शनिवार, 26 मई 2012

मन आत्मा के साथ कुण्डलित है '[***23]परिप्रश्नेन

 २३.प्रश्न : आत्मा तथा मन के बीच क्या अंतर है ?
उत्तर : आत्मा हम सभीलोगों के भीतर हैं, केवल सबों के भीतर ही क्यों- वे तो सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, जीवों सभी चीजों में अनुस्यूत हैं.आत्मा कहें या ब्रह्म- दोनों एक ही वस्तु है. जो समस्त वस्तुओं की सत्ता है, जो 
' प्राणस्य-प्राणः ' - सब कुछ के प्राण हैं, समस्त पदार्थों में जो मूल वस्तु हैं-वे ही ब्रह्म या आत्मा हैं. वही ब्रह्म या आत्मा जब किसी मनुष्य में, या किसी पशु में या किसी जीव में रहते हैं, तब उनको ही ' जीवात्मा ' भी कहा जाता है.
जब एक एक व्यक्ति के शरीर का अन्त या विनाश हो जाता है, तब हमलोग उसको अपनी कल्पना में एक एक अलग-अलग आत्मा के रूप की कल्पना करते हुए कहते हैं- उसकी आत्मा निकल गयी है, या ' अमुक ' 
व्यक्ति मर गया है. आत्मा तो सर्वत्र हैं. जब मनुष्य मर जाता है, तब ऐसी कल्पना की जाती है, मानो उसकी आत्मा उसे छोड़ कर निकल गयी है. परिप्रश्नेन 
मन इसी आत्मा के साथ ' कुण्डलित ' है, या घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है.हमारा मन कैसे या किस शक्ति के  कारण से आत्मा के साथ इतने घनिष्ट रूपसे जुड़ा हुआ रहता है (या कुण्डलीकृत हो गया है) यह बता पाना बहुत कठिन है। जिस प्रकार पृथ्वी के चारों ओर जैसे एक वायुमण्डल उसके साथ जड़ित रहता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक के जीवात्मा के चारों ओर मानो मन-वस्तु (चित्त) का एक वायुमण्डल ( आवरण या प्रभामण्डल या aura) जड़ित रहता है.
हमलोगों के आत्मा मानो सबकुछ के द्रष्टा हैं, या सबकुछ को देखते रहते हैं. हमलोग जो कुछ भी भोग करते हैं, सबकुछ के मौलिक या आदि भोक्ता आत्मा ही हैं.हमलोग कल्पना करते हैं, कि हमारा मन किसी बात का अर्थ निकाल लेता है, आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, किन्तु वतुतः आँख,कान,बुद्धि आदि के द्वारा जो कुछ भी अभिज्ञता या प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह सब आत्मा को होता है. वे ही हमारे भीतर अवस्थित वास्तविक द्रष्टा या साक्षी हैं. 
हमलोग कहते हैं- किसी भी प्रकार का ज्ञान, किसी भी तरह की बुद्धि, समस्त प्रकार की स्मृतियाँ यह सब हमारे जिस मन में होता है; वही ' मन ' मानो आत्मा के चारों तरफ जड़ित एक आवरण है.इसीलिए आत्मा जब देह से बाहर निकल जाती है, उस समय मन भी उसके साथ ही साथ चला जाता है. पुनः वही आत्मा जब एक बार फिर शरीर धारण करता है, उस दशा में मन नये सिरे से कार्य करना आरंभ कर देता है. शरीर नहीं रहने से कोई भी कर्म नहीं हो सकता. मन उससे कुछ भिन्न या अलग वस्तु नहीं है, वह भी मानो आत्मा का ही कार्य करने वाला एक यंत्र है.यह बिल्कुल ठीक ठीक समझ में आ जाने वाला विषय नहीं है. यहीं तक समझा जा सकता है.

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