मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

$$$$$$$परिच्छेद~ 23, [(18 फरवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Bow before God* *नेता /गुरु को भक्ति पूर्वक साष्टांग प्रणाम क्यों करना चाहिए* *जागो जागो जननी कुलकुण्डलिनि*, 'tiger God' से आलिंगन नहीं* गृहस्थों (संसारियों) ले लिए ‘दासोऽहं' *अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं~ # यदि मनुष्य 'जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा' समझकर करे ~ 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करे ' तो शनैशनै उसकी कामिनी -कांचन में आसक्ति या भोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है* बेलघड़िया में / “ईश्वर को प्रणाम करो ।” फिर कह रहे हैं, “वे ही सब रूपों में हैं । परन्तु किसी किसी स्थान पर उनका विशेष प्रकाश है- जैसे साधुओं में ।* यदि कहो, दुष्ट लोग भी हैं, बाघ-सिंह भी तो हैं, तो वह ठीक है, परन्तु बाघरुपी नारायण ('tiger God'-अमलानन्द 1987 सेक्रेटरी ) से आलिंगन करने की आवश्यकता नहीं है,* उसे दूर से प्रणाम करके चले जाना चाहिए । “फिर देखो मैदान के तालाब का जल धूप से स्वयं ही सूख जाता है । इसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से पापरूपी तालाब का जल स्वयं ही सूख जाता है ।

 [ परिच्छेद~ २३, (18 फरवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

[*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद~ २३* 

[बेलघड़िया में गोविन्द मुखोपाध्याय के मकान पर ]

 *नेता /गुरु को भक्ति पूर्वक साष्टांग प्रणाम करना चाहिए* 

श्रीरामकृष्ण ने बेलघड़िया (Belgharia*, near Calcutta) के श्री गोविन्द मुखोपाध्याय के मकान पर शुभागमन किया है । रविवार, 18 फरवरी 1883 ई. । नरेन्द्र, राम आदि भक्तगण आये हैं, पड़ोसीगण भी आये हैं । सबेरे सात-आठ बजे के समय श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र आदि के साथ संकीर्तन में नृत्य किया था ।
कीर्तन के बाद सभी बैठ गये । कई लोग श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीच बीच में कह रहे हैं, “ईश्वर को प्रणाम करो ।” फिर कह रहे हैं, “वे ही सब रूपों में हैं । परन्तु किसी किसी स्थान पर उनका विशेष प्रकाश है- जैसे साधुओं में । यदि कहो, दुष्ट लोग भी हैं, बाघ-सिंह भी तो हैं, तो वह ठीक है, परन्तु बाघरुपी नारायण ('tiger God') से आलिंगन करने की आवश्यकता नहीं है, उसे दूर से प्रणाम करके चले जाना चाहिए । फिर देखो जल । कोई जल पिया जाता है, किसी जल से पूजा की जाती है, किसी जल से स्नान किया जाता है और फिर किसी जल से केवल हाथमुँह धोया जाता है ।”
{“তিনিই সব হয়ে রয়েছেন, তবে এক-এক জায়গায় বেশি প্রকাশ, যেমন সাধুতে। যদি বল, দুষ্ট লোক তো আছে, বাঘ সিংহও আছে; তা বাঘনারায়ণকে (अमलानन्द को? )আলিঙ্গন করার দরকার নাই, দূর থেকে প্রণাম করে চলে যেতে হয়। আবার দেখ জল, কোন জল খাওয়া যায়, কোন জলে পূজা করা যায়, কোন জলে নাওয়া যায়। আবার কোন জলে কেবল আচান-শোচান হয়।”
"Bow before God. " It is God alone", he said, "who has become all this. But in certain places — for instance, in a holy man — there is a greater manifestation than in others. You may say, there are wicked men also. That is true, even as there are tigers and lions; but one need not hug the 'tiger God'. One should keep away from him and salute him from a distance. Take water, for instance. Some water may be drunk, some may he used for worship, some for bathing, and some only for washing dishes."
पड़ोसी- वेदान्त का क्या मत है? {"Revered sir, what are the doctrines (महावाक्य) of Vedanta?"

श्रीरामकृष्ण- वेदान्तवादी कहते हैं, ‘सोऽहं’ -'I am He.' । *ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या है* । ‘मैं’ भी मिथ्या है, केवल वह परब्रह्म ही सत्य है ।
“परन्तु ‘मैं’ तो नहीं जाता । इसलिए मैं उनका दास, मैं उनकी सन्तान, मैं उनका भक्त, यह अभिमान बहुत अच्छा है ।
{ বেদান্তবাদীরা বলে ‘সোঽহম্‌’ ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা; আমিও মিথ্যা। কেবল সেই পরব্রহ্মই আছেন।
“কিন্তু আমি তো যায় না; তাই আমি তাঁর দাস, আমি তাঁর সন্তান, আমি তাঁর ভক্ত — এ-অভিমান খুব ভাল।
'The Vedantist says, 'I am He.' Brahman is real and the world illusory. Even the 'I' is illusory. Only the Supreme Brahman exists." But the 'I' cannot be got rid of. Therefore it is good to have the feeling, 'I' am the servant of God, His son, His devotee.' 


परिच्छेद~ 23, [(18 फरवरी 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

* स्वयं को M/F समझने से विषय-बुद्धि होती ही है*  

[Form, taste, smell, sound, and touch — these are the 5 objects.] 

*“कलियुग में भक्तियोग ही ठीक है । भक्ति द्वारा भी उन्हें प्राप्त किया जाता है । देहबुद्धि (M/F )के रहने से विषयबुद्धि होती ही है । रूप (Form : M/F) , रस, गंध, स्पर्श (touch) -ये सब विषय हैं । विषयबुद्धि दूर होना बहुत कठिन है । विषयबुद्धि के रहते ‘सोऽहं’   ।#*नहीं होता। 
      
“ संन्यासियों में विषयबुद्धि कम है, लेकिन संसारीगण (गृहस्थ जीवन जीने वाले)  सदैव विषय-चिन्ता (lust and greed) लेकर ही रहते हैं, इसलिए गृहस्थों के ले लिए ‘दासोऽहं।’ श्रेष्ठ मार्ग है।  
[Hypnotized अवस्था में अर्थात कामिनी या विपरीत लिंग और कांचन में आसक्ति के रहते ‘सोऽहं’ बोलना ढोंग है !#*अली, पतंग, मृग, मीन, गज - जरै एक ही आँच |तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावें  पाँच।।|]  
#अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते । (गीता, १२/५)  बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप  का ध्यान करना अर्थात मनुष्य-मात्र  को ही भगवान का मूर्त रूप समझकर, उसके समक्ष अपने सिर को झुकाना' अधिक सरल और लाभदायक है। # यदि मनुष्य 'जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा' समझकर करे ~ तो शनैशनै उसकी कामिनी -कांचन में आसक्ति  या भोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार, अव्यक्त और अविनाशी परम् तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।}  

{“কলিযুগে ভক্তিযোগই ভাল। ভক্তি দ্বারাও তাঁকে পাওয়া যায়। দেহবুদ্ধি থাকলেই বিষয়বুদ্ধি। রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ — এই সকল বিষয়। বিষয়বুদ্ধি যাওয়া বড় কঠিন। বিষয়বুদ্ধি থাকতে ‘সোঽহম্‌’ হয় না।১ “ত্যাগীদের বিষয়বুদ্ধি কম, সংসারীরা সর্বদাই বিষয়চিন্তা নিয়ে থাকে, তাই সংসারীর পক্ষে ‘দাসোঽহম্‌’।”
"For the Kaliyuga the path of bhakti [माँ काली या (उनके अवतार श्रीठाकुरजीकृष्ण  की भक्ति) is especially good. One can realize God through bhakti too. As long as one is conscious of the body, one is also conscious of objects. Form, taste, smell, sound, and touch — these are the objects. It is extremely difficult to get rid of the consciousness of objects. And one cannot realize 'I am He' as long as one is aware of objects."The sannyasi is very little conscious of worldly objects. But the house-holder is always engrossed in them. Therefore it is good for him to feel, 'I am the servant of God.'] 

पड़ोसी- हम पापी हैं, हमारा क्या होगा?
श्रीरामकृष्ण- उनका नाम-गुणगान करने से देह से सब पाप भाग जाते हैं । देहरूपी वृक्ष पर पाप-पक्षी बैठे हुए हैं; उनका नाम-कीर्तन करना मानो ताली बजाना है । ताली बजाने से जिस प्रकार वृक्ष के ऊपर के सभी पक्षी भाग जाते हैं, उसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से सभी पाप भाग जाते हैं ।
{ তাঁর নামগুণকীর্তন করলে দেহের সব পাপ পালিয়ে যায়। দেহবৃক্ষে পাপপাখি; তাঁর নামকীর্তন যেন হাততালি দেওয়া। হাততালি দিলে যেমন বৃক্ষের উপরের পাখি সব পালায়, তেমনি সব পাপ তাঁর নামগুণকীর্তনে চলে যায়।২
"All the sins of the body fly away if one chants the name of God and sings His glories. The birds of sin dwell in the tree of the body. Singing the name of God is like clapping your hands. As, at a clap of the hands, the birds in the tree fly away, so do our sins disappear at the chanting of God's name and glories. ] 
    “फिर देखो मैदान के तालाब का जल धूप से स्वयं ही सूख जाता है । इसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से पापरूपी तालाब का जल स्वयं ही सूख जाता है ।
[“আবার দেখ, মেঠো পুকুরের জল সূর্যের তাপে আপনা-আপনি শুকিয়ে যায়। তেমনি তাঁর নামগুণকীর্তনে পাপ-পুষ্করিণীর জল আপনা-আপনি শুকিয়ে যায়।
"Again, you find that the water of a reservoir dug in a meadow is evaporated by the heat of the sun. Likewise, the water of the reservoir of sin is dried up by the singing of the name and glories of God.
    “  अभ्यास रोज करना पड़ता है ।(मनःसंयोग, विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यास रोज करना पड़ता है ।)  सर्कस में देख आया, घोड़ा दौड़ रहा है, उस पर मेम एक पैर पर खड़ी है । कितने अभ्यास से ऐसा हुआ होगा ।
{“রোজ অভ্যাস করতে হয়। সার্কাসে দেখে এলাম ঘোড়া দৌড়ুচ্ছে তার উপর বিবি একপায়ে দাঁড়িয়ে রয়েছে। কত অভ্যাসে ওইটি হয়েছে।"
You must practise it every day. The other day, at the circus, I saw a horse running at top speed, with an Englishwoman standing on one foot on its back. How much she must have practised to acquire that skill!
“और उनके दर्शन के लिए कम से कम एक बार रोओ ।
[“আর তাঁকে দেখবার জন্য অন্ততঃ একবার করে কাঁদ।"Weep at least once to see God.
“यही दो उपाय हैं, - अभ्यास और अनुराग (गीता के वैराग्य को ठाकुर ने अनुराग कहा ) , अर्थात् उन्हें देखने के लिए व्याकुलता ।”
{“এই দুটি উপায় — অভ্যাস আর অনুরাগ, অর্থাৎ তাঁকে দেখবার জন্য ব্যাকুলতা।”
"These, then, are the two means: practice and passionate attachment to God, that is to say, restlessness of the soul to see Him."
दुमँजलें पर बैठकखाने के बरामदे में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ प्रसाद पा रहे हैं । दिन के एक बजे का समय हुआ । भोजन समाप्त होने के साथ ही साथ नीचे के आँगन में एक भक्त गाने लगे- 

जागो जागो जननी,



मूलाधारे निद्रागत कतोदिन गत होलो कुलकुण्डलिनि।। 

स्वकार्यसाधने चलो माँ शिरोमध्ये, परम शिव जोथा सहस्रदलपद्मे।
 
कोरे षटचक्रभेद (माँ गो) घुचाओ मनेर खेद, चैतन्यरुपिणी।। 

(भावार्थ) – “जागो, जागो जननि ! हे कुलकुण्डलिनि ! मूलाधार में सोते हुए कितने दिन बीत गये !”

জাগ জাগ জননি,
মূলাধারে নিদ্রাগত কতদিন গত হল কুলকুণ্ডলিনী।
স্বকার্যসাধনে চল মা শিরোমধ্যে, পরম শিব যথা সহস্রদলপদ্মে,
করি ষট্‌চক্র ভেদ (মাগো) ঘুচাও মনের খেদ, চৈতন্যরূপিণি।
श्रीरामकृष्ण गाना सुनकर समाधिमग्न हुए । सारा शरीर स्थिर है, हाथ प्रसाद-पात्र पर जैसा था वैसा ही चित्रलिखित-सा रह गया । और भोजन न हुआ । काफी देर के बाद भाव कुछ कम होने पर कह रहे हैं, “मैं नीचे जाऊँगा, मैं नीचे जाऊँगा ।”
एक भक्त उन्हें बड़ी सावधानी के साथ नीचे ले जा रहे हैं ।
आँगन में ही प्रातःकाल नामसंकीर्तन तथा प्रेमानन्द में श्रीरामकृष्ण का नृत्य हुआ था । अभी तक दरी और आसन बिछा हुआ है । श्रीरामकृष्ण अभी तक भावमग्न हैं । गानेवाले के पास आकर बैठे । गायक ने इतनी देर में गाना बन्द कर दिया था । श्रीरामकृष्ण दीन भाव से कह रहे हैं, “भाई, और एक बार ‘माँ’ का नाम सुनूँगा ।” गायक फिर गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ)- “जागो, जागो, जननि ! हे कुलकुण्डलिनी ! मूलाधार में निद्रितावस्था में कितने दिन बीत गये ! अपनी कार्यसिद्धि के लिए मस्तक की ओर चलो, जहाँ सहस्त्रदल पद्म में परमशिव विराजमान हैं । हे माँ, चैतन्यरूपिणी (O Essence of Consciousness) , षट्चक्र को भेदकर मन के खेद को दूर करो ।”
{Awake, Mother! Awake! How long Thou hast been asleep,In the lotus of the Muladhara! Fulfil Thy secret function. Mother: Rise to the thousand-petalled lotus within the head, Where mighty Siva has His dwelling; Swiftly pierce the six lotuses, And take away my grief, O Essence of Consciousness!
गाना सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण फिर भावमग्न हो गये ।
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