२१.प्रश्न : नरेन् माँ के सामने
(दक्षिणेश्वर वाली माँ भवतारिणी के सामने ) जब गये तो उनसे अर्थ (धन)
क्यों नहीं मांग सके ? उन्होंने उनसे ज्ञान और वैराग्य की भिक्षा
ही क्यों माँगी ?
उत्तर : क्यों नहीं माँग सके, इसका कारण था उनके जीवन का उद्देश्य (या जीवन-ध्येय ) उन्हें तो चाहिए
था- 'परम+अर्थ ' या परमार्थ (परम तत्व या
अपरिवर्तनशील-धन)! जिसकी शिक्षा उनको पूरे विश्व को देनी थी। इस जगत में
देह्धारण का उनका उद्देश्य था परमार्थ- या सम्पूर्ण मानवता को यह उपदेश
देना था कि मनुष्य इसी जीवन में सर्व-श्रेष्ठ वस्तु को किस प्रकार प्राप्त
कर सकता है ? कैसे वह अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर सकता है ? यही
सू-समाचार उन्हें सपूर्ण जगत में सुनाने का उत्तरदायित्व उन्हें
श्रीरामकृष्ण से प्राप्त हुआ था. ठाकुर इसी कार्य को करने के लिए उनको अपने
साथ लाये थे (या निर्विकल्प-समाधि में जाने के बाद भी वहाँ से वापस लौट
सके थे ?)
इसीलिए जिस
जीवन-ध्येय को पूरा करने के लिए जिसने मानव-शरीर धारण किया हो, (या
सच्चिदानन्द के साथ एकत्व की अनुभूति में लीन हो जाने के बाद भी जिसको माँ
ने पुनः शरीर में लौटा दिया हो ) उसे तो वह कार्य पूरा करना ही होगा. अवसर
प्राप्त होने से भी जो महापुरुष (जो निर्विकल्प के आनन्द को भी ठाकुर के
धिक्कार को सुनकर त्याग सकता हो ) भौतिक वस्तुओं की ओर नहीं जा सकता है.
क्योंकि यदि वे भी भौतिक सुखों को प्राप्त कर लेते, तो पूरे विश्व को
मोहनिद्रा से जाग्रत करने का मन्त्र -(नेपोलियन हिल के Law Of Success नामक
पुस्तक में वर्णित सांसारिक सुखों को प्राप्त कराने वाले- " Auto
Suggestion Formula " का प्रयोग जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण में प्रयोग
करने का उपाय वर्तमान युग के तरुणों को कौन सुनाता ?) ' उतिष्ठत जाग्रत '
कौन सुनाता ? (मुझ जैसे प्रवृत्ति-मार्गियों का क्या हाल हो जाता ? हमसभी
लोग वराह-अवतार धारण कर लिए होते !)
इसीलिए किसी
ईश्वरीय-विधान के द्वारा पूर्वनिर्धारित प्रेरणा के अनुसार ही उनका मन
प्रारंभ से ही संसारी अर्थ, सुख, सम्पदा से बहुत दूर था. इसीलिए जब उनके मन
में विषय-भोगों के प्रति कोई आसक्ति थी ही नहीं, तो वे भला उस विष को पीने
की इच्छा कैसे करते ? जगत में आकर देखते हैं कि यहाँ अपने घर में भी
रूपये-पैसे का घोर आभाव हो गया है, परिवार के लोग भी असुविधा में
हैं,कष्टपूर्ण जीवन जी रहे हैं. वह सब एक हकीकत है, किन्तु अपने गुरु से जब
यह सुनते हैं कि हम जो कुछ भी बहुत सिद्दत के साथ चाहेंगे, हमें उसी वस्तु
की प्राप्ति अवश्य हो जाएगी. (तुलसीदासजी ने भी कहा है- ' जाकर
जापर सत्य-सनेहू, से तेहिं मिलिहैं न कछु सन्देहू ।।' ) इसीलिए जब यही
ईश्वरीय-विधान है- तो जो सर्व-श्रेष्ठ वस्तु (ईश्वर) हैं, उनको ही पाने की
इच्छा क्यों न की जाय ? इसीलिए वे माँ के सामने पहुँचकर भी उनसे नश्वर
वस्तुओं को नहीं माँग सके थे.
ठीक ऐसी ही परिस्थिति नचिकेता के सामने भी आई थी. नचिकेता जब यमलोक पहुँचे उस समय यमराज महोदय अपने घर पर नहीं थे,अपने काम से बाहर गए हुए थे।
तीन दिनों के बाद जब उनके साथ बातचीत हुई, तो यम बड़े संतुष्ट हुए.
उनहोंने नचिकेता से पूछा- ' बोलो तुम क्या वरदान चाहते हो ? मैं तुमको तीन
वर दूंगा.' (माने तुम्हारी तीन सर्वोच्च मनोकामनाओं को पूर्ण कर दूंगा.)
नचिकेता दो वर माँगने के बाद तीसरा वर माँगता है- ' मैं आत्मज्ञान पाना
चाहता हूँ.' तब यमराज ने विचार किया कि आजतक कोई भी मनुष्य यहाँ जीवित
अवस्था में तो नहीं पहुँच सका था, और यदि इसी को यह ज्ञान दे दूंगा तो यह लड़का - ' कहीं बीच-बाजार में ही ' हाँडी ' तो नहीं फोड़ देगा ? '
मैंने इतने दिनों तक जिस ' तत्व-ज्ञान '
को गुप्त बना रखा है, उसका तो राज ही फ़ास हो जायेगा. इसलिए यह वर देना ठीक
नहीं होगा. कैसे इस बच्चे को फुसलाया जाय ? इधर उनके मुख से निकल चूका है-
तुमको ' तीन ' वर दूंगा. वे अपने मुख से निकली बात को वापस तो नहीं लौटा
सकते थे. तब उन्होंने उसको ' छोटा बच्चा जानकर, भरमाने के लिए ' - प्रलोभन
देना शुरू कर दिया.
और बताओ तुम क्या-क्या पाना चाहते हो ?
तुम जो कुछ भी चाहोगे, मैं अभी तुरन्त उसकी व्यवस्था कर दूंगा. जो चाहोगे
वह तुमको अभी मिल जायेगा. धन-रत्न, गाड़ी, राजमहल, भोग-सुख बोलो क्या क्या
तुमको दे दूँ ? (श्याम-कर्ण घोड़ा ले लो जिसके कान ऐंठने से वह हवा में उड़
सकता है, देवलोक की जितनी अप्सराएँ हैं, उन सबको तुम्हें दे सकता हूँ, हजार
वर्षों के लिए तुमको पूरी पृथ्वी का राजा बना सकता हूँ, बोलो ! जो कुछ भी
तुम अपने प्राणों से पाने की कामना करते होगे, माँग लो, जो मांगोगे वही
तुमको दे दूंगा.
नचिकेता कहता है, वह सब आपको ही मुबारक
हो, आपका यह सब अप्सराओं के नृत्य-संगीत में मजे लूटना, फलाना-ढिकाना
मजेदार वस्तुएँ अपने पास ही रखिये. मुझे इन नश्वर वस्तुओं की कोई आवश्यकता
नहीं है. मैं तो केवल यही जानना चाहता हूँ कि मरने के बाद क्या होता है,
आत्मा रहती है या नहीं, इत्यद,इत्यादि।... ?
प्रह्लाद कितना छोटा सा लड़का था, भगवान
(नरसिंह भगवान) के सामने पहुँच कर इस प्रकार से वेदान्त के तत्वों को उजागर
करने लगा कि भगवान तो वह सब सुनकर दंग रह गए. इतना छोटा सा बच्चा कितनी
अच्छी बातें करता है ! बहुत संतुष्ट होकर कहते हैं- ' तुम मुझसे वर माँगो
'. प्रह्लाद ने कहा- मुझे कोई वर नहीं चाहिए. नारायण कहते हैं, यह क्या बात
हुई ? माँगने में संकोच क्यों करते हो, तुम जो भी माँगोगे अभी तुमको मिल
जायेगा. प्रह्लाद ने कहा- जब मेरी कोई भी वस्तु पाने की इच्छा ही नहीं बची
है, तो मैं आपसे क्या माँगू ? मेरी कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है.
नारायण ने पूछा- क्या तुम्हें मुक्ति नहीं
चाहिए, मोक्ष पाना भी नहीं चाहोगे ? इसी समय मैं तुमको मोक्ष दे दूंगा. तब
प्रह्लाद कहता है-'नहीं, मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए '. जगत में इतने
मनुष्य बद्ध-अवस्था में पड़े हुए हैं !! वे लोग महान दुःख-कष्टों को भोगते
रहें, और मैं इसीलिए आपसे मुक्ति पा कर बड़े आनन्द के साथ यहाँ से चला जाऊं
कि आपके साथ मेरी जान-पहचान है, या मैं आपके सम्पर्क में आ सका हूँ; नहीं,
मैं इतना स्वार्थी नहीं बन सकूँगा. नारायण तो आश्चर्यचकित रह गये. और अधिक
मान-मनौवल करने पर, प्रह्लाद ने कहा- ' यदि वर देना ही चाहते हैं, तो ऐसा
वर दीजिये मानो मेरे मन में कोई कामना कभी अपना सिर भी उठा सके.'
इसीलिए जिसको अपने छोटे से जीवन में ही
बहुत बड़े बड़े कार्य करने होते हैं, वे कोई मौका पाते ही, अपने किसी
क्षुद्र स्वार्थ की चीजों को माँग पाना उनके लिए संभव ही नहीं होता. एवं
ज्ञान, विवेक, वैराग्य, इत्यादि सत्व गुण हैं. इसीलिए जब माँ ने उनसे कुछ
माँगने को कहा तो, उनके मन में इन्हीं गुणों को प्राप्त करने की इच्छा हुई !
इसीलिए स्वामीजी ने इन सबको ही माँगा.
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