बुधवार, 23 मई 2012

' दूसरों के लिए जीना ! ' [***4] परिप्रश्नेन

४.प्रश्न : हमें अपने जीवन को किस मार्गदर्शी आदर्श उदाहरण (Archetype) के अनुरुरूप
 ढाल लेना  उचित होगा?
उत्तर : यदि जीवन के आदर्श उदाहरण को इतने संक्षेप में बताना हो कि उसे याद रखा जा सके, तो  स्वामीजी जैसा कहते थे वह है- ' केवल दूसरों का हित करने के लिए ही जीवन धारण करना सीखना 
'। क्या इससे बढ़ कर भी कोई अन्य बड़ा आदर्श हो सकता है ? इससे उच्च किसी आदर्श जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती। स्वामीजी ने बार बार इस कथन को दुहराया है.सामान्य तौर पर हमलोग अपने लिए जीते हैं. किन्तु स्वामीजी, समस्त मानवता के समक्ष एक अद्भुत आदर्श प्रस्तुत करते हैं- ' दूसरों के लिए जीना '! ऐसा होने से ही हमारा जीवन सार्थक होता है. 
 स्वामीजी मैसूर के महाराज को २३ जून १८९४ को लिखित एक पत्र में कहते हैं-" दिस लाइफ इज शार्ट, दी वैनिटीज़ ऑफ़ दी वर्ल्ड आर  ट्रांजिएन्ट,बट दे अलोन लिव हु लिव फॉर अदर्स,दी रेस्ट आर मोर डेड दैन अलाइव !"
" हे राजन, यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। यथार्थ रूप से वे ही जीवित हैं जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। (जैसे निर्विकल्प- समाधि में जाने के बाद भी ठाकुर की आज्ञां से स्वामीजी बटवृक्ष बन दूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये थे.) बाकी लोग तो मृत से भी अधम हैं ! "(२/३६८)
 अर्थात सभी मनुष्यों का जीवन क्षण स्थायी ही होता है, एवं मनुष्य के जीवन के जीवन में जो अहंभाव (M/F होने का मिथ्या गर्व), दम्भ, अर्थ, रूप, संपत्ति इत्यादि के उपर जो गुरुर होता है, वह सब व्यर्थ है.क्योंकि एक दिन ये सभी समाप्त हो जाते हैं.अतः हमलोगों के जीवन का मानदण्ड (Archetype) रहना चाहिए - दूसरों की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता से बढ़कर देखने की चेष्टा करना, तथा दूसरों के कल्याण के लिए यथासंभव प्रयास करना ।
 अपने जीवन को इतने सुंदर ढंग से गठित करना चाहिए कि हम उसे देशवासियों का कल्याण करने के कार्यों में (बरगद के वृक्ष के समान फल-मूल-वल्कल-दारु आदि सबकुछ को ) न्योछावर कर सकें. यही हमारे जीवन का मुख्य आदर्श होना चाहिए.

 इसके अतिरिक्त भी जीवन-आदर्श के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, किन्तु वह सब केवल बड़ी बड़ी बातें होंगी, उसमें काम के लायक विशेष कुछ नहीं होगा. यदि सब बातों का सार निकाला जाय तो उस सार के अनुसार यही है जीवन का सबसे बड़ा आदर्श. समस्त शास्त्रों का निष्कर्ष भी यही है, एवं स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं में भी हम यही पाते हैं.

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