शनिवार, 26 मई 2012

परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये रखें ?[***29] परिप्रश्नेन

२९.प्रश्न : प्रचण्ड जीवन संग्राम के भीतर रहते हुए भी कैसे कोई मानसिक साम्य बनाये रख सकता है? 
उत्तर : वास्तविकता तो यह है कि मानसिक संतुलन खो देने से, या मानसिक-साम्य नहीं रख पाने से
जीवन-संग्राम को सफलतापुर्वक चला पाना ही संभव नहीं होता; अर्थात उसमें पराजय स्वीकार करनी पड़ती है. जिसके फलस्वरूप जीवन की अनन्त संभावनाएं प्रस्फुटित ही नहीं हो पाती, और जीवन विफल हो जाता है। किन्तु उससे भी अधिक हानिकारक बात यह होती है, कि जीवन के संबन्ध में एक भ्रान्त धारणा मन में बैठ जाती है। हमारे मन में स्थायी रूप से इस ' जगत एवं जीवन ' को लेकर - नैराश्य का एक काल्पनिक विषादपूर्ण और अन्धकारमय चित्र बैठ जाता है। 
यहाँ पर साधारण बोलचाल की भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहने से जो समझते हैं, उसी अर्थ में इसके उपर चर्चा हो रही है. जब बिल्कुल अशांत परिवेश हो, या जान का जोखिम हो, या जब सबकुछ दाव पर लगा हुआ हो, उस समय भी, विवेक-विचार तथा तत्क्षण-करनीय निर्णय की क्षमता एवं तदानुसार कार्य कर पाने की शक्ति को प्रचलित भाषा में ' मानसिक साम्य ' कहते हैं। प्रचलित भाषा में इसीको अविचलता, मानसिक भार का संतुलन या ' मानसिक भारसाम्य (Load balance )' भी कहा जाता है। जब सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी मानसिक संतुलन बनाये रखते हुए उचित निर्णय लेने की क्षमता ही यथार्थ शिक्षा है।

किसी विशेष परिस्थिति में, जब अल्प सुचना के आधार पर, तेजी से,तत्क्षण कोई निर्णय लेना हो- 
उस समय यदि यह निर्णय न ले सकें, कि क्या करना है ? अथवा जब ऐसी परिस्थिति सामने उपस्थित
हो जिसमें-ऐसे कई महत्वपूर्ण कार्य सामने दिख रहे हों, जिन्हें तत्काल करना आवश्यक लगता हो, किन्तु यह सोच-विचार करके निश्चित करने का समय न हो,कि सबसे प्रथम किस कार्य को हाथ में
 लेने से अच्छा होगा, या तत्काल  क्या करने से अच्छा होगा ? 
जब अपना सबकुछ दाव पर लगा हो, उस समय भी अपना भला सोचने के साथ-साथ दूसरों के मंगल का भी ध्यान रखते हुए तत्क्षण उचित निर्णय लेने की क्षमता ही हमें अविचल रखती है।अथवा ऐसे असमंजस की 
स्थिति में जब हम कुछ भी तय नहीं कर पा रहे हों, कि किसी कार्य को अभी तुरन्त ही न करके, भविष्य पर छोड़ कर आगे बढ़ा जाये या नहीं ? तत्काल ही ऐसा निर्णय लेना हो,उस अवस्था में हमारे
 निर्णय-क्षमता का पलड़ा एक बार इस ओर झुकता है, किन्तु तुरन्त फिर मानो उस ओर झुकना चाहता है।
 इसीको 'किंकर्तव्यविमूढ़ ' अवस्था कहते हैं। 
(जैसे एकबार नारद जी अचानक बाढ़ में फंस कर तय नहीं कर पा रहे थे कि पहले बच्चे को बचाऊं या बीबी को ?) उस समय कहते हैं- मेरा मानसिक साम्य खो गया था।
किन्तु उस समय भी पुरे धैर्य के साथ, अपने यथार्थ मंगल के साथ-साथ दूसरों के मंगल की सम्भावना को 
भी  सूनिश्चित करते हुए- स्पष्टचिन्तन क्षमता की सहायता से, प्रत्येक परिस्थिति को ध्यान से समझकर एवं विश्लेष्ण करके, अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में तत्क्षण कोई दोषरहित निर्णय ले लेने की क्षमता रखना  आवश्यक है। 

यह नहीं रहने से जीवन-संग्राम में पराजय मिलना अनिवार्य है. इसीलिए जीवन-संग्राम में विजय को सुनिश्चित करने के लिए सदैव अपना मानसिक साम्य बनाये रखना बहुत आवश्यक है।
किन्तु,हर अवस्था में इस तत्काल-निर्णय लेने की क्षमता को हमलोग कैसे बनाये रख सकते हैं?
 जब तक जीवन में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है - मोटे तौर पर जो कुछ पाना चाहता हूँ, वह सब जब तक मिलता रहता है, खाने-पहनने-रहने में जबतक कोई व्यवधान  नहीं हो रहा है, पारिवारिक सम्बन्धों में कोई जटिलता उत्पन्न नहीं हुई हो, किसी सदस्य को कोई खतरनाक बीमारी, या कोई आकस्मिक दुर्घटना से जब तक पाला नहीं पड़ा हो, तब तक हमारा मानसिक साम्य बना रहता है, - इस बात कोई विशेष मूल्य नहीं है। ऐसी अवस्था में मानसिक साम्य को जाँचने का अवसर आया ही नहीं है, इसीलिए वह गुण मुझमें है, या नहीं- क्या इसे सही रूप से बता नहीं सकते हैं।
 परीक्षा की घड़ी उपस्थित होते हुए भी यदि साम्य बना रहे तभी कहा जा सकता है,कि-मानसिक संतुलन 
बनाये रखने की क्षमता है, या भंग हो गयी है ?
यदि भंग हो गयी है, तो पुनः उसे कैसे बहाल किया जा 
सकता है ? किन्तु यदि पहले से ही यथोचित अभ्यास द्वारा - हमने अपने मन को धीर, एकाग्र, शांत, वशीभूत रखना नहीं सीख लिया हो, तो वैसे असमंजस की परिस्थिति में लाख उपाय करने से भी मन को साम्य की अवस्था रख पाना संभव नहीं होता है। परीक्षा की घड़ी में मानसिक संतुलन कैसे बनाये  रखें ?
यदि पहले से ही मुझे चप्पू चलाने का अभ्यास नहीं हो, और जब अचानक नदी में ज्वार आ जाय, उस समय यदि मैं अपने हाथों में पतवार संभाल लूँ, तो यात्री और नाव दोनों के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है।  जीवन-संग्राम में भी ठीक ऐसा ही होता है। इसीलिए जीवन-नौका में चढ़ने के पहले से ही यह समझ लेना होगा, कि नदी में तूफान कभी भी आ सकता है, ऊँची ऊँची लहरें उठ सकती हैं, नदी का प्रवाह अचानक तीव्र हो सकता है, नौका भँवर में फंस भी सकती है।  उस अवस्था में क्या करना होगा- कैसे उस भँवर से बचा कर नौका को बाहर निकला जा सकता है ? यह सब कौशल समय रहते सीख लेना हमारा कर्तव्य है, वरना जीवन नदी के बीच भँवर में डूब मरने की आशंका बनी रहती है।
हम इस कौशल को कैसे सीख सकते हैं ? यदि हमलोग जीवन-संग्राम में विजयी होना चाहते हों, अर्थात प्रकृति या परिवेश के उपर विजय प्राप्त करने के इच्छुक हों, तथा अपने जीवन-पूष्प को प्रस्फुटित करके अपने चारों दिशाओं को भी आनंदित रखना चाहते हों, तो हमें युवाकाल में ही जीवन को सुंदर रूप में गढ़ने की तकनीक सीख लेनी चाहिये। 
ताकि अचानक किसी तूफान में पड़ने से हमारी जीवन-नौका एकतरफा झुक ही न सके, इसके लिए सबसे पहले जीवन में पवित्रता आनी चाहिये। काम वासना की प्रचण्डता एवं भोग-इच्छाओं  को पूर्ण करने के उतावलेपन को क्रमशः नियंत्रित करते रहना चाहिये। हिंसा-द्वेष-घृणा को दूर से ही त्याग देना चाहिए एवं भोगों को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ने देना चाहिए। 
इसके लिए -मन की गति को ध्यान से देखते रहना होगा, एवं नियमित अभ्यास के द्वारा उसको नियन्त्रण में रखते हुए, धीरे धीरे उसको अपने पूर्ण नियंत्रण में ले आना होगा। महामंडल द्वारा प्रकाशित
 पुस्तिका ' मनः संयोग ' इस विषय में सहायक हो सकती है. मन के उपर जैसे जैसे नियन्त्रण बढ़ता जायेगा, क्रमशः मन उतना ही धीर, शान्त और बलिष्ठ बनता जायेगा।  तब वह बाहरी पेरिवेश के दबाव में आकर बात बात पर विचलित नहीं हो सकेगा। 
 उसी वशीभूत मन रूपी सुदृढ़ पतवार के द्वारा, जीवन-नदी की  उत्ताल तरंगों को चीरते हुए, आँधी-तूफान
 के भँवर में जीवन-नौका को फंसने से बचते-बचाते, दूसरे किनारे के ठोस धरातल पर उतरा जा सकता है।  उस समय नदी में  तैरते हुए, ऊँची ऊँची लहरों को काबू में रखना एक मनोरंजक खेल में परिणत हो जाता 
है। मानसिक सन्तुल या साम्य बनाये रखने की क्षमता या अपनी ' यथार्थ-शिक्षा ' को परखने का अवसर, 
उसी समय  मिलता है, जिस समय जीवन-नदी में उत्ताल तरंगे उठ रही होती है।  यह बात ' मानसिक साम्य ' 
के किस अर्थ को सामने रख कर कही जा रही हैं, उसके सम्बन्ध में पहले ही,चर्चा हो चुकी है।  
 किन्तु ' मानसिक साम्य ' का वास्तविक अर्थ इससे कुछ अलग किस्म का होता है। किसी भी कार्य को 
हमलोग जिस प्रकार मन के माध्यम से करते हैं, उसी प्रकार उसी के माध्यम से देखते भी हैं। सामान्यतः  
हमलोग भेद-दृष्टि को लेकर ही जगत की हर वस्तु को देखते हैं, क्योंकि हम यहाँ' एक ' को न देखकर 'अनेक ' को देखते हैं।

हमलोग अभी तक यह नहीं जानते कि ' एक ' ही ' अनेक ' बन कर विद्यमान हैं (The One has become Many), इसीलिए सभी को अपने से भिन्न समझते हैं।इसीलिए यहाँ सबको भिन्न-भिन्न दृष्टि 
से देखते हैं। छोटा-बड़ा,गोरा-काला, अपना-पराया के भेद-दृष्टि से देखते हैं। किन्तु जब हमलोग प्रत्येक वस्तु के भीतर जो सत्ता अनुस्यूत है, उस सर्वव्याप्त सत्ता की अनुभूति कर लेते हैं- तब फिर अनेक नहीं रह जाता- सभी को उस ' एक ' के ही बहिरूप में स्वीकार करने लगते हैं, सभी एक हैं- ऐसा देखते हैं। भिन्नता या असामनता कहीं नहीं है, सभी एक समान हैं. इसीको साम्य-दृष्टि कहते है।
 जब हमलोग इस सार्वभौमिक -साम्य में प्रतिष्ठित हो जायेंगे, उसी को ' मानसिक-साम्य ' कहते हैं। वैसा होने पर कोई पराया नहीं रह जायेगा, किसी के प्रति मन में विद्वेष नहीं होगा, किसी के अमंगल का विचार भी  मन में नहीं उठेगा। जब कोई व्यक्ति इसी प्रकार के ' सम-दृष्टि ' से सम्पन्न हो जाता है, केवल तभी वह यथार्थ सुख का अधिकारी होता है. सार्वभौमिक साम्य में प्रतिष्ठित रहना ही मानसिक-संतुलन है।
 भागवत में कहा गया है-
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु-मंगलम ।
समदृष्टि: तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ।।
श्रीमदभगवत गीता (5/19) में कहा गया है- 
           इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
                                                  निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।
जिनका मन सम-भाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है।  क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे भी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं। जिसका मन ऐसे साम्य में स्थित हो, उसे फिर संसार-सागर के दोनों किनारों को पार करने की आवश्यकता नहीं होती.

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