गुरुवार, 24 मई 2012

बुरी लत को छोड़ने का उपाय है-' वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम '. [***6] परिप्रश्नेन

६ प्रश्न : किन किन उपादानों के समन्वयन से चरित्र का निर्माण होता है ? यदि कोई व्यक्ति किसी खराब-आदत का अभ्यस्त हो चूका हो, तो क्या उससे छूटने का कोई उपाय है ?
उत्तर : हमलोगों की आदतों की समष्टि को चरित्र कहते हैं.विभिन्न विषयों से प्रेरित होकर हमलोग बार बार विभिन्न कार्यों को करते रहते हैं; एवं जिन क्रियाओं को हमलोग बार बार दुहराते रहते हैं, वे पहले आदत फिर रुझान या प्रवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती हैं। 
  
 ' प्रवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती हैं ' - से क्या अर्थ निकलता है ? अर्थात, हमलोग जो कोई भी कार्य करते हैं, हमारे मन पर उसकी एक लकीर या छाप पड़ जाती है, तथा एक ही छाप यदि बार बार पड़ती रहे, तो क्रमशः वह छाप या लकीर और अधिक गहरी होती जाती है,उसी को प्रवृत्ति (a pattern of behavior acquired through frequent repetition) कहते हैं।

 जिस प्रकार कैमरा से फ़ोटो खींचा जाता है. जैसे time देकर फ़ोटो खींचना नहीं कहते हैं ? आजकल तो एक सेकण्ड में ही फ़ोटो निकल आता है, पुराने जमाने में समय देकर खींचा जाता था. पहले से ही फोटोग्राफर अंदाज लगा लेता था कि कितना समय लगेगा- दो सेकण्ड, पाँच सेकंड, या दस सेकण्ड.जिस स्थान में रौशनी कम रहती है, वहाँ aperture को दस सेकण्ड तक खुले रखना पड़ता है. जितनी अधिक देरी तक खुला रहेगा, उतनी अधिक रौशनी पड़ेगी, फ़ोटो भी उतना ही साफ़ आएगा.
 मन एक कैमरा जिसमे पाँच लेन्स लगे हैं।
हमारा मन भी एक कैमरा के जैसा है. कैमरा में केवल प्रकाश पड़ता है, उसके सामने पाँच lens लगे हैं. पाँच प्रकार के lens से पाँच प्रकार के विषयों की छाप मन ग्रहण कर सकता है. रूप (प्रकाश), रस,गंध,शब्द, स्पर्श -इत्यादि पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों के बारे में तुमने पहले भी सुना होगा, जिसके चंगुल में फंस कर ' अली-मृग-मीन-पतंग-गज ' जैसे प्राणियों का जीवन नष्ट हो जाता है।

 किसी बुरी-आदत की लत या प्रवृत्ति ( tendency)  पड़ जाने का अर्थ क्या हुआ ?  कोई बुरा कार्य ( जैसे केवल भोग करने की इच्छा से आहार,निद्रा,भय,मैथुन ) - की छाप बार बार पड़ी है. विवेक-प्रयोग या औचित्य-बोध
 के साथ इन पांच विषयों का सदुपयोग न करके दुरूपयोग करने से, अर्थात अत्यधिक भोग के लालच में संयम छोड़ देने से ( अर्थात पाँच यम और पाँच नियम का पालन नहीं करने से ) किसी एक ही विषय-भोग की छाप बार बार पड़ती रहती है. 
 इसीलिए बुरे कार्यों के संस्कार (पाशविक-संस्कार)गहरे हो गये हैं, और चित्त में बैठ गये हैं, चित्त में प्रविष्ट हो जाने के कारण खराब कार्य को बार बार करने की एक (पाशविक) प्रवृत्ति ( tendency) हो गयी है। 


किसी खराब-आदत की लत लग जाने का अर्थ क्या हुआ ? किसी बुरे कार्य ( केवल भोग करने की इच्छा से आहार,निद्रा,भय,मैथुन- की छाप बार बार पड़ी है. इसीलिए खराब कार्य के संस्कार (पाशविक-संस्कार)गहरे हो गये हैं, और चित्त में बैठ गये हैं, चित्त में प्रविष्ट हो जाने के कारण खराब कार्य को बार बार करने की एक (पाशविक) प्रवृत्ति ( tendency) हो गयी है। 

पेन्सिल से कागज पर लिखने के बाद उसपर रबड़ रगड़ने से वह मिट जाता है, किन्तु पेन से लिखने के बाद स्याही मिटाने का अलग रबड़ आता है, किन्तु उससे मिटाने पर भी, अच्छी तरह से नहीं मिटता. उसी तरह Photographic  plate या film के उपर यदि प्रकाश पड़े और एक फ़ोटो यदि उस पर खिंच जाये, तो उसको फिर कितना भी eraser से रगड़ा जाये वह भी कभी नहीं मिटता. उसके उपर यदि कोई दूसरा फ़ोटो गोंद से चिपका दिया जाय तो निचले भाग पर खींचे फ़ोटो का केवल छाप पड़ता है. 

मन के क्षेत्र में भी ठीक वैसा ही होता है, कोई खराब आदत यदि एक बार मन में जाकर बैठ गयी, तो फिर उसको वहाँ से निकाल बाहर करना संभव नहीं होता.मन-वस्तु या ' चित्त ' के उपर जिन लकीरों
 की गहरी छाप एक बार पड़ जाती है, उनको फिर मिटाया नहीं जा सकता है. क्योंकि हमलोग मन के surface-में तो हम पहुँच नहीं सकते, कि हम उसको वहाँ से rub करके, या अन्य किसी तरीके से उसको बाहर निकाल सकें ! यदि हम चित्त को ही बाहर निकाल सकते, तो फिर मन को लगा कर फिर कोई कार्य करना भी संभव नहीं हो सकता.


[ Darwin has been widely acclaimed in biology because of his theory of evolution. According to him, the light of life passes over millions of years through the earliest creatures to reach the human form of present day. 

There is a wonderful mention of this long journey of creatures:

" कई जनम भये कीट पतंगा,
कई जनम गज मीन कुरंगा |
कई जनम पंखी सरप होइओ,
 कई जनम हैवर ब्रिख जोईओ|
मिलु जगदीस मिलन की बरीआ,
चिरंकाल यह देह संजरीआ |
कबीर मानुस जनमु दुर्लभ है, होय ना बारे बार..|
जिउ फ़ल पाके भुइ गिरे बहुर न लागे डार||"
 बुरी लत ( केवल खाना, सोना, डरना, और वंश-विस्तार में लगे रहने की लत) लग जाने के कारण ही हम लोग न जाने कितने जन्मों तक कीट-पतंगा के रूप में जन्म लिये है। कई जन्मों तक पंछी,सर्प, हाथी, मछली या हिरण बन कर जन्मे हैं। कई जन्मों तक घोड़ा और वृक्ष के रूप में रहना पड़ा है, इसी प्रकार चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद, यह देव-दुर्लभ मनुष्य का शरीर मिला है। 

For many lives was the form of worms and wasps. For many lives was the form of elephant, fish or deer. For many lives was the form of birds and serpents. For many lives was the form of horses and trees. For many lives was the form of vegetation and Passed through eighty-four lakhs types of lives.

 एक दिल लाखों तमन्ना ,उस पे और ज्यादा हविस ...?
फ़िर ठिकाना है कहाँ- उसके ठिकाने के लिये !
जो जीवन को 100 बरस की वह पाठशाला मानते हों जिसमें हमें न सिर्फ़ इस भवसागर से पार होने का रास्ता खोजना है बल्कि उस स्कूल में दाखिला लेकर वह पढाई ( साधना ) भी पूरी करनी है.क्योंकि ज्ञानी-जन अच्छी तरह जानते हैं कि ये मानव देह हमें चार प्रकार की (अण्डज , पिण्डज , ऊश्मज ,स्थावर ) चौरासी लाख योनियों को जो कि लगभग साढे बारह लाख साल में भोगी जाती है ,के बाद मिलता है .
इतने कष्टों और इतने समय बाद मिले उस मानव शरीर को जिसके लिये देवता भी तरसते हैं . किस्से कहानियां लिखने पढने ,चैटिंग सेटिंग करने , भोग विलास के रास्ते तलाशने , आलोचना समालोचना करने , मन और देह की आवश्यकता् पूर्ति (जो कभी पूरी नहीं होती ) हेतु लगाये रखना वैज्ञानिक बुद्धि का परिचायक तो नहीं ही है . 
इसीलिये जो व्यक्ति ' देश-काल-निमित्त ' या अज्ञान के या माया के जाल (चक्रव्यूह) को काटने की पद्धति सीख कर जीवन-मुक्त ' द्रोणाचार्य ' गुरु या मार्ग-दर्शक नेता बन चुके हों, उन्हें यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को बतलानी चाहिए।
 सो हे माया-जाल चक्रव्यूह के निपुण द्रोणाचार्यों  ! { महामण्डल के ' नेतृत्व का अर्थ एवं गुण ' पुस्तिका का अध्यन तथा लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त नेताओं !}
महामण्डल के मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन को भारत के  गाँव गाँव तक फ़ैलाने में इतनी तो मदद करो कि इस विषय-जाल को काटने का प्रशिक्षण ( मानसिक-एकाग्रता और चरित्र-निर्माण की पद्धति ) देने के लिए जहाँ जहाँ पर उन लोगों का कैम्प (प्रशिक्षण-शिविर ) लगा हो, या पाठ-चक्र चलता हो - वहां छात्रों युवाओं को भेजने की चेष्टा करो। " Be and Make "  " करो भला तो होगा भला " होगा को चरितार्थ करते हुये आप इतना तो कर ही सकते हैं]

इसीलिए एकमात्र उपाय है- उस खराब आदत के प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिन्तन करना.
पतंजली योग-सूत्र साधनपाद ३३ में कहा गया है- ' वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम '. 

 इसका अर्थ है, उस दोष (केवल भोग के लिए- आहार,निद्रा,भय, मैथुन की आदत) के विपरीत किसी सद्गुण (मानसिक एकाग्रता के द्वारा इच्छाशक्ति ) को बलपूर्वक बढ़ाने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए. एक बुरी आदत हो गयी तो यह जानने के बाद, सद्गुण को अपनाने का बारम्बार अभ्यास करना होगा. मन की शक्ति
 को प्रयोग में लाकर, दृढ-निश्चय और प्रचंड इच्छाशक्ति के बल पर जो सद्कर्म हो, केवल उसी कार्य को करते रहना होगा. मैं देख पा रहा हूँ कि मुझसे कोई खराब कार्य हुआ है, जिससे मेरा चरित्र ख़राब बनने की ओर गया है, इसीलिए उसको बचाने के लिए मन में दृढ-निश्चय करके बलपूर्वक सद्गुणों का बारम्बार अभ्यास करके उनको बढ़ाते जाना होगा. 

[ स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " प्रतिमुहूर्त (यम-नियम का) अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के उपर एक तरंग खेल जाती है. फिर क्या शेष रहता है ?- केवल संस्कार-समूह. मन में ऐसे बहुत से संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते है...मनुष्य का समस्त स्वाभाव इस आदत पर निर्भर करता है.हमारे मन में जैसी विचार-तरंगें खेल जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना एक चिन्ह या संस्कार छोड़ जाती है.

 हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरुप है...जब सद्गुण प्रबल होता है, तब मनुष्य सत हो जाता है. यदि खराब भाव प्रबल हो, तो मनुष्य खराब हो जाता है. असत अभ्यास (बुरी आदत) का एकमात्र प्रतिकार है-उसका विपरीत अभ्यास. हमारे चित्त में जितने असत अभ्यास संस्कारबद्ध हो गये हैं, उन्हें सत अभ्यास द्वारा नष्ट करना (ढँक देना) होगा. 

 केवल सत्कार्य  करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, असत संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है. ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई आशा नहीं है. क्यों ? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का- कुछ आदतों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं. चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है. " (१/१२३)]


अर्थात मन को वश में लाने के लिए जिन ५ यम और ५ नियम का अभ्यास जीवन भर प्रतिमुहूर्त करना है, 
 जैसे ' अहिंसा ' किन्तु संसार में व्यवहार करते समय यदि उसका विरोधी भाव ' क्रोध ' मन में उठे, तब उसे कैसे वश में लाया जाय? उसके विपरीत एक तरंग उठा कर. उस समय ' प्रेम ' की बात मन में लाओ. कभी कभी ऐसा होता है कि पत्नी अपने पती पर खूब गरम हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ जाता है और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है; इससे उसके मन में बच्चे के प्रति प्रेमरूप तरंग उठने लगती है और वह पहले की तरंग (क्रोध) को दबा देती है.प्रेम, क्रोध का विपरीतार्थक गुण है. उसी प्रकार जब मन में भोग का भाव उठे, तो भोग के विपरीत भाव त्यागी के बादशाह ' ठाकुर '  का चिन्तन करना चाहिए.(१/१७७)]

बारम्बार सत्कर्म करने से ही सद्गुणों को बढ़ाकर अच्छी आदतों में रूपान्तरित किया जा सकता है. वैसा होने पर वह नीचे तक पड़ने वाले गहरे संस्कारों की छाप बारम्बार बारम्बार पड़ते पड़ते इस खराब संस्कार को ढँक लेगी. तब खराब विचार मन में नहीं उठ पाएंगे. इसीलिए खराब चरित्र (पाशविक प्रवृत्ति ) होने से भी, यदि मन में चरित्रवान मनुष्य बनने की दृढ इच्छा हो तो अच्छा मनुष्य बना जा सकता है.


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