सोमवार, 28 मई 2012

' विवेक-प्रयोग का महत्व '[49,50]परिप्रश्नेन

49.प्रश्न: इस संगठन के प्रत्येक भाई के भीतर महामंडल की भावधारा को कैसे संचारित किया जा सकता है? 
उत्तर : जिस प्रकार कार्य करने को बताया गया है, उसी प्रकार कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। एक पद्धति 
बता दी गयी है। उस पद्धति को सही ढंग से जीवन में उतारने का प्रयास करना होगा। जो लोग इस संगठन को
 संचालित कर रहे हैं, उनको उस पद्धति के बारे में केवल दूसरों को बताना ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रत्येक 
सदस्य को उस पद्धति का प्रयोग अपने उपर करना होगा।
वैसा न करने से उस पद्धति को आत्मसात करना संभव नहीं होगा। आत्मसातीकरण स्वयम ही करना पड़ता है, बाहर से प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता। 
 इसीलिए कर्मियों को वैसा परिवेश बनाना होगा, ताकि सभी सदस्य इस पद्धति का प्रयोग करते रहें। सभी
 महामंडल इकाइयों को यह दायित्व है, कि सबों के लिए ऐसापरिवेश बन जाय जिससे वे अपने जीवन में
 परिवर्तन ला सकें, वैसे परिवेश में जो लोग मन लगाकर प्रयासकरेंगे, उनके भीतर महामंडल के भाव
 संचारित हो जायेंगे। विवेक-प्रयोग का महत्व 
उनको यह समझान पड़ेगा, कि इसकी आवश्यकता क्यों है ? यदि कोई महामण्डल के पांचो काम को जीवन में उतारने की अनिवार्यता को नहीं समझ पायेगा, तो कोई उसको आत्मसात भी नहीं कर पायेगा। पहले प्रत्येक सदस्य को इसकी अनिवार्यता समझनी होगी। इसको ठीक से समझ कर स्वयं चेष्टा करनी होगी। 
50.प्रश्न : महामंडल का कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत है। अपनी सीमा से बहार रहने से भी,भावुक होकर हम किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेते हैं, किन्तु उसमें सफल नहीं हो पाते हैं। या उसको सफल करने के  लिए जितनासमय देने की आवश्यकता होती है,उतना दे नहीं पाते, या देने से जिन दुसरे कार्यों को हमारे लिए करना उचित था, वह नहीं हो पाता है, हमलोग कहाँ गलती कर रहे हैं ?
उत्तर : कार्य बहुत से पड़े हैं, भावुक होकर अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का निर्णय करता हूँ- यही तो त्रुटी है।तुमको अपनी क्षमता का निर्णय तो करना ही पड़ेगा। तुम किस कार्य को कर सकते हो, इसे 
सोच-समझ कर ही किसी कार्य को हाथ में लोगे।जिसे नहीं का सको उसमें हाथ नहीं डालोगे। जिसको निश्चित ही कर सकूँगा, यह विश्वास हो, उसी कार्य को हाथ में लोगे। तथा यह भी देखना होगा कि जिस कार्य को मैं करूँगा उससे मेरा भला तो होगा, किन्तु दूसरों की क्षति न हो इसका ध्यान भी रखना होगा। 
 इस प्रकार से विचार न कर जैसे तैसे कार्य करते रहने को गीता में  तामसिक कर्म कहा गया है। महामंडल की पुस्तक A New Youth Movement में लिखा प्रथम लेख पढना,वहां इस बात को विस्तार से 
समझाया गया है। 
जो कमी है, वह है तामसिक कर्म करने की इच्छा। जिन कार्यों को हम तामसिक इच्छा के द्वारा संचालित 
होकर करेंगे, उसमें तो गड़बड़ी होगी ही। भावावेश में आकर कुछ कहने या करने से उसका फल अच्छा नहीं
 होगा।
विचार करके देखने से जो कार्य अपनी सीमा से बाहर लगता हो, उसे हाथ में मत लेना। जो कार्य तुम्हारी
 शक्ति-सीमा के भीतर हो, उसी में हाथ डालना। वैसा ही कार्य करना जो हमलोगों का भला करेगा, किन्तु दूसरों को उससे कोई हानी नहीं होगी। 
पहले इतना सोच-विचार करना चाहिए। उसके बाद देखना होगा, कि उस कार्य से मेरा भला होने के साथ साथ दूसरों
का भी मंगल होगा। किन्तु जिस कार्य से दूसरों का भला नहीं होता हो, उस कार्य को कभी मत करना। तुम कितना कार्य किये हो, वह बड़ी बात नहीं है, कार्य को कैसे किये हो, किस मनोभाव से किये हो वही  महत्वपूर्ण बात है। कार्य के पीछे जो उद्देश्य है, जिस मानसिकता से कर रहे हो, उसीसे तुमको कार्य का 
वस्तविक लाभ प्राप्त होगा। कितना कार्य कर चुके हो, उससे कोई लाभ नहीं होगा। 
जैसे मानलो कोई व्यक्ति ' इ......तना ' भात खा सकता है, और दूसरा आदमी है जो, उ......तना नहीं खा सकता। किन्तु कितना खा सकते हो, शरीर उस पर निर्भर नहीं करता, निर्भर करता है, कितना पचा सकते हो, उसके उपर। तुम बहुत अधिक खा लो पर वह यदि पचा नहीं सको, तो उससे शरीर को पौष्टिकता नहीं मिलेगी।पेट भी खराब हो सकता है। 
कार्य में भी वैसा ही होता है। जितना कार्य तुम सुंदर ढंग से कर सकते हो, ताकि उससे दूसरों का भी भला हो, या कम से कम दूसरों की हानि तो बिलकुल न हो, उतना ही और वैसा ही कार्य करना। इसीलिए कार्य के पीछे 
तुम्हारा मनोभाव में यदि स्वार्थ न हो, उसके पीछे सभी का कल्याण का मनोभाव हो,या जिसकार्य को करने से मैं अच्छा बनूंगा, पवित्र बनूँगा, चरित्रवान बनूंगा, मेरा हृदय उदार होगा, इसी उद्देश्य से यदि कार्य करो, 
तो वह कार्य छोटा होने से भी अच्छा फल देगा। इसीलिए ज्यादा बड़े बड़े कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म का रहस्य यही है।               

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