मंगलवार, 15 मई 2012

" वेदान्तिक अभेदानन्द " Pracharak Abhedananda -4.

4.वेदान्तिक अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्द श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-लीलापार्षदों में अन्यतम पार्षद थे. उनका जन्म २ अक्तूबर १८६६ को उत्तर कोलकाता के आहिरीटोला में हुआ था. उनके पुर्वाश्रम का नाम काली-प्रसाद एवं पिता का नाम रसिकलाल चन्द्र था. माता का नाम नयनतारा देवी था. बचपन में उन्होंने आहिरीटोला स्थित यदु पण्डित की पाठशाला में, तथा बाद में बंग विद्यालय एवं ओरिएंटल सेमिनरी में शिक्षा ग्रहण किया था. पढ़ने-लिखने में वे एक मेधावी छात्र थे. 
किन्तु बचपन से ही उनमे योगसाधना के प्रति तीव्र आकर्षण था. इसी योगसाधना के प्रति गहरे आकर्षण को लेकर १८८३ ई० वे श्रीरामकृष्ण के सानिध्य दक्षिणेश्वर आ गए. श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद को देखते ही पहचान लिया एवं कहा - ' अपने पूर्वजन्म में तूँ एक योगी था. तुम्हारा कुछ बाकी रह गया था. यही जन्म तेरा अंतिम जन्म है. ' जौहरी-श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद रूपी खरे सोने को ठीक ठीक पहचान लिया था. 
श्रीरामकृष्ण कालीप्रसाद से बहुत स्नेह करते थे, वे कहते- ' लडकों में तूँ बुद्धिमान है. नरेन के नीचे ही तेरी बुद्धि का स्थान है. नरेन जिस प्रकार एक मत चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे. ' श्रीरामकृष्ण का यह आशीर्वाद उनके उपर वर्षित हुआ था. परवर्तीकाल में उनके कर्म-दक्षता को देखने से यह महसूस होता है कि श्रीरामकृष्ण का आशीर्वाद सत्य सिद्ध हुआ था.
कालीप्रसाद तार्किक व्यक्ति थे. युक्ति-तर्क के कसौटी पर परखने के बाद ही वे किसी बात को ग्रहण करते थे. उस समय श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ थे, सेवा-शुश्रूषा करने के उद्देश्य से उनको काशीपुर उद्द्यानबाड़ी में रखा गया था. उस समय काली-महाराज भी श्रीरामकृष्ण की सेवा में नियुक्त रहते थे. एक दिन सेवक कालीप्रसाद काशीपुर उद्द्यान के भीतर तालाब में बंशी डाल कर मछली पकड़ रहे थे. यह बात सुनकर श्रीरामकृष्ण ने उनको मना किया और कहा- ' उस प्रकार बंशी से मछली नहीं पकड़ना चाहिए. बंशी के हुक में चारा डाल कर मछलियों को जल से बाहर खींच लेना उचित नहीं है.' इतना ही नहीं बंशी डाल कर मछली पकड़ने की बात सुन कर ठाकुर को कष्ट भी हुआ था. किन्तु काली-महाराज तो वेदान्ती थे.
वेदान्त के युक्ति-तर्क को वे पसन्द करते थे. ' नेति नेति ' कर के ' ईति ' तक पहुँचना उनका उद्देश्य था.
काली-महाराज शास्त्र-वचनों को केवल शास्त्रों में ही आबद्ध नहीं रखना चाहते थे. शास्त्र के तत्वों को वे व्यवहार में और अपने आचरण में उतार कर मिलान करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने श्रीरामकृष्ण से ( शास्त्र की बात को तर्क के आधार पर व्याख्या करते हुए)  कहा-
' शास्त्रों में कहा गया है- आत्मा अमर, नित्य, शाश्वत है. जिसको अग्नि में जलाया नहीं जा सकता, शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, तथा आत्मा का अस्तित्व सर्वत्र है. ' आत्मा किसी की हत्या नहीं करता, किसी के द्वारा हत भी नहीं होता.' इसलिए ' मछली की हत्या भी नहीं होती,या हमलोगों के द्वारा वह हत भी नहीं
 होता '  क्योंकि मछली भी तो आत्म-स्वरुप है." (यदि कोई अज्ञान में भी पाप करता है, तो उसका पाप आत्मा को नहीं उसके मन (अहम् ) को लगता है ? )
इसीप्रकार कालीप्रसाद सूतीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा अपने मत को प्रतिष्ठित करा सकते थे.अपने इस स्नेहभाजन सन्तान के युक्ति-तर्क को सुन कर श्रीरामकृष्ण भी उनकी प्रशंशा करते थे किन्तु उस समय उनको समझाते 
हुए कहा " जब तक तुम स्वयं आत्मसाक्षात्कर नहीं कर लेते तब-तक इस तर्क के आधार पर जीव-हत्या 
करना ठीक नहीं है। तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि आत्मसाक्षात्कार की  अवस्था में युक्ति-तर्क करने 
वाला अहम् या ' काचा आमी ' (मैं-पन) नहीं रह जाता। जो उस अवस्था का अनुभव कर लेता है, वह सभी जीवों के प्रति एकात्मबोध का अनुभव करता  है, तथा प्रत्येक जीव के प्रति करुना का अनुभव करता है। वह साधू समस्त संस्कारों ( मानसिक वृत्तियों ) से
मुक्त हो जाता है, किन्तु करुना और सेवा की मानसिक वृत्ति जीवन के अंतिम क्षणों तक बनी रहती है।
इसीलिए साधू को अपना आदर्श कभी नहीं त्यागना चाहिए। "  
[ 'What you are saying is true. But at your state of development, before you have realized the Atman, it is not good to discriminate in that way and kill any creature.
 You should know that realization of the Atman is a state of attainment beyond all logic and reason. He who attains that state feels compassion for all beings. A holy man is freed from all samskaras (tendencies of the mind), but the thought-wave of compassion stays with him to the last moment of his life. Never give up the ideal of a holy man!']
 फिरभी ऐसी बुद्धि-दीप्त प्रतिभा के लिए श्रीरामकृष्ण उनसे बहुत स्नेह करते थे. यही काली-महाराज श्रीरामकृष्ण की कृपा से वेदान्त के चरम उपलब्धी के स्तर तक पहुँच गए थे. उन्होंने जिव-जगत सभी वस्तुओं के भीतर आत्मा का दर्शन किया था. श्रीरामकृष्ण के निर्देशानुसार वे जो कुछ दर्शन करते श्रीरामकृष्ण से कह सुनाते थे.
एक दिन काली-महाराज श्रीरामकृष्ण के चरणों को सहला रहे थे.
 इसी समय उनको अनुभव हुआ - ' मानो श्रीरामकृष्ण ही स्वयं जगन्माता हैं. एवं मातृरूप धारण कर के उनको अपना स्तन पान करा रहे हैं.इस अद्भुत अनुभूति के प्रसंग का वर्णन अभेदानन्द महाराज अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है-
  ' एक दिन वे (अभेदानन्दजी)  समाधी में चले गए थे. उनका वाह्य-ज्ञान पूरी तरह से चला गया था. वे मानो अनन्त-आकाश के नीचे मुक्त पंछी के जैसा विचरण कर रहे थे. इस सम्पूर्ण जगत को ध्यान में देख रहे थे. विचरण करते हुए वे एक अतीन्द्रिय जगत में जा पहूंचे थे, देखते हैं एक भव्य भवन है. उसी विराट भवन में वे अकेले ध्यान मग्न हैं. 
और उस भवन के मध्यमणि होकर बैठे हुए हैं श्रीरामकृष्ण. वे मानो सूर्य के जैसा एक प्रकाशपुंज हों और उनके भीतर से रश्मियों के रूप एक एक देवताओं की प्रतिमुर्तियाँ प्रस्फुटित हो रही थीं. फिर देखते हैं समस्त देव-देवियाँ मानो पुनः उन्हीं के भीतर समाती जा रही हैं.
  इस अद्भुत दर्शन का जब कोई मर्म समझ में नहीं आया तो श्रीरामकृष्ण के पास जाकर उनको बताया. श्रीरामकृष्ण उनके इस दर्शन को सुन कर बोले- ' तुमको वैकुण्ठ का दर्शन मिल गया है. तुमने समस्त देव-देवियों का दर्शन कर लिया है, एवं तुम अखण्ड घर तक जा पहूंचे हो. इसके बाद फिर तुमको किसी देव-देवी का दर्शन नहीं होगा. '  
काली-महाराज ने इस दर्शन के समय यह अनुभव किया था कि, भगवान श्रीरामकृष्ण ही समस्त अवतारी पुरुषों के घनीभूत विग्रह हैं. श्रीकृष्ण, ईसामसीह, जराथ्रुष्ट, नानक, चैतन्य, शंकराचार्य, यहाँ तक कि दशावतार में गण्य- मत्स्य, कूर्म, से लेकर श्रीरामचन्द्र, बुद्ध आदि समस्त अवतार ही मानो श्रीरामकृष्ण में समाहित होकर एकाकार हो गए हैं. ठाकुर उनके इस दिव्य-दर्शन की बातों को सुन कर पुनः बोले- ' वैकुण्ठ का दर्शन कर लेने के बाद तुम सरूप-दर्शन की चरम सीमा तक पहुँच गए हो, अब तुम्हारे लिए और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं है. अब से तुम अरूप और निराकार के क्षेत्र में उठोगे. '
 श्रीरामकृष्ण की कृपा से समस्त देव-देवियों का दर्शन करके कठोरी काली-महाराज का नाम ' काली-तपस्वी ' पड़ गया. 
इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने १६ अगस्त १८८६ ई० को अपनी नरलीला का समापन कर दिया. सभी गुरुभाई लोग एकत्रित होकर वराहनगर मठ में आश्रमी जीवन बिताने लगे. श्रीरामकृष्ण ने उन सबको त्यागव्रत में अग्रसर करने के उद्देश्य से गेरुआ-वस्त्र तो दिया था, किन्तु अनुष्ठानिक विधि-विधान से सन्यास-दीक्षा नहीं प्रदान की थी.
बाद में बड़ानगर मठ में विरजाहोम करके उनलोगों ने  आनुष्ठानिक विधि से भी सन्यास ग्रहण कर लिया था.  सन्यास लेने से पहले विरजाहोम करना पड़ता है. इस विरजाहोम के लिए हवनसामग्री, मन्त्र, मठ. मड़ी इत्यादि वस्तुओं का जोगाड़ काली-महाराज ने किया था. सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज का नाम - ' स्वामी अभेदानन्द ' हो गया था. क्योंकि साधना के द्वारा उन्होंने अभेद-तत्व की अनुभूति प्राप्त की थी.
सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज परिव्राजक के वेश में विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करने निकल पड़े. 
काली-महाराज तपस्वी थे, वे बहुत कठोर तप करते थे. इसीलिए बड़ानगर मठ में उनका एक अलग कमरा था. उस कमरे को ' काली- तपस्वी ' का कमरा कहा जाता था. फिर वे वेदान्त की भी गहराई ( 'नs आसीत, नs अस्ति, नs भविष्यति ') में भी प्रवेश कर जाते थे, वेदान्त-चर्चा करने में बड़े पारंगत थे, इसीलिए कोई कोई
उनको ' काली-वेदान्ती ' भी कहा करते थे.
काली-महाराज पैदल ही काशीधाम पहुँच गए. वहाँ पहुँच कर तैलंगस्वामी, भाष्करानन्द सरस्वती के साथ वेदान्त विचार किये. इसके अतिरिक्त पहाड़ो की कन्दराओं में भी उन्होंने कठोर तपस्या की थी. हृषीकेश के कैलास मठ में धनराज गिरी से उन्होंने वेदान्त-दर्शन के शंकर भाष्य की शिक्षा ली थी. वे बहुत एकांत-प्रिय थे, तथा कपर्दकहिन् तपस्वी के रूप में तीर्थ-भ्रमण किया करते थे. 
बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद जब वे १८९५ ई० में वापस लौटे, तो मठ बड़ानगर से स्थानान्तरित होकर आलमबाजार में जा चुका था. वहां पर भी वे गम्भीर साधन-स्वाध्याय और शास्त्र अध्यन में निमग्न रहते थे.  इसी समय १८९६ ई० में स्वामी विवेकानंद के आह्वान पर वेदान्त का प्रचार करने के लिए वे पाश्चात्य गए. पाश्चात्य में २१ अक्तूबर १८९६ को लन्दन के ' क्राइस्ट थिओसोफिकल सोसाईटी ' में, उन्होंने अपना पहला व्याख्यान दिया था. उनके भाषण का विषय था, वेदान्त का ' पंचदशी '.
  स्वामी विवेकानन्द ने उनके प्रथम व्याख्यान को सुनने के बाद उपस्थित श्रोताओं के बीच घोषित किया था-
" Even if I perish out of this plane, my message will be sounded through these dear lips and world will hear it. "
 अर्थात, " जब मैं इस स्थूल शरीर में नहीं रहूँगा, तब मेरी वाणी को जगतवासी मेरे गुरुभ्राता स्वामी अभेदानन्द के कण्ठ से सुनेंगे. "
 स्वामीजी का यह आशीर्वाद वर्षित हुआ था, एवं उनके आशीस के कारण ही, अभेदानान्दजी ने  अमेरिका में निरन्तर २५ वर्षों तक वेदान्त प्रचार के कार्य में निमग्न रहे थे.स्वामीजी के निर्देश पर अभेदानन्दजी १८९७ ई० में लन्दन से अमेरिका चले गए. अमेरिका के न्यू यार्क शहर में उन्होंने वेदान्त, गीता, और धर्म के ऊपर ३ महीनों में लगभग ९० व्याख्यान दिए थे.
  अमेरिका के समस्त बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में नियमित रूप से उनका व्याख्यान हुआ करता था. उस समय के अमेरकी राष्ट्रपति मैककिनली के आमंत्रण पर उनके साथ भारतीय-दर्शन के विषय पर चर्चा किये थे. इसके अतिरिक्त पाश्चात्य के जितने नामी-गिरामी दार्शनिक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, अन्वेषक, आदि लोग थे, उन सभी के साथ उनकी अन्तरंग मित्रता हो गयी थी. स्वामीजी के इच्छानुसार, उनके वार्ता-वाहक होकर अभेदानन्दजी अमेरिका में कई वर्षों तक रहे थे. 
एक दिन अमेरिका के एक हाल में ' मनःसंयोग ' के विषय पर अभेदानन्दजी का व्याख्यान चल रहा था. श्रोतागण पुरे मनोयोग के साथ ' मनसंयम ' के उपर अभेदानन्दजी के व्याख्यान को सुनने में निमग्न थे. उन्ही श्रोताओं में से एक विख्यात दार्शनिक ने दूसरे दिन महाराज को कहा था- ' आपका मनःसंयोग के ऊपर दिया गया व्याख्यान सार्थक सिद्ध हुआ है. क्योंकि आप जब हमलोगों का मनसंयोग विषय पर क्लास ले रहे थे, उसी समय निकट के रस्ते से बैंड बजाते हुए एक शोभायात्रा निकली थी, किन्तु हममें से किसी को उसका पता नहीं चला. ' अभेदानन्दजी भी व्याख्यान देने में इतने तल्लीन थे कि, उनको भी इसका पता न चल सका था, इसीलिए उन्होंने पूछा- ' ऐसा क्या ?'
 उन्होंने कहा- ' हाँ, व्याख्यान चलते समय एक शोभायात्रा हाल के बिलकुल निकट से होकर गुजरी थी. किन्तु हममें से किसी को इसका पता नहीं चला.
इस से यह सिद्ध होता है कि आपका ' मनः संयोग ' के विषय में दिया गया व्याख्यान हमलोगों के लिए सार्थक हो गया है, क्योंकि आपके ' मनःसंयोग ' - क्लास में हम सभी लोग इतनी तल्लीनता से सुन रहे थे, कि हमारा मन उसके भावों में बहते हुए एक दूसरे ही लोक में पहुँच गया था.'
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में वक्ता, दार्शनिक, लेखक एवं मनोवैज्ञानिक भी थे. वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने पाश्चात्य देशों में विभिन्न विषयों पर जितने भी व्याख्यान दिए थे, वह आज पुस्तकों में लिपिबद्ध है. उदहारण के लिए, ' मृत्यु के पार ', ' मृत्यू रहस्य ', ' पुनर्जन्म-वाद ', ' मनोविज्ञान ' और ' आत्मतत्व ' आदि कुछ प्रमुख पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है. 
पश्चात्यवासी उनके प्रतिभा को देख कर मुग्ध हो गए थे. अभेदानन्दजी के साथ पाश्चात्य देशों के विख्यात ज्ञानी-गुणि मनीषियों यथा- अध्यापक मैक्समुलर, पाल डायसन, विलियम जेम्स, जोसिया रयेस, राल्फ ओयलेंडो, लायनमैन, हडसन आदि के घनिष्ट सम्बन्ध था. यहाँ तक कि ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस आलवा एडिसन के साथ भी उनकी गहरी मित्रता थी. उन्होंने उनको अपने द्वारा आविष्कृत प्रथम ग्रामोफोन उपहार में दिया था, जो रामकृष्ण वेदान्त मठ में आज भी चालू हालत में संरक्षित है. 
स्वामी अभेदानान्दजी हावर्ट, कोलम्बिया, इयेल, कर्नेल, केम्ब्रिज, वर्कले, क्लार्क, कैलिफोर्निया आदि यूनिवर्सिटी में नियमित व्याख्यान दिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध में अमेरिका, कनाडा, अलास्का, मेक्सिको, तथा यूरोप के बड़े बड़े यूनिवर्सिटी में भी नियमित भाषण देते थे. 
वे एक सफल प्रचारक थे. भारत के वेदान्त-दर्शन को उन्होंने ही विश्व के समक्ष उजागर किया था. वेदान्त प्रचार करने के लिए १७ बार आटलनटिक महासगर को पार किया है.
अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान- ' India and her people ' ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था. इस व्याख्यान का बंगला अनुवाद  ' भारत और उसकी संस्कृति ' के नाम से बंगला में छपा था; उस समय यह पुस्तिका भारतप्राण व्यक्तियों की पाठ्यवस्तु बन गयी थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. उनका कहना था कि यह पुस्तक स्वाधीन चेता भारतियों को स्वाधीनता संग्राम के लिए उद्बुद्ध कर रहा था. 
स्वामी अभेदानान्दजी अमेरिका पच्चीस वर्षों तक रहने के दौरान १९०९ ई० में छ' महीनों के लिए भारतवर्ष आये थे. भारत आकर स्वाधीनता-संग्रामियों को उद्दीप्त किये थे. इसके बाद वे पुनः अमेरिका लौट गए एवं दीर्घ २५ वर्षों तक अमेरिका में भारतीय-दर्शन एवं वेदान्त का प्रचार किये थे. १९२१ ई० में वे भारत लौट आये थे. वापस लौटते समय चीन, जापान, फिलिपाईन्स, सिंगापूर, कोयलालमपूर, रंगून आदि देशों में भी उन्होंने भारत के वेदान्त को वहाँ की जनता के समक्ष उजागर किया था. 
१९२२ ई० में वे रामकृष्ण मठ एवं मिशन के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, उसके बाद भारत के प्राण-केन्द्र कोलकाता में भी वेदान्त-प्रचार करने के लिए एक अस्थायी ' वेदान्त समिति ' गठित किये. इस समय भी उनके पास भारत के महान महान व्यक्ति आया करते थे. भिन्न भिन्न समय पर सर सी. भी. रमन, महात्मा गाँधी, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, जैसे महापुरुष-गण उनके निकट सानिध्य में आये थे एवं उनकी ज्ञान-गर्भित वार्ताओं को सुन कर मुग्ध हुए थे. 
 १९२१ ई० में भारत लौट आने के बाद २५ दिसम्बर को कोलकाता में उनके लिए  विशेष अभ्यर्थना और अभिनन्दन सभा आयोजित की गयी थी. परिव्राजक स्वामी अभेदानन्दजी १९२२ ई० में पुनः तिब्बत और काश्मीर का पर्यटन करने निकल पड़े. वहाँ से बौद्ध-दर्शन एवं तिब्बतीय सामाजिक-तत्वों के सम्बन्ध में बहुत से तथ्यों का संग्रह किये थे.
तत्पश्चात १९२३ ई० में ' वेदान्त समिति ' को स्थापित किये एवं दार्जलिंग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना १९२५ ई० में किये. स्वामी अभेदानन्दजी ने १९२७ ई० में मासिक मुखपत्र के रूप में ' विश्व-वाणी ' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया;
  एवं १४ मार्च १९३१ को ' रामकृष्ण वेदान्त मठ ' की स्थापना की थी. एवं १९३१ ई० के मार्च महीने में ही आयोजित श्रीरामकृष्ण के शतवार्षिकी ( सौवाँ जन्मोत्सव ) महासभा की अध्यक्षता स्वामी अभेदानन्द जी ने ही की थी. किसी विशाल समारोह में दिया गया, यही उनके जीवन का आखरी व्याख्यान था. 
८ सितम्बर १९३९ को विश्वविजयी वेदान्तिक भारत माता की कीर्ति को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस योग्य भारत-सन्तान ने महासमाधि प्राप्त की. उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ' काशीपुर-महाश्मशान ' में उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण की समाधी के निकट ही उनको भी भष्मीभूत करके समाहित कर दिया गया.
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( ' আলোকপাত ' পত্রিকায় প্রকাশিত | ' आलोकपात ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )
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