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सोमवार, 26 अप्रैल 2021

$$परिच्छेद ~22,[( 1 जनवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Marwari devotees**Personal God श्री ठाकुर देव की पूजा का क्या अर्थ है? *अभ्यासयोग । दो पथ : ' मनःसंयोग (विवेक-प्रयोग का मार्ग) और भक्ति'* *Without 'one', zeros don't have any value*माँ काली ने श्रीठाकुर को चपरास देते हुए कहा -‘तू भाव में ही रह ।* (Lust and greed ) में आसक्ति के जाते ही तृष्णा (Thirst ) भी चली जाती है*चित्त शुद्ध हो जाने (अर्थात अहं का शवदाह हो जाने के बाद ) शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है, वह ईश्वर की वाणी है*ब्रह्मज्ञान के उपरान्त ‘भक्ति का मैं’* कलकत्ते के आदमियों से क्या मजाल जो कहा जाय कि ईश्वर के लिए सब कुछ छोड़ो ! *पाण्डित्य- मैं कौन? मैं ही तुम* *भावराज्य व रूपदर्शन* *प्रकृतिभाव तथा कामजय । सरलता और ईश्वरलाभ* *ब्रह्मज्ञान के उपरान्त ~भक्ति का मैं * *श्रीरामकृष्ण का श्रीराधा-भाव*भावराज्य व रूपदर्शन* “कलिकाल में प्राण अन्नगत है, कलिकाल में नारदीय भक्ति चाहिए । “वह विषय भाव का है, बिना भाव के कौन पा सकता है ?” *गौरांग-दर्शन – रति की माँ के वेष में माँ* *अभ्यासयोग । दो पथ : ' विवेक-विचार और भक्ति'* *पाण्डित्य- मैं कौन? मैं ही तुम*

[( 1 जनवरी 1883)परिच्छेद ~ २२, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*साभार ~श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ। ]

  परिच्छेद~ २२ 

राखाल, प्राणकृष्ण, केदार आदि भक्तों के साथ 

(१)

 *समाधि में* 

श्रीरामकृष्ण कालीमंदिर के अपने कमरे में भक्तों के साथ बैठे हैं । दिनरात भगवत्प्रेम में- ब्रह्ममयी माता के प्रेम में- मस्त रहते हैं । 

फर्श पर चटाई बिछी है । आप उसी पर आकर बैठ गए । सामने हैं प्राणकृष्ण और मास्टर । श्री राखाल^, भी कमरे में बैठे हुए हैं । हाजरा महाशय घर के बाहर दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में बैठे हुए हैं । 

(^ इन्हें श्रीरामकृष्ण की इष्टदेवी माँ काली ने श्रीरामकृष्ण को उनका मानस पुत्र बतलाया था; ये ही बाद में स्वामी ब्रह्मानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए और श्रीरामकृष्ण संघ के प्रथम अध्यक्ष हुए थे) 

जाड़े का मौसम है- पूस का महीना । सोमवार, दिन के आठ बजे हैं । पहली जनवरी १८८३ । श्रीरामकृष्ण शाल ओढ़े हुए हैं । 

इस समय श्रीरामकृष्ण के अनेक अन्तरंग भक्त आने-जाने लगे हैं । लगभग साल भर से नरेन्द्र, राखाल, भवनाथ, बलराम, मास्टर, बाबूराम, लाटू आदि भक्त सदा आते-जाते रहते हैं । इनके आने के सालभर पूर्व से राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र और केदार आया करते हैं । 

लगभग पाँच महीने हुए होंगे, जब श्रीरामकृष्ण विद्यासागर के ‘बादुड़बागान’ वाले मकान में पधारे थे । दो महीने पूर्व आप श्री केशव सेन के साथ विजय आदि ब्राह्मभक्तों को लेकर नाव पर आनन्द करते हुए कलकत्ता गए थे। 

श्री प्राणकृष्ण मुखोपाध्याय कलकत्ते के श्यामपुकुर मुहल्ले में रहते हैं । पहले इनका जनाई मौजे में निवास था । ये ‘एक्सचेंज’ विभाग के बड़े बाबू हैं । नीलाम के काम की देखरेख करते हैं । पहली पत्नी के कोई सन्तान न होने के कारण उनकी सम्मति से उन्होंने दूसरी बार विवाह किया था । दूसरी पत्नी के एक पुत्र हुआ है । वही इनकी इकलौती सन्तान है । श्रीरामकृष्ण पर इनकी बड़ी भक्ति है । शरीर कुछ स्थूल होने के कारण कभी कभी श्रीरामकृष्ण इन्हें ‘मोटा ब्राह्मण’ कहकर पुकारते थे । ये बड़े सज्जन व्यक्ति हैं । लगभग नौ महीने हुए होंगे, श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ इनका निमन्त्रण स्वीकार किया था। इन्होंने बड़े आदर से सब को भोजन कराया था । 

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बैठे हुए हैं । पास ही टोकरीभर जलेबियाँ रखी हैं- किसी भक्त ने लायी हैं । आपने जलेबी का एक टुकड़ा तोड़कर खाया । 

श्रीरामकृष्ण (प्राणकृष्ण आदि से हँसते हुए)- देखा, मैं माता का नाम जपता हूँ, इसीलिए ये सब चीजें खाने को मिलती हैं । (हास्य) 

“परन्तु वे लौकी-कोहड़े (तरबूजा ,छेना , नारियल पानी  )  जैसे फल नहीं देती- वे देतीं हैं अमृतफल- ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य (अनासक्ति) !” 

{ "You see, I chant the name of the Divine Mother; so I get all these good things to eat. (Laughter.) But She doesn't give such fruits as gourd or pumpkin. She bestows the fruit of Amrita, Immortality — knowledge, love, discrimination, renunciation, and so forth."

 দেখছ আমি মায়ের নাম করি বলে — এই সব জিনিস খেতে পাচ্ছি! (হাস্য)“কিন্তু তিনি লাউ কুমড়ো ফল দেন না — তিনি অমৃত ফল দেন — জ্ঞান, প্রেম, বিবেক, বৈরাগ্য।”

कमरे में छः-सात साल की उम्र का एक लड़का आया । इधर श्रीरामकृष्ण की भी बालकों जैसी अवस्था है । जैसे एक बालक किसी दूसरे बालक को देखकर खाने की चीज छिपा लेता है जिससे वह छीनाझपटी न करे, वैसे ही श्रीरामकृष्ण की अवस्था उस बालक को देखकर होने लगी । वे उस जलेबियों की टोकरी को हाथों से ढककर छिपाने लगे फिर धीरे से उन्होंने उसे एक ओर हटाकर रख दिया । 

प्राणकृष्ण गृहस्थ तो हैं परन्तु वे वेदान्तचर्चा भी करते हैं, कहते हैं, “ब्रह्म ही सत्य है, संसार मिथ्या; मैं वही हूँ- सोऽहम् ।” श्रीरामकृष्ण उन्हें समझाते हैं- “कलिकाल में प्राण अन्नगत है, कलिकाल में नारदीय भक्ति चाहिए । 

“वह विषय भाव का है, बिना भाव के कौन पा सकता है ?” 

[“সে যে ভাবের বিষয়, ভাব ব্যতীত অভাবে কে ধরতে পারে!” —

बालकों की तरह हाथों से जलेबियों की टोकरी छिपाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये ।  

(२) 

*भावराज्य व रूपदर्शन* 

श्रीरामकृष्ण समाधि में मग्न हैं । काफी समय हुआ, भाव के आवेश में पूर्ण बने बैठे हैं । न देह डुलती है, न पलकें गिरती हैं; साँस भी चलती है या नहीं, जान नहीं पड़ता । 

बड़ी देर बाद आपने एक लम्बी साँस छोड़ी-मानो इन्द्रियराज्य में फिर लौट रहे हैं । 

{Suddenly the Master went into samadhi and sat thus a long time. His body was transfixed, his eyes wide open and unwinking, his breathing hardly perceptible. After a long time he drew a deep breath, indicating his return to the world of sense.} 

श्रीरामकृष्ण (प्राणकृष्ण से)- वे केवल निराकार नहीं, साकार भी हैं । उनके रूप के दर्शन होते हैं । भाव और भक्ति से उनके अनुपम रूप के दर्शन मिलते हैं । माँ काली अनेक रूपों में दर्शन देती हैं । 

{MASTER (to Prankrishna): "My Divine Mother is not only formless, She has forms as well. One can see Her forms. One can behold Her incomparable beauty through feeling and love. The Mother reveals Herself to Her devotees in different forms.

 তিনি শুধু নিরাকার নন, তিনি আবার সাকার। তাঁর রূপ দর্শন করা যায়। ভাব-ভক্তির দ্বারা তাঁর সেই অতুলনীয় রূপ দর্শন করা যায়। মা নানারূপে দর্শন দেন।] 

“कल माँ को देखा, गेरुए रंग का अँगरखा पहने हुए । मेरे साथ बातें कर रही थीं । 

{"I saw Her yesterday. She was clad in a seamless ochre-coloured garment, and She talked with me.

“और एक दिन मुसलमान लड़की के रूप में मेरे पास आयी थीं । कपाल पर तिलक, पर शरीर पर कपड़ा नहीं। छः-सात साल की बालिका, मेरे साथ साथ घूमने और मुझसे हँसी-ठठ्टा करने लगी । 

{"She came to me another day as a Mussalman girl six or seven years old. She had a tilak on her forehead and was naked. She walked with me, joking and frisking like a child.

“আর-একদিন মুসলমানের মেয়েরূপে আমার কাছে এসেছিলেন। মাথায় তিলক কিন্তু দিগম্বরী। ছয় সাত বছরের মেয়ে — আমার সঙ্গে সঙ্গে বেড়াতে লাগল ও ফচকিমি করতে লাগল।

* माँ काली ने श्रीठाकुर को चपरास देते हुए कहा -‘तू भाव में ही रह ।’*

“जब मैं हृदय के घर पर था तब गौरांग के दर्शन हुए थे, वे काली धारीदार धोती पहने थे । 

“हलधारी कहता था, वे भाव और अभाव से परे हैं । मैंने माँ से जाकर कहा, ‘माँ, हलधारी ऐसी बात कह रहा है, तो क्या रूप आदि मिथ्या हैं?’ माँ रति की माँ के रूप में मेरे पास आयीं और बोलीं, ‘तू भाव में ही रह ।’१   मैंने भी हलधारी से यही कहा । 

Now and then I forget Her command and suffer. कभी कभी मैं उनके उपरोक्त आदेश (चपरास) को  मैं भूल जाता हूँ, इसलिए कष्ट भोगना पड़ता है । भाव में न रहने के कारण दाँत टूट गए । अतएव ‘दैववाणी’ या ‘प्रत्यक्ष’ न होने तक भाव में ही रहूँगा- भक्ति ही लेकर रहूँगा । क्यों- तुम क्या कहते हो?”

["Haladhari used to say that God is beyond both Being and Non-being. I told the Mother about it and asked Her, 'Then is the divine form an illusion?' The Divine Mother appeared to me in the form of Rati's mother and said, 'Do thou remain in bhava.'1 I repeated this to Haladhari. {Now and then I forget Her command and suffer. Once I broke my teeth because I didn't remain in bhava. So I shall remain in bhava unless I receive a revelation from heaven or have a direct experience to the contrary. I shall follow the path of love (मैं माँ जगदम्बा का दास हूँ,यह भाव). What do you say?" 

“হলধারী বলত তিনি ভাব-অভাবের অতীত। আমি মাকে গিয়ে বললাম, মা, হলধারী এ-কথা বলছে, তাহলে রূপ-টুপ কি সব মিথ্যা? মা রতির মার বেশে আমার কাছে এসে বললে, ‘তুই ভাবেই থাক।’ আমিও হলধারীকে তাই বললাম।

 “এক-একবার ও-কথা ভুলে যাই বলে কষ্ট হয়। ভাবে না থেকে দাঁত ভেঙে গেল। তাই দৈববাণী বা প্রতক্ষ্য না হলে ভাবেই থাকব — ভক্তি নিয়ে থাকব। কি বল?”

{१ -A rare state of divine exaltation (दिव्य उल्लास) , when the devotee, after realizing the Absolute (माँ की कृपा से इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति करने के बाद, पुनः शरीर में लौटने पर। ) , remains in the borderland between the Absolute and the Relative; in this state he sees that both the Absolute and the Relative, as the two aspects of the Godhead, are real.}

प्राणकृष्ण- जी हाँ । 

*भक्ति का अवतार क्यों ? राम की इच्छा *

श्रीरामकृष्ण- और तुम्हीं से क्यों पूछूँ? इसके भीतर कोई एक रहता है । वही मुझे इस तरह चला रहा है। कभी कभी मुझमें देवभाव का आवेश होता था, तब बिना पूजा किये चित्त शान्त न होता था । 

["But why should I ask you about it? There is Someone within me who does all these things through me. At times I used to remain in a mood of Godhood and would enjoy no peace of mind unless I were being worshipped.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর তোমাকেই বা কেন জিজ্ঞাসা করি। এর ভিতরে কে একটা আছে। সেই আমাকে নিয়ে এইরূপ কচ্ছে। মাঝে মাঝে দেবভাব প্রায় হত, — আমি পুজো না করলে শান্ত হতুম না।]

“मैं यन्त्र हूँ, और वे यंत्री । वे जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ । जो कुछ बुलवाते हैं, वही बोलता हूँ । 

["I am the machine and God is the Operator. I act as He makes me act. I speak as He makes me speak.

“আমি যন্ত্র, তিনি যন্ত্রী। তিনি যেমন করান, তেমনি করি। যেমন বলান, তেমনি বলি।] 

श्रीरामकृष्ण ने भक्त रामप्रसाद के एक गीत की पक्तियाँ उदाहरण के लिए कहीं;-

प्रसाद बोले भवसागरे , बोसे आछि भासिये भेला। 

जोयार एले उजिये जाबो , भाटिये जाबो भाटार बेला।। ৷"

 उसका अर्थ यह है- 

‘भवसागर में अपना डोंगा बहाकर उस पर बैठा हुआ हूँ । जब ज्वार आयगी, तब पानी के साथ साथ मैं भी चढ़ता जाऊँगा और जब भाटा हो जायगा, तब उतरता जाऊँगा ।’ 

[Keep your raft, says Ramprasad, afloat on the sea of life, Drifting up with the flood-tide, drifting down with the ebb.

“প্রসাদ বলে ভবসাগরে, বসে আছি ভাসিয়ে ভেলা।জোয়ার এলে উজিয়ে যাব, ভাটিয়ে যাব ভাটার বেলা ৷৷

श्रीरामकृष्ण- जूठी पत्तल हवा के झोंके से उड़कर कभी तो अच्छी जगह पर गिरती हैं, कभी नाली में गिर जाती है- हवा जिधर ले जाती है उधर ही चली जाती है । 

“जुलाहे ने कहा- राम की मर्जी से डाका डाला गया, राम ही की मर्जी से मुझे छोड़ दिया । 

["As the weaver said in the story: 'The robbery was committed by the will of Rama, I was arrested by the police by the will of Rama, and again, by the will of Rama, I was set free.'“তাঁতী বললে, রামের ইচ্ছায় ডাকাতি হল, রামের ইচ্ছায় আমাকে পুলিসে ধরলে — আবার রামের ইচ্ছায় ছেড়ে দিলে।

“हनुमान ने कहा- हे राम, मैं शरणागत हूँ, शरणागत हूँ; - यही आशीर्वाद दीजिये कि आपके पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति हो, फिर कभी आपकी भुवनमोहिनी माया में मुग्ध न होऊँ 

["Hanuman once said to Rama: 'O Rama, I have taken refuge in Thee. Bless me that I may have pure devotion to Thy Lotus Feet and that I may not be caught in the spell of Thy world-bewitching maya.'“হনুমান বলেছিল, হে রাম, শরণাগত, শরণাগত; — এই আশীর্বাদ কর যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয়। আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই।]

(दादा कहते थे -जब पम्पा सरोवर के किनारे घूमते हुए श्रीराम ने अपना धनुष गाड़ा , तब उसमें एक बेंग बिंध गया था। राम जी पूछा तुमने आवाज क्यों नहीं किया ?  )मेंढक मरते हुए बोला- राम, जब साँप पकड़ता है, तब तो ‘राम, रक्षा करो’ कहकर चिल्लाता हूँ, परन्तु अब जब कि राम ही से बिंधकर मर रहा हूँ, तो चुप्पी साधनी ही पड़ी । 

{"Once a dying bullfrog said to Rama: 'O Rama, when caught by a snake I cry for Your protection. But now I am about to die, struck by Your arrow. Hence I am silent.'

“কোলা ব্যাঙ মুমূর্ষ অবস্থায় বললে, রাম, যখন সাপে ধরে তখন ‘রাম রক্ষা কর’ বলে চিৎকার করি। কিন্তু এখন রামের ধনুক বিঁধে মরে যাচ্ছি, তাই চুপ করে আছি।]

“पहले प्रत्यक्ष दर्शन होते थे- इन्हीं आँखों से, जैसे तुम्हें देख रहा हूँ । अब भावावेश में दर्शन होते हैं । 

{"I used to see God directly with these very eyes, just as I see you. Now I see divine visions in trance.“আগে প্রত্যক্ষ দর্শন হতো — এই চক্ষু দিয়ে — যেমন তোমায় দেখছি। এখন ভাবাস্থায় দর্শন হয়।

* अन्ते या मति सा गति -जो जिसका चिन्तन करता है, वह उसकी सत्ता को भी पाता है *

“ईश्वर-लाभ होने पर बालकों का-सा स्वभाव हो जाता है । जो जिसका चिन्तन करता है, वह उसकी सत्ता को भी पाता है । ईश्वर का स्वभाव बालकों जैसा है । खेलते हुए बालक जैसे घरौंदा बनाते, बिगाड़ते और उसे फिर से बनाते हैं, उसी तरह वे भी सृष्टि. स्थिति, और प्रलय कर रहे हैं । बालक जैसे किसी गुण के वश में नहीं है, उसी प्रकार वे भी सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हैं । 

“इसीलिए जो परमहंस होते हैं, वे दस-पाँच बालक अपने साथ रखते हैं- अपने पर उनके स्वभाव का आरोप करने के लिए ।” 

["After realizing God a man becomes like a child. One acquires the nature of the object one meditates upon. The nature of God is like that of a child. As a child builds up his toy house and then breaks it down, so God acts while creating, preserving, and destroying the universe. Further, as the child is not under the control of any guna, so God is beyond the three gunas — sattva, rajas, and tamas. That is why paramahamsas keep five or ten children with them, that they may assume their nature."

“ঈশ্বরলাভ হলে বালকের স্বভাব হয়। যে যাকে চিন্তা করে তার সত্তা পায়। ঈশ্বরের স্বভাব বালকের ন্যায়। বালক যেমন খেলাঘর করে, ভাঙে গড়ে — তিনিও সেইরূপ সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় কচ্ছেন। বালক যেমন কোনও গুণের বশ নয় — তিনিও তেমনি সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ তিন গুণের অতীত।] 

आगरपाड़ा से एक बीस-बाईस साल का लड़का आया हुआ है । जब यह आया है, श्रीरामकृष्ण को इशारा करके एकान्त में ले जाता है और वही चुपचाप अपने मन की बात कहता है । यह अभी हाल ही में आने-जाने लगा है । आज वह निकट आकर फर्श पर बैठा  

{अन्तकाल के चिंतन का महत्व : मनुष्य को जीवन में जिससे आसक्ति या मोह होता है, या उसके मन का सबसे अधिक आकर्षण जहां है, अंत समय में उसे वही स्मरण होगा । मृत्यु के समय मनुष्य सबसे अंत में जो विचार करता है अथवा जिसका चिन्तन करता है, उसका अगला जन्म उसी प्रकार का होता है ।गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अन्तकाल के चिंतन का महत्व बतलाते हुए अर्जुन को निरन्तर अपना चिंतन करने की आज्ञा देते हैं ।अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय ।। (गीता ८।५)अर्थात्-जो पुरुष अन्तकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है-इसमें कुछ संशय नहीं है ।यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ।। (गीता ८।६)अर्थात्-हे कुन्तीपुत्र ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है ।जीव संसार में लौट कर क्यों आता है ?संसार की चीजों जैसे-घर, परिवार, जमीन, पत्नी, पुत्र, पशु-पक्षी आदि में अपनापन, ममता या आसक्ति कर लेने से मनुष्य का मन संसार में बंध जाता है तो फिर भगवान उसको वैसा ही मौका दे देते हैं।  अर्थात् शरीर छूटने पर ममता के कारण संसार में जन्म दे देते हैं और जीव को विवश होकर संसार में लौटकर आना पड़ता है । किन्तु जिसको सांसारिक चीजों में आसक्ति न होकर भगवान से प्रेम है, वह भगवान को प्राप्त हो जाता है । उदाहरण में राजा जड़ भरत की कथा सामने है।]   

*प्रकृतिभाव तथा कामजय । सरलता और ईश्वरलाभ* 

श्रीरामकृष्ण (उसी लड़के से)- आरोप करने पर भाव बदल जाता है । प्रकृति के भाव का आरोप करो तो धीरे धीरे कामादि रिपु नष्ट हो जाते हैं । ठीक स्त्रियों के-से हाव-भाव हो जाते हैं । नाटक में जो लोग स्त्रियों का काम करते हैं, उन्हें नहाते समय देखा है, -स्त्रियों की ही तरह दाँत माँजते और बातचीत करते हैं । 

“तुम किसी शनिवार या मंगलवार को आओ ।” 

(प्राणकृष्ण से)-“ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं । शक्ति न मानो तो संसार मिथ्या हो जाता है; तुम, घर, परिवार-सब मिथ्या हो जाते हैं । आद्याशक्ति के रहने ही के कारण संसार का अस्तित्व है । बिना आधार के कोई चीज कभी ठहर सकती? बिना खूँटियों के न तो ढाँचा खड़ा रह सकता है और न उस पर सुन्दर मूर्ति ही बन सकते है । 

{(To Prankrishna) "Brahman and Sakti are inseparable. Unless you accept Sakti, you will find the whole universe unreal — 'I', you', house, buildings, and family. The world stands solid because the Primordial Energy stands behind it. If there is no supporting pole, no framework can be made, and without the framework there can be no beautiful image of Durga.}

ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ। শক্তি না মানলে জগৎ মিথ্যা হয়ে যায়, আমি-তুমি, ঘরবাড়ি, পরিবার — সব মিথ্যা। ওই আদ্যাশক্তি আছেন বলে জগৎ দাঁড়িয়ে আছে। কাঠামোর খুঁটি না থাকলে কাঠামোই হয় না — সুন্দর দুর্গা ঠাকুর-প্রতিমা হয় না।

*सत्य बोलना ही कलियुग की तपस्या है-इसकी धारणा होनी चाहिए *  

[Truthfulness alone is the spiritual discipline in the Kaliyuga.] 

‘विषयबुद्धि का त्याग किये बिना चैतन्य नहीं होता है- ईश्वर नहीं मिलते । उसके रहने ही से कपटता आ जाती है । बिना सरल हुए कोई उन्हें पा नहीं सकता । 

[“বিষয়বুদ্ধি ত্যাগ না করলে চৈতন্যই হয় না — ভগবানলাভ হয় না — বিষয়বুদ্ধি থাকলেই কপটতা হয়। সরল না হলে তাঁকে পাওয়া যায় না —"Without giving up worldliness a man cannot awaken his spiritual consciousness, nor can he realize God. He cannot but be a hypocrite as long as he has even a trace of worldly desire. God cannot be realized without guilelessness.]

ऐसी भक्ति करो घट भीतर, छोड़ कपट चतुराई । 

सेवा बन्दी और अधीनता, सहज मिलें रघुराई ॥’ 

“जो लोग विषयकर्म करते हैं, आफिस का काम या व्यवसाय करते हैं, उन्हें भी सचाई से रहना चाहिए । सच बोलना कालिकाल की तपस्या है । 

{Even those engaged in worldly activities, such as office work or business, should hold to the truth. Truthfulness alone is the spiritual discipline in the Kaliyuga."

“যারা বিষয়কর্ম করে — অফিসের কাজ কি ব্যবসা — তাদেরও সত্যেতে থাকা উচিত। সত্যকথা কলির তপস্যা।

प्राणकृष्ण- “अस्मिन् धर्मे महेशि स्यात् सत्यवादी जितेन्द्रियः । परोपकारनिरतो निर्विकारः सदकाशयः॥” ['O Goddess, this religion enjoins it upon one to be truthful, self-controlled, devoted to the welfare of others, unagitated, and compassionate.]

“यह महानिर्वाणतन्त्र में लिखा है ।” 

श्रीरामकृष्ण- हाँ, इन्हें आत्मसात करके इसकी धारणा करनी चाहिए । 

*श्रीरामकृष्ण का यशोदा-भाव तथा समाधि*

श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर जा बैठे हैं । भाव में तो सदा ही पूर्ण रहते हैं । भावनेत्रों से राखाल को देख रहे हैं । देखते देखते हृदय में वात्सल्यरस उमड़ने लगा, अंग पुलकित होने लगे । क्या यशोदामाता इन्हीं नेत्रों से गोपाल को देखा करती थीं ? 

देखते ही देखते फिर आप समाधिलीन हो गए । कमरे के भीतर जितने भक्त बैठे हुए थे, वे सभी आश्चर्य से चकित और स्तब्ध होकर श्रीरामकृष्ण के भाव की यह अद्भुत अवस्था देख रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण कुछ प्रकृतिस्थ होकर कहते हैं, - “राखाल को देखकर इतनी उद्दीपन क्यों होती हैं? जितना ही ईश्वर की ओर बढ़ते जाओगे, ऐश्वर्य की मात्रा उतनी ही घटती जाएगी । साधक पहले दशभुजा मूर्ति देखता है । वह ईश्वरी मूर्ति है । इसमें ऐश्वर्य का प्रकाश अधिक रहता है । इसके बाद द्विभुजा मूर्ति देखता है । तब दस हाथ नहीं रहते – इतने अस्त्र-शस्त्र नहीं रहते । इसके बाद गोपाल-मूर्ति के दर्शन होते हैं, कोई ऐश्वर्य नहीं-केवल एक छोटे बच्चे की मूर्ति । इससे भी परे है-केवल ज्योति-दर्शन । 

{Regaining partial consciousness, the Master said: "Why is my spiritual feeling kindled at the sight of Rakhal? The more you advance toward God, the less you will see of His glories and grandeur. The aspirant at first has a vision of the Goddess with ten arms; (The allusion is to the image of Durga.) there is a great display of power in that image. The next vision is that of the Deity with two arms; there are no longer ten arms holding various weapons and missiles. Then the aspirant has a vision of Gopala, in which there is no trace of power. It is the form of a tender child. Beyond that there are other visions also. The aspirant then sees only Light.

* 'एक' के बिना शून्यों का कोई मूल्य नहीं, और आसक्ति का त्याग* 

(without 'one', zeros don't have any value) 

“उन्हें प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर, फिर ज्ञान-विचार नहीं रह जाता ।” 

{पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) --“उन्हें (अपने इष्टदेव को)  प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर (अर्थात आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर), फिर ज्ञान-विचार ("Reasoning and discrimination, कुतर्क करने की आदत और अपना-पराया में भेदभाव)  नहीं रह जाता ।” 

[“তাঁকে লাভ হলে, তাঁতে সমাধিস্থ হলে — জ্ঞানবিচার আর থাকে না।

 "Reasoning and discrimination vanish after the attainment of God and communion with Him in samadhi.]

“ज्ञान-विचार तो तभी तक है, जब तक अनेक वस्तुओं की धारणा रहती है- जब तक जीव, जगत्, हम, तुम, यह ज्ञान रहता है । जब एकत्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब चुप हो जाना पड़ता है । जैसे त्रैलंगस्वामी  ^ ।” (^ बनारस के एक प्रसिद्ध संन्यासी जो मौनव्रत का पालन करते थे , जिनसे श्रीठाकुर एक बार मिले थे। )

[“জ্ঞানবিচার আর কতক্ষণ? যতক্ষণ অনেক বলে বোধ হয় —“যতক্ষণ জীব, জগৎ, আমি, তুমি — এ-সব বোধ থাকে। যখন ঠিক ঠিক এক জ্ঞান হয় তখন চুপ হয়ে যায়। যেমন ত্রৈলঙ্গ স্বামী।

  How long does a man reason and discriminate? As long as he is conscious of the manifold, as long as he is aware of the universe, of embodied beings, of 'I' and you'. He becomes silent when he is truly aware of Unity. This was the case with Trailanga Swami. (A noted monk of Benares whom the Master once met. The Swami observed a vow of silence.)

*ब्रह्मभोज के समय नहीं देखा? पहले खूब गुलगपाड़ा मचता है । ज्यों-ज्यों पेट भरता जाता है, त्यों-त्यों आवाज घटती जाती है । जब दही आया, तब सुप्-सुप्, बस और कोई शब्द नहीं । इसके बाद ही निद्रा-समाधि ! तब आवाज जरा भी नहीं रह जाती !* 

[“ব্রাহ্মণ ভোজনের সময় দেখ নাই? প্রথমটা খুব হইচই। পেট যত ভরে আসছে ততই হইচই কমে যাচ্ছে। যখন দধি মুণ্ডি পড়ল তখন কেবল সুপ-সাপ! আর কোনও শব্দ নাই। তারপরই নিদ্রা — সমাধি। তখন হইচই আর আদৌ নাই।

"Have you watched a feast given to the brahmins? At first there is a great uproar. But the noise lessens as their stomachs become more and more filled with food. When the last course of curd and sweets is served, one hears only the sound 'soop, soop' as they scoop up the curd in their hands. There is no other sound. Next is the stage of sleep — samadhi. There is no more uproar.]

(मास्टर और प्राणकृष्ण से) – “कितने ही ऐसे हैं जो ब्रह्मज्ञान की डींग मारते हैं परन्तु नीचे स्तर की वस्तुएँ लेकर मग्न रहते हैं । घर-द्वार, धनमान, इन्द्रियसुख । मोनूमेण्ट ^ (Monument)  के नीचे जब तक रहा जाता है, तब तक गाड़ी, घोड़ा, साहब, मेम-यही सब दीख पड़ते हैं । ऊपर चढ़ने पर सिर्फ आकाश, समुद्र लहराता हुआ दीख पड़ता है । तब घर-द्वार, घोड़ा-गाड़ी, आदमी-इन पर मन नहीं रमता, ये सब चींटी जैसे नजर आते हैं ।” ^शहीद मीनार, कोलकाता के एस्प्लेनेड में स्थित है। इसकी ऊँचाई 157 फीट है।)

[(মাস্টার ও প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — “অনেকে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা কয়, কিন্তু নিচের জিনিস লয়ে থাকে। ঘরবাড়ি, টাকা, মান, ইনিদ্রয়সুখ। মনুমেন্টের নিচে যতক্ষণ থাক ততক্ষণ গাড়ি, ঘোড়া, সাহেব, মেম — এইসব দেখা যায়। উপরে উঠলে কেবল আকাশ, সমুদ্র, ধু-ধু কচ্ছে! তখন বাড়ি, ঘোড়া, গাড়ি, মানুষ এ-সব আর ভাল লাগে না; এ-সব পিঁপড়ের মতো দেখায়!

(To M. and Prankrishna) "Many people talk of Brahmajnana, but their minds are always preoccupied with lower things: house, buildings, money, name, and sense pleasures. As long as you stand at the foot of the Monument, (A reference to the Ochterloney Monument in Calcutta.) so long do you see horses, carriages, Englishmen, and Englishwomen. But when you climb to its top, you behold the sky and the ocean stretching to infinity. Then you do not enjoy buildings, carriages, horses, or men. They look like ants.]

“ब्रह्मज्ञान होने पर संसार की आसक्ति चली जाती है, 'कामिनी -कांचन' के लिए उत्साह नहीं रहता –सब शान्त हो जाता है । काठ जब जलता है तब उसमें चटाचट आवाज होती है और कडुआ धुआँ भी निकलता है । जब सब जलकर खाक हो जाता है, तब फिर शब्द नहीं होता । कामवासना और लोभ (Lust and greed ) में आसक्ति के जाते ही तृष्णा (Thirst ) भी चली जाती है । अन्त में केवल शान्ति रह जाती है ।” 

[“ব্রহ্মজ্ঞান হলে সংসারাসক্তি, কামিনী-কাঞ্চনে উৎসাহ — সব চলে যায়। সব শান্তি হয়ে যায়। কাঠ পোড়বার সময় অনেক পড়পড় শব্দ আর আগুনের ঝাঁঝ। সব শেষ হয়ে গেলে, ছাই পড়ল — তখন আর শব্দ থাকে না। আসক্তি গেলেই উৎসাহ যায় — শেষে শান্তি।

"All such things as attachment to the world and enthusiasm for 'woman and gold' disappear after the attainment of the Knowledge of Brahman. Then comes the cessation of all passions. When the log burns, it makes a crackling noise and one sees the flame. But when the burning is over and only ash remains, then no more noise is heard. Thirst disappears with the destruction of attachment. Finally comes peace.

“ईश्वर की ओर कोई जितना ही बढ़ता है, उतनी ही शान्ति मिलती है । शान्तिः शान्तिः शान्तिः प्रशान्तिः । गंगा के निकट जितना ही जाया जाता है, उतना ही शीतलता का अनुभव होता जाता है । नहाने पर और भी शान्ति मिलती है ।” 

[“ঈশ্বরের যত নিকটে এগিয়ে যাবে ততই শান্তি। শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ প্রশান্তিঃ। গঙ্গার যত নিকটে যাবে ততই শীতল বোধ হবে। স্নান করলে আরও শান্তি।

"The nearer you come to God, the more you feel peace. Peace, peace, peace — supreme peace! The nearer you come to the Ganges, the more you feel its coolness. You will feel completely soothed when you plunge into the river. ] 

“परन्तु जीव, जगत, चौबीस तत्त्व, ^* इनकी सत्ता उन्हीं की सत्ता से भासित हो रही है । उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता । एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है । एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।” 

{"But the universe and its created beings, and the twenty-four cosmic principles,^*  all exist because God exists. Nothing remains if God is eliminated. The number increases if you put many zeros after the figure one; but the zeros don't have any value if the one is not there."

“তবে জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব, ^* এ-সব, তিনি আছেন বলে সব আছে। তাঁকে বাদ দিলে কিছুই থাকে না। ১-এর পিঠে অনেক শূন্য দিলে সংখ্যা বেড়ে যায়। ১-কে পুঁছে ফেললে শূন্যের কোনও পদার্থ থাকে না।

[ चौबीस तत्त्व ^* सांख्य-दर्शन में माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24  ब्रह्माण्डीय तत्वों से मिलकर हुआ है। तत्व का अर्थ है 'सत्य ज्ञान'। इसके अनुसार सृष्टि के पूर्व त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृति साम्यावस्था में थी।  गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होने से बुद्धि या महत् की उत्पत्ति होती है।  उससे तीन अंहकार (सत, रज, तम), तामस अहंकार से पांच तन्मात्राएं- {रूप (Form), रस (Taste), शब्द (Sound) , गन्ध (Smell) और स्पर्श (Touch)। } एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय [पांच ज्ञानेद्रियां ( the Five Sense Organs : आंख,नाक, कान , जीभ और त्वचा); पांच कर्मेन्द्रियां ( the Five Motor Organs : गुदा,जननेन्द्रिय ,हाथ, पैर, वाणी) तथा उभयात्मक मन ] और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश (Ether: the idea of space and vibration; connection, communication, self-expression) , वायु (Air: the idea of subtle movement; direction, velocity, change, the basis for thought), तेजस् (Fire: the idea of light; perception and movement), जल (Water - the idea of liquidity; fluidity in motion) तथा पृथ्वी (Earth: the idea of solidity; resistance in action) नामक पंच महाभूत ( the Five Elements)। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 24  तत्व मानता है। इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है। किन्तु जड़ बाह्यथार्थवाद भोग्य होने के कारण किसी चेतन भोक्ता के अभाव में अर्थशून्य अथवा निष्प्रयोजन है, अत: उसकी सार्थकता के लिए सांख्य दर्शन चेतन पुरुष या आत्मा को भी मानने के कारण सांख्य दर्शन भी अध्यात्मवादी दर्शन ही है। इसीलिये श्री ठाकुर देव कहते हैं -उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता । एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है। एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।” ] 

प्राणकृष्ण पर कृपा करने के लिए श्रीरामकृष्ण अपनी अवस्था के सम्बन्ध में कह रहे हैं । 

*ब्रह्मज्ञान के उपरान्त ‘भक्ति का मैं’* 

श्रीरामकृष्ण- ब्रह्मज्ञान के पश्चात् समाधि के पश्चात्, कोई कोई नीचे उतरकर ‘विद्या का मैं’, ‘भक्ति का मैं’ लेकर रहते हैं । हाट का क्रय-विक्रय समाप्त हो जाने पर भी कुछ लोग अपनी इच्छानुसार हाट में ही रह जाते हैं, जैसे नारद आदि । वे ‘भक्ति का मैं’ लेकर लोकशिक्षा के लिए संसार में रहते हैं । शंकारचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रखा था । 

[“ব্রহ্মজ্ঞানের পর — সমাধির পর — কেহ কেহ নেমে এসে ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকে। বাজার চুকে গেলে কেউ কেউ আপনার খুশি বাজারে থাকে। যেমন নারদাদি। তাঁরা লোকশিক্ষার জন্য ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকেন। শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।

{"There are some who come down , (or forced to go down by Ma Kali ? दादा कहते थे ,अपनी इच्छा से ही आये होंगे !) as it were, after attaining the Knowledge of Brahman — after samadhi — and retain the 'ego of Knowledge' or the 'ego of Devotion' , just as there are people who, of their own sweet will, stay in the market-place after the market breaks up. This was the case with sages like Narada. They kept the 'ego of Devotion' for the purpose of teaching men. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' for the same purpose.] 

“कामिनी -कांचन में आसक्ति का नाममात्र भी रहते वे नहीं मिल सकते । सूत के रेशे निकले हुए हों तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता ।” 

{"God cannot be realized if there is the slightest attachment to the things of the world. A thread cannot pass through the eye of a needle if the tiniest fibre sticks out.

“একটুও আসক্তি থাকলে তাঁকে পাওয়া যায় না। সূতার ভিতর একটু আঁশ থাকলে ছুঁচের ভিতর যাবে না।]

“जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, उनके काम-क्रोध नाममात्र के हैं, जैसे जली रस्सी, - रस्सी का आकार तो है परन्तु फूकने से ही उड़ जाती हैं ।”

{"The anger and lust of a man who has realized God are only appearances. They are like a burnt string. It looks like a string, but a mere puff blows it away. 

“যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর কাম-ক্রোধাদি নামমাত্র। যেমন পোড়া দড়ি। দড়ির আকার। কিন্তু ফুঁ দিলে উড়ে যায়।]

“मन से आसक्ति के चले जाने पर उनके दर्शन होते हैं । शुद्ध मन में से जो निकलेगी, वह उन्हीं की वाणी है ^ । शुद्ध मन जो है, शुद्ध बुद्धि भी वही है और शुद्ध आत्मा भी वही है; क्योंकि उन्हें छोड़ कोई दूसरा शुद्ध नहीं है ।” 

“परन्तु उन्हें पा लेने पर लोग धर्माधर्म को पार कर जाते हैं ।” 

{“মন আসক্তিশূন্য হলেই তাঁকে দর্শন হয়। শুদ্ধ মনে যা উঠবে সে তাঁরই বাণী। শুদ্ধ মনও যা শুদ্ধ বুদ্ধিও তা — শুদ্ধ আত্মাও তা। {^ चित्त शुद्ध हो जाने (अर्थात अहं का शवदाह हो जाने के बाद ) शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है, वह ईश्वर की वाणी है।  Whatever appears in the Pure Mind is the voice of God.  কেননা তিনি বই আর কেউ শুদ্ধ নাই।“তাঁকে কিন্তু লাভ করলে ধর্মাধর্মের পার হওয়া যায়।”

"God is realized as soon as the mind becomes free from attachment. Whatever appears in the Pure Mind is the voice of God. (अर्थात व्यष्टि-समष्टि अहं का शवदाह हो जाने के बाद )That which is Pure Mind is also Pure Buddhi; that, again, is Pure Atman, because there is nothing pure but God. But in order to realize God one must go beyond dharma and adharma."

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से भक्त रामप्रसाद का एक गीत गाने लगे- 



आय मन  बेड़ाते जाबी। 

काली-कल्पतरु मूले रे (मन),  चारी फल कूड़ाये पाबी ll

प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (तार),  निवृत्तीरे संगे लोबी। 

ओ रे विवेक नामेर तार बेटारे , तत्व कथा ताय सुधाबि।।

शुचि अशुचिरे लोये दिव्य घोरे कोरे शुबि। 

जोखुन दुई सौतिने पिरित होबे, तोखुन श्यामा मा के देखते पाबी।। 

अहंकार अविद्या तोर पितामाताय ताडिये दिबि l

जोदि मोहगर्ते  टेणे लोय, धैर्य खोटा धोरे रोबी ll

धर्माधर्म दुटो अजा, तुच्छ खोटाय बेन्धे खुबि। 

जोदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि।। 

प्रथम भार्यार संतानेरे दूर होते बुझाईबि। 

जोदि ना माने प्रबोध ज्ञानसिंधू माझे डूबाईबि।।

प्रसाद बोले एमोन होले कलर काछे जोबाब दिबि। 

तबे बापु बाछा बापेर ठाकूर , मोनेर मतो मन होबि ll

আয় মন বেড়াতে যাবি।

কালী-কল্পতরুমূলে রে, চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ৷৷

প্রবৃত্তি নিবৃত্তি জায়া নিবৃত্তিরে সঙ্গে লবি।

বিবেক নামে তার বেটারে তত্ত্বকথা তায় শুধাবি ৷৷

उसका मर्म यह है- (भावार्थ )- “मन, चल, सैर करने चलें । कालीरूप कल्पवृक्ष के नीचे तुझे जीवन के चारों फल (.धर्म,अर्थ , काम और मोक्ष) मिल जायेंगे । हे मन, अपनी इन दो पत्नियों प्रवृत्ति और निवृत्ति,  में से तू निवृत्ति को साथ लेना; और उसी के निवृत्ति के पुत्र विवेक से तत्त्व की बातें पूछना ।” शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्य गृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा। अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं- दोनों को भगा दे । यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह । धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख । यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना । प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना । यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना । रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब से सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा ।” 

{O mind, Come, let us go for a walk,  to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life. . . .धर्म,अर्थ , काम और मोक्ष।   Of your two wives, Dispassion (निवृत्ति)  and Worldliness (प्रवृत्ति) , Bring along Dispassion only, on your way to the Tree, And ask her son Discrimination about the Truth. When will you learn-to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness (शुचि ) and Defilement (अशुचि)  on either side of you? Only when you have found the way, To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama. Ego and Ignorance, your parents, instantly banish from your sight; And should Delusion seek to drag you to its hole, Manfully cling to the pillar of Patience. Tie to the post of Unconcern the goats of Vice and Virtue, Killing them with the sword of Knowledge if they rebel. With the children of Worldliness, your first wife, plead from a goodly distance, And, if they will not listen, drown them in Wisdom's sea. Says Ramprasad: If you do as I say, You can submit a good account, O mind, to the King of Death, And I shall be well pleased with you and call you my darling.}

[ यही प्रसंग देखें : ( 27 अक्टूबर 1882) परिच्छेद ~ 13, श्री रामकृष्ण वचनामृत ]*...

 वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है !  

 गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है । *जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।             “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (framework of illusion-धोखे की टट्टी) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- "एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।  जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"  ‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे)

 ["Why shouldn't one be able to realize God in this world? King Janaka had such realization. Ramprasad described the world as a mere 'framework of illusion'. But if one loves God's hallowed feet, then —This very world is a mansion of mirth; Here I can eat, here drink and make merry. Janaka's might was unsurpassed; What did he lack of the world or the Spirit? Holding to one as well as the other, He drank his milk from a brimming cup!

‘মনেতেই বদ্ধ, মনেতেই মুক্ত। আমি মুক্ত পুরুষ; সংসারেই থাকি বা অরণ্যেই থাকি, আমার বন্ধন কি? আমি ঈশ্বরের সন্তান; রাজাধিরাজের ছেলে; আমায় আবার বাঁধে কে? যদি সাপে কামড়ায়, ‘বিষ নাই’ জোর করে বললে বিষ ছেড়ে যায়! তেমনি ‘আমি বদ্ধ নই, আমি মুক্ত’ এই কথাটি রোখ করে বলতে বলতে তাই হয়ে যায়। মুক্তই হয়ে যায়। .... সংসারে ঈশ্বরলাভ হবে না কেন? জনকের হয়েছিল। এ-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ প্রসাদ বলেছিল। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করলে —এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি। জনক রাজা মহাতেজা, তার কীসের ছিল ক্রটি। সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।’[(১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর)-ব্রাহ্মদিগকে উপদেশ -- খ্রীষ্টধর্ম, ব্রাহ্মসমাজ ও পাপবাদ ]

चौबीस तत्त्व ^*: ( सांख्य दर्शन के 24 तत्व : चौबीस ब्रह्मांडीय मूल द्रव्य)  TATTVAS – THE TWENTY-FOUR COSMIC PRINCIPLES : सांख्य दर्शन में सत्कार्यवाद-सिद्धान्त  के अनुसार  बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।  कार्य (वृक्ष) अपने उत्पत्ति के पूर्व भी कारण (बीज) में  वर्तमान रहता है। कारण भी सूक्ष्म कार्य ही है, तथा कार्य (बटवृक्ष) , कारण (बीज) का स्थूल रूप है। तत्वत: कार्य और कारण में भेद नहीं है। कारण का परिणाम होने से कार्य की अवस्था आती है। सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का विवर्त नहीं वास्तविक परिणाम है। (परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना।)  यह कारण एक और अविभाज्य होगा। प्रकृति अर्थात अव्यक्त -मूल कारण, स्वभाव या नाम-रूप। सत्व (Light), रजस् (Energy) एवं तमस् (Matter) - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम जड़ प्रकृति है। इनकी साम्यावस्था ही मूल प्रकृति कही जाती है।  यह किसी का विकार नहीं है पर सभी जड़ पदार्थ इसके विकार हैं। वेदान्त के 'ब्रह्म' से सांख्य-दर्शन के 'पुरुष' होने की धारणा के लिए  हमें चौबीस ब्रह्मांडीय मूल द्रव्य को समझना पड़ता  है। सांख्य दर्शन दृश्यमान जगत को प्रकृति-पुरुष मूलक मानता है। हमारे ह्रदय में अवस्थित जो शुद्ध चेतना (pure consciousness) या आत्मा है उसको ही सांख्य दर्शन में पुरुष कहा जाता है। 

[Prakriti is the unmanifest creation – nature in its subtlest form. It is molded by the will of God and is what provides the experience for Purusha. For either Purusha itself, or for the Atman, Prakriti contains the potential of all creative power. It is composed of the three Gunas or Primal Qualities called Sattva (Light), Rajas (Energy) and Tamas (Matter).

 Mahat or Cosmic Intelligence : Mahat is the manifest Prakriti, it is Prakriti come into action – molded by the will of God (Purusha/Ishvara). Using the example of an artist, the Purusha/Ishvara is the Artist, whose mind is the blank slate of Prakriti. When and idea materialises in this consciousness, it then becomes Mahat. In the individual soul (Atman), however, Mahat is called Buddhi or Individual Intelligence. The attunement of Buddhi to Mahat is the Path of Self-Realisation.

Ahamkara or Ego : Ahamkara or “I-frabrication” is the process whereby the ego or unique self is developed, divided from the Mahat. Prakriti, the basic energies inherent in matter and Mahat, the fundamental laws of the cosmic intelligence work through the three Gunas of Sattva, Rajas and Tamas to create the Five Elements, the Five Sense Organs and the Five Motor Organs. Attachment of the Ego, which resides in the Ego, is the main cause of the moving away from spirituality and Self-Realisation.

Manas (चित्त) or Outer Mind : The first motor organ and first sense organ (Manas is usually called the sixth, setting it after the previous five. However, It is the cause of the other five and indeed regulates them.), is the automatic projection of the Ego and is the principle of Sensation, Emotion and Imagination. From Ahamkara, Manas derives its power of Illumination (Sattva) and power of action (Rajas), which are expressed through the five sense organs and five motor organs respectively.

The Five Tanmatras the Subtle Elements :The three Gunas are ideas, which are the causal energies of creation: balance, motion and resistance, called Sattva, Rajas and Tamas respectively. On a subtle level (when the ideas give rise to motion to become something), they are the five tanmatras – the roots of the five senses.}

 (४)

*श्रीरामकृष्ण का श्रीराधा-भाव* 

श्रीरामकृष्ण दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में आकर बैठे हैं । प्राणकृष्ण आदि भक्त भी साथ साथ आये हैं । हाजरा महाशय बरामदे में बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए प्राणकृष्ण से कह रहे हैं-

“हाजरा कुछ कम नहीं है । अगर यहाँ (स्वयं को लक्ष्य करके) कोई बड़ी दरगाह हो तो हाजरा छोटी दरगाह है !” (सब हँसते हैं ।)

नवकुमार आकर बरामदे के दरवाजे में खड़े हुए और भक्तों को देखते ही चले गये । उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा- “अहंकार की मूर्ति है !”[Oh! Egotism incarnate! “অহংকারের মূর্তি”]

दिन के आठ बज चुके हैं । प्राणकृष्ण ने प्रणाम करके चलने की आज्ञा ली; उन्हें कलकत्ते के मकान में लौट जाना है ।

एक वैरागी गोपीयन्त्र (एकतारे की सूरत-शक्ल का) लेकर श्रीरामकृष्ण के कमरे में गा रहे हैं- 

नित्यानन्देर जाहाज ऐसेछे, 

तोरा पारे जाबी तो धोर एसे।   

ছয় মানোয়ারি গোরা, তারা দেয় সদা পারা,

বুক পিঠে তার ঢাল খাঁড়া ঘেরা।

তারা সদর দুয়ার আলগা করে রত্নমাণিক বিলাচ্ছে।

 गीतों का आशय यह है-

(१) “नित्यानन्द का जहाज आया है । तुम्हें पार जाना हो तो इस पर आ जाओ । छः गोरे इसमें सदा पहरा देते हैं । उनकी पीठ ढाल से घिरी हुई है और कमरे में तलवार लटक रही है । सदर दरवाजा खोलकर वे धनरत्न लुटा रहे हैं ।”

(२)

এই বেলা নে ঘর ছেয়ে।

এবারে বর্ষা ভারি, হও হুঁশিয়ারি, লাগো আদা জল খেয়ে।

যখন আসবে শ্রবণা, দেখতে দেবে না।

বাঁশ বাখারি পচে যাবে, ঘর ছাওয়া হবে না।

যেমন আসবে ঝটকা, উড়বে মটকা, মটকা জাবে ফাঁক হয়ে।

(তুমিও যাবে হাঁ হয়ে)।

“इस समय घर छा लेना । इस बार वर्षा जोरों की होगी, सावधान हो जाओ, अदरक का पानी पीकर अपने काम पर डट जाओ । जब श्रावण लग जायगा तब कुछ भी न सूझेगा । छप्पर का टाट सड़ जायगा । फिर तुम घर न छा सकोगे । जब झकोरे लगेंगे, तब छप्पर उड़ जायगा । घर वीरान हो जायगा । तुम्हें भी फिर स्थान बदलना ही पड़ेगा ।”

(३)

কার ভাবে নদে এসে, কাঙাল বেশে, হরি হয়ে বলছি হরি।

কার ভাবে ধরেছ ভাব, এমন স্বভাব, তাও তো কিছু বুঝতে নারি।

“किसके भाव में नदिये में आकर दीन वेश धारण कर तुम स्वयं हरि होते हुए भी हरिनाम गा रहे हो? किसका भाव लेकर तुमने यह भाव और ऐसा स्वभाव धारण किया? कुछ समझ में नहीं आता ।”

श्रीरामकृष्ण गाना सुन रहे हैं, इसी समय श्री केदार चटर्जी आये और उन्होंने प्रणाम किया । वे आफिस की पोशाक में-चोगा, अचकन पहने और घड़ी चेन लगाये हुए आये हैं । परन्तु -Words about God would make him weep.' ईश्वरचर्चा होती है तो आपकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती है । आप बड़े प्रेमी हैं । हृदय में गोपीभाव विराजमान है ।

केदार को देखकर श्रीरामकृष्ण के मन में वृन्दावन की लीला का उद्दीपन होने लगा । आप प्रेमोन्मत्त हो गये । खड़े होकर केदार को सुनाते हुए इस मर्म का गाना गाने लगे- " सखी , से वन कोतोदूर। (जेथा आमार श्यामसुन्दर ?  

“क्यों सखि, वह वन अभी कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं? अब तो चला नहीं जाता !”

{Tell me, friend, how far is the grove , Where Krishna, my Beloved, dwells? His fragrance reaches me even here;But I am tired and can walk no farther. . . .

श्रीराधिका के भावावेश में गाते ही गाते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । चित्रवत् खड़े हैं । नेत्रों के दोनों कोरों से आनन्दाश्रु लुढक रहे हैं ।

भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके केदार उनकी स्तुति करने लगे-

“हृदयकमलमध्ये निर्विशेषं निरीहं हरिहरविधिवेद्यं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।

जननमरणभीतिभ्रंशि सच्चित्स्वरूपं सकलभुवनबीजं ब्रह्मचैतन्यमीडे ॥”

[We worship the Brahman-Consciousness in the Lotus of the Heart, The Undifferentiated, who is adored by Hari, Hara, and Brahma; Who is attained by yogis in the depths of their meditation; The Scatterer of the fear of birth and death, The Essence of Knowledge and Truth, the Primal Seed of the world.]

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण प्रकृतस्थ हुए । केदार को अपने घर हालीशहर से कलकत्ते में काम पर जाना था । रास्ते में दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करके जा रहे हैं । कुछ देर विश्राम करने के पश्चात् केदार ने विदाई ली ।

इसी तरह भक्तों से वार्तालाप करते हुए दोपहर का समय हो गया । श्री रामलाल श्रीरामकृष्ण के लिए थाली में कालीमाता का प्रसाद ले आये । कमरे में आसन पर दक्षिणास्य बैठकर श्रीरामकृष्ण ने प्रसाद पाया । बालकों की तरह भोजन किया-थोड़ा थोड़ा सभी कुछ खाया ।

भोजन करके श्रीरामकृष्ण उसी छोटी खाट पर विश्राम करने लगे । कुछ समय पश्चात् मारवाड़ी भक्तों का आगमन हुआ ।

(५) 

*अभ्यासयोग  । दो पथ : ' मनःसंयोग (विवेक-प्रयोग का मार्ग और भक्ति'* 

दिन के तीन बजे हैं । मारवाड़ी भक्त जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं । कमरे में मास्टर, राखाल और दूसरे भक्त भी हैं । 

मारवाड़ी भक्त- महाराज, उपाय क्या है? 

श्रीरामकृष्ण- उपाय दो हैं । विचार-मार्ग और अनुराग अथवा भक्ति का मार्ग। [मनःसंयोग या विवेक-प्रयोग का मार्ग (path of discrimination) और दूसरा अनुराग अथवा भक्ति का मार्ग। ]

“सत् (Real) -असत् (Unreal) का विचार। एकमात्र सत् या नित्य वस्तु ईश्वर हैं, और सब कुछ असत् या अनित्य है । इन्द्रजाल दिखानेवाला (Magician ) ही सत्य है, इन्द्रजाल (Magic) मिथ्या है । यही विवेक-विचार है। 

[चंचल मन को स्थिर कर के विवेक-प्रयोग द्वारा सत्य को मिथ्या से पृथक कर लेना और सत्य (जादूगर) के साथ एकत्व की अनुभूति का अभ्यास करना यही ज्ञानयोग है !)  

{MASTER: "There are two ways. One is the path of discrimination, the other is that of love. Discrimination means to know the distinction between the Real and the unreal. God alone is the real and permanent Substance; all else is illusory and impermanent. The magician alone is real; his magic is illusory. This is discrimination.} 

“विवेक और वैराग्य । इस सत्-असत् विचार का नाम विवेक है । वैराग्य अर्थात् संसार की वस्तुओं से विरक्ति (कामिनी-कांचन में अनासक्ति) । यह एकाएक नहीं होता- प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए । कामिनी-कांचन का त्याग पहले मन से करना पड़ता है । फिर तो उनकी इच्छा होते ही वह मन से त्याग कर सकता है और बाहर से भी त्याग कर सकता है । पर कलकत्ते के आदमियों से क्या मजाल जो कहा जाय कि ईश्वर के लिए सब कुछ छोड़ो ! उनसे यही कहना पड़ता है कि मन ही में त्याग करो । 

 {"Discrimination and renunciation. Discrimination means to know the distinction between the Real and the unreal. Renunciation means to have dispassion for the things of the world. One cannot acquire them all of a sudden. They must be practised every day. One should renounce 'woman and gold' mentally at first. Then, by the will of God, one can renounce it both mentally and outwardly. It is impossible to ask the people of Calcutta to renounce all for the sake of God. One has to tell them to renounce mentally." “বিবেক আর বৈরাগ্য। এই সৎ-অসৎ বিচারের নাম বিবেক। বৈরাগ্য অর্থাৎ সংসারের দ্রব্যের উপর বিরক্তি। এটি একবারে হয় না। — রোজ অভ্যাস করতে হয়। — তারপর তাঁর ইচ্ছায় মনের ত্যাগও করতে হয়, বাহিরের ত্যাগও করতে হয়। কলকাতার লোকদের বলবার জো নাই ‘ঈশ্বরের জন্য সব ত্যাগ কর’ — বলতে হয় ‘মনে ত্যাগ কর।’

अभ्यासयोग  (मनःसंयोग  के विधिवत अभ्यास )से कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग होता है- यह बात गीता (अध्याय ~ 6) में है । अभ्यास से मन में असाधारण शक्ति आ जाती है । तब इन्द्रियसंयम करने और काम-क्रोध को वश में लाने में कष्ट नहीं उठाना पड़ता । जैसे कछुआ पैर समेट लेने पर फिर बाहर नहीं निकालना चाहता-कुल्हाड़ी से टुकड़े टुकड़े कर डालने पर भी बाहर नहीं निकालता ।” 

{"Through the discipline of constant practice one is able to give up attachment to 'woman and gold'. That is what the Gita says. By practice one acquires uncommon power of mind. Then one doesn't find it difficult to subdue the sense-organs and to bring anger, lust, and the like under control. Such a man behaves like a tortoise, which, once it has tucked in its limbs, never puts them out. You cannot make the tortoise put its limbs out again, though you chop it to pieces with an axe."“অভ্যাসযোগের দ্বারা কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি ত্যাগ করা যায়। গীতায় এ-কথা আছে। অভ্যাস দ্বারা মনে অসাধারণ শক্তি এসে পড়ে, তখন ইন্দ্রিয় সংযম করতে — কাম, ক্রোধ বশ করতে — কষ্ট হয় না। যেমন কচ্ছপ হাত-পা টেনে নিলে আর বাহির করে না; কুড়ুল দিয়ে চারখানা করে কাটলেও আর বাহির করে না।”

मारवाड़ी भक्त- महाराज, आपने दो रास्ते बतलाये । दूसरा कौनसा है? 

{"Revered sir, you just mentioned two paths. What is the other path?"

श्रीरामकृष्ण- वह अनुराग या भक्ति का मार्ग है । व्याकुल होकर एक बार निर्जन में अकेले में दर्शन की प्रार्थना करते हुए रोओ । 

डाक देखि मन डाकार मतो, केमोन श्यामा थाकते पारे।

केमोन श्यामा थाकते पारे, केमोन काली थाकते पारे।l  

मन जोदि एकांत होओ, जोबा बिल्वदल लोओ। 

भक्ती चंदन मिशाइये,(मार) पदे पुष्पांजली दाओ।। 

“ऐ मन, जैसे पुकारा जाता है उस तरह तुम पुकारो तो सही, फिर देखो भला तुम्हें छोड़कर माँ श्यामा कैसे रह सकती हैं?” 

मारवाड़ी भक्त- महाराज, साकार-पूजा (Personal God श्री ठाकुर देव की पूजा ) का क्या अर्थ है? और निराकार-निर्गुण का क्या मतलब है? 

{"Sir, what is the meaning of the worship of the Personal God? And what is the meaning of God without form or attribute?"

श्रीरामकृष्ण- जैसे पिता का फोटोग्राफ देखने से पिता की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा की पूजा करते करते सत्य के रूप (माँ काली) की उद्दीपना होती है । 

{"As you recall your father by his photograph, so likewise the worship of the image reveals in a flash the nature of Reality.  

जैसे श्री ठाकुर की छवि देखने मात्र से हमें माँ काली की याद आती है , और उनकी पूजा करते करते किसी विशेष क्षण में माँ की कृपा से अंहकार का नाश होकर 'अविनाशी सत्य' (Existence-Consciousness-Bliss ) अपने को प्रकट कर देता है। }  

“साकार रूप कैसा है जानते हो? जैसे जलराशि से बुलबुले निकलते हैं, वैसा ही । महाकाश चिदाकाश से एक एक रूप आविर्भूत होते हुए दीख पड़ते हैं । अवतार भी एक रूप ही है । अवतार-लीला (activities of a Divine Incarnation) भी आद्याशक्ति (Primal Energy) ही की क्रीड़ा (sports) है ।

("Do you know what God with form is like? Like bubbles rising on an expanse of water, various divine forms are seen to rise out of the Great Akasa of Consciousness. The Incarnation of God is one of these forms. The Primal Energy sports, as it were, through the activities of a Divine Incarnation. मानो आद्याशक्ति माँ काली ही श्रीठाकुर , माँ , स्वामीजी ,... नवनीदा और महामण्डल के रूप में लीला कर रही हैं।)  

*पाण्डित्य- मैं कौन? मैं ही तुम* 

“पाण्डित्य में क्या रखा है? व्याकुल होकर पुकारने पर वे मिलते हैं । नाना विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं । 

{"What is there in mere scholarship? God can be attained by crying to Him with a longing heart. There is no need to know many things. केवल यह विश्वास रहे कि मेरी अविनाशी माँ -काली हैं, पर मुझे दिखाई क्यों नहीं दे रही हैं ?  

“जो आचार्य हैं उन्हीं को कई विषयों का ज्ञान रखना चाहिए । दूसरों को मारने के लिए ढाल-तलवार की जरूरत होती है, परन्तु अपने को मारने के लिए एक सुई या नहरनी ही से काम चल सकता है । 

One ultimately discovers God by trying to know who this 'I' is.“मैं कौन हूँ, इसकी ढूँढ़-तलाश करने के लिए चलो तो उन्हीं (ईश्वर) के निकट जाना पड़ता है । क्या मैं मांस हूँ? या हाड़, रक्त या मज्जा हूँ? मन या बुद्धि हूँ? अन्त में विचार करते हुए देखा जाता है कि मैं यह सब कुछ नहीं हूँ । 

‘नेति’, ‘नेति’ । आत्मा वह चीज नहीं कि पकड़ में आ जाय । यह निर्गुण और निरुपाधि है । “परन्तु भक्तिमत से वे सगुण हैं । चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम-सब चिन्मय !” 

{"One ultimately discovers God by trying to know who this 'I' is. Is this 'I' the flesh, the bones, the blood, or the marrow? Is it the mind or the buddhi? Analysing thus, you realize at last that you are none of these. This is called the process of 'Neti, neti', 'Not this, not this'. One can neither comprehend nor touch the Atman. It is without qualities or attributes. "But, according to the path of devotion, God has attributes. To a devotee Krishna is Spirit, His Abode is Spirit, and everything about Him is Spirit."

मारवाड़ी भक्तगण प्रणाम करके बिदा हुए । 

*दक्षिणेश्वर में सन्ध्या और आरती* 

सन्ध्या हो गयी । श्रीरामकृष्ण गंगा-दर्शन कर रहे हैं । कमरे में दीपक जलाया गया । श्रीरामकृष्ण जगन्माता का नामस्मरण कर रहे हैं और अपनी खाट पर बैठे हुए उन्हीं के ध्यान में मग्न हैं । 

श्रीमन्दिर में अब आरती होने लगी । जो लोग इस समय भी गंगा के किनारे या पंचवटी में घूम रहे हैं, वे दूर से आरती की मधुर घण्टाध्वनि सुन रहे हैं । ज्वार आ गयी है, भागीरथी कलकल स्वर से उत्तर की ओर बह रही हैं । आरती का मधुर शब्द इस ‘कलकल’ ध्वनि से मिलकर और भी मधुर हो गया है । इस माधुर्य के भीतर प्रेमोन्मत्त श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । सब कुछ मधुर है ! हृदय भी मधुमय हो रहा है !

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