सोमवार, 28 मई 2012

चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है? [***35] परिप्रश्नेन

३५. प्रश्न : कोई शिक्षक या नेता को अपने सहकर्मिओं को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिये कैसे प्रेरित कर सकता है ? अपने भाई, मित्र या किसी दूसरे व्यक्ति को चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है?
उत्तर : यथार्थ शिक्षा प्रदान करने का उपाय जानने के लिए पहले शिक्षक या नेता को यह जानना होगा, कि ' प्रत्येक मनुष्य के भीतर ज्ञान पहले से ही अन्तर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब 
अन्दर ही है। कोई भी ज्ञान बाहर से किसी के भीतर, नहीं प्रविष्ट कराया जा सकता है। जो ज्ञान-स्वरूप होकर भीतर में जो पहले से ही विद्यमान हैं, उनको बाहर से केवल जाग्रत किया जा सकता है।
 किन्तु कोई शिक्षक (या नेता) यदि बाहर से (क्रोध कर के बोले- अरे, चरित्रहीन ! तू कब सुधरेगा ?) आदेश दें- ' मैं शिक्षक हूँ, तुम मेरे छात्र (अनुयायी) हो, मैं तुमको आदेश करता हूँ, तुमको निर्देश दे रहा हूँ, तुम जाग जाओ ! ' तो ऐसे उपदेश का भी कोई लाभ नहीं होता है। जो ज्ञानस्वरूप पहले से ही सबके हृदय में विद्यमान हैं, उनको पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के बल पर ही जाग्रत किया जा सकता है, क्रोध से या अपशब्द से कभी नहीं। किन्तु शिक्षक यदि छात्र को [कोई गुरु (नेता) अपने शिष्य को नहीं भावी गुरु (नेता) को ] हृदय से प्यार करते हों, इस प्यार भरे पुकार से जो आवाज गूंजती है- वह हृदय के दरवाजे को खोल देती है। 
 किन्तु अक्सर हम शिक्षक गण अपने विद्यार्थियों या अनुयायिओं को अपने तुच्छ समझते हैं- उन्हें अज्ञ या मुर्ख समझते हैं, तथा यह सोचते हैं, कि हम तो उन्हें सिखा रहे है। तो अक्सर ऐसे मूर्ख  
शिक्षकों की आवाज विद्यर्थियों के कानों तक नहीं पहुँच पाती है, और गुरु की वह पुकार, विद्यार्थी के हृदय -कपाट को उन्मुक्त नहीं कर पाती है। 
गुरु के लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने शिष्य को सर्वदा श्रद्धा की दृष्टि से देखे, उसको भीतर से - अपना अंतरधन समझ कर भीतर से प्रेम करे. मुझमें और उसमें कोई भिन्नता नहीं है, यही भाव ( प्रज्ञा या सच्ची-समझ या Uptake) मन के भीतर सतत जाग्रत रखनी चाहिए. (भेद-दृष्टि को दूर करके) इसी बोध के साथ जब किसी को शिक्षा दी जाती है, तब उस शिष्य के अन्तस्थ सत्ता की नींद जल्द टूट जाती है, और वह तीव्र गति से प्रगति करने लगता है।
सर्वदा ऐसा मनोभाव ( अभेद-दृष्टि की प्रज्ञा या सच्ची-समझ ) जाग्रत रखने के लिए मुझे पवित्र बनना होगा, मुझको ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा. हमलोगों के शास्त्रों ( तैत्रियोपनिषद 1/3 ) में यह सब कहा गया है-
' सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम। '
अर्थात हम (आचार्य और शिष्य ) दोनों का यश और ब्रह्मतेज एक साथ बढ़े। इस अनुवाक में 
पहले सम-भाव में स्थित - ' समदर्शी आचार्य ' के द्वारा अपने लिए और अपने शिष्य के लिए भी यश 
और ब्रह्म-तेज की वृद्धि के उद्देश्य से शुभ-कामना की जा रही है। आचार्य की अभिलाषा यह है, कि मुझे तथा मेरे श्रद्धालु और विनयी शिष्य को साथ-साथ ज्ञान और अभ्यास से उपलब्ध होने वाले यश और 
ब्रह्मतेज की प्राप्ति हो।   
इसीलिए आचार्य पहले स्वयं पवित्र जीवन जीते हुए, ब्रह्मचर्य पालन करते हुए- शिक्षार्थी में भी यश और
 ब्रह्मतेज जाग्रत होने की कामना करते हैं। सच्ची शिक्षा देने के लिए ऐसे ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है. अर्थात आचार्य को अपने मन, वचन तथा कर्मों में पवित्रता रखनी होगी. यदि मेरा जीवन स्वच्छ या उज्ज्वल नहीं है, पवित्र न हो, तो वैसे गुरु के हजार बार पुकारने से भी विद्यार्थी की नींद नहीं टूट सकेगी। 
आज की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था क्यों फलदायी नहीं हो पा रही है ? क्यों यह बात कहनी पड़ रही है, कि  स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालयों में मनुष्य तैयार नहीं हो रहे हैं, विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण क्यों नहीं हो पा रहा है ? कारण शिक्षा नीति में परिवर्तन का अर्थ हमने 10+2 हो या 3 हो - या एक ही जगह टेस्ट होता हो - नहीं है। 
अभी हाल में ही अमेरिका के १९ प्रख्यात शिक्षाविद ने अमेरिका की शिक्षा-व्यवस्था के उपर एक रिपोर्ट 
दिया है। वह रिपोर्ट अत्यधिक सनसनी खेज है। अमेरिका में विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा का कैसा अधोपतन हो गया है, उस विषय में विशेष रूप से विश्लेष्ण करने के बाद वे कहते हैं, कि यह शिक्षा विद्यार्थियों के मन को सही रूप से गढ़ने, या अच्छा चरित्र निर्माण करने के विषय में कोई सहायता नही कर पा रही है। वैसी शिक्षा देने के लिए क्या करना होगा ? उनका मन्तव्य है, कि शिक्षकों को अपना मन ठीक तरह से गढना होगा। 
स्वामीजी कहते हैं, यथार्थ शिक्षा क्या है ?  ' मन की शक्ति तथा उसके प्रवाह को थोड़ा संयम में रखने तथा उसको लाभप्रद बना लेने की क्षमता को ही शिक्षा कहते है। ' स्वामीजी ने शिक्षा को कई प्रकार परिभाषित किया है, किन्तु एक स्थान पर जिस ढंग से परिभाषित किया है, वह बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं- 
" शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी 
नहीं। जिस संयम (या मनः संयोग के अभ्यास) के द्वारा, ईच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है वह फलदायक होता है, - उसे शिक्षा कहते हैं।" 
ऐसी शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद- मनुष्य जो कुछ भी चाहे उसे प्राप्त कर सकता है, अथवा जब जी चाहे वह किसी वस्तु का त्याग भी कर सकता है। ऐसी ईच्छा हो रही है, कि यह कार्य करूँगा, उसे कारगर बना लेने से, वह हो सकेगा- इस प्रकार से निश्चय करके वह सब कुछ पर विजय प्राप्त कर सकता है। 
 मन की ईच्छाओं को परिष्कृत कर, उसे प्रभावी बना लेने से उसके द्वारा- अति सामान्य कार्य से लेकर बहुत बड़े बड़े कार्यों को भी बड़े सुंदर ढंग से सम्पन्न किया जा सकता है। अगर ऐसा संभव हो जाता है, तो उसका आधार क्या है? यही ईच्छाशक्ति !
किन्तु यदि शिक्षक के भीतर ही ऐसी दृढ इच्छा-शक्ति न हो, तो इसका कार्य नहीं हो सकेगा, छात्रों को भी वैसी शिक्षा नहीं दे सकेगा। यदि गुरु का जीवन स्वयं पवित्र न हो, प्रभावशाली या आकर्षक न हो, वे स्वयं यदि उत्तम चरित्र के अधिकारी न हों, तो छात्रों के जीवन में भी ये सारे भाव संचारित नहीं हो सकते हैं।अभी शिक्षा के विषय में भीतर से निकलने वाले जिस आह्वान के उपर चर्चा हो रही थी, वैसा प्रभाव केवल लेक्चर देने से नहीं पड़ता, बल्कि शिक्षक (या नेता) के जीवन का प्रभाव पड़ता है।
 शुद्ध जीवन ही किसी अन्य के जीवन में उस जीवन के सौन्दर्य को प्रस्फुटित कर सकता है।
 अतः शिक्षा प्रदान करने का उपाय है, शिक्षा के अर्थ को हृदयंगम करके अपने जीवन को उत्कृष्ट बना लेना, तथा अपने जीवन से एक अन्य जीवन के दीप को प्रज्ज्वलित कर देना। मेरे जीवन की ऊष्मा ही किसी अन्य के जीवन में ऊष्मा का संचार कर सकती है। इसीलिए पहले मेरे जीवन में उस ऊष्मा (उद्दीपन -fervor) की उत्पति होनी चाहिए, जिसे मैं दूसरों में संचारित करूँगा, वैसा नहीं होने से शिक्षा नहीं दी जा सकती है. 
हमलोग कभी कभी कहते हैं- श्रीरामकृष्ण के जैसे शिक्षक इस जगत में नहीं हैं, स्वामी विवेकानन्द जैसे शिक्षक जगत में नहीं हैं, थोड़ा विचार करके देखने से पाएंगे कि यह बिल्कुल सच्ची बात है. उन्होंने मनुष्यों को वास्तविक शिक्षा दी है. वे शिक्षा कैसे देते थे ? उनका जीवन पवित्रता की अग्नि से उष्ण हो चूका था, इसीलिए वे अपनी उष्णता को दूसरों के जीवन में संचारित कर सकते थे। इस प्रकार सच्ची शिक्षा प्रदान करने के उपाय के विषय में मूल सिद्धान्त यही है. 
(जो शिक्षा देंगे उनका अपना जीवन किसी आदर्श-गुरु के साँचे में गठित होना चाहिये। उनको अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान रहना चाहिए। उनमें इतनी समझ होनी चाहिये कि माँ अन्नपूर्णा ने इस जगत को शिक्षा देने के लिये ही बनाया है।  शिव तो शव हैं, माँ ही विभिन्न रूपों में प्रकट होकर आचार्य शंकर को शक्ति के राज्य की महिमा बतलाती रहती थीं।  यथार्थ गुरु तो माँ ही हैं, बाकी के मनुष्य-शरीर धारी गुरु उनके केवल यंत्र मात्र हैं। माँ ही एक मात्र गुरु हैं, वे यदि मेरी जिह्वा पर बैठकर दूसरों को जगा दें तभी कोई जाग सकता है।   स्वयं को (अपने नाम-रूप को ) कभी गुरु समझने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये; सबसे बड़ा अज्ञान या बंधन यही है। इस ' तारा-माँ के पुत्र को, दूसरे तारा-माँ के पुत्रों ' का बंधन काटने का अवसर महामण्डल कर्मियों को प्रदान करके केवल अपने हृदय को विस्तृत करने का अवसर मिलना हमारा सौभाग्य है। जब तक यह शरीर है, हमलोग दोनों शिक्षा देने वाले गुरु और ग्रहण करने वाले शिष्य जगदम्बा के राज्य में हैं, इसलिये जो ग्रहण करने वाला है, वही श्रेष्ठ है, गुरु को शिक्षा देने का सौभाग्य माँ ने इसीलिये दया है कि शिक्षा दाता गुरु का आसन ग्रहण कर अपने स्वरुप में स्थित रहकर सदैव जगत को ब्रह्मरूप में दर्शन कर सके। 
क्योंकि ब्रह्म ही जगत बने हैं, वास्तव में शिष्य नहीं बने हैं, शिष्य बन कर मुझे अपना हृदय विस्तार करने का अवसर दिये हैं।  
 किसी ' अव्यक्त ब्रह्म ' को  अपना भाई या रिश्तेदार समझने वाला, तो स्वयं मोहग्रस्त है, वह दूसरे का बंधन कैसे खोल सकता है ? मेरा कौन है ? सबकुछ और सबकोई माँ का है, फिर मुझे किसी को अपना और दूसरे को पराया समझने का क्या अधिकार है ? ईश्वर ने (माँ ने) ही उस गुरु को जिन नाते रिश्तेदारों के साथ एक ही छत के नीचे रख दिया हो, उनको भी भाई,बहन या पत्नी की दृष्टि से न देखकर साक्षात् ' शिव-पार्वती ' के रूप में देखना होगा; जो उस गुरु को पूर्णता प्रदान करने के लिये स्वयं अज्ञानी या चरित्र-हीन होने का नाटक कर रहे हैं। )   

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