शनिवार, 26 मई 2012

" ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " ? कैसे? [***24] परिप्रश्नेन

२४.प्रश्न : " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " यह जगत चित्रवत है, या स्वप्नवत है, इस बात को बुद्धि के द्वारा तो समझ सकता हूँ; किन्तु कितनी भी कोशिश करने पर हर समय यह विश्वास बना नहीं रह पाता, प्रलुब्ध करने वाली वस्तुओं को देखते ही, मन सर्वदा चंचल हो जाता है।  क्या करूँ ?
उत्तर : इसके लिए अनवरत मनःसंयोग का अभ्यास प्रतिदिन दो बार करते जाना होगा,इसके साथ साथ ५ यम -'सत्य, अहिंसा,ब्रह्मचर्य,आस्तेय, अपरिग्रह' और ५ नियम -'शौच, सन्तोष,तपः,स्वाध्याय,ईश्वर-प्रणिधानम् के पालन के लिये प्रतिमुहूर्त मन के साथ निरन्तर संग्राम करना होगा। विवेक-प्रयोग करने के बाद ही- कोई कार्य, सोचना, बोलना, करना होगा। अपने चरित्र-निर्माण के लिये पूरे लगन के साथ निरन्तर उद्द्य्म करना होगा। मनःसंयोग और निरंतर विवेक-प्रयोग आदि कठोर साधनाएँ जितना ही अधिक करते रहे रहोगे, उतनी ही अधिक बार यह विचार मन में उठेगा कि- वास्तव में यह जगत एक चित्रमाला के सदृश्य है:
{ नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम । 
    एष   वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ।। 
     मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्ता तु वर्तते ।
         पश्यामः केवलं तद्धि न्रनिर्माणं कथं भवेत ।।    
 श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय रचित : ' विवेकानन्द दर्शनम ' }
' After all this world is a series of pictures. ' this colorful conglomeration expresses one idea only- " Man is marching towards perfection. " that is " the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. " 
[हमलोग अभी ' माइंड-बॉडी काम्प्लेक्स ' बद्ध जीव की अवस्था में जिसे जाग्रत अवस्था मानते हैं, वह अतीन्द्रिय या तुरीय ज्ञान की अपेक्षा एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब जीवात्मा सच्चिदानन्द से 
साक्षात्कार की अवस्था में' ऐक्य' की अनुभूति प्राप्त कर लेती है, तब यह ठोस सा दिखने वाला संसार असत साबित हो जाता है। -गीता 2/16.]इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- "यह जगत बदलते हुए चित्रों की श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-'मनुष्य अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ क्रमशः पूर्णत्व-प्राप्ति (देव-मानव में रूपांतरित होने) की ओर अग्रसर हो रहा है। 
 स्वामीजी ' चित्र ' शब्द का व्यवहार करते हुए कहते हैं- " यह जगत मानो एक चित्र-श्रृंखला (रूप-राशी) है, एवं देखा जाता है कि इन चित्रों के माध्यम से केवल एक ही भाव व्यक्त हो रहे हैं. वह है,पशु-मानव का देव-मानव या सच्चे मनुष्य के रूप में रूपांतरित होता जा रहा है। इन समस्त चित्र-श्रृंखलाओं में हमलोग इस जगत में केवल एक ही घटना को पुनः पुनः घटित होते हुए देख रहे हैं,कोई व्यक्ति किस प्रकार यथार्थ मनुष्य में परिणत होता जा रहा है, इसके अतिरिक्त जगत में देखने योग्य और कुछ भी नहीं है. "
" अतेव हे नर-नारियों उठो ! आत्मा के साथ अपनी अभिन्नता को जानकार सत्य में अविचल रहने का साहस करो। संसार को कई सौ साहसी नर-नारोयों की आवश्यकता है ! " 
यह जगत निश्चित रूप से एक दृष्टान्त रूपी चित्र-शाला (picture gallery) ही है, किन्तु इन चित्रों में क्या कोई वक्तव्य अन्तर्निहित नहीं है ? क्या ये केवल चन्द भावशून्य (vacuous) छवियाँ मात्र हैं ? बिल्कुल नहीं. इन समस्त छवियों में एक मूल-तत्व को दर्शया गया है. वह केन्द्रीय विषय क्या है ?
इस जगत को यथार्थ सत्य के रूप में न देखकर, जो लोग इसे किसी चित्र-शाला के रूप में समझने की चेष्टा कर रहे हैं, वे जब इस पहेली को समझ लेते हैं,तब वे यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाते हैं. इसीलिए, जगतरूपी चित्र-शाला के इन चित्रों की ओर निहारने से हमलोगों को क्या जानकारी प्राप्त होती है ? इन चित्रों में झाँक कर देखने से यही दिखाई पड़ता है, कि मनुष्य यथार्थ-मनुष्य के रूप में परिणत हो रहा है. इस बात को स्वीकार करने से, इस चित्र-शाला की भी, थोड़ी-बहुत सार्थकता सिद्ध हो जाती है. जगत की भी सार्थकता है, इसका सबकुछ निरर्थक नहीं है, हमलोगों के लिए यह अवश्य ही बड़े उपयोग की वस्तु हो सकती है. 
यदि यह जगत बिल्कुल ही निरर्थक होता, तो इसे हमलोग ' आकाश-कुसुम ' जैसा बेसिर-पैर की बात (असत) कह सकते थे.यहाँ एक प्रकार का कार्य (बार बार जन्म लेना और मरना ) होता हुआ दिख रहा है, किन्तु वह कार्य ही अन्तिम बात नहीं है. यदि इस जगत की अन्तिम बात या अन्तिम स्थिति यही होती कि खेल के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है, तबतो इसे नीरस या निरर्थक प्रक्रिया कह सकते थे. किन्तु इसी में समझ लेने योग्य कोई गूढ़ रहस्य भी छिपा हुआ है. इसीलिए इस जगत की कोई भी घटना बिल्कुल निरर्थक नहीं है. 
जगत को इस दृष्टि, या साक्षी-भाव से देखने का प्रयत्न लगातार करते जाने से एक समय अवश्य ऐसा आयेगा जब सर्वदा यही बोध बना रहेगा कि, जगत एक चित्रशाला तो है, किन्तु इसके पीछे भी एक उद्देश्य छिपा हुआ है.उस समय उस उद्देश्य को प्राप्त करने, या यथार्थ मनुष्य की मर्यादा से हमलोग कभी विच्यूत नहीं हो सकेंगे. अभी हमलोगों की क्या स्थिति है ? संभवतः समय-समय पर इसकी थोड़ी-बहुत झलक मिल जाती है. उस समय प्रतीत होता है, कि यह एक चित्र के समान है, या स्वप्नवत है. 
 इसमें कोई वास्तविक सत्ता नहीं है. किन्तु यह चित्र होने से भी, बिल्कुल जीवन्त या सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है.किसी वस्तु का चित्र देखने से क्या होता है ? जिस वस्तु का वह चित्र है, उसकी स्मृति हमारे मन में उभर आती है. 
यह जगत किस वस्तु का चित्र है ? स्वामीजी कहते हैं- " तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया (प्रतिबिम्ब) मात्र है! "  यह जगत (हमारा समाज) यदि चित्र जैसा या प्रतिबिम्ब के जैसा है, तो यह किस वस्तु का चित्र है या किस वस्तु का प्रतिबिम्ब है ? यह उस ' महामाया ' का प्रतिबिम्ब है. महामाया कौन हैं ? वे उसी ब्रह्म की शक्ति हैं.इसीलिए यह चित्र, यह प्रतिबिम्ब- ब्रह्म का ही रूप है. इसीलिए इस चित्र को पूर्णतया शून्य या निरर्थक नहीं कह सकते. जब इस चित्र में, इस प्रतिबिम्ब में मुझे भी फेंक दिया गया है, तब इस प्रतिबिम्ब का ही उपयोग मुझे करना होगा. उनका ही प्रतिबिम्ब जैसा समझने की चेष्टा करनी होगी.
 इसी प्रकार लगातार चिन्तन करते रहने से, एक ऐसा भाव मन में बैठ जाता है, कि यह चित्र अब कभी भी और अधिक केवल एक चित्र या प्रतिबिम्ब मात्र ही नहीं रह जाता. बल्कि किसी प्रतिबिम्ब को देखने के साथ ही साथ, तत्क्षण, उस चित्र या प्रतिबिम्ब का प्रयोजन भी समझ में आ चुका होता है. क्योंकि यह चित्र (प्रतिमा ) यदि बीच में नहीं आई होती, तो यह संसार जिस वस्तु की छाया या प्रतिबिम्ब है- उनको समझा नहीं जा सकता था.एक बार यह समझ लेने के बाद, पुनः जगत को व्यर्थ समझ पाना संभव ही नहीं होता. जिन लोगों के सिर पर यह जगत एक भारी बोझ के समान थोपा हुआ है, उनके बोझ को अब हम कम करते जाने में सहायता करते रहते हैं. यही है स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त जगत के रहस्य का, अस्तित्व-अनस्तित्व के समस्या का समाधान ! 
[साधनपाद :१६ ' हेयं दुःखमनागतम ' -जो दुःख अभी तक नहीं आया, उसका त्याग करना चाहिए.
हमने जिस कर्मफल का भोग कर लिया है, वह तो अब समाप्त हो चुका. हम वर्तमान में जिसका भोग कर रहे हैं, उसका भोग तो हमें करना ही पड़ेगा; केवल जो कर्म भविष्य में फल देने के लिए बच रहा है, उसी पर हम जय प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात उसका नाश कर सकते हैं. 
साधनपाद :१७ ' द्रष्टुदृश्ययो: संयोगो हेयहेतु: ' -जो हेय है, अर्थात जिस दुःख का त्याग करना होगा, उसका कारण है द्रष्टा और दृश्य का संयोग. द्रष्टा कौन है ? मनुष्य की आत्मा-पुरुष. दृश्य क्या है ? मन से लेकर स्थूल भूत तक सारी प्रकृति. इस पुरुष और मन का तादात्म्य हो जाने से ही समस्त दुःख उत्पन्न हुए हैं. आत्मा शुद्ध्स्वरूप है; ज्यों ही वह प्रकृति के साथ संयुक्त होता है, और प्रकृति में प्रतिबिम्बित होता है, त्यों ही सुख या दुःख का अनुभव करता हुआ प्रतीत होता है. 
पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है. इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुंदर कहानी है : किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बन कर कीचड़ में रहते थे, उनकी एक शूकरी थी-उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे. वे बड़े सुख से (नाली में पलक-पनीर खोजते हुए ) समय बिताते थे. कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले-' आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं, फिर आप यहाँ क्यों हैं ?
परन्तु  इन्द्र ने उत्तर दिया, ' मैं बड़े मजे में हूँ. मुझे स्वर्ग की प्रवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए. देवगण तो यह सुनकर अवाक् हो गये, उन्हें कुछ सूझ न पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्होंने ...एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालने का संकल्प कर लिया. जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे. तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चिर डाला. 
तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, ' मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !'
पुरुष(आत्मा) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (मन) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरूप है. सत-चित-आनन्द या प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं हैं, वे तो उसका स्वरूप हैं. जब वे किसी वस्तु में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब चाहो तो उन्हें उस वस्तु के गुण कह सकते हो. किन्तु वे ' प्रेम-ज्ञान-अस्तित्व ' पुरुष (आत्मा) के गुण नहीं हैं, वे तो उस महान आत्मा, उस अनन्त पुरुष के स्वरुप हैं, जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है. किन्तु वह (महान आत्मा ) यहाँ तक स्वरूप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है.
इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है. यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है. तुम कभी किसी नियम (जन्म-मृत्यु) से बद्ध नहीं थे. योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष (आत्मा) किस प्रकार इस मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता है, तथा अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय भी है.हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी.
साधनपाद :१८ ' प्रकाश-क्रिया-स्थितिशीलं ' भुतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम ।।' 
यह दृश्यमान जगत रूपी चित्र मन का ही कार्य है, परिवर्तनशील जगत के 'प्रकाश-कार्य-स्थिति ' जड़ हैं, इस बात को आत्मा अपने अनुभव से जानकर मुक्त हो सके यही इन दृश्यों की उपयोगिता है. अतएव, पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो. 
यदि हर हाल में तुम्हें अपना स्वरूप याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इन सब बन्धनों के पार हो जाओगे. यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हम इन अनुभवों को भुगतने के लिए बाध्य हैं. 
यह सुख-दुःख का अनुभव ही -हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे हमें क्रमशः एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं. तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है. और इसी तुच्छता के कारण जगत चित्रवत होकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है. सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें.(१/१६३-६५)]

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