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बुधवार, 16 मई 2012

" अभेदानन्द का अवदान " pracharak Abhedananda-7

7.प्रचारक अभेदानन्द का अवदान 
इन दिनों ' राजनैतिक-नेता ' स्वयं को  समाज-सेवी कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं, किन्तु इस विशेषण को  यदि किसी सच्चे आध्यात्म-वादी व्यक्ति के नाम के साथ प्रयोग किया जाये तो, हो सकता है बहुत से राजनितिक नेता इसको अतिरंजित कहकर नाक-भंव सकुंचित करने लगें ! 
किन्तु यह एक ऐतिहासिक सत्य है, कि अब तक जितने भी लोक-नेता लोकहिताय, सर्वजन सुखाय, के उद्देश्य को सामने रख कर समाज-सेवा के कार्यों में सचमुच अपने जीवन को न्योछावर कर दिए हैं, वे सभी आध्यात्मिकता के बल पर ही वैसा कर पाने में सक्षम हुए थे। इतिहास का मंथन करने पर मानस-चक्षुओं के सामने जिन महान परमपुरुषों की छवि कौन्ध उठती है, उन्होंने त्याग को साथी बना कर ही, सेवा-कार्य में अपना ह्रदय-मन-प्राण समर्पित किया था. 
जीवन में त्याग रहे बिना समाज-सेवा करना सम्भव ही नहीं है. इसीलिए १९ वीं शताब्दी के उन सभी प्रातःस्मरणीय देश-सेवक मनीषियों के भीतर हमलोग त्याग एवं आध्यात्मिकता को ही मुख्य अवलम्बन के रूप में देख पाते हैं.
श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी अभेदानन्द आदि प्रमुख त्यागव्रती संन्यासी एवं नेताजी सुभाषचन्द्र, श्रीअरविन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, देशबन्धु चितरन्जन, महात्मा गाँधी प्रमुख देश-वरेण्य समाजसेवी थे. 
किन्तु इन सबों के बीच अन्यतम थे- स्वामी अभेदानन्द; जो स्वयं को पर्दे के पीछे छुपा कर रखे थे, किन्तु अपनी प्रखर-प्रतिभा, एवं कर्मठता के बलपर उन्होंने ने आध्यात्मिक-आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय-जीवन में अमूल्य योगदान दिया है. 
इसमें कुछ संदेह नहीं कि- भारतवर्ष एक आध्यात्म-मार्ग पर चलने वाला देश है. और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि, इसी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व-रंगमंच पर अवतीर्ण हुआ था, तथा इसी आध्यात्म के अस्त्र से ही पाश्चात्य के तर्कयुक्ति-वाद को खण्डित कर दिया था, जिसके फलस्वरूप विश्व-वासी के ह्रदय में एक उदार सर्वजनीन समन्वय का सन्देश उद्घोषित हुआ था. 
भारतवर्ष केवल दीन-दरिद्र पीड़ित, दुःख-दुर्दशा क्लिष्ट, अन्धविश्वास और कूसंस्कार में जलता हुआ, एक अपांक्तेय देश नहीं है, पाश्चात्य भूमि पर यह बात इन्हीं समस्त पून्यश्लोक सन्यासियों के कण्ठ से ध्वनित हुआ था. भारत के पास भी कुछ अमूल्य-सम्पदा है, जो पृथ्वी पर और कहीं नहीं है. यह बात गलत है कि, पृथ्वी को देने के लिए भारत के पास कुछ नहीं है. 
जिस प्रकार पाश्चात्य ने विश्व को विज्ञान एवं प्रद्द्यौगिकी का ज्ञान सिखाया है, उसी प्रकार भारत ने भी अपने अतीत के आध्यात्म-विज्ञान को विश्व के दरबार में पहुँचा दिया है. प्रौद्द्की-विज्ञान ने एक ओर जहाँ मनुष्य को ध्वंसात्मक क्रियाओं में शामिल किया है, वहीँ आध्यत्मविज्ञान ने उनके समक्ष जीवन-गठनकारी शिक्षा और दर्शन को प्रस्तुत किया है.
  इसीलिए पृथ्वी की वर्तमान परिस्थितियों को देख कर विख्यात इतिहासकार अर्नोल्ड टायनबी अपना उद्वेग प्रकट करते हुए कहते हैं - " इस गम्भीर संकट के समय में मानवजाति के परित्राण का एकमात्र उपाय है, भारतीयपथ - जहाँ समग्र मानवजाति एक साथ सम्मिलित होकर श्रीरामकृष्ण के समन्वय कारी दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए - ' मृत्यु से अमृत ' की ओर अग्रसर हो सकती है.
यही है भारत का समन्वय-दर्शन. इस दर्शन की बुनियाद पाश्चात्य भूमि पर सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द ने  रखा था, एवं उनके कार्य को आगे बढ़ाने में उनके सबसे बड़े सहयोगी बने थे उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द एवं अन्यान्य कुछ गुरुभाई. उनके बीच इस व्यापक ' मानव-सेवा कर्मधारा ' के कर्मयोगी के रूप में हमलोग स्वामी अभेदानन्द को बहुत लम्बे समय तक कार्यरत पाते हैं. 
वे एक ही आधार में जैसे सूदक्ष वक्ता, अच्छे लेखक और कर्मयोगी थे उसी प्रकार असाधारण आत्मज्ञान के अधिकारी थे. यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि आध्यात्म-विद्या की सहायता से ' समाज-सेवा ' कैसी हो सकती है ? उत्तर में कहूँगा- ' हाँ, सेवापरायण होने के लिए आध्यात्मज्ञान अपरिहार्य है. '
क्योंकि आध्यात्म तत्व-ज्ञान से ही त्याग का जन्म होता है, और सन्यासी का जीवन इसी त्याग के आदर्श पर उत्सर्गिकृत होता है. स्वामी अभेदानन्द के जीवन में हमलोग गीता में कहे गए कर्म-सन्यास को प्रत्यक्ष देख सकते हैं. उनका जीवन दूसरों के कल्याण के लिए उत्सर्गित था. ' आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च ' - अपनी आत्म-मुक्ति के साथ जगत का कल्याण, - दश का कल्याण, देश का कल्याण. 
आप्तपुरुष गण लोकशिक्षा के लिए ही जगत में आते हैं. मनुष्य को सटीक पथ पर चलाने के लिए वे लोग लोकायत शिक्षा का प्रवर्तन करते हैं. वह शिक्षा देश-काल-पात्र की सीमा को लांघ कर एक सर्वजनीन सर्वकालीन उत्तरण के आलोक से उद्भासित रहता है. महापुरुषों द्वारा कहे गये उपदेशों को हमलोग आप्तवाक्य कहते हैं. और यदि उन वाक्यों में भारतीय शाश्वत मूल्यों में समाहित समन्वय-दर्शन भी व्यक्त होता हो, तब मानों सोना पर सुहागा जैसे सुन्दर लगते हैं. 
 स्वामी अभेदानन्दजी पाश्चात्य में जिस सनातन सर्वजनीन धर्म और वेदान्त दर्शन के शिक्षा आदर्श को प्रचार करने गए थे, तब उन्हें जो विचित्र अनुभूति हुई थी, उसे एक सभा इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 
" प्राचीन ऋषियों से उत्तराधिकार के रूप में हमें जो सनातन धर्म मिला है, जाति-धर्म- देश-निर्विशेष मानव मात्र के कल्याण के लिए, उसका प्रचार एवं प्रसार करने में मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय बिता दिया है. हमलोगों के कार्यों के फलस्वरूप पाश्चात्य वासियों, विशेष कर अमेरिका वासियों के समक्ष  भारत की मर्यादा में प्रचूर वृद्धि हुई है. 
इन दिनों आपलोग सैंकड़ों भारतीय युवाओं- छात्रों को पढ़ते (या नौकरी-व्यापार करते) देख रहे हैं; किन्तु मैं जब १८९७ ई० में अमेरिका गया था, उस समय उस महादेश में मैं ही एकमात्र हिन्दू था, तथा अमेरिका के मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले दुष्प्रचार के विरुद्ध मुझे प्रबल संग्राम करना पड़ा था. 
क्योंकि उनदिनों जब भी कोई  मिशनरी हमलोगों के देश से वापस लौट कर अमेरिका जाता था, तो वहाँ हमलोगों के देश के बारे में सम्पूर्ण असत्य और भ्रांत धारणा का प्रचार करता था. ये समस्त इसाई मिशनरी लोग जिस ठगी-विद्या के सहारे धन-संग्रह करते थे, उसका एक उदाहरण देखिये. वास्तव में वे लोग हमारे पवित्र तीर्थों आदि की व्याख्या करते समय भ्रमित करने वाले पद्धति का व्यव्हार करते थे.  
मैंने देखा है, वहाँ के विभिन्न चर्च में जो सन्डे-स्कुल चलते थे, उसके पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय स्त्रियों के ऐसे  चित्र छपे रहते थे जिसमें दिखाया गया था कि भारतीय स्त्रियाँ; मगरमच्छ को खिलाने के लिए गंगा नदी में अपनी सन्तानों को फेंक रही हैं. और उस चित्र में दिखाया जाता कि बड़े बड़े मगरमच्छ अपना मुख फाड़े हुए है, और माँ को एक ऐसी काले रंग कि स्त्री के रूप में दिखाया जाता था जो अपने गौर-वर्ण  (गोरे लोगों से चंदा लेने के लिए ) के शिशु को उसी मगरमच्छ के मुख में फेंक रही है. और उसके नीचे लिखा होता था- ' हिन्दूधर्म का यही सर्वोच्च आदर्श है. ' 
मैं जब पहली बार अमेरिका गया तब लोग मुझे एक धर्महीन, असभ्य, बर्बर मनुष्य समझते थे. बहुत धैर्य पूर्वक प्रयास करके मैं अमेरकी लोगों की भारत-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं को दूर करने में सक्षम हुआ था. मुझे अपने गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द का स्मरण हो रहा है, जिसने डाक्टर बैरोज के सभापतित्व में शिकागो में आयोजित ' धर्म-महासम्मेलन ' में हमलोगों के देश के प्राचीन दर्शन, धर्म और संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया था. मुझे स्मरण है कि, उसी डाक्टर बैरोज ने अपने किसी व्याख्यान में कहा था कि- ' हिन्दू धर्म में पहले नैतिकता, धर्म, दर्शन आदि कुछ भी नहीं था, अभी उलोगों के पास जो कुछ भी है- वह सबकुछ इसाई मशीनरियों से सीखा हुआ है.'
उनके इस कथन का तीव्र प्रतिवाद करते हुए मैंने कहा था- अमेरकियों के सामने इसाई मिशनरी लोग जिस धर्म को ' यीशुक्रिष्ट ' का धर्म बोल कर प्रचार करते हैं, वह दरअसल भारत से आयात किया गया है- उसमें जो पवित्र जल का छिड़काव कर के बप्तिस्मा देने की प्रथा है, वह गंगा-घाट पर पवित्र ' गंगा-जल ' में स्नान करने की प्रथा से ही अनुप्रेरित है.
मैंने देखा है कि इसाई पौराणिक कहानियाँ तथा ' यिशुख्रिष्ट ' के उपदेश और कुछ नहीं- महान मानव-दरदी बौद्ध-धर्म के प्रतिष्ठाता गौतम बुद्ध के उपदेशों की स्मित प्रतिध्वनी मात्र हैं. पच्चीस वर्षों तक अथक परिश्रम करने के बाद मैं अमरीकियों को यह समझा सका हूँ कि ' वेद और उपनिषद दर्शन ' विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन हैं. वेद और उपनिषद के दर्शन में ही समस्त धर्मों के सार-तत्व विद्यमान हैं, तथा समस्त देशों में पीढ़ियों से संचित ज्ञान-भंडार की कूंजी भी निहित है. 
मुझे ऋगवेद एवं अन्यान्य वैदिक साहित्य के अनुवादक प्रोफेसर मैक्समुलर के साथ साक्षात्कार करने सूयोग   मिला था. कियेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पॉल डायसन ने ' उपनिषद का दर्शन ' नामक एक पुस्तक प्रकाशित किया था, उनके साथ भी मेरी बातचीत हुई है..." ( ' সর্বজনীন ধর্ম ও বেদান্ত ' পেজ-১০৫ : सर्वजनीन धर्म और वेदान्त )
स्वामी अभेदानन्द के द्वारा पाश्चात्य देशों में निरन्तर २५ वर्षों तक अथक परिश्रम से वेदान्त-प्रचार कार्य करने के फलस्वरूप वहाँ भारत के सर्वजनीन धर्मादर्श की एक दृढ आधार-शिला तैयार हो गयी थी. यूरोप अमेरिका में प्रचार कार्य करने के लिए उन्होंने सत्रह बार अटलान्टिक महासागर को पार किया था. भारतीय-दर्शन को पाश्चात्य वासियों के द्वार-द्वार तक पहुँचाने के लिए, स्वामी अभेदानन्दजी ने लन्दन, पेरिस, नियुयोर्क, शिकागो, संफ्रिसिसको, वर्कले, ब्रुकलिन, वार्क्शायर, कैलिफोर्निया, कनाडा के टोरेन्टो आदि विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिये थे. अलास्का से कनाडा होकर वे मैक्स्किको गए थे. 
हार्वर्ड के विख्यात मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स, अंग्रेजी में अथर्व वेद के अनुवादक प्रोफेसर लायनमैन, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जैक्सन, कर्नेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हिरम कार्सन, हैडसन आदि मनीषियों के साथ अभेदानन्दजी ने साक्षात्कार किया तथा उनके साथ सम्मानित अतिथि के रूप में विभिन्न सभाओं में एक ही मंच को सुशोभित भी किया था. 
केवल इतना ही नहीं, इनलोगों में से कई व्यक्ति भारतीय सनातन-धर्म के आदर्श से अभिभूत होकर इसी महान सेवा-व्रत में स्वयं को उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी ने भी इन सूमहान मनीषियों को अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में आदर के साथ ग्रहण कर लिया था. उनलोगों में वेदान्त-चर्चा के प्रति निष्ठा को देखते हुए अभेदानन्द ने उनको- शिवदास, हरिदास, रामदास, गुरुदास आदि नये नये नाम दिये थे. 
और जिन विदुषी महिलाओं ने इस सर्वजनीन धर्म आदर्श के प्रचार के लिए इस महान त्यागव्रत में अपने को समर्पित किया था उनका नामकरण- भवानी, शंकरी, नारायणी, सत्यप्रिया आदि किया था. सोचने से आश्चर्य होता है, जिस कपर्दकहीन सन्यासी को, कभी एक मुट्ठी अन्न पाने के लिए दरवाजे दरवाजे घूमना पड़ा था- आज वही सन्यासी पाश्चात्य के सभी गणमान्य लोगों के बीच श्रद्धेय बन गये थे. पाश्चात्य देशों के विख्यात कवि, गायक, लेखक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, चित्रकार, आविष्कारक, धर्म-पुरोहित, पर्वतारोही आदि गुणिजन उनके आन्तरिक मित्र बन गये थे.  
वह कौन सी शक्ति थी, जिसके बलपर उन्होंने पाश्चात्य वासियों का दिल जीत लिया था ? भारत की उस  एकमात्र ' शक्ति ' का नाम है - आध्यात्मिकता ! इसी कभी न समाप्त होने वाली - ' अनन्त-शक्ति ' के कारण पाश्चात्यवासी भारत की ओर उदग्रीव होकर देख रहे हैं. इस अनन्त-शक्ति का उत्स कहाँ है- इसी रहस्य को जानने के लिए भारत की ओर चकित दृष्टि से देख रहे है. 
वे लोग कौतुहल पूर्ण नेत्रों से आध्यात्म-तत्व का श्रवण करना चाहते हैं; तथा अनन्य सत्य अनुसन्धानी मन को लेकर ' भारतीय- समन्वय दर्शन ' को जानना चाहते हैं. अतः भारत के इस ' दर्शन ' ( एकम ' सत ' विप्राः बहुधा  वदन्ति ) को मात्र एक तात्विक बात नहीं समझना चाहिए, यह एक सर्वजनीन, सजीव, सतेज, और समन्वयकारी सत्ता है; जिसके माध्यम से मनुष्य पुनः नये ढंग से ' जीने की शक्ति ' प्राप्त कर सकता है. इसीलिए पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्दजी का अवदान एक उज्वल आलोकित दीपक की उस बाती के जैसा था, जिसके समक्ष उनलोगों का वह अकस्मात प्रज्वलित हो उठा ' वैज्ञानिक लौ ' भी निष्प्रभ हो गया था. दिशाहीन मनुष्य को अमावस्या के अंधकार से बाहर निकलने के पथ को आलोकित कर दिया था. वे मानों ऊपर उठाने वाले सोपानों का दिग्दर्शन कराने वाला पथ-निर्देशक (नेता ) थे. वे मानों ' आकाश-दीप ' बन कर आनन्दलोक, अमृतलोक तक पहुँचने के मार्ग पर, जीव को सबुज निशाना का संकेत दिखा कर, जीवन-सत्ता का दिशारी बना देता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी ने अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्युट में ' भारत की सभ्यता और संस्कृति ' के उपर धारावाहिक रूप से व्याख्यान देकर भारत को प्रतिष्ठित किया था. परवर्तीकाल में इसकी ही परिणति
स्वरुप ' India and Her people ' शीर्षक से उन भाषणों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक ने स्वामी अभेदानन्दजी को सम्पूर्ण विश्व में भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति का धारक, वाहक और प्रतिनधि के रूप में परिचित करवाया था. देश-विदेश के बहुत से पाठक इस ग्रन्थ को पढ़ कर आनन्द से अभिभूत होकर इसके लेखक को एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में स्वीकार कर लेता है. 
इस पुस्तक के एक गुणमुग्ध पाठक विख्यात इतिहासकार रमेशचन्द्र दत्त ने अपनी अभिज्ञता के आधार पर इसके सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है- ' मैं इतने वर्षों तक परिश्रम करके भी जो कर पाने में अक्षम रहा हूँ, उसे आपने ( स्वामी अभेदानन्द ने ) इस छोटी सी पुस्तक में समस्त कह दिया है. समस्त भारतवासियों के लिए इस पुस्तक का अध्यन करना अनिवार्य कर्तव्य है. ' 
क्या भारत की अनमोल (पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित कर देने वाली ) शिक्षा-संस्कृति को विश्व रंगमंच से प्रचारित करना हमलोगों के सामाजिक दायित्व और नैतिक कर्तव्य के अंतर्गत नहीं है ? 
जो लोग विवेक-वान पुरुष हैं, वे केवल अपना सुख-स्वाछ्न्द भोग करने के लिए शरीर धारण नहीं करते हैं, वे लोग साधारण जनता के लिए - ' बहुजनहिताय बहुजनसुखाय ' ही जन्म ग्रहण करते हैं, एवं इसी उद्देश्य के लिए ( केवल मानवता की सेवा के लिए ) अपने तन-मन- प्राण को न्योछावर कर देते हैं.
 शिक्षा के क्षेत्र में भी स्वामी अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम है.स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में उनका कहना था- समाज के आधे मनुष्यों को अशिक्षित रखने से समाज की प्रगति कभी सम्भव नहीं हैं. नारियों को यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना समाज का आवश्यक कर्तव्य है. नारियों को सम्मान देना, उनकी मर्यादा को स्वीकृति देना एवं उनको यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना ह्लोगों के देश की संस्कृति और आदर्श के अंतर्गत मानते हैं। वे कहते थे कि यदि नारियों की अवमानना  होती हो, स्त्री-शिक्षा की अवहेलना की जाति हो तो वैसा करना भारतीय संस्कृत के विरुद्ध आचरण माना जायेगा. अपने प्राचीन आध्यात्म शास्त्रों में भी अभेदानन्दजी के मत को समर्थन मिलता है. वहाँ कहा गया है- 
' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|
यात्रास्तस्य न पूज्यन्ते सर्वास्त्रफला क्रियाः ||  
(मनुसंहिता ३/ ५६ )
- अर्थात जहाँ नारियों को श्रद्धा के साथ पूजा जाता है, वहाँ देवता गण भी आनन्द से आगमन करते हैं; और जहाँ नारियों का असम्मान होता है, वहाँ देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया गया कोई भी याग-यग्य आदि सुफल प्रसव नहीं करते. 
इसीलिए स्त्री-शिक्षा का प्रचार जिस प्रकार शास्त्र सम्मत है, उसी प्रकार गणतान्त्रिक देश का नैतिक कर्तव्य भी है, स्त्री-पुरुष को समान अधिकार देना सामाजिक-न्याय की नीति के अनुरूप है. यहाँ एक दूसरे का परिपूरक है, इसलिए प्रत्येक पुरुष का यह कर्तव्य है कि वह नारी-शिक्षा का विस्तार करने में सहायता करे, इस सम्बन्ध में हमलोगों को उदार होना चाहिए. 
शिक्षा-व्यवस्था के प्रसंग में अभेदानन्दजी जिस प्रकार उन्नत मत के पक्षधर थे, उसी प्रकार हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के क्षेत्र में भी उन्नतमना थे. ' हमलोग क्या चाहते हैं ? ' - के विषय पर वे कहते थे- हमलोगों के राष्ट्रिय शिल्प को विकसित करने की नीति होनी चाहिए, जनसाधारण को राष्ट्रिय-शिक्षा नीति के अनुरूप शिक्षित किया जाय, राष्ट्रीय एकता को दृढ करने के लिए ' संगठन -शक्ति ' में वृद्धि की चेष्टा होनी चाहिए. 
अन्यान्य देशों के राष्ट्रीय आदर्श से हमारा देश का आदर्श (जीवन-ध्येय ) भिन्न होकर भी अभिन्न  है,  
इसीलिए हमारे इस पराधीन देश को पहले स्वाधीनता मिलनी चाहिए ! 
वे कहते थे, हमलोगों के देश की स्वाधीनता का आदर्श जगत के समस्त देशों और जातियों के आदर्श (जीवन-ध्येय ) से महत्तर होगा. पाश्चात्य देशों से हमें क्या सीखना चाहिए- इसके बारे में उन देशों में अपनी २५ वर्षों के अभियान की अभिज्ञता के आधार पर कहते हैं- पाश्चात्य देशों की राष्ट्रिय एकता, संगठन शक्ति, और अनुशासित ढंग से कार्य करने की पद्धति, हमारे लिए सीखना उचित है.
भारत के नागरिकों में आज यह शिक्षा नहीं है, इसीलिए आज हमलोग अन्य सभी देशों और जातियों के बीच. पददलित, अधोपतित, और अपांक्तेय के रूप में देखे जा रहे हैं. हमलोग आज  यूरोप अमेरिका, या जापान में जो चरम उन्नति का उत्कर्ष देख रहे हैं, उसका कारण है कि वहाँ के नागरिक राष्ट्र-कल्याण की योजना का निर्माण और उसका क्रियान्वन  उद्देश्य की एकता- ' Unity of Purpose को ध्यान में रख कर करते हैं. उनके भीतर 
स्वदेश-प्रेम कूट कूट कर भरा हुआ है, वे कहते हैं- ' मेरा अस्तित्व भी मेरे देश के कल्याण के उपर ही निर्भर करता है। ' इसीलिए उनसे हमलोगों को यह सीखना होगा कि हमलोग भी देशभक्ति से ओतप्रोत कैसे हो सकते हैं ?
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे पाश्चात्य के सभी कुछ अच्छा कहते थे और देश के सभी बातों को बुरा कहते थे, वे कहते हैं - ' पाश्चात्य के प्रौद्द्गिक विद्या के आलोक में हमलोगों को अपनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को और भी उन्नततर बनाना होगा.'
जिस प्रकार भारत ने अपने सर्वजनीन वेदान्त के समन्वय-धर्म आदर्श के द्वारा पृथ्वी को नयी रौशनी दिखाने में सहायता किया है, उसी प्रकार हमलोगों को पाश्चात्य देशों से यह सीखना पड़ेगा कि ' संघबद्ध ' हो कर कैसे कार्य किया जाता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी केवल निजी आत्मुक्ति से संतुष्ट नहीं थे, वे समग्र भारत-आत्मा तथा विश्व- कल्याण कामना से ओतप्रोत होकर मानव-जाति के एक मार्गदर्शक (नेता) की भूमिका का निर्वहन करते हुए कहते थे- 
" We must not stop simply after doing something that will help our own nation but we must go on doing things that will help not only nations, not only human being but all living creatures, lower animals, plants. "
' हमें केवल अपने देश के कल्याण में सहायता करने से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि  उन कार्यों को 
निरंतर करते रहना चाहिए जिससे विश्व के समस्त देशों के न सिर्फ मनुष्यों का बल्कि क्षूद्र जीवों से लेकर
 पेंड-पौधों तक का कल्याण होता हो। '
वे तथाकथित संकीर्ण-समाज बद्ध जीव मात्र नहीं थे, उनके लिए समाज से तात्पर्य था पूरा विश्व का 
मानव-समाज ! किन्तु उन दिनों के भारत के लिए स्वामी अभेदानन्दजी की मार्गदर्शक (नेता) वाली यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. सामाजिक-संस्कृति में सुधार करने के लिए ही मानों उनको एक समाज-शिक्षक की भूमिका में जन्म लेना पड़ा था.
  इतना ही नहीं वे ' आत्मज्ञान ', ' आत्मविकास ', ' ईश्वरदर्शन का उपाय, ' कर्म-विज्ञान ', ' पुनर्जन्म-वाद ', ' बीसवीं शताब्दी का धर्म ', ' सांसारिक प्रेम और भगवत प्रेम ', ' भारत और इसकी संस्कृति ', ' मृत्यू के पार ',
' मन का विचित्र रूप ', ' मनुष्य का दिव्य स्वरुप ', ' मुक्ति का उपाय ', ' मृत्यू रहस्य ', ' युगों युगों में जिनका आगमन होता है ', ' योगदर्शन और योगसाधना ', ' योगशिक्षा ', ' शिक्षा-समाज और धर्म ', ' सर्वजनीन धर्म और वेदान्त ', ' सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शन ', ' स्वामी विवेकानन्द ' एवं ' हिन्दूनारी ' आदि असाधारण ग्रंथों की रचना करके विद्वत समाज में चिर अमर हो गये हैं. 
स्वामी अभेदानन्दजी अपने कर्म-बहुल जीवन के सुदीर्घ २५ वर्ष के समय को यूरोप अमेरिका में बिताने के बाद १९२१ ई० के जून में जन्मभूमि भारतमाता के पास लौटने की यात्रा शुरू किये. किन्तु अथक परिश्रम करते हुए ही इसका पूरा जीवन बीता हो, क्या वह निष्क्रिय हो कर बैठ सकते थे ? कर्म ही जिसका धर्म था, वह कर्मयोगी क्या अकर्मण्य हो कर बैठे रह सकते थे ? इसीलिए सैनफ्रांसिस्को से प्रशान्त महासागर होकर वापस लौटते समय देखते हैं कि वे जापान, संघाई, हांगकांग, कैंटन, मनिला, सिंगापूर, कोयलालमपूर और रंगून आदि स्थानों का परिभ्रमण करके, वहाँ भी  भारतीय वेदान्त दर्शन का सर्वजनीन आदर्श को प्रतिष्ठित करा रहे हैं. इसके बाद कुछ दिनों तक बेलूड़ मठ में अवस्थान करने के बाद पुनः तिब्बत, काश्मीर और लहासा के अंचलों का भ्रमण करने निकल पड़े थे. 
अभेदानन्दजी के २५ वर्षों तक पाश्चात्य परिभ्रमण के दौरान बीच में एकबार १९०९ ई० में ६ महीने के लिए भारत में प्रथम प्रत्यावर्तन के अवसर पर भारत में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी, उसके बारे में एक प्रत्यक्षदर्शी मनीषी प्रोफेसर विनयकुमार सरकार कहते हैं - " कोलम्बो में जहाज से उतरते ही अभेदानन्द देशवासियों के द्वारा पूजित होने लगे. यह अभ्यर्थना लगातार छः महीनों तक- मद्रास, कोलकाता होते हुए मुंबई से भारत छोड़ने के समय तक चलती रही. लगता है सौ से अधिक सम्वर्धना-सभाएं हुई होंगी....स्वामी अभेदानन्द के पीछे समग्र भारत मतवाला होकर एक साथ हो गया था. भारतीय एकता अभेदानन्द सम्वर्धना के माध्यम से मूर्तमान हो उठी थी. वह एक अभिनव दृश्य था. " 
पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्द के प्रचार-साफल्य को प्रत्यक्ष देख कर,  एवं उनके श्रीरामकृष्ण-भाव आन्दोलन तथा भारतीय दर्शन और संस्कृति के व्यापक प्रचार कार्य से अभिभूत होकर, अध्यापक विनयकुमार सरकार ने कहा था - " ' विवेक और अभेद ', ये दोनों मानों इस युग में जन्मे हमारे ' अश्विनीकुमार- द्वय '  हैं. " भारतीय संस्कृति को विश्व-पटल ( दरबार ) पर उच्च-स्थान दिलाने में विवेकानन्द और अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम था; विशेषतः पाश्चात्य भूमि पर अभेदानन्द की अतूलनीय अवदान को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता. इस बात को विनयकुमार सरकार एक वाक्य में स्वीकार करते थे।
अभेदानन्दजी के भीतर जिस प्रकार सर्व मानवों की हित कामना से एक उत्सर्गित जीवन का दर्शन कर सकते हैं, उसी प्रकार सूगम्भीर प्रज्ञा ( भ्रम रहित ज्ञान ) के आलोक में उपलब्धी-प्राप्त जीवन और पर्वतप्रमाण पांडित्य को प्रत्यक्ष किया जा सकता है जिसके द्वारा उन्होंने भारतीय धर्म- दर्शन और संस्कृति को विश्व-पटल 
पर प्रतिष्ठित करा दिया था। इसके माध्यम से उनके भीतर हमलोग चारित्रिक महत्व की दृढ़ता भी देख सकते हैं।                        
                    उनकी सू-निपुण लेखनी से उद्घाटित हुई है, भारतीय अमूल्य आध्यात्मिक-सम्पदा के निगूढ़ तत्व, जिसके द्वारा विश्व-वासी पाए थे और पा रहे हैं- ' परम प्रशान्ति '! उनकी असाधारण भाषण को सुन कर जिस प्रकार पश्चात्यवासी मंत्र-मुग्ध हुए थे, उसी प्रकार स्वयं विवेकानन्द भी मुग्ध हुए थे. अभेदानन्दजी द्वारा पाश्चात्य में ' पंचदशी ' के उपर दिये प्रथम- व्याख्यान को सुन कर स्वयं स्वामीजी अभिभूत हो गये थे, और  लन्दन की उस महासभा में समस्त विद्वत-जनों के समक्ष उद्दात कण्ठ से घोषणा किये थे- ' मैं यदि शरीर-त्याग दूँ तो मेरे इसी प्रिय गुरुभ्राता के कण्ठ से ध्वनित होगी मेरी वाणी एवं समग्र जगत उसे सुनेगा. '
स्वामीजी की यह वाणी विफल नहीं हुई थी, उसका एक एक शब्द वास्तविकता में रूपांतरित हुआ था. तथा उनकी उसी असाधारण वाग्मिता से विमुग्ध होकर उत्तरण करने के मार्ग पर बहुत से जनसाधारण ने अपना बहुमूल्य जीवन उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक चरम वाग्मिता के इतिहास-पुरुष हैं. अमेरिका जैसे स्थान में वे चार-पांच स्थानों में व्याख्यान देते थे. उनके भाषण से विमुग्ध होकर कैप्टन सेभियर ने कहा था- " Swami Abhedananda is a born preacher, wherever he will go he will succeed."
स्वामी अभेदानन्दजी में भारतीय-संस्कृति के प्रति जो सहमर्मिता थी, वह पाश्चात्य में प्रचार कार्य करते समय प्राणधर्मिता बन कर उनकी कण्ठ-वीणा से झंकृत हुई थी. जिसके माध्यम से प्राच्य और पाश्चात्य के बीच स्नेह-बंधन प्रगाढ़ हुआ था, - जिनकी वाणी में एक समन्वयकारी जीवनी शक्ति थी. पाश्चात्य जड़वादी सभ्यता और संस्कृति तथा विश्व-सभ्यता जहाँ रंगीन आलोक से जगमग दिख रही हो, वहाँ स्वामी अभेदानन्दजी भारत-सभ्यता रूप स्निग्ध सूमधुर चांदनी के नये आलोक से आलोक से आलोकित कर दिये थे विश्ववासियों के ह्रदय-मन्दिर को. यद्दपि वह आलोक वैज्ञानिक आलोक की तुलना में बहुत हलका है, तथापि वह शाश्वत सत्य के गौरव से उज्ज्वल महिमा से महिमान्वित और उत्तरण की दिशा का पथ प्रदर्शक था. 
अँधेरे खान के गर्भ को क्षूद्र मुक्ता-मणि जिसप्रकार अपनी ज्योति से निशाना दिखाता है, उसी प्रकार पाश्चात्य के अंधकार दुर्योग्पूर्ण आकाश में भारतीय संस्कृति एक उज्जवल दीपशिखा के रूप में उद्भाषित हुई थी,  एवं उसी दैदीप्यमान आलोक की प्रभा से समग्र विश्वासी आज भी मुखरित हैं, जिसके उत्स के संधान में उन्मुख हो कर वे लोग आज भी भारत के गली-कूंचों, मठों-मन्दिरों, पहाड़ों -कन्दराओं में सर्वत्र एक उद्भ्रांत पथिक बन कर घूम रहे हैं, उसी अनन्त आध्यात्मिक शक्ति के संधान में पथ को भूले पथिकों के लिए स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक पथ-प्रदर्शक हैं.
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* ' মাতৃশক্তি ' শারদীয়া ১৪ ১৪ স্ন্খ্যায় প্রকাশিত 
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