गुरुवार, 24 मई 2012

धर्म का अर्थ है-चरित्र. [10]

१०प्रश्न : धर्म से हमलोगों का क्या उद्देश्य सिद्ध होता है ?
उत्तर : धर्म का अर्थ हमलोगों के लिए मन्दिर,मस्जिद,गिर्जा में जाना या ललाट में तिलक लगाना, या रामनवमी के दिन माथा में लाल कपड़ा बांध कर ' जय श्रीराम ' कहते हुए डण्डा-तलवार भांजना नहीं है; यहाँ जिस नये धर्म पर चर्चा हो रही है, वह धर्म कहता है कि हमलोग किस प्रकार ' पशु-मानव ' से यथार्थ मनुष्य में या ' देव-मानव ' में रूपांतरित हो सकते हैं ? स्वामीजी ने कहा है- धर्म का अर्थ है, स्वयं अच्छा बनना तथा अच्छे कार्य करना. इसीलिए धर्म के द्वारा ही हमलोगों का समस्त उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. धर्म क्या है 
धर्म का अर्थ है-चरित्र. स्वामीजी ७ जून १८९६ को भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र में कहते हैं- " संसार के धर्म प्राणरहित उपहास की वस्तु हो गये हैं. जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है." (४/४०८) 
स्वामीजी की उक्ति है- ' धर्म का तात्पर्य है, Be good and do good, this is the whole of religion.' धर्म का अर्थ है-स्वार्थशून्यता. वे कहते हैं- Unselfishness is God. - निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है. 
 इस प्रकार के धर्म की आवश्यकता निश्चित रूप से आज के समाज में है. धर्म का अर्थ है चरित्र अर्जन करना।
धार्मिक मनुष्य या चरित्र-वान मनुष्य बन जाने का अर्थ है- विशाल ह्रदय का अधिकारी बन जाना. पशुत्व को हटाकर, मनुष्यत्व को अर्जित करना. ऐसा बृहत,ऐसा महिमामय, ऐसा सुंदर, ऐसा उदार, ऐसा शक्तिशाली,तना तेजस्वी मनुष्य बन जाना, कि स्वयं को कभी, किसी भी परिस्थिति में मामूली  मनुष्य ( या मन का
 गुलाम मनुष्य ) जैसा अनुभव नहीं करूँगा, निरन्तर ऐसा अनुभव होगा मानों मैं देव-मनुष्य में रूपांतरित हो चुका हूँ. 
इस धर्म की आज घोर आवश्यकता है, एवं इस धर्म में कमी आने से ही आज के समाज में इतना अकल्याण दिखाई दे रहा है.

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन
लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

बेनामी ने कहा…

धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) ।
व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
धर्म एवं ‘ईश्वर की उपासना द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

बेनामी ने कहा…

वर्तमान युग में धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।