४२.प्रश्न : दया और माया में क्या अंतर है ?
उत्तर : ठाकुर ने इस बात को बहुत
सुंदर ढंग से समझा दिया है।
माया भी ईश्वर की ही है। माया के द्वारा वे आत्मीयों की सेवा करा लेते हैं। पर इसमें एक बात ध्यान देने की है- माया अज्ञानी बनाकर रखती है और बद्ध बनाती है। परन्तु दया से चित्तशुद्धि होती है, और क्रमशः बन्धनों से मुक्त कर देती है।" ॐ तत सत ]
केवल उसी से प्रेम करना- जो मेरा है, या अपना
कोई ये लगता है, या वो लगता है, इसी कारण से उनके कल्याण के लिए कुछ करने को -माया
कहते हैं। एवं सबों से प्रेम करने, अपने-पराये का भेद किये बिना सबों के
कल्याण के लिए कुछ करने को दया कहते हैं। ठाकुर ने बहुत सरल उदहारण से इसे
समझा दिया है।
हमलोग कहते हैं- ' माया में आसक्त जीव '. या माया को अच्छे भाव में भी प्रयोग करते हैं। ऐसा भी कहते हैं- ' आहा, उस व्यक्ति में कितना माया(स्नेह) है '. यह अच्छे अर्थ में प्रयोग किया गया. किन्तु जिस
["Remember that dayA, compassion, and mAyA, attachment,are two different things. Attachment means the feeling of 'my-ness' towards one's relatives.
Compassion is the love one feelsfor all beings of the world.It is an attitude of 'same-ness ' (equality). MAyA also comes from God.Through mAyA, God makes one serve one's relatives.
But one thing should be remembered; mAyA keeps us in ignorance and entangles us in the world, whereas dayA makes our hearts pure and gradually unties our bonds."
" देखो, दया और माया ये दो पृथक पृथक चीजें हैं। माया का अर्थ है, आत्मीयों के प्रति ममता -जैसे बाप,माँ,भाई,बहन,स्त्री,पुत्र,आदि पर प्रेम।दया का अर्थ है सर्व भूतों के प्रति प्रेम, समदृष्टि।किसी में यदि दया देखो,जैसे विद्यासागर में,तो उसे ईश्वर की दया जानो।दया से सर्वभूतों की सेवा होती है।माया भी ईश्वर की ही है। माया के द्वारा वे आत्मीयों की सेवा करा लेते हैं। पर इसमें एक बात ध्यान देने की है- माया अज्ञानी बनाकर रखती है और बद्ध बनाती है। परन्तु दया से चित्तशुद्धि होती है, और क्रमशः बन्धनों से मुक्त कर देती है।" ॐ तत सत ]
समय ' माया ' और ' दया ' दोनों शब्दों का अर्थ मन में याद रखते हुए व्यवहार करते हैं, उस समय माया शब्द को बहुत अच्छे अर्थ में प्रयोग नहीं करते हैं।
हमलोग बातचीत के क्रम में कहते रहते हैं- '
यह माया बद्ध जीव है ', या माया से बंधा हुआ व्यक्ति है. इसका अर्थ क्या
हुआ ? ' मेरा मेरा ' करते रहना माया है. जैसे ये मेरे पिताजी हैं, ये मेरी
पत्नी है, ये मेरे पती हैं, ये मेरा पुत्र है, ये मेरी पुत्री है, यह मेरी
गाड़ी है, ये मेरा मकान है- इस तरह से ' मेरा मेरा ' - करते रहने को माया
कहते हैं। क्योंकि जगत की वस्तुओं को हमलोग अपना मानकर इन सबके साथ जुड़े
रहते हैं, यदि इसमें से कोई एक चीज या व्यक्ति हठात चला जाये- तो बड़ा जोर
का धक्का लगता है, और हम चीत्कार कर उठते हैं- ' गया रे चला गया '. इसको
माया कहते हैं।
किन्तु सचमुच ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको '
मेरा ' कहा जा सकता हो. यहाँ क्या है ' मेरा ' ? जिसको मैं अपना समझ रहा
हूँ, वह सब एक दिन मेरे हाथों से बाहर निकल जायेगा. मेरे हाथों में कुछ भी न
रहेगा. यह बात ध्रुव सत्य है. यह जो सुखों के स्वप्न देख रहा हूँ, बड़े
सूख से रहूँगा, कैसा घर बनाऊंगा, कैसा परिवार बसाऊंगा - यही सब सोचते रहना
माया बद्ध होना है। यह बहुत बड़ी गल्ती है. इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं
हो सकता है।
किसी व्यक्ति ने ठीक ही कहा था- बंगला में
मेरा मेरा को ' आमार आमार ' कहा जाता है, इसीको माया कहते हैं, इसके चंगुल
बचने का रास्ता बिल्कुल सीधा है- ' सब आमार ' में से ' आ ' को मिटा दो, तो
क्या
बचेगा ? ' सब मार ' - अर्थात माँ के हैं ! मेरा मकान-दुकान-गाड़ी-स्त्री- पुत्र-पुत्री ' सब मेरे नहीं; मार - माँ के हैं। जन्म-मरण के नियम से बंधे हैं।
यह समझ लेने से हमलोग इस माया के बंधन से बच सकते हैं. पर इसे नहीं समझ सके और जिन्दगी भर ' मैं और मेरा ' सोचते रह गये, तो क्या होगा ? इसमें कुछ भी हाथों से छूट गया तो, बड़ा भारी दुःख होगा.( ' हम तुमसे जुदा होके - मर जायेंगे, रो रो के ? ' ) मुझे ऐसा प्रतीत होगा मानो मेरे सीने को चीर कर प्राण ही बाहर निकल गए हों. जबकि वास्तविकता यह है कि उसमें से कुछ निकला नहीं होता. मेरा क्या जा सकता है ?
बचेगा ? ' सब मार ' - अर्थात माँ के हैं ! मेरा मकान-दुकान-गाड़ी-स्त्री- पुत्र-पुत्री ' सब मेरे नहीं; मार - माँ के हैं। जन्म-मरण के नियम से बंधे हैं।
यह समझ लेने से हमलोग इस माया के बंधन से बच सकते हैं. पर इसे नहीं समझ सके और जिन्दगी भर ' मैं और मेरा ' सोचते रह गये, तो क्या होगा ? इसमें कुछ भी हाथों से छूट गया तो, बड़ा भारी दुःख होगा.( ' हम तुमसे जुदा होके - मर जायेंगे, रो रो के ? ' ) मुझे ऐसा प्रतीत होगा मानो मेरे सीने को चीर कर प्राण ही बाहर निकल गए हों. जबकि वास्तविकता यह है कि उसमें से कुछ निकला नहीं होता. मेरा क्या जा सकता है ?
मेरे भीतर जो सच्ची वस्तु है, वह इस संसार
ही नहीं पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर भी समाप्त नहीं होता,
उसको अतिक्रम करके भी अवस्थित रहता है।
जगत या विश्व-ब्रह्माण्ड कहने से जो
समझा जाता है, वह चाहे जितना बड़ा भी क्यों नहो, वास्तव में वह सीमित
है-ससीम है। किन्तु इस सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी को ही नहीं पूरे
विश्व-ब्रह्माण्ड के सीमा को पार करके भी मैं हूँ । यह मैं ही - ' पक्का-मैं
' या यथार्थ ' मैं ' है !
जिसको लेकर ' मैं और मेरा ' कह रहा था, वह सब '
कच्चा- मैं ' था, वास्तव में वह सब मरण-धर्मा था.
या ' मार ' यानि - माँ का था. जो पूरे जगत
की माँ हैं, जिन्होंने सबकुछ को उत्पन्न किया है, या सृष्ट किया है, उसी
के भीतर उसने मुझे भी पैदा किया है, या मेरी भी सृष्टि की है।
और उन्होंने ही मुझेसे कई स्थानों पर मकान-फ्लैट्स, गाड़ियाँ , रूपये-पैसे, नाते-रिश्ते - बनावाये हैं और उनके बीच मुझे भी रख दिया है। उसी जगन्माता ने यहाँ मुझे कुछ कर्म भी करने को दिए हैं. यह समझ लेने से- कि सारा जगत ' मार ' यानि माँ का है, मेरा नहीं मेरी माताजी का है- तब कोई चिन्ता नहीं रहती ।
और उन्होंने ही मुझेसे कई स्थानों पर मकान-फ्लैट्स, गाड़ियाँ , रूपये-पैसे, नाते-रिश्ते - बनावाये हैं और उनके बीच मुझे भी रख दिया है। उसी जगन्माता ने यहाँ मुझे कुछ कर्म भी करने को दिए हैं. यह समझ लेने से- कि सारा जगत ' मार ' यानि माँ का है, मेरा नहीं मेरी माताजी का है- तब कोई चिन्ता नहीं रहती ।
यह जगत, विश्व-ब्रह्माण्ड किन्तु एक ही
जगह से निकला है, जगत-जननी ने ही इसका प्रसव किया है, एक ही सत्ता सभी में
हैं; इसीलिए यहाँ कोई पराया नहीं है. इसीलिए सबों से प्यार करना चाहिए.
केवल अपने भाई-बहन, माँ-पिताजी, स्त्री-पुत्र, के लिए खटते रहना, केवल धन इकट्ठा
करने में ही लगे रहना क्यों चाहिए?
ठीक है, उनकी जिम्मेवारी मेरे उपर है, इसीलिए करता हूँ, यह भी गलत नहीं है, किन्तु सबों के लिए जितना कर सकता हूँ, कम सेकम उतना भी तो कर सकता हूँ. छोटे से सीमा में बद्ध रहने को त्याग कर बड़े सीमा में चले जाने को दया कहते हैं. छोटे से सीमा में बंधे रहने को माया कहते हैं. और छोटी से दायरे ' मैं और मेरा ' के हद को तोड़ कर, बड़े सीमा में - ' तूँ और तेरा ' - में जाने को दया कहते हैं.
ठीक है, उनकी जिम्मेवारी मेरे उपर है, इसीलिए करता हूँ, यह भी गलत नहीं है, किन्तु सबों के लिए जितना कर सकता हूँ, कम सेकम उतना भी तो कर सकता हूँ. छोटे से सीमा में बद्ध रहने को त्याग कर बड़े सीमा में चले जाने को दया कहते हैं. छोटे से सीमा में बंधे रहने को माया कहते हैं. और छोटी से दायरे ' मैं और मेरा ' के हद को तोड़ कर, बड़े सीमा में - ' तूँ और तेरा ' - में जाने को दया कहते हैं.
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