शनिवार, 10 अप्रैल 2021

ॐ $$$$$परिच्छेद ~19, [(14 दिसम्बर 1882)श्रीरामकृष्ण वचनामृत] * FISHING NET ~ FISH ~ FISHERMAN *Four classes of human beings * इस समय विजय साधारण ब्राह्मसमाज में आचार्य की नौकरी 😎करते हैं । उन्हें समाज की वेदी पर बैठकर उपदेश देना पड़ता है ।

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ

परिच्छेद ~ १९

*विजयकृष्ण गोस्वामी आदि के प्रति उपदेश* 

(१)

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

अजो नित्यं शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

(गीता, २/२०)

[यह शरीरी (आत्मा) न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुरातन (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।

इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर में होने वाले छः प्रकार के परिर्वतन-  जन्म, अस्तित्व ,वृद्धि , विकार,  क्षय और नाश आदि समस्त विकारों से आत्मा परे है। शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः  यहाँ कहा है कि आत्मा अज और नित्य है।] 

* वेतनभोगी आचार्य (Paid Preacher ) 'नेता' नहीं होता * 

[ Paid Preacher is not a Leader ] 

दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी भगवान् श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हैं । उनके साथ तीन-चार ब्राह्मभक्त भी हैं । ब्रहस्पतिवार, 14 दिसम्बर 1882 ई. । श्रीरामकृष्णदेव के परम भक्त बलराम बाबू के साथ ये लोग कलकत्ते से नाव पर चढ़कर आये हैं । श्रीरामकृष्ण दोपहर को जरा विश्राम कर रहे हैं । उनके पास रविवार को भीड़ ज्यादा होती है । इसीलिए जो भक्त उनसे एकान्त में बातचीत करना चाहते हैं, वे प्रायः दूसरे ही समय आते हैं ।

श्रीरामकृष्ण अपने तखत पर बैठे हुए हैं । विजय, बलराम, मास्टर और दूसरे भक्त उनकी ओर मुँह करके पश्चिमास्य बैठे हैं । कोई चटाई पर तो कोई फर्श ही पर बैठा है । कमरे के पश्चिन ओर के दरवाजे से गंगाजी दिखायी दे रही है । शीत ऋतु के कारण भागीरथी शान्त तथा स्वच्छ जल से पूर्ण है । दरवाजे के उस ओर पश्चिम का अर्धगोलाकार बरामदा है । बरामदे के नीचे फूलों का बगीचा और फिर गंगा का पुश्ता है । पुश्ते के पश्चिम अंग से सटकर पुण्यसलिला कलुषहारिणी गंगा मानो ईश्वरमन्दिर के पादमूल को आनन्द के साथ धोते हुए बहती जा रही है । 

ठण्डकाल है, इसलिए सभी गरम कपड़े चढ़ाए हुए हैं । विजय को शूल  (Colic)  की बहुत पीड़ा होती है, इसलिए वे अपने साथ दवा की शीशी ले आए हैं-दवा लेने का समय होने पर दवा लेंगे इस समय विजय साधारण ब्राह्मसमाज में आचार्य की नौकरी 😎करते हैं । उन्हें समाज की वेदी पर बैठकर उपदेश देना पड़ता है । परन्तु आजकल समाज के साथ अनेक विषयों पर उनका मतभेद हो रहा है । क्या किया जाय-नौकरी करते हैं, इसलिए अपनी इच्छा के अनुसार न तो कुछ कह सकते हैं, और न कर ही सकते हैं । 

[Vijay was a Paid Preacher in the Sadharan Brahmo Samaj, but there were many things about which he could not agree with the Samaj authorities.

বিজয় এখন সাধারণ ব্রাহ্মসমাজের একজন বেতনভোগী আচার্য। সমাজের বেদীর উপর বসিয়া তাঁহাকে উপদেশ দিতে হয়। তবে এখন সমাজের সহিত নানা বিষয়ে মতভেদ হইতেছে। কর্ম স্বীকার করিয়াছেন, কি করেন, স্বাধীনভাবে কথাবার্তা বা কার্য করিতে পারেন না। ]

विजय का जन्म एक अत्यन्त पवित्र और उच्च कुल में हुआ है । भगवान् श्रीचैतन्यदेव के एक प्रधान पार्षद अद्वैत गोस्वामी विजय के पूर्वपुरुष हैं । अद्वैत गौस्वामी ज्ञानी थे, निराकार परब्रह्म के चिन्तन में लीन रहते थे; पर साथ ही उन्होंने भक्ति की भी पराकाष्ठा दिखायी है वे हरिप्रेम में मतवाले होकर नृत्य करते थे- इतने आत्मविस्मृत हो जाते थे कि नाचते नाचते अंग से वस्त्र तक खिसक जाते थे । विजय भी ब्रह्मसमाज में आए हैं, निराकार परब्रह्म का चिन्तन करते हैं; परन्तु अपने पूर्वज अद्वैत गोस्वामी के पवित्र रक्त की धारा उनकी देह में प्रवाहित हो रही है । 

हृदय में भगवत्प्रेम का अंकुर प्रकाशोन्मुख है, केवल समय की प्रतीक्षा कर रहा है । इसीलिए वे भगवान् श्रीरामकृष्ण की अपूर्व भगवत्प्रेमोन्मत्त अवस्था को देखकर मुग्ध हुए हैं । [ Vijay was irresistibly attracted by the God-intoxicated state of Sri Ramakrishna and often sought his company.] मन्त्रमुग्ध सर्प जिस प्रकार सँपेरे के सामने फन निकाले बैठा रहता है, उसी प्रकार विजय भी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकलने वाले भगवत्प्रसंग को सुनते हुए मुग्ध होकर उनके पास बैठे रहते हैं । फिर वे जब भगवत्प्रेम में बालकों की भाँति नृत्य करने लगते हैं तब विजय भी उनके साथ नाचने लग जाते हैं ।

[[ He came from a very noble family of Bengal noted for its piety and other spiritual qualities. Advaita Goswami, one of his remote ancestors, had been an intimate companion of Sri Chaitanya. Thus the blood of a great lover of God flowed in Vijay's veins. As an adherent of the Brahmo Samaj, Vijay no doubt meditated on the formless Brahman; but his innate love of God, inherited from his distinguished ancestors, had merely been waiting for the proper time to manifest itself in all its sweetness. Thus Vijay was irresistibly attracted by the God-intoxicated state of Sri Ramakrishna and often sought his company. He would listen to the Master's words with great respect, and they would dance together in an ecstasy of divine love.

বিজয় অতি পবিত্র বংশে — অদ্বৈত গোস্বামীর বংশে জন্মগ্রহণ করিয়াছেন। অদ্বৈত গোস্বামী জ্ঞানী ছিলেন — নিরাকার পরব্রহ্মের চিন্তা করিতেন, আবার ভক্তির পরাকাষ্ঠা দেখাইয়া গিয়াছেন! তিনি ভগবান চৈতন্যদেবের একজন প্রধান পার্ষদ — হরিপ্রেমে মাতোয়ারা হইয়া নৃত্য করিতে করিতে পরিধানবস্ত্র খসিয়া যাইত। বিজয়ও ব্রাহ্মসমাজে আসিয়াছেন — নিরাকার পরব্রহ্মের চিন্তা করেন; কিন্তু মহাভক্ত পূর্বপুরুষ শ্রীঅদ্বৈতের শোণিত ধমনী মধ্যে প্রবাহিত হইতেছিল, শরীর মধ্যস্থিত হরিপ্রেমের বীজ এখন প্রকাশোন্মুখ — কেবল কাল প্রতীক্ষা করিতেছে! তাই তিনি ভগবান শ্রীরামকৃষ্ণের দেবদুর্লভ হরিপ্রেমে “গরগর মতোয়ারা” অবস্থা দেখিয়া মুগ্ধ হইয়াছেন। মন্ত্রমুগ্ধ সর্প যেমন ফণা ধরিয়া সাপুড়ের কাছে বসিয়া থাকে, বিজয়ও পরমহংসদেবের শ্রীমুখনিঃসৃত ভাগবত শুনিতে শুনিতে মুগ্ধ হইয়া তাঁহার নিকটে বসিয়া থাকেন। আবার যখন তিনি হরিপ্রেমে বালকের ন্যায় নৃত্য করিতে থাকেন, বিজয়ও তাঁহার সঙ্গে নৃত্য করিতে থাকেন।

*मुक्त-पुरुष द्वारा शरीर त्याग देना क्या आत्महत्या है ?*

विष्णु ‘एँड़ेदह’ में रहता था । उसने गले में छुरा लगाकर आत्महत्या कर ली । आज उसी की चर्चा हो रही है ।

[A boy named Vishnu, living in Ariadaha, had recently committed suicide by cutting his throat with a razor. The talk turned to him.

श्रीरामकृष्ण-देखो, उस लड़के ने आत्महत्या कर ली, जब से यह सुना, मन दुखी हो रहा है । यहाँ आता था, स्कूल में पढ़ता था, पर कहता था-संसार अच्छा नहीं लगता । पश्चिम चला गया था, किसी आत्मीय के यहाँ कुछ दिन ठहरा था । वहाँ निर्जन वन में, मैदान में, पहाड़ पर बैठा हुआ सदा ध्यान करता था । उसने मुझसे कहा था, न जाने ईश्वर के कितने रूपों के दर्शन करता हूँ ।

“जान पड़ता है, यह अन्तिम जन्म था । पूर्वजन्म में बहुत-कुछ काम उसने कर डाला था । कुछ बाकी रह गया था, वह भी जान पड़ता है इस जन्म में पूरा हो गया ।

 "I felt very badly when I heard of the boy's passing away. He was a pupil in a school and he used to come here. He would often say to me that he couldn't enjoy worldly life. He had lived with some relatives in the western provinces and at that time used to meditate in solitude, in the meadows, hills, and forests. He told me he had visions of many divine forms."Perhaps this was his last birth. He must have finished most of his duties in his previous birth. The little that had been left undone was perhaps finished in this one.

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়, মাস্টার ও ভক্তদের প্রতি) — দেখ, এই ছেলেটি শরীরত্যাগ করেছে শুনলুম, মনটা খারাপ হয়ে রয়েছে। এখানে আসত, স্কুলে পড়ত, কিন্তু বলত — সংসার ভাল লাগে না। পশ্চিমে গিয়ে কোন আত্মীয়ের কাছে কিছুদিন ছিল — সেখানে নির্জনে মাঠে, বনে, পাহাড়ে সর্বদা বসে ধ্যান করত। বলেছিল যে, কত কি ঈশ্বরীয় রূপ দর্শন করি। “বোধ হয় — শেষ জন্ম। পূর্বজন্মে অনেক কাজ করা ছিল। একটু বাকী ছিল, সেইটুকু বুঝি এবার হয়ে গেল।

*जन्मजात प्रवृत्ति ( Inherited Tendencies) को भी बदला जा सकता है* 

“पूर्वजन्म का संस्कार (tendencies inherited from previous births ) मानना चाहिए । मैंने सुना है, एक मनुष्य शव-साधना (एक प्रकार की तांत्रिक-साधना जिसमें साधक ध्यान करने में  आसन के लिए  किसी शव या लाश (corpse) का उपयोग करता है। ) कर रहा था । घने जंगल में भगवती (माँ काली)  की आराधना कर रहा था । परन्तु वह अनेक प्रकार की विभीषिकाएँ देखने लगा । अन्त को उसे बाघ पकड़ ले गया । वहीँ एक और आदमी बाघ के भय से पास के एक पेड़ पर चढ़कर बैठा हुआ था । शव तथा पूजा की अन्य सामग्रियाँ इकट्ठी देखकर वह उतर पड़ा । और आचमन करके शव के ऊपर बैठ गया । कुछ जप करते ही माँ प्रकट होकर बोलीं, ‘मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ- तू वर माँग ।’ माता के पाद-पकंजों में प्रणत होकर वह बोला, ‘माँ, एक बात पूछता हूँ । तुम्हारा कार्य देखकर बड़ा आश्चर्य होता है । उस मनुष्य ने इतनी मेहनत की, इतना आयोजन किया, इतने दिनों से तुम्हारी साधना कर रहा था, उस पर तो तुम्हारी कृपा न हुई; प्रसन्न तुम मुझ पर हुई जो भजन-साधन-ज्ञान-भक्ति आदि कुछ नहीं जानता ।’ हँसकर भगवती (माँ काली) बोलीं, बेटा, तुम्हें जन्मान्तर की बात याद नहीं है । तुम जन्म जन्म से मेरे लिए तपस्या कर रहे हो । उसी साधनबल से इस प्रकार सब कुछ तैयार पाया और तुम्हें मेरे दर्शन भी मिले । अब कहो, क्या वर चाहते हो ?” 

["One must admit the existence of tendencies inherited from previous births. There is a story about a man who practised the sava-sadhana. (A religious practice prescribed by the Tantra, in which the aspirant uses a sava, or corpse, as his seat for meditation.) He worshipped the Divine Mother in a deep forest. First he saw many terrible visions. Finally a tiger attacked and killed him. Another man, happening to pass and seeing the approach of the tiger, had climbed a tree. Afterwards he got down and found all the arrangements for worship at hand. He performed some purifying ceremonies and seated himself on the corpse. No sooner had he done a little japa than the Divine Mother appeared before him and said: 'My child, I am very much pleased with you. Accept a boon from Me.' He bowed low at the Lotus Feet of the Goddess and said: 'May I ask You one question, Mother? I am speechless with amazement at Your action. The other man worked so hard to get the ingredients for Your worship and tried to propitiate You for such a long time, but You didn't condescend to show him Your favour. And I, who don't know anything of worship, who have done nothing, who have neither devotion nor knowledge nor love, and who haven't practised any austerities, am receiving so much of Your grace.' The Divine Mother said with a laugh; 'My child, you don't remember your previous births. For many births you tried to propitiate Me through austerities. As a result of those austerities all these things have come to hand, and you have been blessed with My vision. Now ask Me your boon.'

“পূর্বজন্মের সংস্কার মানতে হয়। শুনেছি, একজন শবসাধন করছিল, গভীর বনে ভগবতীর আরাধনা করছিল। কিন্তু সে অনেক বিভীষিকা দেখতে লাগল; শেষে তাকে বাঘে নিয়ে গেল। আর-একজন বাঘের ভয়ে নিকটে একটা গাছের উপরে উঠেছিল। শব আর অন্যান্য পূজার উপকরণ তৈয়ার দেখে সে নেমে এসে আচমন করে শবের উপরে বসে গেল। একটু জপ করতে করতে মা সাক্ষাৎকার হলেন ও বললেন — আমি তোমার উপর প্রসন্ন হয়েছি, তুমি বর নাও। মার পাদপদ্মে প্রণত হয়ে সে বললে — মা, একটা কথা জিজ্ঞাসা করি, তোমার কাণ্ড দেখে অবাক হয়েছি! সে ব্যক্তি এত খেটে, এত আয়োজন করে, এতদিন ধরে তোমার সাধনা করছিল, তাকে তোমার দয়া হল না! আর আমি কিছু জানি না, শুনি না, ভজনহীন, সাধনহীন, জ্ঞানহীন, ভক্তিহীন, আমার উপর এত কৃপা হল! ভগবতী হাসতে হাসতে বললেন, ‘বাছা! তোমার জন্মান্তরের কথা স্মরণ নাই, তুমি জন্ম জন্ম আমার তপস্যা করেছিলে, সেই সাধনবলে তোমার এরূপ জোটপাট হয়েছে, তাই আমার দর্শন পেলে। এখন বল কি বর চাও’?”

*मुक्त पुरुष का शरीरत्याग *

[ स्वर्ण मूर्ति ढल जाने के बाद मिट्टी का साँचा कोई रख लेता है , कोई तोड़ देता है ] 

एक भक्त बोल उठे, “आत्महत्या की बात सुनकर ही भय लगता है ।” ["I am frightened to hear of the suicide."একজন ভক্ত বলিলেন, আত্মহত্যা করেছে শুনে ভয় হয়।

श्रीरामकृष्ण- आत्महत्या करना महापाप है, घूम-फिरकर संसार में आना पड़ता है, और वही संसार-दुःख भोगना पड़ता है । 

[ "Suicide is a heinous sin, undoubtedly. A man who kills himself must return again and again to this world and suffer its agony.শ্রীরামকৃষ্ণ — আত্মহত্যা করা মহাপাপ, ফিরে ফিরে সংসারে আসতে হবে, আর এই সংসার-যন্ত্রণা ভোগ করতে হবে।

“परन्तु यदि कोई ईश्वर-दर्शन के बाद शरीर त्याग दे, तो उसे आत्महत्या नहीं कहते । उस प्रकार के शरीरत्याग में दोष नहीं है । ज्ञानलाभ के बाद कोई कोई शरीर छोड़ देते हैं । जब मिट्टी के साँचे में सोने की मूर्ति ढल जाती है, तब मिट्टी का साँचा चाहे कोई रखे, चाहे तोड़ दे । 

["But I don't call it suicide if a person leaves his body after having the vision of God. There is no harm in giving up one's body that way. After attaining Knowledge some people give up their bodies. After the gold image has been cast in the clay mould, you may either preserve the mould or break it.“তবে যদি ইশ্বরের দর্শন হয়ে কেউ শরীরত্যাগ করে, তাকে আত্মহত্যা বলে না। সে শরীরত্যাগে দোষ নাই। জ্ঞানলাভের পর কেউ কেউ শরীর ত্যাগ করে। যখন সোনার প্রতিমা একবার মাটির ছাঁচে ঢালাই হয়, তখন মাটির ছাঁচ রাখতেও পারে, ভেঙে ফেলতেও পারে।

“कई वर्ष हो गए, वराहनगर से एक लड़का आता था, उम्र कोई बीस साल की होगी । नाम गोपाल सेन था । तब उसको इतना भाव हो जाता था कि हृदय को उसे पकड़ रखना पड़ता था कि कहीं गिरकर उसके हाथ-पैर न टूट जाएँ । 

“उस लड़के ने एक दिन एकाएक मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, ‘मैं और न आ सकूँगा-अब मैं चला !’ कुछ दिन बाद सुना कि उसने देह छोड़ दी ।” 

["Many years ago a young man of about twenty used to come to the temple garden from Baranagore: his name was Gopal Sen. In my presence he used to experience such intense ecstasy that Hriday had to support him for fear he might fall to the ground and break his limbs. That young man touched my feet one day and said: 'Sir. I shall not be able to see you any more. Let me bid you good-bye.' A few days later I learnt that he had given up his body.“অনেক বছর আগে বরাহনগর থেকে একটি ছোকরা আসত, উমের কুড়ি বছর হবে। গোপাল সেন যখন এখানে আসত তখন এত ভাব হত যে, হৃদয় কে ধরতে হত — পাছে পড়ে গিয়ে হাত-পা ভেঙে যায়! সে ছোকরা একদিন হঠাৎ আমার পায়ে হাত দিয়ে বললে, আর আমি আসতে পারব না — তবে আমি চললুম। কিছুদিন পরে শুনলাম যে, সে শরীরত্যাগ করেছে।”

(२) 

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।। (गीता, ९/३३) 

[जब  पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण और राजर्षि क्षत्रिय भक्तजन भी  (परम गति को प्राप्त होते हैं);  इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीर को प्राप्त करके तुम भक्तिपूर्वक मेरी ही पूजा करो।

असंख्य विषय, इन्द्रियाँ और मन के भाव इनसे युक्त जगत् में ही हमें जीवन जीना होता है। ये तीनों ही सदा बदलते रहते हैं। स्वाभाविक ही,  इन्द्रियों के द्वारा विषयोपभोग का सुख अनित्य ही होगा। ब्राह्मण अर्थात् शुद्धान्तकरण का व्यक्ति, तथा राजर्षि माने उदार हृदय और दूर दृष्टि का बुद्धिमान व्यक्ति। जिस राजा ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी राजसत्ता एवं धनवैभव का उपयोग किया हो, वह आत्मानुसंधान के द्वारा वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। ऐसे राजा को ही राजर्षि कहते हैं। ] 

* FISHING NET ~ FISH- FISHERMAN*

*मनुष्य की चार श्रेणियाँ । कामिनी-कांचन में आसक्त मनुष्य बद्ध -मनुष्य ।*

श्रीरामकृष्ण- जीव चार दर्जे के कहे गए हैं- बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य । 

["It is said that there are four classes of human beings: the bound, those aspiring after liberation, the liberated, and the ever-perfect.]

 জীব চার থাক বলেছে — বদ্ধ, মুমুক্ষু, মুক্ত, নিত্য।

संसार मानो जाल है और जीव मछली । ईश्वर, यह संसार जिनकी माया है , वे मछुआ हैं । जब मछुए के जाल में मछलियाँ पड़ती हैं, तब कुछ मछलियाँ जाल चीरकर भागने की अर्थात् मुक्त होने की कोशिश करती हैं । उन्हें मुमुक्षु जीव कहना चाहिए । जो भागने की चेष्टा करती हैं उनमें से सभी नहीं भाग सकतीं । दो-चार मछलियाँ ही धड़ाम से कूदकर भाग जाती हैं । तब लोग कहते हैं, वह बड़ी मछली निकल गयी । ऐसे ही दो-चार मनुष्य मुक्त (De-hypnotized) जीव हैं ।

[সংসার জালের স্বরূপ, জীব যেন মাছ, ঈশ্বর (যাঁর মায়া এই সংসার) তিনি জেলে। জেলের জালে যখন মাছ পড়ে, কতকগুলো মাছ জাল ছিঁড়ে পালাবার অর্থাৎ মুক্ত হবার চেষ্টা করে। এদের মুমুক্ষু জীব বলা যায়। যারা পালাবা চেষ্টা করছে, সকলেই পালাতে পারে না। দু-চারটা মাছ ধপাঙ্‌ শব্দ করে পালায়; তখন লোকেরা বলে, “ওই মাছটা বড়, পালিয়ে গেল!” এই দু-চারটা লোক মুক্তজীব। 

["This world is like a fishing net. Men are the fish, and God, whose maya has created this world, is the fisherman. When the fish are entangled in the net, some of them try to tear through its meshes in order to get their liberation. They are like the men striving after liberation. But by no means all of them escape. Only a few jump out of the net with a loud splash, and then people say, 'Ah! There goes a big one!' In like manner, three or four men attain liberation.

 कुछ मछलियाँ स्वभावतः ऐसी सावधानी से रहती हैं कि कभी जाल में आती ही नहीं । नारदादि नित्य जीव कभी संसार जाल में नहीं फँसते। (पर माया -दर्शन के चक्कर में नारद 😍 भी पुनः फँस सकते हैं ~ 'Hypnotized' हो सकते है !) ।

[কতকগুলি মাছ স্বভাবত এত সাবধান যে, কখনও জালে পড়ে না। নারদাদি নিত্যজীব কখনও সংসারজালে পড়ে না। Again, some fish are so careful by nature that they are never caught in the net; some beings of the ever-perfect class, like Narada,(शुकदेव) are never entangled in the meshes of worldliness. ] 

परन्तु प्रायः अधिकतर मछलियाँ जाल में पड़ जाती हैं, फिर भी उन्हें होश नहीं कि जाल में पड़ी हैं, अब मरना होगा । जाल में पड़ते ही जाल-सहित इधर से उधर भागती हैं, और सीधे कीच में घुसकर देह छिपाना चाहती हैं । भागने की कोई चेष्टा नहीं, बल्कि कीच में और गड़ जाती हैं । ये ही बद्ध जीव हैं

बद्ध जीव संसार में अर्थात् कामिनी कंचन में फँसे हुए हैं, कलंकसागर में मग्न हैं, पर सोचते हैं कि बड़े आनन्द में हैं !  

[কিন্তু অধিকাংশ মাছ জালে পড়ে; অথচ এ-বোধ নাই যে, জালে পড়েছে মরতে হবে। জালে পড়েই জাল-শুদ্ধ চোঁ-চা দৌড় মারে ও একেবারে পাঁকে গিয়ে শরীর লোকোবার চেষ্টা করে। পালাবার কোন চেষ্টা নাই বরং আরও পাঁকে গিয়ে পড়ে। এরাই বদ্ধজীব। জালে এরা রয়েছে, কিন্তু মনে করে, হেথায় বেশ আছি। বদ্ধজীব, সংসারে — অর্থাৎ কামিনী-কাঞ্চনে — আসক্ত হয়ে আছে; কলঙ্ক-সাগরে মগ্ন, কিন্তু মনে করে বেশ আছি

 Most of the fish are trapped; but they are not conscious of the net and of their imminent death. No sooner are they entangled than they run headlong, net and all, trying to hide themselves in the mud. They don't make the least effort to get free. On the contrary, they go deeper and deeper into the mud. These fish are like the bound men. They are still inside the net, but they think they are quite safe there.

 A bound creature is immersed in worldliness, in 'woman and gold', having gone deep into the mire of degradation. But still he believes he is quite happy and secure. 

      जो मुमुक्षु या मुक्त हैं, संसार उन्हें कूप जान पड़ता है, अच्छा नहीं लगता । इसीलिए कोई कोई ज्ञानलाभ, ईश्वरलाभ हो जाने पर शरीर छोड़ देते हैं, परन्तु इस तरह का शरीरत्याग बड़ी दूर की बात है।

[যারা মুমুক্ষু বা মুক্ত সংসার তাদের পাতকুয়া বোধ হয়; ভাল লাগে না। তাই কেউ কেউ জ্ঞানলাভের পর, ভগবানলাভের পর শরীরত্যাগ করে। কিন্তু সে-রকম শরীরত্যাগ অনেক দূরের কথা।

The liberated, and the seekers after liberation, look on the world as a deep well. They do not enjoy it. Therefore, after the attainment of Knowledge, the realization of God, some give up their bodies. But such a thing is rare indeed.] 

“बद्ध जीवों-संसारी जीवों को किसी तरह होश नहीं होता । कितना दुःख पाते हैं, कितना धोका खाते हैं, कितनी विपदाएँ झेलते हैं, फिर भी बुद्धि ठिकाने नहीं आती । 

[“বদ্ধজীবের — সংসারী জীবের — কোন মতে হুঁশ আর হয় না। এত দুঃখ, এত দাগা পায়, এত বিপদে পড়ে, তবুও চৈতন্য হয় না।

 "The bound creatures, entangled in worldliness, will not come to their senses at all. They suffer so much misery and agony, they face so many dangers, and yet they will not wake up.

“ऊँट कटीली घास को बहुत चाव से खाता है । परन्तु जितना ही खाता है उतना ही मुँह से धर धर खून गिरता है, फिर भी कटीली घास को खाना नहीं छोड़ता ! संसारी मनुष्यों को इतना शोकताप मिलता है, किन्तु कुछ दिन बीते कि सब भूल गए । औरत गुजर गयी या बदचलन निकली, तो, फिर ब्याह कर लेता है । बच्चा मर गया, कितना दुःख पाया, पर कुछ ही दिनों में सब भूल जाता है । 

[“উট কাঁটা ঘাস বড় ভালবাসে। কিন্তু যত খায়ে মুখ দিয়ে রক্ত দরদর করে পড়ে; তবুও সেই কাঁটা ঘাসই খাবে, ছাড়বে না। সংসারী লোক এত শোক-তাপ পায়, তবু কিছুদিনের পর যেমন তেমনি। স্ত্রী মরে গেল, কি অসতী হল, তবু আবার বিয়ে করবে। "The camel loves to eat thorny bushes. The more it eats the thorns, the more the blood gushes from its mouth. Still it must eat thorny plants and will never give them up. The man of worldly nature suffers so much sorrow and affliction, but he forgets it all in a few days and begins his old life over again. Suppose a man has lost his wife or she has turned unfaithful. Lo! He marries again.

बच्चे की वही माँ जो मारे शोक के अधीर हो रही थी, कुछ दिन बीत जाने पर बाल सँवारती, जूड़ा बाँधती और गहनों से सजती है । इसी तरह मनुष्य बेटी के ब्याह में कुल धन गँवा बैठता है, परन्तु हर साल बेटियों को पैदा करने में घाटा नहीं होने देता ! मुकदमेबाजी से घर में एक कौड़ी नहीं रह जाती तो भी मुक़दमे के लिए लोटा डोर टाँगे फिरते हैं । जितने लड़के पैदा हुए हैं, अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े, अच्छा घर उन्हीं को नहीं मिलता, ऊपर से हर साल एक और पैदा होता है ! 

[ছেলে মরে গেল কত শোক পেলে, কিছুদিন পরেই সব ভুলে গেল। সেই ছেলের মা, যে শোকে অধীর হয়েছিল, আবার কিছুদিন পরে চুল বাঁধল, গয়না পরল! এরকম লোক মেয়ের বিয়েতে সর্বস্বান্ত হয়, আবার বছরে বছরে তাদের মেয়ে ছেলেও হয়! মোকদ্দমা করে সর্বস্বান্ত হয়, আবার মোকদ্দমা করে! যা ছেলে হয়েছে তাদেরই খাওয়াতে পারে না, পরাতে পারে না, ভাল ঘরে রাখতে পারে না, আবার বছরে বছরে ছেলে হয়! 

"Or take the instance of a mother: her son dies and she suffers bitter grief; but after a few days she forgets all about it. The mother, so overwhelmed with sorrow a few days before, now attends to her toilet and puts on her jewelry. A father becomes bankrupt through the marriage of his daughters, yet he goes on having children year after year. ​People are ruined by litigation, yet they go to court all the same. There are men who cannot feed the children they have, who cannot clothe them or provide decent shelter for them; yet they have more children every year.]

“कभी कभी तो ‘साँप छछूँदर’ वाली गति होती है । न निगल सके, न उगल सके । बद्ध जीव कभी समझ भी गया कि संसार में कुछ नहीं, सिर्फ गुठली चाटना है, तो भी वह उसे नहीं छोड़ सकता, ईश्वर की ओर मन नहीं ले जा सकता । 

[“আবার কখনও কখনও যেন সাপে ছুঁচো গেলা হয়। গিলতেও পারে না, আবার উগরাতেও পারে না। বদ্ধজীব হয়তো বুঝেছে যে, সংসারে কিছুই সার নাই; আমড়ার কেবল আঁটি আর চামড়া। তবু ছাড়তে পারে না। তবুও ঈশ্বরের দিকে মন দিতে পারে না!

"Again, the worldly man is like a snake trying to swallow a mole. The snake can neither swallow the mole nor give it up. The bound soul may have realized that there is no substance to the world — that the world is like a hog plum, only stone and skin — but still he cannot give it up and turn his mind to God.]

“केशव सेन के एक आत्मीय को देखा, उम्र कोई पचास साल की थी, पर ताश खेल रहा था मानो ईश्वर का नाम लेने का समय नहीं आया । 

[“কেশব সেনের একজন আত্মীয় পঞ্চাশ বছর বয়স, দেখি, তাস খেলছে। যেন ঈশ্বরের নাম করবার সময় হয় নাই!

"I once met a relative of Keshab Sen, fifty years old. He was playing cards. As if the time had not yet come for him to think of God!]

“बद्ध जीव का एक और लक्षण है । यदि उसको संसार से हटाकर किसी अच्छी जगह पर ले जाओ, तो वह तड़प-तड़पकर मर जाएगा । विष्ठा के कीट को विष्ठा ही में आनन्द मिलता है । उसी से वह हृष्टपुष्ट होता है । उस कीट को अगर अन्न की हण्डी में रख दो तो वह मर जाएगा ।” (सब स्तब्ध हैं)  

[“বদ্ধজীবের আর-একটি লক্ষণ: তাকে যদি সংসার থেকে সরিয়ে ভাল জায়গায় রাখা যায়, তাহলে হেদিয়ে হেদিয়ে মারা যাবে। বিষ্ঠার পোকা বিষ্ঠাতেই বেশ আনন্দ। ওইতেই বেশ হৃষ্টপুষ্ট হয়। যদি সেই পোকাকে ভাতের হাঁড়িতে রাখ, মরে যাবে।” (সকলে স্তব্ধ)

"There is another characteristic of the bound soul. If you remove him from his worldly surroundings to a spiritual environment, he will pine away. The worm that grows in filth feels very happy there. It thrives in filth. It will die if you put it in a pot of rice."

(३)

*मनःसंयोग ~ अभ्यास और तीव्र वैराग्य*   

असंशयं महाबाहो मानो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।

(गीता, ६/३५)

[श्रीभगवान् कहते हैं --  हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। विवेक-दर्शन के अभ्यास से उत्पन्न वैराग्य ही आत्मिक उन्नति का साधन है।

भगवान् के उपदेशानुसार मन के स्थिर होने पर आत्मानुभूति होती है।  जबकि अर्जुन का कहना है कि चंचल मन तो स्थिर हो ही नहीं हो सकता, अतः आत्मानुभूति भी असंभव है। महान मनोवैज्ञानिक भगवान् श्रीकृष्ण भी अर्जुन को उत्साहित करने के लिए स्वीकार करते हैं कि मन का निग्रह करना कठिन है और इसलिए सरलता से मन की स्थायी शान्ति और समता प्राप्त नहीं हो सकती। लेकिन हे कौन्तेय अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन को वश में किया जा सकता है। इन्द्रिय विषयों में घोर आसक्ति तथा कर्मफलों की हठीली आशा ये ही दो प्रमुख कारण हैं जिससे मन सदैव चंचल बना रहता है। जिसके कारण मन को एकाग्र करना कठिन हो जाता है। यहाँ वैराग्य शब्द से इनका ही त्याग सूचित किया गया है। यम-नियम का अभ्यास वैराग्य को दृढ़ करता है और वैराग्य अभ्यास को। दोनों के दृढ़ होने से सफलता निश्चित हो जाती है। गीता में एकाग्रता के अभ्यास को प्राथमिकता देकर यह स्पष्ट किया गया है कि अभ्यास के पूर्व वैराग्य की प्रतीक्षा करना उतना ही हास्यास्पद है जितना कि बिना बीज बोये फसल की प्रतीक्षा करना। जिस क्षण हम 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया ' और 'जीवन-गठन की पद्धति' के प्रति जागरूक हो जाते हैं, उसी क्षण से " विवेक-दर्शन " के अभ्यास का आरम्भ समझना चाहिए।  " विवेक-दर्शन का अभ्यास " के फलस्वरूप सहज स्वाभाविक रूप से जो अनासक्ति का भाव [लालच को कम करने का संकल्प] उत्पन्न होता है वही वास्तविक और स्थायी वैराग्य है।  अन्यथा अनधिकारी व्यक्ति का मूढ़ -वैराग्य, जैसे गृहस्थ जीवन में कमण्डल लेकर जंगल में निकल जाना तो  तापसी जीवन का मिथ्या प्रदर्शन मात्र है ; जो मनुष्य को पलायनवादी बना देता है।  इतना ही नहीं उसकी बुद्धि को इस प्रकार विकृत कर देता है कि वह उन्माद तथा अन्य पीड़ादायक मनोरोगों का शिकार बन जाता है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास से उत्पन्न वैराग्य ही आत्मिक उन्नति का साधन है। श्रेष्ठतर जीवन -लक्ष्य के ज्ञान से तथा बौद्धिक परिपक्वता के आने पर एवं वस्तु -व्यक्ति -परिस्थिति और जीवन की घटनाओं का विवेक-प्रयोग द्वारा  सही मूल्यांकन करते रहने से, इन्द्रिय- विषयों के प्रति हमारी आसक्ति  स्वतः समाप्त हो जाती है। जीवन में विवेक-दर्शन का सम्यक् अभ्यास और स्थायी वैराग्य के आ जाने पर, मन को चंचल बना सकने के कारणों के अभाव में मन अपने-आप  वश में आ जाता है। 

*तीव्र वैराग्य तथा बद्ध जीव* 

विजय- बद्ध जीवों के मन की कैसी अवस्था हो तो मुक्ति हो सकती है ?

[বিজয় — বদ্ধজীবের মনের কি অবস্থা হলে মুক্তি হতে পারে?

VIJAY: "What must the bound soul's condition of mind be in order to achieve liberation?"

श्रीरामकृष्ण- ईश्वर की कृपा से तीव्र वैराग्य होने पर इस कामिनी-कांचन की आसक्ति से निस्तार हो सकता है। जानते हो तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं? ‘बनत बनत बनि जाई’, ‘चलो राम भजो’, यह सब मन्द वैराग्य है । जिसे तीव्र वैराग्य होता है उसके प्राण भगवान् के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे अपनी कोख के बच्चे के लिए माँ व्याकुल रहती है । जिसको तीव्र वैराग्य होता है वह भगवान् को छोड़ और कुछ नहीं चाहता । संसार को कुआँ समझता है, उसे जान पड़ता है कि अब डूबा । आत्मीयों को वह काला नाग देखता है, उनके पास से उसकी भागने की इच्छा होती है और भागता भी है । ‘घर का काम पूरा कर लें तब ईश्वर की चिन्ता करेंगे’, यह उसके मन में आता ही नहीं । भीतर बड़ी जिद रहती है ।

“तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं, इसकी एक कहानी सुनो । किसी देश में एक बार वर्षा कम हुई । किसान नालियाँ काट-काटकर दूर से पानी लाते थे । एक किसान बड़ा हठी था । उसने एक दिन शपथ ली कि जब तक पानी न आने लगे, नहर से नाली का योग न हो जाए, तब तक बराबर नाली खोदूँगा । इधर नहाने का समय हुआ । उसकी स्त्री ने लड़की को उसे बुलाने भेजा । लड़की बोली, ‘पिताजी, दोपहर ढल गयी, चलो तुमको माँ बुलाती है । उसने कहा, ‘तू चल, हमें अभी काम है।’ 

दोपहर ढल गयी, पर वह काम पर डटा रहा । नहाने का नाम न लिया । तब उसकी स्त्री खेत में जाकर बोली, ‘नहाओगे कि नहीं? रोटियाँ ठण्डी हो रही हैं । तुम तो हर काम में हठ करते हो । काम कल करना या भोजन के बाद करना ।’ गालियाँ देता हुआ कुदाल उठाकर किसान स्त्री को मारने दौड़ा बोला, ‘तेरी बुद्धि मारी गयी है क्या? देखती नहीं कि पानी नहीं बरसता; खेती का काम सब पड़ा है; अब की बार लड़के-बच्चे क्या खाएँगे? सब को भूखों मरना होगा । हमने यही ठान लिया है कि खेत में पहले पानी लायेंगे, नहाने-खाने की बात पीछे होगी ।’ 

मामला टेढ़ा देखकर उसकी स्त्री वहाँ से लौट पड़ी । किसान ने दिनभर जी तोड़ मेहनत करके शाम के समय नहर के साथ नाली का योग कर दिया । फिर एक किनारे बैठकर देखने लगा, किस तरह नहर का पानी खेत में ‘कलकल’ स्वर से बहता हुआ आ रहा है, तब उसका मन शान्ति औत आनन्द से भर गया । घर पहुँचकर उसने स्त्री को बुलाकर कहा, ‘ले आ अब डोल और रस्सी ।’ स्नान भोजन करके निश्चिन्त होकर फिर वह सुख से खुर्राटे लेने लगा । जिद यह है और यही तीव्र वैराग्य की उपमा है ।

“खेत में पानी लाने के लिए एक और किसान गया था । उसकी स्त्री जब गयी और बोली, ‘धूप बहुत हो गयी, चलो अब, इतना काम नहीं करते’, तब यह चुपचाप कुदाल एक ओर रखकर बोला, ‘अच्छा, तू कहती है तो चलो ।’ (सब हँसते हैं ।) वह किसान खेत में पानी न ला सका । यह मन्द वैराग्य की उपमा है ।

“हठ बिना जैसे किसान खेत में पानी नहीं ला सकता, वैसे ही मनुष्य ईश्वरदर्शन नहीं कर सकता ।”

(४) 

आपुर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत । 

तद्दत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ 

(गीता, २/७०) 

[सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल जैसे (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं,  वैसे ही सम्पूर्ण भोग -पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में  (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं, वह पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है,  भोगों की कामना वाला नहीं।] 

*कामिनी-कांचन के लिए दासत्व* 

श्रीरामकृष्ण- पहले तुम इतना आते थे पर अब क्यों नहीं आते ? 

विजय- यहाँ आने की बड़ी इच्छा रहती है, परन्तु अब मैं स्वाधीन नहीं हूँ, ब्राह्मसमाज में नौकरी करता हूँ। 

श्रीरामकृष्ण- कामिनी-कांचन जीव को बाँध लेते हैं । जीव की स्वाधीनता चली जाती है । कामिनी ही से कांचन की आवश्यकता होती है, जिसके लिए दूसरों की गुलामी की जाती है; फिर स्वाधीनता नहीं रहती, फिर तुम अपने मन का काम नहीं कर सकते । 

“जयपुर में गोविन्दजी के पुजारी पहले-पहल अपना विवाह नहीं करते थे । तब वे बड़े तेजस्वी थे । एक बार राजा के बुलाने पर भी वे नहीं गए और कहा- ‘राजा ही को आने को कहो ।’ फिर राजा और पंचों ने मिलकर उनका विवाह करा दिया । तब राजा से साक्षात् करने के लिए किसी को बुलाना नहीं पड़ा ! वे खुद हाजिर होते थे । कहते ‘महाराज, आशीर्वाद देने आए हैं, यह निर्माल्य लै है, धारण कीजिये ।’ आज घर बनवाना है, आज लड़के का ‘अन्नप्राशन’ है, आज लड़के का पाठशाला जाने का शुभ मुहूर्त है इन्हीं कारणों से आना पड़ता है । 

*1200 'नेड़ा ' मुण्डित -मस्तक त्यागी भगत और 1300 'नेड़ी ' (वैष्णवी भगतिन) *   

“बारह सौ ‘भगत’ और तेरह सौ ‘भगतिन' वाली कहावत तो जानते हो न ! नित्यानन्द गोस्वामी के पुत्र वीरभद्र के तेरह सौ ‘भगत’ शिष्य थे । जब वे सिद्ध हो गए तब वीरभद्र डरे । वे सोचने लगे कि ये सब के सब सिद्ध हो गए, लोगों को जो कह देंगे वही होगा; जिधर से निकालेंगे वहीँ भय है, क्योंकि मनुष्य बिना जाने यदि कोई अपराध कर डालेंगे तो उनका अहित होगा । 

यह सोचकर वीरभद्र ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘तुम गंगातट से सन्ध्या-उपासना करके हमारे पास आओ।’ ‘भगत’ तब ऐसे तेजस्वी थे कि ध्यान करते ही करते समाधिमग्न हो गए । कब ज्वार का पानी सिर से बह गया, इसकी उन्हें खबर ही नहीं । भाटा हो गया, तथापि ध्यानभंग न हुआ । तेरह सौ भगतों में से एक सौ समझ गये थे कि वीरभद्र क्या कहेंगे । 

      आचार्य की बात को टालना नहीं चाहिए, अतएव वे तो खिसक गये, वीरभद्र से साक्षात् नहीं किया । रहे बारह सौ भगत, वे वीरभद्र के पास लौटकर आए । वीरभद्र बोले, ‘ये तेरह सौ भगतिनें तुम्हारी सेवा करेंगी, तुम लोग इनसे विवाह करो । शिष्यों ने कहा, ‘जैसी आपकी आज्ञा; परन्तु हममें से एक सौ न जाने कहाँ चले गए ।’ उन बारह सौ भगतों के साथ एक एक सेवादासी रहने लगी । 

फिर उनका वह तेज, तपस्याबल न रह गया । स्त्री के साथ रहने के कारण वह बल जाता रहा, क्योंकि उसके साथ स्वाधीनता नहीं रह जाती । (विजय से) तुम लोग स्वयं यह देखते हो; दूसरों का काम करते हुए क्या हो रहे हो । और देखो, इतनी परीक्षाएँ पास करनेवाले, इतनी अंग्रेजी जाननेवाले पण्डित नौकरी करते हुए सुबह-शाम मालिकों के बूट की ठोकरें खाते हैं । इसका कारण केवल ‘कामिनी’ है । विवाह करके यह हरी-भरी दुनिया उजाड़ने की इच्छा नहीं होती । इसीलिए यह अपमान, दासता की यह इतनी मार ! 

*ईश्वरलाभ के उपरान्त कामिनी की मातृभाव से पूजा* 

“यदि एक बार उस प्रकार के तीव्र वैराग्य से भगवान् मिल जाएँ तो फिर स्त्रियों के प्रति आसक्ति नहीं रह जाती । घर में रहने से भी स्त्री की लालसा नहीं होती, फिर उससे कोई भय नहीं रहता । यदि एक चुम्बक-पत्थर बड़ा हो और एक छोटा, तो लोहे को कौन खींच सकता है? बड़ा ही खींच सकता है । ईश्वर बड़ा चुम्बक-पत्थर है और कामिनी छोटा चुम्बक-पत्थर है । तो भला कामिनी क्या कर सकेगी?”

[“যদি একবার এইরূপ তীব্র বৈরাগ্য হয়ে ঈশ্বরলাভ হয়, তাহলে আর মেয়েমানুষে আসক্তি থাকে না। ঘরে থাকলেও, মেয়েমানুষে আসক্তি থাকে না, তাদের ভয় থাকে না। যদি একটা চুম্বক পাথর খুব বড় হয়, আর-একটা সামান্য হয়, তাহলে লোহাটাকে কোন্‌টা টেনে লবে? বড়টাই টেনে লবে। ঈশ্বর বড় চুম্বক পাথর, তাঁর কাছে কামিনী ছোট চুম্বক পাথর! কামিনী কি করবে?”

"Once a man realizes God through intense dispassion, he is no longer attached to woman. Even if he must lead the life of a householder, he is free from fear of and attachment to woman. Suppose there are two magnets, one big and the other small. Which one will attract the iron? The big one, of course. God is the big magnet. Compared to Him, woman is a small one. What can 'woman' do?"] 

एक भक्त-महाराज, स्त्रियों से घृणा करें ?

*स्त्री को वासना की नजर से मत देखो*

[Don't look woman with the eye of lust ] 

श्रीरामकृष्ण-जिन्होंने ईश्वरलाभ कर लिया है, स्त्रियों को ऐसी दृष्टि से नहीं देखते, जिससे भय हो । वे यथार्थ देखते हैं कि स्त्रियों में ब्रह्मयी माता का अंश है; और उन्हें माता जानकर उनकी पूजा करते हैं । (विजय से) तुम कभी कभी आया करो, तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा होती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তিনি কামিনীকে আর অন্য চক্ষে দেখেন না যে ভয় হবে। তিনি ঠিক দেখেন যে, মেয়েরা মা ব্রহ্মময়ীর অংশ, আর মা বলে তাই সকলকে পূজা করেন। (বিজয়ের প্রতি) — তুমি মাঝে মাঝে আসবে, তোমাকে দেখতে বড় ইচ্ছা করে।MASTER: "He who has realized God does not look upon a woman with the eye of lust; so he is not afraid of her. He perceives clearly that women are but so many aspects of the Divine Mother. He worships them all as the Mother Herself.

(५)

*ईश्वर से आदेश प्राप्त  (C-IN-C का बिल्ला प्राप्त)  होने के बाद आचार्य-पद

विजय- ब्राह्म समाज का काम करना पड़ता है, इसलिए हर समय नहीं आ सकता अवकाश मिलने पर आऊँगा ।

श्रीरामकृष्ण- देखो, आचार्य का काम बड़ा कठिन है । ईश्वर का प्रत्यक्ष आदेश पाए बिना लोकशिक्षा नहीं दी जा सकती ।

“यदि आदेश पाए बिना ही उपदेश दिया जाय तो लोग उस ओर ध्यान नहीं देते, उस उपदेश में कोई शक्ति नहीं रहती । पहले साधना करके या जिस तरह हो, ईश्वर को प्राप्त करना चाहिए । उनकी आज्ञा मिलने पर फिर लेक्चर दिया जा सकता है ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়ের প্রতি) — দেখ, আচার্যের কাজ বড় কঠিন, ঈশ্বরের সাক্ষাৎ আদেশ ব্যতিরেকে লোকশিক্ষা দেওয়া যায় না।

“যদি আদেশ না পেয়ে উপদেশ দাও, লোকে শুনবে না। সে উপদেশের কোন শক্তি নাই। আগে সাধন করে, বা যে কোনরূপে হোক ঈশ্বরলাভ করতে হয়। তাঁর আদেশ পেয়ে লেকচার দিতে হয়।

MASTER (to Vijay): "The task of a religious teacher is indeed difficult. One cannot teach men without a direct command from God. People won't listen to you if you teach without such authority. Such teaching has no force behind it. One must first of all attain God through spiritual discipline or some other means. Thus armed with authority from God, one can deliver lectures.]

उस देश में ‘हालदारपुकुर’ नाम का एक तालाब है । उसके बाँध पर लोग पाखाना किया करते थे । जो लोग घाट पर आते थे, वे उन्हें खूब गालियाँ देते थे, खूब गुल-गपाड़ा मचाते थे, परन्तु गालियों से कोई काम न होता था । दूसरे दिन फिर वही हालात होती थी । अन्त को कम्पनी के चपरासी नोटिस लटका गए कि यहाँ शौच के लिए जाने की सख्त मनाही है; न माननेवाले को सजा दी जाएगी । इस नोटिस के बाद फिर वहाँ कोई शौच के लिए नहीं जाता था ।

“उनके आदेश के बाद कहीं भी आचार्य हुआ जा सकता है और लेक्चर भी दिया जा सकता है । जिसको उनका आदेश मिलता है, उसे उनकी शक्ति भी मिलती है; तब वह आचार्य का कठिन काम कर सकता है ।

[“তাঁর আদেশের পর যেখানে সেখানে আচার্য হওয়া যায় ও লেকচার দেওয়া যায়। যে তাঁর আদেশ পায়, সে তাঁর কাছ থেকে শক্তি পায়। তখন এই কঠিন আচার্যের কর্ম করতে পারে।

"After receiving the command from God, one can be a teacher and give lectures anywhere. He who receives authority from God also receives power from Him. Only then can he perform the difficult task of a teacher.]

“एक बड़े जमींदार से उसकी एक प्रजा मुकदमा लड़ रही थी । तब लोग समझ गए कि उस प्रजा के पीछे कोई जोरदार आदमी है; सम्भव है कि कोई बड़ा जमींदार ही उसकी ओर से मुकदमा चला रहा हो । मनुष्य साधारण जीव है, ईश्वर की शक्ति के बिना आचार्य जैसा कठिन काम वह नहीं कर सकता ।”

“এক বড় জমিদারের সঙ্গে একজন সামান্য প্রজা বড় আদালতে মোকদ্দমা করেছিল। তখন লোকে বুঝেছিল যে, ওই প্রজার পেছনে একজন বলবান লোক আছে। হয়তো আর-একজন বড় জমিদার তার পেছনে থেকে মোকদ্দমা চালাচ্ছে। মানুষ সামান্য জীব, ঈশ্বরের সাক্ষাৎ শক্তি না পেলে আচার্যের এমন কঠিন কাজ করতে পারে না।”

"An insignificant tenant was once engaged in a lawsuit with a big landlord. People realized that there was a powerful man behind the tenant. Perhaps another big landlord was directing the case from behind. Man is an insignificant creature. He cannot fulfil the difficult task of a teacher without receiving power direct from God."

*सच्चिदानन्द ही गुरु और मुक्तिदाता है* 

श्रीमद स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज 

विजय- महाराज, ब्राह्मसमाज में जो उपदेश दिए जाते हैं, क्या उनसे लोगों का उद्धार नहीं होता ?

श्रीरामकृष्ण- मनुष्य में वह शक्ति कहाँ कि वह दूसरे को संसारबन्धन से मुक्त कर सके? यह भुवनमोहिनी माया जिनकी है, वे ही माया से मुक्त कर सकते हैं । सच्चिदानन्द गुरु को छोड़ और दूसरी गति नहीं है । जिसको ईश्वर-दर्शन नहीं हुआ, उनका आदेश नहीं मिला, जो ईश्वर की शक्ति से शक्तिशाली नहीं है, उसकी क्या मजाल कि जीवों का भवबन्धन-मोचन कर सके ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মানুষের কি সাধ্য অপরকে সংসারবন্ধন থেকে মুক্ত করে। যাঁর এই ভুবনমোহিনী মায়া, তিনিই সেই মায়া থেকে মুক্ত করতে পারেন। সচ্চিদানন্দগুরু বই আর গতি নাই। যারা ঈশ্বরলাভ করে নাই, তাঁর আদেশ পায় নাই, যারা ঈশ্বরের শক্তিতে শক্তিমান হয় নাই, তাদের কি সাধ্য জীবের ভববন্ধন মোচন করে।

MASTER; "How is it ever possible for one man to liberate another from the bondage of the world? God alone, the Creator of this world-bewitching maya can save men from maya. There is no other refuge but that great Teacher, Satchidananda. How is it ever possible for men who have not realized God or received His command, and who are not strengthened with divine strength, to save others from the prison-house of the world?]

“मैं एक दिन पंचवटी के निकट झाउतल्ले की ओर जा रहा था । एक मेंढक की आवाज सुनायी दी-जान पड़ा कि साँप ने पकड़ा है । काफी देर बाद जब लौटने लगा तब भी उस मेंढक की पुकार शुरू ही थी । बढ़कर देखा तो दिखायी दिया की के कौड़ियाला साँप उस मेढ़क को पकड़े हुए है- न छोड़ सकता है, न निगल सकता है उस मेढ़क की भी भवव्यथा दूर नहीं हो रही है । तब मैंने सोचा कि यदि कोई असल साँप पकड़ता तो तीन ही पुकार में इसको चुप हो जाना पड़ता । इस कौड़ीयाले ने पकड़ा है, इसीलिए साँप की भी दुर्दशा है और मेढ़क की भी !

“यदि सद्गुरु हो तो जीव का अहंकार तीन ही पुकार में दूर होता है । गुरु कच्चा हुआ तो गुरु की भी दुर्दशा है और शिष्य की भी । शिष्य का अहंकार दूर नहीं होता, न उसके भवबन्धन की फाँस ही कटती है । कच्चे गुरु के पल्ले पड़ा तो शिष्य मुक्त नहीं होता ।

“আমি একদিন পঞ্চবটীর কাছ দিয়ে ঝাউতলায় বাহ্যে যাচ্ছিলাম। শুনতে পেলুম যে, একটা কোলা ব্যাঙ খুব ডাকছে। বোধ হল সাপে ধরেছে। অনেকক্ষণ পরে যখন ফিরে আসছি, তখনও দেখি, ব্যাঙটা খুব ডাকছে। একবার উঁকি মেরে দেখলুম কি হয়েছে। দেখি, একটা ঢোঁড়ায় ব্যাঙটাকে ধরেছে — ছাড়তেও পাচ্ছে না — গিলতেও পাচ্ছে না — ব্যাঙটার যন্ত্রণা ঘুচছে না। তখন ভাবলাম, ওরে! যদি জাতসাপে ধরত, তিন ডাকের পর ব্যাঙটা চুপ হয়ে যেত। এ-একটা ঢোঁড়ায় ধরেছে কি না, তাই সাপটারও যন্ত্রণা, ব্যাঙটারও যন্ত্রণা!

“যদি সদ্‌গুরু হয়, জীবের অহংকার তিন ডাকে ঘুচে। গুরু কাঁচা হলে গুরুরও যন্ত্রণা, শিষ্যেরও যন্ত্রণা! শিষ্যেরও অহংকার আর ঘুচে না, সংসারবন্ধন আর কাটে না। কাঁচা গুরুর পাল্লায় পড়লে শিষ্য মুক্ত হয় না।”

"One day as I was passing the Panchavati on my way to the pine-grove, I heard a bullfrog croaking. I thought it must have been seized by a snake. After some time, as I was coming back, I could still hear its terrified croaking. I looked to see what was the matter, and found that a water-snake had seized it. The snake could neither swallow it nor give it up. So there was no end to the frogs suffering. I thought that had it been seized by a cobra it would have been silenced after three croaks at the most. As it was only a water-snake, both of them had to go through this agony. A man's ego is destroyed after three croaks, as it were, if he gets into the clutches of a real teacher. But if the teacher is an 'unripe' one, then both the teacher and the disciple undergo endless suffering. The disciple cannot get rid either of his ego or of the shackles of the world. If a disciple falls into the clutches of an incompetent teacher, he doesn't attain liberation."


(६)

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । (गीता, ३/२७)

*माया या अहं-आवरण का नाश और ईश्वर-दर्शन* 

विजय- महाराज, हम लोग इस तरह बद्ध क्यों हो रहे हैं? ईश्वर को क्यों नहीं देख पाते ?

श्रीरामकृष्ण- जीव का अहंकार ही माया है । यही अहंकार समस्त आवरणों का कारण है । ‘मैं’ मरा कि बला टली । यदि ईश्वर की कृपा से ‘मैं अकर्ता हूँ’ यह ज्ञान हो गया तो वह मनुष्य तो जीवन्मुक्त हो गया । फिर कोई भय नहीं ।

 [ জীবের অহংকারই মায়া। এই অহংকার সব আবরণ করে রেখেছে। “আমি মলে ঘুচিবে জঞ্জাল।” যদি ঈশ্বরের কৃপায় “আমি অকর্তা” এই বোধ হয়ে গেল, তাহলে সে ব্যক্তি তো জীবন্মুক্ত হয়ে গেল। তার আর ভয় নাই।

MASTER: "Maya is nothing but the egotism of the embodied soul. This egotism has covered everything like a veil. 'All troubles come to an end when the ego dies.' If by the grace of God a man but once realizes that he is not the doer, then he at once becomes a jivanmukta. Though living in the body, he is liberated. He has nothing else to fear.

“यह माया या ‘अहं’ मेघ की तरह है । मेघ का एक छोटा सा ही टुकड़ा क्यों न हो, पर उसके कारण सूर्य नहीं दीख पड़ते । उसके हट जाने से ही सूर्य दीख पड़ते हैं । यदि श्रीगुरु की कृपा से एक बार अहंबुद्धि दूर हो जाय तो फिर ईश्वर के दर्शन होते हैं ।

[“এই মায়া বা অহং যেন মেঘের স্বরূপ। সামান্য মেঘের জন্য সূর্যকে দেখা যায় না — মেঘ সরে গেলেই সূর্যকে দেখা যায়। যদি গুরুর কৃপায় একবার অহংবুদ্ধি যায়, তাহলে ঈশ্বরদর্শন হয়।"This maya, that is to say, the ego, is like a cloud. The sun cannot be seen on account of a thin patch of cloud; when that disappears one sees the sun. If by the grace of the guru one's ego vanishes, then one sees God.

“सिर्फ ढाई हाथ की दूरी पर श्रीरामचन्द्र हैं, जो साक्षात् ईश्वर हैं; पर बीच में सीतारुपिणी माया का पर्दा पड़ा हुआ है, इसी कारण लक्षमणरूपी जीव को ईश्वर के दर्शन नहीं होते । यह देखो तुम्हारे मुँह के आगे मैं इस अँगौछे की ओट करता हूँ । अब तुम मुझे नहीं देख सकते । पर हूँ मैं तुम्हारे बिलकुल निकट । इसी तरह ओरों की अपेक्षा भगवान् निकट हैं, परन्तु इस माया-आवरण के कारण तुम उनके दर्शन नहीं पाते ।

“जीव तो स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप है, परन्तु इसी माया या अहंकार से वे नाना उपाधियों में पड़े हुए अपने स्वरूप को भूल गए हैं ।

[“জীব তো সচ্চিদানন্দস্বরূপ। কিন্তু এই মায়া বা অহংকারে তাদের সব নানা উপাধি হয়ে পড়েছে, আর তারা আপনার স্বরূপ ভুলে গেছে।"The jiva is nothing but the embodiment of Satchidananda. But since maya, or ego, has created various upadhis, he has forgotten his real Self.]

“एक एक उपाधि होती है, और जीवों का स्वभाव बदल जाता है । किसी ने काली धारीदार धोती पहनी कि देखना, प्रेमगीतों की तान मुँह से आप से आप ही आप निकल पड़ती है, और ताश खेलना, सैरसपाटे के लिए निकलना तो हाथ में छड़ी लेकर-ये सब आप ही आप जुट जाते हैं । चाहे दुबला-पतला ही हो परन्तु बूट पहनते ही सीटी बजाना शुरू हो जाता है; सीढ़ियों पर चढ़ते समय साहबों की तरह उछलकर चढ़ता है ! मनुष्य के हाथ में कलम रहे तो उसका यह गुण है कि कागज का जैसा-तैसा टुकड़ा पाते ही वह उस पर कलम घिसना शुरू कर देता है ।

“रुपया भी एक विचित्र उपाधि है । रुपया होते ही मनुष्य एक दूसरी तरह का हो जाता है । वह पहले जैसा नहीं रह जाता । यहाँ एक ब्राह्मण आया जाया करता था । बाहर से वह बड़ा विनयी था । कुछ दिन बाद हम लोग कोन्नगर गए, हृदय साथ था । हम लोग नाव पर से उतरे कि देखा, वही ब्राह्मण गंगा किनारे बैठा हुआ है । शायद हवाखोरी के लिए आया था । हम लोगों को देखकर बोला, ‘क्यों महाराज, कहो कैसे हो?’ उसकी आवाज सुनकर मैंने हृदय से कहा, ‘हृदय, सुना, इसके धन हो गया है, इसी से आवाज किरकिराने लगी’ हृदय हँसने लगा ।

[“টাকাও একটি বিলক্ষণ উপাধি। টাকা হলেই মানুষ আর-একরকম হয়ে যায়, সে মানুষ থাকে না।“এখানে একজন ব্রাহ্মণ আসা-যাওয়া করত। সে বাহিরে বেশ বিনয়ী ছিল। কিছুদিন পরে আমরা কোন্নগরে গেছলুম। হৃদে সঙ্গে ছিল। নৌকা থেকে যাই নামছি, দেখি সেই ব্রাহ্মণ গঙ্গার ধারে বসে আছে। বোধ হয়, হাওয়া খাচ্ছিল। আমাদের দেখে বলছে, ‘কি ঠাকুর! বলি — আছ কেমন?’ তার কথার স্বর শুনে আমি হৃদেকে বললাম, ‘ওরে হৃদে! এ লোকটার টাকা হয়েছে, তাই এইরকম কথা।’ হৃদে হাসতে লাগল।"Money is also a great upadhi. The possession of money makes such a difference in a man! He is no longer the same person. A brahmin used to frequent the temple garden. Outwardly he was very modest. One day I went to Konnagar with Hriday. No sooner did we get off the boat than we noticed the brahmin seated on the bank of the Ganges. We thought he had been enjoying the fresh air. Looking at us, he said: 'Hello there, priest! How do you do?' I marked his tone and said to Hriday: 'The man must have got some money. That's why he talks that way.' Hriday laughed.

“किसी मेढ़क के पास एक रुपया था । वह एक बिल में रखा रहता था । एक हाथी उस बिल को लाँघ गया । तब मेढ़क बिल से निकलकर बड़े गुस्से में आकर लगा हाथी को लात दिखाने ! और बोला, तुझे इतनी हिम्मत कि मुझे लाँघ जाय !’ रूपये का इतना अहंकार होता है ! 

[“একটা ব্যাঙের একটা টাকা ছিল। গর্তে তার টাকাটা ছিল। একটা হাতি সেই গর্ত ডিঙিয়ে গিছিল। তখন ব্যাঙটা বেরিয়ে এসে খুব রাগ করে হাতিকে লাথি দেখাতে লাগল। আর বললে, তোর এত বড় সাধ্য যে, আমায় ডিঙিয়ে যাস! টাকার এত অহংকার।”"A frog had a rupee, which he kept in his hole. One day an elephant was going over the hole, and the frog, coming out in a fit of anger, raised his foot, as if to kick the elephant, and said, 'How dare you walk over my head?' Such is the pride that money begets!

*सप्तभूमि - अहंकार कब जाता है ?- ब्रह्मज्ञान की अवस्था *

“ज्ञानलाभ होने से अहंकार दूर हो सकता है । ज्ञानलाभ होने से समाधि होती है । जब समाधि होती है, तभी अहंकार जाता है । ऐसा ज्ञानलाभ बड़ा कठिन है ।

[“জ্ঞানলাভ হলে অহংকার যেতে পারে। জ্ঞানলাভ হলে সমাধিস্থ হয়। সমাধিস্থ হলে তবে অহং যায়। সে জ্ঞানলাভ বড় কঠিন।"One can get rid of the ego after the attainment of Knowledge. On attaining Knowledge one goes into samadhi, and the ego disappears. But it is very difficult to obtain such Knowledge.

“वेदों में कहा है कि मन सप्तम भूमि पर जाने से समाधि होती है । समाधि होने से ही अहंकार दूर हो सकता है । मन प्रायः तीन भूमियों में रहता है । लिंग, गुदा और नाभि ये ही वे तीन भूमियाँ हैं । तब मन संसार की ओर-कामिनी-कांचन की ओर खिंचा रहता है । जब मन हृदय में रहता है तब ईश्वरी ज्योति के दर्शन होते हैं । वह मनुष्य जाति देखकर कह उठता है-‘यह क्या, यह क्या है !’ इसके बाद मन कण्ठ में आता है । तब केवल ईश्वर की ही चर्चा करने और सुनने की इच्छा होती है । कपाल या भौहों के बीच में जब मन आता है तब सच्चिदानन्द-रूप दीख पड़ता है । उस रूप को गले लगाने और उसे छूने की इच्छा होती है, परन्तु छुआ नहीं जाता । लालटेन के भीतर की बत्ती को कोई चाहे देख ले पर उसे छू नहीं सकता, जान पड़ता है कि छू लिया, परन्तु छू नहीं पाता । जब सप्तम भूमि पर मन जाता है तब अहं नहीं रह जाता, समाधि होती है ।”

विजय- वहाँ पहुँचने जब ब्रह्मज्ञान होता है, तब मनष्य क्या देखता है?

श्रीरामकृष्ण-सप्तम भूमि में मन के जाने पर क्या होता है, मुँह से नहीं कहा जा सकता । नमक की गुड़िया समुंदर नापने गई । किन्तु जैसे पानी में उतरी वैसे ही गल गई अब समुंदर के गहराई की खबर कौन देगी? जो देगी वही तो उसके साथ मिल गई । सप्तम भूमि में मन का नाश होता है, समाधि होती है । क्या अनुभव होता है वह मुँह से कहा नहीं जाता ।

“বজ্জাৎ আমি” — “দাস আমি”

‘अहं’ जाता नहीं है । ‘बदमाश मैं ।’ ‘दास मैं ।’

“जो ‘मैं’ संसारी बनता है, कामिनी-कांचन में फंसता है, वह बदमाश ‘मैं’ है । जीव और आत्मा में भेद सिर्फ इसलिए है कि बीच में यह ‘मैं’ जुड़ा हुआ है । पानी पर अगर लाठी डाल दी जाए तो पानी दो हिस्सों में बँटा हुआ दीख पड़ता है । परन्तु वास्तव में है वह एक ही पानी; लाठी के कारण उसके दो हिस्से नजर आते हैं ।

“वह लाठी ‘अहं’ ही है । लाठी उठा लो, वही एक जल रह जायगा ।

“बदमाश ‘मैं’ वह है जो कहता है, ‘मुझे नहीं जानते हो ! मेरे इतने रूपये हैं, क्या मुझसे भी कोई बड़ा आदमी है?’ यदि किसी ने दस रूपये चुरा लिये तो पहले वह चोर से रूपये छीन लेता है, फिर चोर की ऐसी मरम्मत करता है कि पसली ढीली कर देता है; इतने पर भी उसको नहीं छोड़ता, पहरेवाले के हाथ सौंपता है और सजा दिलवाता है ! ‘बदमाश मैं’ कहता है, ‘अरे, इसने मेरे दस रूपये चुराये थे, उफ, इतनी हिम्मत !’

विजय- यदि बिना ‘अहं’ के दूर हुए सांसारिक भोगों से पिण्ड नहीं छूटने का-समाधि नहीं होने की, तो ज्ञानमार्ग पर आना ही अच्छा है, क्योंकि उसमें समाधि होगी । यदि भक्तियोग में ‘अहं’ रह जाता है तो ज्ञानयोग ही अच्छा ठहरा ।

[বিজয় — যদি অহং না গেলে সংসারে আসক্তি যাবে না, সমাধি হবে না, তাহলে ব্রহ্মজ্ঞানের পথ অবলম্বন করাই ভাল, যাতে সমাধি হয়। আর ভক্তিযোগে যদি অহং থাকে তবে জ্ঞানযোগই ভাল।VIJAY: "If without destroying the 'I' a man cannot get rid of attachment to the world and consequently cannot experience samadhi, then it would be wise for him to follow the path of Brahmajnana to attain samadhi. If the 'I' persists in the path of devotion, then one should rather choose the path of knowledge."

*व्युत्थान के बाद भक्त का अहं रहने में दोष नहीं *

श्रीरामकृष्ण- समाधि प्राप्त होकर एक दो मनुष्यों का अहंकार जाता है अवश्य, परन्तु प्रायः नहीं जाता । लाख विचार करो, पर देखना कि ‘अहं’ घूम-घूमकर फिर उपस्थित है । आज बरगद का पेड़ काट डालो, कल सुबह को उसमें अंकुर निकला हुआ ही देखोगे । ऐसी दशा में यदि ‘मैं’ नहीं दूर होने का तो रहने दो साले को ‘दास मैं’ बना हुआ । ‘हे ईश्वर ! तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ’ इसी भाव में रहो । ‘मैं दास हूँ’, ‘मैं भक्त हूँ’ ऐसे ‘मैं’ में दोष नहीं । मिठाई खाने से अम्लशूल होता है, पर मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती ।

“ज्ञानयोग बड़ा कठिन है । देहात्मबुद्धि का नाश हुए बिना ज्ञान नहीं होता । कलियुग में प्राण अन्न्गत है, अतएव देहात्मबुद्धि, अहंबुद्धि नहीं मिटती । इसलिए कलियुग के लिए भक्तियोग है । भक्तिपथ सीधा पथ है । हृदय से व्याकुल होकर उनके नाम का स्मरण करो, उनसे प्रार्थना करो, भगवान् मिलेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं ।

“मानो जलराशि पर बिना बाँस रखे ही एक रेखा खींची गयी है, मानो जल के दो भाग हो गये हैं; परन्तु वह रेखा बड़ी देर तक नहीं रहती । ‘दास मैं’ या ‘भक्त का मैं’ अथवा ‘बालक का मैं’ ये सब ‘मैं’ की रेखाएँ (चिन्ह) मात्र हैं ।”

(७)

*मूर्तिपूजा की आवश्यकता *

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्त हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।। 

(गीता, १२/५)

[क्लेशः अधिकतरः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ता हि गतिः दुःखं देहवद्भिः अवाप्यते ॥ ५ ॥

अव्यक्त (परम् सत्य, व्यक्तित्वहीन या निराकार)  में आसक्त चित्त वाले उन साधकों को (अपने साधन-प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास में) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है।(Greater is their trouble whose minds are fixed on the unmanifested  ; for the goal; the unmanifested (Absolute Truth and Impersonal), is very hard for the embodied to reach.)

 देहवद्भिः  अर्थात् देहधारी से तात्पर्य उन लोगों से है, जिन्हें देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह (M/F) को ही अपना स्वरूप समझते हैं, वे लोग उनमें आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का, (इन्द्रियातीत सत्य का) ध्यान करना प्राय असंभव होता है तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है, वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है। संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप का ध्यान करना (माँ काली और उनके सहचर सियार उपासक श्रीरामकृष्ण का ध्यान) अधिक सरल और लाभदायक है। यदि मनुष्य ' शिव ज्ञान से जीव सेवा करे ' अर्थात जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे, तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और (अहंकार के शवदाह के बाद) मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार, अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।]

*भक्तियोग ही युगधर्म है । ज्ञानयोग की विशेष कठिनता* 

* ‘दास मैं ’ – ‘भक्त मैं’ और ‘बालक मैं’*

विजय- महाराज, आप ‘बदमाश मैं’ को दूर करने के लिए कहते हैं, तो क्या ‘दास मैं’ में दोष नहीं?

श्रीरामकृष्ण- नहीं । ‘दास मैं’ अर्थात् ‘मैं ईश्वर का दास हूँ’, ‘मैं उनका भक्त हूँ’ इस अभिमान में दोष नहीं, बल्कि इससे भगवान् मिलते हैं ।

विजय- अच्छा, तो ‘दास मैं’ वाले के काम-क्रोधादि कैसे होते हैं?

श्रीरामकृष्ण- अगर उसके भाव में पूरी सचाई आ जाय तो काम-क्रोधादि का आकर मात्र रह जाता है । यदि ईश्वरलाभ के बाद भी किसी का ‘दास मैं’ या ‘भक्त मैं’ बना रहा तो वह मनुष्य किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता । पारस पत्थर छू जाने पर तलवार सोना हो जाती है; तलवार का स्वरूप तो रहता है, पर वह किसी की हिंसा नहीं करती ।

“नारियल के पेड़ का पत्ता झड़ जाता है, उसकी जगह सिर्फ दाग (चिन्ह) बना रहता है, जिससे यह समझ लिया जाता है कि कभी यहाँ पत्ता लगा हुआ था । इसी तरह जिसको ईश्वर मिल गये हैं उसके अहंकार का चिन्ह भर रह जाता है, काम-क्रोध का स्वरूप मात्र रह जाता है, उसकी बालक जैसी अवस्था हो जाती है । बालक सत्त्व, रज, तम में से किसी गुण के बन्धन में नहीं आता। बालक जितनी जल्दी किसी वस्तु पर अड़ जाता है, उतनी जल्दी वह उसे छोड़ भी देता है । 

एक पाँच रुपये की कीमत का कपड़ा चाहे तुम धेले के खिलौने पर रिझाकर फुसला लो । पहले तो वह बहककर कहेगा, ‘नहीं, मैं न दूंगा, मेरे बाबूजी ने मोल ले दिया है ।’ और लड़के के लिए सभी बराबर हैं । ये बड़े हैं, यह छोटा है, यह ज्ञान उसे नहीं; इसीलिए उसे जाति-पाँति का विचार भी नहीं है । माँ ने कह दिया है, ‘वह तेरा दादा है’, फिर चाहे वह कलार हो, वह उसी के साथ बैठकर रोटी खाता है । बालक को घृणा नहीं, शुचि और अशुचि पर ध्यान नहीं, शौच के लिए जाकर हाथ नहीं मटियाता ।

“कोई कोई समाधि के बाद भी ‘भक्त का मैं’, ‘दास का मैं’ लेकर रहते हैं । ‘मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो’, ‘मैं भक्त हूँ, तुम भगवान् हो ।’ यह अभिमान भक्तों का बना रहता है । ईश्वरलाभ के बाद भी रहता है । सम्पूर्ण ‘मैं’ नहीं दूर होता । और फिर इसी अभिमान (मैं 'माँ तारा ' का बेटा हूँ) का अभ्यास करते करते ईश्वर-प्राप्ति भी होती है । यही भक्तियोग है । 

‘भक्ति के मार्ग पर चलने से भी ब्रह्मज्ञान होता है । भगवान् सर्वशक्तिमान हैं । वे इच्छा करें तो ब्रह्मज्ञान भी दे सकते हैं । भक्त प्रायः ब्रह्मज्ञान नहीं चाहते । ‘मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो’, ‘मैं बच्चा हूँ, तू माँ हैं’ वे ऐसा अभिमान रखना चाहते हैं ।

विजय- जो लोग वेदान्त-विचार करते हैं, वे भी तो उन्हें पाते हैं?

श्रीरामकृष्ण- हाँ, विचारमार्ग से भी वे मिलते हैं । इसी को ज्ञानयोग कहते हैं । विचारमार्ग बड़ा कठिन है । सप्तभूमि की बात तो तुम्हें बतलायी है । सप्तम भूमि पर मन के पहुँचने से समाधि होती है, ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ यह बोध होने पर मन का लय होता है, समाधि होती है । परन्तु कलि में जीवों का प्राण अन्न्गत है ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ का बोध फिर कैसे हो सकता है?’ ऐसा बोध देहबुद्धि के बिना दूर हुए नहीं हो सकता । ‘मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न चौबीस तत्त्व हूँ, मैं सुख और दुःख से परे हूँ, मुझे फिर किसा रोग, कैसा शोक, कैसी जरा, कैसी मृत्यु?’ –ऐसा बोध कलिकाल में होना कठिन है । चाहे जितना विचार करो, देहात्मबुद्धि कहीं न कहीं से आ ही जाती है । बड़ के पेड़ को काट डालो, तुम तो सोचते हो कि जड़ समेत उखाड़ फेंका, पर दूसरे दिन सबेरे उसमें कनखा निकला ही हुआ देखोगे ! देहाभिमान नहीं दूर होता; इसीलिए कलिकाल में भक्तियोग अच्छा है, सीधा है ।

“और ‘मैं चीनी बन जाना नहीं चाहता, चीनी खाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है ।’ मेरी कभी यह इच्छा नहीं होती कि कहूँ ‘मैं ही ब्रह्म हूँ ।’ मैं तो कहता हूँ ‘तुम भगवान् हो, मैं तुम्हारा दास हूँ ।’ पाँचवीं और छठी भूमि के बीच में चक्कर काटना अच्छा है । छठी भूमि को पार कर सप्तम भूमि में अधिक देर तक रहने की मेरी इच्छा नहीं होती । मैं उनका नामगुण-कीर्तन करूँगा, यही मेरी इच्छा है । सेव्य-सेवक भाव बड़ा अच्छा है । और देखो, ये तरंगें गंगा ही की हैं, परन्तु तरंगों की गंगा है ऐसा कोई नहीं कहता । ‘मैं वही हूँ’ यह अभिमान अच्छा नहीं । देहात्मबुद्धि के रहते ऐसा अभिमान जिसको होता है उसकी बड़ी हानि होती है, फिर वह आगे बढ़ नहीं सकता, धीरे धीरे पतित हो जाता है । वह दूसरों की आँखों में धूल झोंकता है, साथ ही अपनी आँखों में भी; अपनी स्थिति का हाल वह नहीं समझ पाता ।

*भक्ति के दो प्रकार-उत्तम अधिकारी-ईश्वर दर्शन का उपाय* 

“परन्तु भेड़ियाधसान की भक्ति से ईश्वर नहीं मिलते, उन्हें पाने के लिए *‘प्रेमाभक्ति’* चाहिए । ‘प्रेमाभक्ति’ का एक और नाम है *‘रागभक्ति’* । प्रेम या अनुराग के बिना भगवान् नहीं मिलते । ईश्वर पर जब तक प्यार नहीं होता तब तक उन्हें कोई प्राप्त नहीं कर सकता । 

“और एक प्रकार की भक्ति है उसका नाम है *‘वैधिभक्ति’* । इतना जप करना होगा, उपवास करना होगा, तीर्थयात्रा करनी होगी, इतने उपचारों से पूजा करनी होगी, बलिदान देना होगा-यह सब वैधिभक्ति है । इसका बहुत-कुछ अनुष्ठान करते करते क्रमशः रागभक्ति होती है । जब तक रागभक्ति न होगी, तब तक ईश्वर नहीं मिलेंगे । उन्हें प्यार करना चाहिए । जब संसारबुद्धि बिलकुल चली जाएगी-सोलह आना मन उन्हीं पर लग जाएगा, तब वे मिलेंगे । 

“परन्तु किसी किसी को रागभक्ति अपने आप ही होती है । स्वतः सिद्ध, बचपन से ही । बचपन से ही वह ईश्वर के लिए रोता है, जैसे प्रह्लाद । ‘विधिवादीय’ भक्ति कैसी है? जैसे हवा लगने के लिए पंखा झलना । हवा के लिए पंखे की जरूरत है । ईश्वर पर अनुराग उत्पन्न करने के लिए जप, तप, उपवास आदि विधियाँ मानी जाती हैं; परन्तु जब दक्षिणी हवा आप बह चलती है तब लोग पंखा रख देते हैं । ईश्वर पर अनुराग, प्रेम, आप आ जाने से जप, तप आदि कर्म छुट जाते हैं । भगवत्प्रेम में मस्त हो जाने से वैध कर्म करने के लिए फिर किसको समय है ? 

“जब तक उन पर प्यार नहीं होगा, तब तक वह भक्ति कच्ची भक्ति है । जब उन पर प्यार होता है, तब वह भक्ति पक्की भक्ति कहलाती है । 

“जिसकी भक्ति कच्ची है वह ईश्वर की कथा और उपदेशों की धारणा नहीं कर सकता । पक्की भक्ति होने पर ही धारणा होती है । फोटोग्राफ के शीशे पर अगर स्याही (Silver Nitrate) लगी हो तो जो चित्र उस पर पड़ता है वह ज्यों का त्यों उतर जाता है, परन्तु सादे शीशे पर चाहे हजारों चित्र दिखाए जाए, एक भी नहीं उतरता । शीशे पर से चित्र हटा कि वही ज्यों का त्यों सफेद शीशा! ईश्वर पर प्रीति हुए बिना उपदेशों की धारणा नहीं होती ।  

विजय- महाराज, ईश्वर को कोई प्राप्त करना चाहे, उनके दर्शन करना चाहे, तो क्या सिर्फ भक्ति से काम सध जाएगा ? 

श्रीरामकृष्ण- हाँ, भक्ति ही से उनके दर्शन हो सकते हैं । परन्तु पक्की भक्ति, प्रेमाभक्ति, रागभक्ति चाहिए । उसी भक्ति से उन पर प्रीति होती है, जैसा बच्चों का माँ पर प्यार, माँ का बच्चे पर प्यार और पत्नी का पति पर प्यार होता है ।  

“इस प्यार, इस रागभक्ति के होने पर, स्त्री-पुत्र और आत्मीय परिवार की ओर पहले जैसा आकर्षण नहीं रह जाता, फिर तो उन पर दया होती है । घर-द्वार विदेश जैसा जान पड़ता है, उसे देखकर सिर्फ एक कर्मभूमि का ख्याल जागता है; जैसे घर देहात में और कलकत्ते है कर्मभूमि, कलकत्ते में किराये के मकान के रहना पड़ता है कर्म करने के लिए । ईश्वर पर प्यार होने से संसार की आसक्ति-विषयबुद्धि-बिलकुल जाती रहेगी !  

“विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते । दियासलाई अगर भीगी हो तो चाहे जितना रगड़ो वह जलती ही नहीं- बीसों दियासलाई व्यर्थ ही बरबाद हो जाती हैं । विषयासक्त मन भीगी दियासलाई है । 

“श्रीमती (राधिका) ने जब कहा, ‘मैं सर्वत्र कृष्णमय देखती हूँ’, तब सखियाँ बोली, ‘कहाँ, हम तो उन्हें नहीं देखतीं तुम प्रलाप तो नहीं कर रही हो?’ श्रीमती बोलीं, ‘सखियों, नेत्रों में अनुराग का अंजन लगा लो, तभी उन्हें देखोगी ।’ (विजय से) तुम्हारे ब्राह्मसमाज ही के भजन में है- ‘प्रभो, बिना अनुराग के यज्ञ-यज्ञादि करके क्या तुम्हें जाना जा सकता है?’ 

“यह अनुराग, यह प्रेम, यह सच्ची भक्ति, यह प्यार यदि एक बार भी हो तो साकार और निराकार दोनों मिल जाते हैं।” 

*ईश्वर-दर्शन उनकी कृपा बिना नहीं होता* 

विजय- महाराज, क्या किया जाय जो ईश्वर-दर्शन हो ।

श्रीरामकृष्ण- चित्तशुद्धि के बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते । कामिनी-कांचन में पड़कर मन मलिन हो गया है, उसमें जंग लग गया है । सुई में कीच लग जाने से उसे चुम्बक नहीं खींच सकता, मिट्टी साफ कर देने ही से चुम्बक खींचता है । मन का मैल नेत्रजल से धोया जा सकता है । ‘हे ईश्वर, अब ऐसा काम न करूँगा’ यह कहकर यदि कोई अनुताप करता हुआ रोये तो मैल धुल जाता है । तब ईश्वररूपी चुम्बक सुई को खींच लेता है । तब समाधि होती है, ईश्वर के दर्शन होते हैं ।

“परन्तु चेष्टा चाहे जितनी करो, बिना उनकी कृपा के कुछ नहीं होता । उनकी कृपा बिना उनके दर्शन नहीं मिलते । और कृपा भी क्या सहज ही होती है ? अहंकार का सम्पूर्ण त्याग कर देना चाहिए । मैं कर्ता हूँ, इस ज्ञान के रहते ईश्वर-दर्शन नहीं होते । भण्डार में अगर कोई हो, और तब घर के मालिक से अगर कोई कहें कि आप खुद चलकर चीजें निकाल दीजिए, तो वह यही कहता है, है तो वहाँ एक आदमी, फिर मैं क्यों जाऊँ ?’ जो खुद कर्ता बन बैठा है, उसके हृदय में ईश्वर सहज ही नहीं आते ।

[“কিন্তু হাজার চেষ্টা কর, তাঁর কৃপা না হলে কিছু হয় না। তাঁর কৃপা না হলে তাঁর দর্শন হয় না। কৃপা কি সহজে হয়? অহংকার একেবারে ত্যাগ করতে হবে। ‘আমি কর্তা’ এ-বোধ থাকলে ঈশ্বরদর্শন হয় না। ভাঁড়ারে একজন আছে, তখন বাড়ির কর্তাকে যদি কেউ বলে, মহাশয় আপনি এসে জিনিস বার করে দিন। তখন কর্তাটি বলে, ভাঁড়ারে একজন রয়েছে, আমি আর গিয়ে কি করব! যে নিজে কর্তা হয়ে বসেছে তার হৃদয়মধ্যে ঈশ্বর সহজে আসেন না।

"You may try thousands of times, but nothing can be achieved without God's grace. One cannot see God without His grace. Is it an easy thing to receive the grace of God? One must altogether renounce egotism; one cannot see God as long as one feels, 'I am the doer.' Suppose, in a family, a man has taken charge of the store-room; then if someone asks the master, 'Sir, will you yourself kindly give me something from the store-room?', the master says to him: 'There is already someone in the store-room. What can I do there?'

“कृपा होने से दर्शन होते हैं । वे ज्ञानसुर्य हैं । उनकी एक ही किरण से संसार में यह ज्ञानालोक फैला हुआ है । उसी से हम एक-दूसरे को पहचानते हैं और संसार में कितनी ही तरह की विद्याएँ सीखते हैं । अपना प्रकाश यदि वे एक बार अपने मुँह के सामने रखें तो दर्शन हो जाएँ । सार्जण्ट रात को अँधेरे में हाथ में लालटेन लेकर घूमता है, पर उसका मुँह कोई नहीं देख पाता । पर उसी लालटेन के उजाले में वह सब को देखता है और आपस में अभी एक दूसरे का मुँह देखते हैं ।

“यदि कोई सार्जण्ट को देखना चाहे तो उससे विनती करे, कहें- ‘साहब, जरा लालटेन अपने मुँह के सामने लगाइए; आपको एक नजर देख लूँ ।’

“ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि भगवन्, एक बार कृपा करके आप अपना ज्ञानालोक अपने श्रीमुख पर धारण कीजिए, मैं आपके दर्शन करूँगा । 

“घर में यदि दीपक न जले तो वह दारिद्र का चिन्ह है । हृदय में ज्ञान का दीपक जलाना चाहिए । ‘हृदय-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाकर ब्रह्ममयी का श्रीमुख देखो ।’

विजय अपने साथ दवा भी लाए हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने पीएँगे । दवा पानी मिलाकर पी जाती है। श्रीरामकृष्ण ने पानी मँगवाया । श्रीरामकृष्ण अहेतुक कृपासिन्धु हैं; विजय किराये की गाड़ी या नाव द्वारा आने में असमर्थ हैं, इसलिए कभी कभी वे खुद आदमी भेजकर उन्हें बुला लेते हैं । इस बार बलराम को भेजा था । किराया बलराम देंगे । विजय बलराम के साथ आए हैं । शाम के समय विजय, नवकुमार और उनके दूसरे साथी बलराम की नाव पर चढ़े । बलराम उन्हें बागबाजार के घाट पर उतार देंगे । मास्टर भी साथ हो गए ।

नाव बागबाजार के अन्नपूर्णाघाट पर लगायी गयी । जब ये लोग उतरकर बागबाजार में बलराम के मकान के निकट पहुँचे तब चाँदनी फैलने लगी थी । शुक्ल पक्ष की चतुर्थी है । ठण्डी का मौसम है, थोड़ी थोड़ी ठण्डी लग रही है ।

हृदय में श्रीरामकृष्ण की आनन्दमयी मूर्ति का चिन्तन तथा उनके अमृतोपम उपदेशों का मनन करते हुए विजय, बलराम, मास्टर आदि अपने अपने घर पहुँचे ।

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