य किये। अर्थात मुझमें उपयोग बुद्धि नहीं है. जीवन को किस प्रकार कार्य में लगाया जाय ? स्वामीजी यही बात कहते हैं। उपयोग माने प्रयोग में लाना, जो कुछ भी जानते हैं,- उसका लाभ उठाना।
मैं यदि निःस्वार्थ न
होऊं, तो अपने स्वार्थ को पहले पूरा करने का मनोभाव लेकर चलने से, दूसरों
के स्वार्थ की हानि होगी, उनको नुकसान पहुंचेगा। चूंकि मैं और दूसरा वास्तव
में एक ही हैं, मैं भी मनुष्य हूँ, वह भी मनुष्य है. जो सत्ता मुझमें हैं,
वही सत्ता उसके भीतर भी हैं। इस दार्शनिक आधार पर विचार किये बिना यदि मैं
यह सोचूं कि केवल मेरा ही भला हो, दूसरों का भला न भी हो तो मुझे क्या
फर्क पड़ेगा ? सब चलता है- इसप्रकार से सोचना, (दार्शनिक आधार पर) बिना सोचे समझे ही कुछ कर डालना- गलती (mistake) नहीं; ' Blunder ' है; एक बहुत बड़ी भूल करने के समान है।
यदि ' एक ही अनेक बने हैं ' इसको जानते हुए भी मेरे कार्य से दूसरों को क्षति होती हो, तो यह स्पष्ट
हो जायेगा कि मुझमे उपयोगी बुद्धि नहीं है, तात्विक दृष्टि से उसका आभाव है। इस दार्शनिक आधार पर मुझे ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मेरी भलाई होने से दूसरों का नुकसान न हो, दूसरों का भी भला हो, उसकी चेष्टा करनी चाहिए. स्वामीजी ने इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है- जो कार्य केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर करोगे, वह अनैतिक कार्य होगा। और जिस कार्य में मेरा क्षुद्र स्वार्थ नहीं होगा, वही नैतिक कार्य होगा।
यदि ' एक ही अनेक बने हैं ' इसको जानते हुए भी मेरे कार्य से दूसरों को क्षति होती हो, तो यह स्पष्ट
हो जायेगा कि मुझमे उपयोगी बुद्धि नहीं है, तात्विक दृष्टि से उसका आभाव है। इस दार्शनिक आधार पर मुझे ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मेरी भलाई होने से दूसरों का नुकसान न हो, दूसरों का भी भला हो, उसकी चेष्टा करनी चाहिए. स्वामीजी ने इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है- जो कार्य केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर करोगे, वह अनैतिक कार्य होगा। और जिस कार्य में मेरा क्षुद्र स्वार्थ नहीं होगा, वही नैतिक कार्य होगा।
३७.प्रश्न : श्रमशीलता का अर्थ क्या है ?
उत्तर : श्रमशीलता का अर्थ होता है, श्रम
करने की क्षमता, कार्य कर सकने की क्षमता. कार्य को सम्मान करना, उससे
लगाव रखना, दक्षता पूर्वक कार्य करने की क्षमता, कार्य के प्रति आग्रह
रहना. प्रत्येक कार्य को अच्छे ढंग से सम्पन्न करना, यह सब श्रमशीलता के
गुण के लक्षण है।
३८. प्रश्न : सज्जनता (बंगला में सौजन्य ) का क्या अर्थ है ?
उत्तर : सज्जनता का अर्थ होता है, गंवार-पन नहीं बल्कि, भद्रता या शिष्टता का भाव (urbanity ).
' सज्जन ' कहने से तात्पर्य निकलता है- ' सू-जन ' होने का परिचय। अर्थात सज्जन-ता, माने जो दूर्जन नहीं है। जन का अर्थ होता है-मनुष्य।
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। सज्जन माने अच्छा मनुष्य, और सू-जन होने के भाव को सज्जनता भी कहते हैं। प्राचीन युग में प्रार्थना होती थी-
' सज्जन ' कहने से तात्पर्य निकलता है- ' सू-जन ' होने का परिचय। अर्थात सज्जन-ता, माने जो दूर्जन नहीं है। जन का अर्थ होता है-मनुष्य।
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। सज्जन माने अच्छा मनुष्य, और सू-जन होने के भाव को सज्जनता भी कहते हैं। प्राचीन युग में प्रार्थना होती थी-
शान्तो मूच्यात बन्धेभ्यो, मूक्ताश्चान्यान विमोचयेत ।।
' दूर्जन लोग पहले सज्जन बन
जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त
कर सकते हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त
हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते हैं।
जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे।
जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे।
भागवत में बहुत सुन्दर ढंग से
कहा गया है-
सूजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ।।
' आहा, देखो-इन वृक्षों का जीवन ही सार्थक
है, मानो ये सभी प्राणियों के हित के लिए ही जीवन धारण करते हैं, ये अपना
सर्वस्व न्योछावर करके भी मनुष्यों के काम में आते हैं। जो भी इनसे कुछ
पाने की अपेक्षा करता है, ये उसे कभी निराश नहीं करते।' सज्जन लोग भी ऐसे ही
होते हैं. उनके पास से कोई असंतुष्ट होकर नहीं लौटता।
दूर्जन किसी का उपकार नहीं करना चाहते,
फिर भी दूर्जनों से घृणा करना ठीक नहीं है। उसके बुद्धि का बन्धन खोल देना
होगा, या अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देनी होगी, तब वह
भी सज्जन बन जायेगा। बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता
समझते हैं. किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में अच्छा
बन जाता है, सूजन बन जाता है. भर्तृहरि ने कहा है-
' ऐश्वर्श्य विभूषण्म
सूजनता '
अर्थात ऐश्वर्य का आभूषण है, सुजन-ता या सज्जनता ।
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