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बुधवार, 28 अप्रैल 2021

$वीर भाव/परिच्छेद ~ 25,[( 9 मार्च 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Do not reason too much **बान ^ * कैसे आता है? : भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का बान देखना* *अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते क्यों खाते हैं* वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है ! *संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए*

[ परिच्छेद ~ २५, ( 9 मार्च 1883 )श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद~ २५* 

 [अमावस्या के दिन दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ, राखाल के प्रति श्रीठाकुर देव का  गोपाल भाव]  

*अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते क्यों खाते हैं*

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में राखाल, मास्टर आदि दो-चार भक्तों के साथ बैठे हैं । शुक्रवार, ९ मार्च १८८३ ई. । माघी अमावस्या, प्रातःकाल आठ-नौ बजे का समय होगा । अमावस्या का दिन है । श्रीरामकृष्ण को सतत जगन्माता (माँ काली) का उद्दीपन हो रहा है । 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে নিজের ঘরে রাখাল, মাস্টার প্রভৃতি দুই-একটি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। আজ শুক্রবার (২৬শে ফাল্গুন), ৯ই মার্চ, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ, মাঘের অমাবস্যা, সকাল, বেলা ৮টা-৯টা হইবে।অমাবস্যার দিন, ঠাকুরের সর্বদাই জগন্মাতার উদ্দীপন হইতেছে। 

About nine o'clock in the morning the Master was seated in his room with Rakhal, M., and a few other devotees. It was the day of the new moon.^  As usual with him on such days, Sri Ramakrishna entered again and again into communion with the Divine Mother. He said to the devotees:

वे कह रहे हैं “ईश्वर ही वस्तु हैं, बाकी सब अवस्तु । माँ ने अपनी महामाया द्वारा मुग्ध कर रखा है । मनुष्यों में देखो, बद्ध जीव ही अधिक हैं । इतना दुःख-कष्ट पाते हैं, फिर भी उसी ‘कामिनी-कंचन’ में उनकी आसक्ति है। काँटेदार घास खाते ऊँट के मुँह से धर-धर खून बहता है, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं, खाते ही जाता है । प्रसववेदना के समय स्त्रियाँ कहती हैं, ‘ओह, अब और पति के पास नहीं जाऊँगी’, परन्तु फिर भूल जाती हैं । 

{ ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু। মা তাঁর মহামায়ায় মুগ্ধ করে রেখেছেন। মানুষের ভিতরে দেখ, বদ্ধজীবই বেশি। এত কষ্ট-দুঃখ পায়, তবু সেই ‘কামিনী-কাঞ্চনে’ আসক্তি। কাঁটা ঘাস খেয়ে উটের মুখে দরদর করে রক্ত পড়ে, তবু আবার কাঁটা ঘাস খায়। প্রসববেদনার সময় মেয়েরা বলে, ওগো, আর স্বামীর কাছে যাব না; আবার ভুলে যায়।

 "God alone exists, and all else is unreal. The Divine Mother has kept all deluded by Her maya. Look at men. Most of them are entangled in worldliness. They suffer so much, but still they have the same attachment to 'woman and gold'. The camel eats thorny shrubs, and blood gushes from its mouth; still it will eat thorns. While suffering pain at the time of delivery, a woman says, 'Ah' I shall never go to my husband again.' But afterwards she forgets.

“देखो, उनकी खोज कोई नहीं करता । अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते खाते हैं !”  

{“দেখ, তাঁকে কেউ খোঁজে না। আনারসগাছের ফল ছেড়ে লোকে তার পাতা খায়।”

"The truth is that no one seeks God. There are people who eat the prickly leaves of the pineapple and not the fruit."

*संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए* 

भक्त- महाराज, संसार में वे क्यों रख देते हैं? ("Sir, why has God put us in the world?")

श्रीरामकृष्ण- संसार कर्मक्षेत्र है । कर्म करते करते ही ज्ञान होता है । गुरु ने कहा, इन कर्मों को करो और इन कर्मों को न करो (5 यम और 5 नियम)  । फिर वे निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं ।* कर्म करते करते मन का मैल धूल जाता है । अच्छे डाक्टर (वैद्य ) की चिकित्सा में रहने पर दवा खाते खाते कैसा ही रोग क्यों न हो, ठीक हो जाता है ।

{ সংসার কর্মক্ষেত্র, কর্ম করতে করতে তবে জ্ঞান হয়। গুরু বলেছেন, এই সব কর্ম করো, আর এই সব কর্ম করো না। আবার তিনি নিষ্কামকর্মের উপদেশ দেন।১ কর্ম করতে করতে মনের ময়লা কেটে যায়। ভাল ডাক্তারের হাতে পড়লে ঔষধ খেতে খেতে যেমন রোগ সেরে যায়।

 "The world is the field of action. Through action one acquires knowledge. The guru instructs the disciple to perform certain works and refrain from others. Again, he advises the pupil to perform action without desiring the result. The impurity of the mind is destroyed through the performance of duty. It is like getting rid of a disease by means of medicine, under the instruction of a competent physician.

“संसार से वे क्यों नहीं छोड़ते? रोग अच्छा होगा तब छोड़ेंगे । कामिनी-कंचन का भोग करने की इच्छा जब न रहेगी, तब छोड़ेंगे । अस्पताल में नाम लिखाकर भाग आने का उपाय नहीं है । रोग की कसर रहते डाक्टर साहब न छोड़ेंगे ।” 

{“কেন তিনি সংসার থেকে ছাড়েন না? রোগ সারবে, তবে ছাড়বেন। কামিনী-কাঞ্চন ভোগ করতে ইচ্ছা যখন চলে যাবে, তখন ছাড়বেন। হাসপাতালে নাম লেখালে পালিয়ে আসবার জো নাই। রোগের কসুর থাকলে ডাক্তার সাহেব ছাড়বে না।”

"Why doesn't God free us from the world? Ah, He will free us when the disease is cured. He will liberate us from the world when we are through with the enjoyment of 'woman and gold'. Once a man registers his name in the hospital, he cannot run away. The doctor will not let him go away unless his illness is completely cured."} 

श्रीरामकृष्ण आजकल यशोदा की तरह सदा वात्सल्य-रस में मग्न रहते हैं, इसलिए उन्होंने राखाल को साथ रखा है । राखाल के प्रति श्रीरामकृष्ण का गोपाल-भाव है । जिस प्रकार माँ की गोद में छोटा लड़का जाकर बैठता है, उसी प्रकार राखाल भी श्रीरामकृष्ण की गोद के सहारे बैठते थे । मानो स्तनपान कर रहे हों ।

* भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का ज्वार देखना* 

श्रीरामकृष्ण इसी भाव में बैठे हैं, इसी समय एक आदमी ने आकर समाचार दिया कि बान* (tide , बान ^ *) आ रहा है । श्रीरामकृष्ण, राखाल, मास्टर सभी लोग बान देखने के लिए पंचवटी की ओर दौड़ने लगे । पंचवटी के नीचे आकर सभी बान देख रहे हैं । दिन के करीब साढ़े दस बजे का समय होगा । एक नौका की स्थिति को देख श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “देखो, देखो, उस नाव की न जाने क्या दशा होगी !”

{ “দেখ, দেখ, ওই নৌকাখানার অবস্থা বা কি হয়।” "Look! Look! I hope nothing happens to it."
Sri Ramakrishna exclaimed: "Look! Look! I hope nothing happens to it."] 

अब श्रीरामकृष्ण पंचवटी के पथ पर मास्टर, राखाल आदि के साथ बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- अच्छा, बान ^ * कैसे आता है? मास्टर भूमि पर रेखाएँ खींचकर पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, माध्याकर्षण, ज्वार-भाटा, पूर्णिमा, अमावस्या, ग्रहण आदि समझाने की चेष्टा कर रहे हैं ।

[মাস্টার মাটিতে আঁক কাটিয়া পৃথিবী, চন্দ্র, সূর্য, মাধ্যাকর্ষণ, জোয়ার, ভাটা; পূর্ণিমা, অমাবস্যা, গ্রহণ ইত্যাদি বুঝাইতে চেষ্টা করিতেছেন।
They all sat in the Panchavati. The Master asked M. to explain the cause of the tide. M. drew on the ground the figures of the sun, moon, and earth and tried to explain gravitation, ebb-tide, flood-tide, new moon, full moon, eclipse, and so forth.] 

[ ^ * बान : - बंगाल के उपसागर में ज्वार (high tide) आने पर समुद्र का बहुत सा जल गंगा नदी में प्रविष्ट  हो जाता है और वह विशाल जलराशि बड़ी ऊँची लहर के रूप में जोरों से गर्जना करती हुई गंगा के पृष्ठभाग पर से उलटी दिशा में वेग के साथ बढ़ने लगती है । इसे ‘बान’ कहते हैं । ज्वार-भाटा चंद्रमा और सूर्य के पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा खिंचाव के कारण उत्पन्न होता है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी तीनों में एक सीध में होते होते हैं।  इन तिथियों में सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के संयुक्त प्रभाव के कारण ज्वार की ऊँचाई सामान्य ज्वार से 20% अधिक होती है. इसे वृहद् ज्वार या उच्च ज्वार  (high tide) कहते हैं।  शुक्ल या कृष्ण पक्ष की सप्तमी या अष्टमी को सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी के केंद्र पर समकोण बनाते हैं।  इस कारण सूर्य और चंद्रमा दोनों ही पृथ्वी के जल को भिन्न दिशाओं में आकर्षित करते हैं। फलतः इस समय उत्पन्न ज्वार औसत से 20% कम ऊँचे होते हैं. इसे लघु या निम्न ज्वार (NEAP TIDE)  कहते हैं। ]  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - यह लो ! समझ नहीं सक रहा हूँ । सिर घूम जाता है । चक्कर आ रहा है। अच्छा, इतनी दूर बातें कैसे जान सके ?

[ওই যা! বুঝতে পারছি না; মাথা ঘুরে আসছে! টনটন করছে! আচ্ছা, এত দূরের কথা কেমন করে জানলে?
 "Stop it! I can't follow you. It makes me dizzy. My head is aching. Well, how can they know of things so far off?]
“देखो, मैं बचपन में चित्र अच्छी तरह खींच सकता था । परन्तु गणित से सिर चकराता था । हिसाब नहीं सीख सका ।
[“দেখ, আমি ছেলেবেলায় চিত্র আঁকতে বেশ পারতুম, কিন্তু শুভঙ্করী আঁক ধাঁধা লাগত! গণনা অঙ্ক পারলাম না।”
"You see, during my childhood I could paint well; but arithmetic would make my head spin. I couldn't learn simple arithmetic."

अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में लौट आए हैं । दिवार पर टँगे हुए यशोदा के चित्र को देख कह रहे हैं, “चित्र अच्छा नहीं हुआ । मानो ठीक मालिन मौसी (garland-seller) है !” 
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* पूर्णिमा या अमावस्या के आठवें दिन (अष्टमी ) को बकरे की बलि।*

मध्याह्न के आहार के बाद श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा सा विश्राम किया । धीरे धीरे अधर तथा अन्य भक्तगण आ पहुँचे । अधर सेन पहली बार श्रीरामकृष्ण का दर्शन कर रहे हैं । अधर का मकान कलकत्ता, बेनेटोला में है । वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । उम्र उनतीस-तीस वर्ष की होगी ।

अधर (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, मुझे एक बात पूछनी है । क्या देवता के सामने बलि चढ़ाना अच्छा है? इससे तो जीव हिंसा होती है !
[অধর (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — মহাশয়, আমার একটি জিজ্ঞাস্য আছে; বলিদান করা কি ভাল? এতে তো জীবহিংসা করা হয়।
 
श्रीरामकृष्ण- शास्त्र के अनुसार, मन की एक विशेष अवस्था में बलि चढ़ायी जा सकती है । ‘विधिवादीय” बलि में दोष नहीं है । जैसे, अष्टमी ^ * के दिन एक बलि चढ़ाते हैं ।

[ বিশেষ বিশেষ অবস্থায় শাস্ত্রে আছে, বলি দেওয়া যেতে পারে। ‘বিধিবাদীয়’ বলিতে দোষ নাই। যেমন অষ্টমীতে একটি পাঁঠা।
"The sastra prescribes sacrifice on special occasions. Such sacrifice is not harmful. Take, for instance, the sacrifice of a goat on the eighth day of the full or new moon. 
अष्टमी ^ * हिन्दू पंचांग की आठवीं तिथि को अष्टमी कहते हैं। यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली अष्टमी को कृष्ण पक्ष की अष्टमी और अमावस्या के बाद आने वाली अष्टमी को शुक्ल पक्ष की अष्टमी कहते हैं। श्री राधाष्टमी : सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि श्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है।श्री कृष्ण जन्माष्टमी : यह हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है । 

 परन्तु यह विधि सभी अवस्था के लिए नहीं है । मेरी अब ऐसी अवस्था है कि मैं सामने रहकर बलि नहीं देख सकता हूँ । माँ को भोग में चढ़ाये गए मांस की प्रसादी भी नहीं खा सकता हूँ। इसलिए अंगुली से  प्रसाद को छूकर सिर से छुआ लेता हूँ , कहीं ऐसा न हो कि माँ नाराज हो जायें। 

( কিন্তু সকল অবস্থাতে হয় না। আমার এখন এমন অবস্থা, দাঁড়িয়ে বলি দেখতে পারি না। মার প্রসাদী মাংস, এ-অবস্থায় খেতে পারি না। তাই আঙুলে করে একটু ছুঁয়ে মাথায় ফোঁটা কাটি; পাছে মা রাগ করেন। 
"I am now in such a state of mind that I cannot watch a sacrifice. Also I cannot eat meat offered to the Divine Mother. Therefore I first touch my finger to it, then to my head, lest She should be angry with me.)

“फिर ऐसी भी अवस्था होती है कि सर्वभूतों में ईश्वर को देखता हूँ । चीटियों में भी वे ही दिखायी देते हैं । ऐसी स्थिति में एकाएक किसी प्राणी के मरने पर मन में यही सान्त्वना होती है कि उसकी देह मात्र का विनाश हुआ । आत्मा की मृत्यु नहीं है ।* न हन्यते हन्यमाने शरीरे । (गीता, २/२०)
[“আবার এমন অবস্থা হয় যে, দেখি সর্বভূতে ঈশ্বর, পিঁপড়েতেও তিনি। এ-অবস্থায় হঠাৎ কোন প্রাণী মরলে এই সান্ত্বনা হয় যে, তার দেহমাত্র বিনাশ হল। আত্মার জন্ম মৃত্যু নাই।”২
"Again, in a certain state of mind I see God in all beings, even in an ant. At that time, if I see a living being die, I find consolation in the thought that it is the death of the body, the soul being beyond life and death.] 

“अधिक विचार करना ठीक नहीं, माँ के चरणकमल में भक्ति रहने से ही हो जाएगा । अधिक विचार करने से गोलमाल हो जाता है । इस देश में तालाब का जल ऊपर ऊपर से पीओ, अच्छा साफ जल पाओगे; अधिक नीचे हाथ डालकर हिलाने से जल मैला हो जाता है । इसलिए उनसे भक्ति की प्रार्थना करो । ध्रुव की भक्ति सकाम थी, उसने राज्य पाने के लिए तपस्या की थी; परन्तु प्रह्लाद की निष्काम अहैतुकी भक्ति थी ।”
[“বেশি বিচার করা ভাল নয়, মার পাদপদ্মে ভক্তি থাকলেই হল। বেশি বিচার করতে গেলে সব গুলিয়ে যায়। এ-দেশে পুকুরের জল উপর উপর খাও, বেশ পরিষ্কার জল পাবে। বেশি নিচে হাত দিয়ে নাড়লে জল ঘুলিয়ে যায়। তাই তাঁর কাছে ভক্তি প্রার্থনা কর। ধ্রুবর ভক্তি সকাম। রাজ্যলাভের জন্য তপস্যা করেছিলেন। প্রহ্লাদের কিন্তু নিষ্কাম অহেতুকী ভক্তি।”
"One should not reason too much; it is enough if one loves the Lotus Feet of the Mother. Too much reasoning throws the mind into confusion. You get clear water if you drink from the surface of a pool. Put your hand deeper and stir the water, and it becomes muddy. Therefore pray to God for devotion.]
भक्त- ईश्वर कैसे प्राप्त होते हैं?
श्रीरामकृष्ण- उसी भक्ति के द्वारा । परन्तु उनसे जबरदस्ती करनी होती है । दर्शन नहीं देगा तो गले में छुरा भोंक लूँगा, - इसका नाम है भक्ति का तम ।
भक्त- क्या ईश्वर को देखा जाता है?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, अवश्य देखा जाता है । निराकार-साकार दोनों ही देखे जाते हैं । चिन्मय साकार रूप का दर्शन होता है । फिर साकार मनुष्य रूप में भी वे प्रत्यक्ष हो सकते हैं । अवतार को देखना और ईश्वर को देखना एक ही है । ईश्वर ही युग युग में मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होते हैं # 

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, অবশ্য দেখা যায়। নিরাকার, সাকার — দুই দেখা যায়। সাকার চিন্ময়রূপ দর্শন হয়। আবার সাকার মানুষ তাতেও তিনি প্রতক্ষ্য। অবতারকে দেখাও যা ঈশ্বরকে দেখাও তা। ঈশ্বরই যুগে যুগে মানুষরূপে অবতীর্ণ হন!৩
MASTER: "Yes, surely. One can see both aspects of God — God with form and without form. One can see God with form, the Embodiment of Spirit. Again, God can be directly perceived in a man with a tangible form. Seeing an Incarnation of God is the same as seeing God Himself. God is born on earth as man in every age."]
(#धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे (गीता, ४/८) यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव।  सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह 'Be and Make ' भी एक इच्छा ही है। कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये अपनी माया का आश्रय लेकर एक और कार्य अवतारी पुरुष को करना होता है वह है दुष्टों का संहार।  दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के शारीरिक संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है उसमें दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश अभिप्रेत है। ]

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वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है ! 

      ‘आत्मसाधना‘ में पूर्व की कक्षा को छोड़कर आगे की कक्षा में छलांग नहीं लगाई जाती है। अर्थात् क्रमवार (step wise) आगे बढ़ा जाता है अन्यथा साधक पतनोन्मुखी हो जाता है तथा स्वयं व अन्यों हेतु घातक सिद्ध होता है। 

 ‘आसन‘ लाभ नहीं दे रहे हैं अर्थात् यम नियम की अनदेखी की गई है। ‘ध्यान’ नहीं लगता अर्थात् यम, नियम, आसन, और प्रत्याहार-धारणा  में साधक परिपक्व नहीं हुआ है। अधिकार निर्णय में शैथिल्य के कारण तांत्रिक साधनाओं को कालांतर में आपाततः निन्दित होना पड़ता है। 

  दिव्य भाव (सन्तान भाव ) का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है। दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव  [ठाकुर का सन्तान भाव] का हेतु है, जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है…

अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि  होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। 

     भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं।

      वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्रजप आदि भावना का ही तो अभ्यास है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है। 

    यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’ ***, ललितासहस्रनाम का यह वचन है।साधना (योगमार्ग) पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है।

       कामाख्या तंत्र, कुब्जिका तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि तन्त्र -ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है सन्तान भाव या दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और अपने इष्ट देवता " [अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव-माँ काली]  में भेद नहीं देखता। सन्तान भाव (दिव्य भाव) में स्थित साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है

        दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक सन्तान भाव या दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव (प्रवृत्ति धर्म) सन्तान भाव (दिव्य भाव या निवृत्ति धर्म) का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है। 

    तीसरा भाव पशु भाव (दासीभाव) है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता। 

 लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है

[साभार https://www.divyahimachal.com/2017/08/] 

‘भगवति भावना गम्या’ ***,-----------------------------------------वैराग्य पूर्वक गृहत्याग नहीं करने पर कहीं भी  शांति नहीं मिलती। यदि राग है तो बंधन में पडोगे और यदि राग न हो तो उसके लिए घर ही तपोवन है। 

     राग के निर्मूलन के लिए गृहस्थ को आज्ञा दी - घर बसाओ, उसमें प्रचुर सामग्री रखो। क्यों? राग रहित होने के लिए। फिर भी मन अशांत रहता है। इसमें आप का दोष नहीं है क्योंकि यह माया है। जीवन का संचालन महामाया करती है।

        वह महामाया कल्याणी है, काम पोषणी है और सारे संसार को राग से विमुक्त करने वाली भी वही है। "सैषा प्रसन्नावरदां ऋणां विमुक्तये" ।अतः उस माया के द्वारा भुक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त करो। इसके लिए भगवती की आराधना करो। "आत्मेच्छा व्यवसीयतामं।" आत्मा की ईच्छा करो।

" निराहारौ यथा हारौ तन्मनस्को समाहितो। " आहार क्या है? केवल भोजन ही नहीं वरन् जो अंदर जाता है वह सब आहार है - मुख से, आँख से, कान से, त्वचा से आदि। इन सबको हम कामना से खाते हैं। अतः निराहार का अर्थ है - सर्वथा काम त्याग और सिमित काम का ग्रहण। निजगात्र - अर्थात् शरीर में निजत्व। इसे छोडो। अपने मन से शरीर से शरीर का सम्बंध छोडना बडा कठिन है।

आगमों में कहा - "भावनैकं बलिप्रियाम्", "भवानी भावना गम्या।" भगवती को भावना की बलि प्रिय है, वह भावना से ही प्राप्त होती है। मैं शरीर हूँ, यह एक दृढ भावना है उसकी बलि देनी होगी और मैं चैतन्य मात्र हूँ इस आत्मभावना को स्थिर करना है।

     इस संसार में तुम्हारा क्या है? तुम्हारी तो चेतना है, चेतना। उसे पकडो, घर को छोडो। घर विश्राम वृक्ष जैसा है। जैसे पक्षी का घर - आसमान। वह उसी में उत्पन्न होता है, धूमता है और वायु से ही विलीन हो जाता है। हाँ, टिकने के लिए एक वृक्ष ले लो। "विश्राम वृक्षसदृशः खलु जीवलोकः"। जीव लोक अर्थात यह शरीर विश्राम वृक्ष सदृश है। ऐसा समझ कर कहीं भी टिक जाओ

{साभार पूज्य श्रीश्री ईश्वरानन्द गिरि जी महाराज https://es-la.facebook.com/samvitsamvad/posts/981400442070838/ } 

{ New Moon : the time at which the Moon appears as a narrow waxing crescent अमावस्या , दूज का चाँद , नया चाँद (चन्द्रमा का नया चरण) । इस दिन चन्द्रमा एक छोटे से वर्धमान नवचन्द्र (waxing crescent) के रूप में दीखता है। अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30 वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता।] 

धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी। इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।

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