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बुधवार, 7 अप्रैल 2021

$$$$$$$ परिच्छेद-14 ( 28 अक्टूबर 1882) & परिच्छेद-15, (15 नवम्बर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत] *Heavy log and worthless timber**क्या पुनर्जन्म सत्य है ?*

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

 " परिच्छेद ~ 14" 

[ श्री रामकृष्ण वचनामृत - 28 अक्टूबर 1882 ]  

(१) 

*सींती ब्रह्मसमाज के अर्द्ध-वार्षिक उत्सव (The semi-annual Brahmo festival) में श्रीरामकृष्ण*

[जैसे स्टेट लेवल कैम्प में "C-IN-C नवनीदा" का आगमन ) 

*अर्धवार्षिक ब्राह्म प्रशिक्षण के लिए शिविर-स्थल का चयन *  
[Selection of camp site for brahmin training] 
         भगवान् श्रीरामकृष्ण सींती का ब्राह्मसमाज देखने आए हैं । 28 अक्टूबर 1882 ई., शनिवार, आश्विन द्वितीया है । आज यहाँ  " ब्रह्मसमाज के अर्द्ध-वार्षिक उत्सव" (The semi-annual Brahmo festival )  आयोजित किया जायेगा।  इसीलिये भगवान् श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देकर बुलाया है । दिन के तीन-चार बजे का समय है, श्रीरामकृष्ण कुछ भक्तों के साथ गाड़ी पर चढ़कर दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर से श्रीयुत वेणीमाधव पाल के मनोहर बगीचे में पहुँचे हैं । इसी बगीचे में ब्राह्मसमाज का अधिवेशन हुआ करता है । ब्राह्मसमाज को वे बहुत प्यार करते हैं । ब्राह्मभक्त भी उन्हें बड़ी श्रद्धाभक्ति से देखते हैं । अभी कल ही शुक्रवार के दिन, शाम को आप केशव सेन और भक्तों के साथ जहाज पर  चढ़कर हवाखोरी को निकले थे ।

सींती पाइकपाड़ा के पास है । कलकत्ते से तीन मील, उत्तर दिशा में । स्थान निर्जन और मनोहर है; ईश्वरोपासना के लिये अत्यन्त उपयोगी है । बगीचे के मालिक साल में दो बार उत्सव मनाते हैं; एक बार शरत्-काल में और एक बार वसन्त में । इस महोत्सव में वे कलकत्ते और सींती के आसपास के ग्रामवासी अनेक भक्तों को निमन्त्रण देते हैं । 

*ब्राह्म प्रशिक्षण-सत्र, प्रातः और सायं  दो भागों में बँटे थे*   

अतएव आज कलकत्ते से शिवनाथ आदि भक्त आए हैं । इनमें से अनेक प्रातःकाल की उपासना में सम्मिलित हुए थे । वे सब सायंकालीन उपासना की प्रतीक्षा कर रहे हैं । विशेषतः उन लोगों ने सुना है कि अपराह्न् -सत्र में (Evening Session में ) महापुरुष (अवतार वरिष्ठ : C-IN-C) का आगमन होगा, अतएव उनकी आनन्द-मूर्ति देखेंगे, उनका हृदयमुग्धकारी वचनामृत पान करेंगे, मधुर संकीर्तन सुनेंगे और देखेंगे भगवत्-प्रेममय देवदुर्लभ नृत्य । 

[Many devotees had attended the morning devotions, and in the afternoon people from Calcutta and the neighbouring villages joined them. Shivanath, the great Brahmo devotee whom the Master loved dearly, was one of the large gathering of members of the Brahmo Samaj who had been eagerly awaiting Sri Ramakrishna's arrival.

   दोपहर को बगीचे में आदमी ठसाठस भर गए हैं । कोई लतामण्डप की छाया में बेंच पर बैठा हुआ है, कोई सुन्दर तालाब के किनारे मित्रों के अथ घूम रहा है । कितने ही लोग समाजगृह में पहले ही से जगह लेकर आसन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण के आने की बाट जोह रहे हैं । चारों ओर आनन्द उमड़ रहा है । शरद् के नील आकाश में भी आनन्द की छाया झलक रही है । 
 
बाग के फूलों से लदे हुए पेड़ों और लताओं से छानकर आती हुई हवा भक्तों के हृदय में आनन्द का एक झोंका लगा जाती है । सारी प्रकृति मानो मधुर स्वर से गा रही- " आजि कि हरष समीर बहे प्राणे - भगवत मंगल किरणे !"  ‘आज हर्ष-शीतल-समीर भरते भक्तों के उर में हैं विभु ।’ सभी उत्कण्ठित हो रहे हैं, ऐसे समय श्रीरामकृष्ण की गाड़ी आकर समाजगृह के सामने खड़ी हो गयी । सभी ने उठकर महापुरुष का स्वागत किया । वे आये हैं- सुनते ही लोगों न उन्हें चारों ओर से घेर लिया । 
समाजगृह के प्रधान कमरे में वेदी बनायी गयी है । वह जगह आदमियों से भर गयी है । सामने दालान है; वहाँ श्रीरामकृष्ण बैठे हैं; वहाँ भी लोग जम गए हैं । दालान के दोनों ओर दो कमरे हैं-वहाँ भी लोग हैं,- सभी दरवाजे पर खड़े हुए बड़े उत्सुक होकर श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । दालान पर चढ़ने की सीढ़ियाँ बराबर दालान के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक हैं । इन सीढ़ियों पर भी अनेक लोग खड़े हैं । वहाँ से कुछ दूर पेड़ों और लतामण्डपों के नीचे रखी हुई बेंचों पर से भी लोग टक लगाकर महापुरुष के दर्शन कर रहे हैं । दोनों ओर फल और फूलों के पेड़ों की कतार लगी हुई है,- बीच में रास्ता है । सभी पेड़ हवा की झोंकों से धीरे धीरे डोल रहे हैं, मानो वे आनन्दमग्न हो मस्तक नवाकर उनका स्वागत कर रहे हों । 
श्रीरामकृष्ण ने हँसते हुए आसन ग्रहण किया । सब की दृष्टि एक साथ उनकी आनन्दमूर्ति पर जा गिरी । जब तक रंगमंच पर खेल शुरू नहीं होता । तब तक दर्शकवृन्दों में से कोई तो हँसता है, कोई विषयचर्चा छेड़ता है, कोई अकेला या दोस्तों के साथ टहलता है, कोई पान खाता है, कोई सिगरेट पीता है । परन्तु परदा उठते ही सब लोग बातचीत बंद कर, अनन्यचित्त होकर एकाग्र दृष्टि से खेल देखने लगते हैं । अथवा, एक फूल से दूसरे फूल में मँडरानेवाले भौंरे कमल की खोज पाते ही दूसरे फूलों को छोड़कर पद्ममधु का पान करने के लिए भागे चले आते हैं।
[When the carriage bringing the Master and a few devotees reached the garden house, the assembly stood up respectfully to receive him. There was a sudden silence, like that which comes when the curtain in a theatre is about to be rung up. People who had been conversing with one another now fixed their attention on the Master's serene face, eager not to lose one word that might fall from his lips.
(२) 

*कीट -भ्रमर न्याय के अनुसार , हमारा सम्पूर्ण चरित्र  हमारे विचारों से निर्मित होता है* 

" मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते । 
(गीता, १४/२६)
मां च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते, सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है। 
And he who serves Me and only Me, with unfaltering devotion, he, crossing beyond the Qualities, is fit for becoming Brahman !
 हमारा सम्पूर्ण चरित्र  हमारे विचारों से निर्मित होता है। *कीट -भ्रमर न्याय के अनुसार यथा विचार तथा मन* यह नियम है। अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवा-साधना (शिवज्ञान से जीव सेवा या  'Be and Make -Leadership training ) मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है।  तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। इसलिये एकाग्र चित्त से 'आत्मा के अनन्तस्वरूप' का चिन्तन- करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार (मिथ्या व्यष्टि अहं) की समाप्ति और स्वस्वरूप (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं-'बोध) में स्थिति हो जाती है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना (विवेक-दर्शन)  के योग्य बन जाता है।  ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती।  जैसे स्वप्नद्रष्टा (झींगुर)  जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष (भ्रमर) बन जाता है। वैसे ही उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है।अर्थात एकाग्रता का प्रशिक्षण देने में समर्थ नेता या जीवनमुक्त शिक्षक बन जाता है। इसीलिए विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम है नेता ! } 

* नेता को अपने सहकर्मियों से मिलने का आनन्द *

प्रसन्नवदन श्रीरामकृष्ण शिवनाथ आदि भक्तों की ओर स्नेह की दृष्टि फेरते हुए कहते हैं, “क्या शिवनाथ! तुम भी आये हो? देखो तुम लोग भक्त हो, तुम लोगों को देखकर बड़ा आनन्द होता है। गंजेड़ी का स्वभाव होता है कि दूसरे गंजेड़ी (hemp-smoker) को देखते ही वह खुश हो जाता है; कभी तो उसे गले ही लगा लेता है (शिवनाथ तथा अन्य सब हँसते हैं ।)
{At the sight of Shivanath the Master cried out joyously: "Ah! Here is Shivanath! You see, you are a devotee of God. The very sight of you gladdens my heart. One hemp-smoker feels very happy to meet another. Very often they embrace each other in an exuberance of joy."
সহাস্যবদনে ঠাকুর শ্রীযুক্ত শিবনাথ আদি ভক্তগণের দিকে দৃষ্টি নিক্ষেপ করিতে লাগিলেন। বলিতেছেন,  “এই যে শিবনাথ! দেখ, তোমরা ভক্ত, তোমাদের দেখে বড় আনন্দ হয়। গাঁজাখোরের স্বভাব, আর-একজন গাঁজাখোরকে দেখলে ভারী খুশি হয়। হয়তো তার সঙ্গে কোলাকুলিই করে।” (শিবনাথ ও সকলের হাস্য)

*संसारी लोगों का स्वभाव।  नाममाहात्म्य *  
*नाममाहात्म्य ~ श्रीरामकृष्ण का नाम श्रवण करने से पशु-मानव 'मनुष्य' बनता है *

श्रीरामकृष्णजिन्हें मैं देखता हूँ कि मन ईश्वर पर नहीं है, उनसे कहता हूँ ‘तुम कुछ देर वहाँ जाकर बैठो’ या कह देता हूँ, ‘जाओ, इमारतें (रानी रासमणि के मन्दिर आदि) देखो ।’ (सब हँसे ।)
[ "Many people visit the temple garden at Dakshineswar. If I see some among the visitors indifferent to God, I say to them, 'You had better sit over there.' Or sometimes I say, 'Go and see the beautiful buildings.' (Laughter.)
“कभी तो देखा है कि भक्तों के साथ निकम्मे आदमी आए हैं । उनमें बड़ी विषय-बुद्धि रहती है । इश्वरीय-चर्चा नहीं सुहाती । भक्त तो बड़ी देर तक मुझसे ईश्वरीय -चर्चा करते हैं, पर वे लोग उधर बैठे नहीं रह सकते; तड़फड़ाते हैं । (Since the devotees keep on, for a long time, talking with me about God, the others become restless.) बार बार कानों में फिसफिसाते हुए कहते हैं, ‘कब चलोगे-कब चलोगे?’ उन्होंने अगर कहा, ‘ठहरो भी, जरा देर बाद चलते हैं’, तो इन लोगों ने रूठकर कहा, ‘तो तुम बातचीत करो, हम नाव पर चलकर बैठते हैं ।’ (सब हँसे ।)
["Sometimes I find that the devotees of God are accompanied by worthless people. Their companions are immersed in gross worldliness and don't enjoy spiritual talk at all. Since the devotees keep on, for a long time, talking with me about God, the others become restless. Finding it impossible to sit there any longer, they whisper to their devotee friends: 'When shall we be going? How long will you stay here?' The devotees say: 'Wait a bit. We shall go after a little while.' Then the worldly people say in a disgusted tone: 'Well then, you can talk. We shall wait for you in the boat.' (All laugh.)
“আবার দেখেছি যে, ভক্তদের সঙ্গে হাবাতে লোক এসেছে। তাদের ভারী বিষয়বুদ্ধি। ঈশ্বরীয় কথা ভাল লাগে না। ওরা হয়তো আমার সঙ্গে অনেকক্ষণ ধরে ঈশ্বরীয় কথা বলছে। এদিকে এরা আর বসে থাকতে পারে না, ছটফট করছে। বারবার কানে কানে ফিসফিস করে বলছে, ‘কখন যাবে — কখন যাবে।’ তারা হয়তো বললে, ‘দাঁড়াও না হে, আর-একটু পরে যাব।’ তখন এরা বিরক্ত হয়ে বলে, ‘তবে তোমরা কথা কও, আমরা নৌকায় গিয়ে বসি।’ (সকলের হাস্য)] 
“संसारी मनुष्यों से यदि कहो कि सब छोड़-छोड़कर ईश्वर के पादपद्मों पादपद्मों में मन लगाओ वे कभी न सुनेंगे । यही कारण है कि गौरांग और नित्यानन्द दोनों भाइयों ने आपस में विचार करके यह व्यवस्था की-‘मांगुर माछेर झोल युवती मेयेर कोल बोल हरि बोल । प्रथम दोनों की लोभ से बहुत आदमी ‘हरि बोल’ में शामिल होते थे । फिर तो हरिनामामृत का कुछ स्वाद पाते ही वे समझ जाते थे कि -‘मागुर माछेर झोल’और कुछ नहीं है, ईश्वरप्रेम के जो आँसू उमड़ते हैं, वही है । और युवती स्त्री है पृथ्वी- ‘युवती स्त्री का अंक’ अर्थात् भगवत्-प्रेम के कारण धूलि में लोटपोट हो जाना ।
{"Worldly people will never listen to you if you ask them to renounce everything and devote themselves whole-heartedly to God. Therefore Chaitanya and Nitai, after some deliberation, made an arrangement to attract the worldly. They would say to such persons, 'Come, repeat the name of Hari, and you shall have a delicious soup of magur fish and the embrace of a young woman.' Many people, attracted by the fish and the woman, would chant the name of God. After tasting a little of the nectar of God's hallowed name, they would soon realize that the 'fish soup' really meant the tears they shed for love of God, while the 'young woman' signified the earth. The embrace of the woman meant rolling on the ground in the rapture of divine love.
“সংসারী লোকদের যদি বল যে সব ত্যাগ করে ঈশ্বরের পাদপদ্মে মগ্ন হও, তা তারা কখনও শুনবে না। তাই বিষয়ী লোকদের টানবার জন্য গৌরনিতাই দুই ভাই মিলে পরামর্শ করে এই ব্যবস্থা করেছিলেন — ‘মাগুর মাছের ঝোল, যুবতী মেয়ের কোল, বোল হরি বোল।’ প্রথম দুইটির লোভে অনেকে হরিবোল বলতে যেত। হরিনাম-সুধার একটি আস্বাদ পেলে বুঝতে পারত যে, ‘মাগুর মাছের ঝোল’ আর কিছুই নয়, হরিপ্রেমে যে অশ্রু পড়ে তাই; ‘যুবতী মেয়ে’ কিনা — পৃথিবী। ‘যুবতী মেয়ের কোল’ কিনা — ধুলায় হরিপ্রেমে গড়াগড়ি।
 
*महामण्डल का बीज मंत्र है - Be and Make ! *
“नित्यानन्द किसी तरह हरिनाम करा लेते थे । चैतन्यदेव ने कहा है, ईश्वर के नाम का बड़ा माहात्म्य है । फल जल्दी न मिलने पर भी कभी न कभी अवश्य प्राप्त होगा । जैसे, कोई पक्के मकान के आले में बीज रखा गया था । बहुत दिनों के बाद जब मकान गिर गया-मिट्टी में मिल गया, तब भी उस बीज से पेड़ पैदा हुआ और उसमें फल भी लगे ।”
{"Nitai would employ any means to make people repeat Hari's name. Chaitanya said: 'The name of God has very great sanctity. It may not produce an immediate result, but one day it must bear fruit. It is like a seed that has been left on the cornice of a building. After many days the house crumbles, and the seed falls on the earth, germinates, and at last bears fruit.'
“নিতাই কোনরকমে হরিনাম করিয়ে নিতেন। চৈতন্যদেব বলেছিলেন, ঈশ্বরের নামের ভারী মাহাত্ম্য। শীঘ্র ফল না হতে পারে, কিন্তু কখন না কখন এর ফল হবেই হবে। যেমন কেউ বাড়ির কার্নিসের উপর বীজ রেখে গিয়েছিল; অনেকদিন পরে বাড়ি ভূমিসাৎ হয়ে গেল, তখনও সেই বীজ (बीज मंत्र - Be and Make)  মাটিতে পড়ে গাছ হল ও তার ফলও হল।”
*मनुष्य प्रकृति तथा तीन गुण । भक्ति का सत्त्व, रज, तम ।*

श्रीरामकृष्ण- जैसे संसारियों में सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण हैं, भक्ति में भी सत्त्व रज और तम तीन गुण हैं ।
["As worldly people are endowed with sattva, rajas, and tamas, so also is bhakti characterized by the three gunas.
“যেমন সংসারীদের মধ্যে সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ তিন গুণ আছে; তেমনি ভক্তিরও সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ তিন গুণ আছে।”
*गृहस्थ जीवन में रहते हुए जबरन कर्मत्याग करने वालों के लक्षण * 
[Characteristics of those who forcibly give up deeds while living in household life]
 
संसारियों का सत्त्वगुण कैसा होता है, जानते हो? घर यहाँ टूटा है, वहाँ टूटा है- मरम्मत नहीं कराते । पूजागृह के बरामदे में कबूतरों की विष्ठा पड़ी है । आँगन में काई जम गयी है । होश तक नहीं । असबाब सब पुराने हो गए हैं । ठीक-ठाक करने की कोशिश नहीं करते । कपड़ा जो मिला वही सही । देखने में सीधे-सादे, शान्त, दयालु, मिलनसार, कभी किसी का बुरा नहीं चाहते ।”
["Do you know what a worldly person endowed with sattva is like? Perhaps his house is in a dilapidated condition here and there. He doesn't care to repair it. The worship hall may be strewn with pigeon droppings and the courtyard covered with moss, but he pays no attention to these things. The furniture of the house may be old; he doesn't think of polishing it and making it look neat. He doesn't care for dress at all; anything is good enough for him. But the man himself is very gentle, quiet, kind, and humble; he doesn't injure anyone:
“সংসারীর সত্ত্বগুণ কিরকম জানো? বাড়িটি এখানে ভাঙা, ওখানে ভাঙা — মেরামত করে না। ঠাকুরদালানে পায়রাগুলো হাগছে, উঠানে শেওলা পড়েছে হুঁশ নাই। আসবাবগুলো পুরানো, ফিটফাট করবার চেষ্টা নাই। কাপড় যা তাই একখানা হলেই হল। লোকটি খুব শান্ত, শিষ্ট, দয়ালু, অমায়িক; কারু কোনও অনিষ্ট করে না।
*सरकारी टेंडर भरने वालों के लक्षण*
[ Characteristics of those filling government tenders] 
“और फिर संसारियों के रजोगुण (के भी लक्षण हैं । जेब-घड़ी, चेन, उँगलियों में दो-तीन अगूँठियाँ, मकान की चीजें बड़ी साफ, दिवार पर क्वीन (रानी) की तस्वीर, राजपुत्र की तस्वीर, किसी बड़े आदमी की तस्वीर । मकान चूने से पुता हुआ-कहीं एक दाग तक नहीं । तरह तरह की अच्छी पोशाक । नौकरों के भी वर्दियाँ । आदि आदि ।”
["Again, among the worldly there are people with the traits of rajas. Such a man has a watch and chain, and two or three rings on his fingers. The furniture of his house is all spick and span. On the walls hang portraits of the Queen, the Prince of Wales, and other prominent people; the building is whitewashed and spotlessly clean. His wardrobe is filled with a large assortment of clothes; even the servants have their livery, and all that.
“সংসারীর রজোগুণের লক্ষণ আবার আছে। ঘড়ি, ঘড়ির চেন, হাতে দুই-তিনটা আঙটি। বাড়ির আসবাব খুব ফিটফাট। দেওয়ালে কুইনের ছবি, রাজপুত্রের ছবি, কোন বড় মানুষের ছবি। বাড়িটি চুনকাম করা, যেন কোনখানে একটু দাগ নাই। নানারকমের ভাল পোষাক। চাকরদেরও পোশাক। এমনি এমনি সব।
संसारियों के तमोगुण के लक्षण हैं- निद्रा, काम-क्रोध, अहंकार-यही सब ।
["The traits of a worldly man endowed with tamas are sleep, lust, anger, egotism, and the like.“সংসারীর তমোগুণের লক্ষণ — নিদ্রা, কাম, ক্রোধ, অহংকার এই সব।

* माता के भक्त  (शाक्त या सतोगुणी भक्त) को  
कभी खुशामद करके धन कमाने की आवश्यकता नहीं होती * 
[Mother's devotee (Sakta) need not to earn money by flattering] 

और भक्ति का भी सत्त्व है । जिस भक्त में सत्त्वगुण है वह एकान्त में ध्यान करता है । कभी तो वह मसहरी के भीतर ध्यान करता है । लोग समझते हैं की आप सो रहे हैं, शायद रात को आँख नहीं लगी, इसलिये आज उठने में देर हो रही है । इधर शरीर का ख्याल बस भूख मिटाने तक, साग-पात पाने ही से चल गया । न भोजन में भरमार, न पोशाक में टीम-टाम और न घर में चीजों का जमघट और फिर सतोगुणी भक्त कभी खुशामद करके धन नहीं कमाता ।”
["Similarly, bhakti, devotion, has its sattva. A devotee who possesses it meditates on God in absolute secret, perhaps inside his mosquito net. Others think he is asleep. Since he is late in getting up, they think perhaps he has not slept well during the night. His love for the body goes only as far as appeasing his hunger, and that only by means of rice and simple greens. There is no elaborate arrangement about his meals, no luxury in clothes, and no display of furniture. Besides, such a devotee never flatters anybody for money.
“আর ভক্তির সত্ত্ব আছে। যে ভক্তের সত্ত্বগুণ আছে, সে ধ্যান করে অতি গোপনে। সে হয়তো মশারির ভিতর ধ্যান করে — সবাই জানছে, ইনি শুয়ে আছেন, বুঝি রাত্রে ঘুম হয় নাই, তাই উঠতে দেরি হচ্ছে। এদিকে শরীরের উপর আদর কেবল পেটচলা পর্যন্ত; শাকান্ন পেলেই হল। খাবার ঘটা নাই। পোশাকের আড়ম্বর নাই। বাড়ির আসবাবের জাঁকজমক নাই। আর সত্ত্বগুণী ভক্ত কখনও তোষামোদ করে ধন লয় না

भक्ति का रज जिस भक्त को होता है वह तिलक लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनता है, जिसके बीच बीच सोने के दाने जड़े रहते हैं (सब हँसते हैं ।) जब पूजा करता है तब पीताम्बर पहन लेता है ।” 
["An aspirant possessed of rajasic bhakti puts a tilak (A mark of sandal-paste or other material to denote one's religious affiliation.) on his forehead and a necklace of holy rudraksha beads, interspersed with gold ones, around his neck. (All laugh.) At worship he wears a silk cloth.
“ভক্তির রজঃ থাকলে সে ভক্তের হয়তো তিলক আছে, রুদ্রাক্ষের মালা আছে। সেই মালার মধ্যে মধ্যে আবার একটি সোনার দানা। (সকলের হাস্য) যখন পূজা করে, গরদের কাপড় পরে পূজা করে।”

*अपने नेता (आदर्श) पर ज्वलन्त विश्वास (burning faith)* 
श्रीरामकृष्ण- जिसे भक्ति का तम होता है उसका विश्वास अटूट है । इस प्रकार का भक्त हठपूर्वक इश्वर से भिड़ जाता है, मानो डाका डालकर धन छीन लेता है । ‘मारो, काटो, बाँधो’ ! इस तरह डाका डालने का भाव है । 
["A man endowed with Tamasic Bhakti has burning faith. Such a devotee literally extorts boons from God, even as a robber falls upon a man and plunders his money. 'Bind! Beat! Kill!' — that is his way, the way of the dacoits."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তির তমঃ যার হয়, তার বিশ্বাস জ্বলন্ত। ঈশ্বরের কাছে সেরূপ ভক্ত জোর করে। যেন ডাকাতি করে ধন কেড়ে লওয়া। “মারো কাটো বাঁধো!” এইরূপ ডাকাত-পড়া ভাব।
 
(३) 
*नाम महात्म्य और पाप*
क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । 
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।
 (गीता, २/३) 
[हे पार्थ क्लीव (कायर-नपुंसक ) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे ! परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।। उस समय (सम्मोहित अवस्था में)  सहानुभूति के कोमल शब्द अर्जुन के निराश मन को उत्साहित नहीं कर सकते थे। अत व्यंग्य के एसिड में डुबोये हुये तीक्ष्ण बाण के समान वचनों से अर्जुन को उत्तेजित करते हुये अंत में भगवान् कहते हैं - " उठो, जागो और कर्म करो। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो रुको मत ! "]
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं, प्रेमरस से भरे मधुर कण्ठ से गा रहे हैं -



गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय। 
काली काली काली बोले आमार अजपा जोदि फूराय।। 

त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से की चाय। 
संध्या तार संध्याने फेरे, कोभू संधी नाहि पाय।। 

जप यज्ञ पूजा होम आदि आर किछु ना मने लोय। 
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय।। 

कालीनामेर एतो गुण, केबा जानते पारे ताय। 
देवादिदेव महादेव, जार पंचमुखे गुण गाय।। 

গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায় ৷
কালী কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷
ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায় ৷
সন্ধ্যা তার সন্ধানে ফেরে, কভু সন্ধি নাহি পায় ৷৷
দয়া ব্রত দান আদি, আর কিছু না মনে লয় ৷
মদনের যাগযজ্ঞ, ব্রহ্মময়ীর রাঙা পায় ৷৷
কালীনামের এত গুণ, কেবা জানতে পারে তায় ৷
দেবাদিদেব মহাদেব, যাঁর পঞ্চমুখে গুণ গায় ৷৷
भाव यह है:- ‘काली काली’ जपते हुए यदि मेरे शरीर का अन्त हो तो गया गंगा-काशी-कांची-प्रभास आदि की परवाह कौन करता है? हे काली, तुम्हारा भक्त पूजा-सन्ध्यादि नहीं चाहता, सन्ध्या खुद उसकी खोज में फिरती है, पर पता नहीं लगा सकती । दया-व्रत-दान आदि पर उसका मन नहीं जाता । मदन के याग-यज्ञ ब्रह्मयी के रक्तिम चरणों में होते हैं । काली के नाम के गुण, जिसे देवाधिदेव महादेव पाँचों मुख से गाते हैं, कौन जान सकता है?” 
{Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas,^(^पाँच तीर्थस्थल)
 So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips? What need of rituals has a man, what need of devotions any more, If he repeats the Mother's name at the three holy hours? (^ सुबह, दोपहर और शाम।Dawn, noon, and dusk. 3 वक्त का नमाजी 
Rituals may pursue him close, but never can they overtake him. Charity, vows, and giving of gifts dc not appeal to Madan's mind; The Blissful Mother's Lotus Feet are his whole prayer and sacrifice. Who could ever have conceived the power Her name possesses? Siva Himself, the God of Gods, sings Her praise with His five mouths!
 
श्रीरामकृष्ण भावोन्मत्त हो मानो अग्निमन्त्र  (तूँ भावमुख रह) से दीक्षित  होकर गाने लगे -




आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोले मा जदि मरी।  
आखेरे ऐ -दीने, ना तारो केमने, जाना जाबे गो शंकरी।। 

नाशि गो, ब्राह्मण, हत्या करी भृणु,  सुरापान आदि बिनाशी नारी।  
ए सब पातक न भाबी तिलेक, ब्रह्म पद निते पारि।।   

আমি দুর্গা দুর্গা বলে মা যদি মরি।
আখেরে এ-দীনে, না তারো কেমনে, জানা যাবে গো শঙ্করী।

 गीत का आशय यह है - “यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ जपता हुआ मरूँ तो अन्त में इस दीन को, हे शंकरी, देखूँगा तुम कैसे नहीं तारती हो ।” 

*तमोगुण का मोड़ घुमा देने  (⋃- turn देने) से ईश्वर लाभ होता है ! * 
 (By giving ⋃- turn to Tamoguna -God can be realized )
]তমোগুণকে মোড় ফিরিয়ে দিলে ঈশ্বরলাভ হয়।] 

श्रीरामकृष्ण- “क्या ! मैंने उनका नाम लिया है- मुझे पाप ! मैं उनकी सन्तान हूँ- उनके ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ !” इस प्रकार की जिद चाहिए । 
{Then he said, "One must take the firm attitude: 'What? I have chanted the Mother's name. How can I be a sinner any more? I am Her child, heir to Her powers and glories.'
“तमोगुण को ईश्वर की ओर फेर देने से ईश्वर-लाभ होता है । उनसे हठ करो; वे कोई दूसरे तो नहीं, अपने ही तो हैं ।” 
{"If you can give a spiritual turn to your tamas, you can realize God with its help. Force your demands on God. He is by no means a stranger to you. He is indeed your very own.
“তমোগুণকে মোড় ফিরিয়ে দিলে ঈশ্বরলাভ হয়। তাঁর কাছে জোর কর, তিনি তো পর নন, তিনি আপনার লোক। 
*जन-कल्याण या भारत-कल्याण में तमोगुण का प्रयोग करने वाला उत्तम वैद्य * 
     “फिर देखो, यह तमोगुण दूसरों के हित पर लगाया जा सकता है । वैद्य तीन प्रकार के होते हैं; -उत्तम, माध्यम और अधम । जो वैद्य नाड़ी देखकर ‘दवा खा लेना’ कहकर चला जाता है, वह अधम वैद्य है । रोगी ने दवा खाई या नहीं, इसकी खबर वह नहीं लेता । जो वैद्य रोगी को दवा खाने के लिए तरह तरह से समझाता बुझाता है, मीठी बातों से कहता है, ‘अजी दवा नहीं खाओगे तो अच्छे किस तरह होंगे ! भैया, खा लो, अच्छा मैं खुद खरल करके खिलाता हूँ’ वह माध्यम वैद्य है और जो रोगी को किसी तरह दवा न खाते हुए देखकर छाती पर चढ़ बैठ जबरदस्ती (गाय को  खिलाने वाला कांड़ा से भी) दवा खिलाता है, वह उत्तम वैद्य है । यह वैद्यों का तमोगुण है, इस गुण से रोगी का उपकार होता है, अपकार नहीं ।” 
{"Again, you see, the quality of tamas can be used for the welfare of others. There are three classes of physicians: superior, mediocre, and inferior. The physician who feels the patient's pulse and just says to him, 'Take the medicine regularly' belongs to the inferior class. He doesn't care to inquire whether or not the patient has actually taken the medicine. The mediocre physician is he who in various ways persuades the patient to take the medicine, and says to him sweetly: 'My good man, how will you be cured unless you use the medicine? Take this medicine. I have made it for you myself.' But he who, finding the patient stubbornly refusing to take the medicine, forces it down his throat, going so far as to put his knee on the patient's chest is the best physician. This is the manifestation of the tamas of the physician. It doesn't injure the patient; on the contrary, it does him good.
[আবার দেখ, এই তমোগুণকে পরের মঙ্গলের জন্য ব্যবহার করা যায়। বৈদ্য তিনপ্রকার — উত্তম বৈদ্য, মধ্যম বৈদ্য, অধম বৈদ্য। যে বৈদ্য এসে নাড়ী টিপে ‘ঔষধ খেও হে’ এই কথা বলে চলে যায়, সে-অধম বৈদ্য — রোগী খেলে কিনা এ-খবর সে লয় না। যে বৈদ্য রোগীকে ঔষধ খেতে অনেক করে বুঝায় — যে মিষ্ট কথাতে বলে, ‘ওহে ঔষধ না খেলে কেমন করে ভাল হবে! লক্ষ্মীটি খাও, আমি নিজে ঔষধ মেড়ে দিচ্ছি খাও’ — সে মধ্যম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য, রোগী কোনও মতে খেলে না দেখে বুকে হাঁটু দিয়ে, জোর করে ঔষধ খাইয়ে দেয় — সে উত্তম বৈদ্য। এই বৈদ্যের তমোগুণ, এ-গুণে রোগীর মঙ্গল হয়, অপকার হয় না।

*  तीन प्रकार के आचार्य/नेता ~ अधम inferior. ,मध्यम  mediocre,और उत्तमsuperior  *  
“वैद्यों के समान तीन प्रकार के आचार्य भी हैं । धर्मोपदेश देकर जो शिष्यों की फिर कोई खबर नहीं लेते वे आचार्य अधम हैं । जो शिष्यों के हित के लिए बार बार उन्हें समझाते हैं जिससे कि वे उपदेशों को धारण कर सकें, बहुत विनय-प्रार्थना करते हैं, प्यार करते हैं, -वे मध्यम आचार्य हैं । और जब शिष्यों को किसी तरह उपदेश न सुनते देख कोई कोई आचार्य बलपूर्वक उन्हें राह पर लाते हैं, तो उन्हें उत्तम आचार्य समझना चाहिए ।” 
{"Like the physicians, there are three types of religious teachers. The inferior teacher only gives instruction to the disciples but makes no inquiries about their progress. The mediocre teacher, for the good of the student, makes repeated efforts to bring the instruction home to him, begs him to assimilate it, and shows him love in many other ways. But there is a type of teacher who goes to the length of using force when he finds the student persistently unyielding; I call him the best teacher."
“বৈদ্যের মতো আচার্যও তিনপ্রকার। ধর্মোপদেশ দিয়ে শিষ্যেদের আর কোন খবর লয় না — সে আচার্য অধম। যিনি শিষ্যদের মঙ্গলের জন্য তাদের বরাবর বুঝান, যাতে তারা উপদেশগুলি ধারণা করতে পারে, অনেক অনুনয়-বিনয় করেন, ভালবাসা দেখান — তিনি মধ্যম থাকের আচার্য। আর যখন শিষ্যেরা কোনও মতে শুনছে না দেখে কোন আচার্য জোর পর্যন্ত করেন, তাঁরে বলি উত্তম আচার্য।”

(४)

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
(तैतीरीय उपनिषत् २/४)

[जहाँ से मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रह्मानंद को जाननेवाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता । (तैत्तिरीय उपनिषद् : 2.4.1)]

*ईश्वर की "समाप्ति - इति " नहीं की जा सकती !* 
(ब्रह्म का स्वरूप अनिर्वचनीय है) 

एक ब्राह्मभक्त ने पूछा- ईश्वर साकार है या निराकार ?

श्रीरामकृष्ण- उनकी इति नहीं की जा सकती । वे निराकार हैं, फिर साकार भी हैं । भक्तों के लिए वे साकार हैं । जो ज्ञानी हैं- संसार को जिन्होंने स्वप्नवत् मान लिया है, उनके लिए वे निराकार हैं । भक्त का यह विश्वास है कि मैं एक पृथक सत्ता हूँ तथा संसार एक पृथक सत्ता, इसलिए भक्त के निकट ईश्वर ‘व्यक्ति’ (Personal God-माँ तारा ) के रूप में आते हैं । ज्ञानी-जैसे वेदान्तवादी-सिर्फ ‘नेति नेति’ विचार करता है । विचार करने पर उसे यह बोध होता है कि मैं मिथ्या हूँ, संसार भी मिथ्या-स्वप्नवत् है । ज्ञानी ब्रह्म को बोधरुप देखता है परन्तु वे क्या हैं, यह मुँह से नहीं कह सकता
[ "No one can say with finality that God is only 'this' and nothing else. He is formless, and again He has forms. For the bhakta He assumes forms. But He is formless for the jnani, that is, for him who looks on the world as a mere dream. The bhakta feels that he is one entity and the world another. Therefore God, reveals Himself to him as a Person. But the jnani — the Vedantist, for instance — always reasons, applying the process of 'Not this, not this'. Through this discrimination he realizes, by his inner perception, that the ego and the universe are both illusory, like a dream. Then the jnani realizes Brahman in his own consciousness. He cannot describe what Brahman is.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর ইতি করা যায় না। তিনি নিরাকার আবার সাকার। ভক্তের জন্য তিনি সাকার। যারা জ্ঞানী অর্থাৎ জগৎকে যাদের স্বপ্নবৎ মনে হয়েছে, তাদের পক্ষে তিনি নিরাকার। ভক্ত জানে আমি একটি জিনিস, জগৎ একটি জিনিস। তাই ভক্তের কাছে ঈশ্বর ‘ব্যক্তি’ (Personal God-माँ तारा ) হয়ে দেখা দেন। জ্ঞানী — যেমন বেদান্তবাদী — কেবল নেতি নেতি বিচার করে। বিচার করে জ্ঞানীর বোধে বোধ হয় যে, “আমি মিথ্যা, জগৎও মিথ্যা — স্বপ্নবৎ।” জ্ঞানী ব্রহ্মকে বোধে বোধ করে। তিনি যে কি, মুখে বলতে পারে না।

     “ वे किस तरह हैं, जानते हो? मानो सच्चिदानन्द समुद्र ( Existence-Consciousness- Bliss Absolute)  है जिसका ओर-छोर नहीं । भक्तों के पास वे व्यक्तभाव से कभी कभी साकाररूप (माँ तारारूप) धारण करते हैं । ज्ञान-सूर्य का उदय होने पर वह बर्फ गल जाती है, तब ईश्वर के व्यक्तित्व का बोध नहीं रह जाता-उ नका रूप भी नहीं दिखायी देता । वे क्या हैं, मुँह, से नहीं कहा जा सकता । कहें कौन ! जो कहेंगे वे ही नहीं रह गए, उनका ‘मैं’ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता ।”
{"Do you know what I mean? Think of Brahman, Existence-Knowledge- Bliss Absolute, as a shoreless ocean. Through the cooling influence, as it were, of the bhakta's love, the water has frozen at places into blocks of ice. In other words, God now and then assumes various forms for His lovers and reveals Himself to them as a Person. But with the rising of the sun of Knowledge, the blocks of ice melt. Then one doesn't feel any more that God is a Person, nor does one see God's forms. What He is cannot be described. Who will describe Him? He who would do so disappears. He cannot find his 'I' any more.
“কিরকম জান? যেন সচ্চিদানন্দ-সমুদ্র — কূল-কিনারা নাই — ভক্তিহিমে স্থানে স্থানে জল বরফ হয়ে যায় — বরফ আকারে জমাট বাঁধে। অর্থাৎ ভক্তের কাছে তিনি ব্যক্তভাবে, কখন কখন সাকার রূপ ধরে থাকেন। জ্ঞান-সূর্য উঠলে সে বরফ গলে যায়, তখন আর ঈশ্বরকে ব্যক্তি বলে বোধ হয় না। — তাঁর রূপও দর্শন হয় না। কি তিনি মুখে বলা যায় না। কে বলবে? যিনি বলবেন, তিনিই নাই। তাঁর ‘আমি’ আর খুঁজে পান না

“विचार करते करते फिर ‘मैं’ नहीं । रह जाता । जब तुम प्याज छिलते हो, तब पहले लाल छिलके निकलते हैं । फिर सफेद मोटे छिलके । इसी तरह लगातार छिलते जाओ तो भीतर ढूँढ़ने से कुछ नहीं मिलता ।
  “जहाँ अपना ‘मैं’ खोजे नहीं मिलता-और खोजे भी कौन?  वहाँ ( in his own Pure Consciousness ) 
ब्रह्म के स्वरूप का बोध किस प्रकार होता है, यह कौन कहें । नमक का एक पुतला समुद्र की थाह लेने गया । समुद्र में ज्योंही उतरा कि गलकर पानी हो गया । फिर खबर कौन दे?
{"In that state a man no longer finds the existence of his ego. And who is there left to seek it? Who can describe how he feels in that state — in his own Pure Consciousness — about the real nature of Brahman? Once a salt doll went to measure the depth of the ocean. No sooner was it in the water than it melted. Now who was to tell the depth?
“যেখানে নিজের আমি খুঁজে পাওয়া যায় না — আর খুঁজেই বা কে? — সেখানে ব্রহ্মের স্বরূপ বোধে বোধ কিরূপ হয়, কে বলবে!“একটা লুনের পুতুল সমুদ্র মাপতে গিছিল। সমুদ্রে যাই নেমেছে অমনি গলে মিশে গেল। তখন খবর কে দিবেক?
“पूर्ण ज्ञान का लक्षण यह है, -पूर्ण ज्ञान होने पर मनुष्य चुप हो जाता है । तब ‘मैं’ रूपी नमक का पुतला सच्चिदानन्दरूपी समुद्र में गलकर एक हो जाता है, फिर जरा भी भेद-बुद्धि नहीं रह जाती
{"There is a sign of Perfect Knowledge. Man becomes silent when It is attained. Then the 'I', which may be likened to the salt doll, melts in the Ocean of Existence-Knowledge-Bliss Absolute and becomes one with It. Not the slightest trace of distinction is left.
“পূর্ণ জ্ঞানের লক্ষণ — পূর্ণ জ্ঞান হলে মানুষ চুপ হয়ে যায়। তখন ‘আমি’রূপ লুনের পুতুল সচ্চিদানন্দরূপ সাগরে গলে এক হয়ে যায়, আর একটুও ভেদবুদ্ধি থাকে না।] 

*जबतक आत्म-विश्लेषण (क्षीरसागर मंथन) का अन्त नहीं होता -तर्क चलता है !*

“विचार करने (आत्मविश्लेषण -आत्मदोषदर्शन-क्षीरसागर मंथन ^  का जब तक अन्त नहीं होता, तब तक लोग तर्क पर तुले रहते हैं । अन्त हुआ कि चुप हो गए । घड़ा भर जाने से- घड़े का जल और तालाब का जल एक हो जाने से-फिर शब्द नहीं होता । जब तक घड़ा भर नहीं जाता, शब्द तभी तक होता है।
{"As long as his self-analysis is not complete,  (self-analysis, आत्मविश्लेषण, जब तक मूर्तिकार संगमरमर की चट्टान के फालतू अंश को कुरेदकर उसके भीतर अवस्थित  'शिव को मूर्ति' को बाहर नहीं निकाल लेता ) man argues with much ado. But he becomes silent when he completes it. When the empty pitcher has been filled with water, when the water inside the pitcher becomes one with the water of the lake outside, no more sound is heard. Sound comes from the pitcher as long as the pitcher is not filled with water. 
[^ आत्मविश्लेषण ही अनन्त चतुर्दशी का क्षीरसागर मंथन है : भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को अनंत चतुर्दशी का त्योहार मनाया जाता है। इस साल '2021 ' में अनंत चतुर्दशी का त्योहार 19 सितंबर के दिन मनाया जाएगा।  इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु के अनंत स्वरूप की पूजा की जाती है। अनंत चतुर्दशी के दिन ही भगवान श्रीगणेश का विसर्जन किया जाता है। एक बर्तन में दूध, सुपारी और अनंत-सूत्र डालकर खीरा की मथानी से  क्षीर-सागर मंथन होता है। इसके बाद आरती की जाती है।  ऐसा माना जाता है कि इस व्रत के प्रभाव से उन्‍नति और सौभाग्‍य प्राप्‍त होता है।   ​भगवान विष्णु की पूजा के बाद अनंत सूत्र  बांधने की परंपरा है।  इस सूत्र में 14 गांठ लगी होती हैं. ये रेशम या फिर सूत का होता है।  इस अनंत सूत्र को पुरुष दाहिने और स्त्रियां बाएं हाथ में बांधती हैं। अनंत सूत्र बांधने से सभी दुख और परेशानियां दूर हो जाती हैं।  ऐसा माना जाता है कि अन्नत चतुर्दशी का व्रत रखने से घर की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। 
श्री कृष्ण का कथन है कि 'अनंत' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं जिसे अनंत कहा जाता है। अनंत व्रत चंदन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। इस व्रत के विषय में कहा जाता है कि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाए, तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है। यदि हरि अनंत हैं तो 14 गांठ हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की प्रतीक हैं। भगवान् श्रीहरि विष्णु द्वारा निर्मित चौदह लोक -1. तल, 2. अतल, 3. वितल, 4. सुतल, 5. तलातल, 6. रसातल, 7. पाताल, 8. भू, 9. भुवः, 10. स्वः, 11. जन, 12. तप,13. सत्य, 14. मह।  इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह ---"श्रीहरि" स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे।   भगवान् श्रीहरि विष्णु के चौदह नाम ~ 1. अनंत, 2. ऋषिकेश, 3. पद्मनाभ, 4. माधव, 5. वैकुंठ, 6. श्रीधर, 7. त्रिविक्रम, 8. मधुसुदन, 9. वामन, 10. केशव, 11. नारायण, 12. दामोदर, 13. गोविन्द, 14. श्रीहरि ! इसलिए अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।] 

“বিচার করা যতক্ষণ না শেষ হয়, লোকে ফড়ফড় করে তর্ক করে। শেষ হলে চুপ হয়ে যায়। কলসী পূর্ণ হলে, কলসীর জল পুকুরের জল এক হলে আর শব্দ থাকে না। যতক্ষণ না কলসী পূর্ণ হয় ততক্ষণ শব্দ।}
“पहले के लोग कहते थे, काले पानी में जहाज जाने से फिर लौट नहीं सकता ।”
["People used to say in olden days that no boat returns after having once entered the black waters' of the ocean.
“আগেকার লোকে বলত, কালাপানিতে জাহাজ গেলে ফেরে না।”]

*‘मैं’ मरा कि बला टली ~ अतः व्यष्टि अहं को "भक्त मैं"- में रूपांतरित करें !* 

“ ‘मैं’ मरा कि बला टली । (हास्य) विचार चाहे लाख करो पर ‘मैं’ दूर नहीं होता । तुम्हारे और हमारे लिए ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान अच्छा है ।”
{"All trouble and botheration come to an end when the 'I' dies. You may indulge in thousands of reasonings, but still the 'I' doesn't disappear. For people like you and me, it is good to have the feeling, 'I am a lover of God.'
“আমি মলে ঘুচিবে জঞ্জাল (হাস্য)। হাজার বিচার কর, ‘আমি’ যায় না। তোমার আমার পক্ষে ‘ভক্ত আমি’ এ-অভিমান ভাল।
“भक्तों के लिए सगुण ब्रह्म हैं अर्थात् वे सगुण अर्थात् मनुष्य के रूप में दर्शन देते हैं । प्रार्थनाओं के सुननेवाले वे ही हैं । तुम लोग जो प्रार्थना करते हो वह उन्हीं से करते हो । तुम लोग न वेदान्तवादी हो, न ज्ञानी; तुम लोग भक्त हो । साकार रूप मानो चाहे न मानो, इसमें कुछ हानि नहीं; केवल यह ज्ञान रहने ही से काम होगा कि ईश्वर एक वह व्यक्ति हैं जो प्रार्थनाओं को सुनते हैं, सृजन, पालन और प्रलय करते हैं, जिनमें अनन्त शक्ति है ।”
“भक्तिमार्ग से ही वे जल्दी मिलते हैं ।” 
"It is easier to attain God by following the path of devotion."
“ভক্তিপথেই তাঁকে সহজে পাওয়া যায়।”
{"The Saguna Brahman is meant for the bhaktas. In other words, a bhakta believes that God has attributes and reveals Himself to men as a Person, assuming forms. It is He who listens to our prayers. The prayers that you utter are directed to Him alone. You are bhaktas, not jnanis or Vedantists. It doesn't matter whether you accept God with form or not. It is enough to feel that God is a Person who listens to our prayers, who creates, preserves, and destroys the universe, and who is endowed with infinite power.} 
“ভক্তের পক্ষে সগুণ ব্রহ্ম। অর্থাৎ তিনি সগুণ — একজন ব্যক্তি হয়ে, রূপ হয়ে দেখা দেন। তিনি প্রার্থনা শুনেন। তোমরা যে প্রার্থনা কর, তাঁকেই কর। তোমরা বেদান্তবাদী নও, জ্ঞানী নও — তোমরা ভক্ত। সাকাররূপ মানো আর না মানো এসে যায় না। ঈশ্বর একজন ব্যক্তি বলে বোধ থাকলেই হল — যে ব্যক্তি প্রার্থনা শুনেন, সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় করেন, যে ব্যক্তি অনন্তশক্তি।

(५)
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अह्मेवंविधोऽर्जुन । 
ज्ञातुं दृष्टुम द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप । 
(गीता, ११/५४)
[भक्त्या तु अनन्यया शक्यः अहम् एवंविधः अर्जुन,  ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ ५४ ॥
परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुजरूप-वाला/वाली) मैं अनन्यभक्ति से ही तत्त्वत: (तत्त्व से) जानने में तथा सगुण-रूप से देखने में और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!
भक्ति के विषय में आचार्य शंकर कहते हैं कि  सभी मोक्ष साधनों में भक्ति ही श्रेष्ठ है, और यह भक्ति , स्वस्वरूप के अनुसंधान के द्वारा आत्मस्वरूप बन जाती है। प्रिय के साथ तादात्म्य ही प्रेम का वास्तविक मापदण्ड है। भक्त जब अपने व्यक्तिगत जीव-भाव (भेंड़त्व में भ्रमित सिंहशावक) के अस्तित्व को विस्मृत कर,  जब प्रेम में अपने प्रिय भगवान् (सिंह-अवतारवरिष्ठ ठाकुर देव) के साथ तादात्म्य को प्राप्त हो जाता है,  तब उस प्रेम की परिसमाप्ति को पराभक्ति या अनन्य भक्ति कहा जाता है। आत्मज्ञान का जिज्ञासु आध्यात्मिक विधान के अनुसार उपाधियों के साथ अपने निम्नस्तर को त्यागने के लिए बाध्य होता है। अनात्मा के तादात्म्य को त्यागने पर ही शुद्ध आत्मस्वरूप की पहचान हो सकती है। केवल वे साधकगण जो इस जगत् को एक सूत्र में धारण करने वाले सत्य के साथ तादात्म्य कर सकते हैं, वे ही मुझे इस चतुर्भुज-रूप में अर्थात् विराटरूप में अनुभव कर सकते हैं। जिन तीन क्रमिक सोपानों में सत्य का साक्षात्कार होता है, उसका निर्देश भगवान् इन तीन शब्दों से करते हैं जानना, देखना और प्रवेश करना। सर्व प्रथम एक साधक को अपने साध्य तथा साधन का बौद्धिक ज्ञान आवश्यक होता है। जिसे यहां जानना शब्द से सूचित किया गया है और इसका साधन है श्रवण। इस प्रकार कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन में सन्देह उत्पन्न होते हैं इन सन्देहों की निवृत्ति के लिए प्राप्त ज्ञान पर युक्तिपूर्वक मनन करना अत्यावश्यक होता है। सन्देहों की निवृत्ति होने पर तत्त्व का दर्शन (देखना) होता है। तत्पश्चात् निदिध्यासन के अभ्यास से मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य को सर्वथा त्यागकर आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाना ही उसमें प्रवेश करना हैआत्मा का यह अनुभव स्वयं से भिन्न किसी वस्तु का नहीं,  वरन् अपने स्वस्वरूप का है। प्रवेश शब्द से साधक और साध्य के एकत्व का बोध कराया गया हैस्वप्नद्रष्टा के स्वाप्निक दुखों का तब अन्त हो जाता है,  जब वह जाग्रत पुरुष में प्रवेश करके स्वयं जाग्रत पुरुष बन जाता है। ]

*वीरभक्त हुनमान के लिए उन्होंने रामरूप धारण किया था *
*वे सगुण हैं और निर्गुण भी*

एक ब्राह्मभक्त ने पूछा-  “महाराज, ईश्वर को क्या कोई देख सकता है? अगर देख सकता है तो हमें वे क्यों नहीं देखने को मिलते ?”
[BRAHMO DEVOTEE: "Sir, is it possible for one to see God? If so, why can't we see Him?"একজন ব্রাহ্মভক্ত জিজ্ঞাসা করিলেন, মহাশয় ঈশ্বরকে কি দেখা যায়? যদি দেখা যায়, দেখতে পাই না কেন?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, वे अवश्य देखने को मिलते हैं । साकार रूप देखने में आता है और फिर अरूप भी दीख पड़ता है, परन्तु यह तुम्हें समझाऊँ किस तरह?
[MASTER: "Yes, He can surely be seen. One can see His forms, and His formless aspect as well. How can I explain that to you?"শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, অবশ্য দেখা যায় — সাকাররূপ দেখা যায়, আবার অরূপও দেখা যায়। তা তোমায় বুঝাব কেমন করে?

ब्राह्मभक्त- हम उन्हें किस उपाय से देख सकते हैं?

श्रीरामकृष्ण- व्याकुल होकर उनके लिए रो सकते हो?
       लड़के के लिए, स्त्री के लिए, धन के लिए लोग आँसूओं की झड़ी बाँध देते हैं, परन्तु ईश्वर के लिए कौन रोता है? जब तक लड़का खिलौने पर भुला रहता है तब तक माँ रोटी पकाना आदि घर गृहस्थी के कामों में लगी रहती है । जब लड़के को खिलौना नहीं सुहाता, उसे फेंक, गला फाड़कर रोने लगता है, तब माँ तवा उतारकर दौड़ आती है, -बच्चे को गोद में उठा लेती है ।
[MASTER: "Can you weep for Him with intense longing of heart? Men shed a jugful of tears for the sake of their children, for their wives, or for money. But who weeps for God? So long as the child remains engrossed with its toys, the mother looks after her cooking and other household duties. But when the child no longer relishes the toys, it throws them aside and yells for its mother. Then the mother takes the rice-pot down from the hearth, runs in haste, and takes the child in her arms."
“লোকে ছেলের জন্য, স্ত্রীর জন্য, টাকার জন্য, একঘটি কাঁদে। কিন্তু ঈশ্বরের জন্য কে কাঁদছে? যতক্ষণ ছেলে চুষি নিয়ে ভুলে থাকে, মা রান্নাবান্না বাড়ির কাজ সব করে। ছেলের যখন চুষি আর ভাল লাগে না — চুষি ফেলে চিৎকার করে কাঁদে, তখন মা ভাতের হাঁড়ি নামিয়ে দুড়দুড় করে এসে ছেলেকে কোলে লয়।”
ब्राह्मभक्त- महाराज, ईश्वर के स्वरूप पर इतने भिन्न भिन्न मत क्यों हैं? कोई कहता है साकार और कोई कहता है निराकार । फिर साकारवादियों से तो अनेक रूपों की चर्चा सुन पड़ती है । यह गोरखधन्धा क्यों रचा है?
["Sir, why are there so many different opinions about the nature of God? Some say that God has form, while others say that He is formless. Again, those who speak of God with form tell us about His different forms. Why all this controversy?"
“ব্রাহ্মভক্ত — মহাশয়! ইশ্বরের স্বরূপ নিয়ে এত মত কেন? কেউ বলে সাকার — কেউ বলে নিরাকার — আবার সাকারবাদীদের নিকট নানারূপের কথা শুনতে পাই। এত গণ্ডগোল কেন?
श्रीरामकृष्ण- जो भक्त जिस प्रकार देखता है वह वैसा ही समझता है । वास्तव में गोरखधन्धा कुछ भी नहीं । यदि उन्हें कोई किसी तरह एक बार प्राप्त कर सके, तो वे सब समझा देते हैं । उस मुहल्ले में गए ही नहीं, -कुल खबर कैसे पाओगे?
{MASTER: "A devotee thinks of God as he sees Him. In reality there is no confusion about God. God explains all this to the devotee if the devotee only realizes Him somehow. You haven't set your foot in that direction. How can you expect to know all about God? “শ্রীরামকৃষ্ণ — যে ভক্ত যেরূপ দেখে, সে সেইরূপ মনে করে। বাস্তবিক কোনও গণ্ডগোল নাই। তাঁকে কোনরকমে যদি একবার লাভ করতে পারা যায়, তাহলে তিনি সব বুঝিয়ে দেন। সে পাড়াতেই গেলে না — সব খবর পাবে কেমন করে?]
“एक कहानी सुनो । एक आदमी शौच के लिए जंगल गया । उसने देखा कि पेड़ पर एक जन्तु बैठा है । लौटकर उसने एक दूसरे से कहा- ‘देखो जी, उस पेड़ पर हमने एक लाल रंग का सुन्दर जीव देखा है ।’ उस आदमी ने जवाब दिया- ‘जब मैं शौच के लिए गया था तब मैंने भी देखा; पर उसका रंग लाल तो नहीं है- वह तो हरा है !’ तीसरे ने कहा- ‘नहीं जी नहीं, हमने भी देखा है, पीला है ।’ इसी प्रकार और भी कुछ लोग थे जिनमें से किसी ने कहा भूरा, किसी ने बैंगनी, किसी ने आसमानी आदि आदि । अन्त में लड़ाई ठन गयी । 
तब उन लोगों ने पेड़ के नीचे जाकर देखा । वहाँ एक आदमी बैठा था । पुछने पर उसने कहा- ‘मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ । उस जीव को मैं खूब पहचानता हूँ । तुम लोगों ने जो कुछ कहा, सब सत्य है । वह कभी लाल, कभी हरा, कभी पीला, कभी आसमानी और भी न जाने कितने रंग बदलता है । वह बहुरुपिया है । और फिर कभी देखता हूँ, कोई रंग नहीं !’
{"Listen to a story. Once a man entered a wood and saw a small animal on a tree. He came back and told another man that he had seen a creature of a beautiful red colour on a certain tree. The second man replied: 'When I went into the wood, I also saw that animal. But why do you call it red? It is green.' Another man who was present contradicted them both and insisted that it was yellow. Presently others arrived and contended that it was grey, violet, blue, and so forth and so on. At last they started quarrelling among themselves. To settle the dispute they all went to the tree. They saw a man sitting under it. On being asked, he replied: 'Yes, I live under this tree and I know the animal very well. All your descriptions are true. Sometimes it appears red, sometimes yellow, and at other times blue, violet, grey, and so forth. It is a chameleon. And sometimes it has no colour at all. Now it has a colour, and now it has none.' 
“একজন বাহ্যে গিছিল। সে দেখলে যে গাছের উপর একটি জানোয়ার রয়েছে। সে এসে আর একজনকে বললে, ‘দেখ, অমুক গাছে একটি সুন্দর লাল রঙের জানোয়ার দেখে এলাম।’ লোকটি উত্তর করলে, ‘আমি যখন বাহ্যে গিছিলাম আমিও দেখেছি — তা সে লাল রঙ হতে যাবে কেন? সে যে সবুজ রঙ!’ আর-একজন বললে, ‘না না — আমি দেখেছি, হলদে!’ এইরূপে আরও কেউ কেউ বললে, ‘না জরদা, বেগুনী, নীল’ ইত্যাদি। শেষে ঝগড়া। তখন তারা গাছতলায় গিয়ে দেখে, একজন লোক বসে আছে। তাকে জিজ্ঞাসা করাতে সে বললে, ‘আমি এই গাছতলায় থাকি, আমি সে জানোয়ারটিকে বেশ জানি — তোমরা যা যা বলছ, সব সত্য — সে কখন লাল, কখন সবুজ, কখন হলদে, কখন নীল আরও সব কত কি হয়! বহুরূপী। আবার কখন দেখি, কোন রঙই নাই। কখন সগুণ, কখন নির্গুণ।’
     “अर्थात् जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर-चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उनका स्वरूप क्या है । वही मनुष्य जानता है कि वे अनेकानेक रूपों में दर्शन देते हैं, अनेक भावों में दीख पड़ते हैं, -वे सगुण हैं और निर्गुण भी । जो पेड़ के नीचे रहता है वही जानता है कि उस बहुरुपिया के कितने रंग हैं, -फिर कभी कभी तो कोई भी रंग नहीं रहता । दूसरे लोग केवल वादविवाद करके कष्ट उठाते हैं । 
कबीर कहते थे, -‘निराकार मेरा पिता है और साकार (श्रीठाकुर) मेरी माँ ।’
{"In like manner, one who constantly thinks of God can know His real nature; he alone knows that God reveals Himself to seekers in various forms and aspects. God has attributes; then again He has none. Only the man who lives under the tree knows that the chameleon can appear in various colours, and he knows, further, that the animal at times has no colour at all. It is the others who suffer from the agony of futile argument."Kabir used to say, The formless Absolute is my Father, and God with form is my Mother.'
“অর্থাৎ যে ব্যক্তি সদা-সর্বদা ঈশ্বরচিন্তা করে সেই জানতে পারে তাঁর স্বরূপ কি? সে ব্যক্তিই জানে যে, তিনি নানারূপে দেখা দেন, নানাভাবে দেখা দেন — তিনি সগুণ, আবার তিনি নির্গুণ। যে গাছতলায় থাকে, সেই জানে যে, বহুরূপীর নানা রঙ — আবার কখন কখন কোন রঙই থাকে না। অন্য লোক কেবল তর্ক ঝগড়া করে কষ্ট পায়।
“কবীর বলত, ‘নিরাকার আমার বাপ, সাকার আমার মা।’
   “भक्त को जो स्वरूप प्यारा है, उसी रूप से वे दर्शन देते हैं-वे भक्तवत्सल हैं न । पुराण में कहा है कि वीरभक्त हनुमान के लिए उन्होंने रामरूप धारण किया था ।
{"God reveals Himself in the form which His devotee loves most. His love for the devotee knows no bounds. It is written in the Purana that God assumed the form of Rama for His heroic devotee, Hanuman.
 “ভক্ত যে রূপটি ভালবাসে, সেইরূপে তিনি দেখা দেন — তিনি যে ভক্তবৎসল। “পুরাণে আছে, বীরভক্ত হনুমানের জন্য তিনি রামরূপ ধরেছিলেন।

*कालीरूप तथा श्यामरूप की व्याख्या-'अनंतता' को जाना (नापा) नहीं जा सकता ! *

[ ‘Infinity’ can't be known] 

“वेदान्त-विचार के सामने नाम-रूप कुछ नहीं ठहरते । उस विचार का चरम सिद्धांत है- ‘ब्रह्म सत्य और नाम-रूपों वाला संसार मिथ्या’ जब तक ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान रहता है, तभी तक ईश्वर का रूप दिखायी देना और ईश्वर के सम्बन्ध में व्यक्ति (Person) का बोध रहना सम्भव है । विचार की दृष्टि से देखें तो भक्त के ‘मैं भक्त हूँ’ इस अभिमान ने उसे कुछ दूर तक रखा है ।”
{"The forms and aspects of God disappear when one discriminates in accordance with the Vedanta philosophy. The ultimate conclusion of such discrimination is that Brahman alone is real and this world of names and forms illusory. It is possible for a man to see the forms of God, or to think of Him as a Person, only so long as he is conscious that he is a devotee. From the standpoint of discrimination this 'ego of a devotee' keeps him a little away from God. 
“বেদান্ত-বিচারের কাছে রূপ-টুপ উড়ে যায়। সে-বিচারের শেষ সিদ্ধান্ত এই — ব্রহ্ম সত্য, আর নামরূপযুক্ত জগৎ মিথ্যা। যতক্ষণ ‘আমি ভক্ত’ এই অভিমান থাকে, ততক্ষণই ঈশ্বরের রূপদর্শন আর ঈশ্বরকে ব্যক্তি (Person) বলে বোধ সম্ভব হয়। বিচারের চক্ষে দেখলে, ভক্তের ‘আমি’ অভিমান, ভক্তকে একটু দূরে রেখেছে।

कालीरूप या कृष्ण -रूप (श्यामरूप) साढ़े तीन हाथ का इसलिए है कि वह दूर है । दूर होने के कारण सूर्य छोटा दीखता है । पास जाओ तो इतना बड़ा मालुम होगा कि उसकी धारणा ही न कर सकोगे । और फिर कालीरूप या श्यामरूप श्यामवर्ण क्यों है? –क्योंकि वह भी दूर है । सरोवर का जल दूर से हरा, नीला या काला दीख पड़ता है; निकट जाकर हाथ में लेकर देखो, कोई रंग नहीं । आकाश दूर ही से नीला दिखायी देता है, पास जाकर देखो तो कोई रंग नहीं ।”
{"Do you know why images of Krishna or Kali are three and a half cubits high? Because of distance. Again, on account of distance the sun appears to be small. But if you go near it you will find the sun so big that you won't be able to comprehend it. Why have images of Krishna and Kali a dark-blue colour? That too is on account of distance, like the water of a lake, which appears green, blue, or black from a distance. Go near, take the water in the palm of your hand, and you will find that it has no colour. The sky also appears blue from a distance. Go near and you will see that it has no colour at all.
“কালীরূপ কি শ্যামরূপ চৌদ্দ পোয়া কেন? দূরে বলে। দূরে বলে সূর্য ছোট দেখায়। কাছে যাও তখন এত বৃহৎ দেখাবে যে, ধারণা করতে পারবে না। আবার কালীরূপ কি শ্যামরূপ শ্যামবর্ণ কেন? সেও দূর বলে। যেমন দীঘির জল দূরে থেকে সবুজ, নীল বা কালোবর্ণ দেখায়, কাছে গিয়ে হাতে করে জল তুলে দেখ, কোন রঙই নাই। আকাশ দূরে দেখলে নীলবর্ণ, কাছে দেখ, কোন রঙ নাই।] 
“इसलिए कहता हूँ, वेदान्त-दर्शन के विचार से ब्रह्म निर्गुण है । उनका स्वरूप क्या है, यह मुँह से नहीं कहा जा सकता । परन्तु जब तक तुम स्वयं सत्य हो तब तक संसार भी सत्य है, ईश्वर के (माँ जगदम्बा के) नाम-रूप भी सत्य हैं, ईश्वर को एक व्यक्ति समझना भी सत्य है ।”
["Therefore I say that in the light of Vedantic reasoning Brahman has no attributes. The real nature of Brahman cannot be described. But so long as your individuality is real, the world also is real, and equally real are the different forms of God and the feeling that God is a Person.
“তাই বলছি, বেদান্ত-দর্শনের বিচারে ব্রহ্ম নির্গুণ। তাঁর কি স্বরূপ, তা মুখে বলা যায় না। কিন্তু যতক্ষণ তুমি নিজে সত্য, ততক্ষণ জগৎও সত্য। ঈশ্বরের নানারূপও সত্য, ঈশ্বরকে ব্যক্তিবোধও সত্য।] 
“तुम्हारा मार्ग भक्तिमार्ग है । यह बड़ा अच्छा है, सरल मार्ग है । अनन्त ईश्वर समझ में थोड़े ही आ सकते हैं? और उन्हें समझने की जरूरत भी क्या? यह दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त कर हमें वह करना चाहिए जिससे उनके चरण-कमलों में भक्ति हो ।
{"Yours is the path of bhakti. That is very good; it is an easy path. Who can fully know the infinite God? and what need is there of knowing the infinite? Having attained this rare human birth, my supreme need is to develop love for the Lotus Feet of God.}
“ভক্তিপথ তোমাদের পথ। এ খুব ভাল — এ সহজ পথ। অনন্ত ঈশ্বরকে কি জানা যায়? আর তাঁকে জানবারই বা কি দরকার? এই দুর্লভ মানুষ জনম পেয়ে আমার দরকার তাঁর পাদপদ্মে যেন ভক্তি হয়।
“यदि लोटेभर पानी से हमारी प्यास बुझे तो तालाब में कितना पानी है, इसकी नापतौल करने की क्या जरूरत? अगर अद्धेभर शराब से हम मस्त हो जायँ तो कलवार की दुकान में कितने मन शराब है, इसकी जाँच-पड़ताल करने का क्या काम? अनन्त का ज्ञान प्राप्त करने का क्या प्रयोजन?” 
{"If a jug of water is enough to remove my thirst, why should I measure the quantity of water in a lake? I become drunk on even half a bottle of wine — what is the use of my calculating the quantity of liquor in the tavern? What need is there of knowing the Infinite?
“যদি আমার একঘটি জলে তৃষ্ণা যায়, পুকুরে কত জল আছে, এ মাপবার আমার কি দরকার? আমি আধ বোতল মদে মাতাল হয়ে যাই — শুঁড়ির দোকানে কত মন মদ আছে, এ হিসাবে আমার কি দরকার? অনন্তকে জানার দরকারই বা কি?”


(६) 

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । 
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते । 
 (गीता, ३/१७) 
[ यः तु आत्मरतिः एव स्यात् आत्मतृप्तः च मानवः आत्मनि एव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥
 जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो , उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता।।"
यह एक सुविदित तथ्य है कि तृप्ति एवं सन्तोष के लिये ही हम कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। तृप्ति और सन्तोष मानो जीवनरथ के दो चक्र हैं। इन दोनों की प्राप्ति के लिये ही हम धन का अर्जन रक्षण परिग्रह और व्यय करने में व्यस्त रहते हैं। परन्तु आत्मानुभवी पुरुष अपने अनन्त-आनन्द स्वरूप में उस तृप्ति और सन्तोष का अनुभव करता है कि उसे फिर बाह्य वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जहाँ तृप्ति और सन्तोष है वहाँ सुख प्राप्ति की इच्छाओं की उत्पत्ति कहाँ? इच्छाओं के अभाव में कर्म का अस्तित्व कहाँ ? स्वाभाविक है ऐसे पुरुष के लिये कोई अनिवार्य कर्तव्य नहीं रह जाता। अतः जगत् के सामान्य नियमों में उसे बांधा नहीं जा सकता। वह ईश्वरीय पुरुष (चपरास प्राप्त नेता 'C-IN-C' नवनीदा) बनकर पृथ्वी पर (हजारीबाग, बहरागोड़ा , जानिबिघा आदि गाँव-गाँव में) विचरण करता है
निःस्वार्थ कर्म (Be and Make) के द्वारा प्राप्त अन्तःकरण की शुद्धि एवं एकाग्रता का उपयोग जब निदिध्यासन में किया जाता है तब साधक अहंकार के परे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति प्राप्त करता है। पूर्णत्व प्राप्त ऐसे सिद्ध पुरुष के लिये चित्तशुद्धि के साधन के रूप में कर्म की  कोई आवश्यता नहीं रहती,  वरन् कर्म तो उसके ईश्वर साक्षात्कार की अभिव्यक्ति मात्र होते हैं। ]

*सप्तभूमि तथा ब्रह्मज्ञान* 

वेदों में ब्रह्मज्ञानी की अनेक प्रकार की अवस्थाओं का वर्णन है । ज्ञानमार्ग बड़ा कठिन मार्ग है । विषय-वासना-कामिनी-कांचन के प्रति आसक्ति का लेशमात्र रहते ज्ञान नहीं होता । यह पथ कलिकाल में साधन करने योग्य नहीं है । 
["The various states of mind of the Brahmajnani are described in the Vedas. The path of knowledge is extremely difficult. One cannot obtain jnana if one has the least trace of worldliness and the slightest attachment to 'woman and gold'. This is not the path for the Kaliyuga.
শ্রীরামকৃষ্ণ — বেদে ব্রহ্মজ্ঞানীর নানারকম অবস্থা বর্ণনা আছে।  জ্ঞানপথ — বড় কঠিন পথ। বিষয়বুদ্ধির — কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তির লেশমাত্র থাকলে জ্ঞান হয় না। এ-পথ কলিযুগের পক্ষে নয়।
“इस विषय में वेदों में सप्तभूमि (Seven Planes) का उल्लेख है । मन इन सात सोपानों पर विचरण किया करता है । जब वह संसार में रहता है तब लिंग, गुदा और नाभि उसके निवासस्थल हैं । तब वह उन्नत दशा पर नहीं रहता-केवल कामिनी-कांचन में लगा रहता है । मन की चौथी भूमि है हृदय । तब (गुरु-दीक्षा के बाद) चैतन्य का उदय होता है, और मनुष्य को चारों ओर ज्योति दिखलायी पड़ती है । तब वह मनुष्य ईश्वरी ज्योति देखकर सविस्मय कह उठता है, ‘यह क्या है, यह क्या है तब फिर नीचे (संसार की ओर) मन नहीं मुड़ता । 
{"The Vedas speak of seven planes where the mind dwells. When the mind is immersed in worldliness it dwells in the three lower planes — at the navel, the organ of generation, and the organ of evacuation. In that state the mind loses all its higher visions — it broods only on 'woman and gold'. The fourth plane of the mind is at the heart. When the mind dwells there, one has the first glimpse of spiritual consciousness. One sees light all around. Such a man, perceiving the divine light, becomes speechless with wonder and says: 'Ah! What is this? What is this?' His mind does not go downward to the objects of the world.
“এই সম্বন্ধে বেদে সপ্তভুমির (Seven Planes) কথা আছে। এই সাতভূমি মনের স্থান। যখন সংসারে মন থাকে, তখন লিঙ্গ, গুহ্য, নাভি মনের বাসস্থান। মনের তখন ঊর্ধ্বদৃষ্টি থাকে না — কেবল কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকে। মনের চতুর্থভূমি — হৃদয়। তখন প্রথম চৈতন্য হয়েছে। আর চারিদিকে জ্যোতিঃ দর্শন হয়। তখন সে ব্যক্তি ঐশ্বরিক জ্যোতিঃ দেখে অবাক্‌ হয়ে বকে, ‘একি’! ‘একি!’ তখন আর নিচের দিকে (সংসারের দিকে) মন যায় না।
“मन की पंचम भूमि है कण्ठ । जिसका मन कण्ठ तक पहुँचा है उसकी सारी अविद्या, सम्पूर्ण अज्ञान दूर हो गया है । ईश्वरी प्रसंग के सिवा और कोई बात न तो सुनने को और न कहने को उसको जी चाहता है यदि कोई व्यक्ति दूसरी चर्चा छेड़ता है तो वह वहाँ से उठ जाता है । 
{"The fifth plane of the mind is at the throat. When the mind reaches this, the aspirant becomes free from all ignorance and illusion. He does not enjoy talking or hearing about anything but God. If people talk about worldly things, he leaves the place at once.
“মনের পঞ্চভূমি — কন্ঠ। মন যার কন্ঠে উঠেছে, তার অবিদ্যা অজ্ঞান সব গিয়ে, ঈশ্বরীয় কথা বই অন্য কোন কথা শুনতে বা বলতে ভাল লাগে না। যদি কেউ অন্য কথা বলে, সেখান থেকে উঠে যায়।
“मन की छठी भूमि कपाल है । मन वहाँ जाने से दिन रात ईश्वरीय रूप के दर्शन होते हैं । उस समय भी कुछ ‘मैं’ रहता है । वह मनुष्य उस अनुपम रूप को देखकर मतवाले की तरह उसे छूने तथा गले लगाने को बढ़ता है, परन्तु पाता नहीं । जैसे लालटेन के भीतर बत्ती जलते देखकर, मन में आता है कि छूना चाहें तो हम इसे छू सकते हैं, परन्तु काँच के आवरण के कारण हम उसे छू नहीं पाते । 
{"The sixth plane is at the forehead. When the mind reaches it, the aspirant sees the form of God day and night. But even then a little trace of ego remains. At the sight of that incomparable beauty of God's form, one becomes intoxicated and rushes forth to touch and embrace it. But one doesn't succeed. It is like the light inside a lantern. One feels as if one could touch the light, but one cannot on account of the pane of glass.
“মনের ষষ্ঠভূমি — কপাল। মন সেখানে গেলে অহর্নিশ ঈশ্বরীয় রূপ দর্শন হয়। তখনও একটু ‘আমি’ থাকে। সে ব্যক্তি সেই নিরুপম রূপদর্শন করে, উন্মত্ত হয়ে সেই রূপকে স্পর্শ আর আলিঙ্গন করতে যায়, কিন্তু পারে না। যেমন লন্ঠনের ভিতর আলো আছে, মনে হয়, এই আলো ছুঁলাম ছুঁলাম; কিন্তু কাচ ব্যবধান আছে বলে ছুঁতে পারা যায় না।}

“शिरोदेश सप्तम भूमि है । वहाँ मन जाने से समाधि होती है और ब्रह्मज्ञानी (आत्मा) ब्रह्म का प्रत्यक्ष दर्शन करता है । परन्तु उस अवस्था में शरीर अधिक दिन नहीं रहता है । सदा बेहोश, कुछ खाया नहीं जाता, मुँह में दूध डालने से भी गिर जाता है । इस भूमिका में रहने से इक्कीस दिन के भीतर मृत्यु होती है । यही ब्रह्मज्ञानियों की अवस्था है । तुम लोगों के लिए भक्ति पथ है । भक्ति पथ बड़ा अच्छा और सहज है ।
{"In the top of the head is the seventh plane. When the mind rises there, one goes into samadhi. Then the Brahmajnani directly perceives Brahman. But in that state his body does not last many days. He remains unconscious of the outer world. If milk is poured into his mouth, it runs out. Dwelling on this plane of consciousness, he gives up his body in twenty-one days. That is the condition of the Brahmajnani. But yours is the path of devotion. That is a very good and easy path. 
“শিরোদেশ — সপ্তমভূমি — সেখানে মন গেলে সমাধি হয় ও ব্রহ্মজ্ঞানীর ব্রহ্মের প্রত্যক্ষ দর্শন হয়। কিন্তু সে-অবস্থায় শরীর অধিক দিন থাকে না। সর্বদা বেহুঁশ, কিছু খেতে পারে না, মুখে দুধ দিলে গড়িয়ে যায়। এই ভূমিতে একুশ দিনে মৃত্যু। এই ব্রহ্মজ্ঞানীর অবস্থা। তোমাদের ভক্তিপথ। ভক্তিপথ খুব ভাল আর সহজ।”

* ईश्वर-लाभ के लक्षण  ~ समाधि होने पर कर्मत्याग*

“मुझसे एक मनुष्य ने कहा था, ‘महाराज, मुझे आप समाधि सिखा सकते हैं?’ (सब हँसते हैं)
"Once a man said to me, 'Sir, can you teach me quickly the thing you call samadhi?' (All laugh. “আমায় একজন বলেছিল, ‘মহাশয়! আমাকে সমাধিটা শিখিয়ে দিতে পারেন?’ (সকলের হাস্য)
“समाधि होने पर सब कर्म छूट जाते हैं । पूजा-जपादि कर्म, विषय-कर्म सब छूट जाते हैं । पहले-पहल कामों की बड़ी रेलपेल होती है, परन्तु ईश्वर की ओर जितना ही बढ़ोगे, कामों का आडम्बर उतना ही घटता जाएगा; यहाँ तक कि नामगुणकीर्तन तक छूट जाता है । (शिवनाथ से) जब तक तुम सभा में नहीं आए कि तब तक तुम्हारे नाम और गुणों की बड़ी चर्चा चलती रही । ज्योंही तुम आए कि वे सब बातें बन्द हो गयीं । तब तुम्हारे दर्शन से ही आनन्द मिलने लगा । लोग कहने लगे, ‘यह लो, शिवनाथ बाबू आ गए ।’ फिर तुम्हारे बारे में और सब बातें बन्द हो जाती हैं ।
{"After a man has attained samadhi all his actions drop away. All devotional activities, such as worship, japa, and the like, as well as all worldly duties, cease to exist for such a person. At the beginning there is much ado about work. As a man makes progress toward God, the outer display of his work becomes less and less — so much so that he cannot even sing the name and glories of God. (To Sivanath) As long as you were not here at the meeting, people talked a great deal about you and discussed your virtues. But no sooner did you arrive here than all that stopped. Now the very sight of you makes everyone happy. People now simply say, 'Ah! Here is Shivanath Babu.' All other talk about you has stopped. 
“সমাধি হলে সব কর্ম ত্যাগ হয়ে যায়। পূজা-জপাদি কর্ম, বিষয়কর্ম সব ত্যাগ হয়। প্রথমে কর্মের বড় হৈ-চৈ থাকে। যত ঈশ্বরের দিকে এগুবে ততই কর্মের আড়ম্বর কমে। এমন কি তাঁর নামগুণগান পর্যন্ত বন্ধ হয়ে যায়। (শিবনাথের প্রতি) যতক্ষণ তুমি সভায় আসনি তোমার নাম, গুণকথা অনেক হয়েছে। যাই তুমি এসে পড়েছ, অমনি সে-সব কথা বন্ধ হয়ে গেল। তখন তোমার দর্শনেতেই আনন্দ। তখন লোকে বলে, ‘এই যে শিবনাথ বাবু এসেছেন।’ তোমার বিষয়ে অন্য সব কথা বন্ধ হয়ে যায়।}
“मेरी यह अवस्था होने पर गंगा में तर्पण करने के लिए जाकर मैंने देखा, उँगलियों के भीतर से पानी गिरा जा रहा है । तब हलधारी से रोते हुए पूछा, दादा, यह क्या हो गया ? हलधारी ने कहा - इसे ‘गलित-हस्त’ कहते हैं । ईश्वर दर्शन के बाद तर्पणादि कर्म नहीं रह जाते ।
{"After attaining samadhi, I once went to the Ganges to perform tarpan. But as I took water in the palm of my hand, it trickled down through my fingers. Weeping, I said to Haladhari, "Cousin, what is this?' Haladhari replied, 'It is called galitahasta (Literally, "inert and benumbed hand".) in the holy books.' After the vision of God, such duties as the performance of tarpan drop away.
“আমার এই অবস্থার পর গঙ্গাজলে তর্পণ করতে গিয়ে দেখি যে, হাতের আঙুলের ভিতর দিয়ে জল গলে পড়ে যাচ্ছে। তখন হলধারীকে কাঁদতে কাঁদতে জিজ্ঞাসা করলাম, দাদা, একি হল! হলধারী বললে একে গলিতহস্ত বলে। ঈশ্বরদর্শনের পর তর্পণাদি কর্ম থাকে না।] 
“संकीर्तन करते समय पहले कहते हैं, ‘निताई आमार माता हाथी !’ ‘नीति आमार माता हाथी ! ’ (मेरा नीति मतवाले हाथी की तरह नाच रहा है) भाव गहरा होने पर सिर्फ ‘हाथी हाथी’ कहते हैं । इसके बाद केवल ‘हाथी’ शब्द मुँह में लगा रहता है । अन्त को ‘हा’ कहते हुए भाव-समाधि होती है । तब वे जो अब तक कीर्तन कर रहे थे, चुप हो जाते हैं ।

“जैसे ब्रह्मभोज में पहले खूब शोरगुल मचता है । जब सभी के आगे पत्तल पड़ जाती है तब गुलगपाड़ा बहुत-कुछ घट जाता है । केवल ‘पूड़ी लाओ, पूड़ी लाओ’ की आवाज होती रहती है । जब दही आया तब सप्-सप् (सब हँसते हैं ।) – शब्द मानो होता ही नहीं । और भोजन के बाद निद्रा । तब सब चुप !

“इसीलिए कहा कि पहले-पहल कामों की बड़ी रेलपेल रहती है । ईश्वर के रास्ते पर जितना बढ़ोगे उतने ही कर्म घटते जायेंगेअन्त को कर्म छूट जाते हैं । और समाधि होती है
{"Therefore I say, at the beginning of religious life a man makes much ado about work, but as his mind dives deeper into God, he becomes less active. Last of all comes the renunciation of work, followed by samadhi.
“गृहस्थ की बहू के गर्भवती होने पर उसकी सास काम घटा देती है । दसवें महीने में काम अक्सर नहीं करना पड़ता । लड़का होने पर उसका काम बिलकुल छूट जाता है । फिर वह सिर्फ लड़के की देखभाल में रहती है । घर-गृहस्थी का काम सास, ननद, जेठानी ये ही सब करती हैं ।
[অবতারাদির শরীর সমাধির পর — লোকশিক্ষার জন্য: नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) लोग शरीर की समाधि के बाद, लोकशिक्षा के लिए रख लेते हैं। ]

*नेता (Leader) आदि का शरीर समाधि के बाद लोकशिक्षा के लिए *

“ समाधिस्थ होने के बाद प्रायः शरीर नहीं रहता । किसी किसी का शरीर लोक-शिक्षण के लिए रह जाता है, - जैसे नारदादिकों का और चैतन्य जैसे अवतारपुरुषों का । कुआँ खुद जाने पर कोई कोई झौवा कुदाल फेंक देते हैं । कोई कोई रख लेते हैं, -सोचते हैं, शायद पड़ोस में किसी दूसरे को जरूरत पड़े । इसी प्रकार महापुरुष जीवों का दुःख देखकर विकल हो जाते हैं । ये स्वार्थी नहीं होते कि अपने ही ज्ञान से मतलब रखें । स्वार्थी लोगों की कथा तो जानते हो । कटी उँगली पर भी नहीं मूतते कि कहीं दूसरे का उपकार न हो जाय । (सब हँसे ।) एक पैसे की बर्फी दुकान से ले आने को कहो तो उसमें से भी कुछ साफ कर जायेंगे । (लड्डू की संख्या उतनी ही रहेगी , पर उसमें से भी कुछ झाड़ कर खा लेंगे। सब हँसते हैं ।)
{ "Generally the body does not remain alive after the attainment of samadhi. The only exceptions are such sages as Narada, who keep their bodies alive in order to bring spiritual light to others. It is also true of Divine Incarnations, like Chaitanya. After the well is dug, one generally throws away the spade and the basket. But some keep them in order to help their neighbours. The great souls who retain their bodies after samadhi feel compassion for the suffering of others. They are not so selfish as to be satisfied with their own illumination. You are well aware of the nature of selfish people. If you ask them to spit at a particular place, they won't, lest it should do you good. If you ask them to bring a sweetmeat worth a cent from the store, they will perhaps lick it on the way back. (All laugh.)
সমাধিস্থ হবার পর প্রায় শরীর থাকে না। কারু কারু লোকশিক্ষার জন্য শরীর থাকে — যেমন নারদাদির। আর চৈতন্যদেবের মতো অবতারদের। কূপ খোঁড়া হয়ে গেলে, কেহ কেহ ঝুড়ি-কোদাল বিদায় করে দেয়। কেউ কেউ রেখে দেয় — ভাবে, যদি পাড়ার কারুর দরকার হয়। এরূপ মহাপুরুষ জীবের দুঃখে কাতর। এরা স্বার্থপর নয় যে, আপনাদের জ্ঞান হলেই হল। স্বার্থপর লোকের কথা তো জানো। এখানে মোত্‌ বললে মুত্‌বে না, পাছে তোমার উপকার হয়। (সকলের হাস্য) এক পয়সার সন্দেশ দোকান থেকে আনতে দিলে চুষে চুষে এনে দেয়। (সকলের হাস্য)
“ परन्तु शक्ति की विशेषता होती है । छोटा आधार (साधारण मनुष्य) लोक-शिक्षा देते डरता है । सड़ी लकड़ी खुद तो किसी तरह बह जाती है; परन्तु एक चिड़िया के बैठने से भी वह डूब जाती है। नारदादि (जीवनमुक्त शिक्षक/नेता ) ‘बहादुरी’ लकड़ी हैं। ऐसे लकड़ी खुद भी बहती है और कितने ही मनुष्यों, मवेशियों, यहाँ तक कि हाथी को भी अपने ऊपर लेकर बह जाती है । ”

{"But the manifestations of Divine Power are different in different beings. Ordinary souls are afraid to teach others. A piece of worthless timber may itself somehow float across the water, but it sinks even under the weight of a bird. Sages like Narada are like a heavy log of wood, which not only floats on the water but also can carry men, cows, and even elephants.
“কিন্তু শক্তিবিশেষ। সামান্য আধার লোকশিক্ষা দিতে ভয় করে। হাবাতে কাঠ নিজে একরকম করে ভেসে যায়, কিন্তু একটা পাখি এসে বসলে ডুবে যায়। কিন্তু নারদাদি বাহাদুরী  কাঠ। এ-কাঠ নিজেও ভেসে যায়, আবার উপরে কত মানুষ, গরু, হাতি পর্যন্ত নিয়ে যেতে পারে।”]

(७)

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा, भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं, प्रसीद देवेश जगन्निवास ।। 
(गीता, ११/४५)

[ अदृष्टपूर्वं हृषितः अस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनः मे,  तत् एव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ ४५ ॥
मैंने ऐसा रुप पहले कभी नहीं देखा। इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और (साथ-ही-साथ) भय से मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूप को (सौम्य विष्णुरूप को)  दिखाइये। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।
 आत्मानुभव के उदय पर यह परिच्छिन्न जीव अपने बन्धनों (नामरूप) से मुक्त होकर,  अदृष्टपूर्व आनन्दलोक में प्रवेश करता है,  जहाँ वह अपनी ही अनन्तता और विशालता के प्रभाव का अनुभव कर प्रसन्न हो जाता है। इसी बात को अर्जुन दर्शाता है कि ऐसे रूप को देखकर,  जो मैंने पूर्व कभी देखा नहीं था,  मैं हर्षित हो रहा हूँ। परन्तु प्रारम्भिक प्रयत्नों में एक साधक में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वह अपने मन को दीर्घकाल तक वृत्तिशून्य स्थिति में रख सके।  ध्यान में निश्चल प्रतीत हो रहा उसका मन पुन जाग्रत होकर क्रियाशील हो जाता है। साधकों का यह अनुभव है कि ऐसे समय ....कबीरचौरा अस्पताल के निकट भ्रमभंजक गोष्ठी .....  में सोचता हैं -  मैं तो उस अनन्त -परमानन्द की अवस्था से लौटना नहीं चाहता था मुझे किसने पुनः शरीर में वापस भेज दिया ? दादा बोले तुम स्वयं लौटना चाहते होंगे। .....  मन में सर्वप्रथम जो वृत्ति उठती है वह भय (आन, क्रोध) की ही होती है। (14 अप्रैल 1992 , को ऊंच -बनारस। )]

*ब्राह्मसमाज की प्रार्थनापद्धति । ईश्वर का ऐश्वर्य-वर्णन ।*

*पूर्वकथा- दक्षिणेश्वर के राधाकान्त मन्दिर में जेवर की चोरी*

श्रीरामकृष्ण (शिवनाथ आदि से)- क्यों जी, तुम लोग इतना ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन क्यों करते हो? मैंने केशव सेन से यही कहा था । एक दिन केशव वहाँ (कालीमन्दिर) गया था । मैंने कहा, तुम लोग किस तरह लेक्चर देते हो, मैं सुनूँगा । 

गंगाघट की चाँदनी में सभा हुई, और केशव बोलने लगा । खूब बोला । मुझे भाव हो गया था । बाद में केशव से मैंने कहा, तुम सब इतना क्यों बोलते हो- हे ईश्वर, तुमने कैसे सुन्दर सुन्दर फूलों की रचना की, तुमने आकाश की सृष्टि की, तुमने नक्षत्र बनाए, तुमने समुद्र का सृजन किया, -यह सब ! जो स्वयं ऐश्वर्य चाहते हैं उन्हें ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन करना अच्छा लगता है ।

जब राधाकान्त मन्दिर का जेवर चोरी हो गया था, तब बाबू (रानी रासमणि के जामाता) राधाकान्त के मन्दिर में जाकर ठाकुरजी से बोले, ‘क्यों महाराज, तुम अपने जेवर की रक्षा न कर सके !’ मैंने बाबू से कहा - यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है ! स्वयं लक्ष्मी जिनकी दासी हैं, चरणसेवा करती हैं, उनको ऐश्वर्य की क्या कमी है? यह जेवर तुम्हारे लिए ही अमोल वस्तु है, ईश्वर के लिए तो कंकड़-पत्थर है । राम राम ! ऐसी बुद्धिहीनता की बातें न किया करो । कौन बड़ा ऐश्वर्य तुम उन्हें दे सकते हो ?’ 
{"Once a thief stole the jewels from the images in the temple of Radhakanta. Mathur Babu entered the temple and said to the Deity: 'What a shame, O God! You couldn't save Your own ornaments.' 'The idea!' I said to Mathur. 'Does He who has Lakshmi for His handmaid and attendant ever lack any splendour? Those jewels may be precious to you, but to God they are no better than lumps of clay. Shame on you! You shouldn't have spoken so meanly. What riches can you give to God to magnify His glory?'
इसीलिए कहता हूँ जिसका मन जिस पर रम जाता है वह उसी को चाहता है; कहाँ वह रहता है, उसकी कितनी कोठियाँ हैं, कितने बगीचे हैं, कितना धन है, परिवार में कौन कौन है, नौकर कितने हैं- इसकी खबर कौन लेता है? जब मैं नरेन्द्र को देखता हूँ, तब सब कुछ भूल जाता हूँ । उसका घर कहाँ है, उसका बाप क्या करता है, उसके कितने भाई हैं, ये सब बातें कभी भूलकर भी नहीं पूछी, ईश्वर के मधुर रस में डूब जाओ । उनकी सृष्टि अनन्त है, ऐश्वर्य अनन्त है । ज्यादा ढूँढ़-तलाश की क्या जरूरत ?

श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से गाने लगे - 

डूब डूब डूब रुपसागरे आमार मन। 
तलातल पाताल खुंजले पाबि रे प्रेम रत्नधन।।  

खुंज खुंज खुंज खुंजले पाबि हृदय माझे वृंदावन। 
दीप दीप दीप ज्ञानेर बाती, जोलबे हृदे अनुख्खन।। 

ड्यां ड्यां ड्यां डांगाय डिंगे, चालाय आबार शे कोन जन। 
कुबिर बोले शोन शोन शोन , भाबो गुरुर श्रीचरण।। 

गीत इस आशय का है- “ ‘ऐ मन तू रूप के समुद्र में डूबा जा । तलातल पाताल खोजने पर तुझे प्रेमरत्न-धन मिलेगा । खोज, जी लगाकर खोज । खोजने ही से तू हृदय में वृन्दावन देखेगा । तब वहाँ सदा ज्ञान की बत्ती जलेगी । भला ऐसा कौन है जो जमीन पर डोंगा चलायेगे ?” ‘ कबीर कहते हैं, तू सदा श्रीगुरु (नवनीदा) का चरण-चिन्तन कर ।’ 
{Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's Beauty; If you descend to the uttermost depths,There you will find the gem of Love. Go seek, O mind, go seek Vrindavan in your heart, Where with His loving devotees Sri Krishna sports eternally. Light up, O mind, light up true wisdom's shining lamp,And let it burn with steady flame Unceasingly within your heart. Who is it that steers your boat across the solid earth? It is your guru, says Kabir;Meditate on his holy feet.

“दर्शन के बाद कभी कभी भक्त की साध होती है कि उनकी लीला देखें । श्रीरामचन्द्रजी जब राक्षसों को मारकर लंकापुरी में घुसे तब बुड्ढी निकषा भागी । तब लक्ष्मण बोले, ‘हे राम, भला यह क्या है? यह निकषा इतनी बुड्ढी है, पुत्रशोक भी इसको कम नहीं हुआ, फिर भी इसे प्राणों का इतना भय है कि भाग रही है !’ श्रीरामचन्द्रजी ने निकषा को अभय देते हुए सामने लाकर कारण पूछा । वह बोली, ‘राम इतने दिनों तक बची हूँ, इसीलिए तुम्हारी इतनी लीला देखी । यही कारण है कि और भी बचना चाहती हूँ । न जाने और कितनी लीलाएँ देखूँ’ ।” (सब हँसते हैं ।)

*क्या पुनर्जन्म सत्य है ?*

[ हाँ, मैंने सुना है कि जन्मान्तर   होता है ।“ बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि त्व चार्जुन ” गीता ४/५ ] 

  (शिवनाथ से)- “तुम्हें देखने को जी चाहता है । शुद्धात्माओं को बिना देखे किसको लेकर रहूँगा? शुद्धात्मा पिछले जन्म के मित्र जान पड़ते हैं ।”

{(To Shivanath) "I like to see you. How can I live unless I see pure-souled devotees? I feel as if they had been my friends in a former incarnation."

एक ब्राह्मभक्त ने पूछा, - “महाराज, आप जन्मातर मानते हैं?”

{ "Sir, do you believe in the reincarnation of the soul?"

“ बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि त्व चार्जुन ” (गीता ४/५ )

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन, 'तानि अहं वेद सर्वाणि' न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥ श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते। 

किसी एक भी प्राणी का जन्म केवल  संयोग ही नहीं है। डार्विन के विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी प्रत्येक व्यक्ति जगत में विकास की सीढी पर उन्नति करने के फलस्वरूप आया हैअसंख्य और विभिन्न प्रकार के शरीरों में वास करने के पश्चात् ही जीव वर्तमान विकसित स्थिति को प्राप्त करता हुआ आया है। यद्यपि प्रत्येक नवीन देह में जीव को पूर्व जन्मों का विस्मरण हो जाता है ,तथापि वह पूर्व जन्मों में अर्जित वासनाओं से युक्त रहता है।  परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण, गुरु या नेता  की स्थिति एक साधारण जीव के समान नहीं समझनी चाहिये। उन्हें कभी भी अपने दिव्य स्वरूप का विस्मरण नहीं होता। वे  अपनी सर्वज्ञता के कारण अर्जुन के और स्वयं के अतीत को  जानते हैं अतः उन्होंने कहा मैं उन सबको जानता हूँ और तुम नहीं जानते।]  

श्रीरामकृष्ण- हाँ, मैंने सुना है कि जन्मान्तर   होता है । ईश्वर का काम हम लोग अल्पबुद्धि से कैसे समझ सकते हैं? अनेकों ने कहा है, इसलिए अविश्वास नहीं कर सकते । भीष्मदेव देह छोड़ना चाहते हैं, शरों की शय्या पर लेटे हुए हैं; सब पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ खड़े हैं । 

सब ने देखा, भीष्मदेव की आँखों से आँसू बह रहे हैं । अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले, ‘भाई, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि पितामह-जो स्वयं भीष्मदेव ही हैं; सत्यवादी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी, आठों वसुओ में से एक हैं-वे भी देह छोड़ते समय माया में पड़े रो रहे हैं ।’ यह भीष्मदेव से जब कृष्ण ने कहा तब वे बोले, ‘कृष्ण’, तुम खूब जानते हो कि मैं इसलिए नहीं रो रहा हूँ । जब सोचता हूँ कि स्वयं भगवान् पाण्डवों के सारथि हैं, फिर भी उनके दुःख और विपत्तियों का अन्त नहीं होता तब यही याद करके आँसू बहाता हूँ कि परमात्मा के कार्यों का कुछ भी भेद न पाया ।’

{MASTER: "Yes, they say there is something like that. How can we understand the ways of God through our small intellects? Many people have spoken about reincarnation; therefore I cannot disbelieve it. As Bhishma lay dying on his bed of arrows, the Pandava brothers and Krishna stood around him. They saw tears flowing from the eyes of the great hero. Arjuna said to Krishna: 'Friend, how surprising it is! Even such a man as our grandsire Bhishma — truthful, self-restrained, supremely wise, and one of the eight Vasus — weeps, through maya, at the hour of death.' Sri Krishna asked Bhishma about it. Bhishma replied: 'O Krishna, You know very well that this is not the cause of my grief. I am thinking that there is no end to the Pandavas' sufferings, though God Himself is their charioteer. (Krishna, an Incarnation of God, was Arjuna's charioteer.) A thought like this makes me feel that I have understood nothing of the ways of God, and so I weep.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ — হ্যাঁ, আমি শুনেছি জন্মান্তর আছে। ঈশ্বরের কার্য আমরা ক্ষুদ্রবুদ্ধিতে কি বুঝব? অনেকে বলে গেছে, তাই অবিশ্বাস করতে পারি না। ভীষ্মদেব দেহত্যাগ করবেন, শরশয্যায় শুয়ে আছেন, পাণ্ডবেরা শ্রীকৃষ্ণের সঙ্গে সব দাঁড়িয়ে। তাঁরা দেখলেন যে, ভীষ্মদেবের চক্ষু দিয়ে জল পড়ছে। অর্জুন শ্রীকৃষ্ণকে বললেন, ‘ভাই, কি অশ্চর্য! পিতামহ, যিনি স্বয়ং ভীষ্মদেব, সত্যবাদী, জিতেন্দ্রিয়, জ্ঞানী, অষ্টবসুর এক বসু, তিনিও দেহত্যাগের সময় মায়াতে কাঁদছেন।’ শ্রীকৃষ্ণ ভীষ্মদেবকে এ-কথা বলাতে তিনি বললেন, ‘কৃষ্ণ, তুমি বেশ জানো, আমি সেজন্য কাঁদছি না! যখন ভাবছি যে, যে পাণ্ডবদের স্বয়ং ভগবান নিজে সারথি, তাদেরও দুঃখ-বিপদের শেষ নাই, তখন এই মনে করে কাঁদছি যে, ভগবানের কার্য কিছুই বুঝতে পারলাম না।’

*भक्तों के साथ कीर्तनानन्द*

समाजगृह में संध्याकाल की उपासना शुरू हुई । रात के साढ़े आठ बजे का समय है । चाँदनी रात है । बगीचे के वृक्ष, लताएँ, कुंज आदि शरत्कालीन चन्द्रमा की निर्मल किरणों में आप्लावित हो उठे । समाजगृह में संकीर्तन हो रहा है । श्रीरामकृष्ण भगवत्प्रेम से मतवाले होकर नाच रहे हैं । ब्राह्म भक्तगण मृदंग-करताल लेकर, उन्हें घेरकर नाच रहे हैं । भाव में भरे सभी मानो ईश्वर-दर्शन कर रहे हैं । हरिनाम-ध्वनि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । चारों ओर के ग्रामवासीगण हरिनाम सुन रहे हैं और मन ही मन बगीचे के मालिक वेणीमाधव को कितना धन्यवाद दे रहे हैं। 

कीर्तन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। प्रणाम करते हुए कह रहे हैं , " भागवत भक्त भगवान , ज्ञानी के चरणों में प्रणाम है , साकारवादी भक्तों और निराकारवादी भक्तों के चरणों में प्रणाम है , पहले हो चुके समस्त ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में, और आजकल के ब्राह्मसमाज के ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में प्रणाम है। " 

{When the music had stopped, Sri Ramakrishna prostrated himself on the ground and, making salutations to the Divine Mother again and again, said: "Bhagavata — Bhakta — Bhagavan! My salutations at the feet of the jnanis! My salutations at the feet of the bhaktas! I salute the bhaktas who believe in God with form, and I salute the bhaktas who believe in God without form. I salute the knowers of Brahman of olden times. And my salutations at the feet of the modern knowers of Brahman of the Brahmo Samaj!"

वेणीमाधव ने अच्छे से अच्छे रुचिकर पकवान भक्तों को खिलाये। श्रीरामकृष्ण ने भी भक्तों के साथ आनंदपूर्वक प्रसाद पाया।   

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परिच्छेद -15 [श्रीरामकृष्ण वचनामृत : 15 नवम्बर 1882 ]

साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)/साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ] 

* सर्कस में श्रीरामकृष्ण *

* धर्मतल्ला के पथिकों के सम्बन्ध में भक्तों से बातचीत  *

श्रीरामकृष्ण गाड़ी से श्यामपुकुर विद्यासागर स्कूल के फाटक पर आ पहुँचे। दिन के तीन बजे का समय होगा। साथ में उन्होंने मास्टर को भी लिया है। राखाल तथा अन्य दो एक भक्त गाड़ी में हैं। आज बुधवार, 15 नवम्बर 1882 है। गाड़ी चितपुर रास्ते से , किले के मैदान की ओर जा रही है। 

श्रीरामकृष्ण आनन्दमय हैं। मतवाले की तरह गाड़ी से कभी इस ओर तथा कभी उस ओर मुख करके बालक की तरह देख रहे हैं और पथिकों के सम्बन्ध में भक्तों से बातचीत कर रहे हैं। मास्टर से कह रहे हैं , "देखो सब लोगों को देखता हूँ , कैसे निम्न द्रष्टि के हैं। पेट के लिए सब जा रहे हैं। ईश्वर की ओर दृष्टि नहीं है। " 

{To M. he said: "I find the attention of the people fixed on earthly things. They are all rushing about for the sake of their stomachs. No one is thinking of God."} 

श्रीरामकृष्ण आज किले के मैदान में विल्सन सर्कस देखने जा रहे हैं। मैदान में पहुंचकर टिकट खरीदी गयी। आठ आने की अर्थात अंतिम श्रेणी की टिकट। भक्तगण श्रीरामकृष्ण को लेकर ऊँचे स्थान पर जाकर एक बेंच पर बैठे। श्रीरामकृष्ण आनंद से कह रहे हैं ," वाह ! यहाँ से बहुत अच्छा दीखता है। "

सर्कस में तरह तरह के खेल काफी देर तक दिखाए गए। गोलाकार रास्ते पर घोडा दौड़ रहा है , घोड़े की पीठ पर मेम खड़ी है। फिर बीचबीच में सामने बड़े बड़े लोहे के चक्र रखे हैं। चक्र के पास आकर घोडा जब उसके नीचे से दौड़ता है , तो मेम घोड़े के पीठ से कूद  कर चक्र के बीच में से होकर फिर घोड़े पर एक पैर पर खड़ी हो जाती है। घोडा बार बार तेजी के साथ उस गोलाकार पथ पर दौड़ने लगा, मेम भी फिर उसी प्रकार पीठ पर खड़ी है। 

सर्कस समाप्त हुआ श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उतरकर मैदान में गाड़ी के पास आये। ठंढ पड़ रही थी। हरे रंग की शाल ओढ़कर मैदान में खड़े खड़े बातचीत कर रहे हैं। पास ही भक्तगण खड़े हैं। एक भक्त के साथ में आपके लिए मसाले (लौंग , इलाइची आदि ) का एक छोटा सा बटुआ है। उसमें कुछ मसाला और विशेष रूप से कबाबचीनी है।  

*पहले अभ्यासयोग -3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण , बाद में संसार।*

[spiritual practice is extremely necessary] 

श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, “देखो, मेम कैसे एक पैर के सहारे घोड़े पर खड़ी है और घोड़ा तेजी से दौड़ रहा है । कितना कठिन काम है ! अनेक दिनों तक अभ्यास किया है, तब तो ऐसा सीखा । जरा असावधान होते ही हाथ-पैर टूट जाएँगे और मृत्यु भी हो सकती है । संसार करना इसी प्रकार कठिन है। बहुत साधन-भजन करने के बाद ईश्वर की कृपा से कोई कोई इसमें सफल हुए हैं । अधिकांश लोग असफल हो जाते हैं । संसार करने जाकर और बद्ध हो जाते हैं, और भी डूब जाते हैं-मृत्यु-यन्त्रणा होती है ! जनक आदि की तरह किसी किसी ने उग्र तपस्या के बल पर संसार किया था । इसलिए साधन-भजन की विशेष आवश्यता है । नहीं तो संसार में ठीक नहीं रहा जा सकता ।” 

{Sri Ramakrishna said to M.: "Did you see how that Englishwoman stood on one foot on her horse, while it ran like lightning? How difficult a feat that must be! She must have practised a long time. The slightest carelessness and she would break her arms or legs; she might even be killed. One faces the same difficulty leading the life of a householder. A few succeed in it through the grace of God and as a result of their spiritual practice. But most people fail. Entering the world, they become more and more involved in it; they drown in worldliness and suffer the agonies of death. A few only, like Janaka, have succeeded, through the power of their austerity, in leading the spiritual life as householders. Therefore spiritual practice is extremely necessary; otherwise one cannot rightly live in the world."

শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বলিতেছেন, “দেখলে, বিবি কেমন একপায়ে ঘোড়ার উপর দাঁড়িয়ে আছে, আর বনবন করে দৌড়ুচ্ছে! কত কঠিন, অনেকদিন ধরে অভ্যাস করেছে, তবে তো হয়েছে! একটু অসাবধান হলেই হাত-পা ভেঙে যাবে, আবার মৃত্যুও হতে পারে। সংসার করা ওইরূপ কঠিন। অনেক সাধন-ভজন করলে ঈশ্বরের কৃপায় কেউ কেউ পেরেছে। অধিকাংশ লোক পারে না। সংসার করতে গিয়ে আরও বদ্ধ হয়ে যায়, আরও ডুবে যায়, মৃত্যুযন্ত্রণা হয়! কেউ কেউ, যেমন জনকাদি অনেক তপস্যার বলে সংসার করেছিলেন। তাই সাধন-ভজন খুব দরকার, তা না হলে সংসারে ঠিক থাকা যায় না।”

*बलराम के मकान पर श्रीरामकृष्ण*

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे । गाड़ी बागबाजार के बसुपाड़ा में बलराम के मकान के दरवाजे पर आ खड़ी हुई । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ दुमँजले पर बैठक घर में जा बैठे । सायंकाल है- दीया जलाया गया है । श्रीरामकृष्ण सर्कस की बातें कर रहे हैं । अनेक भक्त एकत्रित हुए हैं । उनके साथ ईश्वर-सम्बन्धी चर्चा हो रही है । मुख में दूसरी कोई भी बात नहीं है, केवल ईश्वर की बात ।

*भक्ति होने से  ही देह, मन, आत्मा (3H)  सब शुद्ध हो जाते हैं * 

[ভক্তি হলেই দেহ, মন, আত্মা — সব শুদ্ধ হয়।] 

जातिभेद के सम्बन्ध में चर्चा चली । ठाकुर ने कहा, “एक उपाय से जातिभेद समाप्त हो सकता है। वह उपाय है -भक्ति। भक्तों की जाति नहीं होती।  भक्ति होने से ही देह, मन, आत्मा (3H)  सब शुद्ध हो जाते हैं । गौर निताई हरिनाम देने लगे और चाण्डाल तक सभी को गोद में लेने लगे । भक्ति न रहने पर ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है भक्ति रहने पर चाण्डाल चाण्डाल नहीं है अस्पृश्य जाति भक्ति के होने पर शुद्ध पवित्र हो जाती है ।   

{The conversation turned to the caste-system. Sri Ramakrishna said: "The caste-system can be removed by one means only, and that is the love of God. Lovers of God do not belong to any caste. The mind (Head ), body (Hand ), and soul  (Heart) of a man become purified through divine love. Chaitanya and Nityananda scattered the name of Hari to everyone, including the pariah, and embraced them all. A brahmin without this love is no longer a brahmin. And a pariah with the love of God is no longer a pariah. Through bhakti an untouchable becomes pure and elevated."

জাতিভেদ সম্বন্ধে কথা পড়িল। ঠাকুর বলিলেন, “এক উপায়ে জাতিভেদ উঠে যেতে পারে। সে উপায় — ভক্তি। ভক্তের জাতি নাই। ভক্তি হলেই দেহ, মন, আত্মা — সব শুদ্ধ হয়। গৌর, নিতাই হরিনাম দিতে লাগলেন, আর আচণ্ডালে কোল দিলেন। ভক্তি থাকলে চণ্ডাল, চণ্ডাল নয়। অস্পৃশ্য জাতি ভক্তি থাকলে শুদ্ধ, পবিত্র হয়।”

*संसारबद्ध जीव मानो रेशम के कीड़े  ( silk-worm,गुटिपोका ) जैसे 

श्रीरामकृष्ण संसारबद्ध जीवों की बात (जो बूढ़े नाती-पोता और बैंकबैलेन्स ) कर रहे हैं । " वे मानो रेशम के कीड़े ( silk-worm) हैं । चाहे तो कोश को काटकर निकल आ सकते हैं, परन्तु काफी कोशिश से कोश बनाते हैं, छोड़कर आ नहीं सकते । इसी से मरते हैं । फिर मानो जाल में फँसी हुई मछली, जिस रास्ते से जाल के भीतर गयी है, उसी रास्ते से बाहर भी निकल सकती है, परन्तु जल की मीठी आवाज और दूसरी मछलियों के खेलकूद, -इसी में भूलकर रह जाती है । बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करती । बच्चों की अस्फुट बातें मानो जल कल्लोल का मीठा शब्द है । मछली अर्थात् जीव और उसका परिवार। परन्तु एक दो मछली जो कोशिश करके जाल से भाग जाती हैं उन्हें कहते हैं- 'मुक्त पुरुष' । "

{Speaking of householders entangled in worldliness, the Master said: "They are like the silk-worm. They can come out of the cocoon of their worldly life if they wish. But they can't bear to; for they themselves have built the cocoon with great love and care. So they die there. Or they are like the fish in a trap. They can come out of it by the way they entered, but they sport inside the trap with other fish and hear the sweet sound of the murmuring water and forget everything else. They don't even make an effort to free themselves from the trap. The lisping of children is the murmur of the water, and the other fish are relatives and friends. Only one or two make good their escape by running away. They are the liberated souls."

শ্রীরামকৃষ্ণ সংসারী বদ্ধজীবের কথা বলিতেছেন। তারা যেন গুটিপোকা, মনে করলে কেটে বেরিয়ে আসতে পারে; কিন্তু অনেক যত্ন করে গুটি তৈয়ার করেছে, ছেড়ে আসতে পারে না; তাতেই মৃত্যু হয়। আবার যেন ঘুনির মধ্যে মাছ; যে-পথে ঢুকেছে, সেই পথ দিয়ে বেরিয়া আসতে পারে, কিন্তু জলের মিষ্ট শব্দ আর অন্য অন্য মাছের সঙ্গে ক্রীড়া, তাই ভুলে থাকে, বেরিয়ে আসবার চেষ্টা করে না। ছেলেমেয়ের আধ-আধ কথাবার্তা যেন জলকল্লোলের মধুর শব্দ। মাছ অর্থাৎ জীব, পরিবারবর্গ। তবে দু-একটা দৌড়ে পালায়, তাদের বলে মুক্তজীব।

श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं - 


एमनी महामायार माया, रेखेछे की कुहक कोरे।  

ब्रह्मा विष्णु अचैतन्य,  जीवे की जानीते पारे।।  

बिल कोरे घूनि पाते मीन प्रवेश कोरे ताते।  

गताजातेर पथ आछे, तोबू मीन पालाते नारे।। 

गुटि-पोकाय गुटि कोरे पालाले ओ पालाते पारे। 

महामायार बद्ध गुटि आपनार जाले आपनि मरे।। 

এমনি মহামায়ার মায়া রেখেছ কি কুহক করে।

ব্রহ্মা বিষ্ণু অচৈতন্য জীবে কি জানিতে পারে ৷৷

বিল করে ঘুনি পাতে মীন প্রবেশ করে তাতে।

গতায়াতের পথ আছে তবু মীন পালাতে নারে ৷৷

(भावार्थ)- “ महामाया की विचित्र माया है, कैसा मोह-जाल फैला रखा है ! जिसके प्रभाव से ब्रह्मा विष्णु भी अचैतन्य होकर पड़े हैं, फिर जीव की क्या बात? बिछे हुए जाल के छेद से ही मछली जाल में प्रवेश करती है, उस जाल से निकलने का रास्ता भी वही है , किन्तु आने-जाने का एक ही रास्ता रहते हुए भी फिर उसमें से भाग नहीं पाती ।”  

{When such delusion veils the world, through Mahamaya's spell, That Brahma is bereft of sense, And Vishnu loses consciousness, What hope is left for men? The narrow channel first is made, and there the trap is set; But open though the passage lies, The fish, once safely through the gate, Do not come out again. The silk-worm patiently prepares its closely spun cocoon; Yet even though a way leads forth, Encased within its own cocoon, The worm remains to die.

श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “जीव मानो दाल है । चक्की में पड़े हैं, पिस जाएँगे । परन्तु जो थोड़े से दाल के दाने खूँटी को पकड़कर रहते हैं वे नहीं पिसते । इसलिए खूँटी अर्थात् ईश्वर की शरण में जाना चाहिए । उन्हें पुकारो, उनका नाम लो, तब मुक्ति होगी । नहीं तो कालरुपी-चक्की में पिस जाओगे ।” 

श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं- 

पोड़िये भवसागरे डूबे माँ तनूर तरी।  

माया-झड़ मोह-तुफान क्रमे बाड़े गो शंकरी।।  

एके मन-माझी अनाड़ी, ताई छजन गोंयाड़  दांड़ी;

कुबातासे दिये पाड़ि, हाबूडूबू खेये मरि।  

भेंगे गेलो भक्तीर हाल, छिंड़े पोड़लो श्रद्धार पाल, 

तरि होलो बानचाल, उपाय की कोरी; -  

उपाय ना देखे आर, अकिंचन भेबे सार,  

तरंगे दिये सांतार, श्रीदुर्गानामेर भेला धोरि।। 

পড়িয়ে ভবসাগরে ডুবে মা তনুর তরী।

মায়া-ঝড় মোহ-তুফান ক্রমে বাড়ে গো শঙ্করী ৷৷

একে মন-মাঝি আনাড়ি, তাহে ছজন গোঁয়াড় দাঁড়ি;

কুবাতাসে দিয়ে পাড়ি, হাবুডুবু খেয়ে মরি।

ভেঙে গেল ভক্তির হাল; ছিঁড়ে পড়ল শ্রদ্ধার পাল,

তরী হল বানচাল, উপায় কি করি; —

উপায় না দেখি আর, অকিঞ্চন ভেবে সার;

তরঙ্গে দিয়ে সাঁতার, শ্রীদুর্গানামের ভেলা ধরি ৷৷

(भावार्थ)- “माँ, भवसागर में पड़कर शरीर रूपी यह नौका डूब रही है । हे शंकरि, माया की आँधी और मोह का तूफान अधिकाधिक तेज हो रहा है । एक तो मनरूपी माझी अनाड़ी है; उस पर छः खेवैये गँवार हैं । आँधी में मँझधार में आकर डूबा जा रहा हूँ । भक्ति का डाँड़ टूट गया, श्रद्धा का पाल फट गया, नाव काबू से बाहर हो गयी, अब मैं उपाय क्या करूँ? और तो कोई उपाय नहीं दीखता, सोचकर लाचार हो रहा हूँ । तरंगों में तैरते हुए 'श्रीदुर्गा'-नामरूपी -' पतवार ’ को पकड़ता हूँ ।”  

{Mother! Mother! My boat is sinking, here in the ocean of this world; Fiercely the hurricane of delusion rages on every side! Clumsy is my helmsman, the mind; stubborn my six oarsmen, the passions; Into a pitiless wind I sailed my boat, and now it is sinking! Split is the rudder of devotion; tattered is the sail of faith; Into my boat the waters are pouring! Tell me, what shall I do? For with my failing eyes, alas! nothing but darkness do I see. Here in the waves I will swim, O Mother, and cling to the raft of Thy name!

*चरित्र-निर्माण नहीं होने से धनी पुनः दरिद्र हो जाते हैं * 

विश्वास बाबू बहुत देर से बैठे थे, अब उठकर चले गए । उनके पास काफी धन था, परन्तु चरित्र भ्रष्ट हो जाने से सारा धन उड़ गया । अब स्त्री, कन्या आदि किसी को नहीं देखते हैं । बलराम के उनकी बात उठाने पर श्रीरामकृष्ण बोले, “ वह अभागा दरिद्री है । गृहस्थ के कर्तव्य हैं, ऋण हैं; देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण –फिर परिवार का ऋण है । सती स्त्री होने पर उसका पालन-पोषण, सन्तान जब तक योग्य नहीं बन जाते हैं, तब तक उनका पालन-पोषण करना पड़ता है । 

“साधु ही केवल संचय नहीं करेगा । ‘पंछी और दरवेश’ संचय नहीं करते हैं । परन्तु मादा पक्षी के बच्चा होने पर वह संचय करती है । बच्चे के लिए मुख से उठाकर खाना ले जाती है ।” 

{Mr. Viswas had been sitting in the room a long time; he now left. He had once been wealthy but had squandered everything in an immoral life. Finally he had become indifferent to his wife and children. Referring to Mr.  Viswas, the Master said: "He is an unfortunate wretch. A householder has his duties to discharge, his debts to pay: his debt to the gods, his debt to his ancestors, his debt to the rishis, and his debt to wife and children. If a wife is chaste, then her husband should support her; he should also bring up their children until they are of age. Only a monk must not save; the bird and the monk do not provide for the morrow. But even a bird provides when it has young. It brings food in its bill for its chicks.

বিশ্বাসবাবু অনেকক্ষণ বসিয়াছিলেন, এখন উঠিয়া গেলেন। তাঁহার অনেক টাকা ছিল, কিন্তু চরিত্র মলিন হওয়াতে সমস্ত উড়িয়া গিয়াছে। এখন পরিবার, কন্যা প্রভৃতি কাহাকেও দেখেন না। বলরাম তাঁহার কথা পাড়াতে ঠাকুর বলিলেন, “ওটা লক্ষ্মীছাড়া দারিদ্দির। গৃহস্থের কর্তব্য আছে, ঋণ আছে, দেব-ঋণ, পিতৃ-ঋণ, ঋষি-ঋণ আবার পরিবারদের সম্বন্ধে ঋণ আছে। সতী স্ত্রী হলে তাকে প্রতিপালন; সন্তানদিগকে প্রতিপালন যতদিন না লায়েক হয়।

*मलयानिल पवन लगने भी सेमल-बड़-अमड़ा आदि के पेड़ चन्दन नहीं बनते*    

बलराम- अब विश्वास बाबू को साधु संग करने की इच्छा है । 

{BALARAM: "Mr. Viswas now wants to cultivate the company of holy people."

বলরাম — এখন বিশ্বাসের সাধুসঙ্গ করবার ইচ্ছা।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- साधु का कमण्डलु चार धाम ^ [^ भारत के चार प्रमुख तीर्थस्थान, हिमालय में केदारनाथ, पश्चिम में द्वारका, दक्षिण में रामेश्वर और पूर्व में पुरी।] घूमकर आता है, परन्तु वैसा ही कडुआ का कडुआ रहता है । मलय की हवा जिन पेड़ों को लगती है वे सब चन्दन हो जाते हैं, परन्तु सेमल, बड़  ^  आदि चन्दन नहीं बनते । कोई कोई साधु संग करते हैं गाँजा पीने के लिए ! (हँसी) साधु लोग गाँजा पीते हैं, इसलिए उनके पास आकर बैठते हैं, गाँजा तैयार कर देते हैं और प्रसाद पाते हैं । (सभी हँस पड़े।

{MASTER (with a smile): "A monk's kamandalu goes to the four principal holy places4 with him, but it still tastes bitter. Likewise, it is said that the Malaya breeze turns all trees into sandal-wood. But there are a few exceptions, such as the cotton-tree, the aswattha ^,( ^ दादा  और कुम्भ मेला ने कहा था -'अमुक ') and the hog plum.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সাধুর কমণ্ডলু চারধামে ঘুরে আসে, কিন্তু যেমন তেতো, তেমনি তেতো থাকে। মলয়ের হাওয়া যে গাছে লাগে, সে-সব চন্দন হয়ে যায়! কিন্তু শিমুল, অশ্বত্থ, আমড়া এরা চন্দন হয় না। কেউ কেউ সাধুসঙ্গ করে, গাঁজা খাবার জন্য। (হাস্য) সাধুরা গাঁজা খায় কিনা, তাই তাদের কাছে এসে বসে গাঁজা সেজে দেয় আর প্রসাদ পায়। (সকলের হাস্য)

"Some frequent the company of holy men in order to smoke hemp. Many monks smoke it, and these householders stay with them, prepare the hemp, and partake of the prasad."

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